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*●•घरेलू झगड़ों से निजात•●*
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*⊙⇨ हमारी मुआशरती जिंदगीः-*
*★_ इंसान फितरी तौर पर मिल जुल कर रहने का आदी है। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने उसे सोचने के लिये दिमाग़ दिया, महसूस करने के लिये दिल अता किया, तो यह जज़्बात, एहसासात रखने वाला इंसान अकेला जिंदगी नहीं गुज़ार सकता। यह कैसे मुमकिन है कि मां खुद तो खा लें जबकि उसका बच्चा उसकी आंखों के सामने भूक से तड़पता रहे! यह कैसे हो सकता है कि बेटी बीमार हो और बाप उसके इलाजे मुआलजे के लिये तवज्जोह ही न दे। इसी लिये इंसान एक मुआशरे में रहना पसंद करता है, इसको घरेलू ज़िंदगी कहते हैं,*
*★_ एक इंसान के बीवी, बच्चे, यह सब मिलकर घराना बनते हैं, फिर कई घराने मिलकर एक खानदान बनता है। कई खानदान मिलकर एक मुआशरा बनता है। शहर आबाद होते हैं, मुल्क आबाद होते हैं। इसी तरह आज दुनिया आबाद है तो इस तरह मिल जुल कर रहने को मुआशरती जिंदगी कहते हैं।*
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*⊙⇨ फ़साद अल्लाह तआला को नापसंद हैः-*
*★_ लेकिन इसमें एक चीज़ देखी गई है कि जिस तरह बर्तन इकट्ठे रहें तो खटकते हैं, इंसान जब मिलुल कर रहते हैं तो उनको बसा औकात एक दूसरे के साथ रंजिशें हो जाती हैं। कभी इंसान Over Expect (ज़्यादा तवक्कोअ) कर लेता है, दूसरा बंदा उसको पूरा नहीं कर सकता तो इस पर रंजिश हो जाती है। कभी दूसरे के किसी Behaviour (रवय्ये) की वजह से इंसान का दिल टूटता है। तो किसी न किसी तरह आपस में उलझाव रहता है। शैतान इस सूरतेहाल से फाएदा उठाता है और फिर दिलों के अंदर एक दूसरे के खिलाफ नफरतें और कुदूरतें पैदा होती हैं।*
*★_ कभी तो आपस में सर्द जंग शुरू हो जाती है और कभी गर्म जंग शुरू हो जाती है, इसका नाम फसाद है। और क़ुरान मजीद में आया है कि:-*
*"_ (وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ)*
*"_कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त फसाद को पसंद नहीं करते,*
*★_ आज फसाद आम है:- आज कौनसा घर है जहां आपस में एक दूसरे के साथ रंजिशें न हों। कहीं बहन भाई में रंजिशें, कहीं औलाद और मां बाप के दर्मियान रंजिशें, कहीं आपस में मियां बीवी के दर्मियान लड़ाईयां, कहीं सास बहू के झगड़े और कहीं पर पड़ोसी और पड़ोसी के झगड़े। और दफ्तरों की हालत तो बताने के काबिल ही नहीं,*
*★_ जहां चंद बंदे मिलकर रहते हैं काम करते हैं, एक दूसरे के साथ हसद की इंतिहा होती है। Professional Jealousy (पेशावाराना हसद) इस कद्र होती है जिस को अल्लाह इज़्ज़त देता है, बढ़ाता है, दूसरे मिलकर उसकी टांगें खींचते हैं। दफ्तरों का ज़्यादा वक़्त एक दूसरे के खिलाफ प्लानिंग करने में, एक दूसरे को नीचा दिखाने में और एक दूसरे को रुसवा करने में या गीबत करने में गुज़र जाता है। एक मुसलमान मुआशरे में यह चीजें इंतिहाई नापसंदीदा हैं।*
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*⊙⇨बच्चों के झगड़े - बच्चे कच्चे होते हैं:-*
*★_ एक बुनियादी बात ये है कि बच्चे कच्चे होते हैं, उनके दिमाग अभी पुख्ता नहीं होते, उनका कोई तजुर्बा नहीं होता, छोटी उम्र होती है तो अपने कच्चे ज़ेहन की वजह से बच्चों वाली बातें करते हैं, तो बच्चों से बच्चों वाली बातों की ही तवक्को़ रखनी चाहिए, लिहाज़ा माँओं और बहनों को चाहिए कि बच्चों से बड़ों वाली बातों की तवक्को़ मत करो,*
*★_ बच्चा जब बचपन की उम्र में है, ज़ेहन कच्चा है, तजुर्बे नहीं है, तो वो बचकाना बातें और हरकते तो करेगा, लिहाज़ा तवक़्क़ो का लेवल भी उसी तरह रखना चाहिए, बचपन तो बचपन ही होता है, बड़े-बड़े औलिया का बचपन भी इसी तरह गुज़रा कि उन्होंने बचपन में ऐसे ही बचकाना फितरत वाले कच्चे काम किए जो आम तोर पर बच्चे करते हैं,*
*★_ नबी करीम ﷺ के बचपन का एक वाक़िया:- नबी करीम ﷺ के बचपन के वाकियात मोरखीन ने बहुत थोड़े लिखे हैं, सीरत की किताबों में आपकी जवानी के वाक़ियात देखें तो वो अगर 99 फीसद हैं तो बचपन के वाक़ियात एक फीसद भी नहीं मिलते, वजह ये है कि कोई जानता भी नहीं था के ये बच्चा जो आज गोद मे पल रहा है, इसने बड़े हो कर पूरी दुनिया का मोअल्लिम बनना है और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का मेहबूब होना है, इसलिए बचपन के वाकियात किताबों में इतने ज़्यादा नहीं क़लमबंद किये गए, चंद एक वाकियात है जिनमे से कुछ वाकियात तो नबी करीम ﷺ ने खुद ही बतला दिए,*
*★_ आम तोर पर बच्चे की आदत होती है कि उसके जब दांत निकल रहे हों तो कोई चीज़ भी उसके मूंह में डालो तो वो उसको काटता है, आप उंगली दें तो उंगली को काटेगा, अपनी हथेली दें तो हथेली को काटेगा, ये बच्चे की फितरत है, गालिबन ऐसी ही उम्र होगी कि एक मर्तबा आप ﷺ की रजा़ई बहन शीमा ने आपको उठाया और आपको कांधे से लगाया तो नबी करीम ﷺ ने कांधे पर दंदाने मुबारक से काटा, ये इतना ज़्यादा था कि उसके निशान पड़ गए,*
*★_ अल्लाह की शान देखे कि ये निशान उनके रहा, एक मर्तबा किसी गज़वा में उनके कबीले के लोगों को गिरफ्तार कर के लाया गया, शीमा उस वक्त बूढ़ी हो चुकी थी, वो नबी करीम ﷺ की खिदमत में आई और उन्हें आ कर बताया कि मै आपकी बहन हूं, नबी करीम ﷺ ने फरमाया कि मैं तो अपने बाप का एक ही बेटा हूं, आप मेरी बहन कैसे? उन्होंने बताया कि मैं हलीमा की बेटी आपकी रजा़ई बहन हूं,*
*★_ निशानी के तोर पर उन्होंने कहा कि एक मर्तबा मैंने आपको उठाया था तो आपने मुझे काटा था और मेरे जिस्म पर वो निशान आज भी मौजूद है, नबी करीम ﷺ ने उस निशान को देखा तो आपको भी याद आ गया कि बचपन में ऐसा मामला पेश आया था, उसके बाद नबी करीम ﷺ ने अपनी चादर बिछाई और अपनी बहन को उस चादर पर बिठाया,*
*"_ देखिए कि आप ﷺ मुस्तक़बिल के मोअल्लिम ए इंसानियत थे लेकिन आप ﷺ से भी बचपन में बचकाना फितरत का इज़हार हो रहा है, इसलिए वाल्देन को चाहिए कि बच्चों से बचपन वाली बातों की ही तवक्को़ रखें कि बचपन की उम्र है, ज़ेहन कच्चा है, तजुर्बा नहीं है, तो वो इस क़िस्म की बातें और हरकतें करेगा, ना करे तो उसे बच्चा कोन कहेगा,*
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*⊙⇨बच्चा या बुढ्ढा :-*
*★_ हज़रत मिर्ज़ा मज़हर जान जानां ने एक मर्तबा हज़रत शाह गुलाम अली देहलवी से फरमाया- गुलाम अली किसी बच्चे को हमारे पास ले आना, हज़रत शाह साहब अपने घर गए और बच्चे को हज़रत की खिदमत में लाने के लिए तैय्यार किया, काफी देर उसे समझाते रहे कि हजरत की खिदमत में ऐसे बैठना और ऐसा करना, ऐसे न करना, बच्चा जब अच्छी तरह मामला समझ गया तो अगले दिन हजरत शाह साहब उसे हजरत की खिदमत में लाऐ,*
*★_ बच्चे ने सलाम किया और बाअदब एक तरफ़ बैठ गया, कुछ देर गुज़री तो हज़रत ने फरमाया, "गुलाम अली हमने तो कहा था कि किसी बच्चे को हमारे पास ले आना_," हज़रत शाह साहब ने अर्ज़ किया - हज़रत बच्चे ही को तो ले आया हूँ, हज़रत ने फरमाया - "ये कोई बच्चा है ये तो बुढ्ढा मालूम होता है_,*
*★_ यानी बच्चा तो उस वक्त अच्छा लगता है जब बच्चों वाली बाते करे, उछल कूद करे, आपने तो बच्चे को बूढ़ा बना कर बिठा दिया, वो लगता ही नहीं कि बच्चा है _,*
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*⊙⇨शेख सादी रह. बचपन का वाकिया:-*
*★_ देखिये ! हज़रत शेख सादी रह. अपनी बात खुद बतलाते हैं, फरमाते हैं कि मुझे मेरी वालिदा ने सोने की अंगुठी पहना दी, मैं वो अंगूठी पहन कर बाहर गली में निकला तो एक ठग मिल गया, उस ठग के पास गुड़ की डली थी, उसने मुझे उठा कर प्यार किया और मुझे कहने लगा कि तुम अपनी अंगुठी को चखो ! मैंने अंगुठी को ज़ुबान से लगाया तो बेज़ायका़ थी, फ़िर उसके बाद उसने गुड़ की डली दी कि इसको चखो ! जब मैंने गुड़ को चखा तो बड़ा मज़ेदार था, कहने लगा कि मज़ेदार चीज़ ले लो और बेमज़ा चीज दे दो,*
*★_ कहने लगे कि मुझे गुड़ का इतना मज़ा आया कि मैने अंगुठी उतार कर दे दी और गुड़ की डली लेकर घर वापस आ गया, अब बच्चे थे कच्चे थे, गुड़ की डली के बदले सोने की अंगुठी देकर आ गए, तो इस उम्र में इंसान गलतियाँ भी करता है और सीखता भी है_,*
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*⊙⇨बच्चे घर के माहोल के मुताबिक ही खेलते हैं':-*
*★_ बच्चे जो कुछ खेलते हैं तो वो भी अपने घर के माहोल के मुताबिक ही खेलते हैं, वो अपने बड़ो को जो करते देखते हैं फिर वही उनका खेल बन जाता है, इसलिए हर घर का बच्चा अपने घर वालों के माहोल और मिज़ाज के मुताबिक ढलता है, मौलाना तलहा रहमतुल्लाहि अलैहि खुद एक मर्तबा फरमाने लगे कि मैं छोटा सा था, गली में बैठा हुआ था और एक बच्चे को बैत कर रहा था, इसलिए कि मैंने अपने वालिद को बैत करते देखा था,*
*★_ अब मैं छोटा सा और एक बच्चे को बैत के कलमात पढ़ा रहा था, उसके हाथ अपने हाथ में लिए हुए थे, अल्लाह की शान कि उधर से हजरत मदनी रहमतुल्लाहि अलैहि तशरीफ़ ले आए, उन्होंने मुझे देखा तो चुंकी शफक़त बहुत थी, शेखुल हदीस के साथ बहुत ज़्यादा गहरा ताल्लुक़ था, मुझे देखा तो वो कहने लगे कि साहबजा़दे साहब! हमें भी बैत कर लो, कहने लगे, मैंने कहा- आइए बैठ जाएं! मुझे क्या पता था कि ये बड़े मियां कौन हैं? तो मैने हज़रत मदनी रह. के हाथ अपने हाथ में पकड़े और मैंने कुछ कलमात पढ़ कर कहा, अच्छा मैंने आपको बैत कर लिया_,*
*"_ तो देखो! बच्चा है लेकिन वो हज़रत मदनी रह. को बैत कर रहा है, बच्चे इस तरह के काम करते हैं,*
*★_ मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाहि अलैहि फरमाते हैं कि मैं छोटा सा था तो घर में वालिद साहब का अमामा पड़ा हुआ था, मैं क्या करता! अपनी बहनो को इकठ्ठा कर लेता और अपने सर पे अमामा रखता और बड़ी शान से चलता और मैं बहनो को कहता - हटो रास्ता दो, देहली के मौलाना आ रहे हैं, इसलिए कि बचपन में मैंने सुना हुआ था कि देहली में कोई बड़े मौलाना रहते हैं, और फिर मैं अपनी बहनों को कहता कि तुम लोग मेरा इस्तक़बाल करो और इस्तक़बाल में तुम नारे लगाओ! अब बहनें कहती हैं कि हम क्यों नारे लगाएंगे? इसलिए कि मौलाना जो आ रहे हैं, तो वो कहती कि नहीं मौलाना के इस्तक़बाल के लिए तो हज़ारों लोग होते हैं, हम तो दो हैं, तो वो कहते कि नहीं तुम यूंही समझ लो कि तुम हज़ारों हो और मेरा इस्तक़बाल कर रहे हो, लिहाजा तुम नारे लगाओ!* *"_ अब छोटा सा बच्चा! देखो! अपनी बहनो के साथ किस तरह खेल रहे हैं_,*
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*⊙⇨ छोटे बच्चों की समझ छोटी होती है:-*
*★_ कहने लगे कि मैं छोटा था तो एक दिन अम्मी अब्बू आपस में बैठकर बात कर रहे थे तो किसी ने कहा कि क़यामत का दिन होगा, बहुत गर्मी होगी और सूरज तो सवा नेज़े पे होगा और पसीना होगा और बहुत मुश्किल होगी, तो सारी बाते सुन कर मैं हंस पड़ा, तो अम्मी ने कहा के बेटे हंस क्यों रहे हो? तो मैंने कहा- अम्मी जब इतनी ज्यादा गर्मी होगी तो मैं गर्मी से बचने के लिए कमरे में चला जाऊंगा, तो कहने लगे - सारे घर वाले हंसने लगे_,*
*★_ अब हश्र की गर्मी का तज़किरा और बच्चे का हाल देखो कह रहा है कि अम्मी उस गर्मी से बचने के लिए मैं उस दिन कमरे में चला जाऊंगा, तो बच्चे की इतनी ही सोच होती है और इतना ही उसका मामला होता है,*
*★_ चुनाचे हजरत मौलाना खलील अहमद सहारनपुरी रह. के घर में एक खादीमा काम करती थी और उस खादीमा का नाम रहमती था, वो करीब ही रहती थी, उसने एक बकरी भी पाली हुई थी, चुनांचे उस बकरी ने एक बच्चा दिया, मौलाना यूसुफ रह. (जो हज़रत मौलाना इलियास रह. के साहबज़ादे थे और जानशीन थे ) बचपन की उम्र में थे और वो हज़रत मौलाना खलील अहमद सहारनपुरी रह. के यहां आया जाया करते थे,*
*★_ फरमाते हैं कि मै जब वहां जाता था तो मुझे वो बकरी का छोटा सा बच्चा बहुत अच्छा लगता था, तो मैं अक्सर उस बकरी के बच्चे के साथ खेलता था, तो एक दफा क्या हुआ कि लोग आपस में हज की बातें कर रहे थे कि हमने हज पे जाना है, मैं उनकी बातें सुनता रहा सुनता रहा, तो आखिर में मैंने कहा कि हां मैं भी हज पर जाऊंगा, तो किसी ने पूछ लिया कि कैसे हज पर जाओगे? मैंने कहा कि रहमती की बकरी का जो छोटा बच्चा है मैं उसकी पीठ पर सवार होकर हज के लिए जाऊंगा _,*
*★_ अब देखो! छोटा सा बच्चा बचपन की उम्र में ये जवाब दे रहा है कि मैं बकरी के बच्चे की पीठ पर बैठ कर हज करूंगा, कहने लगे - ये बात इतनी मशहूर हुई कि मौलाना खलीलुर्रहमान सहारनपुरी रह. जब भी कभी मुझे मिलते तो मुझे देख कर कहते, हां सुनाओ बच्चे! तुम हज पर कैसे जाओगे और मैं आगे से कह देता कि बकरी के बच्चे की पीठ पर बैठ कर हज करूंगा, तो हजरत मुस्कुराया करते थे,*
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*⊙⇨ ज़िम्मेदाराना तर्ज़े अमल:-*
*★_ कुछ बच्चे ऐसे होते हैं कि जिनमें शुरू से ही अहसासे ज़िम्मेदारी होता है और लड़कपन में ही वो बड़े ज़िम्मेदार बन कर रहते हैं, जेसे हज़रत मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह रह. फरमाते हैं कि बचपन में मेरे घर के हालात गरीबी के थे मगर मैंने किसी से टोपियां बनाना सीख लिया था, जैसे औरतें कुरैशिये के साथ बैठ कर मुख्तलिफ चीजें बनाती रहती हैं, कहने लगे कि बस मै भी इसी तरह बैठ कर टोपियां बनाता रहता था, हत्ताकि कई मर्तबा उस्ताद क्लास में पढ़ा रहा होता था और मै पीछे बैठा रहता था, सबक़ भी सुन रहा होता था और साथ ही टोपी भी बना रहा होता था, मगर अल्लाह ने ज़ेहन ऐसा दिया था कि साथ वाले बच्चे अगर कोई चीज़ नहीं समझ सकते था तो मैं टोपी बनाना छोड़ कर उनको वो बात सुना देता था, तो वो हैरान होते कि तुम टोपियां बनाते हुए उस्ताद का दर्स सुनते हो और इतना तुम्हें याद होता है,*
*★_ फरमाते हैं कि मैं इस तरह टाइम बचा कर टोपियां बनाता, उनको बेचता और उससे जो मुझे थोड़े से पैसे मिलते थे उससे मैं अपने मदरसे का खर्चा चलाता था, तो बाज़ बच्चे ऐसे भी होते हैं बचपन में उनको अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त अहसासे ज़िम्मेदारी दे देता है_,*
*★_ख़ुद हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. फरमाते हैं कि मैं अपनी बस्ती से जब दारुल उलूम में पढ़ने के लिए आता तो सर्दियो की रातों में इम्तिहानों के क़रीब ज़रा देर तक पढ़ना होता था, तैय्यारी करनी होती थी, जब मैं वापस लोट के आता तो घर के सारे लोग सोए हुए होते थे, अम्मी उठती और उस वक्त मुझे खाना गरम कर के देती तो मैं अम्मी की मन्नत समाजत करता कि आप क्यों सर्दियों में उठती हैं? बस आप खाना रख दिया करें, मैं खुद ही आकर खा लिया करुंगा, बड़ी मुश्किल से अम्मी को मैंने मनाया,*
*★_ फरमाते हैं कि मै जब आता तो सालन जमा हुआ होता, मै उसके ऊपर से जमी हुई तेह हटा दिया करता था और ठंडा खाना खा कर गुजा़रा कर लेता था, लेकिन मैं अपनी तालीम में हर्ज नहीं आने देता था,*
*★_ अब देखो! जिन बच्चों के अंदर बचपन लड़कपन से युं इल्म का शगफ हो, शोक हो, तलब हो, अहसासे ज़िम्मेदारी हो और वो इल्म की खातिर इस तरह अपनी ज़रूरतों को भी क़ुर्बान करें, ये वो बच्चे होते हैं जो अपनी जवानी में आसमाने इल्म पर सितारे बन कर चमकते है_,*
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*⊙⇨ अच्छी दोस्ती के असरात:-*
*★_ बचपन में बच्चे का ज़ेहन कच्चा होता है, माँ बाप को ये चाहिए कि वो इस बात पर बहुत ज़्यादा तवज्जो दें कि वो किनके साथ खेल रहा है, इसलिए कि दोस्त से वो इतना कुछ सीखता है कि जितना माँ बाप से नहीं सीखेगा, बच्ची है तो सहेली से सीखेगी, बच्चा है तो अपने दोस्त से सीखेगा,*
*★_ इसीलिए मौलाना याहया रह. फरमाते थे कि अगर बच्चा बिल्कुल कुंद ज़हन हो लेकिन दोस्त उसका नेक हो तो उस बच्चे की कश्ती कभी ना कभी किनारे लग जाएगी, और बच्चा कितना ही ज़हीन क्यूं ना हो, अगर दोस्त उसका बुरा हो तो कभी ना कभी उसकी कश्ती बीच दरिया में डूब जाएगी,*
*★_चुनांचे उन्होंने हजरत शेखुल हदीस रह. की कितनी अच्छी तरबियत की कि उनके बेटे फिर अपने वक्त के शेखुल हदीस बने और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने उनको क्या कुबूलियते आम्मा अता फ़रमाई,*
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*⊙⇨ज़िद का इलाज कैसे किया?*
*★_ मां बाप को मालूम होना चाहिए कि बच्चे को इस उम्र में डील कैसे करना है, हजरत मुफ्ती रशीद अहमद गंगोई रह. फरमाते हैं कि एक मर्तबा वालिदा ने दूध दिया हम दो भाईयों को, मेरा बड़ा भाई था और मैं, तो मैं ज़िद करने लगा कि पहले मैं पियुंगा, चुंकी वालिदा ने गिलास भाई के हाथ में दिया था इसलिए भाई ने कहा कि नहीं पहले मैं ही पियुंगा, अब मैं जितना रो रहा हूं, ज़िद कर रहा हूं, भाई कहता है हरगिज नहीं मैं पहले पिऊंगा,*
*★_ कहने लगे कि जब ज़्यादा रोया धोया और उधम मचाया तो भाई ने गुस्से में आ कर अपना भी दूध पी लिया और मेरे हिस्से का भी दूध पी लिया और खाली गिलास एक तरफ को रख दिया कि अब तुम्हें दूध मिलना ही नहीं, फरमाते है कि ऐसा ये वाक़िया मेरे ज़ेहन पर नक़्श हुआ कि उसके बाद पूरी ज़िंदगी मैंने कभी भी ज़िद ना की, ये सोचते हुए कि ज़िद करने से तो इंसान अपने हिस्से से भी महरूम हो जाया करता है, तो एक सबक़ सीखा उन्होंने उस बचपन की ज़िंदगी में,*
*★_हां! बच्चों के झगड़े में ये बात समझें कि झगड़े होने के तीन क़दम होते हैं, पहला क़दम ये होता है कि कोई चीज़ बच्चे को पसंद नहीं आती वो उसे नापसंद होती है, फिर दूसरा क़दम होता है कि उस नापसंदीदा चीज़ या बात पर उसको नाराज़गी हो जाती है और नाराज़गी के बाद तीसरा क़दम फिर झगड़ा बनता है, यानी झगड़ा एक दम नहीं हो जाता बल्कि झगड़े से पहले दो क़दम होते हैं _,
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*⊙⇨रोते बच्चों को कैसे डील करें:-*
*★_ मांओं की खिदमत में गुजारिश है कि खेलने वाले छोटी उम्र के बच्चे जब किसी बात पर रोना शुरू कर दें तो आप फोरन तैश में मत आ जाएं, बच्चे बच्चे हैं, हो सकता है जो छोटा बच्चा रो रहा है मुमकिन है कि उसके रोने की वजह बहुत ही मामूली हो, हमने देखा कि एक बड़ा बच्चा है एक छोटा, अब छोटा बड़े को मारना चाहता है और वो मारने नहीं देता, इस पर छोटा रोना शुरू कर देता है, अब ये मज़लूम थोड़ा है जो रो रहा है, नहीं! ये इसलिए रो रहा है कि ये बड़ी बहन मुझे मारने नहीं देती, तो फिर क्या बच्चे के रोने पर फोरन गुस्से में आ जाएंगी? नहीं ऐसी कोई बात नहीं है,*
*★_ आम तोर पर देखा कि चुंकी मां को मुहब्बत होती है, ज़रा बच्चे के रोने की आवाज़ निकली और मां के मुंह से अल्फ़ाज़ निकलना शुरू हो जाते हैं, बोलना शुरू कर देती है, दूसरे बच्चों को गालियां देना, दूसरे बच्चों को कोसना और कुसूरवार ठहराना शुरू कर देती है,*
*★_ याद रखें जब आपने छोटे बच्चे की मामूली बात से रोने पर बड़े को डांटना शुरू कर दिया तो बड़े बच्चे के अंदर आपने अपनी नाइन्साफी का बीज बो दिया, उसके दिल में डाल दिया की अम्मी ना इन्साफ है, क्योंकि बच्चा बगैर इल्ज़ाम के कोई डांट, बगैर गलती के कोई इल्ज़ाम अपने ऊपर बर्दाश्त नहीं करता, जब उसके दिल में होता है कि मैंने गलती नहीं की तो उसको समझ नहीं आती कि मुझे क्यों डांटा जा रहा है,*
*★_ तो वो माँ से फिर नफ़रत करने लग जाता है, माँ को बुरा समझना शुरू कर देता है, सोचता है कि बस माँ तो हमेशा छोटे ही की साइड लेती है, और कई मर्तबा ऐसा होता है कि अगर बेटा छोटा है तो बड़ी बहनों की शामत आती रहती है, हर बात पर बहनों को डांट पड़ रही है, भई बच्चा है, अब उस बच्चे की खातिर आप दूसरों को तो बरबाद ना करें, इसलिए ये चीज ज़ेहन में रखें कि बच्चे का रोना हमेशा मज़लूमियत का रोना नहीं होता, कई मर्तबा बच्चा खुद दूसरे बच्चों को मारता है, एक दफा मारा दूसरी दफा मारा, तीसरी दफा मारा, जब बहन को दो चार दफा उसने मारा, उसने भी गुस्से में आ कर एक थप्पड़ लगा दिया, जब उसने एक लगाया अब बच्चा रोता हुआ आ गया, अब वो जो रोता हुआ आ रहा है ये मार खा कर नहीं आ रहा है, ये तीन दफा मार के आ रहा है,*
*★_ हज़रत लुकमान हकीम ने फरमाया - अगर कोई तुम्हारे पास आये और वो दिखाये कि मेरा एक कान किसी ने काट दिया है तो तुम फैसले में जल्दी ना करना जब तक कि तुम दूसरे बंदे से ना पूछ लो, हो सकता है कि उसने उसके दोनों कान काट दिए हों, अगर कोई कहे कि इसने मुझे मुक्का मारा और वाकई मारा भी है तो फैसला ना करें, जब तक सही सूरते हाल मालूम ना कर लें, हो सकता है कि उसने पहले उसके दो मुक्के मारे हों या कोई ज्यादती की हो,*
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*⊙⇨छोटो के झगड़े बड़ो के झगड़े कैसे बनते हैं:-*
*★_ आम तोर पर ये देखा गया है कि गलतियां छोटो की होती है और मामूली होती है लेकिन बड़ो की जल्दबाज़ी की वजह से फिर वो बड़ो के झगड़े बन जाया करते हैं, चुनांचे अगर कोई दूसरा बच्चा पड़ोस के बच्चे के साथ खेल रहा है और कुसूर भी अपने बच्चे का है लेकिन अगर उसने रोना शुरू कर दिया तो अब ये खातून पड़ोस के बच्चे को कोसना शुरू कर देगी और जब उसकी मां ये आवाज़ सुनेगी तो ये आपस में लड़ना झगड़ना शुरू कर देंगी,*
*★_छोटो की बात थी, बड़ो के झगड़े हो गए और आपस में नफ़रत पैदा हो गई, तो ऐसी जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए, मगर इसमें एक और भी अहम बात है, वो ये कि बच्चे अगर छोटी छोटी बातों पर आपस में झगड़ पड़ते हैं तो अल्लाह ताअला ने भी उनकी याददाश्त इतनी छोटी रखी है कि चंद मिनट के बाद फिर आपस में खेल रहे हैं,*
*★_ बच्चे के रोने में और बच्चे के बनने में पांच सेकंड का फर्क भी नहीं हुआ करता, अभी बच्चे के आंसू बह रहे हैं, अभी उसको मां ने उठा लिया, उसके आंसू खत्म, उसका रोना खत्म, बच्चे का रोना और, बड़े का रोना और होता है, इसलिए बच्चों के रोने की हक़ीक़त को समझने की कोशिश करें और ये भी ज़ेहन में रखें कि बच्चों के रोने पर या झगड़े में हम उसको बड़ों का झगड़ा नहीं बना सकते, इसलिए कि बच्चे थोड़ी देर के बाद उसको भूल कर फिर एक दूसरे के साथ घुल मिल जायेंगे,*
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*⊙⇨ एक इबरत अंगेज़ वाक़िया:-*
*★_ चुनांचे हम एक वाक़िया लिखते हैं' कि बच्चे थोड़ी सी बात पर झगड़ पड़े, मां ने दूसरे बच्चे को थप्पड़ लगा दिया, उसकी मां ने भी आ कर उससे झगड़ा करना शुरू कर दिया,*
*★_ दोनों तरफ के ख़ाविंद आ गए, हत्ताकि एक दूसरे को उन्होंने ज़ख्मी कर दिया, पुलिस आ गई, इतना पड़ोस में फ़साद फेला कि खुदा की पनाह! जब अगले दिन मां बाप सुबह उठे तो क्या देखा कि गली में दोनों बच्चे फिर खैल रहे थे,*
*★_ तो बच्चों की लड़ाई ऐसी ही होती है, तो बच्चों की लड़ाई पर इतना मां-बाप का उलझ पड़ना कि एक दूसरे को जख्मी कर दें, पुलिस आ जाए, जिंदगी भर के लिए ताल्लुक़ मुनक़ता हो जाए, ये इंतेहाई जहालत की बात होती है, लिहाज़ा बच्चों के झगड़े की हक़ीक़त को समझना चाहिए ,*
*★_ हां जब बच्चा लड़ाई कर ले तो अब समझें कि बच्चे ने आखिर झगड़ा क्यों किया ? फिर इसके बाद बच्चे को समझाएं,*
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*⊙⇨बच्चों को नसीहत करें:-*
*★_ अगर बच्चे झगड़ पड़ें तो आप हक़ीक़त को मालूम कर लें और जिसका कुसूर हो उसको सौरी करने के लिये कहें, उसको मुआफी मांगने के लिये कहें। जिसने दिल दुखाया है ज़्यादती की है उसको कहें कि हाथ जोड़ के मुआफी मांगे और उसको समझाएं कि सुलह के अंदर अल्लाह ने खैर रखी है और बच्चे को समझाएं कि जो दुनिया में दूसरे की गलती को जल्दी मुआफ कर देगा, अल्लाह तआला क़यामत के दिन उसकी गलतियों को जल्दी मुआफ फरमा देगा।*
*★_ जब बच्चे को सुलह की अच्छाई बताएंगी और मुआफ करने की खूबी बताएंगी तो गलती करने वाला मुआफी भी मांग लेगा और जिसके साथ ज़्यादती हुई वह जल्दी मुआफ भी कर देगा और वह बच्चे फिर आपस में मुहब्बत प्यार से खेलने लग जाएंगे।*
*★_ अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमारे घर के बच्चों के अंदर से इन झगड़ों को ख़त्म फरमा दे और बड़ों को इन झगड़ों में उलझने से अल्लाह महफूज़ फरमाए। इसलिये कि झगड़े फसाद होते हैं और अल्लाह फसाद को नापसंद करते हैं। अल्लाह तआला हमें फसाद से बचाए ही रखे।
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*⊙⇨ बड़ों के झगड़े भी बड़ेः-*
*★_ जो लोग जवानी की उम्र में पहुंच जाते हैं, अक़ल पुख्ता हो जाती है, उनकी भी एक दूसरे के साथ रंजिशें होती हैं लेकिन यह उम्र ऐसी होती है कि जज़्बात और ख्यालात में पुख़्तगी आ जाती है, लिहाज़ा उन पर हर बात का असर देर पा होता है। उन्हें मुद्दतों बात याद रहती है और इस उम्र में पहुंच कर इंसान इतना Mature (पुख़्ता) हो चुका होता है कि वह दूसरे बंदे को अपने हालात व कैफियात का पता भी नहीं चलने देता। लिहाज़ा आप चेहरे से देखकर यह समझेंगी कि यह मेरे साथ बिल्कुल ठीक है जबकि उसके दिल के अंदर कोई न कोई चीज़ खटक रही होगी।*
*★_ तो बड़ी उम्र के बंदे को खुशी और ग़मी को छुपाने में महारत हासिल हो जाती है। एक तो बात का असर देर तक रहा और दूसरा उन्होंने अपने अंदर की Feelings (एहसासात) का दूसरे को पता ही न चलने दिया, तीसरा, जलती पर तेल का काम यह होता है कि इंसान को दूसरों की अच्छाईयां तो भूल जाती हैं, मगर उनकी ग़लतियां हमेशा याद रहती हैं। तीन बातें ऐसी हैं कि जिस वजह से बड़ों के झगड़े भी बड़े बन जाते हैं, देर पा होते हैं।*
*★_ फिर इसमें एक चीज़ मज़ीद शामिल हो जाती है कि बड़ों के अंदर सोच का माद्दा भी ज़्यादा होता है, वह एक छोटे से मुआमले को अपने ज़हन में लेकर सोचना शुरू कर देते हैं। उनको सोचने के लिये मुद्दा मिल जाता है और वह इसके ऊपर एक ख़्याली इमारत बनाना शुरू कर देते हैं,*
*★_ अच्छा फलां ने आज अच्छे कपड़े नहीं पहने हुए थे लगता है अपने घर में खुश नहीं, लगता है खाविंद के साथ नहीं बनती, हो सकता है कि सास पसंद न करती हो, कोई न कोई वजह तो है। अब एक औरत जो सादगी की नियत से बयान सुनने के लिये सादा कपड़े पहन कर आ गई, अब इस प्वाइंट को लेकर उन्होंने इस पर अपने ख्यालात के ताने बाने बुनने शुरू कर दिये और एक स्टोरी बना ली कि हमें तो लगता है कि फलां लड़की जिसकी अभी शादी हुई है अपने घर में खुश नहीं। स्टोरी भी बन गई और नतीजा भी निकल गया।*
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*⊙⇨बदगुमानी की नहूसतः-*
*★_ फिर इसमें हमारा एक दुशमन है, जिसको शैतान कहते हैं, और एक जिसे नफ़्स कहते हैं, वह बदगुमानी के ज़रीए सूरते हाल को और ज़्यादा बुरा बना देते हैं। छोटी छोटी बातों को ज़ोन कर देते हैं, जिसकी वजह से इंसान दूसरे की छोटी ग़लती को बड़ा समझता है। और अपनी बड़ी ग़लतियों को भी वह छोटी समझता है।*
*★_ दूसरे के बारे में कोई बुरी बात ज़ेहन में सोचना, यह चीज़ बदगुमानी कहलाती है, शरीअत ने बदगुमानी को हराम क़रार दिया है। बड़ों के झगड़ों की बुनियाद में अक्सर व बेशतर बदगुमानी की नहूसत शामिल होती है। नबी करीम ﷺ ने इर्शाद फरमाया कि तुम गुमान से बचो क्योंकि अक्सर गुमान झूठ होते हैं, तो बजाए नेक गुमान करने के शैतान बदगुमानी करवाता है और इंसान को फितनों में मुब्तिला करता है।*
*★_ ईमान वालों के साथ बदगुमानी, यह कबीरा गुनाह है।इसलिये मोहसिने इंसानियत सय्यदना रसूलुल्लाह ﷺ ने इर्शाद फरमाया कि ईमान वालों के साथ नेक गुमान रखो, बदगुमानी न रखो।*
*★_ चुनांचे इमामे आज़म अबू हनीफा रह० ने इस हदीसे मुबारक से यह मतलब निकाला कि अगर किसी बंदे में उनहत्तर बातें ऐब की निकलती हों लेकिन एक रास्ता खैर का निकल सकता हो तो तुम उस एक बात की वजह से उसके साथ नेक गुमान रखो ! लेकिन हमारा क्या हाल है? हर चीज़ बता रही होती है कि काम तो ठीक है लेकिन हम इसमें से बदगुमानी का रास्ता तलाश कर रहे होते हैं।*
*★_ तो यह कितने मज़े की बात है कि नेक गुमान रखो अगर्चे कोई बुरा हो, अल्लाह तआला नेकी फिर भी दे देते हैं और अगर बदगुमानी कर ली तो क़यामत के दिन उसके ऊपर दलीले शरई पेश करनी पड़ेगी, सबूत देना पड़ेगा, वर्ना इंसान इस जुर्म के अंदर खुद गिरफ़्तार होगा।*
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*⊙⇨ बदगुमानी एक अख़लाकी़ बीमारीः-*
*★_ यह बदगुमानी तमाम झगड़ों की बुनियाद है। शैतान फसाद पैदा करने के लिये पहला काम ही यह करता है कि लोगों को आपस में बदगुमान करता है। किसी के दिल में दूसरे के बारे में ग़लत अंदाज़े, ग़लत ख्यालात पैदा करके उनको एक दूसरे से मुतनफ्फिर करता है। बात इतनी होती नहीं जितनी उसे नज़र आ रही होती है। ख़्वाह मख्वाह के एतिराज़ पैदा हो जाते हैं जिनका हक़ीक़त से दूर का भी तअल्लुक नहीं होता।*
*★_ क़यामत के दिन कई लोग होंगे कि वह अपने आपको अच्छा समझ रहे हों और वह दूसरों के सामने पहले जहन्नम में ओंधे मुंह डाले जाएंगे। इसलिये कि अल्लाह की मख़्लूक के साथ बदगुमानी करने की उनको आदत होती है। यह एक आदत है, इसका तअल्लुक आदत से है कि अपने सिवा निगाह में कोई जंचता ही नहीं, लाख अच्छाइयां किसी की हों नज़र ही नहीं आतीं। तो बुराइयों के ऊपर तो दूरबीन फिट की होती है। जो मुआमला आप उसके साथ कर रहे हैं वही मामला अल्लाह तआला आपके साथ करेंगे।*
*★_ ज़रा ज़रा सी बातों पर बदगुमानियां होने लग जाएं, हम आपस में एक दूसरे के क़रीब रहते हुए छोटी छोटी बातों पर बदगुमनानियां शुरू कर दें तो फिर आपस में झगड़े और नफरतें ही पैदा होंगी। इसलिये अल्लाह तआला से रो रोकर मुआफी मांगनी चाहिये और इस बीमारी से अल्लाह की पनाह मांगनी चाहिये।*
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*⊙⇨शैतान के खिलाफ दो मुअस्सिर हथियारः-*
*★_ यहां एक नुक्ते की बात समझने की कोशिश करें कि शैतान इंसान के ज़हन में बुरे वसवसे डालता है। यह वसवसे अगर आप अपने ज़हन से निकाल दें तो फिर आप बदगुमानी से बच जाएंगे। वह सोचने के लिये मुद्दा दे देता है और उस पर बंदे सोच बिचार करके बिल आखिर बदगुमानी के मुर्तकिब हो जाते हैं।*
*★_ जब भी शैतान ज़हन में कोई वसवसा डाले, आप उस वसवसे को सोचने की बजाए फौरन लाहौल वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह पढ़ा करें। किसी के बारे में बुरे ख़्याल ज़हन में आएं, देवरानी, जिठानी के बारे में, सास के बारे में, पड़ोसन के बारे में किसी के बारे में कोई बुरा ख़्याल ज़हन में आए तो फौरन लाहौल वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह पढ़ें।*
*★_ इस ख़्याल को न सोचें, न इसकी तसदीक करने की कोशिश करें, इसलिये कि शैतान बदगुमानी का मुर्तकिब करवा कर आप को खैर से महरूम कर देगा। तो शैतान तो ऐसा बदबख़्त है कि बस वह वसवसा ज़हन में डालता है, तो वसवसे को मत सोचें, इस ख़्याल को मत आगे बढ़ाएं बल्कि हमारे पास दो हथियार हैं एक हथियार है लाहौल वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह और दूसरा हथियार है आउज़ु बिल्लाहि मिनश शैतानिर रजीम,*
*★_ इन दोनों से उस वक्त शैतान भागता है, दूर चला जाता है और अल्लाह तआला उस बंदे की शैतान के वसवसे से हिफाज़त फरमा देते हैं।*
*"_ इब्ने अरबी रह० फरमाते हैं कि मेरी एक मर्तबा शैतान से मुलाक़ात हुई तो मुझे कहने लगाः इब्ने अरबी! बड़े आलिम हो, मैंने कहा हां। कहने लगाः मेरे साथ आज मुनाज़िरा कर लो, मैंने कहाः मैं हरगिज़ नहीं करूंगा।कहने लगाः क्यों?*
*★_ मैंने कहा कि अल्लाह तआला ने मुझे तेरे लिये एक डंडा दिया है जिसका नाम है लाहौल वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह, मैं यह डंडा इस्तेमाल करके तुझे यहां से दूर भगा दूंगा। मुझे तुझसे बहस में पड़ने की ज़रूरत ही नहीं। और वाक़ई अगर वह बहस में पड़ जाते तो शैतान उनके दलाइल को तोड़ कर शायद उनको किसी बुरे प्वाइंट पर ले आता।*
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*⊙⇨वसाविस का क्या इलाज ?*
*★_ चंद सहाबा नबी अलैहिस्सलाम की खिदमत में आए, ऐ अल्लाह के प्यारे हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! हमारे दिल में बअज़ औकात ऐसे ख्यालात आ जाते हैं कि हम फांसी पे लटक जाते, आग में पड़ जाते यह ज़्यादा बेहतर था, बनिस्बत इसके कि ऐसे ख्याल हमारे ज़हनों में आएं।*
*★_ तो नबी अलैहिस्सलाम ने फरमाया कि यह तुम्हारे ईमान की अलामत है, जब भी बुरा ख्याल आए और बंदा उसको नापसंद करे तो यह अलामत है कि वाकई अल्लाह ने उस बंदे के दिल में ईमान को भर दिया है। यह वस्वसे तो आते ही रहेंगे, इनसे परेशान नहीं होना चाहिये।*
*★_ मुख्तलिफ किस्म के ख्यालात आते रहते हैं, कभी अच्छे, कभी बुरे, कभी नफ़्स की तरफ से, कभी शैतान की तरफ से और कभी रहमान की तरफ से ख़्यालात आते हैं, लेकिन मोमिन को चाहिये कि वह खैर के ख़्याल अपनाए, इसके बारे में सोचे और जो दूसरे किस्म के वस्वसे और ख़्यालात हों, उनको अपने ज़हन से ही निकाल दे, उनकी तरफ ध्यान ही न दे। उनको Don't care case बना दे। जब आप उनके ऊपर ध्यान ही नहीं देंगे तो वह आपका कुछ बिगाड़ ही नहीं सकेगा। चुनांचे नबी अलैहिस्सलाम ने दुआ मांगी:- तमाम तअरीफें अल्लाह तआला के लिये जिसने शैतान के मुआमले को वस्वसे की हद तक रखा।*
*★_अब कोई शैतान हमारा हाथ पकड़ कर तो नहीं गुनाह करवा सकता। वस्वसा ही डाल सकता है ना। इस वस्वसे को मानना या न मानना तो बंदे के अपने इख़्तियार में होता है। तो अगर यह बात समझ आ जाए तो फिर बंदों को वस्वसों की परवाह नहीं होती।*
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*⊙⇨मनफी वसाविस को नज़र अंदाज करेंः-*
*★_ कई लोगों को देखा कि वस्वसों की वजह से ही परेशान हो जाते हैं। ओ जी! पता नहीं मेरा ईमान है भी या नहीं। भई! क्यों नहीं है आपका ईमान? जी मेरे ज़हन में ऐसे ख़्याल आते हैं। भई! ख़्याल आने से कोई इंसान वैसा तो नहीं बन जाता।*
*★_ देखें! रमज़ानुल मुबारक का महीना है, अगर आपके ज़हन में बार बार यह ख़्याल आए कि फ्रीज में शर्बत पड़ा है, मैं उठ के पी लूं तो क्या उससे रोज़ा टूट जाएगा? जब तक आप पियेंगे नहीं उस वक़्त तक रोज़ा नहीं टूटेगा, चाहे यह ख़्याल एक हज़ार मर्तबा आपको आ जाए। इसी तरह जब तक इस वस्वसे पर अमल न किया जाए तो वस्वसा इंसान को कोई नुक्सान नहीं दे सकता।*
*★_ चलें एक और मिसाल, हर इंसान के जिस्म के अंदर नजासत किसी न किसी हद में हर वक़्त होती है (पेशाब, पाखाना) लेकिन जब तक वह इंसान के जिस्म से खारिज न हो उस वक़्त तक उसका वुजू नहीं टूटता ? तो अब कोई बंदा इस वजह से परेशान है कि जी मैं कैसे नमाज़ पढूं? मेरे तो पेट में पाखाना है। तो बेवकूफों वाली बात है नां। लिहाज़ा वसाविस के आ जाने पर परेशान हीं होना चाहिये बल्कि ऐसे वसासिव को नज़र अंदाज़ कर देना चाहिये और नेक ख्यालात के बारे में सोचना चाहिये।**
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*⊙⇨वुस्अते नज़र और वुस्अते ज़र्फः*
*★_ जो इंसान वसीउन्नज़र हो जाता है हमेशा उसके एतिराज़ात दूसरों पर कम हो जाते हैं। यह ज़हन में रखना ! जिस का ज़र्फ बड़ा होता है, जिसका दिल बड़ा होता है उसको दूसरों पर एतिराज़ करने की ज़रूरत ही नहीं पेश आती। और यह कम ज़र्फी की अलामत होती है कि इंसान दूसरों पर एतिराज़ करता फिरता है और खुद अपना मुआमला इससे ज़्यादा बुरा होता है।*
*★_ तो हमें अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के बारे में भी नेक गुमान रखना है और मोमिनीन के बारे में भी नेक गुमान रखना है। किसी की एक बात के अंदर अगर बुराई का पहलू निकलता है तो आप सोचें कि अगर कोई अच्छाई का पहलू निकल सकता है तो आप उसी अच्छाई के पहलू के बारे में सोचें और उसके साथ खैर का गुमान रखें, हत्ताकि अगर सत्तर बुराई के पहलू निकलते हैं और एक खैर का निकलता है तो बुराई के सत्तर पहलूओं को नज़र अंदाज़ कर दें और एक पहलू को क़ुबूल कर लें और उसके बारे में नेक गुमान रखें। इस तरह से इंसान फिर बदगुमानी के गुनाह से बच जाता है।*
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*⊙⇨ झगड़े फ़साद के चार मरहलेः-*
*★_चुनांचे बड़ों की लड़ाइयों में चार मरहले आते हैं:-*
*"_(१) पहला मरहलाः बदगुमानी:- पहला step (कदम) बदगुमानी हुआ। आम तौर पर पहले बदगुमानी आती है, शैतान बंदे के दिल में दूसरे के बारे में उल्टे सीधे खदशात और वसाविस डालता है जिनका अक्सर हक़ीक़त से कोई ताल्लुक़ नहीं होता। लेकिन जब वह दिल में पुख्ता हो जाते हैं तो दिल में दूसरे के बारे में कीना पैदा होता है, यूं झगड़े की बुनियाद खड़ी हो जाती है।*
*★_(२) दूसरा मरहलाः गीबत:- दूसरे मरहले में जिसकी बदगुमानी दिल में पैदा हुई बंदा उसकी गीबत शुरू कर देता है, बदगुमानी गीबत की शक्ल इख़्तियार कर लेती है। दिल में किसी के बारे में बदगुमानी आई और उसकी ग़ीबत करनी शुरू कर दी, उसके बारे में Comments (तब्सिरे) देने शुरू कर दिये, उसकी बुराईयां बयान करनी शुरू कर दीं।*
*★_(३) तीसरा मरहलाःलड़ाई झगड़ा- और तीसरा Step (कदम) होता है आपस में लड़ाई झगड़ा और फसाद होता है। जब ग़ीबतें शुरू हो जाती हैं तो दूसरे को पता चलता है वह दो की चार सुनाता है। बस फिर एक दूसरे पर गोला बारी शुरू रहती है। हत्ताकि कभी बराहे रास्त हाथा पाई की भी नौबत आ जाती है।*
*★_(४) चौथा मरहलाः क़तअ रहमी:- जब बात इस हद तक बढ़ गई अब चौथा कदम होता है एक दूसरे के साथ ताल्लुक को खत्म कर लेते हैं, बोलचाल, आना जाना बंद हो जाता है, इसे क़तअ रहमी कहते हैं यह भी बड़े गुनाह की बात है।*
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*⊙⇨पहले कदम पर ही रुक जाएं:-*
*★_तो शैतान और नफ़्स बदगुमानी से सफर शुरू करवाते हैं और कृतअ रहमी तक इंसान को पहुंचा देते हैं। वह जानते हैं कि कतअ रहमी ऐसा गुनाह है कि शबे कुद्र में भी कृतअ रहमी करने वाले की अल्लाह तआला मग़फिरत नहीं फरमाते । अल्लाहु अक्बर कबीरा। तो सोचिये कि यह बदगुमानी कहां इंसान को लेकर गिराती है?*
*★_ इसलिये पहले कदम पर ही शैतान को रोक दीजिये और दूसरों के बारे में नेक गुमान रखने की आदत बना लीजिये ! दिल को यह समझाएं कि हमारे अपने ही मसले कौनसे थोड़े हैं कि हम दूसरों के बारे में सोचते फिरें। मेरा ही बोझ मेरे सर 'पर इतना है कि क़यामत के दिन इस बोझ को उठा पाया तो बड़ी बात है। ख़्वाह मख्वाह दूसरों के बारे में क्यों मैं कोई राए दूं? हो सकता है अल्लाह उनके गुनाहों को मुआफ कर दे और हो सकता है कि मेरी ख़ताओं के बारे में मुझसे सवाल कर ले।*
*★_ तो दूसरों के मुआमले को आप हमेशा हल्का (लाइट) लिया करें। नफ़्स के बारे में अपने आपको हमेशा टाईट किया करें।*
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*⊙⇨दिलों का जोड़ः-*
*★_ इस दुनिया में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने दो चीज़ों को जोड़ने के लिये कोई न कोई तीसरी चीज़ बनाई है। मसलन दो ईंटों को जोड़ने के लिये अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने सीमेंट को बना दिया लेकिन लकड़ी के दो टुक्ड़ों को जोड़ने के लिये सीमेंट काम नहीं आएगा, वहां आप कील इस्तेमाल करेंगे। अगर काग़ज़ के दो टुकड़े जोड़ने हों तो न सीमेंट काम आएगा, न कील काम आएगा, वहां पर ग्लू Glue काम आएगी। कपड़े के दो टुक्ड़े जोड़ने हों वहां पर सूई धागा काम आएगा।*
*★_ तो देखें! मुख्तलिफ चीज़ों को जोड़ने के लिये कोई न कोई अल्लाह ने तीसरी चीज़ बनाई है। सवाल पैदा होता है कि दो इंसानों को दिलों को जोड़ने के लिये अल्लाह ने क्या चीज़ बनाई? तो इसका जवाब "दीने इस्लाम" है। अगर वह दोनों लोग शरीअत पर अमल करने लग जाएं, नेकी तक़वा पर अमल करने लग जाएं तो इस नेकी की वजह से अल्लाह उनके दिलों में खुद बखुद मुहब्बत पैदा फरमा देगा। और इसकी दलील कुरआन अज़ीमुश्शान में से, अल्लाह तआला इर्शाद फरमाते हैं:-*
*★_ إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ سَيَجْعَلُ لَهُمُ الرَّحْمَٰنُ وُدًّا ( سورۃ مریم 96)*
*"(तर्जुमा)जो लोग ईमान लाएंगे, नेक आमाल करेंगे, हम उनके दिलों के अंदर मुहब्बतें भर देंगे"*
*"_ तो नेकी पर होना, दीन पर होना, यह आपस में दिलों में मुहब्बतें होने का ज़रीआ होता है। इसलिये जो मियां बीवी दीनदार हों तो उनके दर्मियान मिसाली मुहब्बतें होती हैं, जो मां बाप सब के सब दीनदार हों उनके दर्मियान आपस में मिसाली ताल्लुक़ होता है। इसलिये घर के अंदर मुहब्बतों को फैलाने के लिये, खुशियों भरी जिंदगी गुज़ारने के लिये सब अफराद को दीन पर जिंदगी गुज़ारनी चाहिये।*
*★_ बेटी भी दीनदार, बेटा भी दीनदार, मां बाप भी दीनदार, तो दीन पर अमल की बरकत से अल्लाह तआला दिलों के अंदर मुहब्बतें भर देगा। कुफ्र के माहौल में मां बाप और औलाद के दर्मियान वह मुहब्बत हरगिज़ नहीं होती जो दीनदार घरानों के अंदर होती है।*
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*⊙⇨खानदानी अदावत...... अल्लाह का अज़ाबः-*
*★_ यह बात ज़हन में रखें कि बड़ों की जो रंजिशें होती हैं वह फिर बड़ी बन जाया करती हैं। वह पहले एक घर की रंजिशें होती हैं फिर खानदान की रंजिशें बन जाया करती हैं बल्कि खानदानी अदावतें बन जाती हैं। और यह खानदानी अदावतें इस दुनिया में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का अज़ाब है। इस अज़ाब से अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से पनाह मांगें।*
*★_आप महसूस करें कि किसी का दिल दुखा, किसी को परेशानी हुई या मैं किसी की तवक्कुआत को पूरा नहीं कर सका तो फौरन उससे मुआफी मांग लें। यह आसान तरीक़ा होता है मुआमले को सुलझाने का। मुआफी मांगने में परेशान न हों, यह बहुत अच्छी आदत है और बड़े बड़े बोझ इंसान के सर से टल जाते हैं।*
*★_हमारे एक क़रीबी मेहरबान थे, उनकी आदत थी जिसको मिलते थे उसको जुदा होने से पहले कहते थे, जी! आपके मेरे ऊपर बड़े हुकूक थे मैं उनको पूरा नहीं कर सका, आप मुझे अल्लाह के लिये मुआफ कर दें।ऐसी बात अल्लह ने उनको यह समझा दी थी हर एक को यही कहते थे। जी! आप के मेरे ऊपर बड़े हुकूक थे, मैं पूरा नहीं कर सका आप मुझे अल्लाह के लिये मुआफ कर दें। इतनी लजाजत और आजिज़ी के साथ कहते थे कि दूसरे बंदे को उन पर प्यार आ जाता था। तो बंदे को इसी तरह दूसरों से मुआफी मांगनी चाहिये। ज़ाहिर में कोई अगर गलती भी नज़र आ रही फिर भी मुआफी मांग ले। इसका फाएदा ही है कि कुसूर मुआफ हो जाएंगे।*
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*⊙⇨खानदानी अदावत...... अल्लाह का अज़ाबः-
*★_ यह बात ज़हन में रखें कि बड़ों की जो रंजिशें होती हैं वह फिर बड़ी बन जाया करती हैं। वह पहले एक घर की रंजिशें होती हैं फिर खानदान की रंजिशें बन जाया करती हैं बल्कि खानदानी अदावतें बन जाती हैं। और यह खानदानी अदावतें इस दुनिया में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का अज़ाब है। इस अज़ाब से अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से पनाह मांगें।*
*★_आप महसूस करें कि किसी का दिल दुखा, किसी को परेशानी हुई या मैं किसी की तवक्कुआत को पूरा नहीं कर सका तो फौरन उससे मुआफी मांग लें। यह आसान तरीक़ा होता है मुआमले को सुलझाने का। मुआफी मांगने में परेशान न हों, यह बहुत अच्छी आदत है और बड़े बड़े बोझ इंसान के सर से टल जाते हैं।*
*★_हमारे एक क़रीबी मेहरबान थे, उनकी आदत थी जिसको मिलते थे उसको जुदा होने से पहले कहते थे, जी! आपके मेरे ऊपर बड़े हुकूक थे मैं उनको पूरा नहीं कर सका, आप मुझे अल्लाह के लिये मुआफ कर दें।ऐसी बात अल्लह ने उनको यह समझा दी थी हर एक को यही कहते थे। जी! आप के मेरे ऊपर बड़े हुकूक थे, मैं पूरा नहीं कर सका आप मुझे अल्लाह के लिये मुआफ कर दें। इतनी लजाजत और आजिज़ी के साथ कहते थे कि दूसरे बंदे को उन पर प्यार आ जाता था। तो बंदे को इसी तरह दूसरों से मुआफी मांगनी चाहिये। ज़ाहिर में कोई अगर गलती भी नज़र आ रही फिर भी मुआफी मांग ले। इसका फाएदा ही है कि कुसूर मुआफ हो जाएंगे।*
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*⊙⇨हज़रत उमर रजि० का मुआफी मांगनाः-*
*★_ एक मर्तबा सय्यदना बिलाल रज़ि० बैठे हुए थे, कोई बात चली तो उमर रज़ि० ने कोई सख़्त लफ़्ज़ इस्तेमाल कर दिया। जब उमर रजि० ने सख्त लफ्ज इस्तेमाल किया किया तो बिलाल रज़ि० का दिल जैसे एक दम बुझ जाता है इस तरह से हो गया और वह खामोश हो कर वहां से उठ कर चले गए। जैसे ही वह उठ कर गए, उमर रज़ि० ने महसूस कर लिया कि उन्हें मेरी इस बात से सदमा पहुंचा है।*
*★_ चुनांचे उमर रज़ि० उसी वक़्त उठे, बिलाल रजि० को आकर मिले, कहने लगेः ऐ भाई ! मैंने एक सख़्त लफ़्ज़ इस्तेमाल कर लिया। आप मुझे अल्लाह के लिये मुआफ कर दें। उन्होंने कहा जी जी। मगर उमर रज़ि० को तसल्ली नहीं हो रही थी इसलिये कि वह ज़रा खामोश खामोश थे, दिल जो दुखा था।*
*★_ तो जब उमर रज़ि० ने देखा कि बिलाल का दिल खुश नहीं हो रहा तो बात करने के बाद बिलाल रज़ि० के सामने ज़मीन पर लेट गए और कहाः भाई! मेरे सीने पर अपने कदम रख दो! मेरी गलती को अल्लाह के लिये मुआफ कर दो! बिलाल रज़ि० की आंखों से आंसू आ गए, अमीरुल मोमिनीन! मैं ऐसी हरकत कैसे कर सकता हूं?*
*★_ जो बड़े हज़राते सहाबा थे अपनी जिंदगी के मुआमले को ऐसे समेटा करते थे। याद रखें! आज दूसरों के बारे में कुछ अलफाज़ कह देना आसान है लेकिन अगर कल क़यामत के दिन अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमें खड़ा कर के पूछ लिया, बताओ ! तुमने फ्लां को कमीना क्यों कहा था? तुमने फलां को ज़लील क्यों कहा था? तुमने फलां को बेईमान क्यों कहा था? सोचो ! हम इन बातों को उस दिन कैसे साबित कर सकेंगे? यह वह दिन होगा जिसमें अंबिया भी घबराते होंगे। अल्लाहु अक्बर कबीरा ।*
*★_आज वक़्त है कि हम दूसरों के बारे में नेक गुमान रखें, लड़ाई झगड़े को इब्तिदा से ही खत्म कर दें। ज़्यादती हो जाए तो दूसरे से मुआफी मांग लें और उस आपस के लड़ाई झगड़े को अल्लाह का अज़ाब समझते हुए अल्लाह से उसकी पनाह मांगें और उस फसाद से हम अपने आप को बचाने की कोशिश करें। यह दिल में तमन्ना हो कि हम अपने घरों को, अपने खानदानों को इस फसाद वाले अज़ाब से बचाएंगे और मुहब्बत और उलफत की ज़िंदगी गुज़ारेंगे। अल्लाह तआला हमारी कोताहियों को मुआफ फरमाए और हमें अपने मक़बूल बंदे, बंदियों में शामिल फरमाये।*
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*⊙⇨सिलहरहमी और क़तअ रहमी:-*
*★_ यह जो आपस में तअल्लुक जोड़ना है इसको शरीअत ने "सिलह रहमी" कहा। सिलह रहमी का मतलब यह है कि जिन रिश्ते नातों को शरीअत ने कहा कि इनको मज़बूत रखा जाए, उन रिश्तों को आपस में मेलजोल, लेनदेन, प्यार मुहब्बत से निभाया जाए, इसको "सिलह रहमी” कहते हैं। और एक दूसरे के साथ बोलना छोड़ देना, मिलना जुलना छोड़ देना, इसको कतअ तअल्लुकी़ और क़तअ रहमी कहते हैं। अल्लाह तआला को क़तअ रहमी नापसंद है और सिलह रहमी पसंद है।*
*★_ हदीसे पाक में आता है कि दो चीज़ों का बदला बहुत जल्दी मिल जाता हैः-*
*(1) अगर आपस में सिलह रहमी करे तो इसकी बरकतें उसकी ज़िंदगी में बहुत जल्दी ज़ाहिर होती हैं,*
*(2) अगर कोई बंदा क़तअ रहमी करे, मसलन किसी पर तकब्बुर का बोल बोल दिया या जुल्म किया तो इसका अज़ाब इंसान को बहुत जल्दी आंखों से देखना नसीब होता है।*
*★_ तो सिला रहमी का सवाब जल्दी मिलता है, जुल्म का अज़ाब जल्दी मिलता है। लिहाज़ा हमें चाहिये कि हम आपस में सिला रहमी के साथ रहें।*
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*⊙⇨सिलह रहमी के तीन इनामातः-*
*★_ एक हदीसे मुबारका में नबी अलैहिस्सलाम ने इर्शाद फरमाया कि सिला रहमी पर अल्लाह तआला बंदे को तीन इन्आम अता करते हैं:-*
*(१) पहला इन्आम:- अल्लाह तआला बंदे की उम्र को तवील कर देते हैं लम्बी उम्र अता करते हैं।*
*(२)दूसरा इन्आम:- अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त उस बंदे का रिज़्क कुशादा फरमा देते हैं। खुला रिज़्क अता फरमा देते हैं। सिला रहमी करने वाले को कभी भी रिज़्क की तंगी में अल्लाह नहीं डालते।*
*(३)और तीसरा इन्आम कि सिला रहमी करने वाले को अल्लाह तआला बुरी मौत से महफूज़ फरमा देते हैं।*
*★_तो मौत भी कलिमे पे नसीब हो गई, माल में भी बरकत हो गई, उम्र में भी बरकत हो गई, तो बताइये कि इसके अलावा बंदा और क्या चाहता है? अक्सर हमारे जो मसाइल हैं, या सेहत से मुतअल्लिक़ या कारोबार से मुतअल्लिक़ या दीन से मुतअल्लिक़, तो तीनों मसाइल का हल सिला रहमी में है।*
*★_ जब उम्र तवील होगी तो इसका मतलब यह कि सेहत अच्छी होगी। जब रिज़्क कुशादा होगा तो इसका मतलब क़र्ज़ों, मज़ों से जान छूट जाएगी, गैर के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा। अल्लाह तआला लेने वाले की जगह बंदे को देने वाला बनाएंगे और बुरी मौत से हिफाज़त से मुराद यह है कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त बंदे को दीन वाली ज़िंदगी अता फरमाएंगे ताकि उसकी ज़िंदगी भी महमूद और फिर उसकी मौत भी महमूद हो सके।*
*★_ इन तीन इनामात को सामने रखें ! घर में बच्चों को बड़ों को मर्दों को औरतों को यह हदीस पाक सुनाएं! और इसके फायदे उनको खोल खोल कर बताएं कि देखो! तुम आपस में झगड़ते हो, एक दूसरे के साथ रूठते हो, बोल चाल बंद कर देते हो, मार कुटाई का मुआमला करते हो, जबकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त चाहते हैं कि मुहब्बत प्यार से रहो फिर देखो कितने बड़े बड़े इन्आम मिलेंगे।*
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*⊙⇨ जन्नत में दाखिला आसानः-*
*★_ एक और हदीस पाक में है, तबरानी शरीफ की रिवायत है, नबी अलैहिस्सलाम ने इर्शाद फरमायाः जो बंदा चाहे कि मेरा हिसाब आसान हो और मैं जल्दी से जन्नत में दाखिल हो जाऊं तो उसको चाहिये कि जो तुझसे तोड़े उससे जोड़, जो तुझ पर जुल्म करे उसे मुआफ कर दे, अता कर जो तुझसे रोक ले।*
*★_ जो तुझसे तोड़े उससे जोड़े यानी जो भाई बहन उससे दूर होना चाहे यह उसको करीब करने की कोशिश करे, कोई रूठ जाए यह उसको मना ले, कोई परेशान हो तो यह उसकी परेशानी को खत्म करने में मदद करे ताकि दिल एक दूसरे के साथ मज़ीद जुड़ जाएं। फरमाया "तो तुझसे तोड़े तू उससे जोड़"!*
*★_ यह नहीं कि जैसे हम कहते हैं कि हमारे साथ कोई अच्छा रहेगा तो हम अच्छे रहेंगे, अगर बुरा होगा तो हम भी बुरे बनेंगे, यह तो तिजारत हुई। नबी अलैहिस्सलाम ने इर्शाद फरमायाः जो तुझ से तोड़े तू उससे जोड़! यानी जो तुझ से दूर होना चाहे तू उसको अपनी मुहब्बत प्यार से करीब कर ले।*
*★_ दूसरा फरमाया "जो तुझ पर जुल्म करे तू अल्लाह के लिए उसको मुआफ कर दे । लिहाज़ा भाई बहनों में आपस में किसी ने मज़ाक कर दिया, ज़्यादती कर दी, दूसरे का दिल दुखाया, गो ऐसा नहीं करना चाहिये, मगर मुआफ करने वाले को चाहिये कि जल्दी मुआफ कर दे ताकि अल्लाह की रहमतों से उसको हिस्सा नसीब हो।*
*★_ और तीसरा फरमाया "जो तुझे महरूम करे तू उसको अता कर दे" बहन भाईयों में यह भी मसला होता है, यह चीज़ लाया था उसने मुझे नहीं दी थी, मैं उसको क्यों दूं?*
*"_ जो बंदा यह तीन काम करेगा उसका हिसाब आसान होगा और वह जन्नत में जल्दी दाखिल हो जाएगा। सिला रहमी में तो वह तमाम रिशतादार शामिल हैं जो शरीअत ने क़रार दिये हैं। तो फरमायाः सिला रहमी अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त को इतनी पसंद है कि घर के लोग अगर गुनाहगार भी होंगे, अल्लाह उनको सिला रहमी करने की वजह से माल और औलाद की कसरत अता फरमा देगा।अल्लाहु अक्बर कबीरा।*
*★_ यह दीने इस्लाम कितना प्यारा है! शरीअत के अंदर क्या हुस्न है! कि ज़िंदगी गुज़ारने के इतने बेहतरीन उसूल बता दिये गये।*
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*⊙⇨वालिदैन की रोक टोक नागवार लगती है:-*
*★_ आम तौर पर देखा गया है कि मां बाप, औलाद की तरबियत चाहते हैं, उनको रोक टोक करते हैं। नौजवान बच्चों को रोकटोक बुरी लगती है। जब नफ़्स के अंदर अनानियत होती है तो इस्लाह की हर बात बंदे को बुरी लगती है, जो समझाए वही दुशमन नज़र आता है। तो नौजवानों की थ्योरी भी अजीब होती है।*
*★_ मां बाप बच्चों के मोहसिन होते हैं, वह उनको अच्छी बातों पर रोकटोक कर रहे होते हैं, मगर यह इस बात को समझ नहीं रहे होते। लिहाज़ा रोकटोक से दिल का तंग होना यह इंतिहाई बुरी बात है! रोकटोक को अपने लिये बेहतर समझना चाहिये। नौजवान बच्चे यह समझें कि शुक्र है हमारे करीब कोई तो ऐसा है जो हमें ग़लती होने से पहले (इससे) बचा लेता है।*
*★_ हर बंदे को तजुर्बात करने की ज़रूरत नहीं। ज़िंदगी के नफा व नुक़सान के तजुर्बे हर किसी को करने पड़ें तो मुसीबतों में से गुज़रना पड़ जाए, ज़िल्लतें उठानीं पड़ जाएं, परेशानियां सर पर खड़ी रहें। इसलिये हर एक को नफा व नुक़सान के तजुर्बे करने की ज़रूरत नहीं। मां बाप ने धूप में बाल सफेद नहीं किये होते। ज़िंदगी के जो तजुर्बे वह कर चुके हैं, औलाद को चाहिये कि इनसे फायदा उठाए। मां बाप की बात का लिहाज़ रखे। इसलिये मां बाप की बात को सुनना अच्छी आदत है और उनकी बात को दर्मियान में काट देना, इंतिहाई बुरी बात है।*
*★_ अब यहां तहम्मुल मिज़ाजी काम आती है। मां बाप अक़लमंदी के साथ बच्चे को डील करें, न उसमें एहसासे बरतरी पैदा होने दें और उन में एहसासे कमतरी पैदा होने दें। चूंकि उम्र ऐसी है कि फौरन गुस्सा आता है और नौजवान बच्चों को जब गुस्सा आता है तो लगता है कि कोई सैलाब आ गया है। उसी वक़्त जुदा होने की बातें करते हैं, घर से निकल जाने की बात करते हैं, बस मरने मारने पर तुल जाते हैं। उनका गुस्सा उनके कंट्रोल में ही नहीं होता।*
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*⊙_ बच्चों की नशो व नुमा में बड़ों का किरदार:-*
*★_ अब नौजवान बच्चों से यह पूछा जाए कि आप को किसने पाल पोस कर बड़ा किया?जवाब मिलेगाः मां बाप ने। भई मां बाप के साथ बड़े बहन भाईयों का भी तो हिस्सा है, उन्होंने भी तो मां बाप का साथ दिया। छोटे होते हैं तो बड़ी बहन मां की तरह उसका ख्याल रखती है। जो करीबी रिशतेदार होते हैं, वह मोरल सपोर्ट देते हैं। खाला, फूफो, और इस किस्म के जो भी रिश्ते होते हैं, उनकी मोरल सपोर्ट होती है। बच्चे खुद बखुद तो पल कर जवान नहीं हो जाते, उनके बड़े और जवान होने में करीब के लोगों का हिस्सा होता है।*
*★_ तो जब छोटे थे और हर काम में दूसरों के मोहताज थे, तब आखिर किसी ने तो तुम्हारा ख्याल रखा। तुम्हारी मां रातों को जागती थी। उसने बचपन में विलादत के बाद जाग कर कई रातें गुज़ारीं, कि साल दो साल तक बच्चे आम तौर पर रातों को जागते हैं, रोते हैं, मां थकी हुई भी हो तो उसको बच्चे की खातिर जागना पड़ता है। और जो छोटे बच्चे होते हैं, उनकी तो हमने अजीब आदत देखी, अल्लाह के फ़ज़ल से पूरा दिन वह सोते हैं और जब रात मां बाप के सोने का वक़्त होता है, उस वक़्त वह जागते हैं।*
*★_ तो मां बाप ने भी आखिर जाग के जिंदगी की रातें गुज़ारी।पहले बच्चे को खिलाया, बाद में मां ने खाया। पहले बच्चे को पिलाया, बाद में मां ने पिया। पहले बच्चे को सुलाया और बाद में मां जाकर सोई। कितनी उसकी कुर्बानी थी! तो आखिर कुर्बानी का कोई बदला चाहिये था?क्या इतना भी उस मां का हक़ नहीं कि वह नौजवान बच्चे को कोई बात समझाए तो यह उसकी बात को तसल्ली से सुन ले? आजकल नौजवान तो बस मां को अल्लाह मियां की गाय समझते हैं, लिहाज़ ही नहीं करते।*
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*⊙⇨वालिदैन के बारे में शरीअत का हुक्मः-*
*★_ आइये देखिये ! शरीअत ने क्या कहा। क़ुरान अज़ीमुश्शान में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त इर्शाद फरमाते हैं:_(وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا)*
*कि तुम मां बाप के साथ हुस्ने सुलूक का मुआमला करो।*
*मां बाप दोनों के साथ अच्छा सुलूक करो।*
*★_ एक सहाबी ने नबी अलैहिस्सलाम से पूछा कि मैं किसके साथ हुस्नू सुलूक करूं? फरमायाः मां के साथ। फिर पूछा, किसके साथ? फरमाया, मां के साथ। तीसरी मर्तबा पूछा, किसके साथ ? फरमाया, मां के साथ। चौथी मर्तबा पूछा, तो फरमायाः हां बाप के साथ भी हुस्ने सुलूक करो।*
*★_ तो इस हदीसे पाक से यह मतलब निकला कि बाप के साथ भी हुस्ने सुलूक करना है मगर मां का इससे भी ज़्यादा ख्याल रखना है। इसलिये कि मां ने तकलीफ ज़्यादा उठाई होती है। एक साल तो उसने पेट में उठाया होता है। फिर इसके बाद दो साल उसने गोद में उठाया होता है। हर वक़्त बच्चे ही में मसरूफ होती है, चौबीस घंटे की खादिमा। कोई ड्यूटी थोड़ी होती है! कि आठ घंटे में बच्चे को अटेंड करूंगी और फिर ड्यूटी खत्म, नहीं। मां बाप के तो चौबीस घंटे उसके लिये वक़्फ़ होते हैं,*
*★_ बल्कि पहले वक़्तों में जब आज कल के डाइपर नहीं होते थे और बच्चे रात को सर्दी के मौसम में सोए हुए अपने बिस्तर पर पेशाब कर देते थे तो हमने ऐसी मिसालें भी सुनीं कि मां बच्चे को खुश्क बिस्तर पर लिटा देती थी और गीले बिस्तर पर खुद लेट जाती थी। अल्लाहु अक्बर कबीरा।*
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*⊙⇨ एक मां का मुजाहिदाः-*
*★_ हमारे करीब रिशतादारों में एक लड़की ने नियत कर ली कि अल्लाह ने मुझे बेटा दिया है मैं इसको हमेशा बावुजू दूध पिलाऊंगी। अल्लाहु अक्बर कबीरा। हमने जो उसको देखा इतना मुजाहिदा, इतना मुजाहिदा ! हैरान रह गए। इसलिये कि मदर फीडिंग खुद करती है और उसने कहा कि मैंने नियत की हुई है कि बावुजू पिलाऊंगी। अब हर वक़्त तो वुजू नहीं रहता, चलो दिन में तो गुज़ारा हो जाता। सर्दी के सख़्त ठंडी रातों में बच्चे को दूध पिलाया और पिला के वह बेचारी लेटी तो पांच मिनट उसकी आंख लगी कि बच्चा फिर रोने लगा।*
*★_ अब गर्म बिस्तर में से उठ कर वह जाती और बाथरूम में वुजू करके फिर आके दूध पिलाती। फिर बच्चे को फीड देती और अभी आधा घंटा बच्चा नहीं सोया था कि फिर रोना शुरू कर दिया। अल्लाह की शान कि बच्ची को फिर वुजू के लिये जाना पड़ा। एक एक रात में वह बच्ची पंद्रह पंद्रह दफा जाकर वुजू करके आती।*
*★_ सोचें! वह मां रात को क्या सोती होगी? इसी तरह सफर में बच्चे के लिये वुजू का का़यम रखना कितना मुश्किल काम है। किस किस जतन से उसने अपने उस बेटे को दूध पिलाया ! यही सोच सोच कर मुझे हैरत होती है और दिल कहता है कि वाक़ई अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने जो मां का यह मक़ाम बताया, यह उस मां का हक बनता है।*
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*⊙⇨ मां का मकामः-*
*★_ इसीलिये हदीसे पाक में आता है कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त शबे कद्र में बड़े बड़े गुनाहगारों की मग़फित फरमा देते हैं लेकिन जो मां बाप का नाफरमान होता है, शबे कद्र में भी अल्लाह उसकी मग़फिरत नहीं फरमाया करते।*
*★_ नबी अलैहिस्सलाम की खिदमत में एक सहाबी आए और कहने लगेः ऐ अल्लाह के नबी ! मुझसे बड़ा गुनाह सरज़द हो गया। नबी अलै० ने फरमायाः जाओ! अपनी मां से दुआ करवा लो। उसने कहा, ऐ अल्लाह के नबी मेरी मां तो फौत हो चुकी। पूछा, तुम्हारी खाला है? जी वह ज़िंदा है, फरमायाः जाओ खाला से दुआ करवा लो, अल्लाह तुम्हारे बड़े गुनाह को बख़्श देगा।*
*★_ सोचिये ! जब कबीरा गुनाहों को अल्लाह तआला मां के हाथ उठने पर मुआफ फरमा देते हैं तो अल्लाह तआला के यहां मां का क्या मक़ाम होगा? इसलिये जो शख़्स अपने मां बाप से हुस्ने सुलूक करता है, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त उस बंदे की ज़िंदगी में बरकतें अता फरमाते हैं।*
*★_ हदीसे पाक का मफहूम सुनें और दिल के कानों से सुनें! जो शख्स अपने मां बाप के साथ हुस्ने सुलूक का मुआमला करता है, उसकी आने वाली औलाद कल उसके साथ हुस्ने सुलूक का मुआमला करेगी। यह है "अदले का बदला"। "जैसी करनी वैसी भरनी"। जो नौजवान लड़के लड़कियां, आज अपने मां बाप की खिदमत करेंगे कल जब उनकी शादियां होंगी और वह खुद मां बाप बनेंगे, अल्लाह उनको भी फरमांबरदार औलाद अता फरमाएंगे,*
*★_ क्या मज़े की बात है! तो इसलिये नौजवान बच्चे बच्चियों को चाहिये कि खिदमत करके मां बाप को राज़ी करें ताकि औलाद उनको राजी करे और इसके ज़रीए से अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त भी उनसे राज़ीं हो जाएं।*
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*⊙⇨ वालिदैन की खिदमत का सिलाः-*
*★_ यह अमल अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त को इतना पसंद है कि इंसान को दुनिया की मुसीबतों से भी बचाता है। चुनांचे बुखारी शरीफ की रिवायत है कि बनी इस्राईल के तीन बंदे सफर पर निकले, बारिश हो गई तो उससे बचने के लिये वह गार के अंदर चले गए। बारिश की वजह से एक बड़ी चट्टान गिरी और ग़ार के मुंह के ऊपर आ गई। इतनी वज़नी थी कि तीनों ने मिलकर ज़ोर लगाया, मगर वह हिलती ही न थी। अब कोई वहां था ही नहीं जो उनकी मदद करे, तीनों ज़ोर लगा लगा कर जब थक गए, आजिज़ आ गए, तो अब उनको मौत आंखों के सामने नज़र आने लग गई, कि गार का मुंह बंद है, हम भूखे प्यासे एड़ियां रगड़ कर यहीं मर जाएंगे।*
*★_ उस वक़्त उन्होंने सोचा कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के सामने कोई अपने अमल पेश करो! जिन अमलों को कबूल करके अल्लाह हमें इस मुसीबत से निजात दे दे। चुनांचे उन्होंने अपने अपने अमल पेश किये।इनमें से एक ने यह कहा कि मैं बकरियां चराता था और जब घर वापस आता तो मैं अपनी वालिदा को दूध दिया करता था। एक रात जब मैं आया तो वालिदा सो चुकी थी, मैं दूध लेकर खड़ा रहा कि वालिदा की आंख खुलेगी तो मैं दूध दूंगा। या अल्लाह ! वह पूरी रात सोई रहीं, उनकी आंख नहीं खुली, और मैं पूरी रात हाथ में दूध का ग्लास लेकर इंतेज़ार करता रहा। अगर यह मेरा अमल आपको पसंद है हमें इस मुसीबत से निजात दीजिये!*
*★_ तो इस अमल की बरकत से अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने तीसरा हिस्सा (ग़ार का जो मुंह था) वह खोल दिया।फिर दूसरे और तीसरे साथी ने अपना अपना अमल पेश किया और दुआ की कि ऐ अल्लाह! अगर मेरा यह अमल आपको पसंद है तो हमें इस मुसीबत से निजात दीजिये! तो वह चट्टान मुंह से हट गई और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने तीनों को इस मुसीबत से निजात अता कर दी।*
*★_ अब यहां यह बात सोचने की है कि मां बाप के साथ हुस्ने सुलूक भी, उन आमाल में से एक है कि जिन आमाल का वास्ता दिया जाए, इस अमल की बरकत से अल्लाह बंदे को दुनिया की मुसीबतों से भी बचा देते हैं। इसलिये नौजवान बच्चों को चाहिये कि वह भी अपने मां बाप की खिदमत करें, उनकी दुआएं लें और मां बाप को भी चाहिये कि वह औलाद के साथ पलंग और चारपाई वाला मुआमला न करें कि इधर से उठा कर उधर रख दी, ज़रा सी बात पर डांट पिला दी। वह भी उनको इंसान समझें, उनकी बात को सुनें और उनको समझाने की कोशिश करें। नफा व नुक़सान बताना चाहिये, ताकि बच्चे अपनी खुशी के साथ एक काम को कर रहे हों। तो मां बाप को भी इसका ख़्याल करना चाहिये।*
*★_ और औलाद को भी ख़्याल करना चाहिये। अगर बिलफर्ज़ मां बाप ख़्याल नहीं कर पाते तो क्या फिर भी नौजवानों को ख़्याल नहीं रखना चाहिये? शरीअत कहती है कि मां बाप ने अगर ख़्याल ना भी रखा तुम्हें अज्र तब मिलेगा जब तुम इसके बावजूद उनकी खिदमत करोगे। हैरत की बात है कि शरीअत कहती हैः मां बाप अगर काफिर हैं और मुशरिक हैं। तुम इस दुनिया में उनके साथ फिर भी अच्छाई का मुआमला करो।*
*"_(وَصَاحِبُهُمَا فِي الدُّنْيَا مَعْرُوفًا)*
*"_तो जब काफिर और मुशरिक मां बाप के साथ अगर अच्छाई का हुक्म है तो जो ईमान वाले मां बाप हैं, जिन्होंने बच्चे को छोटी उम्र में कलिमे की नेअमत दे दी, उनके साथ अच्छा सुलूक करना अल्लाह तआला को कितना प्यारा होगा?*
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*⊙⇨ अल्लाह की रजा, वालिदैन की रज़ा में हैः-*
*★_ यह पक्की बात है कि अल्लाह की रज़ा वालिदैन की रज़ा में है। जब तक वालिदैन राज़ी न होंगे, बंदे के आमाल भी कबूल न होंगे। हमारे करीब के एक देहात में एक वाकिआ पेश आया , देहाती इलाके में बूढ़े मां बाप थे, अल्लाह ने बुढ़ापे में उनको औलाद अता कर दी। बच्चे को उन्होंने पढ़ाया, बच्चा ज़हीन था, हत्ताकि वह बच्चा पढ़ लिखकर इंजीनियर बन गया।शहर के अंदर उसको बड़ी अच्छी नौकरी मिल गई, कोठी मिल गई, कार मिल गई। उसने मां बाप को कहाः जी आएं! मेरे साथ शहर में रहें। वह बेटे के पास शहर में आ गए। मां बाप चूंकि देहात में रहने के आदी थे, रिशतेदारियां वहीं थीं और आज़ाद फज़ा थी और वह उस माहौल में एडजस्ट हो चुके थे। वह कुछ दिन तो शहर में रहे फिर मां बाप ने कहा कि बेटे! हमें आप वहीं देहात में रहने दो। आप शहर में रह लो, हमसे मिलते रहना। चुनांचे इस तरह बेटे ने शहर में रहना शुरू कर दिया।*
*★_ कुछ अर्से बाद शहर के एक बड़े मुअज़्ज़ज़ घराने की एक खूबसूरत और खूब सीरत लड़की की तरफ से निकाह का पैग़ाम आया, मां बाप से पूछा, मां बाप ने कहा कि बेटे! ज़िंदगी आप ने गुज़ारनी है जहां आप खुश होंगे हम भी वहीं खुश होंगे ।उसकी शादी भी हो गई। अब शादी के बाद यह बीवी कुछ अर्सा तो उसके मां बाप को मिलने देहात में जाती रही। फिर जब बच्चों के सिलसिले शुरू हो जाते हैं तो आना जाना भी मुश्किल हो जाता है। मां बाप उस बच्चे को कहते कि आप हमारे पासा हफ्ते में एक दफा आकर मिल जाया करो। दो चार साल गुज़रे। तो अब बीवी जो थी वह मां बाप के पास जाने से इलर्जिक हो गई। जब यह जाने लगता तो वह हंगामा कर देती। यह परेशान कि वहां न जाऊं तो मां बाप नाराज़, और अगर जाऊं तो यही बीवी नाराज़। सोचता था कि मैं कैसे इस मुसीबत से जान छुड़ाऊं ?*
*★_ इतने में उसको सऊदी अरब से एक जाब आफर आ गई। बहुत मअकूल पेकेज था। उसने मां बाप को जाकर बताया । मां बाप बड़े खुश हुए, बेटे ! हमारा अल्लाह हाफिज़ है तुम उस देस में जाओगे, अल्लाह का घर देखोगे, बेटे ! हमारे लिये यही खुशी काफी है। मां बाप ने इजाज़त दे दी। यह बीवी बच्चों को लेकर मक्का मुकर्रमा आ गया। उस ज़माने में टेलीफोन तो ज़्यादा होते नहीं थे। बस हज और उम्मेरे पर जो लोग आते थे उन्ही के ज़रीए पैग़ाम रसानी होती थी। या कोई चीज़ एक दूसरे को पहुंचा दी जाती थी। चुनांचे यह नौजवान शुरू में उनके लिये ख़र्चा भेजता रहा और कभी कभी सेहत खुशी के पैग़ाम भी भेजता रहा, लेकिन तेरह साल यह वहीं पर रहा और अपने वालिदैन की तरफ वापस न आ सका।*
*★_ नेक था, हर साल हज करता था। एक मर्तबा हज के दूसरे तीसरे दिन यह मताफ में खड़ा था, बैतुल्लाह के सामने ज़ार व कतार रो रहा था। किसी अल्लाह वाले ने देखा, पूछा नौजवान ! क्या हुआ, कहता है कि मुझे तेरह साल हो गए हैं, हर दफा मैं हज करता हूं लेकिन हज के दो तीन दिन के बाद मैं ख़्वाब देखता हूं कि कोई कहने वाला कहता है "तेरा हज कबूल नहीं" और मैं परेशान हूं कि पता नहीं कौनसी मुझसे ऐसी गलती हुई है कि मेरा हज अल्लाह की बारगाह में कबूल ही नहीं? वह अल्लाह वाले थे, बंदे की नब्ज़ पहचानते थे, उन्होंने दो चार बातों में गेस कर लिया। कि उसने तेरह साल से मां बाप को शक्ल ही नहीं दिखाई, उनके पास गया ही नहीं तो साफ ज़ाहिर है कि बूढ़े मां बाप उस पर खफा होंगे। उन्होंने बात समझाई कि बेटे ! जाओ! मां बाप ज़िंदा हैं उनकी खैर खबर लो, फिर वापस आना। खैर यह आया और इसने आकर फौरन अपनी टिकट बुक करवा ली। बीवी ने कुछ आएं बाएं शाएं करने की कोशिश की, मगर यह नौजवान भी सीरियस था इसने उसको भी शेर की आंखें दिखाईं। जब बीवी ने देखा कि यह बहुत सीरियस नज़र आता है तो चुपके से डर के मारे भीगी बिल्ली बन कर बैठ गई। खैर उसने तैयारी की और वापस अपने मुल्क आया, अब जब अपने गांव के करीब पहुंचा तो उस नौजवान को यह भी पता नहीं था कि मेरे मां बाप इस वक़्त ज़िंदा भी हैं या न हीं? अब यह सोच रहा है कि पता नहीं मेरे मां बाप किस हाल मैं हैं? तेरह साल गए हुए हो गए थे। उसको एक नौ दस साल का लड़का मिला। उसने उससे पूछा कि वह फलां बड़े मियां का क्या हाल है? उसने बताया कि वह बड़े मियां तो छः महीने हुए फौत हो गए, अलबत्ता वह बूढ़ी औरत अभी ज़िंदा है, घर में है और बड़ी बीमार है। अब उसको एहसास हुआ, ओ हो! वालिद दुनिया से चले गये, मैंने आखिरी वक़्त में उनकी शक्ल ही नहीं देखी। अब तो अम्मी मुझसे नाराज़ होगी और अम्मी तो मेरा चेहरा ही नहीं देखेगी, अम्मी तो मुझे घर से ही निकाल देगी, मेरे साथ बात ही नहीं करेगी। अब यह सोच रहा है कि अम्मी को कैसे मनाऊंगा? मग़मूम दिल से घर की तरफ जा रहा था।*
*★_ बिलआखिर जब उसने घर के दरवाज़े पर पहुंच कर देखा, तो दरवाज़ा खुला हुआ था, किवाड़ मिले हुए थे। उसने आहिस्ता से दरवाज़ा खोला, अंदर दाखिल हुआ, क्या देखता है कि सहन में चारपाई के ऊपर उसकी बूढ़ी बीमार वालिदा लेटी हुई हैं। हड्डियों का ढांचा थी, वह चारपाई के साथ लगी हुई थी। जब वह दबे पांव बिल्कुल करीब पहुंचा तो हैरान हुआ कि उसकी वालिदा के उस वक़्त हाथ उठे हुए थे और वह कुछ अलफाज़ कह रही थी, गोया अल्लाह तआला से दुआ मांग रही थी। उसने जब करीब होकर सुना तो मां यह अलफाज़ कह रही थी, या अल्लाह! मेरा खाविंद दुनिया से चला गया, मेरा एक ही बेटा है जो मेरा महरम है, अल्लाह ! उसे बखैरियत वापस पहुंचा दे, ताकि अगर मेरी मौत आए तो मुझे कब्र में उतारने वाला कोई तो मेरा महरम मौजूद हो। मां यह दुआएं मांग रही है और बेटा समझता है कि मां मुझे देखना भी गवारा नहीं करेगी। उसने जब मां के यह अलफाज़ सुने उसने फौरन कहा, अम्मी! मैं आ गया हूं, तो मां चौंक उठी, आवाज़ सुनते ही बोलीः मेरे बेटे! आ गए, जी अम्मी ! मैं आ गया हूं। मां कहने लगीः बेटे ! ज़रा करीब हो जाना, मैं तुम्हारी शक्ल तो देख नहीं सकती, मुझे अपना बोसा ही लेने दो, मुझे अपने जिस्म की खुशबू सूंघने दो, यह मां की मुहब्बत होती है। खैर यह बेटा दो चार दिन वहां रहा, अल्लाह की शान कि मां बीमार थी, चंद दिनों में फौत हो गई। उसने अपनी वालिदा को दफनाया कफनाया और इस ज़िम्मादारी से फारिग़ होकर, कुछ अर्से के बाद यह वापस मक्का मुकर्रमा आ गया।*
*★_ कहते हैं, अगले साल जब हज का मौका आया, उसने हज के दूसरे दिन फिर ख़्वाब देखा, जिस शख्स को देखता था उसने देखा कि वही है और उसको कह रहा हैः अल्लाह ने तेरे इस हज को भी कबूल कर लिया और तेरे पिछले तेरह हजों को भी कबूल कर लिया। जब मां बाप के साथ हुस्ने सुलूक से अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त बंदे के अमलों को कबूल कर लेते हैं और उसके साथ रहमतों का मुआमला करते हैं तो नौजवानों को चाहिये कि घरों में न आपस में उलझें, न मां बाप की बेद्री करें। मां बाप शफकतों वाला मुआमला करें, औलाद खिदमत का मुआमला करे। सब मुहब्बत प्यार के साथ रहें लड़ाई झगड़े से बचें। यह फ़साद है और अल्लाह तआला फसाद को पसंद नहीं फरमाते।*
*(وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ)*
*अल्लाह तआला हमें नेक बन कर और एक बन कर जिंदगी गुज़ारने की तौफीक अता फरमाए।*
*®_ हज़रत मौलाना पीर ज़ुल्फ़िकार नक्शबंदी दा.ब__,*
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