NOOR E HIDAYAT-5 HINDI

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        ☜█❈ *हक़ - का - दाई* ❈ █☞
         ☞❦ *नूर - ए - हिदायत* ❦☜           
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 *☞_ .मजमुआ को बिखेरने की शैतान की कोशिश*

*↬ • जब दीन के काम करने वालो का एक मजमुआ तैयार हो जाता है तो इस्लाम की क़ूवत का ज़रिया बनता है,*
*★ •तो इस मजमुआ को बिखेरने के लिए शैतान इनफरादी इबादात में खलल पैदा करने और इनको इनफरादी आमाल से रोकने से बिलकुल गाफिल हो जाता है और ये सोचता है अगर किसी फर्द को मैंने अमल से रोक दिया तो ये एक फर्द का नुक़सान है, इसमें इतना नफा नही जितना नफा उसमें है कि जो मजमा तैयार हुआ है दीन की हिफाज़त के लिए, दीन की इशाअत के लिए, इस मजमुआ को किसी तरह बिखेरा जाये, इस पर शैतान की क़ूवत लगी है ,*

*★ • मजमुआ को बिखेरने के लिए इसके चन्द बुनियादी काम होतें हैं, इनमे सबसे बुनियादी काम ये है कि इनके दिलों में एक दुसरे के लिए वसवसों के ज़रिये बदगुमानी पैदा करो, ताकि ये अपनी असल से, अपने मरकज़ से और दीन की इज्तिमाइयत के मौक़े से बिखर जायें, और बिखर कर इनकी सलाहियतें और इनकी कुवतें मुजतमा ना रहे,*

*★ • शैतान बदगुमानी पैदा करता है ये उसका सबसे बड़ा हरबा है, कि अगर दावत के ज़रिये उम्मत में दीन का इस्तक़बाल पैदा हो तो काम करने वाले मजमुआ को बिखेरने के लिए इनको इनके बड़ों से बदज़न किया जाये, ये शैतान का बुनियादी काम है और ये मशवरा ये देगा कि हम तो इसके ज़रिये काम चाहते हैं,*        
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 *☞_ शैतान का काम  बदगुमानीपैदा  करना*

*↬ • हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत वलीद इब्ने उकबा रज़िअल्लाहु अन्हु को भेज़ा कि जाओ तुम बनु मुस्तलिक़ से ज़कात वसूल कर लाओ, ये अमानतदारी का ज़माना था, पूरे क़बीले से ज़कात वसूल करने के लिए सिर्फ एक आदमी को भेज़ा ,*

*★ • क़बीले को पता चला कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का क़ासिद ज़कात की वसूली के लिए आ रहा है तो पूरा क़बीला इसके इस्तक़बाल के लिए बाहर निकल आया क्योंकि वो हमारी एक इबादत (ज़कात फ़र्ज़ इबादत है) को करवाने के लिए आ रहा है,*

*★ •जब ये देखा कि दीन का इस्तक़बाल बढ़ रहा है, पूरा क़बीला ख़ुशी से ज़कात देने के लिए तैयार है और एक आदमी ज़कात की वसूली के लिए जा रहा है तो एक मुनाफ़िक़ ने उससे ये कहा कि जिसकी तुम ज़कात की वसूली के लिए जा रहे हो वो पूरा क़बीला बस्ती से बाहर निकल आया है तुम्हे क़त्ल करने के लिए,*

*★ • ये एक दोहरी चाल होती है, एक तो इस ग़लतफ़हमी को पैदा किया कि वो ज़कात के मुन्किर हैं, ज़कात का इंकार फ़रीज़े का इंकार है, एक मुनाफ़िक़ ने इस्तक़बाल को इंकार में तब्दील कर दिया,*

*★ • शैतान जिनके दिलों में दीन का इस्तक़बाल है उनको, आवाम को बदज़न करेगा दीनदारों की तरफ से और इनको बदज़न करेगा आवाम की तरफ से ,*  
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 *☞_ _तहक़ीक़ के बगैर कोई कदम ना उठाओ*

*↬ • अकेले सहाबी घबरा गए, ये वहीं से वापस हो गए, आकर अर्ज़ किया कि रास्ते में ये खबर मिली है कि पूरा क़बीला मेरे क़त्ल के लिए बाहर निकल आया है, बड़ा गुनाह हुआ की आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के क़ासिद के क़त्ल का इरादा और ज़कात का इंकार ,*

*★ • मैं ये बात कर रहा हूँ खैरुल कुरून की जिसमें फ़रीज़े का अदा ना करना कुफ्र समझा जाता था, फ़राइज़ की अदायगी इस्लाम की शरीअत में से है और दिल बिलकुल साफ़ थे (सहाबा के) उसमें एक मुनाफ़िक़ की एक (झूठी) खबर पर सहाबा किराम ने ये मशवरा कर लिए कि हमें उन पर हमला करना है और क़त्ल करना है बनु मुस्तलिक को ,*

*★ • तो वह्यी आ गई :— ऐ ईमान वालों ! अगर तुम्हारे पास कोई फ़ासिक़ कोई खबर लेकर आये तो तुम इसकी तहक़ीक़ कर लेना, तहक़ीक़ इसलिये की फ़ासिक़ का फिस्क़ खुल जाए, जल्दी ना करना बल्कि तहक़ीक़ करना कि बात सही है या गलत है, ऐसा ना हो कि तुम तहक़ीक़ किये बगैर कोई कदम उठा लो और ऐसा कदम उठा लो कि इस कदम की कोई तलाफ़ी ना हो,*
*“__नदामत आदमी को तब करनी पड़ती है जब किसी चीज़ की तलाफ़ी ना हो ,*

*★ • जितना कोई इरादा किया जा रहा है महज़ झूठी खबरों और महज़ बदगुमानी पर किया जा रहा है, सारा किला इसी पर तामीर है, इसका हक़ीक़त से दूर का भी कोई वास्ता नही, क्योंकि इस काम में इख़्तिलाफ़ की कोई चीज़ नही है, सिर्फ बद्गुमानियां है जो पैदा की जा रहीं है,*

*★ •शैतान का ये काम है कि इनके दरमियान फूट डालो बदगुमानी से ,_*    
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      *☞_ .इताअत का इम्तिहान होगा*

*↬• अल्लाह तआला काम करने वालों का इम्तेहान लेते हैं कि इस दर्जे पर पहुँचने के बाद इन्हें अपने काम पर अपनी बात पर यक़ीन कितना है, कि ये किसी खबर से मुतास्सिर तो नहीं होते, ऐसी ख़बरें बहुत हैं सीरत में ऐसे इम्तेहान बहुत हैं ,*

*★ • इम्तेहान बहुत सख्त होंगे कि अपनी ज़ात का एतमाद और अपनी राय और अपनी चाह को नबी के हुक्म पर ऐसे क़ुर्बान करना पड़ेगा कि उसका कोई शुबहा और इरादा बाक़ी ना रहे, और सख्त इम्तेहान उनका होता है जो किसी दर्ज़े में आगे बढ़ जाते हैं, उनका इम्तेहान उस दर्ज़े के ऐतबार से होगा ,*

*★ • हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के एक का़तिबुल वह्यी थे, जब आप पर कोई वह्यी आती थी तो इनको बुलाया जाता था लिखने के लिए, वो आपकी वह्यी की कैफियत देखते थे, आपके पसीना को आपकी थरथराहट को गुनगुनाहट को देखते और इंतज़ार करते कि आयत लिखवायें ,*

*★ • आज इतने अरसे के बाद एक मुसलमान क़ुरान के एक हर्फ़ को भी यक़ीन करता है कि ये अल्लाह की किताब है, तो उन सहाबी के यक़ीन की क्या कैफियत होगी जो आपके साथ आपके सामने बैठ कर वह्यी की कैफियत को देखें,*

*★ •आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर वह्यी नाज़िल हुई, अल्लाह ने इंसान की तख़लीक़ के मारहिल नाज़िल किये कि हमने इंसान को कैसे पैदा किया, अल्लाह ने इन सहाबी का इम्तेहान लेने के लिए इनकी जुबान पर ये अल्फ़ाज़ जारी कर दिए, बा-बरक़त है वो ज़ात जो सबसे अच्छा पैदा करने वाली है,*
*“_और उधर ये आयत आप पर वह्यी कर दी, इनकी ज़ुबान पर अलफ़ाज़ थे और आपकी ज़ुबान पर वह्यी के कलमात, आपने फरमाया ये भी लिखो, कहने लगे नही मैं ये नहीं लिखूंगा, (ये तो मेरे कलमात हैं) वो कहने लगे (नाउज़ुबिल्लाह) आसमान से कोई वह्यी नही आती जिसकी बात अच्छी लगती है लिखवा देतें है, रिवायत में है कि इस्लाम से मुर्तद हो गए और नबूवत का दावा कर दिया कि मैं नबी हूँ मेरे ऊपर भी वह्यी आती है ,_*  
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 *☞_ इताअत का मैय्यार बहुत ऊँचा है*

*↬ • हुक्म आएगा तबियत के खिलाफ, हुक्म आएगा मामूल के खिलाफ, हुक्म आएगा हैसियत के खिलाफ, जज़्बे के खिलाफ, कि हम देखना चाहते है कि अल्लाह और अल्लाह के रसूल की इताअत किस दर्ज़े तक पहुंची है ,*

*★ • ये इम्तिहान होगा, इस इम्तेहान में जो कामयाब होगा वो तो बाक़ी रहेगा, और जो फेल हो जाएगा वो इज़्तिमाइयत की सफ से निकल जाएगा और जो इज़्तिमाइयत की सफ से निकलेगा तो इसकी खुशुसियत ये है, दस्तूर ये है कि इज़्तिमाइयत की सफ से निकलने वाला दूसरो की खैर में रुकावट बनेगा ,*

*★ • शैतान ने आदम अलैहिस्सलाम को सजदे से इंकार किया, हुक्म से इंकार की वजह खुद इंकार है, नाफरमानी के लिए इतना काफी है कि अल्लाह के किसी हुक्म की इल्लत पर गौर करे कि ये हुक्म क्यों दिया गया ....मैं इससे बेहतर हूँ, ये मेरे साथ ज्यादती है कि मैं इसको सज़दा करूँ ,,*

*★ • तो वो इस सफ (फरिश्तों की सफ) से निकल गया, जब इससे निकल गया तो फिर इसका काम सिर्फ ये है कि वो खैर में रुकावट बने... तेरी इज़्ज़त की कसम मैं सबको गुमराह कर दूंगा, तो अल्लाह ने भी छूट दे दी कि जा जो तुझसे हो सके कर ले लेकिन ये बात याद रख, ईमान वालों पर तेरा बस नहीं चलेगा,*
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 *☞_ .इज्तिमाइयत के लिए एक दुसरे का तआवुन करें*

*↬• इज्तिमाइयत की असल बुनियाद है वो इताअत है, अगर इताअत पर हैं तो मुजतमा रहेगा,*

*★ • इज्तिमाइयत के लिए सबसे बुनियादी चीज़ एक दुसरे का तआवुन है, एक दुसरे का तआवुन करो दीन के कामों में, इसलिए दीन के जितने भी शोबे हैं, मकातिब है, मदारिस है, दीनी तहरीकें है इन सबका बाहमी तआवुन हो ,*

*★ • अगर बाहमी तआवुन नही होगा तो दीन चाहने वालों के इस तरह फिरके बनेंगे जिस तरह दुनिया वालो के फिरके बनते है, और अहले दुनिया के फिरको से वो दीन का नुक़सान, वो फसाद नही होगा जो अहले हक़ के फिरको से होगा ,*

*★ • दुनिया तबक़ात में बट जावे और एक दूसरे को खा जावे तो वो फसाद नही होगा जो अहले हक़ की तफरीक़ से होगा, तफरीक़ का बुनियादी सबब एक दुसरे का तआवुन ना करना होगा, इसलिए ये हुक्म फरमाया की दीन के कामों में एक दुसरे का तआवुन करो ,*

*★ •तआवुन का क्या मतलब है ? तआवुन का तो सिर्फ ज़हन में ये मतलब है कि माली तआवुन कर दो, मौलाना साहब फ़रमाते थे कि माली तआवुन से वो फ़ितने आएँगे जो फितने सदियों में नही आएँगे ,*

*★_ माली तआवुन दीन में तआवुन की सबसे अदना शक्ल है, माली तआवुन तो दीन में गैर मुस्लिम भी कर देगा, तआवुन का मतलब ये है कि दीन के तमाम शोबे एक दुसरे का दिफ़ा करें ,_"*
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         *☞_ .एक दुसरे का दिफ़ा करें*

*↬• दीन के तमाम शोबे एक दुसरे का दिफ़ा करे, अगर दिफ़ा नही करेंगे तो  बातिल को इनके दरमियान दाखिल हो जाएगा, क्योंकि एक दुसरे का दिफ़ा ना करने की वजह से बातिल को इनके दरमियान घुसने का रास्ता मिलेगा, उसको फटन नज़र आएगी ,*

*★ • हज़रत फ़रमाते थे की खुदा की क़सम मुसलमानों की जमातें उस वक़्त तक मुजतमा नहीं रह सकती जब तक एक दुसरे के फ़ेल (काम) की तावील ना करे, और हर जमात अपने काम को अपना नही बल्कि दुसरे (दीन) के काम को भी अपना काम समझें ,*

*★ • आदमी अपने घर के फर्द का दिफ़ा करता है चाहे कितनी ही बड़ी गलती क्यों ना हो, ये कोशिश कि गलती साबित ना हो, ये मामला अब मुसलमानों की दो जमातों में नही है, जो एक आम मुसलमान के दरमियान हुआ करता था ,*
*“___अपने मुसलमान भाइयों के गुनाह को साबित करने का तो सहाबा किराम के ज़माने में कोई तसव्वुर ही नही था ,*

*★ • खुद फ़रमा रहे की मैंने ज़िना किया ,...नही तूने हाथ लगाया होगा ,...नही नही मैंने ज़िना किया है ,...नही तूने छुआ होगा ,...बोसा लिया होगा ,*

*★ • ऐसे दो फिरके जो जहन्नुम में जाएंगे बजाये एक दुसरे के दिफ़ा के एक दुसरे की कमज़ोरी बताने में लगे, वो कहे ये इस चीज़ पर नहीं, ये कहे वो इस चीज़ पर नहीं हैं ,*   
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      *☞_ .एक दुसरे के लिए रहमत बनो*

*↬ • लेकिन वो रहमत कैसे बन सकते हैं जो एक दुसरे की नेअमत को खत्म करने की कोशिश में हों ,*

*★ • किसी की नेअमत को जा़ईल करने की फ़िक्र हसद पैदा करती है, तो वो उससे नेअमत को छीनने की कोशिश करते है अगर छीनने से नही मिलती तो उसको जा़ईल करने का रास्ता देखते है ,*

*★ • मुशरिकीने मक्का हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से नबूवत को तो नही छीन सकते थे, वो कहने लगे लिख कर दे दो कि आपके बाद हमें ज़िम्मेदार बनाया जाये, खिलाफत, सियासत हमें मिले तो हम आप पर ईमान ले आएँगे ,*

*★ • मुशरिकीन आपकी किताब पर भी हसद करते थे कि क़ुरान आप पर क्यों नाज़िल हुआ, हसद ने उनको इस्लाम की खैर से महरूम रखा, वाक़ई ये हक़ीक़त है, हसद आदमी को तनहा कर देता है ,*

*★ • हसद महरूमी का सबब क्यों है ? ये सवाल है, क्योंकि हसद करने वाला अल्लाह की तक़सीम से इख़्तिलाफ़ करता है, अल्लाह ने इसलिए फरमाया क़ुरान में कि ये तक़सीम हमारी है, तुम कौन हो हमारी तक़सीम में दखल करने वाले ,*

*★__हसद नेकियों को ऐसे खा जाती है जैसे आग लकड़ी को खा जाती है, इसलिए तआवुन में हसद पहली रुकावट है, जिसके दिल में हसद होगा खैर के काम में तआवुन नहीं करेगा, जो नेकियां कमाई थीं वो भी गई और मजीद कमाने का मौक़ा़ भी निकल गया, खैर के काम में तआवुन से अल्लाह नवाज़ते है, आगे बढ़ाते है, इसलिए फरमाया नबी जी आप इनके लिए रहमत हैं,*
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  *☞_ हक़ में नागवारियां और कड़वाहट है,*

*↬ • रहमत ये है कि आप नरम होकर चलें,  हक़ में तो नागवारियां और कड़वाहट है, जो हक़ पर जमेगा उससे लोग नाराज़ होंगे,*

*★_हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से अबु बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने खिलाफत देने से पहले ही फ़रमा दिया था कि उमर ये बात याद रखो की तुमसे सब खुश नही होंगे,*

*★ • वो कौन सा ज़माना था, खैरुल कुरून का ज़माना, और कौन हैं उमर, फ़रमाया कि मेरे बाद कोई नबी होता तो उमर होते, उनसे ये फ़रमाया कि तुम्हे जो काम करना है वो काम ऐसा है कि तुमसे सब लोग खुश नही होंगे,*

*★ • हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते है की मैं रिआया के बारे में इतना नरम हो जाता था कि मक्खन से ज़्यादा नरम और फिर अल्लाह का डर पैदा हो तो फिर मैं पत्थर से ज़्यादा सख्त हो जाता था, अल्लाह के दीन के बारे में उमर सबसे सख्त ,*

*★ • नरमी का मतलब ये है कि तुम अपने हक़ में नरम हो जाओ और दीन के हक़ में सख्त, तुम पर ज़िम्मेदारी है, तुम्हारे पीछे चलने वालो का हिसाब भी तुमसे होगा ,* 

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         *☞_ ज़िम्मेदारी का बोझ उठाओ*

*↬ • अपने मुतालबात को पूरा करवाने के लिए किसी को सही काम से रोका जाता है, ये बात दौरे रिसालत से चल रही है कि नेक काम से रोको, जब नेक काम से नही रुकेगा तो ये कहेंगे अच्छा तुम ऐसा करना चाहते हो तो हमारा ये काम कर दो हम तुम्हे काम की इजाज़त दे देंगे ,*

*★ • ये अल्लाह का बड़ा फ़ज़ल है कि अल्लाह तआला काम करने वालो को हक़ पर जमाये रखे, वरना इंसान कुछ नही कर सकता, हम क्या कर सकते है अगर अल्लाह मदद ना करे ,*

*★ • आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ जो ज्यादतियां हुई हैं उसमें जो आपने एहसानात किये है, ये रहमत है, ये नही कि आप दीन के बारे में नरम पड़ जायें, फ़रमाया मैं हक़ के बारे में कभी नरम नही पडूंगा, अगरचे की चबाने वाले के दांत में पत्थर नरम पड़ जावे, अगर मुझसे नाहक़ मुतालबा करवाया गया तो मैं इस बारे में हरगिज़ नरम नही पडूंगा ,*

*★ • हज़रत फ़रमाते थे नाहक़ दीन के खिलाफ मुतालबे को पूरा करना फ़ित्नों को खत्म नही करेगा, फ़ित्नों को जन्म देगा,  दीन से महरूमी का सबब बनेगा,*

*★ • ये ज़िम्मेदारियाँ हैं, ज़िम्मेदारी का बोझ उठाओ, आदमी अपने ज़ाती ताल्लुक़ात की वजह से ज़िम्मेदारियों से हाथ उठा लेता है कि ये मेरी क़ौम है, मेरे लोग हैं, मेरे दोस्त हैं,* 
*“_ इस सोच से बड़े बड़े बादशाह वो इस्लाम को, दीन को और आपकी नबूवत को यक़ीन करने के बाद भी इस्लाम नही ला सके, कि हम क़ौम को क्या जवाब देंगे, हम मानते है बात सौ फीसदी ठीक है लेकिन हमारी क़ौम नही मान रही,*

*★ •ये है क़ौमियत का दीन, हदीस में आता है जो शख़्स मख्लूक़ को राज़ी कर के अल्लाह को नाराज़ करेगा, अल्लाह भी नाराज़ हो जाएगा और मख्लूक़ को भी नाराज़ कर देगा, कुलूब अल्लाह के हाथ में है तुम कुछ नही कर सकते और जो अल्लाह को राज़ी करके सारी मख्लूक़ को नाराज़ कर ले कि अल्लाह राज़ी है बस तो अल्लाह तआला खुद तो राज़ी हो जाते हैं मख्लूक़ को भी राज़ी कर देते हैं ,_*
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 *☞_ अपने हक़ में दरगुज़र और अल्लाह से माफ़ी*

*↬• रहमत बनें, अगर आप सख्त दिल हो गए तो ये आपको छोड़ कर भाग जाएंगे ,*

*★ • लिहाज़ा पहला काम ये है कि आपने हक़ में तो आप दरगुज़र करें, जो अल्लाह से माफ़ी का तलबगार ना हो वो हर खैर से महरूम हो गया, शैतान की शैतानियत क्या है ? कि वो माफ़ी का तलबगार नही है ,*

*★ • दूसरी बात ये है कि जो अल्लाह से माफ़ी नही चाहेगा वो मख्लूक़ को माफ़ नही करेगा, कि इनको माफ़ कर दो, अगर तुम इनको माफ़ कर रहे हो तो इसका मतलब ये है कि तुम अल्लाह से मगफिरत चाहते हो, तुम इन्हें माफ़ कर दो अल्लाह तुम्हे माफ़ कर देंगे ,*

*★ • इसलिए अपने साथियों के लिए तन्हाइयों में इस्तग़फ़ार किया करें हम सब, हमारी तन्हाइयों में अब तो गीबतें हैं इस्तग़फ़ार नहीं है, शिकायतें हैं, इन सारे फसाद की फुर्सत इसलिए मिल रही है कि इन्फ्रादी दावत ना होने की वजह से,*

*★ • अल्लाह माफ़ करे पुरानो की सतह इन्फ्रादी दावत से ऊपर चली गई है, इन्फ्रादी दावत तो बड़े बड़े फ़ित्नों को रोक देगी, ये ऐसी मशगुली का काम है कि फ़ित्नों को ख़त्म भी कर देगा और महफूज़ भी कर देगा,*

*★_हमें फुर्सत नही है कि हमें ये काम मिला हुआ है, क्या काम मिला हुआ है ? कि हर मुसलमान को कम से कम कलमा सिखला कर जहन्नम से बचाओ, लोगों की ज़ुबान पर कलमे के अल्फाज़ भी दुरुस्त नही है, खुदा की क़सम अब काम मक़सद से हट गया, थक गए लोग, मक़सद से हट गए इसलिए थक गए ,*

*★_तय कर लो (आज से ) मुझे लोगों का कलमा ठीक कराना है उसका महफूम समझाना है ,*
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 *☞_ .अपने आपको ठीक करने का रास्ता*

*↬ • जब मोमिन की दुआ मोमिन के हक़ में उसकी दुनिया के लिए मक़बूल है, तो मोमिन की दुआ मोमिन के हक़ में उसकी आख़िरत के लिए मरदूद क्यों होगी,*

*★ • इसलिए साथियों के लिए इस्तग़फ़ार करें और साथियों से दरगुज़र करें, बड़ी बड़ी गलतियां हुई हैं लेकिन जो लोग किसी इज्तिमाई काम पर मुजतमा होतें है वो गलतियों को मौजू नहीं बनाते,*

*★ • मौजू इसलिए नही है क्योंकि काम हर एक की इस्लाह के लिए है, दुसरे की इस्लाह के लिए नही है, ये तो अपने आपको ठीक करने का रास्ता है,*

*★ • हदीस में आता है कि दूसरों की इस्लाह की फ़िक्र इसके ग़म को बढ़ा़ देगी और इसको कभी तसल्ली नही होगी ,*
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 *☞_ अपने मशवरे को काम के लिए खालिस करो,*

*↬ • ये काम की तरक़्क़ी का ज़रिया है, हमारा मशवरा उम्मत की सलाहियतों को दीन पर लगाने और दीन के तक़ाज़े को पूरा करने के बारे में हमारा मशवरा होता है,*

*★ • ये हमारा उसूल है, ज़ाती झगड़े मशवरे में नही लाते, जब तुम अपने मशवरे में काम के मौजू के अलावा कोई चीज़ लाओगे तो तुम्हारे मशवरे का मौजू काम से हट जाएगा, ये उम्मत के दीनी नुकसान का सबब बनेगा ,*

*★ • हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आदते शरीफा थी कि आप शख्सी मसाइल को मशवरे में लाते नही थे, फैसले भी नही फ़रमाते, जिसकी तबियत का रुझान जिसकी तरफ हो उससे जाकर मशवरा कर लो ,*

*★ • आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हुजरे से बाहर निकले तो दो आदमी आपस में बहस कर रहे थे, एक बकरी बेच रहा था और एक खरीद रहा था, खरीदने वाला कह रहा था कि क़ीमत कुछ कम कर लो, बकरी वाला कहता की क़ीमत यही रहेगी ,*

*★ • आप नज़र आ गए तो उसने अर्ज़ किया कि या रसूलल्लाह आप बकरी वाले से कह दें कि बकरी की क़ीमत ज़रा कम कर दे मैं खरीदना चाहता हूँ ,*
*“__आपने हाथ उठा दिया, फरमाया कल मैं अल्लाह से ज़ालिम बन कर मिलना नही चाहता ,*

*★ • ताजिर को क्या करना चाहिए इसके फ़ज़ाइल बताये ,_* 
     
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    *☞_ काम में गैर जानिब बन कर रहो*

*↬ • लोग बड़ी आसानी से लोगों के ज़ाती मसले में दाखिल हो जाते हैं क्योंकि आख़िरत का फ़िक्र नही है कि वहां जवाब देना पड़ेगा ,*

*★ • बाज़ मर्तबा आदमी बड़ा बनने के लिए और लोगों की नज़र में महबूब बनने के लिए दूसरों के झगड़े में पड़ जाता है अपना काम छोड़ कर,*

*★ • इस काम में गैर जानिब (यानि न्यूटल) बन कर चलोगे तो तुम तरक़्क़ी करोगे, काम भी तरक़्क़ी करेगा, अगर गैर जानिब दार बनकर नही रहोगे तो जानिबदारी भी हमें जानिब कर देगी, आप इसके आदमी हैं, आप इसके, उनके आदमी हैं, (यानि गुटबाज़ी होगी ) फिर आप काम के आदमी नही रहेंगे,*

*★ • आपने देखा होगा तांगा जब सड़क पर चलता है तो घोड़ों की दोनों आँखों पर पट्टा लगा होता है कि दाएं बाएं ना देखे, अगर ये दाएं बाएं देखेगा तो इसकी चाल में फर्क आयेगा ,*

*★ • इसलिए यक़सूई अख्तियार करो, अपने काम से काम रखो ,_* -
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    *☞_ _हमारी लाइन दुनिया से अलग है*

*↬ •  हज़रत बरीरा रज़ियल्लाहु अन्हा बहुत खूबसूरत थीं, हज़रत मुग़ीस रज़ियल्लाहु अन्हु बहुत बदसूरत, इनको बरीरा से बहुत मोहब्बत और बरीरा को मुग़ीस से नफरत ,*

*★ • लोगों ने कहा कि आपका हुक्म मान लेंगी आप बरीरा को कह दीजिये कि मुगीस को क़बूल कर लें, आप कहेंगे तो वो हां कर लेंगी, आपने बुलाया बरीरा को, क्या ख्याल है अगर तुम मुग़ीस को क़बूल कर लो ? बरीरा ने कहा ये आपकी राय है या हुक्म है,• हुक्म पर तो गर्दन कटा देंगे इसमें कोई दो राय नहीं, अगर आपकी राय है तो मुझे उसकी कोई ज़रूरत नही ,*

*★ • आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की राय का साफ़ इंकार कर दिया, ये औरत का अपना शख्सी मसला है, तो आपने फरमाया– हमारा हुक्म नही हमारी राय है ,_*

*★_ साथी उलझे हुए हैं ज़ाती मसाइलों में, जब सहाबा किराम कोई उलझा हुआ मसला लेकर आते आपके पास, आप फरमाते जाओ अपना काम करो, अपनी दुनिया का मामला तुम अच्छी तरह जानते हो, यह हमारी लाइन नहीं है ।*

*★_आप सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम से 3 सवाल किए गए - बस यह बता दीजिए कि असहाबे क़हफ कौन थे, जु़लकरनैन कौन थे और रूह क्या है ? यह हक़ीक़त है लेकिन यह किस्से कहानियों के लिए आप नहीं भेजे गए, तो आप परेशान हो गए कि मैं क्या करूं?  तो अल्लाह ने फरमाया कि अगर कोई आप से हटकर सवाल करें तो सरसरी जवाब देकर टाल दिया करो और आपको इस बारे में लोगों से पूछने की भी ज़रूरत नहीं है, आप तो उस चीज़ का फिक्र कीजिए जिस चीज़ के लिए आपको भेजा गया है ।*

*★_ इसलिए आपने एक हदीस में फरमाया सहाबा से, कि जिस काम को मैंने तुम्हें करने के लिए कहा नहीं, तुम उसके बारे में मुझसे सवाल मत किया करो, जो करने को कहा गया वही करो ,*
     
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    *☞__मशवरा हमारे काम का वक़ार है,*

*↬• आप ﷺ के पास उमूर आते थे, लोग अपने अंदाज से उमूर रखते, सुनो! ये भी एक डरने की बात है कि बात मशवरे में किस अंदाज़ से रखनी है, सादा काम है, सादा ज़हन से चलेगा, चालाकियों से नहीं, चालाकी तो दुनिया में भी नहीं चलती, चालाकी करने वाला आगे जा कर फंस जाता है, तो दीन में चालाकी इसका तो कोई तसव्वुर ही नहीं है क्योंकि दीन तो अमानत है  ,_*

*★• अपने मशवरे को काम के लिए खालिस करो, जितना मशवरा काम के लिए खालिस होगा उतना मशवरे में वका़र आएगा, हमारे सारे काम का वका़र मशवरे में है, जिस तरह पूरे इस्लाम का वका़र नमाज़ है,*

*★ •जो नमाज़  को वका़र के साथ दुरुस्त कर के पढ़ेगा इसका (नमाज़ का) असर पूरे दीन पर पढ़ेगा, पूरा दीन क़ायम हो जाएगा,.इसलिए हमारे सारे काम का वक़ार मशवरा है,*

*★_ और एक बात अर्ज़ करुं, मौलाना ओबेदुल्ला साहब फरमाते थे कि हमें यकीन है हजरत (मौलाना इलियास साहब रह.) ने इस तरह काम को अल्लाह के यहां कुबूल करवाया है कि मेहंदी अलैहिस्सलाम तक पहूंचेगा, मैंने मौलाना इलियास साहब रह. की वो कैफियत देखी है कि काम वहां तक पहुंच जाएगा, इंशा अल्लाह!  ,_
       
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      *☞__हमें सबकी ज़रूरत है*

 *↬• अपने मशवरे में वका़र पैदा करो और वका़र इता'त में है, इंकार, इसरार में नहीं, इंकार इसरार से तो मशवरा पार्लियामेंट बन जाता है, वहां जम्हूरियत है, क्योंकि इस्लाम में जम्हूरियत नहीं है मशवरा है, इसीलिए इस्लाम में बरकत है मशवरे की वजह से, आप देख लो सीरत की  जितनी भी बड़ी बड़ी बरकते हैं वो सब  मशवरे पर हैं,*

*★• हमारा मशवरा सारे आलम के तक़ाज़ों को सोचने का और सारे आलम के तक़ाज़ों को पूरा करने का मशवरा है, एक मशवरा है, जेसे मस्जिद की एक नमाज़़  होती है दो नहीं होती, मकरूहे तहरीमी है, बाद में आने वाले जमाअत मस्जिद में नहीं कर सकते, इसी तरह मशवरा है,_*

*★• दूसरी बात ये जरूरी है कि किसी से मुस्तगनी ना हों कि हमें इनकी जरूरत नहीं है, हमें सबकी जरूरत है, सबके पास जाओ, सबका इकराम करो, सबको साथ लो, जिनकी तरफ से नागवारी पेश आये उनका इकराम करना असल इकराम है, वरना मोहसिन का इकराम तो अहसान का बदला  है, वो तो कमीना है जो अहसान का बदला ना दे,*

*★ • जो अज़ियत का बदला अहसान से दे ये नबुवत का मुका़म है इसको सिखलाया गया  है, इसकी मश्क़ करवाई गयी है, अगर तुमने अज़ीयत का बदला अहसान से दिया तो ये तुम्हारा जिगरी दोस्त रहेगा, ये कुरान का फैसला है, कुरान की बात सच्ची है,*

*★.  आपकी जान लेने वाले आपके जांनिसार केसे बनते थे, और कोई हिकमत नहीं थी सिवाए इकराम के, वो देखते थे कि हमारी अब तक की कोशिश से इन्होने हमारे खिलाफ क्या किया? •मुखालफत से मुख़ालिफ़ का नुक़सान है काम का नुक़सान नहीं है, ये भी लोगों का ख़्याल ग़लत है कि काम का  नुक़सान हो रहा है,"*

*★•_हदीस में आता है, जो आदमी ये कहे लोग हलाक हो गए, लोग हलाक हो गए, वो सबसे ज्यादा हलाकत में है, इसलिए हमारा किसी से इख्तिलाफ ना हो, अगर हमारी तरफ से किसी को इख्तिलाफ हो तो मिल कर बैठो, इख्तिलाफ ख़त्म करो,  क्योंकि पार्टियाँ बन कर काम नहीं चलेगा, इस्लाम में तो पार्टी है ही नहीं, अहले हक़ की पार्टी नहीं होती,*

*★_इसलिये हमें इन चीज़ों का ख़याल करना है कि एक दूसरे का तआवुन करें, काम करने वालो में भी और दीन के दूसरे शोबो का भी तआवुन करें,*

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      *☞___सुन्नत के बगैर तहज़ीब*

*↬ • इत्तेबाअ के बगैर तहज़ीब की कोई हैसियत, कोई तसव्वुर नही, तहज़ीब तो सिर्फ इत्तेबाअ ए सुन्नत है,*

*★ • लेकिन इस जमाने में बहुत सी सुन्नते मुसलमान इसलिए छोड़े हुए है कि इस ज़माने के एतबार से माहौल के खिलाफ है, हालांकि इत्तेबाअ ए सुन्नत ही असल तहज़ीब है ,*

*★ • यहूदो नसारा के तरीक़े मुसलमानों में इतने आम हो गए कि उनकी सुन्नतों की जगह गैरो के तरीक़े ने ले ली, गैरो के तरीक़े मुसलमानों के दरमियान तहज़ीब बन कर रहने लगे, सुन्नतें रिवाजी़ तरीक़ो के ग़ालिब आ जाने की वजह से हल्की मालूम होने लगीं ,*

*★ • बड़े बे अक़ल़ हैं वो लोग जो किसी माहौल में इस वजह से सुन्नत पर अमल नही करते की लोग सुन्नत पर हँसेंगे ,*

*★ • हालांकि अहया ए सुन्नत कहते ही इसको है कि ऐसे माहौल में सुन्नत पर अमल करना जहा सुन्नत का माहौल नही है ,*
*“__सुन्नत के अहया पर (जिन्दा करने पर) 100 शहीदों का सवाब है, अगर कोई सुन्नत पर हँसता है तो बराहे रास्त मुहम्मद ﷺ पर हँसता है, अल्लाह तआला फ़रमाते है कि नबी जी आप पर हँसने वालो के लिए हम काफी हैं ,
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 *☞_हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के अख़लाक़-*

*↬ • अदी इब्ने हातिम रज़ियल्लाहु अन्हु जब आये तो दूर से देख कर पहचान गए की ये नबी हैं, बादशाह नही हैं, कि औरते और बच्चें आपके करीब बैठे थे, फौरन समझ किया कि नबूवत है बादशाहत नही है,*
*“_बादशाहों में तो मिज़ाजी तकब्बुर होता है, वो अपने मुताल्लिक़ीन को भी अपने पास बैठाना गवारा नही करते,*

*★ • हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इम्तियाज़ी शान से बचते थे, आप अपना तआर्रुफ़ खुद कराते थे, आपसे अर्ज़ किया गया कि आने वाले आपको पहचानते नही हैं, लिहाज़ा कोई ऐसी जगह बना दें जहां आप बैठा करें कि आने वाले आपको पहचान लें, आपने फ़रमाया, मैं तो चाहता हूँ कि मैं सहाबा के दरमियान इस तरह रहूँ की तुम मेरी गर्दन को कुचल कर चलो,*

*★ • हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आ'ला अख़लाक़ का तक़ाज़ा था कि अगर सहाबा आपसे दुनिया की बातें करते तो आप दुनिया की बाते करते, सहाबा खाने की बात करते तो आप खाने की बात करते, इससे आने वाला क़रीब हो जाता था इसलिए कि जो तरबियत क़ु़रबत से हो सकती है वो दूरी से नही हो सकती,*
*“__सहाबा खुद फ़रमाते है कि हम आपसे दुनिया का ज़िक्र करते तो आप दुनिया का ज़िक्र फ़रमाते, खाने की बात करते तो आप खाने की बात फ़रमाते, जब आपसे आख़िरत की बात करते तो आप आख़िरत की बात फ़रमाते ,_*

*↬ • हज़रत अनस रज़िअल्लाहु अन्हु फ़रमाते है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम लोगों में सबसे ज़्यादा नरम तबियत थे • फ़रमाते हैं खुदा की क़सम अगर कोई शख्स या कोई बांदी या कोई बच्चा सर्दी में ठंडा पानी भी लेकर आता कि आप उसको इस्तेमाल कर लें (वुज़ू के लिए) तो आप मना नही फ़रमाते थे,*

*★ • और जो कोई आपसे कोई सवाल करता तो आप उस वक़्त तक अपना कान नही हटाते जब तक कोई अपनी बात कह कर चला ना जावे ,और जो भी आपका हाथ पकड़ता (मुसाफा करते वक़्त) आप उससे अपना हाथ नही छुड़ाते थे जब तक कि वो खुद ही आपका हाथ ना छोड़ दे ,*

*★ • और कभी किसी की तरफ मुतवज़्ज़ह होते तो आप अपना चेहरा नही फेरते यहाँ तक कि वो अपना चेहरा फेर कर चला जाता और कभी मजलिस में बैठने में आप घुटने टेकने वालो से आगे नही बड़ते थे, आप सबसे आगे नही बैठते थे बल्कि सहाबा किराम रज़िअल्लाहु अन्हुम के साथ बैठते थे ,_*
 
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 *☞_ .बीवी बच्चों से मुहब्बत का फ़ितरी तक़ाज़ा*

*↬ • मुआशरे का आदाब इत्तेबाअ ए सुन्नत से मिलेगा, वरना इस ज़माने में ऐसी हैवानी ज़िन्दगी है कि जिस औलाद बीवी बच्चों के लिए माल कमाते हैं, उनके साथ माल कमाने की धुन में खेलने बैठने का भी मौक़ा नही मिलता ,*

*★ • हज़रत फ़रमाते थे-पहले  तो ये अपने दीन को क़ुर्बान करता है ख्वाईश के लिए फिर ख्वाहिशात में इतना आगे बढ़ जाता है कि ख्वाईश को क़ुर्बान करता है दूसरी ख्वाईश के लिए, ख्वाईश आई बीवी बच्चों से मिलने की उससे बड़ी ख्वाईश आ गई माल कमाने की तो बीवी बच्चों से मिलने की ख्वाईश को क़ुर्बान कर देगा माल कमाने के लिए ,*

*★ • सुबह जल्दी निकल जाते है शाम को आते हैं, सुबह बच्चे सोये होते हैं, शाम को सोते मिलते हैं, इन्हें बच्चों के साथ मिलकर बैठना नसीब नही होता,*

*★ • क्योकि जब आदमी की फितरत बिगड़ जाती है तो फ़ितरी तक़ाज़े भी बदल जाते हैं, फ़ितरी तक़ाज़ों में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने सबसे अहम चीज़ इबादत रखी है, जो लोग इबादत पर नही आएँगे वो अपनी औलाद और मुताल्लिक़ीन से फ़ितरी मोहब्बत नही करेंगे ,*

*★ • चूंकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने मोहब्बत का जो वायदा फ़रमाया है वो ईमान आमाले सालेहा पर फरमाया है ,_* 

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 *☞_ .माँ की गोद पहली तरबियत गाह है*

*↬•  लोग अपने अहल से फ़ितरी मोहब्बत नही रखते (ईमान और आमले सालेहा ना होने की वजह से), उन्हें एक ज़रूरी चीज़ समझते हैं, उनको ज़रूरत पर इस्तेमाल करते हैं ,*

*★ • हालांकि जितनी भी इंसान की तबियत की, फरहत की चीज़े हैं उन सब में सबसे ज़्यादा दिलों को सुकून पहुचाने वाली चीज़ वो औलाद है, जानवर भी अपनी औलाद से मुहब्बत करते हैं ,*

*★ • इस ज़माने का दस्तूर ये हो गया है कि औलाद को तो नौकर पालते हैं और मियां बीवी ये कमाने में आपस में एक दुसरे से जुदा रहते है, इसको इस जमाने में तरक़्क़ी कहा जाता है, सारा यूरोप का निज़ाम यही है जो बड़ी तेज़ी से मुसलमानों में भी आ रहा है ,*

*★ • इसलिए अपने बड़ो की वो आदत औलाद में मुंतकिल नही होती जो उनकी नस्लो से चली आ रही होती है, सारी खानदानी शराफते इसलिए खत्म हो गई कि इस ज़माने में औलाद को नौकर पालते हैं ,*

*★ • हालांकि माँ की गोद वो सबसे पहली अहम तरबियत गाह है, लेकिन इस ज़माने में औलाद को वालिदैन की गोद नही मिलती ,*
   
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 *☞_ _हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम की हसनैन रज़ियल्लाहु अन्हुम से मुहब्बत*

*↬• हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बावजूद तमाम मशागिल के और बावजूद मुसलसल आप ग़मगीन रहते थे, इसके बावजूद आप बच्चों के साथ इस तरह खेलते थे कि शायद इस तरह खेलना इस ज़माने में लोगों को ऐब मालूम हो, कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा ?*

*★ • आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ऊंट बन जाते हसनैन रज़ियल्लाहु अन्हुम के लिए और आपके बालों की लटों की लगाम  बना लेते और आप ऊंट की आवाज़ निकालते और ये दोनों आपकी पीठ पर सवार रहते, चारों हाथों पैरों से चलते आप ऊंट बनकर, देखने वाले कहते कैसी अच्छी सवारी है, तो आप फ़रमाते सवार भी तो कितने अच्छे हैं ,*

*★ • आप मोढो पर बच्चो को बिठा कर सहाबा के दरमियान आप निकल आते थे • हसनैन में से कोई एक चादर में उलझ कर गिरा, आप खुत्बा देते हुए मिम्बर से भागे उन्हें उठाने के लिए ,*

*↬ • जब दीन नही रहेगा तो फ़ितरी तक़ाज़े ख़त्म हो जायेंगे, (इस ज़माने में) इतनी दुनिया मतलूब है कि वालिदैन को औलाद की और औलाद को वालिदैन की कोई परवाह नही है ,*

*★ • जिस तरह जानवर अपनी औलादों को भूल जाते है बड़े होने के बाद, औलादे (इस ज़माने में) वालिदैन को भूल जाती है बड़े होने के बाद, जानवरों की सिफ़तें इंसानो में आ रही है ,*

*★ • इसलिए हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मा'शरा और आपकी सुन्नते हर लाइन की वो फितरत को बाक़ी रखने के लिए है, वरना सारे इस्लाम और दीन का खुलासा इत्तेबा ए सुन्नत है, इत्तेबा ए सुन्नत के बगैर दीन मुक़म्मल नही हो सकता ,_* 

*💤 एडमिन की डायरी - हक़ का दाई (कुल हिन्द मशवरा- 23-03-2017)_,
  
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 *☞_ . हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मामूल अपनी औलाद के साथ*

*↬• अपने बच्चों साथ ना खेलना ये तकब्बुर की अलामात है, आदमी में जब बढ़ाई आ जाती है तो वो अपनों के साथ बे तक़ल्लुफी को अपनी हैसियत से नीचे समझता है, फ़रमाते हैं अनस रज़िअल्लाहु अन्हु की मैंने नही देखा कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ज़्यादा कोई अपनी औलाद और अपने मुताल्लिक़ीन पर आपसे ज़्यादा कोई रहम करने वाला हो,*

*★ • इब्राहिम रज़ियल्लाहु अन्हु आपके बेटे, वो मदीना की आबादी मोहल्ले से दूध पीने के लिए भेजे गए थे, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम  वहां तशरीफ़ ले जाते • सहाबा फ़रमाते हैं कि हम आपके साथ जाते, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम घर में दाखिल होते, हालांकि पूरा घर धुंए से भरा होता था क्योंकि जो इब्राहिम रज़ियल्लाहु अन्हु को दूध पिलाती थी उनके शौहर लोहार थे, लेकिन आप धुंए की कोई परवाह नही करते आप तशरीफ़ ले जाते, आप बच्चे को उठाते, प्यार करते और वापस आ जाते,*

*★ • सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम फ़रमाते है कि जब इब्राहिम रज़ियल्लाहु अन्हु की वफात हो गई तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, इब्राहिम मेरा बेटा है और ये दूध पीने की मुद्दत में वफात पाया है, अल्लाह ने जन्नत में इसके दूध पीने की मुद्दत को पूरा करने के लिए दो औरतों को मुतैय्यन कर दिया है,*

*↬• अब्दुल्लाह इब्ने हारिस रज़ियल्लाहु फ़रमाते हैं कि जनाबे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, अब्दुल्लाह, ओबैदुल्लाह और कसीर (हज़रत अब्बास रज़िअल्लाहु अन्हु के दोनों बेटे), इन तीनो को एक सफ में खड़ा करते फिर फ़रमाते कि तुममे से जो दौड़ कर मेरी तरफ आवे जो आगे बढ़ेगा, मेरी तरफ पहले पहुंचेगा उसको ये इनाम दूंगा, इस तरह आप बच्चों की दौड़ लगवाते, चुनांचे ये तीनों दौड़ कर आपकी पीठ पर चढ़ जाते, आपके सीने पर, आप उनको प्यार करते, उनको सीने से लगाते ,*

*★ • अब्दुल्लाह इब्ने जाफर रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि जनाबे रसुलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब किसी सफर से वापस होते तो आपके खानदान के बच्चे आपको मिलते, आप एक सफर से वापस आये तो मुझे भी आपकी तरफ बढ़ाया गया, आपने मुझे सवारी पर अपने सामने बिठा लिया, हज़रत हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुम में से कोई एक और आया तो आपने उनको अपने पीछे बिठा लिया, फ़रमाते है कि एक सवारी पर तीन मदीना में दाखिल हुए ,*

*★ • एक रिवायत में फ़रमाते हैं अब्दुल्लाह इब्ने जाफर रज़ियल्लाहु अन्हु कि आप सल्लल्लाहु अलैहिव सल्लम मेरे पास से गुज़रे, मैं बच्चों के साथ खेल रहा था, आपने मुझे अपने साथ सवार कर लिया और बनु अब्बास के एक को सवार कर लिया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मेरे सर पर हाथ फेरते थे, जब भी आप हाथ फेरते थे आप दुआ देते थे, ऐ अल्लाह जाफर की औलाद में इनके लिए बेहतर खलीफा बन जा, (चूंकि जाफर रज़ियल्लाहु शहीद हो गए थे) ,*

*💤 एडमिन की डायरी - हक़ का दाई, तालीम हयातुस्सहाबा (कुल हिन्द मशवरा- 23-03-2017)_,*    
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 *☞_ मायूसी की असल वजह दावत का छोड़ देना -,*

*★_ इस वक्त उम्मत जिन हालातों से गुज़र रही है, जिस तरफ भी नज़र उठाते हैं मायूसी ही मायूसी नज़र आती है । देखते हैं अहकामें शरीयत को तो सोचते हैं इसका निबाह कैसे होगा, देखते हैं मुसलमानों की मा'सियत को तो सोचते हैं इनके हालत कैसे दुरुस्त होंगे, देखते हैं अपने मुआविन, मसाजिद और दीनी शोबों को तो सोचते हैं इनकी हिफाज़त कैसे होगी ?*

*★_ उम्मत के पास अपनी हर आसमानी और जमीनी और इसके दरमियान की रहने वाली तमाम मखलुकात से जो उम्मत के पास अपनी हिफाज़त का और मलाइका को नाजिल कराने का जो बुनियादी सबब था, उम्मत उसको भुला बैठी है छोड़ बैठी है।*

*★_ जब तक खुदा की क़सम (यह उम्मत दोबारा) दावत पर नहीं आएगी उम्मत अपने दीनी उमूर में और दुनियावी उमूर में अल्लाह से मदद नहीं ले सकती ।*

*★_ अगर दावत को किसी एक तबके़ का अपना काम समझ कर उम्मत ने इससे एराज़ करना तो बहुत दूर की बात है इसका इस्तक़बाल ना किया तो याद रखो कि वो तमाम नुसरते गैबिया जो उम्मते मुस्लिमा और उम्मते मुस्लिमा के इस्लाम की हिफाज़त के लिए मुहम्मद सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम और आपके सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अल्लाह से गैबी नुसरतों को नाज़िल कराने के लिए अख्त्यार करके गए हैं, उम्मत उन असबाब को छोड़ चुकी है ।* 
      
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 *☞_ गैबी नुसरतों के नुज़ूल का सबब - दावत और इबादत को जमा करना ,*

*★_ हजरत फरमाते थे :- बातिल के मुक़ाबले पर जो गैबी नुसरतें नाजिल हुई हैं उनकी शर्त, उसके उसूल और उसके लिए सबसे बुनियादी ज़रिया वो दावत और इबादत को कमा हक़ जमा करना है _,"*

*★_ दावत और इबादत को जमा करना गैबी नुसरतों के नुज़ूल का असल सबब है, याद रखना महज़ इंफिरादी इबादत पर ग़ैबी नुसरत नाज़िल नहीं होगी, यह पक्की बात है, क्यों ? क्योंकि इस उम्मत के जिम्मे सालेहीन की मेहनत से आगे बढ़कर, अंबिया अलैहिस्सलाम की मेहनत से आगे बढ़कर, इस उम्मत के जिम्मे सैयदुल अंबिया मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मैदाने मेहनत है ।*

*★_ अगर यह उम्मत उस मैदाने मेहनत पर नहीं है, तो यह बात याद रखें ! तो इस उम्मत की मदद बा एतबार अंबिया अलैहिस्सलाम के, सुलहा के भी नहीं होगी, इस उम्मत की मदद और नुसरत उस मैदाने मेहनत के एतबार से होगी जिस मैदाने मेहनत वाले नबी की यह हिम्मत है ।*

*★_हजरत फरमाते थे :- अगर यह उम्मत सालेहीन की मेहनत से उम्मत के मसाइल को हल कराना चाहे तो कभी ना होंगे, अगर ये अंबिया अलैहिस्सलाम के मैदाने मेहनत से उम्मत के मसाइल हल कराना चाहें तो कभी ना होंगे, इस उम्मत की मदद और नुसरत के सबसे बुनियादी चीज़ वो तरीक़ा ए मेहनत है वो मैदाने मेहनत है जो मैदाने मेहनत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम के सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम का था _,"*
    
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 *☞_ ज़िम्मेदारी का पूरा होना असल दावत है -,*

*★_ हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम ने सिर्फ चार आदमियों की जमात किसरा की तरफ भेजी है जो सबसे बड़ी बादशाहत, सबसे बड़ी सल्तनत थी,*

*★_ (दावत के लिए) भेजा हुआ अल्लाह की तरफ से भेजा हुआ है जिसकी तरफ से भेजा हुआ होता है उसकी पूरी ताक़त और रौब उसके साथ होता है।*

*★_ हजरत फरमाते थे:- यह काम वो काम है जिसको मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने सहाबा से करवाया है बा एतबार उनके ज़माने के नहीं बल्कि बा एतबार क़यामत तक के लिए करवाया है _,"*

*★_ आप खुद चल कर जाएं, इस्लाम का पैगाम हर छोटे-बड़े को पहुंचाएं, इसको अल्लाह ताला अपने यहां माज़रत का क़ुबूल होना मानते हैं, क़ुरान ने साफ तौर पर कहा है :- जब खुद जाकर दावत देने लगे उन लोगों को जिनकी हलाकत का अल्लाह ने फैसला कर लिया था, दावत देने वालों ने कहा कि हम इसलिए दावत देना चाहते हैं कि अल्लाह के यहां ज़िम्मेदारी के अदा करने वाले माने जाएं _,"*

*★_ किसरा ने खत फाड़ दिया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक खबर पहुंची, आपने फरमाया किसरा ने खत नहीं फाड़ दिया, किसरा ने अपना मुल्क फाड़ लिया, किसरा ने यमन के गवर्नर बाजान को हुक्म दिया कि जिस शख्स ने मुझे खत लिखा है, जाओ उसको गिरफ्तार करके लाओ ।*

*★_ दो आदमी वहां पहुंचे आप को गिरफ्तार करने के लिए, दोनों आपको देखकर कांपने लगे, फरमाया -घबराओ मत ! कैसे आना हुआ ? दोनों ने कहा- आप को गिरफ्तार करने के लिए बादशाह ने भेजा है । आपने फरमाया- तुम्हारे जिस आका़ ने तुम्हें भेजा है मुझे गिरफ्तार करने के लिए, तुम्हारे आका़ बाजान को मेरे आका़ अल्लाह ने रात क़त्ल कर दिया, लिखा, तहकीक़ की, उसी वक़्त किसरा के बेटे ने अपने बाप को क़त्ल कर दिया ।*
  
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 *☞_ अल्लाह के दीन के मददगार बनो -,*

*★_ अल्लाह ने शर्त लगाई है ( सूरह मोहम्मद आयत 7):- ए ईमान वालों ! अगर तुम अल्लाह के दीन के मददगार हो तो वो तुम्हारा मददगार भी है और तुम्हारे कद़मों को जमाने वाला है _,"*

*★_ मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह का मलफूज़ है:- अपनी जा़त से पूरा दीन पर चलने वाला दीनदार है मगर दीन का मददगार नहीं है,* 
*"_इस उम्मत की यह खुसूसियत है कि यह उम्मत अल्लाह ताला की तरफ से जब मनसूर होगी, इसकी मदद जब की जाएगी जब यह दावत इबादत को इस तरह जमा कर ले जिस तरह सहाबा किराम ने इन दोनों को बराबर जमा करके दिखलाया _,"*

*★_ हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम ने पैगाम अगर किसी बादशाह की तरफ भेजा तो सिर्फ पैगाम नहीं भेज दिया बल्कि जमात बनाकर भेजी, जब तक मुसलमान बा-जा़ते खुद दावत नहीं देगा उस वक्त तक यह अपने दीन में आने वाली मुश्किलात में अल्लाह के यहां माजूर नहीं समझा जाएगा, किसी ज़रिए से दीन का पैगाम पहुंचा देना यह अल्लाह ताला के यहां जिम्मेदारी के पूरा होने और उज्र के पेश करने के लिए हरगिज़ काफी नहीं,*

*★_यह ख्याल पैदा हो गया है कि पैगाम पहुंचाने के बहुत से ज़राए हैं, अगर इससे ज़िम्मेदारी अदा हो जाती तो आज यह उम्मत गैबी नुसरत 10 सहाबा के बा -क़दर देखती और अजर 50 सहाबा के बराबर पाती, अगर खुद दावत दिए बगैर किसी ज़रिए से पैगाम पहुंचा देना अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के यहां माज़रत के कुबूल होने के लिए काफी होता तो, अगर अल्लाह के यहां मुहम्मद सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम और आपके सहाबा के तरीक़ा ए मेहनत से हटकर किसी जगह से पैगाम पहुंचाना ज़िम्मेदारी के पूरा होने के लिए काफी हो जाता तो, खुदा की क़सम 10 सहाबा के बा - क़दर गैबी नुसरत देखता और अजर 50 सहाबा के बा -क़दर पाता ।*
  
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 *☞_ सौ फीसदी आमाले दावत और इबादत अख्तियार करो_,*

*★_ अल्लाह की शान ! अल्लाह ने ऐसा तोड़ कर रखा कि (किसरा के बादशाह को) उसके बेटे ने क़त्ल किया, बाप को पहले ही अंदेशा हो गया था कि बेटा मुझे क़त्ल करने वाला है, बाप ने बेटे के क़त्ल का इंतज़ाम किया, रिवायत में आता है कि उसने अपने की़मती ख़ज़ाने में एक डिबिया ज़हर की भर कर रखी और उस पर "इंतेहाई क़ुववत की दवा" लिखकर इसलिए रखा ताकि बेटा इसको खाकर खत्म हो जाए।*

*★_ बेटे ने बाप को खत्म किया, बाप को खत्म करने के बाद भाइयों को क़त्ल किया, भाइयों को खत्म करने के बाद जब बादशाह बन गया, चूंकि खानदान में कोई और नहीं था, एक दिन बाप का खज़ाना खोला, उसमें डिबिया नज़र आई और यह कहकर खाया कि बाप ने हमेशा कुव्वत हासिल की इन दवाओं से मुझे कभी नहीं दी, यह कहकर खाया और खत्म हुआ, पूरे खानदान में कोई मर्द नहीं बचा था जिसको इसकी जगह हाकिम बनाया जा सके।*

*★_यह वाक़ियात अब उम्मत के तज़किरों में से खत्म हो गए, जब यह वाक़िआत खत्म हो जाएंगे, जब उम्मत यह दो चीज़ छोड़ देगी गैबी नुसरतों के वाक़ियात और गैबी नुसरतों के असबाब, फिर इसके अलावा और कोई रास्ता नज़र नहीं आएगा कि चलो फिर इनकी मान कर चलते हैं -* 

*★_ हजरत मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह का अजीब मलफूज़ है, हजरत फरमाते थे :- "जितना दीन पर चलने का अल्लाह ने मुसलमान को अख्त्यार दिया हुआ है अगर मुसलमान ने उतने दीन पर चल कर ना दिखाया, अल्लाह इसकी नुसरत नहीं करेंगे, अल्लाह उस दीन पर इसकी मदद नहीं करेंगे जिस पर चलने में इसको अख्त्यार नहीं है ।*     
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 *☞_ यूसा बिन नून और असर् की नमाज़ -,*

*★_ अगर मुसलमान सौ फ़ीसदी अल्लाह के घर को आमाले दावत और इबादत से आबाद करने वाला होता तो मुआविन की तरफ कोई नज़र उठा कर देखने वाला ना होता । दावत इबादत को जमा किये बगैर यह उम्मत गैबी नुसरतें देख नहीं सकतीं, आप गौर करें (यूसा बिन नून) इधर दुश्मन मुक़ाबले पर है, इधर असर् की नमाज़ (यूसा बिन नून) यहां आकर परेशान थे या अल्लाह क्या करें? हम मजबूर हैं तेरे काम में लगे हुए हैं, यह भी तेरा हुक्म है नमाज़ भी तेरा हुक्म है, ए अल्लाह दो अमर् ( दावत और इबादत) जमा हो गए।*

*★_ अगर दावत इलल्लाह के बगैर किसी तका़बुल का इरादा किया और अगर दीन का मोहताज हुए बगैर किसी काम में ऐतदाल का रास्ता अख्त्यार किया तो यह अपने दावे में सच्चे नहीं निकलेंगे, इसलिए कि सहाबा की  गैबी नुसरतों का जो असल है - ऐसे मर्दे मैदान बन जाओ जैसे वो अहद को पूरा करने वाले थे, अल्लाह ने एक जगह नहीं सैकड़ों जगह करके दिखा दिया कि जो दावत इबादत को जमा करते हैं, हम उन्हें अपनी कु़दरत से कैसे गलबा अता फरमाते हैं ।*

*★_ यूसा बिन नून दुश्मन के मुक़ाबले पर और सूरज गुरुब हो रहा है, असर् की नमाज़ का वक्त, ऐ अल्लाह हम भी मामूर है सूरज भी मामूर है, फ़र्क यह है कि हम तेरे काम में लगे हुए हैं यह सूरज भी तेरे काम में लगा हुआ है, इसकी हैसियत वो नहीं जो हमारी है, हम तेरे ताबे हैं, फरमाया- एं अल्लाह इसको यहां रोक दे। सूरज रुक गया, इंतजार किया सूरज ने जब तक (नमाज़ से) फारिग हो जाए और असर् पढ़ लें, सूरज अपनी जगह से हरकत नहीं कर सकता ।* 
   
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            *☞__कायनात मामूर है - ,*

*★_कायनात मामूर है इंसान की खिदमत के लिए और इंसान मामूर है अल्लाह की इबादत के लिए,*

*★_ यह कहना कि कायनात का निजा़म तो कायनात के एतबार से चलेगा, ऐसे लोग अल्लाह की जात़ ए आली से फायदा कभी नहीं उठा सकते, जो यह यकी़न रखेंगे कि नहीं ! निजामे कायनात कायनात के एतबार से नहीं चलेगा बल्कि निजामे कायनात (अल्लाह ताला के ) अहकाम के एतबार से चलेगा, उनके लिए निजामे कायनात उनका खादिम बनकर चलता है ।*

*★_ इस ज़माने में निजामे कायनात मखदूम है और मुसलमान जिसको अल्लाह ने मखदूम बनाया था, निजामे कायनात का खादिम और गुलाम बनकर चल रहा है, यह तो कायनात के वो नक्शे़ हैं चांद सितारे सूरज जो इंसानों के बस से बाहर की चीज़ है, मामूली असबाब जो इनके हाथों में हैं यह खुद इनके ताबे नहीं है,*

*★_ कारोबार है नफा नहीं है, जमीनें हैं पैदावार नहीं है, बीवियां हैं औलाद नहीं है, दवाएं हैं शिफा नहीं है, हथियार हैं हिफाज़त नहीं है, हुक्काम है इज़्ज़त नहीं है, सारा निजामे कायनात उठाकर देख लो, इसलिए कि उल्टी सोच है !*

*★_ . तुम अल्लाह का हो कर देखो अल्लाह ताला तुम्हारे कैसे होते हैं और तुम्हें निजामे कायनात का कैसे बादशाह बनाते हैं । यह कहकर गुज़र जाना कि यह तो सहाबा के लिए हुआ है, वो क़यामत तक उम्मत को मदद के जा़ब्ते बताने के लिए हुआ है, सहाबा की गैबी नुसरतें उनके तार्रुफ के लिए नहीं हैं बल्कि क़यामत तक अल्लाह की जा़त ए आली से बराहे रास्त फायदा उठाने के लिए हैं।*

*★_ छोटे छोटे ओहदे, छोटे छोटे असबाब जिनका नाम लेना भी खैल मालूम होता है, इनको देखकर मुसलमान यह कहे कि अब क्या होगा? सबसे बुनियादी बात यह है कि जब तक सहाबा किराम के तरीक़े पर नहीं आएंगे उस वक्त तक यह उम्मत गैबी नुसरतों का मुशाहिदा नहीं कर सकती, इसलिए की ज़िम्मेदारी का अदा करना ज़रूरी है अल्लाह ताला की गैबी नुसरतें नाजिल होने के लिए, यह गैबी नुसरतें किसके ताबे हैं ? अजीब बात है कि गैबी नुसरतें इंफ्रादी दावत के ताबे है ।* 
 
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 *☞__गैबी नुसरतें इंफिरादी दावत के ताबे हैं -,*

*★_ हुजूर ﷺ एक सफर में थे, सहाबा किराम आपके साथ थे, एक देहाती से पूछा - कहां जा रहे हो ? कहा- अपने घर जा रहा हूं, आपने पूछा- क्या तुम मेरी रिसालत पर गवाही दोगे ? उसने फौरन कहा - कौन गवाह है आपकी रिसालत पर ?*

*★_ आपने यह नहीं फरमाया कि मेरे सहाबा गवाही देंगे, आपने फ़रमाया- इस वादी के किनारे पर जो दरख्त खड़ा हुआ है वह दरख्त गवाही देगा कि मैं अल्लाह का रसूल हूं । गैबी नुसरत इसको कहते हैं, ऐसे वाक़ियात का पेश आना जिससे अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के ना मानने वाले अल्लाह को मानने पर मजबूर हो जाएं कि इसके अलावा कोई रास्ता नहीं ।*

*★_ दरख़्त ज़मीन फाड़ता हुआ आया और आपके सामने खड़ा हो गया, आप ﷺ ने 3 मर्तबा दरख्त से गवाही ली, दरख़्त ने 3 मर्तबा गवाही दी, बेशक आप अल्लाह के रसूल हैं बेशक आप अल्लाह के रसूल हैं बेशक आप अल्लाह के रसूल है । देहाती ईमान ले आया,*

*★_ हजरत फरमाते थे- अल्लाह की ज़ात ए आली से फायदा उठाने के लिए कायनात का यक़ीन निकलना शर्त है, क्यों ? इसलिए कि यक़ीन कायनात का है तो यह अल्लाह को कायनात पेश करेगा अल्लाह की जा़त ए आली से फ़ायदा उठाने के लिए _,"*

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 *☞_ यक़ीन की तबदीली के लिए अल्लाह की तौहीद को बोलना,*

*↬• अंबिया अलैहिस्सलाम सबसे पहले जो दावत ले कर आए, अल्लाह के मा सिवा से अल्लाह की ज़ाते आली की तरफ यक़ीन को फैरना, अंबिया अलैहिस्सलाम का पहला काम ये था,*

*★• _ उन्होंने दावत के ज़रिये अल्लाह के बंदो को अल्लाह का तअर्रूफ करवाया, अल्लाह के गैर से यक़ीन को अल्लाह की ज़ाते आली की तरफ फेरा, इस यक़ीन की तबदीली में पहला काम अल्लाह की तौहीद का बयान करना था, अंबिया अलैहिस्सलाम इसकी दावत ले कर आये कि करने वाली जात सिर्फ अल्लाह की है क्योंकि  जितनी भी शक्लों का यक़ीन  दिलों मैं बैठा हुआ था, उन सारी शक्लों को माबूद का दर्जा दिया हुआ था, अंबिया अलैहिस्सलाम ने आ कर सबसे पहले इसकी तालीम दी,*

*★• _अल्लाह की तौहीद को बयान करना बा ज़ाते खुद मक़सूद है, अहकाम का इल्म अमल के लिए मकसूद है, अगर अल्लाह की तौहीद को बयान ना करेगा तो इसके और अल्लाह के दरमियान कायनात की चीज़ें हाइल हो जायेंगी, वो जा़हिरी निज़ाम को कुदरत समझेंगे,*

*★• _ निज़ामे कायनात क़ुदरत से बना है, निज़ामे कायनात क़ुदरत नहीं है, निज़ामे कायनात क़ुदरत से बन कर क़ुदरत के क़ब्ज़े में है, निज़ामे कायनात का एक पत्ते से ले कर जिब्राईल अलैहिस्सलाम तक ये सबके सब हर आन हर लम्हा अल्लाह के क़ब्ज़े में हैं, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त इन तमाम नक्शों में जो चाहेंगे वो करेंगे,*

*★• _ अंबिया अलैहिस्सलाम ने शुरू से आखिर तक अपनी कौम के यकीन को ज़ाहिर की शक्लों से अल्लाह की ज़ाते आली की तरफ फेरा है, एक सहाबी ने आ कर अर्ज़ किया कि ऊंटों को खारिश फेल हो गई है, आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने फरमाया- ऊंटों को खारिश कहां से हो गई?  फ़रमाया - एक ऊंट को ख़ारिश हो गई थी जिससे सारे ऊंटों मैं फ़ेल गई, आपने फ़रमाया - पहले ऊंट को ख़ारिश कहा से हो गई?  निज़ामे क़ुदरत ऐसा नहीं है ''नाउज़ुबिल्लाह'' कि  एक को ख़ारिश हो तो सबको हो गई, नहीं! बल्की निज़ामे कुदरत ये है कि हर एक को ख़ारिश अल्लाह के अमर् से हुई है,*

*★_ अगर इतनी बात समझ में आ जाए कि कायनात में जो कुछ होता है वो अल्लाह के अमर् से होता है तो मुसलमान की अक्सर क्या सारी उलझनें ख़त्म हो जाए,*
   
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 *☞_ दुनिया में फसाद की वजह मुसलमानों के बद आमाल है -,*

*★_ यह कहना कि यों करते तो यों हो जाता, हुकूमत यूं करती तो यों हो जाता, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि एक शख्स अपनी जुबान से यह बात कहे कि अगर हम यूं करते तो यूं हो जाता, फरमाते हैं कि इन कलमात के कहने से बेहतर यह है कि दहकता हुआ अंगारा अपनी ज़ुबान पर रख ले, जुबान जलकर खत्म हो जाए, यह ज़ुबान का जलकर खत्म हो जाना यह बेहतर है कि जुबान से यह कहे कि यूं करते तो यूं हो जाता, हुकूमत यूं करती तो यूं हो जाता-*

*★_ सारी उम्मीदें हुकूमत से वाबस्ता है, मुसलमान को अहकाम से उम्मीद नहीं है हालांकि निज़ामे कायनात का ताल्लुक़ अहकाम से है, हुक्काम से कोई ताल्लुक नहीं, सारी दुनिया में जितना फसाद है अल्लाह ने बराहे रास्ता मुसलमान के बदन से निकलने वाले आमाल से जोड़ा है इसके अलावा खुदा की क़सम मुसलमान से हटकर दुनिया के फसाद का किसी मखलूक़, किसी क़ौम, किसी अहले मज़हब या किसी माद्दी ताक़त से फसाद का कोई ताल्लुक़ नहीं है ।*

*★_ हम सारे फसाद और सारी मुश्किलात को बाहर के नक्शों से जोड़े हुए हैं, यही वजह है कि लोग फसाद को रोकने के लिए मज़ीद नक्शे बनाते हैं हालांकि फसाद का ताल्लुक मुसलमानों के बदन से निकलने वाले आमाल से है, तर में ही नहीं खुश्की में नहीं बल्कि समुंदर के अंदर जो फसादात हैं वह भी मोमिन का अमल है, मुशरिक की बद आमालियो से कोई फसाद नहीं आएगा और मुशरिक के आमाले खैर से इतनी खैर उसके हिस्से में आ जाएगी जिससे उसके काम का बदला दुनिया में देकर निपटा देंगे. लेकिन मोमिन का अमल, यह फैसला करेगा खैर और शर का _,*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ ने अपने सहाबा के यक़ीन को जाहिर की शक्लों से हटाया है, एक रात हुदेबिया में बारिश हुई, आपने फरमाया इस बारिश से बाज़ मोमिन रह जाएंगे, सहाबा हैरान हो गए, आपने फरमाया जो यह कहेगा बारिश फलां सितारे की वजह से हुई है वो अल्लाह का इंकार करने वाला और सितारों का यक़ीन रखने वाला है और जो यह कहेगा बारिश अल्लाह के फज़ल से हुई वो अल्लाह पर ईमान रखने वाला और सितारों का इनकार करने वाला है।* 
 
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            *☞_ अक़ीदे बिगड़े हुए हैं -,*

*★_ सबसे पहले इस कलमा ए "ला इलाहा इल्लल्लाह" के ज़रिए  अका़इद का दुरुस्त करना है, अक़ीदे बिगड़े हुए हैं, नजूमी यह कह रहे हैं, फैशन गो यह कह रहे हैं।*

*★_ हजरत फरमाते थे :- अल्लाह को ना मानने वाले आगे जानवर को भेजकर उससे हालात मालूम करके क़दम उठाते हैं, अल्लाह पर यक़ीन रखने वालों का सबसे बड़ा का़ईद मुहम्मद ﷺ हैं, जो इतनी आगे की खबर लाए हैं जहां तक जिब्राइल ना कभी गये है ना कभी जाएंगे ।*

*★_ मुसलमान मुहम्मद ﷺ की खबरों से हटकर जाहिरी शक्लों पर जा़हिरी असबाब पर क़दम उठाएं,? ज़रा अक़्ल का इस्तेमाल करना पड़ेगा ।*

*★_ ईमान बिल गैब क्या है? मुशाहिदे का, जाहिरी नक्शों का खुला इनकार, निजामे कायनात असल नहीं है, अल्लाह का अम्र असल है, गैब का इल्म अल्लाह के सिवा किसी को नहीं है, ज़ाहिरी निजाम की क्या हैसियत, जाहिरी निजाम इसलिए बनाया गया है कि इसको देखकर तुम अल्लाह तक पहुंचते हो या इसमें खो कर रहे जाते हो ?*

*★_ बना हुआ बनाने वाले के तार्रुफ के लिए है, बना हुआ बनाने वाले से फायदा उठाने के लिए नहीं है, "दुनिया से फायदा उठा लो मजे उड़ा लो", तो इस जगह तुम मुजरिम हो ।*
       
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   *☞_ निज़ामे कायनात अल्लाह के तार्रुफ के लिए है -,*

*★_ सबसे बड़ा मुजरिम कौन है ? सबसे बड़ा मुजरिम वह है जो अल्लाह को ऐसा ना माने जैसा अल्लाह है, वह शख्स कैसे मुस्लिम होगा जो मुशरिक़ की दुनिया की तमन्ना करें कि काश जो कुछ इन्हें मिला हैं हमें मिलता तो हम गालिब आ जाते, हजरत फरमाते थे- गैरों के असबाब की तमन्ना करना गैरों के मुक़ाबिल आने के लिए, अल्लाह तआला की नुसरत और मदद कभी साथ नहीं होगी क्योंकि यहां असबाब का मुक़ाबला असबाब से है, जब आमाल का मुक़ाबला असबाब से ठहरेगा तब अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त आमाल की खासियत को ज़ाहिर फरमाएंगे ।*

*★_ निजाम़े कायनात अल्लाह के तार्रुफ के लिए हैं, इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने मुख्तलिफ शक़्लें देखी, सितारों को देखा, चांद को देखा, सूरज को देखा और तीनों का इन्कार किया । हजरत फरमाते थे:- शक्लें दो क़िस्म की है, मुतहर्रिक़, गैर मुतहर्रिक, इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने दोनों शक़्लो का इंकार किया ।*

*★_ नमरूद ने कहा, हमें तुम रज़्ज़ाक मान लो, हम तुम्हें राशन देंगे, आज भी यही बात है, नमरूद खत्म हुआ नमरूदियत खत्म नहीं हुई, फिरौन खत्म हुआ फिरौनियत खत्म नहीं हुई, इस बात का ख्याल भी आना कि हमारा क्या होगा ? यह अल्लाह की मदद से महरूम होने के लिए काफी है। हजरत फरमाते थे- अल्लाह की कु़दरत यह नहीं है कि वह जमीन से गल्ला निकाल रहे रहे हैं, जिसको बंदा यह कहे देखो अल्लाह की कुदरत....,यह तो सिर्फ अल्लाह को ना जानने वालों को दिखाने के लिए है कि गल्ला कहां से आ रहा है, गल्ला देने वाले को पहचानो (ज़मीन से गल्ला निकाला ) यह अल्लाह की कुदरत नहीं है अल्लाह की कुदरत का तार्रुफ है, सारा निज़ामे कायनात कुदरत नहीं है कुदरत का तार्रुफ है, (अल्लाह चाहे जहां से गल्ला निकाल कर दिखा दे )*

*★_ इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने शक्लों का इन्कार किया, नमरूद ने राशन बंद कर दिया, कुदरत अल्लाह ने यह दिखाई कि मिट्टी से भरी हुई बोरी को अल्लाह ने आटे में तब्दील कर दिया (बता दिया कि) हम ऐसे रज़्ज़ाक है, हम क़ादिरे मुतलक़ है, ज़मीन से गल्ला निकालना कुदरत के तार्रुफ के लिए है, कुदरत अल्लाह की जा़त में है ।*

*★_ जो लोग निजामे कायनात का इन्कार नहीं करेंगे अल्लाह की कुदरत के मुक़ाबले में उन्हें यह समझाया जाएगा कि देखो जो चीज़ तुम्हें नफा दे रही है तुम उसका कम से कम शुक्र तो अदा करो, ज़मीन तुम्हें गल्ला दे रही है तुम ज़मीन का शुक्र तो अदा करो । हजरत फरमाते थे जितनी बुतों की शक्लें हैं यह सारी शक़्लें ज़मीन की पैदावार है, लकड़ी, तांबा, लोहा, पीतल, सब ज़मीन की पैदावार है, जब जुज़ का इंकार कर रहा है तो कुल का इंकार क्यों नहीं करता, अल्लाह ताला साफ फरमाते हैं :-उगाना भी हमारा काम है और उगाकर सारे को भूसा बना दें और एक दाना तुम्हारे हाथ में ना लगे, यह भी हमारा काम है _,"*
   
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        *☞_ .गैब का यक़ीन शर्त है -,*

*★_ अल्लाह की जा़ते आली से फायदा उठाने के लिए गैब का यक़ीन शर्त है इसलिए सबसे बुनियादी चीज़ ईमान बिल गैब है।*

*★_ मुहम्मद ﷺ जो खबर लेकर आए हैं, आपकी लाई हुए खबरों को तमाम जाहिरी मुशाहिदात और असबाब के मुक़ाबले में यक़ीनी मानना इसको ईमान बिल गैब कहते हैं, जिस चीज़ की तस्दीक देखकर की जाए उसे ईमान नहीं कहते ‌।*

*★_ अजीब बात है हुजूर अकरम ﷺ ने अपने सहाबा से जब भी कोई वादा किया वो वादा मुश्किल हालात में किया तंगी के हालात में किया, खौफ के हालात में किया, फाके़ की हालत में किया, हुदेबिया मे वादा किया फतेह का, जहां फतेह की कोई चीज़ नहीं है, खंदक़ में वादा किया कैसरो किसरा के महल्लात फतह होने का, जहां खाने को रोटी भी नहीं है, पेटों पर पत्थर बंधे है, हिफाज़त का इंतजाम हो रहा है, खंदक खोदी जा रही है ।*

*★_ यह बताने के लिए कि हम पर ईमान लाने का ताल्लुक़ नज़र आने वाली शक्लों पर नहीं है, हम पर ईमान लाने का ताल्लुक़ हमारी लाई हुई खबरों को यकी़नी मानने पर है, हम जो भी क़दम उठाते हैं ज़ाहिर के एतबार से उठाते हैं, वहां जो भी क़दम उठवाया है वो गैब की बुनियाद पर उठवाया है,*

*★_ इसलिए यह बात याद रखें ईमान बिल गैब असल है।*
 
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*☞_ सफरे मेराज और गैब की खबर -,*

*★_ हुजूर ﷺ का सफर ए मेराज हुआ, आपने यक़ीन करने वालों को खबर नहीं दी बल्कि झुठलाने वालों को पहले खबर दी।*

*★_ अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु सबसे ज़्यादा तस्दीक करने वाले उनको बाद में इल्म हुआ, अबु जहल को पहले इल्म हुआ, सबसे बड़ा कज्जा़ब उसको बताया कि रात यह सफर हुआ है, गैब की खबर दी, आप ﷺ  बैठे हुए थे अबू जहल गुजरा वहां से, आपने फरमाया- रात मेरे साथ ऐसा हुआ, अबू जहल ने कहा- खामोश रहिए मैं अभी सब को जमा कर लूं, सब मिलकर आपकी तस्दीक करेंगे ।*

*★_ लोग दौड़े-दौड़े गए अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु के पास कि आपके साथी क्या कह रहे हैं कि रात को किसी हिस्से में जिस्म के साथ मक्का मुकर्रमा से बैतूल मुकद्दस एक महीने का सफर और वहां से आसमानों का ला मेहदूद सफर वो रात के किसी हिस्से में हो गया, अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु ने सुनते ही फरमाया_ अगर हुजूर ﷺ  कह रहे हैं तो बिल्कुल खुदा की क़सम सच कह रहे हैं, हम यक़ीन करते हैं ।*

*★_ नबी करीम ﷺ  की लाई हुई खबरों को नबी करीम ﷺ  के एतमाद पर यक़ीन करना यह ईमान बिल गैब है, इसलिए खुदा की क़सम जितना नबी के होते हुए नबी की बात पर ईमान लाना ज़रूरी है उतना क़यामत तक आने वाले मुसलमान के लिए आपकी बात पर ईमान लाना ज़रूरी है, यह नहीं कि आप के बाद यक़ीन की सतह और होगी बल्कि इस उम्मत को तो खुशखबरी सुना दी गई है कि जो मुझे बगैर देखे ईमान लाए उनके लिए सात बार खुशखबरी है, जो देखकर ईमान लाए सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम उनके लिए एक बार खुशखबरी है, बार-बार फरमाया ।*

*★_ आप ﷺ को सफर ए मेराज हुआ, मुशरिकीन ने आपकी लाई हुई खबर का इनकार किया, कमज़ोर ईमान वाले मुरतद हो गए कि वो बात करो जो हमारी अक़्ल में आए, नबी की बात का मदार अक़्ल पर नहीं बल्कि नबी की खबर का मदार यक़ीन पर है, दीन का मदार हुक्म पर है ।*
  
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*☞_दीन का मदार अक़ल पर नहीं हुक्म पर है -*

*★_ नबी की बात का मदार अक़ल पर नहीं बल्कि नबी की खबर का मदार यक़ीन पर है, दीन का मदार हुक्म पर है,किसी फरीज़े में तो बहुत दूर की बात है अक़ल लड़ाना कि इस्लाम में यह क्यों है ? क़ानून को लेकर अहकामे शरीयत में मुदाखलत जब होगी जब मुसलमान बा जा़ते खुद दीन को खेल बना लेंगे,*

*★_ यहां फराईज़ और अहकामे शरीयत का मसला देखते हो जबकि हजरत फरमाते थे- गैर तुम्हारे दीन को जब मिटायेंगे जब तुम दीन को खुद बिगाड़ चुके होंगे वरना खुदा की क़सम सारा बातिल मिल कर एक इस्तिंजा की लाइन की सुन्नत का मुक़ाबला नहीं कर सकता _,"*

*★_ जब मुसलमान आप ﷺ की लाई हुई खबरों को अक़ल से सोचने बैठ जाएगा और यह सोचेगा कि फलां सुन्नत की क्या ज़रूरत है ? इसकी क्या हिकमत है ? अंदाज़ा तो करो शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाहि अलैहि ने एक रिवायत को नक़ल फरमाया, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने अक़ल के 100 हिस्से किए, एक हिस्सा अकल का सारी मखलूक़ पर तक़सीम किया है और तन्हा 99 हिस्से दिए हैं तन्हा मुहम्मद ﷺ  को _,"*

*★_सारी दुनिया के साइंस दां, सियासत दां, सरमायाकार जिन्हें अक़ल वाला समझ कर उनके पीछे चलते हो अल्लाह ने इन पर अक़ल का एक सौवां हिस्सा तक़सीम किया है, सारे उलमा, सारे अवाम सारे खवास सबको अक़ल का एक हिस्सा मिला है ।*

*★_ उससे बड़ा बे अक़्ल कौन होगा जो किसी सुन्नत की हिकमत तक पहुंचने की कोशिश करें, उससे पूछो तेरे हिस्से में कौन सा ज़र्रा अक़ल का आया है इतनी बड़ी खलक़त में तक़सीम होकर जो तू यह कहे कि यह बात समझ में नहीं आ रही है, बंदा अल्लाह और उसके रसूल के हुक्म का मामूर है यह नहीं कह सकता कि यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है, इस सुन्नत की क्या हिकमत है ?* 
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*☞_ हजरत खुज़ैमा रज़ियल्लाहु अन्हु का ईमान _,*

*★_ हुजूर ﷺ  ने एक देहाती से घोड़ा खरीदा, मामला तय हो गया, फरमाया- आओ मैं तुम्हें कीमत दे दूं, देहाती पीछे-पीछे घोड़ा लेकर, लोग मिले रास्ते में कहां जा रहे हो? घोड़ा बेचने, बेचोगे ? हां बेचेंगे, (देहाती ने) यह नहीं कहा कि घोड़ा बिक चुका है, क़ीमत ज़्यादा मिलने लगी तो अपनी बात से फिर गया, आवाज़ देकर कहा -ए मुहम्मद ( ﷺ ) आप घोड़ा लेंगे या मैं इनको बेच दूं ?*

*★_ आप ﷺ  ने फरमाया यह घोड़ा मैं तुमसे खरीद चुका हूं मामला तय हो चुका है, घोड़े वाले ने कहा खुदा की क़सम मैंने आपको घोड़ा नहीं बेचा, गवाह लाइए, जो आदमी खुद यह जानता है कि तीसरा कोई नहीं था इस मामले में, वह कह रहा है गवाही लाइए ?*

*★_ अभी यह बात चल ही रही थी कि खुज़ैमा बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु वहां से गुज़रे, उन्होंने सुना और आगे बढ़े और कहा- मैं गवाही देता हूं कि आप ﷺ  ने घोड़ा खरीद लिया, आप ﷺ ने फरमाया कि ए खुज़ैमा तुमने कैसे गवाही दे दी जब तुम मौक़े पर मौजूद नहीं थे ,*

*★_ यह सवाल इसलिए नहीं है कि खुज़ैमा रज़ियल्लाहु अन्हु सच बोल रहे हैं या झूठ, यह सवाल इसलिए हैं कि खुज़ैमा रज़ियल्लाहु अन्हु के ईमान का सख्त इम्तिहान है कि मैं देखना चाहता हूं कि खुजैमा अपनी बात पर जमते हैं या अपनी बात से फिर जाते हैं,*

*★_ हजरत खुज़ैमा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया- हम कैसे गवाही ना दें, यह तो एक घोड़ा है जिसे आपने खरीद लिया था, आपने हमें अर्श की खबर दी हमने नहीं देखा, कुर्सी की खबर दी हमने नहीं देखा, आपने अल्लाह जल्लशानहु की खबर दी हमने नहीं देखा, आपने जन्नत और दोजख की खबर दी हमने नहीं देखा, हम तो इन तमाम चीज़ों को बगैर देखे यक़ीनी मानते हैं, फिर एक घोड़े की क्या हैसियत है, जो ज़ात इतनी बड़ी बड़ी चीजों की खबर लाई है और हमारे लिए उनका मानना फ़र्ज़ है वो ज़ात एक घोड़े के बारे में झूठ कैसे कह देगी _,"*

*★_ इसलिए ईमान बिल गैब सिखाया है आपने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को ,*

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*☞_ ईमान की दावत का मोमिन ज़्यादा हक़दार है _,*

*★_ (ईमान की दावत देना) ईमान की हक़ीक़त को हासिल करने के लिए उम्मत के हर फर्द के जिम्मे है, क्योंकि अल्लाह तआला का हुक्म है "ऐ ईमान वालों ईमान लाओ" इस ईमान की दावत का हक़दार महज़ गैरों को समझकर यह सोच लिया जाए यह ईमान की दावत गैरों के लिए है, ऐसा नहीं है बल्कि ईमान लाने का हुक्म ईमान वालों को है, सहाबा किराम का अमल है कि वो सहाबा खुद सहाबा को ईमान की दावत दिया करते थे, "आओ कुछ देर ईमान ले आएं", इसलिए कि मोमिन इस ईमान का ज़्यादा अहल, ज़्यादा हक़दार है ।*

*★_ इसलिए हुजूर ﷺ ने अपने सहाबा को जो ईमान सिखलाया है वो दो रास्तों से सिखलाया है, एक ईमान बिल गैब के रास्ते से, दूसरा ईमान इता'त के एतबार से,*

*★_ इस्लाम ईमान का मज़हर है, इस्लाम ईमान के वजूद की अलामत है, दिलों में ईमान होगा तो इस्लाम बदन से ज़ाहिर होकर रहेगा। हजरत फरमाते थे- सबसे ज़्यादा ईमान के वजूद का मज़हर इत्तेबा ए सुन्नत है, मोमिन मुत्तबा ए सुन्नत होगा क्योंकि दिलों में मुहम्मद ﷺ की मुहब्बत तमाम कायनात पर ग़ालिब हो, यह ईमान का तक़ाज़ा है,*
      
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      *☞_  इस्लाम इत्तेबा ए सुन्नत का नाम है -,*

*★_ दिलों में मुहम्मद ﷺ  की मोहब्बत मखलूक़ और तमाम कायनात पर गालिब हो, यह ईमान का तकाज़ा है । मुसलमान को सुन्नतों का एक मुकम्मल तरीक़ा, एक जिंदगी देकर अल्लाह ताला देखना चाहते हैं कि इनके क़ुलूब किधर झुके हुए हैं,*

*★_ सिर्फ सजदे में सर झुका देना इसको सर झुका देना नहीं कहते बल्कि सर से लेकर पैर तक इत्तेबा ए सुन्नत, हुकूमत से लेकर एक फेरीवाले तक, इसकी पूरी जिंदगी अगर सुन्नत के मुताबिक़ है तो इसका दिल मुहम्मद ﷺ की तरफ माइल है । ओर अगर इसकी जिंदगी के कुछ आमाल गैरों के तरीकों की तरफ माइल हैं और कुछ आमाल दीन के भी कर लेता है तो सच्ची बात अर्ज़ करूं, क़ुरान में ऐसे ही लोगों का तार्रुफ कराया है और यह कहा है कि, *_ऐसे भी लोग हैं जो कुफ्र और इस्लाम के किनारों (बॉर्डर) पर चलते हैं ना पूरे कुफ्र में ना पूरे इस्लाम में,*

*★_ इन्होंने दरमियान का रास्ता निकाला है, यह दरमियान का रास्ता उन लोगों के लिए है जो पूरे इस्लाम पर नहीं चल सकते, अजीब बात है खुदा की क़सम यह दरमियान का रास्ता आप ﷺ  के ज़माने में नहीं था, यह दरमियान का रास्ता मुनाफिकीन का रास्ता था,*

*★_ अगर उनको अहकामे इस्लाम में कोई नुक़सान नज़र आता था तो वह पलट जाते थे कुफ्र की तरफ और अगर इनको कोई नुक़सान नज़र आता कुफ्र की तरफ और नफा़ नज़र आता इस्लाम की तरफ, तो यह इस्लाम की तरफ पलट जाते थे, अल्लाह ने फरमाया - इनके लिए दोनों जगह खसारा है दुनिया में भी आखिरत में भी ।*

*★_ इसलिए असल इत्तेबा ए सुन्नत है, वो सारी हिदायात का खुलासा और सारे दीन की हक़ीक़त है - अगर नबी की इता'त करोगे तो हिदायत पा जाओगे _,"*
  
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      *☞_ नाकिस दीन - नताइज नाकिस _,*

*★_ इसलिए सिर्फ फराइज़ का अदा हो जाना इस्लाम नहीं है फराइज़ का अदा करना तो इस्लाम में दाखिले की वो शराइतें है जिसके बगैर यह मुसलमान साबित नहीं होगा । जिस तरह किसी मुल्क में दाखिले के लिए वीज़ा शर्त है, वीज़ा नहीं है तो आपको वापस कर देंगे,*

*★_ इस्लाम क्या है ? इस्लाम तो इत्तेबा ए सुन्नत का नाम है, इत्तेबा ए सुन्नत का मतलब यह है कि अपने आपको मुहम्मद ﷺ  के तरीको़ के पूरी तरह हवाले कर दो, हजरत फरमाते थे इस्लाम ऐसा मज़हब नहीं है जिसके चंद अहकाम अख्तियार कर के कामयाबी हासिल की जा सके बल्कि इस्लाम ऐसा मुरत्तब निज़ाम है कि अगर किसी शोबे का कोई हुक्म टूटेगा तो उससे वो शोबा ही मुतास्सिर नहीं होगा बल्कि सारे शोबे मुतास्सिर होंगे _,"*

*★_ हजरत फरमाते थे- जब मुसलमान का दीन नाकिस होगा तो नताइज भी नाकिस होंगे, लोग यहां आकर शिकायत करते हैं, नमाज़ भी पढ़ता हूं रोज़ा भी रखता हूं फिर भी यह हालात हैं । हजरत फरमाते थे- एक हालात आते हैं बे-दीनी की वजह से, एक हालात आते हैं नाकिस दीन की वजह से _,*

*★_ ईमान का सबसे पहला तक़ाजा़ और ईमान की सबसे बुनियादी अलामत वो इता'त है और इता'त मुहब्बत के बगैर नहीं होती कि इता'त वो करता है जिसका दिल मोहब्बत से लबरेज़ हो, इसलिए मैंने अर्ज़ किया कि मुसलमान की जा़हिरी सूरत बतला देगी कि इसका दिल किधर माइल है,*

*★_ ईमान का तकाज़ा यह है कि मुहम्मद ﷺ के हुक्म को इस तरह पूरा करे कि इसके पूरा करने में कोई चीज़ रुकावट ना बने, सा'द रज़ियल्लाहु अन्हु से कौ़म के खिलाफ फैसला करवाया, सा'द रज़ियल्लाहु अन्हु ने कौ़म के खिलाफ फैसला करके दिखलाया, सारी क़ौम मुंतजिर थी कि हमारे हक़ में फैसला करेंगे लेकिन अल्लाह और उसके रसूल की मोहब्बत में कौ़म के खिलाफ फैसला किया है -,*
    
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 *☞_ इत्तेबा ए सुन्नत से मुसलमान की इम्तियाज़ी शान -,*

*★_ इस वक़्त हमारा हाल यह है कि क़दम क़दम पर सुबह शाम कोई शोबा ऐसा नहीं होगा जिस शोबे में मुसलमान के इत्तेबा ए सुन्नत का इंतिहान ना हो रहा हो। अल्लाह मुझे माफ फरमाए, अक्सरियत अक्सरियत फेल है, सुन्नत ही तो है फ़र्ज़ थोड़े ही है, हालांकि इत्तेबा ए सुन्नत के बगैर मुसलमान को इम्तियाज़ी शान हासिल नहीं हो सकती, मुसलमान की इम्तियाज़ी शान सिर्फ इत्तेबा ए सुन्नत में है ।*

*★_ वो अगयार अपनी रिवायतों को नहीं छोड़ते, तो वह अल्लाह के बंदे जिनको अल्लाह ने सारी मखलूक़ पर गालिब करने के वादे के साथ अहकाम दिए हैं, क्या क़वानीन इनके ताबे नहीं होंगे ? क्या इनकी रिआयत नहीं होगी ? लेकिन जिनको अल्लाह ने इत्तेबा ए सुन्नत का मुकम्मल निजाम दिया है अगर यह इत्तेबा ए सुन्नत पर नहीं है तो इसको मगलूब होकर रहना पड़ेगा ।*

*★_ इसलिए ताकीद से अर्ज़ कर रहा हूं कि इत्तेबा ए सुन्नत नुसरत और मदद के लिए एक बुनियादी शर्त है, सारे आमाल आ'ला दर्जे के, इखलास आ'ला दर्जे का, इबादत आ'ला दर्जे की, एक जंग के मुक़ाबले में फतह नहीं हो रही है, आखिर क्या वजह है ? बैठ कर सोचना चाहिए, सुबह से शाम हो गई फतह नहीं हो रही, ज़रा गौर तो करो, मालूम हुआ कि मिस्वाक नहीं की, मिस्वाक की सुन्नत छूटी है।*

*★_ जो अल्लाह वाले होते हैं वह नाकाम होने की वुजूहात आमाल में तलाश करते हैं, जो अल्लाह को नहीं मानते जो ज़ाहिर परस्त होते हैं वह नाकामी की वजह असबाब में तलाश करते हैं, यह फ़र्क है अल्लाह को मानने वाले और अल्लाह को ना मानने वाले का _,*
    
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 *☞_ .मुसलमान की अमली ज़िंदगी दूसरों की हिदायत का ज़रिया है _,*

*★_ ईमान अपनी सिफात के साथ है, ईमान कोई दावा नहीं है ईमान कोई क़ौम नहीं है, इस्लाम किसी झंडे का नाम नहीं है, इस्लाम एक मुसलमान की ऐसी कामिल और मुकम्मल ज़िंदगी का नाम है जिसको देख लेना, सिर्फ देख लेना खुदा की क़सम हिदायत के लिए काफी है,*

*★_ मुसलमान की सबसे बड़ी दावत सारे ज़राए, नशरो इशा'त के निज़ाम से हटकर, सिर्फ एक मुसलमान की अपनी अमली ज़िंदगी वो एक अल्लाह को ना मानने वाले की हिदायत के लिए काफी है, काफी ही नहीं बल्कि यक़ीनी है ।*

*★_ मुशाहिदे का दीन पेश करना यह मोमिन की ज़िम्मेदारी नहीं है, मामलात का दीन पेश करो, हजरत फरमाते थे अगर मखलूत होकर रहने का मिज़ाज बन गया है तो फिर अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त सबके साथ मामला बराबर का करेंगे -*

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 *☞_ मुसलमान की इम्तियाज़ी शान तक़वा है -,*

*★_ मुसलमान की इम्तियाज़ी शान वो तक़वा के बगैर नहीं है, अल्लाह तआला ने शर्त लगाई है- अगर तुममें तक़वा है तो अल्लाह तआला तुम्हें गैरों से छांट कर अलग करेंगे ।*

*★_ ईमान अपनी अलामतों और सिफातों के साथ है, सबसे ज़्यादा आसान सिफाते इनानियात को समझने के लिए हजरत ने एक वाक़िआ हयातुस सहाबा में नक़ल किया है :-*

*★_ 7 आदमियों की जमात आपकी खिदमत में हाजिर हुई, रिवायत में है- वो खुद फरमाते हैं कि हमारे सर से पैर तक हुलिए को देख कर ही आप ﷺ समझ गए कि हम ईमान वाले हैं ।*

*★_ फरमाया तुम क्या हो? अर्ज़ किया- हम ईमान वाले हैं । फरमाया तुम्हारे ईमान की क्या अलामत है ? अर्ज़ किया कि हमारे अंदर 15 खसलतें हैं, 10 का हमें आपकी जमातों ने हुक्म दिया है और पांच हममें ज़माना ए जाहिलियत से है। आपने फरमाया कि वो 10 क्या है ?अर्ज़ किया 5 पर हमारा यक़ीन है और पांच हमारे अमल में है, फरमाया वो पांच क्या है जिन पर तुम्हारा यक़ीन है ? सबसे पहली बात ये कही कि हम ईमान लाए अल्लाह पर, उसके फरिश्तों पर, उसकी किताबों पर, उसके रसूलों पर, आखिरत के दिन पर ।*

*★_ आपने फरमाया वो पांच क्या है जिन पर तुम्हारा अमल है? अर्ज किया हम सबसे पहले गवाही देते हैं इस बात की कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं और मुहम्मद ﷺ अल्लाह के रसूल हैं और हम नमाज़ क़ायम करते हैं और रमज़ान के रोज़े रखते हैं, बैतुल्लाह का हज करते हैं और ज़कात अदा करते हैं।*

*★_ अजीब बात है, वो जानते थे कि जिंदगी का कमाल नमाज़ के कमाल में है और वाक़ई हक़ीक़त है जिसकी नमाज़ में कमाल होगा उसकी जिंदगी में उसके दीन में कमाल होगा, फरमाया कि जो नमाज़ को दुरुस्त कर लेगा वो दीन को दुरुस्त कर लेगा।*

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 *☞_ ज़कात को अदा करो और मुस्तहिक़ को खुद तलाश करो -,*

*★_ ज़कात अदा ना करने वाले अपने भाइयों का हक़ खा रहे हैं, ऐसा हक़ खा रहे जैसा अपने सगे भाई का हक़ खा रहे हैं।*

*★_ अगर मुसलमान सिर्फ ज़कात देने पर आ जाए, सदका़त तो बाद की चीज़ है सिर्फ ज़कात सही सही तरीक़े पर अदा कर दे तो दुनिया में कोई मुसलमान नंगा भूखा नहीं रह सकता,*

*★_ इसलिए फरमाया कि ज़कात को अदा करो और मुस्तहिक़ को खुद तलाश करो। हजरत फरमाते थे- ऐसे मुस्तहिक़ तो तलाश करो जैसे एक नमाज़ी आदमी वज़ु के लिए सेहरा में पानी तलाश करता है _,"*

*★_ हजरत फरमाते थे- अगर मुसलमान ज़कात को सही अदा करने पर आ गए तो ज़कात की बरकात को बर्दाश्त नहीं कर सकते, इतनी जकात की बरकात हैं _,*

*★_ लेकिन इस ज़माने में हमारा हाल यह है कि ज़कात देकर हम यह समझते हैं कि अब मुझे अपने माल में अख्तियार हो गया, मैं जहां चाहूं जितना चाहूं खर्च करूं, मैंने माल को पाक कर लिया है, माल पाक इसलिए नहीं हुआ कि इससे इसराफ करें, माल पाक इसलिए हुआ है कि तू इसको पाक काम में इस्तेमाल करें ।*

*★_ ज़कात का माल मुस्तहिक़ के लिए है, ज़कात का माल मुस्तहिक़ को दिया जाए और मुस्तहिक़ को तलाश किया जाए ।*
           
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 *☞_ .ज़कात अदा न करने पर सख्त व'ईद _,*

*★_ हजरत फरमाते थे पहले ज़माने में ज़कात के देने वाले, लेने वाले ऐसे थे, जैसे बच्चे रात को खेलते हैं छिपकर, एक बच्चा तलाश करता है बाक़ी बच्चे छुपे जाते हैं, यह तलाश करने में पूरी कोशिश लगा देता है थक जाता है, घंटों खेल चलता है, छिपने वाले छिपते रहते हैं, जहां से कोई आता है वहां से भागते हैं,*

*★_ यह था उस ज़माने में मामूल, इस ज़माने में खेल उल्टा हो गया है, उस ज़माने में खेल सही था, फुक़रा छुपते थे मालदार तलाश करते थे, इस ज़माने में मालदार छुपते हैं फुक़रा तलाश करते हैं ।*

*★_ खेल उल्टा हो गया, अल्लाह ताला ने निजाम बदल दिया, फुक़रा पर फक़्र का दरवाज़ा खोल दिया और मालदारों पर बरकतों का दरवाज़ा बंद कर दिया कि इसने फुक़रा से अपने आप को छुपाया है।*

*★_ इसलिए बड़ी सख्त व'ईद है माल के बारे में, फरमाया यह ज़कात अदा नहीं करेंगे अपने मालों की, इनकी पेशानियों को पहले दागा जाएगा क्योंकि मुस्तहिक़ के पास खुद लेकर नहीं गए माल, एक जुर्म तो यह है, उसका फाका़ उसकी तंगी उसे अगर उठाकर तुम्हारे पास ले आई तो उसे देखकर तुम्हारी पेशानी पर बल आ गए, इसलिए कुरान ने कहा पहले हम पेशानियों को दागेंगे ।*

*★_ उसने ज़्यादा सवाल किया ज़्यादा इसरार किया तो इसने उससे पहलू फेर लिया फिर हम इसके पहलुओं को दागेंगे, उसने ज़्यादा सवाल किया ज़्यादा इसरार किया यह मालदार उठकर (पीठ फेर कर) चला गया, फिर हम इनकी पीठों को दागेंगे, उस माल को तपा कर जिसको इसने अपना खजा़ना बना कर रखा है ,*

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 *☞_ सहाबा किराम के माल के मसारिफ देखो -,*

*★_ दिल यह चाहता है, खुदा की क़सम दिल यह चाहता है कि ज़रा पीछे हटकर सहाबा किराम के माल के मसारिफ देखो कि सहाबा माल कहां खर्च करते थे, सहाबा के माल के क्या मसारिफ थे, अगर गौर किया जाए तो सिर्फ दो मसारिफ मिलते हैं सहाबा के माल के, एक सबसे पहला मसारिफ अल्लाह के रास्ते की नक़ल हरकत पर माल खर्च करना,*

*★_ यह तो ऐसा मसरफ है कि कुरान ने यह कहा कि इस रास्ते की नक़ल हरकत पर माल खर्च करने में कमी ना करना, अगर इस रास्ते की नक़ल हरकत पर माल खर्च करने में कमी की तो अपने आप को हलाकत में खुद डालोगे। हजरत उबई बिन का'ब रज़ियल्लाहु अन्हु खुद फरमा रहे हैं कि यह आयत उस वक्त नाजिल हुई थी जब हमने 6 महीना मदीने में रहना तय कर लिया था कि 6 महीने मदीने में रहेंगे बाहर नहीं निकलेंगे, छह महीने बाद जहां चाहे भेज दें, सिर्फ 6 महीने नक़ल हरकत को बंद करना चाहते हैं यह नहीं कहा था कि किसी बेवा को किसी मिस्कीन को किसी मुसाफिर को किसी साहिल को दरवाज़े पर आने वाले फ़कीर पर माल खर्च नहीं करेंगे, यह नहीं कहा था। मदीने में 6 महीने रहना तय किया था कि छ: महीने हमारा खुरूज ना हो, अल्लाह ने अन्सार के इस इरादे पर आयत नाजिल फरमाई।*

*★__ मैंने अर्ज किया कि सहाबा किराम के माल का सबसे पहला मसरफ अल्लाह के रास्ते की नकल हरकत पर माल खर्च करना है, उसके बाद अहम मसरफ माल के खर्च करने का वो उम्मत को इल्म पहुंचाना इसलिए कि नक़ल हरकत और खुरूज था ही इस मक़सद के लिए कि उम्मत जहालत से निकले ।*

*★_ दिल यह चाहता है कि माल का जो हिस्सा पाक कर देते हो जकात देकर, इस पाकीज़ा माल को तो पाकीज़ा काम पर खर्च करो, खुदा की क़सम इल्म से पाक चीज़ कोई नहीं है, इल्म ही मुताहिर है, इल्म से बढ़कर पाक करने वाली कोई चीज नहीं है और इल्म से बढ़कर खुदा की क़सम निजात देने वाली कोई चीज़ नहीं है।*

*★_ सबसे बड़ा मसरफ माल का वो इल्म है, मुसलमानों की जिस्मानी ज़रूरियात पर तो गैर भी माल खर्च कर देंगे, कुछ मुकामी रियायत कर देंगे, कोई फ्री का पानी लगा देगा, कोई कंबल तक़सीम कर देगा, कोई बीमारी के लिए दवा तकसीम कर देगा, कोई हादसा पेश आया जाए तो मुसलमानों की मदद के लिए गैर भी खड़े हो जाएंगे लेकिन यह बात याद रखो कि इल्म वो फरीजा है जिसमें तआवुन सिर्फ मुसलमान करेगा।*

*★_ मैं तो हैरान होता हूं जब सुनता हूं कि किसी इल्म के तक़ाज़े के लिए किसी के दरवाज़े पर जाकर कहें कि यह ज़रूरत है, मैं समझता हूं कि जिनको अल्लाह ने माल दिया है उनकी गैरत के लिए इतना काफी है कि तुम्हें उनकी ज़रूरत के लिए खुद महसूस करके इल्म के तक़ाज़ों को अपना मोहसिन समझकर माल क्यों ना लाकर पेश किया, क्यों ना कहा कि इदारे की ज़रूरत मेरे ज़िम्मे है ,*  
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 *☞_ इल्म से ज़्यादा रगबत आज दुनिया के फुनून की है _,*
*★_ इल्म पर खर्च करने का मिज़ाज नहीं है, मैं हैरान होता हूं जब माल का मेल से आदमी किताबें लाकर यह समझता है मेरा एहसान है.. यह एक मुस्तहिक़ का हक़ है, इसकी तहकी़क़ करके खुद उस तक पहुंचाना यह मालदार की ज़िम्मेदारी है ।*

*★_ मामूल यह चल रहा है कि माल का मेल खैर के काम पर और पाकीज़ा माल शादियों पर, फर्नीचरों पर, ज़रूरत से ज़्यादा इसराफ पर, फुक़रा में फिरो, गुरबा के दरमियान जाओ, माल के मसारिफ नज़र आएंगे और अगर अपने से ऊपर वाले के दरमियान जाओगे तो उनकी सतह पर माल खर्च करने के लिए, उनकी सतह की शादियां, उनकी सतह का लिबास, उनकी सतह की ज़िंदगी का मैयार गुजा़रने के लिए इसे अपने माल का सबसे पहला मसरफ यह नज़र आएगा कि माल यहां खर्च किया जाए ।*

*★_ इसलिए मैंने अर्ज़ किया कि दिल यह चाहता है कि दीन के शोबो को इस माल के तकाज़े से फारिग कर दो कि वो इल्मे इलाही के सीखने में ऐसे मशगूल हों और इदारे में ऐसे मशगूल हों कि उनको ज़रूरियात के पूरा करने वाले का पता ना चले कि कहां से ज़रूरत पूरी की है ।*

*★_ इसलिए अर्ज़ किया कि दो मसरफ सहाबा किराम के मिलेंगे, एक दावत इलल्लाह दूसरा तालीम, मैंने बहुत गौर किया कि दुनिया के फुनून पर माल ज़्यादा खर्च होता है या दीनी उलूम पर माल ज़्यादा खर्च होता है, एक आदमी अपनी ज़ात से डॉक्टर बनने के लिए इंजीनियर बनने के लिए आप जानते हैं कितना खर्च करता है, खुदा की क़सम इतना खर्च करता है कि बाज़ मर्तबा डॉक्टर बनकर डॉक्टरी करते साल हा साल गुज़र जाते हैं, डॉक्टर बनने का कर्ज़ा अदा नहीं होता, इससे मालूम होता है कि इल्म से ज़्यादा रगबत दुनिया के फुनून की है -*

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              *☞_ . सिफात ए सहाबा_,*

*★_ अर्ज़ किया की पांच बातें हमारे अंदर हैं जिस पर हम अमल करते हैं, (शहादत की) गवाही देते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, रमज़ान के रोज़े रखते हैं, बैतुल्लाह का हज करते हैं, ज़कात अदा करते हैं । आप ﷺ ने फरमाया वो पांच क्या है जो तुम्हारे अंदर ज़माना ए जाहिलियत से है, फरमाया हमारे अंदर सब्र है हमारे अंदर शुक्र है,*

*★_ अल्लाह की शान सब्र एक ऐसी सिफात है जो आधा ईमान है, शुक्र आधा ईमान है, ईमान तो कामिल यहीं हो जाता है। सब्र और शुक्र के मतलब को समझते हो ? सब्र का हाल तो यह कि आने वाले हालात को बर्दाश्त करके हालात को बदलने का इंतजार करना यह कोई सब्र का मतलब नहीं है ,सब्र कहते हैं अल्लाह तआला के अहकाम पर जमना हालात के मुक़ाबले में, रोज़े को सब्र फरमाया है क्योंकि यह हुक्म बहुत से तक़ाज़ों से रोक देता है, और नियामतों में अल्लाह की इता'त पर जमना और उसकी इबादत में ज्यादती करना यह शुक्र है।*

*★_ फरमाया कि हमारे अंदर सब्र है हमारे अंदर शुक्र है और एक सिफात हमारे अंदर यह है कि हम जिस बात को तय कर लेते हैं उससे पीछे नहीं हटते, अपनी बात में जमने वाले हैं, एक हमारे अंदर यह सिफात है कि हम अल्लाह के हर फैसले से राज़ी रहते हैं, एक सिफात हमारे अंदर यह है कि हम अपने दुश्मन पर आने वाली मुसीबत से खुश नहीं होते,*

*★_ वाक़ई यह बहुत अहम सिफत हैं, जब तक मुसलमान के जज़्बात सारी इंसानियत के बारे में वो नहीं होंगे जो जज़्बात सहाबा किराम के थे, उस वक़्त तक इस्लाम का तार्रुफ नहीं हो सकता । याद रखना इंतक़ाम के जज़्बे से इस्लाम समझाना मुमकिन नहीं है और इंतका़म के जज़्बे से इस्लाम का फैलाना मुमकिन नहीं है, सहाबा किराम के गालिब आने की वाहिद सिफत यह थी कि सहाबा के क़ुलूब दो चीज़ों से खाली किए गए थे, एक मुल्कों माल की हिर्स ना थी और दूसरे इंतका़म का जज़्बा ना था बल्कि हिदायत की तमन्ना थी।*

*★_ अगर खुदा ना करे दिल के किसी गोशे में इन दो चीज़ों में से किसी एक चीज़ भी ज़र्रे के बराबर भी मौजूद है तो याद रखना कभी यह गलबा हासिल नहीं होगा, इसलिए इस्लाम का तार्रुफ दीन के तमाम शोबों में जो होगा वो इत्तेबा ए सुन्नत से होगा,*
   
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*☞_ हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु और एक यहूदी का क़िस्सा _,*

*★_ इस्लाम सिर्फ इबादत तक महदूद नहीं है बल्कि मुसलमान को इसका पाबंद किया गया था कि अगर हक़ गैर का है तो तुझे गैरों के साथ मामला अपनों से बेहतर करना होगा ।*

*★_ हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु (अपने दौरे खिलाफत में) बाज़ार में निकले, देखा कि एक यहूदी ज़िराह बेच रहा है, फरमाया यहूदी से यह ज़िराह मेरी है, यहूदी ने कहा नहीं यह मेरी है, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया ज़िराह मेरी है, झगड़ा हो गया, एक तरफ यहूदी और एक तरफ अमीरुल मोमिनीन, फरमाया चलो अदालत में ।*

*★_ मसला अदालत में गया, अली रज़ियल्लाहु अन्हु खुद तशरीफ ले गए, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को देखकर क़ाज़ी अपनी कुर्सी से नीचे बैठ गया उठ कर, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को कुर्सी पर बिठाया, पूछा क्या हुक्म है ? आप क्यों तशरीफ लाए? हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया:- मेरा झगड़ा इस यहूदी से है, ज़िराह मेरी है ,*

*★_ आप अंदाजा करें उस अदालत का जिसमें क़ाज़ी हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का बनाया हुआ, क़ाज़ी नीचे बैठा है यहूदी के साथ, यहूदी सोचता होगा कहां फंस गया, अदालत इनकी, का़जी़ इनका ।*

*★_ काज़ी ने कहा अमीरूल मोमिनीन आप गवाह पेश करें, फरमाया मेरा बेटा गवाही देगा, सारे जवानों के जन्नत के सरदार हैं, फरमाया बात ठीक है लेकिन बेटे की गवाही बाप के हक़ में मौतबर नहीं, अमीरुल मोमिनीन अदालत का फैसला यह है कि ज़िराह यहूदी की है, फैसला हो गया अमीरुल मोमिनीन के खिलाफ एक यहूदी के हक़ में, एक मुसलमान जज़ के ज़रिए ।*

*★_ जैसे ही ज़िराह यहूदी को मिली, यहूदी ने फौरन कलमा पढ़ा, कहा मैं देखना चाहता था कि इनकी अदालतों में जो फैसले होते हैं वह फैसले अंबिया वाले होते हैं या वो फैसले अंबिया के तरीक़े से हटे हुए होते हैं, अमीरुल मोमिनीन यह ज़िराह आपकी है, आपके ऊंट से गिरी थी मैंने उठाई थी ।*

*★_ हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने ज़िराह उसी यहूदी को हदिया की, एक घोड़ा बहुत सा माल दिया, यह हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ ही रहे आखिर तक -*
   
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 *☞_ इत्तेबा ए सुन्नत से मुसलमान की इम्तियाज़ी शान -,*

*★_ इस वक़्त हमारा हाल यह है कि क़दम क़दम पर सुबह शाम कोई शोबा ऐसा नहीं होगा जिस शोबे में मुसलमान के इत्तेबा ए सुन्नत का इंतिहान ना हो रहा हो। अल्लाह मुझे माफ फरमाए, अक्सरियत अक्सरियत फेल है, सुन्नत ही तो है फ़र्ज़ थोड़े ही है, हालांकि इत्तेबा ए सुन्नत के बगैर मुसलमान को इम्तियाज़ी शान हासिल नहीं हो सकती, मुसलमान की इम्तियाज़ी शान सिर्फ इत्तेबा ए सुन्नत में है ।*

*★_ वो अगयार अपनी रिवायतों को नहीं छोड़ते, तो वह अल्लाह के बंदे जिनको अल्लाह ने सारी मखलूक़ पर गालिब करने के वादे के साथ अहकाम दिए हैं, क्या क़वानीन इनके ताबे नहीं होंगे ? क्या इनकी रिआयत नहीं होगी ? लेकिन जिनको अल्लाह ने इत्तेबा ए सुन्नत का मुकम्मल निजाम दिया है अगर यह इत्तेबा ए सुन्नत पर नहीं है तो इसको मगलूब होकर रहना पड़ेगा ।*

*★_ इसलिए ताकीद से अर्ज़ कर रहा हूं कि इत्तेबा ए सुन्नत नुसरत और मदद के लिए एक बुनियादी शर्त है, सारे आमाल आ'ला दर्जे के, इखलास आ'ला दर्जे का, इबादत आ'ला दर्जे की, एक जंग के मुक़ाबले में फतह नहीं हो रही है, आखिर क्या वजह है ? बैठ कर सोचना चाहिए, सुबह से शाम हो गई फतह नहीं हो रही, ज़रा गौर तो करो, मालूम हुआ कि मिस्वाक नहीं की, मिस्वाक की सुन्नत छूटी है।*

*★_ जो अल्लाह वाले होते हैं वह नाकाम होने की वुजूहात आमाल में तलाश करते हैं, जो अल्लाह को नहीं मानते जो ज़ाहिर परस्त होते हैं वह नाकामी की वजह असबाब में तलाश करते हैं, यह फ़र्क है अल्लाह को मानने वाले और अल्लाह को ना मानने वाले का _,*

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 *☞_ .मुसलमान की अमली ज़िंदगी दूसरों की हिदायत का ज़रिया है _,*

*★_ ईमान अपनी सिफात के साथ है, ईमान कोई दावा नहीं है ईमान कोई क़ौम नहीं है, इस्लाम किसी झंडे का नाम नहीं है, इस्लाम एक मुसलमान की ऐसी कामिल और मुकम्मल ज़िंदगी का नाम है जिसको देख लेना, सिर्फ देख लेना खुदा की क़सम हिदायत के लिए काफी है,*

*★_ मुसलमान की सबसे बड़ी दावत सारे ज़राए, नशरो इशा'त के निज़ाम से हटकर, सिर्फ एक मुसलमान की अपनी अमली ज़िंदगी वो एक अल्लाह को ना मानने वाले की हिदायत के लिए काफी है, काफी ही नहीं बल्कि यक़ीनी है ।*

*★_ मुशाहिदे का दीन पेश करना यह मोमिन की ज़िम्मेदारी नहीं है, मामलात का दीन पेश करो, हजरत फरमाते थे अगर मखलूत होकर रहने का मिज़ाज बन गया है तो फिर अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त सबके साथ मामला बराबर का करेंगे -*

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 *☞_ मुसलमान की इम्तियाज़ी शान तक़वा है -,*

*★_ मुसलमान की इम्तियाज़ी शान वो तक़वा के बगैर नहीं है, अल्लाह तआला ने शर्त लगाई है- अगर तुममें तक़वा है तो अल्लाह तआला तुम्हें गैरों से छांट कर अलग करेंगे ।*

*★_ ईमान अपनी अलामतों और सिफातों के साथ है, सबसे ज़्यादा आसान सिफाते इनानियात को समझने के लिए हजरत ने एक वाक़िआ हयातुस सहाबा में नक़ल किया है :-*

*★_ 7 आदमियों की जमात आपकी खिदमत में हाजिर हुई, रिवायत में है- वो खुद फरमाते हैं कि हमारे सर से पैर तक हुलिए को देख कर ही आप ﷺ समझ गए कि हम ईमान वाले हैं ।*

*★_ फरमाया तुम क्या हो? अर्ज़ किया- हम ईमान वाले हैं । फरमाया तुम्हारे ईमान की क्या अलामत है ? अर्ज़ किया कि हमारे अंदर 15 खसलतें हैं, 10 का हमें आपकी जमातों ने हुक्म दिया है और पांच हममें ज़माना ए जाहिलियत से है। आपने फरमाया कि वो 10 क्या है ?अर्ज़ किया 5 पर हमारा यक़ीन है और पांच हमारे अमल में है, फरमाया वो पांच क्या है जिन पर तुम्हारा यक़ीन है ? सबसे पहली बात ये कही कि हम ईमान लाए अल्लाह पर, उसके फरिश्तों पर, उसकी किताबों पर, उसके रसूलों पर, आखिरत के दिन पर ।*

*★_ आपने फरमाया वो पांच क्या है जिन पर तुम्हारा अमल है? अर्ज किया हम सबसे पहले गवाही देते हैं इस बात की कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं और  मुहम्मद ﷺ अल्लाह के रसूल हैं और हम नमाज़ क़ायम करते हैं और रमज़ान के रोज़े रखते हैं, बैतुल्लाह का हज करते हैं और ज़कात अदा करते हैं।*

*★_ अजीब बात है, वो जानते थे कि जिंदगी का कमाल नमाज़ के कमाल में है और वाक़ई हक़ीक़त है जिसकी नमाज़ में कमाल होगा उसकी जिंदगी में उसके दीन में कमाल होगा, फरमाया कि जो नमाज़ को दुरुस्त कर लेगा वो दीन को दुरुस्त कर लेगा।*  
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 *☞_ ज़कात को अदा करो और मुस्तहिक़ को खुद तलाश करो -,*

*★_ ज़कात अदा ना करने वाले अपने भाइयों का हक़ खा रहे हैं, ऐसा हक़ खा रहे जैसा अपने सगे भाई का हक़ खा रहे हैं।*

*★_ अगर मुसलमान सिर्फ ज़कात देने पर आ जाए, सदका़त तो बाद की चीज़ है सिर्फ ज़कात सही सही तरीक़े पर अदा कर दे तो दुनिया में कोई मुसलमान नंगा भूखा नहीं रह सकता,*

*★_ इसलिए फरमाया कि ज़कात को अदा करो और मुस्तहिक़ को खुद तलाश करो। हजरत फरमाते थे- ऐसे मुस्तहिक़ तो तलाश करो जैसे एक नमाज़ी आदमी वज़ु के लिए सेहरा में पानी तलाश करता है _,"*

*★_ हजरत फरमाते थे- अगर मुसलमान ज़कात को सही अदा करने पर आ गए तो ज़कात की बरकात को बर्दाश्त नहीं कर सकते, इतनी जकात की बरकात हैं _,*

*★_ लेकिन इस ज़माने में हमारा हाल यह है कि ज़कात देकर हम यह समझते हैं कि अब मुझे अपने माल में अख्तियार हो गया, मैं जहां चाहूं जितना चाहूं खर्च करूं, मैंने माल को पाक कर लिया है, माल पाक इसलिए नहीं हुआ कि इससे इसराफ करें, माल पाक इसलिए हुआ है कि तू इसको पाक काम में इस्तेमाल करें ।*

*★_ ज़कात का माल मुस्तहिक़ के लिए है, ज़कात का माल मुस्तहिक़ को दिया जाए और मुस्तहिक़ को तलाश किया जाए ।*

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 *☞_ .ज़कात अदा न करने पर सख्त व'ईद _,*

*★_ हजरत फरमाते थे पहले ज़माने में ज़कात के देने वाले, लेने वाले ऐसे थे, जैसे बच्चे रात को खेलते हैं छिपकर, एक बच्चा तलाश करता है बाक़ी बच्चे छुपे जाते हैं, यह तलाश करने में पूरी कोशिश लगा देता है थक जाता है, घंटों खेल चलता है, छिपने वाले छिपते रहते हैं, जहां से कोई आता है वहां से भागते हैं,*

*★_ यह था उस ज़माने में मामूल, इस ज़माने में खेल उल्टा हो गया है, उस ज़माने में खेल सही था, फुक़रा छुपते थे मालदार तलाश करते थे, इस ज़माने में मालदार छुपते हैं फुक़रा तलाश करते हैं ।*

*★_ खेल उल्टा हो गया, अल्लाह ताला ने निजाम बदल दिया, फुक़रा पर फक़्र का दरवाज़ा खोल दिया और मालदारों पर बरकतों का दरवाज़ा बंद कर दिया कि इसने फुक़रा से अपने आप को छुपाया है।*

*★_ इसलिए बड़ी सख्त व'ईद है माल के बारे में, फरमाया यह ज़कात अदा नहीं करेंगे अपने मालों की, इनकी पेशानियों को पहले दागा जाएगा क्योंकि मुस्तहिक़ के पास खुद लेकर नहीं गए माल, एक जुर्म तो यह है, उसका फाका़ उसकी तंगी उसे अगर उठाकर तुम्हारे पास ले आई तो उसे देखकर तुम्हारी पेशानी पर बल आ गए, इसलिए कुरान ने कहा पहले हम पेशानियों को दागेंगे ।*

*★_ उसने ज़्यादा सवाल किया ज़्यादा इसरार किया तो इसने उससे पहलू फेर लिया फिर हम इसके पहलुओं को दागेंगे, उसने ज़्यादा सवाल किया ज़्यादा इसरार किया यह मालदार उठकर (पीठ फेर कर) चला गया, फिर हम इनकी पीठों को दागेंगे, उस माल को तपा कर जिसको इसने अपना खजा़ना बना कर रखा है ,*

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 *☞_ सहाबा किराम के माल के मसारिफ देखो -,*

*★_ दिल यह चाहता है, खुदा की क़सम दिल यह चाहता है कि ज़रा पीछे हटकर सहाबा किराम के माल के मसारिफ देखो कि सहाबा माल कहां खर्च करते थे,  सहाबा के माल के क्या मसारिफ थे, अगर गौर किया जाए तो सिर्फ दो मसारिफ मिलते हैं सहाबा के माल के, एक सबसे पहला मसारिफ अल्लाह के रास्ते की नक़ल हरकत पर माल खर्च करना,*

*★_ यह तो ऐसा मसरफ है कि कुरान ने यह कहा कि इस रास्ते की नक़ल हरकत पर माल खर्च करने में कमी ना करना, अगर इस रास्ते की नक़ल हरकत पर माल खर्च करने में कमी की तो अपने आप को हलाकत में खुद डालोगे। हजरत उबई बिन का'ब रज़ियल्लाहु अन्हु खुद फरमा रहे हैं कि यह आयत उस वक्त नाजिल हुई थी जब हमने 6 महीना मदीने में रहना तय कर लिया था कि 6 महीने मदीने में रहेंगे बाहर नहीं निकलेंगे, छह महीने बाद जहां चाहे भेज दें, सिर्फ 6 महीने नक़ल हरकत को बंद करना चाहते हैं यह नहीं कहा था कि किसी बेवा को किसी मिस्कीन को किसी मुसाफिर को किसी साहिल को दरवाज़े पर आने वाले फ़कीर पर माल खर्च नहीं करेंगे, यह नहीं कहा था। मदीने में 6 महीने रहना तय किया था कि छ: महीने हमारा खुरूज ना हो, अल्लाह ने अन्सार के इस इरादे पर आयत नाजिल फरमाई।*

*★__ मैंने अर्ज किया कि सहाबा किराम के माल का सबसे पहला मसरफ अल्लाह के रास्ते की नकल हरकत पर माल खर्च करना है, उसके बाद अहम मसरफ माल के खर्च करने का वो उम्मत को इल्म पहुंचाना इसलिए कि नक़ल हरकत और खुरूज था ही इस मक़सद के लिए कि उम्मत जहालत से निकले ।*

*★_ दिल यह चाहता है कि माल का जो हिस्सा पाक कर देते हो जकात देकर, इस पाकीज़ा माल को तो पाकीज़ा काम पर खर्च करो, खुदा की क़सम इल्म से पाक चीज़ कोई नहीं है, इल्म ही मुताहिर है, इल्म से बढ़कर पाक करने वाली कोई चीज नहीं है और इल्म से बढ़कर खुदा की क़सम निजात देने वाली कोई चीज़ नहीं है।*

*★_ सबसे बड़ा मसरफ माल का वो इल्म है, मुसलमानों की जिस्मानी ज़रूरियात पर तो गैर भी माल खर्च कर देंगे, कुछ मुकामी रियायत कर देंगे, कोई फ्री का पानी लगा देगा, कोई कंबल तक़सीम कर देगा, कोई बीमारी के लिए दवा तकसीम कर देगा, कोई हादसा पेश आया जाए तो मुसलमानों की मदद के लिए गैर भी खड़े हो जाएंगे लेकिन यह बात याद रखो कि इल्म वो फरीजा है जिसमें तआवुन सिर्फ मुसलमान करेगा।*

*★_ मैं तो हैरान होता हूं जब सुनता हूं कि किसी इल्म के तक़ाज़े के लिए किसी के दरवाज़े पर जाकर कहें कि यह ज़रूरत है, मैं समझता हूं कि जिनको अल्लाह ने माल दिया है उनकी गैरत के लिए इतना काफी है कि तुम्हें उनकी ज़रूरत के लिए खुद महसूस करके इल्म के तक़ाज़ों  को अपना मोहसिन समझकर माल क्यों ना लाकर पेश किया, क्यों ना कहा कि इदारे की ज़रूरत मेरे ज़िम्मे है ,*

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 *☞_ इल्म से ज़्यादा रगबत आज दुनिया के फुनून की है _,*
*★_ इल्म पर खर्च करने का मिज़ाज नहीं है, मैं हैरान होता हूं जब माल का मेल से आदमी किताबें लाकर यह समझता है मेरा एहसान है.. यह एक मुस्तहिक़ का हक़ है, इसकी तहकी़क़ करके खुद उस तक पहुंचाना यह मालदार की ज़िम्मेदारी है ।*

*★_ मामूल यह चल रहा है कि माल का मेल खैर के काम पर और पाकीज़ा माल शादियों पर, फर्नीचरों पर, ज़रूरत से ज़्यादा इसराफ पर, फुक़रा में फिरो, गुरबा के दरमियान जाओ, माल के मसारिफ नज़र आएंगे और अगर अपने से ऊपर वाले के दरमियान जाओगे तो उनकी सतह पर माल खर्च करने के लिए, उनकी सतह की शादियां, उनकी सतह का लिबास, उनकी सतह की ज़िंदगी का मैयार गुजा़रने के लिए इसे अपने माल का सबसे पहला मसरफ यह नज़र आएगा कि माल यहां खर्च किया जाए ।*

*★_ इसलिए मैंने अर्ज़ किया कि दिल यह चाहता है कि दीन के शोबो को इस माल के तकाज़े से फारिग कर दो कि वो इल्मे इलाही के सीखने में ऐसे मशगूल हों और इदारे में ऐसे मशगूल हों कि उनको ज़रूरियात के पूरा करने वाले का पता ना चले कि कहां से ज़रूरत पूरी की है ।*

*★_ इसलिए अर्ज़ किया कि दो मसरफ सहाबा किराम के मिलेंगे, एक दावत इलल्लाह दूसरा तालीम, मैंने बहुत गौर किया कि दुनिया के फुनून पर माल ज़्यादा खर्च होता है या दीनी उलूम पर माल ज़्यादा खर्च होता है, एक आदमी अपनी ज़ात से डॉक्टर बनने के लिए इंजीनियर बनने के लिए आप जानते हैं कितना खर्च करता है, खुदा की क़सम इतना खर्च करता है कि बाज़ मर्तबा डॉक्टर बनकर डॉक्टरी करते साल हा साल गुज़र जाते हैं, डॉक्टर बनने का कर्ज़ा अदा नहीं होता, इससे मालूम होता है कि इल्म से ज़्यादा रगबत दुनिया के फुनून की है -*
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              *☞_ . सिफात ए सहाबा_,*

*★_ अर्ज़ किया की पांच बातें हमारे अंदर हैं जिस पर हम अमल करते हैं, (शहादत की) गवाही देते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, रमज़ान के रोज़े रखते हैं, बैतुल्लाह का हज करते हैं, ज़कात अदा करते हैं । आप ﷺ  ने फरमाया वो पांच क्या है जो तुम्हारे अंदर ज़माना ए जाहिलियत से है, फरमाया हमारे अंदर सब्र है हमारे अंदर शुक्र है,*

*★_ अल्लाह की शान सब्र एक ऐसी सिफात है जो आधा ईमान है, शुक्र आधा ईमान है, ईमान तो कामिल यहीं हो जाता है। सब्र और शुक्र के मतलब को समझते हो ? सब्र का हाल तो यह कि आने वाले हालात को बर्दाश्त करके हालात को बदलने का इंतजार करना यह कोई सब्र का मतलब नहीं है ,सब्र कहते हैं अल्लाह तआला के अहकाम पर जमना हालात के मुक़ाबले में, रोज़े को सब्र फरमाया है क्योंकि यह हुक्म बहुत से तक़ाज़ों से रोक देता है, और नियामतों में अल्लाह की इता'त पर जमना और उसकी इबादत में ज्यादती करना यह शुक्र है।*

*★_ फरमाया कि हमारे अंदर सब्र है हमारे अंदर शुक्र है और एक सिफात हमारे अंदर यह है कि हम जिस बात को तय कर लेते हैं उससे पीछे नहीं हटते, अपनी बात में जमने वाले हैं, एक हमारे अंदर यह सिफात है कि हम अल्लाह के हर फैसले से राज़ी रहते हैं, एक सिफात हमारे अंदर यह है कि हम अपने दुश्मन पर आने वाली मुसीबत से खुश नहीं होते,*

*★_ वाक़ई यह बहुत अहम सिफत हैं, जब तक मुसलमान के जज़्बात सारी इंसानियत के बारे में वो नहीं होंगे जो जज़्बात सहाबा किराम के थे, उस वक़्त तक इस्लाम का तार्रुफ नहीं हो सकता । याद रखना इंतक़ाम के जज़्बे से इस्लाम समझाना मुमकिन नहीं है और इंतका़म के जज़्बे से इस्लाम का फैलाना मुमकिन नहीं है, सहाबा किराम के गालिब आने की वाहिद सिफत यह थी कि सहाबा के क़ुलूब दो चीज़ों से खाली किए गए थे, एक मुल्कों माल की हिर्स ना थी और दूसरे इंतका़म का जज़्बा ना था बल्कि हिदायत की तमन्ना थी।*

*★_ अगर खुदा ना करे दिल के किसी गोशे में इन दो चीज़ों में से किसी एक चीज़ भी ज़र्रे के बराबर भी मौजूद है तो याद रखना कभी यह गलबा हासिल नहीं होगा, इसलिए इस्लाम का तार्रुफ दीन के तमाम शोबों में जो होगा वो इत्तेबा ए सुन्नत से होगा,*

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*☞_ हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु और एक यहूदी का क़िस्सा _,*

*★_ इस्लाम सिर्फ इबादत तक महदूद नहीं है बल्कि मुसलमान को इसका पाबंद किया गया था कि अगर हक़ गैर का है तो तुझे गैरों के साथ मामला अपनों से बेहतर करना होगा ।*

*★_ हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु (अपने दौरे खिलाफत में) बाज़ार में निकले, देखा कि एक यहूदी ज़िराह बेच रहा है, फरमाया यहूदी से यह ज़िराह मेरी है, यहूदी ने कहा नहीं यह मेरी है, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया ज़िराह मेरी है, झगड़ा हो गया, एक तरफ यहूदी और एक तरफ अमीरुल मोमिनीन, फरमाया चलो अदालत में ।*

*★_ मसला अदालत में गया, अली रज़ियल्लाहु अन्हु खुद तशरीफ ले गए, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को देखकर क़ाज़ी अपनी कुर्सी से नीचे बैठ गया उठ कर, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को कुर्सी पर बिठाया, पूछा क्या हुक्म है ? आप क्यों तशरीफ लाए? हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया:- मेरा झगड़ा इस यहूदी से है, ज़िराह मेरी है ,*

*★_ आप अंदाजा करें उस अदालत का जिसमें क़ाज़ी हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का बनाया हुआ, क़ाज़ी नीचे बैठा है यहूदी के साथ, यहूदी सोचता होगा कहां फंस गया, अदालत इनकी, का़जी़ इनका ।*

*★_ काज़ी ने कहा अमीरूल मोमिनीन आप गवाह पेश करें, फरमाया मेरा बेटा गवाही देगा, सारे जवानों के जन्नत के सरदार हैं, फरमाया बात ठीक है लेकिन बेटे की गवाही बाप के हक़ में मौतबर नहीं, अमीरुल मोमिनीन अदालत का फैसला यह है कि ज़िराह यहूदी की है, फैसला हो गया अमीरुल मोमिनीन के खिलाफ एक यहूदी के हक़ में, एक मुसलमान जज़ के ज़रिए ।*

*★_ जैसे ही ज़िराह यहूदी को मिली, यहूदी ने फौरन कलमा पढ़ा, कहा मैं देखना चाहता था कि इनकी अदालतों में जो फैसले होते हैं वह फैसले अंबिया वाले होते हैं या वो फैसले अंबिया के तरीक़े से हटे हुए होते हैं, अमीरुल मोमिनीन यह ज़िराह आपकी है, आपके ऊंट से गिरी थी मैंने उठाई थी ।*

*★_ हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने ज़िराह उसी यहूदी को हदिया की, एक घोड़ा बहुत सा माल दिया, यह हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ ही रहे आखिर तक -*
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*☞_ नक़ल हरकत के ज़रिए मुशाहिदे का दीन पेश करो -,*
*★_ इस्लाम का अक्सर हिस्सा मखलूक़ के दरमियान है, इसलिए कि चार चीज़ों पर सारा इस्लाम है, इबादात मामलात अखलाक और मआशरत, एक हिस्सा इसके और अल्लाह के दरमियान है, बाक़ी तीन हिस्से इसके और मखलूक़ के दरमियान है,*

*★_ इस नक़ल हरकत के ज़रिए उम्मत को वो अखलाक, वो मामलात, वो मआशरत अमली तौर पर पेश करना है, यह नक़ल हरकत इसलिए थी कि मुसलमान अपने अमल में रह कर हरकत में आए ताकि उम्मत को मुशाहिदे का दीन पेश करें ।*

*★_ इल्म की हिफाज़त बेशक (उलमा ए हक़ के) कलाम से है लेकिन इस इल्म की इसा'अत क़दम चाहती है, जो कुछ लिखा गया है उस लिखे हुए पर अमल के लिए उम्मत को भेजा गया है, इसलिए उम्मत पर अमली दीन पेश करना इस नक़ल हरकत का असल मक़सद है और इसका कोई मुक़ाबिल नहीं ।*

*★_ दो चीजें ऐसी हैं जिससे दौरे सहाबा मे इस्लाम फैला है, एक अल्लाह के रास्ते की नक़ल हरकत और दूसरे उलमा ए हक की मजलिसे सोहबत, ये इल्म को उलमा से लेते थे और अमली नक़ल हरकत से इल्म को उम्मत तक पहुंचाते थे।*

*★_ इसलिए बात अच्छी तरह जाननी चाहिए कि उम्मत तक अमली दीन के पहुंचाने का जो बुनियादी सबब है बुनियादी ज़रिया है वो अल्लाह के रास्ते की नक़ल हरकत है ।*
    
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*☞_ दावत के लिए रिवाजी तरीक़े नहीं सुन्नत तरीक़ा अख्त्यार करो -,*

*★_ मुजाहिदा इंसान की सिफत है, इसके अलावा कोई मखलूक़ मुजाहिद नहीं है और हिदायत का वादा मुजाहिदे पर है । बात को पहुंचाने के जितने भी रिवाजी़ तरीक़े हैं इन रिवाजी़ तरीकों से, मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह फरमाते थे- रिवाज़ तरक्की़ करेंगे दीन तरक्की़ नहीं करेगा, दीन की तरक्की उस तरीक़ा ए मेहनत में है जो तरीक़ा ए मेहनत मुहम्मद ﷺ और आपके सहाबा का है _,"*

*★_ हजरत जी रहमतुल्लाह की बात है, हजरत फरमाते थे - जब हक़ को चलाने के लिए बातिल का सहारा लिया जाएगा तो बातिल चलेगा हक़ नहीं चलेगा _," जितने भी ज़राए हैं इनके अंदर रिवाज की जुल्मतें  हैं और खुद जाकर दावत देने में खुदा की क़सम सुन्नत के अनवारात हैं, सुन्नत की अज़ियत सिर्फ आप ﷺ के तरीक़ा ए दावत में है, उस तरीक़ा ए दावत से हटकर नबूवत की लाइन की अज़ियतें किसी रिवाज़ी तरीकों में नहीं मिलेगी _,*

*★_ इसलिए उम्मत तक दीन पहुंचाने के लिए जो मसनून तरीक़ा है, आप अगर गौर करेंगे तो दौरे सहाबा मे सिर्फ दो चीज़ें मिलेंगी, एक आप ﷺ की सोहबत और आप ﷺ की सोहबत के बाद आपके उलमा ए हक़ की सोहबत और दूसरी अल्लाह के रास्ते की नक़ल हरकत, इस का असल मक़सद उम्मत को हिदायत की तरफ लाना है,*

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*☞_ अमल से अमल ज़िंदा होता है -,*

*★_ इसलिए अखलाक़ और माशरा दिखाने के लिए दावत अपने माहौल में लाने के लिए थी, दावत पैगाम पहुंचाने के लिए नहीं थी, नबी अलैहिस्सलाम की सुन्नत यह है कि तुम अख़लाक़ और माशरा लेकर उनके माहौल में जाओ ।*

*★_ अगर अपने घर से मस्जिद तक जाते हुए सिर्फ नमाज़ के लिए जा रहा (रास्ते में लोगों को नमाज़ की ) दावत नहीं दे रहा है, तो यह ना अपनों की हिदायत का ज़रिया बनेगा ना गैरों की हिदायत का ज़रिया बनेगा । इंफिरादी आमाल से इस्लाम नहीं फैला करता, आमाले दावत हिदायत के रास्ते बनाते हैं, अमल से अमल ज़िंदा होता है ।अपने माहौल में लेकर आना यह मामूल था सहाबा किराम का,*

*★_ इस नक़ल हरकत का मक़सद कलमा नमाज़ सीखना नहीं है, मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह का मलफूज़ है कि मेरी तहरीक़ का मक़सद सिर्फ कलमा नमाज़ सही करना नहीं है, कलमा नमाज़ का दुरुस्त हो जाना यह तो इस रास्ते के खुरूज की ऐसी इब्तेदाई चीज़ है जैसे बच्चा अलिफ बा ता सीख लेता है, यह तो फराइज़ में से है, इस नक़ल हरकत का असल मक़सद यह था कि अमली इस्लाम ले कर उम्मत उम्मत में जाए,*

*★_ आप देख लीजिए इन जमातो की नक़ल हरकत से ईसार के, कु़र्बानी के, हमदर्दी के, अखलाक के, अच्छे मामलात के, अच्छे माशरे के जब आमाल सामने आते हैं तो मालूम होता है इस्लाम क्या है ।*

*★_ इसलिए इंफिरादी दावत के लिए क़दम उठाओगे तो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त इस पर क़ुलूब को नरम फरमा देंगे, इसलिए मेरे अज़ीज़ों दोस्तों ! यह नक़ल हरकत इस मक़सद के लिए है कि इस नक़ल हरकत के ज़रिए उम्मत को अमल के माहौल में लाया जाए, इस नक़ल हरकत के ज़रिए उम्मत पर अमली इस्लाम पेश किया जाए, यह मुसलमान की ज़िम्मेदारी है इस नक़ल हरकत के ज़रिए अमली दीन ले कर फिरे।*
 
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*☞_ अल्लाह के गुस्से को ठंडा करने वाला अमल_,*

*★_ इसमें कोई शक नहीं है कि इस रास्ते में फिरना अल्लाह का अम्र है और यह बात याद रखना हम जो खुरूज करते हैं अल्लाह के रास्ते का यह अल्लाह के अम्र की वजह से करते हैं, "जब भी निकाला जाए निकल जाओ _,"*

*★_ ऐसा मिजा़ज बनाया गया था सहाबा किराम का, बा क़ौल हजरत के कि हुजूर अकरम ﷺ ने सहाबा को निकालने में उज्र की कोई क़िस्म बाक़ी नहीं छोड़ी जिसमें सहाबा को निकाला ना हो, खौफ में बीमारी में, खुशी में गम के हालात में, हालात की खराबी में, कोई मौक़ा ऐसा नहीं होगा जिसमें सहाबा को निकाला ना हो।*

*★_ लंगड़े सहाबी है अम्र बिन जमूह रज़ियल्लाहु अन्हु, बेटों ने आकर कहा अब्बा जी को रोक लीजिए, बेटों से फरमाया जाने दो, उनसे फरमाया तुम माजूर हो, अर्ज़ किया- या रसूलल्लाह, सिर्फ इतना बता दीजिए जन्नत में लंगड़े पैर से चलूंगा या सही पैर से, आपने फरमाया- जन्नत में सही पैर से चलोगे, यह निकले, आप ﷺ  ने फरमाया मेरी आंखों के सामने है अम्र, जन्नत में सही पैर से चल रहा है ।*

*★_ इसलिए मेरे अज़ीज़ों दोस्तों! सबसे ज्यादा अल्लाह के गुस्से को ठंडा करने वाला अमल वो अल्लाह के रास्ते की पैदल नक़ल हरकत है, इस रास्ते में पैदल चलने से जहन्नम जो अल्लाह के गुस्से का सबसे बड़ा मज़हर है, इस रास्ते की नक़ल हरकत से वो जहन्नम की आग हराम कर दी जाती है तो जो उसके गुस्से के मज़हर दुनिया में हैं, जमातों की नक़ल हरकत से कैसे खत्म नहीं होंगे -  ,*

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*☞_ .तौबा के लिए निकलने वाले क़ातिल का वाक़िआ -,*

*★_ इस उम्मत की फजी़लत और इस उम्मत का अफज़ल होना, इस दावत इलल्लाह की शर्त के साथ है कि अपने दीन को लेकर हरकत में आना है, (दावत) यक़ीन के बदलने का रास्ता है और यही माहौल के बदलने का रास्ता है, यक़ीन और माहौल की तब्दीली के लिए असल यह रास्ता दिया गया था, अपने माहौल से निकलना ज़रूरी है।*

*★_ आप बारहा सुनते हैं वो क़ातिल जिसने 99 क़त्ल किए, एक राहिब से जाकर सवाल किया- क्या मेरी तौबा क़ुबूल हो सकती है? उसने कहा- तुमने 99 क़त्ल किए हैं तुम्हारी तौबा क़ुबूल नहीं होगी। उसने उसको भी निपटा दिया । क्यों जो शख्स अल्लाह की रहमत से मायूस करें वह रहने के का़बिल नहीं।*

*★_ अजीब बात है आलिम और राहिब का फ़र्क देखो, जो उम्मत से कटकर खालिक़ की इबादत में था उसने मायूस कर दिया कि तेरी मग्फिरत नहीं होगी, लेकिन आलिम का ताल्लुक़ मखलूक़ से होता है, अल्लाह के इल्म को लोगों तक पहुंचाने के लिए यह इल्म के ज़रिए अल्लाह के बंदों को अल्लाह से जोड़ना चाहता है।*

*★_ आलिम के पास गया- क्या मेरी तौबा क़ुबूल हो जाएगी ?आलिम ने कहा- तौबा क़ुबूल हो जाएगी लेकिन आप अपनी बस्ती छोड़कर निकल जाएं, रिवायत पर गौर करो, यह नहीं कहा- जाइए अल्लाह माफ कर देंगे तौबा कर लीजिए, उलमा ने लिखा है कि अपने रास्ते (माहौल) को छोड़कर निकलना यह तौबा के अंदर पुख्तगी पैदा करना है, गुनाह के माहौल में रहकर इस्तिगफार करना गुनाह की ज़ुलमतों से तौबा के कमाल तक नहीं पहुंचने देता, यही वजह है कि सुबह शाम तौबा करते हैं और सुबह शाम गुनाह करते हैं, तौबा में पुख़्तगी पैदा होती है जब आदमी गुनाह के माहौल से निकलकर बाहर आता है, सहाबा ने शिर्क की ज़ुल्मतों को ईमान के माहौल में आकर समझा, हम गुनाह की ज़ुल्मतों को गुनाह के माहौल से निकलकर समझेंगे।*

*★_ यह निकला और निकलते ही मौत आ गई, जहां से निकला है उसके क़रीब मौत आई है, जहां जा रहा है पहुंचा नहीं है, अल्लाह ने ज़मीन से फरमाया तू सिमट जा, फरिश्तों से फरमाया नाप के देख लो किस जगह के क़रीब है, अल्लाह की शान अल्लाह ने इसके क़दम उठाने पर इसकी मग्फिरत का फैसला फरमा दिया।*
 
         ❦━━━━━━❀━━━━━❦ 
*☞_ .उम्मत की नक़ल हरकत जारी पानी है _,*

*★_ मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह फरमाते थे- खुरूज और नक़ल हरकत यह तो मग्फिरत का यक़ीनी रास्ता है, इस उम्मत को मुतहर्रिक बनाया गया था, ऐसे फज़ाइल है खुरूज और नक़ल हरकत के कि ये उम्मत क़यामत तक चैन से बैठ ना सके, तबलीग मदरसा नहीं है जिसमें तालीम करके फरागत हासिल हो जाए, बल्कि नक़ल हरक़त उम्मत को हिदायत पर लाने और खुद अपने आमाल में कमाल पैदा करने के लिए है,*

*★_ हजरत का मलफूज़ है, अजीब बात फरमाई- मग्फिरत - अल्लाह के रास्ते में एक मर्तबा सर दर्द हो जाए पिछले सारे गुनाह माफ कर दिए जाते हैं, अल्लाह के रास्ते में पैदल चलना आग को हराम कर देता है, अल्लाह के रास्ते में मौत आ जाए तो कहना ही क्या ! फ़रमाया जहां मरा है वहां से निकलने की जगह के दरमियान एक मोती का महल तराशकर अल्लाह अता फरमाते हैं, इतना बड़ा मोती कि जहां से निकला है जहां आकर मरा है ।*

*★_ बल्कि इससे आगे यूं फरमाया- अगर अल्लाह के दीन के तक़ाज़ों पर उसके दीन को समुंदर पार पहुंचाने के लिए यह फजी़लत बयान की है ताकि लोग यह ना समझे कि जहां पर खुश्की है वहां तक चलो, फरमाया- जो अल्लाह के दीन के पैगाम को लेकर समुंदर से भी सफर करता है और मौत आ जाए तो अल्लाह तआला फरिश्तों से फरमाते हैं इसकी रूह तुम नहीं निकालोगे इसकी रूह मैं खुद निकालूंगा (अल्लाहु अकबर )*

*★_ यह फज़ाइल क्यों बताए गए थे, ताकि उम्मत तो मुतहर्रिक रहे, उम्मत की नक़ल हरकत जारी पानी की तरह है, जारी पानी पाक रहता है पाक करता है, इसी तरह उम्मत की नकल हरकत उम्मत की तहारत का, उम्मत के लिए मग्फिरत का, उम्मत के लिए तज़किए का, हिदायत का बुनियादी ज़रिया है ।*

*★_ यह उम्मत उम्मते मुहम्मदिया है, इस उम्मत की जिम्मेदारी बा एतबार आलम के हैं, यह उम्मत अपनी ज़ात से नहीं है यह उम्मत उम्मत है बा एतबार उम्मत है, सारी दुनिया के मुसलमान एक जिस्म के आज़ा की तरह है, पैर का ज़ख्म पैर का नहीं है, खुदा की क़सम यह इसके पूरे बदन से मुताल्लिक ज़ख्म है, इस ज़ख्म से पूरा बदन मुतास्सिर होगा, एक इलाक़े की बेदीनी से पूरा आलम मुतास्सिर होगा, इस हदीस का असल मफहूम है, इसलिए पूरा मजमा इसका अज़्म करे कि इस काम को काम बना कर रहना है बा एतबार आलम के दीन क़ायम हो, यह इस उम्मत की ज़िम्मेदारी है, आप ﷺ की नियाबत में उम्मत को यह काम बा एतबार आलम के मिला है । (अल्हम्दुलिल्लाह)*
  
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*☞_  खैर का मौक़ा क़ुबूलियत का इम्तिहान _,*

*★_ खैर का मौक़ा मिल जाना यह क़ुबूलियत की अलामत नहीं है बल्कि यह मौक़ा क़ुबूलियत के इम्तिहान का होता है । इस इम्तिहान में जो अपनी जा़त की हर एतबार से नफी करके अल्लाह तआला के अवामिर को यक़ीन की बुनियाद पर क़ुबूल कर लेता है वह तो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के यहां नबूवत के काम के लिए खलीफा मुंतखब कर लिया जाता है और जो इस इम्तिहान में फेल हो जाता है बावजूद क़ुर्ब के, बावजूद क़ुव्वत के, बावजूद कुर्बानियों के, बावजूद ज़िम्मेदारियों में चलने के बड़े बड़े दर्जे और बड़े बड़े मुका़म से गिरा दिया जाता है, अल्लाह हम सब की हिफाज़त फरमाए, आमीन ।*

*★_ अल्लाह रब्बुल इज्जत एक एक फर्द का बराहे रास्त इम्तिहान लेते हैं कि इस काम में जो ज़िम्मेदारी इस पर डाली गई है इस ज़िम्मेदारी के अदा करने में इसका खुद बा जा़ते खुद अपने काम पर यक़ीन कितना है ? इम्तिहान किसी नये आदमी का नहीं इम्तिहान पुरानों का लिया जाता है और इम्तिहान दूर वाले का नहीं क़रीब वाले का लिया जाता है और इम्तिहान किसी छोटे काम करने वाले का नहीं बड़ा काम करने वाले का लिया जाता है, कोई कितना भी आगे बढ़ जाए कोई कितना भी पुराना हो जाए, खुदा की क़सम इम्तिहान लिए बगैर अल्लाह किसी को नहीं छोड़ेंगे ।*

*★_ इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने इस तरह के तमाम इम्तिहानात में कमाल को पहुंचकर दिखाया, दो लाइन से अल्लाह ताला ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम को इंतिहान में मुब्तिला किया, एक अहकामें शरीयत में और दूसरा इम्तिहान अहकामे दावत में, इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने दोनों एतबार से हुक्म पूरा करके दिखलाया, अल्लाह ने फरमाया अब हम तुम्हें इमाम मुंतखब करते हैं ।*

*★_ इस काम में जो अहकाम आएंगे वो कभी हैसियत के खिलाफ, कभी अहकाम आएंगे मामूल के खिलाफ, कभी अहकाम आएंगे अपने अच्छे जज़्बे के खिलाफ, इम्तिहान का सिलसिला अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का ऊपर से चल रहा है ।

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     *☞_  नबी के हुक्म का इंकार -,*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ के साथ एक साहब खाना खा रहे थे, बाएं हाथ से लुक़मा लिया, आपने फरमाया दाएं हाथ से खाओ, बाज़ मर्तबा बाज़ तबीयतें ऐसी होती हैं कि अगर उन्हें किसी गलत काम से रोका जाए तो उनको यह रोकना इतना नागवार होता है कि वह कोई झूठा उज्र पेश कर देते हैं, यह बताने के लिए कि आपने मुझे जो टोका है गलत टोका है, मैं माजूर हूं ।*

*★_ आप ﷺ ने फरमाया दाएं हाथ से खाओ, उसे यह खयाल हुआ कि मुझे सबके सामने क्यों टोक दिया, उसने उज्र पेश किया, उज्र इसलिए पेश किया ताकि आपका टोकना बेअसर हो जाए, इन्होने इस अम्र को हकीर समझकर कहा कि मेरा दायां हाथ उठता नहीं है, रिवायत में है कि आपने बद्दुआ की, आपने फरमाया अल्लाह करे तेरा यह हाथ आइंदा कभी ना उठे, रिवायत में है कि उसको दाएं हाथ से खाने से सिर्फ तक़ब्बुर ने रोका था वरना उज्र कोई नहीं था ।*

*★_ यह कोई फर्ज नहीं या वाजिब नहीं, बाएं हाथ से खाना कोई कबीरा गुनाह नहीं है लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि खिलाफे सुन्नत है और खिलाफे सुन्नत होना ही खिलाफ ए दीन है, खिलाफे सुन्नत अमल होना दीन की मुखालफत के लिए काफी है, फराइज़ से इख्तिलाफ तो कुफ्र की अलामत है लेकिन सुन्नत की मुखालिफत असल बे दीनी है,*

*★_ कितने ही काम ऐसे हैं जिन्हें करने को कहा जाता है और हम हल्का समझ कर छोड़ देते हैं, अगर मुहम्मद ﷺ के एक दाएं हाथ से खाने की सुन्नत का भी यह कहकर इन्कार करें कि इस वक्त में यह नहीं कर सकता और यह अपने उज्र में झूठा हो तो मेरे दोस्तों अज़ीज़ों ! जो बद्दुआ मेहरूमी उस वक्त है, वह मेहरुमी उस वक्त के लिए नहीं है हमेशा के लिए है, यह बहुत गौर करने की बात है, इत्तेबा ए सुन्नत कोई मामूली चीज़ नहीं है ।*

*★_ अल्लाह मुझे माफ फरमाए यह आम मिजाज़ है इस वक्त कि अगर किसी को गलती पर रोका जाता है टोका जाता है तो वह कोशिश करता है कि कोई ऐसा उज़्र पेश करूं जिससे टोकने वाले का टोकना गलत साबित हो जाए हालांकि एक आदमी के इखलास और एक आदमी के अल्लाह के यहां मक़बूल होने की अलामत है कि टोकने वाले को अपना मोहसिन समझे बल्कि अपने को टोकने वाले लोग तैयार करके रखें कि अगर मुझसे खता हो तो मुझे टोक दिया जाए, इसलिए कि मुखलिस आदमी की अलामत यह है कि टोकने वाले को अपना मोहसिन समझेगा और रियाकार टोकने वाले को अपना दुश्मन समझेगा और तारीफ़ करने वाले को दोस्त समझेगा।*

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     *☞_ अल्लाह  के हुक्म का इंकार -,*

*★_ सबसे ज़्यादा अल्लाह ताला के मुकर्रब और नेक बंदे वो मलाइका हैं। अल्लाह तआला ने इम्तिहान लिया और हुकुम दिया कि आदम को सज़दा करें, सबने सज़दा किया सिवाय इबलीस के, अल्लाह के अम्र का इनकार किया और यह इंकार अल्लाह का इंकार नहीं है उसके अम्र का इंकार है, याद रखो अल्लाह का हुक्म और नबी का हुक्म वो अगरचे एक मामूली चीज़ के लिए भी हो लेकिन अगर बतोरे क़िब्र के किसी हुक्म का इंकार कर दिया, इन्कार ही नहीं किया बल्कि झूठा उज्र भी पेश कर दिया तो यह मेहरूमी के लिए काफी है ।*

*★_ अल्लाह रब्बुल इज्जत हुक्म देते हैं आदम अलैहिस्सलाम को सजदा करने का, सबने सजदा किया, इबलीस ने इंकार कर दिया और यह कहा आप मेरे साथ मामला वो करें जिसका मैं अहल हूं, सारा झगड़ा ही इस बात पर है कि हर शख्स यह चाहता है कि उसको उसके मुका़म पर रखा जाए, सबसे पहली महरूमी इबलीस की जो हुई है उसकी असल बुनियाद ही यही है- मुझे मेरे मुका़म पर रखा जाए, मेरे साथ ज़्यादती है कि मुझे आदम को सजदा करने का हुक्म दिया जा रहा है ।*

*★_ यह पहला इंतिहान था जो अल्लाह ने फरिश्तों का लिया कि अब तक के क़ुर्ब से और अब तक की इबादत से इता'त पर कितना आए, अगर बाज़ाते खुद को सजदा करने का हुक्म होता तो कौन इंकार करता, मगर सजदे का हुक्म नए के लिए जो मिट्टी से बने हैं, इधर नूरानियत है इधर मिट्टी है लेकिन हैसियत अल्लाह के अम्र की है।*

*★_ अगर अल्लाह तआला के अवामिर मामूल के मुताबिक आए उनका पूरा करना इता'त का कमाल नहीं है, अल्लाह ताला के अहकाम मामूल के खिलाफ आए उनका पूरा करना तबीयत के खिलाफ हो यह ( इता'त) का इम्तिहान है, चुनांचे इस अम्र के पूरा ना करने की वजह से इबलीस को वहां से निकाल दिया गया और यह एक हक़ीक़त है जो किसी खैर से महरूम किया जाता है वो अपनी तन्हाई को बर्दाश्त नहीं करता, वो क़सम खा लेता है कि मैं जिस खैर से मेहरूम हुआ हूं, मैं आदम और औलादे आदम को भी उस खैर से मेहरूम करने की पूरी कोशिश करूंगा ।*

*★_ हजरत थानवी रहमतुल्लाहि अलैहि एक अजीब बात फरमा गए, फरमाते थे- जब अल्लाह के अवामिर अल्लाह के अहकाम को दुनियावी मसलों की वजह से छोड़ा जाता है तो दीन बे लज़्ज़त हो जाता है, जिस तरह अगर मसालेह को पीसा जाए तो खाने में लज्ज़त होती है, इसी तरह मसालेह का पीसना और मसालेह को कुचलना अल्लाह के अम्र को पूरा करने के लिए, इसी में दीन की लज़्ज़त है, लोग मसालेह की वजह से दीन छोड़ते हैं हालांकि मसालेह को पीसा जाता है ।*
  
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     *☞_हुक्म अच्छे जज़्बे के खिलाफ _,*

*★_ कभी आएगा हुक्म हैसियत के खिलाफ जैसे हुक्म दिया इबलीस को, यह उसकी हैसियत के खिलाफ था, उसने अम्र को नहीं देखा हैसियत को देखा, दूसरा हुक्म अल्लाह लाएंगे अपने अच्छे जज़्बे के खिलाफ,*

*★_ हुदेबिया में अम्र आया कि आपको यहां से वापस होना है, अल्लाह का हुक्म है, तमाम शराइत मुशरिकीने मक्का की मानो, मुशरिकीन ने कहा हम रसूलुल्लाह नहीं लिखने देंगे, उमरा नहीं करने देंगे, हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु इस पर अड़ गए क्यों हम दबकर सुलह करें ? क्यों ना हम उमरा करें, बेतुल्लाह किसी की जागीर नहीं है, सब आतें करते हैं हज करते हैं तवाफ करते हैं।*

*★_ अजीब बात यह है कि सहाबा किराम का इतना मजमुआ हुदेबिया के मौक़े पर आप ﷺ के साथ था, उनके दरमियान सबकी एक बात वो ऐसी थी अगर किसी जज़्बे की वजह से कोई शख्स यह कहता कि मैं तो यह चाहता हूं और वह शख्स किसी के पास जाता, उसकी राय को अपनी राय के साथ शामिल करने के लिए तो वह कहता कि नहीं उमर, अल्लाह अल्लाह के रसूल का हुक्म यह है, सहाबा में आपस में इतनी इस्तेमाइयत थी,*

*★_ हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु का जज़्बा उमरा करने का, जिसके पास जाते वो कहता- उमर अल्लाह का अम्र, अल्लाह का हुक्म.., उमर कहते - क्या हम हक़ पर नहीं हैं ? हक़ का तकाज़ा क्या है ? हक़ का तकाज़ा यह है कि इस वक़्त जो हुक्म दिया जा रहा है उसको पूरा करो, फरमाया -क्या उमरा अल्लाह का अम्र नहीं है फरमाया- है लेकिन इस वक़्त का तकाज़ा क्या है, हुक्म क्या है,  हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाया करते थे- मैंने पूरी ज़िंदगी आमाल और सदक़ात किए ऐ अल्लाह मेरा उस दिन का गुनाह माफ कर दे ।*

*★_ जज़्बे के खिलाफ हुक्म को ला कर यह देखा जाता है कि इस पूरे मजमुआ में कोई एक फर्द भी ऐसा है जो नबी के अम्र के खिलाफ जज़्बा रखता हो। हुजूर ﷺ ने ऐसा सहाबा को इता'त पर उभारा था कि नहीं अल्लाह अल्लाह के रसूल के हुक्म के मुक़ाबले में कोई नहीं, इबादत पर उठाया था लेकिन यह नहीं कि इबादत में हमारे साथ और मामलात में उनके साथ, हमें तो इता'त का ऐसा आदी बनाया गया था कि एक तरफ सारी क़ौम और एक तरफ मुहम्मद ﷺ  का हुक्म ।* 
  
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     *☞_ हुक्म मामूल के खिलाफ -,*

*★_ हुदेबिया अच्छे जज़्बे को कुर्बान करने का मौक़ा था हुक्म पर, अल्लाह ताला ने फरमाया कि तुमने हमारे अम्र को पूरा किया अपने जज़्बे के खिलाफ, हमने अपना वादा पूरा किया फतेह दी हालात के खिलाफ,*

*★_ एक हुक्म आएगा मामूल के खिलाफ, एक मामूल चला आ रहा था बेतुल मुकद्दस की तरफ नमाज़ पढ़ी जाती थी, हुक्म आ गया आप रुख फैर लीजिए बेतुल मुकद्दस से बैतुल्लाह की तरफ, सहाबा ने फौरन रुख फैर लिया, यह नहीं की क्या ज़रूरत है, यह भी नहीं कि कोई हर्ज नहीं जिनका दिल चाहे उधर पढ़ लें जिनका जी चाहे इधर पढ़ लें इख्तिलाफ से बचने के लिए,*

*★_ उम्मत की इस्तेमाइयत यह नहीं है कि आप ऐसा कर लें हम ऐसा कर लें, उम्मत की इस्तेमाइयत यह है कि अपने जज़्बे को छोड़कर अल्लाह के अल्लाह के रसूल के हुक्म पर सब जमा हो जाएं।*

*★_ अजीब बात है ज़ोहर की नमाज़ के दरमियान हुक्म आया, अल्लाह ने क्यों किया ? इसलिए कि कौन रसूल की इत्तेबा करता है कौन क़िब्ला अव्वल पर बाक़ी रहता है, कौन अपने नबी के साथ रुख फैर लेता है, यह इम्तिहान की शक्लें हैं ।*

*★_ इता'त की वजह से इस्तेमाइयत है, अगर इता'त नहीं तो इस्तेमाइयत नहीं है, इस इस्तेमाइयत में क्या रुकावट है, रुकावटों के क्या असबाब है, लोग इसका सबब तलाश करते हैं लेकिन आपस के इख्तिलाफ पर गौर नहीं करते,* 
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*☞_ दावत के काम में तक़सीम ए कार नहीं -,*

*★_ सहाबा किराम की बड़ी सिफत यह थी कि वह अपने से छोटों को भी अगर आगे बढ़ते देखते तो वह चाहते थे इनके साथ लग जाओ इस वक़्त अल्लाह इनसे काम ले रहा है, अल्लाह हम से भी काम ले ले ।*

*★_ यह चीज़ सहाबा की जिंदगी में आमतौर पर मिलेगी, सीनियर कौन जूनियर कौन ? यह चीज़ नहीं मिलेगी, सब ऐसे इज्तेमाई काम में मशगूल है कि वहां तक़सीमे काम नहीं है, कौन किस दर्जे का है, सब काम में लगे हुए हैं, आप देखें सहाबा की सीरत में, हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम खुद ऐसे शामिल है सहाबा किराम के साथ कि तक़सीमे कार नहीं मिलेगी।*

*★_ अबू बकर और उमर रज़ियल्लाहु अन्हु अपने अपने दौरे खिलाफत में एक अपाहिज बुढ़िया का पाखाना साफ करके और कपड़े धो कर आते थे, तलहा रज़ियल्लाहु अन्हु इस टोह में लगे कि ये रात को इस बुढ़िया के घर क्यों जाते हैं, पता चला आज से नहीं सालहा साल से आ रहे हैं, उनसे पहले अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु आते थे।*

*★_ यह बात नहीं थी कि किसके करने का क्या काम है? एक ऐसा मजमुआ था कि जहां मस्जिद-ए-नबवी की तामीर में सहाबा पत्थर उठा रहे थे, पत्थर उठाने में आप अंदाजा नहीं कर सकते कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पत्थर उठाने वालों में शामिल हैं, तक़सीमें काम नहीं था, दर्जात नहीं थे, अल्लाह ताला के यहां तो बड़े ऊंचे दर्जे हैं सैयदुल अंबिया हैं, इमामुल अंबिया है लेकिन इस मैदान में ऐसे रहते थे कि अजनबी आदमी को आकर पूछना पड़ता था कि तुममें मुहम्मद कौन है ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपना तार्रुफ खुद कराते थे ।*
     
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*☞_ तक़सीमे कार से हसद पैदा होता है -,*

*★_तक़सीमे कार से हसद पैदा होता है कि यह तो यहां पहुंच गया हम यहीं रह गए लिहाजा हमें वहां पहुंचाओ या इसे वहां से उतारो, या तो हमसे वो करो जो इनसे काम ले रहे हो या इनको वहां लाओ जहां हमें रखा है। सारी इस्तेमाइयत के टूटने का असल सबब यह है, सहाबा की ज़िंदगी में यह चीज़ नहीं मिलेगी बल्कि बड़े छोटों से इस्तेफादा करते थे,*

*★_ अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु इस उम्मत के सबसे बेहतरीन बल्कि हजरत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु की सोहबत तो ऐसी सोहबत है जिसका इंकार कुफ्र है, बाक़ी सहाबा की सोहबत का इंकार फासिक़ तो है ही, हजरत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु और हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु दोनों बैतुल्लाह का तवाफ करके निकले, तो देखा कि एक नौजवान अपनी पीठ पर अपनी मां को लेकर तवाफ के लिए जा रहा है ।*

*★_ दोनों ने कहा एक दूसरे से चलो इसके पीछे, इस मां को तवाफ कराने में जो अल्लाह की तरफ से रहमते खास मुतवज्जह होगी इसकी तरफ, उससे हमें भी कोई फायदा हो जाए, यह नहीं कि हमारा दर्जा कहां इसका दर्जा कहां, हमारी दुआएं कहां इसकी दुआ कहां ।*

*★_वापस आकर दोनों चलते रहे उसके पीछे, चलते चलते हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा उस नौजवान से कि उमर की मग्फिरत की दुआ कर दो, उसने अपनी मां के लिए दुआ करते कहा कि अल्लाह उमर के भी गुनाह बख्श दे।*

*★_ यह मैंने एक मिसाल दी है कि छोटों से खैर लेने की तलाश में बड़े हमेशा रहा करते थे।*
  
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*☞_ अपने आपको किसी तक़ाज़े का अहल ना समझें -,*
*★_ इसी तरह जो तक़ाज़े दिए जाते थे आपकी तरफ से उन तक़ाज़ों पर सहाबा अपने आप को पेश करते थे । आप ﷺ ने यमनी तलवार निकाली और फरमाया इस तलवार को कौन लेगा? ज़ाहिर सी बात है जब कोई तकाज़ा पेश किया जाता है तो उस तक़ाज़े के अहल पुराने ही हुआ करते हैं, हजरत उमर खड़े हुए आपने तलवार उनको नहीं दी, दोबारा फरमाया- इस तलवार को कौन लेगा? हजरत जु़बेर खड़े हुए, फरमाया -नहीं, आपने तलवार उनको भी नहीं दी*

*★_ तीसरी मर्तबा फरमाया- इस तलवार को कौन लेगा जो इसका हक़ अदा करे ? यह नहीं कि पुराने ज़्यादा मुस्तहिक़ हैं यह बात नहीं, इसलिए कि अपने आपको हक़दार तो वो समझेगा जिसके दिल से खौफे खुदा निकल चुका होगा, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमें इस इस्तेहक़ाक़ से सबको बचाकर हमारे अंदर मोहताजगी पैदा कर दे ( आमीन)*

*★_ मोहताज तरक्की़ करेगा, हमारे यहां मुतालबा नहीं है कि हमें दे दो, हां पेश करना है अपने आप को डरते हुए, अपने आपको किसी तक़ाज़े का अहल नहीं समझना है, हजरत फरमाते थे:-"जो अपने आप को अहल समझता है अल्लाह उससे नुसरत का हाथ उठा लेते हैं, (कि चल अब करके दिखा )*

*★_ अपने आप को मोहताज बना कर चला जाए, एहतियाज कुछ नहीं, हम मोहताज हैं, हमारी ज़रूरत है, हुजूर ﷺ ने यमनी तलवार दी, तो यह दोनों (हजरत उमर और हजरत जुबेर रज़ियल्लाहु अन्हुम) पीछे हट गए, हक़ अदा करना हमारे बस की बात नहीं, अबू दुजाना खड़े हुए, अर्ज़ किया तलवार मुझे दीजिए मैं इसका हक़ अदा करूंगा, आपने तलवार उनको दी, आप ﷺ ने यह नहीं फरमाया कि तुम नए हो, बहुत किस्से मिलेंगे सहाबा किराम के जहां बड़ों के होते हुए छोटो से काम लिया है ।*
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          *☞_ सलाहियत शर्त नहीं _,*

*★_ अल्लाह की तरफ से इंतखाब होता है, अल्लाह खुद चुनते हैं इंसानों और फरिश्तों में से अपने काम के लिए,।*

*★_  अल्लाह की तरफ से इंतखाब का होना इसमें सलाहियत शर्त नहीं है, हजरत फरमाते थे:- अल्लाह ताला ने अबाबील से अबरहा के लश्कर को खत्म करने का काम लिया, तो क्या तुम अबाबील से हसद करोगे ? (कि हमारे होते हुए अबाबील से क्यों काम लिया ) एक कमज़ोर परिंदा जो उड़ते हुए अपने आपको छुपा ले, अल्लाह ताला ने अबाबील की चोंच के कंकर से (चोंच में कितनी बड़ी कंकर आती है) अबरहा के सारे लश्कर को भुरता बना दिया।* 

*★_ काम है अल्लाह ताला का, उसके यहां माद्दी ताक़त, सलाहियत शर्त नहीं है, उसे कु़दरत है कि वह छोटो से बड़ा काम ले ले।*
 
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 *☞_ अपने साथियों का तआवुन करो खैर के कामों में _,*

*★_ हसद एक दूसरे का तआवुन नहीं होने देता, एक दूसरे का मुक़ाबिल बना देता है, यह (दावत का काम) एक दूसरे के आपस के तआवुन से चलेगा तक़ाबुल से नहीं, दुनिया के काम तका़बुल से चलते हैं दीन के काम में तनाफुस है तक़ाबुल नहीं, तनाफुस यह है कि अगर क़बीला औस को मालूम हो जाए कि खजरज ने कोई खैर का काम किया है अल्लाह के नबी की मदद में तो औस खजरज से बढ़कर करते थे, इसलिए मेरे दोस्तों अज़ीज़ों ! हसद की गुंजाइश नहीं है अपने साथियों का तआवुन करो खैर के कामों में,*

*★_ हदीस में आता है- मदद करो ज़ालिम की भी मज़लूम की भी, फरमाया जा़लिम की मदद कैसे करें ? (फरमाया) ज़ालिम की मदद यह है कि उसको ज़ुल्म से रोको, सहाबा किराम एक दूसरे का तआवुन किया करते थे क्योंकि उनके क़ुलूब हसद से पाक थे, एक दूसरे के तआवुन से काम आगे बढ़ेगा, दिलों का हसद से पाक होना और साथियों के लिए दिलों का नरम होना बहुत अहम है, अल्लाह ने इसको रहमत फरमाया है।*

*★_ सारे खैर के काम अल्लाह की रहमत से है, जितना फसाद जितना बिगाड़ है यह सब अल्लाह के गज़ब के मजा़हिर है, यह (दावत का काम) सबसे बड़ी खैर लाने वाला काम है, इससे बड़ी खैर किसी और रास्ते से नहीं आ सकती, इस काम के अलावा जितने खैर के रास्ते हैं उनसे जो खैर आएगी वह इंफिरादी इलाक़ाई सतह पर आएगी, लेकिन इस नक़लो हरकत से जो खैर आएगी वो बा एतबार आलम के बा एतबार उम्मत के होगी ।*

*★_ हमारे सब के दिलों में एक चोर है, यह दावत इलल्लाह की मेहनत से दूसरों के एतराज़ से साथियों का यक़ीन टूट जाता है, यकी़न होना चाहिए। हजरत फरमाते थे- मैं कसम खाकर कहता हूं यह दावत की मेहनत और यह तरतीबे मेहनत सुन्नत के मुशाबे ही नहीं बल्कि ऐन सुन्नत है _,*
  
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 *☞_ हजरत जी रहमतुल्लाह के बयानात को खूब पढ़ा करो _,*

*★_ मैं तुमसे पुरानों से कहता हूं हज़रत के बयानात खूब पढ़ों इतना पढ़ों इतना पढ़ों कि काम पर वो बसीरत वो यक़ीन आ जाए जो हज़रत को खुद को यक़ीन था, अगर ये बयानात नहीं पढ़ोगे तो बहुत फितनों और साजिशों के शिकार हो जाओगे।*

*★_ इस ज़माने में जिस तरह इंसान का मिज़ाज नई चीजों के लेने और पुरानी चीज़ों के छोड़ने का है, अल्लाह मुझे माफ फरमाए दीन के मामले में भी यही मिजाज़ बन रहा है, यह पुरानी बातें छोड़ों नई बात करो, लोग फर्रूहात को असल समझते हैं उसूल को भूल जाते हैं ।*

*★_मैं तो आपसे अमानतन कहता हूं आप में माशा अल्लाह बहुत से बयानात करने वाले हैं कि जिसके ज़िम्में सुबह को या शाम को बयान हो उसको हजरत के बयान पढ़े बगैर बयान करना दावत की निसबत से काम के साथ ख़यानत है, यह हट जाएंगे अपने मौज़ू से, इन्हें नए-नए बयानात नए-नए किस्से कहानियां मक़ासिद से दूर ले जाएंगी, इन्हें एहसास भी नहीं होगा, इतनी दूर ले जाएंगी इतनी दूर चले जाएंगे कि जब इन्हें बुलाया जाएगा (हजरत के बयानात पर, उसूल की बातों पर) तो यह कहेंगे यह नई बात है तबलीग में यह नहीं होना चाहिए_,"*

*★_ हजरत ने मौलाना इनामुल हसन साहब रहमतुल्लाह से फरमाया, आखरी दिल का दौरा पड़ा तो मौलाना इनामुल हसन साहब रहमतुल्लाहि अलैहि ने फरमाया कि मजमा मुंतजिर है (आपके बयान सुनने के लिए) आपने फरमाया -हमें जो कुछ कहना था मजमें से वो हमने कह दिया, अब तो करने का ज़माना है, इसके मुताबिक़ कहते रहो, इसके मुताबिक़ चलते रहो ।*

*★_इशा'त और मुता'ला काफी नहीं है जब तक कि इस नक़ल हरकत से अमली तौर पर लाने की कोशिश न की जाए और इस्तेमाई मुज़ाकरों में हजरत के बयानात बयान ना किए जाएं और दावत में ना लाया जाए उस वक्त तक फायदा ना होगा ,*

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         *☞_ . मैदाने मेहनत तीन है,*

*★_ दावत के बयानात में है- मेहनत एक है लेकिन मैदाने मेहनत तीन है, एक सालेहीन वाली मेहनत है, अपनी जा़त पर मेहनत करना सारी ज़िंदगी दीन के मुताबिक़ गुज़ारना ये मेहनत सालेहीन वाली है, इस उम्मत की मदद सालेहीन वाली मेहनत से ना होगी,*

*★_ दूसरी क़िस्म है अंबिया अलैहिस्सलाम वाली मेहनत, फरमाते थे इस उम्मत की मदद अंबिया वाले तरीक़ा ए मेहनत से भी ना होगी, अगर उम्मत अंबिया वाली तरतीबे मेहनत करें तब भी इसकी मदद ना होगी क्योंकि यह सैयदुल अंबिया मुहम्मद ﷺ की उम्मत है, यह उम्मत उम्मत ए अंबिया नहीं है, यह उम्मत उम्मते खातिमुन नबीययीन सैयदुल अंबिया है,*

*★_ इस उम्मत की मदद के लिए शर्त है-  "इन्तंसुरुल्लाह यनसुरूकुम", एक क़ौम एक इलाका़, एक बस्ती, यह अंबिया अलैहिस्सलाम का मैदाने मेहनत है, इस उम्मत का मैदाने मेहनत यह नहीं है, जिस तरह आप ﷺ की आमद ने और अंबिया अलैहिस्सलाम की शरीयतों को मनसूख किया है इसी तरह आपकी आमद ने और अंबिया अलैहिस्सलाम की मैदाने मेहनत को भी मनसूख किया है ।*

*★_ हम चाहें इंफिरादी दावत से दीन फैल जाएगा, ऐसा कभी नहीं होगा, यह उम्मत उम्मते मुहम्मद ﷺ है, इस उम्मत का मैदाने मेहनत बा एतबार आपकी बैसत के है क्योंकि यह उम्मत इस्तेमाई तौर पर आपकी नायब है क्योंकि आपकी बैसत बा एतबार जमात नहीं है आपकी बैसत बा एतबार उम्मत के हैं ।*

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     *☞_ सैयदुल अंबिया वाली मेहनत -,*

*★_ तीसरी मेहनत सैयदुल अंबिया वाली मेहनत है, उम्मत बा एतबार उम्मत के जब होगी जब उम्मत सैयदुल अंबिया के तरीक़ा ए मेहनत पर आवे और यही नहीं सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम के मिज़ाज ए मेहनत पर भी आवे।*

*★_ सारे अंबिया अलैहिस्सलाम ने ना मानने वालों के लिए बद्दुआ करा कर अपनी क़ौम को हलाक़ करा लिया, अपनी वह दुआ ए मौ'जजा़त को इस्तेमाल करके जो अल्लाह ने हर नबी को दी है, मगर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी उम्मत के लिए अपनी दुआ ए मौ'जजा़त को क़यामत के दिन के लिए उठा कर रख दिया है, सारी उम्मत को बख्शवाना है, फरमाया रिवायत में है- मैंने उसको क़यामत के दिन के लिए छुपा कर रखा है वहां उम्मत को बख्शवाना है।*

*★_ आपकी मेहनत में जो अहम चीज़ है वह उम्मत के तबका़ती फ़र्क को खत्म करना है, उम्मत के हर तबके़ को उम्मत में दाखिल करना, हम तबका़ती मेहनत को काम के लिए मुफीद समझते हैं हालांकि तबका़ती मेहनत उम्मत के तबका़ती फ़र्क को ज़ाहिर करती है और उम्मत की इस्तेमाइयत इसमें है, उम्मत की तरबियत इसमें है कि उम्मत का हर तबका़ हर तबके़ में ऐसा दाखिल हो जाए उम्मत के तमाम तबका़त का आपस में ऐसा जोड़ हो जाए कि जुबानों से सारी निसबतें खत्म होकर सिर्फ एक उम्मत होने की निस्बत बाक़ी रह जाए ।*
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       *☞_.नरमी और शफ़क़त पैदा करो_,*

*★_ सबसे अहम चीज यह है- दिलों के अंदर नरमी और शफ़क़त पैदा करो, तालीम का ताल्लुक़ शफ़क़त से है, तालीम कभी मशक्कत से नहीं दी जाएगी, हदीस बता रही है तालीम बाप बन कर दी जाए, इल्म रफीक बनकर फैलेगा, फरीक बनकर नहीं, इल्म अगर फरीक बन गया तो उम्मत को जहालत में डालेगा।*

*★_ हमारे बड़ों से बड़ों का मिज़ाज यह रहा है कि ग़लत करने वालों के साथ भी मामला शफ़क़त का करो, अगर वह नहीं मानता है तो उसे उसके हाल पर छोड़ दो क्योंकि अल्लाह रब्बुल इज्जत जिस तरह क़ुरान के मुहाफिज़ है उसी तरह कुरान के अंदर नाफिज़ किए जाने वाले अहकाम के भी मुहाफिज़ है।*

*★_ उम्मत गुमराही पर कभी जमा नहीं है अगर मुंकर से रोकने के लिए मुंकर तरीक़ा अख्त्यार किया गया तो मुंकिरात में इज़ाफ़ा होगा खत्म नहीं होगा, मुंकर से रोकने के लिए मारूफ का रास्ता दिया गया है, इसलिए मुंकर से रोकने में मुंकिरात से बचो ।*

*★_ मुंकर को रोकने के लिए मुसलमान के मुंकर को मशहूर करने से बचो वरना खुदा की क़सम ज़िना करना इतना बड़ा गुनाह नहीं है जितना ज़िना की खबर करना बड़ा गुनाह है, ज़िना करने वाले मर्द औरत यहां पर्दा दो के दरमियान है, इसकी खबर करना ज़िना को फैलाना, यह अलग गुनाह है और गीबत करना इससे ज़्यादा शदीद गुनाह है ,* 

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    *☞_ आप ﷺ का तरीक़ा ए तालीम -,*

*★_ आप ﷺ की मस्जिद में एक आदमी ने पेशाब कर दिया, सहाबा दौड़े रोकने के लिए, आपने फरमाया नहीं उसको पेशाब कर लेने दो, मामला शफ़क़त का किया। आप ﷺ ने उसकी बेअदबी को छोटा किया,*

*★_ हमारी तबीयतों में नफरतें और दुनिया इतनी हो गई है कि हमें इस्लाह के तरीक़े और उसूल भी मालूम नहीं, यहां एक मस्जिद में पेशाब करने वाले के साथ भी मामला शफक़त का किया । उसने पेशाब पूरा किया, आपने बुलाया और तालीम दी मस्जिद इस काम के लिए नहीं बनी है......,*

*★_यह तो एक आम आदमी है, हम तो उसूलों के चक्कर में ना जाने कितने पुरानों को ज़ाया कर देते है, यह आम आदमी के साथ में मामला यह मामला, ना मारना है ना डांटना है उसको समझाना है क्योंकि एक ईमान वाले का मुक़ाम बैतुल्लाह से ऊंचा है और सारी मस्जिदें बैतुल्लाह से अदना है, यही वजह है कि आपने उसको ना डांटा ना मारा बल्कि सहाबा से फरमाया एक डोल पानी का यहां बहा दो ,*

*★_ उसने जा कर आपके तरीक़ा ए तालीम का ऐलान किया कि आओ सीखो इनसे, यहां मिलेगा दीन, यह है सिखाने का तरीक़ा,.. इसलिए इस काम का यह उसूल है कि जिससे जहां गलती हो उसको एक तरफ ले जाकर समझा दिया जाए ।*

*★_ हजरत फरमाते थे-अगर किसी को किसी बात से रोकना चाहते हो पहले उससे इतनी मुहब्बत पैदा करलो कि अब यक़ीन हो जाए कि मुहब्बत में यह  इंकार नहीं करेगा, इससे पहले अगर टोक रहे हो तो तुम्हारी नफ्सानियत ग़ालिब है इसलाह ग़ालिब नहीं _,"*

*★_अगर ताल्लुक पैदा किए बगैर रोक रहे हो तो नफ्सानियत पर रोक रहे हो इस्लाह मक़सूद नहीं वरना यह सोचते कि कौनसा तरीक़ा है इसके क़रीब होने का, कौन सा तरीका़ है जिससे इसका होकर फिर इससे कहूं कि यह मत कर ।*

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*☞_मोमिन के लिए बदगुमानी शैतानी फरेब है -,*

*★_ आप ﷺ उम्मत के लिए रहमत हैं आपकी उम्मत का तरीक़ा भी यही है, बेशक सही बात बताओ, सही बात बताने में ग़लत तरीक़ा अख्तियार मत करो सही तरीक़ा अख्तियार करो ।*

*★_ मस्जिद में इमाम से सहू हो गया, जहां लुक़मा देना था वहां तो नहीं दिया और बाज़ार में जाकर कह रहे हैं इमाम साहब ने नमाज़ गलत पढ़ाई, अजीब बात है जहां नमाज़ का माहौल है वहां तो लुकमा दिया नहीं, जहां बे -नमाजियों का माहौल है बाज़ार उन बे -नमाजियों में बता रहे हैं कि इमाम ने गलत नमाज़ पढ़ाई, बे- नमाजी जो पहले से बेनमाज़ी है, यह नमाज़ पर कब आएगा जब यह सुन रहा है कि इमाम साहब गलत नमाज़ पढ़ाते हैं ? यह (नमाज़ पर) कभी नहीं आएगा ।*

*★_ यह फसाद का रास्ता है इस्लाह का रास्ता नहीं, एक दूसरे की बात का जवाब देना ऐसा है जैसे दो आदमी आग के आमने सामने बैठे हैं और दोनों कागज डालते जाएं आग में, यह आग कभी बुझने वाली नहीं है।*

*★_ सुनी हुई बात को आगे बढ़ाने वाले को कज़्ज़ाब कहां है हदीस में, सबसे बड़ा झूठा है वह जो सुनी हुई बात को आगे बढ़ाएं, हदीस में अजीब बात फरमाई- एक आदमी आकर एक बात तुम्हारे कान में कहता है, इससे सबके दरमियान वह बात फैल जाती है, कहने वाला कहता है किसने कहा तुमसे ? हदीस में है खुदा की क़सम वह शैतान था ।*

*★_ देखना चाहिए बदगुमानियां मोमिन के बारे में शैतानी फरेब है, मोमिन के बारे में तो यहां तक हूक्म है कि अपनी आंख से किसी को होश में ज़िना करते हुए देख रहा है तो अपनी आंख से यह कहे कि तूने गलत देखा है, मोमिन ज़िना नहीं कर सकता, यहां तो सुनी हुई खबरों पर यक़ीन है, वहां आंख से देख कर भी झुठलाने का हुक्म है,*

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*☞__मोमिन के गुनाह को छिपाओ -,*

*★_ नर्म मिज़ाज रहो, तालीम नर्मी से दो और मोमिन के गुनाह को छुपाओ, मोमिन के गुनाह को छिपाना ही माहौल को पाक़ीज़ा रखना है।*

*★_ एक साहब ने आकर अर्ज़ किया हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से कि मेरी लड़की से ज़िना हो गया, उसका कुंवारापन खत्म हो गया, आज उसकी शादी का पैगाम आया है कहीं से, हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम अपनी लड़की का हाल लड़के वालों को बता दें, पूछा- हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से कि अमीरुल मोमिनीन क्या हम लड़की का ऐब लड़के वालों को बता दें ?*

*★_ हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया- अगर तुमने लड़की का हाल लड़के वालों को बताया तो मैं तुम्हें इतनी सख्त सजा दूंगा कि सारे मुमालिक जहां तक इस्लाम फैल चुका है उनके लिए तुम्हारी सज़ा इबरत बन जाएगी, इसकी शादी ऐसे करो जैसे पाक दामन लड़की की करते हैं, (अल्लाहु अकबर)*

*★_ हम तो मुंतज़िर रहते हैं कि किसी से कोई ग़लती हो जाए तो जल्दी से आम करो (जल्दी से उसका चर्चा लोगों ने करो) ताकि यह इसके मुका़म से गिर जाए, खुदा की क़सम! मोमिन को ज़लील करने वाला अल्लाह की नज़र से पहले ही गिर चुका है, जो अल्लाह की नज़र से पहले ही गिर चुका है वह किसी को गिराने में क्या कामयाब होगा ?*

*★_ इसलिए बेशक "नही अनिल मुंकर" (बुराई से रोकना) एक बड़ा फरीज़ा है लेकिन इस फरीज़े का खुदा की क़सम इस तरह मुतय्यन तरीक़ा है जिस तरह नमाज़ का मुतय्यन तरीक़ा है, जिस तरह नमाज़ अपने तरीक़े से हटकर फसाद पैदा करेगी इसके और अल्लाह के ताल्लुक के दरमियान, लेकिन मुंकर के तरीक़े का बिगाड़ यह फसाद पैदा करेगा इसके और उम्मत के दरमियान,*

*★_ इसलिए फरमाया मोमिन के फैल की तावील करो, तावील के करने का मतलब क्या है ? कि पूरी कोशिश इस बात पर लगा दो कि मोमिन का गुनाह साबित ना हो, इसे कहते हैं तावील करना।*

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       *☞__हम फरिश्ते नहीं इंसान हैं -,*

*★_ यह फरिश्ते नहीं है इंसान हैं, इंसान के लिए भूलना आदम अलैहिस्सलाम से चला आ रहा है, भूल गए लेकिन हमने भूलने वाले को अपनी भूल पर अकड़ने वाला नहीं पाया, आदम अलैहिस्सलाम अपनी भूल पर अकड़ने वाले नहीं थे, शैतान ग़लती पर अड़ने वाला था ।*

*★_ गुनाह का ऐतराफ करने वालों के लिए अल्लाह के यहां क़ुबूलियत है, अड़ने वालों के लिए मेहरूमी है, साथी फरिश्ते नहीं है, यहां सारा फसाद इस तरह है फलां को ऐसा होना चाहिए फलां को ऐसा होना चाहिए, उसने ऐसा किया है... जब इस पर आ जाओगे तो अगला क़दम क्या होगा ? अगला क़दम यह होगा कि तुम भी ग़लत हो, वह कहेगा तुम भी गलत हो एक दूसरे को गलत ठहराते रहेंगे उम्मत बिखरती चली जाएगी, यह रास्ता फिरके़ बनाता हैं जब एक दूसरे को गलत ठहराते हैं, उम्मत कहां जाएगी ? ज़रा सोचिए, यूं फरमाया- जब किसी साथी से ग़लती हो जाए उसकी कुर्बानियां उसके मुहासिन याद करो।*

*★_ मोमिन के फैल की तावील का हुक्म इसलिए था ताकि मुसलमानों की इस्तेमाइयत को देखकर गैर तुम्हारे यहां आने की हिर्स करें, इज़्ज़त यहां मिलेगी, मोहब्बत यहां मिलेगी, जांनिसारी यहां मिलेगी, खुदा की क़सम जब तक मुसलमानों की मुख्तलिफ जमआतें एक दूसरे के फैल और क़ौल की तावील नहीं करेंगी, एक दूसरे के अमल की ताईद नहीं करेंगी, उम्मत में इस्तेमाइयत नहीं होगी ।*

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*☞_ गलती को ना देखो, गलती करने वाले को देखो-,*

*★_ हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सबसे पहले देखा है कि इससे गलती हुई है यह कौन है ? गलती को नहीं देख रहे गलती करने वाले को देख रहे कि यह कौन है ? हम गलती करने वाले को नहीं देखते गलती को देखते हैं कि गलती क्या की ।*

*★_ हजरत हातिब रज़ियल्लाहु अन्हु ने हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मक्का पर हमले का राज़ फाश कर दिया मुशरिकीने मक्का पर, इससे बड़ी गलती कोई नहीं, अल्लाह ने आप पर वही की, हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु चाहते थे इसको क़त्ल कर दें, फरमाया - उमर ! यह बदरी सहाबी है, अल्लाह कह चुके हैं कि बदर वालो जो चाहो करो अल्लाह तुम्हें माफ कर चुके हैं ।*

*★_ मेरे दोस्तों ! हमें नहीं मालूम किसकी कुर्बानी किस दर्जे पर है, हम यह कह कर किसी को निकाल दें, मेरी बात याद रखना (दावत के) काम से ना किसी को निकाला गया है ना खुदा की क़सम किसी को निकाला जाएगा, हां डरना हमें सबको चाहिए, मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाहि अलैहि का मलफूज़ है:- यह काम ऐसा समंदर है जो मरी मछली को खुद बाहर फैंक देगा _,"* 

*★_ गलती किससे नहीं होती, सहाबा किराम के वाक़िआत पर गौर करो, आपने कभी यह नहीं देखा कि गलती क्या है गलती करने वाले को देखा ।*
 
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*☞_ साथियों के साथ अच्छा गुमान रखो -*

*★_ एक आम काम करने वाले से लेकर पुराने से पुराने तक हर एक के साथ अपना गुमान अच्छा पैदा करो, शैतान वसाविस पैदा करेगा, झूठी खबरें लेकर आएगा, उस पर बड़े-बड़े क़दम उठा लिए जाएंगे इसलिए कि मुनाफिक़ को उम्मत की इज्तिमाइयत और उम्मत की इता'त, उम्मत का फराइज़ पर जमा होना यह चीज़ें बर्दाश्त नहीं होती,*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ ने बनु मुस्तलिक़ से ज़कात वसूल करने के लिए एक सहाबी को भेजा, तन्हा एक सहाबी अमानत दार इतने थे कि जकात वसूल करने में खयानत का कोई अंदेशा नहीं, क़बीले वालों को पता चला कि हमसे जकात वसूल करने के लिए आप ﷺ का क़ासिद आ रहा है, उस क़ासिद के इकराम में, उसके इस्तक़बाल में पूरा क़बीला अपनी बस्ती से निकल कर बाहर आ गया, जकात देने की इतनी रग्बत और इतनी खुशी कि अपना उम्दा माल छांटा जकात के लिए,*

*★_ सहाबी को जो ज़कात वसूल करने के लिए जा रहे थे, आधे रास्ते पर एक मुनाफिक मिला, तुम्हें हालत की खबर भी है क्या हो रहा है ? पूरा क़बीला तुम्हें क़त्ल करने के लिए बाहर आ गया है बस्ती से, सहाबी को इस झूठी खबर ने आधे रास्ते से वापस कर दिया, अर्ज़ किया - या  रसूलल्लाह ﷺ ! मै तो गया था ज़़कात वसूल करने, खबर यह है कि पूरा क़बीला मुझे क़त्ल करने के लिए बाहर निकल आया और पूरा क़बीला ज़कात देने से इंकार करता है ।*

*"_ मशवरा हुआ क्या करना चाहिए- हालात कुछ नहीं, हक़ीक़त कुछ नहीं, मशवरा हो गया, सहाबा बैठ गए इस फिक्र में और आपस में तय हो गया कि रातों-रात हमला किया जाए क़बीले पर, वो तो अल्लाह ताला का शुक्र है.. वही का सिलसिला नाज़िल हुआ, आप ﷺ पर वही नाज़िल हुई बल्कि अजीब बात है, नबी को मुखातिब नहीं किया बल्कि सारे ईमान वालों को मुखातिब किया कि फासिक़ मुनाफिक़ आएगा तुम्हारे पास खबर लेकर तुममे से हर एक की ज़िम्मेदारी है कि उसकी ख़बर की तहकी़क़ कर लिया करो_,"*
   
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      *☞_ अपनी राय पर इसरार ना हो -,*

*★_ अगर पूरे मैदाने मेहनत के किसी एक इलाक़े में भी इख्तिलाफ होगा तो वो इलाकाई इख्तिलाफ नहीं होगा बल्कि वह आलमी इख्तिलाफ होगा ‌।*

*★_ इता'त इसका नाम नहीं है कि फलां मानते हैं फलां नहीं मानते बल्कि इता'त इसका नाम है कि इस्तेमाई तौर पर इता'त हो, हमें इता'त के लिए बेहतरीन चीज़ मशवरा दिया हुआ है, हमारा मशवरा सारे उमूरे दावत के लिए इस तरह बंधन है जिस तरह नमाज़ पर जमा होना तमाम अरकाने इस्लाम के लिए हैं ।*

*★_ इसलिए मशवरे का अहतमाम करो, मशवरा कभी ना छोड़ो, सो इख्तिलाफ एक तरफ खुदा की क़सम इस सो इख्तिलाफ से मशवरा छोड़ देना ज्यादा शदीद है, अपनी राय पर इसरार नहीं होना चाहिए, जहां 300 को (राय पर इसरार ने) मदीना में रोक लिया (हुदेबिया में निकलने से) इता'त वाले 700 गालिब आ गए, पांच फ़ीसदी ने नाफरमानी की (जिन्होंने अपनी मुतैयन जगह को यह समझ कर छोड़ दिया कि अब तो फतेह हो गई सब माले गनीमत लूट रहे हैं) इन पांच फ़ीसदी की नाफरमानी से 100 फ़ीसदी (फतेह के बावजूद) फिर इब्तला में आ गए, कि जो चीज़ तुम चाहते थे फतेह तुम्हारे हाथ में आते-आते वापस चली गई ।*

*★_ जहां इता'त होगी खैर बाक़ी रहेगी, जहां नाफरमानी होगी अल्लाह ताला खैर के हाथ में आने पर फौरन छीन लेने पर क़ादिर हैं ।*     
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*☞_ मिजाज़े नबूवत के बगैर दावत मो'स्सिर नहीं -,*

*★_ सबसे अहम और ज़रूरी बात यह है कि दुनिया में जितने भी शोबे हैं तिजारत का, ज़रा'अत का, हुकूमत का इन तमाम शोबो में इन शोबों को लेकर चलने वाले हर शोबे में अपना मिजाज़ रखते हैं, ताजिर का एक मिजाज़ है, ग्राहक से कैसे पेश आना है, हाकिम का एक मिजाज़ है कि रिआया के साथ कैसे पेश आना है लेकिन इन तमाम किस़्म के लोगों को दावत इलल्लाह में मिजाज़े नबूवत पर आना पड़ेगा,*

*★_ खुदा की क़सम दावत इलल्लाह मिजाज़े नबूवत के बगैर ना अपने लिए मौ'स्सिर है ना दूसरों के लिए मौ'स्सिर है। सब नए पुराने, अवाम व खवास सबके लिए अर्ज़ कर रहा हूं, उम्मत सुन्नते दावत में हुजूर अकरम ﷺ के उसलूबे दावत से इतनी दूर चली गई है अगर वो उसलूबे दावत होता तो आलम भर में अब तक की इतनी मेहनत और इतना मजमुआ काम करने वालों का, मैं यक़ीन से कहता हूं सारे आलम के निज़ाम को बदलने के लिए काफी था ।*

*★_ लेकिन सबसे ज़्यादा गम और अफसोस की बात यह है कि इस काम से निस्बत है लेकिन काम से मुनासबत नहीं है, इस काम से निस्बत है मगर अपने मिज़ाज के एतबार से है।*

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               *☞_उसलूबे दावत -*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ सारी इंसानियत की तरफ मतलूब हैं, सबसे अहम चीज़ आपकी दावत में आपका उसलूबे दावत और अहम चीज़ आपकी वुसअत ए क़ल्बी है जिसने उम्मत के तमाम तबक़ात को, कालो को गौरौ को, मका़मी को बाहर वालों को, अपनी ज़ुबान वालों को दूसरी ज़ुबान वालों को, सब को जमा कर दिया, यह आप ﷺ के उसलूबे दावत का नतीज़ा था ।*

*★_ उम्मत तबक़ात में बाद में बंटी है, हुजूर अकरम ﷺ ने उम्मत को तबका़त में तक़सीम नहीं होने दिया, आपका उसलूबे दावत ही ऐसा था कि आप किसी वज़ीर या फ़क़ीर इन दोनों को दावत देने में ना किसी फ़क़ीर को उसके फक्र से हकी़र समझते थे ना किसी वज़ीर से उसकी विजा़रत की वजह से मरगूब होते थे बल्कि आप ﷺ का उसलूबे दावत उम्मत को खैर की तरफ जमा कर रहा था ।*

*★_ उम्मत में जितनी ऊंच-नीच है जितना तका़बुल है और जितना उम्मत का जानो माल गैर महफूज़ है इस सबकी वजह खुदा की क़सम इसके सिवा कुछ नहीं है कि उम्मत तबका़त मे बंटी हुई है।*

*★_हुजूर अकरम ﷺ ने जो सबसे बड़ा काम किया है आमद के मौक़े पर भी और दुनिया से जाते हुए भी आप ﷺ तमाम निस्बतों को अपने क़दम मुबारक के नीचे ऐसा कुचलकर गए हैं, हज्जतुल विदा पर आपने अहद ले लिया था कि तुम्हारी हैसियत ना रंग से हैं ना क़बीले से है, उम्मत के आवाम से खवास से, कालो से गौरों से, अजनबी से मका़मी लोगों से, इन सबसे हुजूर अकरम ﷺ ने इस तरह काम लिया है कि कोई ऊंचा नीचा नज़र नहीं आता था। यह आप ﷺ का वो उसलूबे दावत है जिसकी हर काम करने वालों को अपनी सतह पर ज़रूरत है ।*
  
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*☞__ शोहरत से क़ुबूलियत का धोखा ना लगे _,*

*★_ इस दावत की मेहनत और इसकी नुसरत में किसी कम इस्तेदाद वाले को, बे हैसियत या बेकार हकी़र समझना हुजूर अकरम ﷺ के उम्मत बनाने की कोशिश में बहुत बड़ा जुर्म और यह बड़ी मेहरूमी का सबब है ।*

*★_ अगर कोई शख्स यह कहे कि मैं इस काम का ज़्यादा हक़दार हूं (तो) अल्लाह तआला का दस्तूर यह है कि उसके दावे को लोगों के दरमियान झूठा करने के लिए उसकी सलाहियतों को सल्ब कर लेते हैं और निकम्मे लोगों से अल्लाह तआला काम ले लेते हैं।*

*★_ अल्लाह तआला को इस काम में सबसे ज़्यादा आजी़जी पसंद है, इस आज़ीजी़ की पसंदगी ही है कि अंबिया अलैहिस्सलाम बाज़ मर्तबा ऐसी मायूसी और खौफ और ऐसे हालात के शिकार होते हैं (तो) क़ुरान में जगह-जगह फरमाया है कि नबी जी आप शक़ ना कीजिए, हालात से मुतास्सिर ना होइए,*

*★_मक़बूलियत और शोहरत इन दोनों चीज़ों की सरहदें ऐसी मिलती हैं जैसे इसराफ और सखावत की सरहदें मिलती है, कभी भी शोहरत से क़ुबूलियत का धोखा ना लगे, इस शोहरत और ज़ाहिरी इस्तेदाद की वजह से आदमी अपने आपको दूसरों से बेहतर समझ लेता है ।*

*★_ मेरी बात याद रखना हुजूर अकरम ﷺ ने उम्मत बनाई है, आपने अपने मिज़ाज के अपनी तबीयत के लोगों को छांट कर अलग नहीं दे दिया कि यह मेरी जमात है, नहीं बल्कि हुजूर अकरम ﷺ ने अजनबी बिलाल हब्शी (रज़ियल्लाहु अन्हु) को अपनों के दरमियान मोज़्ज़िन मुतय्यन करके यह साबित किया है कि यहां अपने पराए की कोई क़ैद नहीं है, चूंकि इस वजह से उम्मत फटती है बनती नहीं है -*
    
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  *☞__ एक इबरतनाक वाक़िआ _,*

*★_ एक मजलिस में औस और खज़रज और मुहाजिरीन के कुछ सहाबा किराम बैठे हुए थे, हजरत बिलाल, हजरत सलमान, हजरत सोहेब रज़ियल्लाहु अन्हुम, यह सब अजनबी है, कोई रोम का है कोई हबशा का है कोई फारस का है,*

*★_ खज़रज के क़ैस इब्ने मताक़िया ने यूं कहा कि- अरे तुम लोग क्या कर सकोगे ? हम अरबी हैं तुम गैर अरबी हो, हमारी ज़ुबान नबी की ज़ुबान एक, हमारी ज़ुबान क़ुरान की ज़ुबान एक, तुम अजनबी लोग हो, इस दावत के काम पर जो नुसरत हम कर सकते हैं मुहम्मद ﷺ की वो तुम क्या करोगे ?*

*★_ इस तहक़ीर से कि तुम अजनबी लोग हो, ज़ुबान नहीं जानते हमारी, हम नबी के काम के ज़्यादा हक़दार है, इतना कहना था कि माज़ इब्ने जबल रज़ियल्लाहु अन्हु गुस्से में खड़े हो गए और कै़स इब्ने मताक़िया का गिरेबान पकड़ लिया और खींच कर ले गए आप ﷺ की खिदमत में और अर्ज़ किया- या रसूलल्लाह इसने यह कहा है कि हम आपकी मदद के, नुसरत के ज़्यादा हक़दार हैं, जो काम हम कर सकते हैं वह यह नहीं कर सकते ।*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ ने उम्मत को रंग और ज़ुबान पर तक़सीम नहीं होने दिया, हुजूर अकरम ﷺ को इस पर गुस्सा आया कि इस अरब ने अपनी अरबियत पर क्यों फखर किया और गैर अरब को इस दावत इलल्लाह की मेहनत, नबी की नुसरत के एतबार से नहीं समझा, आप मिंबर पर तशरीफ ले गए, सहाबा जमा हो गए, आप ﷺ ने फरमाया- अरबी ज़ुबान ना यह तुम्हारी मां है ना यह तुम्हारा बाप है कि तुम अरबी होने पर फखर करो ।*

*★_ आप ﷺ इतने गुस्से में थे कि आपने फरमाया- ए माज़ ! इस क़ैस इब्ने मताक़िया को जहन्नम की तरफ धकेल दो, चुनांचे रिवायत में है कि यह इस्लाम से मुर्तद हो गए ।*

*★_ खुद गहराई से सोचने का वाक़िआ है, खानदान की बुनियाद पर, ज़ुबान की बुनियाद पर, क़बीला और इल्म की बुनियाद पर यह सोचना कि हम ज़्यादा हक़दार हैं कितना बड़ा जुर्म और कितनी बड़ी मेहरूमी का सबब है,*
   
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  *☞_अहले यमन के मुर्तद होने की वजह -,*

*★_ जितना उम्मत में फसाद है चाहे वह अहले दीन के दरमियान हो या दुनिया के लोगों के दरमियान हो, यह सिर्फ खुदा की क़सम उम्मत बनाने के मिजा़जे उसलूब से हटने का फसाद है और कुछ नहीं ।*

*★_ एक मौक़ा आया, हज हो रहा था, अराफात का मौक़ा था, तमाम सहाबा आपके साथ थे, अराफात में हुजूर अकरम ﷺ  को ताखीर हुई, सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम सब मुंतज़िर है कि आप क्यों ताख़ीर कर रहे ? देर होती गई, आप ﷺ इंतज़ार में थे हजरत ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु के ।*

*★_ थोड़ी देर के बाद ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु तशरीफ लाए, अहले यमन ने कहा कि सिर्फ इनकी वजह से ताख़ीर की गई? इनकी क्या हैसियत है जो यहां बड़े-बड़े सहाबा को रोका गया इनकी वजह से  ?*

*★_ यहां सवाल इसका नहीं था कि इंतज़ार किसका हो रहा है सवाल इसका था कि इंतज़ार कौन कर रहा है ? हुजूर अकरम ﷺ ने अराफात से चलने में ताखीर की हजरत ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु की वजह से, रिवायत में है कि पूछा गया कि अहले यमन के मुर्तद होने की क्या वजह रही ? बताया गया कि अहले यमन के मुर्तद होने का सबब हजरत ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु को हकी़र समझना हुआ ।*कि 

*★_ यह मिसाले हैं जिनसे मालूम होता है कि हुजूर अकरम ﷺ  की वुसअत ए क़ल्बी, आपने अपनी उम्मत को कैसे बनाया।*
 
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             *☞__सब्र कब तक करें - ,*

*★_ लोग कहते हैं सब्र कब तक करें, एक साल हो गया दो साल हो गया, मैं आपको क्या बताऊं सब्र की तलक़ीन जिनको की जाती है वह आकर कहते हैं कि कब तक सब्र करें, काम छोड़ कर बैठ जाएं, मुक़ाबला करें, क्या करें ?*

*★_ आप देखेंगे नबूवत की लाइन में दोनों चीज़ें नहीं मिलेंगी, ना काम छोड़ना मिलेगा ना मुक़ाबला मिलेगा, यहां हाल यह है कि दो चार मुलाका़तों के बाद बात अगर नहीं सुनी गई तो मुक़ाबले को तैयार हैं,*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ ने अपने सहाबा को सब्र का ऐसा आदी बनाया था कि हजरत अबूज़र गफारी रज़ियल्लाहु अन्हु सोए हुए थे मस्जिद में, आप ﷺ  ने पूछा- मस्जिद में क्यों हो ? अर्ज़ किया -मेरा कोई घर नहीं है, फरमाया- अबूज़र मेरे बाद मदीने वाले तुम्हें यहां से निकालेंगे तो तुम क्या करोगे ? अर्ज़ किया मैं मुल्के शाम चला जाऊंगा, अंबिया की ज़मीन है वहां रहूंगा, फरमाया- वहां वाले निकालेंगे तुम्हें तो फिर क्या करोगे ? अर्ज़ किया- वापस मदीना आ जाऊंगा, यहां आ कर रहुंगा, फरमाया- ए अबूज़र मदीने वाले फिर दोबारा निकालेंगे फिर क्या करोगे ?*

*★_ अपनी उम्मत को सब्र का ऐसा आदी बनाया था खुदा की क़सम कहीं नहीं मिलेगा कि तुम्हें एक साल सब्र करना है दो साल सबर करना है, यह बात वो करते हैं जिनमें सब्र का माद्दा नहीं, आपने फरमाया- ए अबूज़र दोबारा मदीने से निकालेंगे तो क्या करोगे ? अर्ज़ किया कि उन ज़िम्मेदारों का मुक़ाबला करूंगा, फरमाया- हरगिज़ नहीं, जहां तुम्हारे जिम्मेदार भेजें तक़ाज़े पर वहां जाते रहना, जहां साथ लेकर जाएं उनके साथ जाते रहना, यहां तक कि मुझसे आकर क़यामत में मिल लेना ।*

*★_ सब्र की कोई मुद्दत नहीं बताई बल्कि हक़ीक़त यह है कि दाई की कब्र तो कु़र्बानियों के मैदान के अंदर होती है और अल्लाह के नाफरमानों की क़ब्र ख्वाहिशात के मैदान के अंदर होती है, इसकी ख्वाहिश का मैदान इसकी हयात से बड़ा हुआ है और इधर दाई के सब्र का मैदान इसकी हयात से बड़ा हुआ है ।*
    
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 *☞_ हुजूर अकरम ﷺ का ताइफ का सफर -,*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ (ताइफ) दावत देने के लिए चले, आपकी दावत को सख्ती से रद्द किया गया, आप ﷺ इतने गमगीन हुए, इस बात का गम नहीं कि मेरी बात नहीं मानी गई, अल्लाह मुझे माफ फरमाए हममे आपस में झुंझलाहट और गुस्सा इस पर होता है कि मेरी बात नहीं मानते, आपको गम इसका था कि यह जहन्नम से कैसे बचे ? आपको उनकी निजात का गम था,*

*★_ दाई के दिल की वु'सत देखो, वहां आप ﷺ ने आवाज़ सुनी, वो जिब्राइल अलैहिस्सलाम के उतरने की आवाज़ थी, वहां आपको होश आया, अर्ज़ किया कि मेरे साथ पहाड़ों का फरिश्ता इस वक्त मौजूद है, अल्लाह ने भेजा है और यह कह कर भेजा है कि दो पहाड़ के दरमियान जितने आबाद हैं आपकी बात को ना मानने वाले, उन दोनों पहाड़ों को मिलाकर सबको खत्म कर दें, आप हुक्म फरमा दीजिए, इतनी सारी अज़ियतों के बाद भी आपने फरमाया :-मैं यह नहीं चाहता।*

*★_ फरिश्ते ने कहा कि अल्लाह की तरफ से यह बात तैय हो चुकी है कि इनमें कोई ईमान लाने वाला नहीं है, मुहम्मद ﷺ और तमाम अंबिया अलैहिस्सलाम की दावत का फ़र्क यही है कि उन्होंने अपने ना मानने वालों को दुआएं मुस्तजाबात से हलाक़ करा लिया, आप ﷺ ने इनके लिए बद्दुआ करना पसंद नहीं फरमाया, आपसे कहा गया फलां फलां के लिए बद्दुआ कर दीजिए, फरमाया मुझे लानत करने वाला बनाकर नहीं भेजा गया, मैं इसलिए आया हूं कि हिदायत की मेहनत करूं।*

*★_ हिदायत अल्लाह के क़ब्जे में है मेहनत नबी के जिम्मे हैं, याद रखो अगर हिदायत मखलूक़ के हाथ में होती तो अपने चाहने वालों को हिदायत देते, यह मखलूक़ के बांटने की चीज़ नहीं है ।*

*★_ आप ﷺ को मालूम हो गया कि इनमें से कोई ईमान लाने वाला नहीं है, हम तो एक मुसलमान को एक इलाक़े को यह सोच कर छोड़ देते हैं कि इनमें तो गश्त बहुत हो गया कोई मानने वाला नहीं है, बात पहुंचा चुके हैं, पूछते हैं दूसरा गश्त कितने महीने करना है, कितने हफ्ते करना है? हजरत फरमाते थे अल्लाह तआला के यहां कुर्बानियां जब मतलूब दर्जे तक पहुंच जाती हैं अल्लाह तआला की तरफ से हिदायत के फैसले हो जाते हैं,*
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    *☞_ . मेहनत की मुद्दत मेहदूद नहीं -,*

*★_ तंजी़मों का यह मिजाज़ होता है कि बात पहुंचा कर फारिग हो जाओ, दावत का मिज़ाज यह होता है कि मौत तक कोशिश में लगे रहो।*

*★_ अंबिया अलैहिस्सलाम ऐसे भी गए हैं दुनिया से जिनका इत्तेबा किसी ने नहीं किया, उन्होंने काम पूरा किया है, वो क़यामत में अकेले होंगे एक उम्मती साथ ना होगा, ये अपनी मेहनत में नाकाम नहीं है इनका भी वही अजर् है जो दूसरे अंबिया अलैहिस्सलाम का है, इनका भी वही मुका़म है जो दूसरे अंबिया अलैहिस्सलाम का मुका़म है।*

*★_ ना मानने वालों को छोड़कर नहीं बैठ गए, अपना काम पूरा करके गए, जब क़ौम की तरफ भेजे जाने वाले नबी की मुद्दत 950 साल हो सकती है, तो जो सारी उम्मत की तरफ भेजा गया है, उसके उम्मती के मेहनत की मुद्दत कहां मेहदूद की जा सकती है ।*

*★_ फरमाया आप ﷺ ने कि अगर यह तय हो चुका है कि ये ईमान नहीं लाएंगे तो भी इनको हलाक नहीं करना, इनकी पुश्तों में जो औलादे छुपी हुई है वह ईमान लाएंगी, मैं उनकी पैदाइश का इंतज़ार करूंगा मैं उनको दावत दूंगा, वह ईमान लाएंगे ।*

*★_ सोचो तो सही ! यहां तो जो मौजूद हैं उनको दावत देने का शौक नहीं, वहां जो इंसानियत का जो हिस्सा वजूद में नहीं आया आप ﷺ उनको दावत देने के लिए, सताने वालों को बाक़ी रखना चाहते हैं।*

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    *☞_अफज़ल उम्मत होने के लिए दावत शर्त है -,*

*★_ मेरे अज़ीज़ों ! सारी बात का खुलासा यह है कि सब्र और तहम्मुल ये हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वो सिफत है जिससे उम्मत बनी है, इसलिए अपने आपको अल्लाह के यहां कुबूल करवाने के लिए सबसे बुनियादी बात यह है कि दुनिया के तमाम शोबों के मिजा़जों से निकलकर हम मिजा़जे नबूवत पर आ जाएं ।*

*★_ मिज़ाज ए नबूवत क्या है ? आपने उम्मत को किस तरह संभाला, किस तरह समझाया है ? बेशक अम्र बिल मा'रूफ नही अनिल मुनकर बड़े फरीज़ें हैं लेकिन खुदा की क़सम जिस तरह नमाज़ के फरीज़े का तरीक़ा मुतय्यन है उसी तरह भलाई का हुक्म करना और बुराई से रोकना इसका भी एक मुतय्यन तरीक़ा है ।*

*★_ इस उम्मत के अफज़ल उम्मत होने के लिए दावत शर्त है, कुरान हदीस इससे भरे हुए हैं, हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हम नेक आमाल तो करते दावत ना देते तो हम "खैरे उम्मत" ना होते, अल्लाह ने जो "कुंतुम" फरमाया है इसकी वजह यह है कि हम भलाई का हुक्म करें और बुराई से रोकें ।*

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            *☞__दाई का इखलास _,*

*★_ हमें दावत में आप ﷺ की नर्म मिजा़जी और आप ﷺ की वुसअत ए क़ल्बी को देखना है ।जिस वुसअत ए क़ल्बी से आप ﷺ ने उम्मत बनाई है, बाहर से आने वाला अपने और मुका़मी के दरमियान कोई फर्क़ महसूस नहीं करता था ।*

*★_ अजीब बात है फतह मक्का के मौक़े पर हुजूर अकरम ﷺ ने जितना माल आया, वह सारा माल आपने मुहाजिरीन को दिया, अंसार को कुछ ना दिया। हुजूर अकरम ﷺ ने अपने साथ दीन की नुसरत करने वालों को इस इम्तिहान से भी गुजारा है कि अगर मैं तुम्हें कुछ ना दूं तो तुम काम करोगे या नहीं।*

*★_जो शख्स पूछे जाने का मुंतज़िर हो और तालिब ए क़ल्ब का तालिब हो कि मुझे पूछा जाए मुझे बुलाया जाए, ऐसा शख्स अभी दावत के काम के मैदान में उतरा ही नहीं ।*

*★_ हजरत मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह फरमाते थे बाज़ काम करने वालों से कि अगर मैं तुम्हें साल भर किसी काम के लिए इस्तेमाल ना करूं बंगले वाली मस्जिद में रहते हुए भी और तुम्हें यह ख्याल आ जाए कि हमसे काम नहीं लिया जाता तो फरमाते थे इखलास नहीं है _,"*

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 *☞_ माल और ओहदा दाई की आज़माइश के लिए,*

*↬• दाई की आज़माइश के लिए सबसे बड़ी चीज़ माल और ओहदा है, इनको माल और ओहदा पेश कर के इनको इनके काम से हटाया जाएगा, ये इब्तिला भी सहाबा पर आई, मशहूर मआरूफ़ मिसाल है का’ब इब्ने मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु तबूक के सफ़र से रह गए,*

*★_ सारे तक़ाज़ों पर हमेशा निकले तबूक से रह गए, अल्लाह तआला ने सख्त इम्तिहान लिया कि इनसे पूरा मदीना बोल चाल बंद कर चुका था, कोई बात ना करे कोई सलाम का जवाब ना दे, सारे मदीना ने मिल कर बीवी के समेत बॉयकॉट किया,*

*★•_ पचास रातें गुज़री इस हाल पर कि ज़मीन तंग हो गई अपनी ज़ात पर, ये नबी करीम ﷺ को सलाम कर के आप ﷺ के होंठों को देखते कि सलाम के जवाब में होंठ हिले या नहीं, इतना सख़्त हाल गुज़रा, क्या बात थी, इम्तिहान था, हम देखना चाहते हैं किसी गलती की वजह से हम नाराज़ हो गए तो ये हमें मनाते हैं या हमें छोड़ कर चले जाते हैं,*

*★•_ अल्लाहु अकबर! वो सहाबा थे! इस हालत में गस्सान बादशाह को पता चला, मौक़ा अच्छा है अपनी तरफ इनको लाओ, मुहब्बत के डोरे डालो, गस्सान बादशाह ने खत लिखा, खत आया रेशम के कपड़े में लिपटा हुआ, हम तुम्हें ठिकाना देंगे, हम तुम्हें माल देंगे, हम तुम्हें इज़्ज़त देंगे, बादशाह को सख्त जवाब दिया उसके खत को तंदूर में जला कर और यह फरमाया– एक मुसीबत तो खत्म नहीं हुई कि अल्लाह और उसके रसूल नाराज़ हैं, दूसरी मुसीबत यह आ गई कि गैर अपनी तरफ बुला रहे,*

*★•_ यह इम्तिहान था, खुद फरमाते हैं का'ब इब्ने मालिक रजियल्लाहु अन्हु कि अल्लाह ने ऐसा सख़्त इम्तिहान किसी का नहीं लिया जैसा मेरा लिया, 50 राते जमे रहे इस पर कि नहीं कुछ भी हो जाए अल्लाह और उसके रसूल के अलावा कोई रास्ता पनाह का नहीं,*

*★_ हज़रत फ़रमाते थे, का'ब इब्ने मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु के इस वाक़िये से उम्मत को ये सबक़ सिखाना था कि अल्लाह के रास्ते में खुरूज में कमी बिला उज्र अल्लाह के रास्ते में न निकलना अल्लाह की नाराज़गी का सबब है,*
 
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        *☞_अपनी जान अपना माल -,*

*★_ इसलिए हर एक की अपनी जेब, हर एक का अपना माल, मुजाहिदा कामिल होता ही नहीं है जब तक इस रास्ते में अपना जान अपना माल खर्च ना करें, उलमा ने लिखा है जो तबलीग दूसरे के माल पर हो वह बेअसर होती है क्योंकि माल इसका ना होना इसके मुजाहिदे को नाकिस कर देगा ।*

*★_ एक सहाबी ने आ कर अर्ज़ किया हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से कि अमीरुल मोमिनीन मैं अल्लाह के रास्ते में निकलना चाहता हूं मेरी मदद कीजिए, उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने एक जमींदार के हवाले उनको किया कि ले जाओ इसको, इससे काम लो, वो ले गया, एक मुद्दत तक अपने पास रखा फिर हजरत उमर के पास लेकर आए कि यह इसकी मजदूरी है, हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उन सहाबी से फरमाया- लो यह पैसे अब तुम्हें अख्तियार है इसको अल्लाह के रास्ते में खर्च करो या अपनी ज़रूरत पर खर्च करो ।*

*★_ तवक्कुल को असबाब पर नहीं डाला, तवक्कुल किसे कहते हैं ? तवक्कुल अल्लाह और बंदे के दरमियान एक पोशीदा राज़ है, जब यह राज़ किसी तीसरे पर खुल जाए तो समझना चाहिए कि अब तवक्कुल खत्म हो गया ।*

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            *☞_तक़वे का कलमा _,*

*★_ इस रास्ते में अपने आप को अल्लाह के यहां तक़वे से कुबूल करवाना है, सारी नेकियों का सारी कोशिशों का मदार तक़वे पर है । तक़वे के बगैर कोई अमल का़बिले क़ुबूल नहीं और वाक़ई कलमा ला इलाहा इलल्लाह इसको तक़वे का कलमा फरमाया है, तक़वे के बगैर इस रास्ते में नहीं चला जा सकता ।*

*★_ हुजूर अकरम ﷺ ने अपनी उम्मत को माल से बचाया और ऐसा मिज़ाज बनाया था सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम का कि जब माल आने लगा तो डरने लगे, रोने लगे कि अल्लाह ने हमारे आमाल का बदला दुनिया ही में तो नहीं दे दिया।*

*★_ हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने एक बोरी भरकर हजरत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के पास भेजी, तो इतना माल देखकर फरमाने लगी- एक औरत के ज़िम्मे तक़सीम के लिए इतना सारा माल भेज दिया हालांकि एक औरत घर में बैठी है, यह कैसे तक़सीम करेगी और इसे क्या मालूम कौन हाजतमंद है कौन मालदार है ? हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया- मैंने तक़सीम के लिए आपके पास नहीं भेजा यह तो आपकी अपनी ज़ात के लिए हैं ।*

*★_हजरत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने यह दुआ फरमाई- ऐ अल्लाह अब माल आने लगा है, तू उमर के पास अगले साल माल आने से पहले पहले मुझे दुनिया से उठा ले ,*      
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  *☞_ पुराने ज़िम्मेदारों से मुल्कों का मुतालबा -,*

*★_ हमारा जमा होना असल इस्तेमाइयत है और हमारा जमा होना असल बिखरने के लिए है, अगर हमारा जमा होना जमा होने के लिए है तो यह रस्म है काम नहीं है, हमारा जमा होना दावत के (तक़ाज़ों के) लिए बिखरने के लिए है,  हजरत फरमाते थे -इस रास्ते में निकलने के अलावा हमारा कोई मौजू नहीं है _,"*

*★_ हर साल 4 महीने पर तो सबको आना है, माली सलाहियत तो इस रास्ते में खुदा की क़सम कोई हैसियत नहीं रखती बिल्कुल नहीं रखती, जब भी यह उम्मत दीन की इशात, इस रास्ते के तक़ाज़ों को असबाब पर मोक़ूफ समझेगी खुदा की क़सम यह गैबी नुसरतों के दरवाज़े के बंद होने का सबब बनेंगी बल्कि हुक्म पर क़दम उठाना यह भी नुसरतों के नुजूल का सबब है, हजरत फरमाते थे- अगर असबाब पर काम को मोक़ूफ करोगे तो सहाबा वाली मददें कभी नहीं देख सकोगे _,"*

*★_ उम्मत की सलाहियत को जानी माली अक़ली बा-एतबार उम्मत के इस्तेमाल करना है, तबलीग कोई वक़्त लगाने का वजी़फा नहीं है बल्कि तक़ाज़ों पर जान और माल को झोंकना यह दावत है, कोई मामूल पूरा करना काम नहीं है । हजरत फरमाते थे- मामूल के पूरा करने से इंक़लाब नहीं आता बल्कि मामूल से हटना इंक़लाब है _,*

*★_हम तो पुराना उसे समझते हैं जो दूसरों की कुर्बानियों पर आने का ज़रिया बनते हैं, पुराने वह कहलाते हैं जो दूसरों को पुराना बनाने का ज़रिया हों और उनकी कुर्बानियां पिछली सफ वालों के लिए गम और फिक्र पैदा करती हो _,"*

*★_ जब तक हर सूबे के ज़िम्मेदार 2- 2 महीने खुला वक्त निजामुद्दीन में नहीं गुज़ारेंगे सारे आलम से आने वाले तक़ाज़ों का सूबे में रहने वालों से कोई ताल्लुक़ नहीं, यह समझते रहेंगे काम मुल्कों में हो रहा है हमारे यहां नहीं हो रहा, काम होना यह नहीं है, काम होना यह है कि आलम की हर मस्जिद के तकाज़ों का ताल्लुक़ और उन तक़ाज़ों के पूरा करने का ताल्लुक़ बराहे रास्त निजामुद्दीन से हो, इसकी ज़रूरत है,*

*__( पुराने ज़िम्मेदारों में बात का खुलासा अलहमदुलिल्लाह यहां मुकम्मल हुआ )*

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