NOOR E HIDAYAT -HINDI(MALFUZAAT HAZRAT MOLANA ILYAAS REH.)

: *❈❦ 01 ❦❈*       
        ☜█❈ *हक़ - का - दाई* ❈ █☞
         ☞❦ *नूर - ए - हिदायत* ❦☜           
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*🥀_ आमाल में रस्मियत तब आती है जब उनमें "लिल्लाहियत" और बंदगी की शान नहीं रहती और नियत के सही होने से आमाल का रुख सही हो कर अल्लाह ही की तरफ मुड़ जाता है और रस्मियत के बजाय उनमें हक़ीक़त पैदा हो जाती हैं और हर काम बंदगी और खुदा परस्ती के जज्बे़ से होता है_,"*

 *❀_ हम लोगों को गलतफहमी यह हैं कि वह उसूल की पाबंदी को ही मुश्किल समझते हैं और उस से बचते हैं हालांकि दुनिया में कोई मामूली से मामूली काम भी उसूल की पाबंदी और काम का सही ढंग से अख्तियार किए बिना पूरा नहीं हो पाता ।*

*❀__जहाज़, कश्ती, रेल ,मोटर सब उसूल ही से चलते हैं। यहां तक कि हंडिया, रोटी तक भी उसूल ही से पकती है।*     
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 *❀_दीन की मेहनत फराइज़ में शामिल हैं, फराइज़ का दर्जा नवाफिल से बहुत ऊंचा है बल्कि समझना चाहिए की नवाफिल से मक़सूद ही फराइज़ की तकमील या उनकी कमियों की तलाफी होती है।*

*❀_मगर कुछ लोगों का हाल यह है कि वह फराइज़ से तो लापरवाही बरतते हैं और नवाफिल में मशगूल रहने का इससे ज़्यादा अहतमाम करते हैं।*

*❀_ दावत इलल खैर (अच्छाई की तरफ बुलाना) अम्र बिल मारूफ (भलाई का हुक्म करना) नहीं अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) दीन की तबलीग के यह सब शोबें अहम फराइज़ में से हैं।*
       
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 *❀_जब कोई अल्लाह का बंदा किसी भलाई के काम की तरफ कदम बढ़ाना चाहता है तो शैतान तरह-तरह से उसे रोकने की कोशिश करता है, उसकी राह में मुश्किलात और रुकावटे डालता है। लेकिन अगर उसकी यह रुकावटें नाकाम रहती है और खुदा का वह बंदा भलाई के काम को शुरू कर ही देता है तो फिर शैतान की दूसरी कोशिश यह होती है कि वह उसके इखलास और उसकी नियत में खराबी डाल देता है।*

 *❀_या दूसरे तरीकों से उस भलाई के काम में खुद हिस्सेदार बनना चाहता है यानी कभी उसमें रिया व सुमा (दिखावा और शोहरत की ख्वाहिश)को शामिल करने की कोशिश करता है और कभी दूसरी गर्ज़ की मिलावट से उसकी लिल्लाहियत को बर्बाद करना चाहता है और उसमें वह ज़्यादातर कामयाब हो जाता है।*

*❀_ इसलिए दीन का काम करने वालों को चाहिए कि वह इस खतरे से हर वक्त चौकन्ने रहें और इस क़िस्म के शैतानी भुलावे और बहकावे से अपने दिल की हिफ़ाज़त करते रहें और अपनी नियतों का बराबर जायजा़ लेते रहे क्योंकि जिस काम में अल्लाह की रज़ा व खुशी के अलावा कोई दूसरी गर्ज़ किसी वक्त भी शामिल हो जाएगी फिर वह अल्लाह के यहां कु़बूल नहीं।*
    
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 *❀_इल्म का सबसे पहला और अहम तक़ाजा़ यह है कि आदमी अपनी जिंदगी का जायज़ा ले, अपने फराइज़ और अपनी कोताहियों को समझ और उनको अदा करने की फिक्र करने लगे।*

*❀_ लेकिन अगर इसके बजाय अपने इल्म से दूसरों ही के आमाल का जायज़ा और उनकी कोताहियों को गिनने का काम लेता है तो फिर यह इल्मी घमंड और गुरूर है और यह अहले इल्म के लिए बड़ी हलाकत की चीज़ है।*

*❀_ असली अल्लाह का ज़िक्र यह है कि आदमी जिस मौक़े पर और जिस हाल और जिस काम में हो उसके मुताल्लिक़ अल्लाह के जो अहकाम है उनकी निगरानी और उन पर अमल रखें ।*
        
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 *❀_इंसान को अपने अलावा दूसरी चीज़ों पर जो फख्र और बड़ाई हासिल है उसमें ज़ुबान का को खास दखल है अगर ज़ुबान से आदमी अच्छी बातें करता है और भलाई ही में इस्तेमाल करता है तो यह फौक़ियत और बरतरी उसको भलाई में हासिल होगी ।*

*❀_अगर ज़ुबान को उसने बुराई का सामान बना रखा है ,जैसे बुरी बातें बकता है और बिना वजह लोगों को तकलीफ देता है तो फिर उसी ज़ुबान की बदौलत बुराई में मशहूर और ऊंचा होगा।*

*❀_ यहां तक कि कभी कभी यही ज़ुबान आदमी को कुत्ते और सूअर से भी बदतर कर देती है। हदीस शरीफ में है- आदमी को दोजख में औंधे मुंह उनकी बकवास ही डालेगी । अल्लाह हिफाज़त करें।*
     
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 *❀_इंसान का क़याम ज़मीन के ऊपर बहुत कम और ज़मीन के नीचे उसको इससे बहुत ज्यादा क़याम करना है या यूं समझो कि दुनिया में तो तुम्हारा क़याम बहुत थोड़ा है और उसके बाद जिन जिन मका़मात पर ठहरना है जैसे मरने के बाद पहली सूर फूंके जाने तक कब्र में,*

 *❀_ उसके बाद दूसरा सूर फूंके जाने तक उस हालात में जिसको अल्लाह ही जानता है (और यह मुद्दत भी हज़ारों साल की होगी) और फिर हज़ारों साल ही महशर में, उसके बाद आखिरत में जिस ठिकाने का फैसला हो ।*
*❀_गर्ज़ ये कि दुनिया से गुज़रने के बाद हर मंजिल और हर क़याम दुनिया से सैंकड़ों गुना ज्यादा है फिर इंसान की कैसी गफलत है कि दुनिया के चंद रोज़ क़याम के लिए वह जितना कुछ करता है, उस दूसरे मका़मात (मौत के बाद के) लिए इतना भी नहीं करता ।*

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*❀_देखो सब जानते और मानते हैं कि खुदा गायब नहीं है बल्कि शाहिद है और हर वक्त शाहिद है, तो उसके हाजिर नाजिर होते हुए बंदों का उसमें ना लगना और उसके गैरों में लगा रहना (यानी उसके अलावा में लगा रहना ) सोचो कैसी बे- नसीबी और कितनी बड़ी मेहरूमी है और अंदाज़ा करो कि यह चीज़ खुदा को कितना गुस्सा दिलाने वाली होगी ?*

*❀_ और खुदा के दीन के काम से गाफिल रहना उसके हुक्मों का लिहाज़ ना रखते हुए दुनिया में लगे रहना उससे मुंह मोड़ना है और उसके अलावा में मशगूलियत व मसरूफियत है और इसके बर-अक्स अल्लाह में लगना यह है कि उसके दीन की मदद करने में लगा रहे और उसके हुक्मों की फरमाबरदारी करता रहे ।*

*❀__मगर इसका ध्यान रखना पड़ेगा कि जो बात जितनी ज़्यादा ज़रूरी हो उसकी तरफ उसी क़द्र तवज्जो़ दी जाए और यह चीज़ मालूम होगी रसूलुल्लाह ﷺ के उसवा ए हसना (अच्छे नमूने ) से और मालूम है कि आप ﷺ ने जिस काम के लिए सबसे ज़्यादा मेहनत की और सबसे ज़्यादा तकलीफें बर्दाश्त की ,वो काम था कलमे का फैलाना यानी बंदों को खुदा की बंदगी के लिए तैयार करना और उसकी राह पर लगाना। यही काम सबसे ज़्यादा अहम रहेगा और इस काम में लगना आ'ला दर्जे का खुदा में लगना होगा।*
     
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*❀_लोगों ने अल्लाह की गुलामी और बंदगी को इंसानों की गुलामी और नौकरी से भी कम दर्जा दे रखा है। गुलामों और नौकरों का आम हाल यह होता है कि वह हर वक्त अपने मालिक के काम में लगा रहना ही अपना काम और अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं और उसके बीच में दौड़ते भागते जो कुछ हाथ लग जाता है खा पी लेते हैं।*

*❀_लेकिन अल्लाह पाक के साथ अब बंदों का यह मामला रह गया कि मुस्तकिल तौर पर तो अपने कामों और पसंद व मज़ेदार चीजों में अपने लिए लगे रहते हैं और कभी-कभार कुछ वक्त अपने उन ज़ाती कामों से निकालकर खुदा का कोई काम भी कर लेते हैं जैसे नमाज़ पढ़ लेते हैं या भलाई के काम में चंदा दे देते हैं और समझते हैं कि बस खुदा और दीन का मुतालबा हमने अदा कर दिया।*

*❀_हालांकि बंदगी का हक़ यह है कि असल में और मुस्तकिल तो हो दीन का काम और अपना खाना पीना उसके लिए सामान जुटाना उसके बाद की चीज़ है। इसका मतलब यह नहीं कि सब लोग अपने-अपने रोज़ी कमाने के साधन और कारोबार को छोड़ दे, नहीं बल्कि मतलब यह है जो कुछ हो उसकी बंदगी के तहत हो और उसके दीन की खिदमत और नुसरत का सब में ख्याल रखा जाए और अपने खाने-पीने की हैसियत सिर्फ जि़म्मी हो, जिस तरह एक गुलाम की अपने मालिक के कारोबार में होती है।*    
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*❀_ यह भी ख्याल रहे अपनी अपनी नमाज़ पढ़ना रोज़े रखना अगरचे आला दर्जे की इबादतें हैं लेकिन यह दीन की नुसरत नहीं है। दीन की नुसरत तो वही है जिसको क़ुराने करीम और अल्लाह के रसूल ﷺ ने नुसरत बताया है और उसका असली और मक़बूल तरीक़ा वही है जिसको आप ﷺ ने रिवाज़ दिया ।*

*❀_इस वक्त इस तरीक़े और इस रिवाज़ को ताज़ा करने की और फिर से इसको जारी करने की कोशिश करना दीन की सबसे बड़ी नुसरत है। अल्लाह पाक हम सबको इसकी तौफीक दे।*   
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*❀_ एक बैठक में फरमाया- हमारी इस तहरीक़ का मक़सद है मुसलमानों को सिखाना (यानी इस्लाम के पूरे इल्मी व अमली निज़ाम से उम्मत को जोड़ देना) यह तो हमारा असल मक़सद है।यह चलत फिरत और तबलीगी गश्त तो उस मक़सद को पाने के लिए इब्तेदाई ज़रिया है और कलमा नमाज़ की तलकीन व तालीम गोया हमारे निसाब की अलिफ बा ता है ।*

*❀_ यह भी ज़ाहिर है कि हमारे काफिले (जमाते) पूरा काम नहीं कर सकते, उनसे तो बस इतना ही हो सकता है कि हर जगह पहुंच कर अपनी कोशिश से एक हरकत और बेदारी पैदा कर दें और गाफिलों को मुतवज्ज़ह करके वहां के मुकामी अहले इल्म से जोड़ने की और उल्मा व सुल्हा, दीन की फ़िक्र रखने वालों को आवाम की इस्लाह पर लगा देने की कोशिश करें। हर जगह असली काम तो वहीं के काम करने वाले कर सकेंगे और अवाम को ज़्यादा फायदा अपनी जगह के अहले दीन से होगा ।*

*❀_अलबत्ता इसका तरीक़ा हमारे उन आदमियों ( पुराने ज़िम्मेदारों) से सीखा जाए जो एक ज़माने से फायदा पहुंचाना और फायदा हासिल करना और इल्म सीखना और सिखाना के इस तरीक़े पर अमल करने वाले हैं और उस पर बड़ी हद तक काबू पा चुके हैं।*
  
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*❀_हमारे काम करने वाले इस बात को मज़बूती से याद रखें कि अगर उनकी दावत व तब्लीग कहीं क़ुबूल ना की जाए और उल्टा बुरा भला कहा जाए इल्जा़मात लगाएं जाएं तो मायूस और रंजीदा ना हों और ऐसे मौक़े पर यह याद कर लें कि अंबिया अलैहिमुस्सलाम और खासतौर से नबियों के सरदार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खास सुन्नत और विरासत है खुदा की राह में जलील होना हर एक को कहां नसीब होता है ।*

*❀_और जहां उनका इस्तकबाल, एजाज़ व इकराम किया जाए उनकी दावत तबलीग़ की कद्र की जाए और तलब के साथ उनकी बातें सुनी जाए तो इसको अल्लाह पाक का फकत इनाम समझें और हरगिज़ उसकी ना कद्री ना करें।*

*❀_ उन तालिबों की खिदमत और तालीम को अल्लाह के इस एहसान का खास शुक्रिया समझें चाहे छोटे से छोटे तबके के लोग हों, हां इस सूरत में अपने नफ्स के फरेब से भी डरते रहें, नफ्स इस इज्ज़त और मक़बूलियत को अपना कमाल ना समझने लगे और इसमें पीर परस्ती का भी बड़ा डर है इसलिए इससे खासतौर से खबरदार रहें ।*  
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*❀_सब काम करने वालों को समझा दो कि इस राह में बलाओं और तकलीफों को खुदा से मांगे तो हरगिज़ नहीं,*

*❀_ लेकिन अगर अल्लाह पाक इस राह में मुसीबत भेज दे तो फिर उसको खुदा की रहमत और बुराइयों के कफ्फारे का और दर्ज़ों के बुलंद होने का ज़रिया समझा जाए। बंदे को अल्लाह से हमेशा सुकून व आफियत मांगना चाहिए ।*

*❀_खुदा की राह में मुसीबतें तो अंबिया व सिद्दीकीन और मुकर्रबीन की खास गिजा़ है।* 
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*❀_ तबलीग व दावत के वक्त़ खास तौर पर अपने बातिन का रुख अल्लाह पाक ही की तरफ रखना चाहिए ना कि सुनने वालों की तरफ।*

*❀__गोया उस वक्त हमारा ध्यान यह होना चाहिए कि हम अपने किसी काम और अपनी जा़ती राय से नहीं बल्कि अल्लाह के हुक्म से और उसके काम के लिए निकले हैं । सुनने वालों की तौफीक भी उसी के कब्ज़ा ए कुदरत में है ।*

*❀_जब उस वक्त़ यह ध्यान होगा तो इंशा अल्लाह सुनने वालों के गलत बर्ताव से ना तो गुस्सा आएगा और ना हिम्मत टूटेगी।*  
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*❀_ कैसा गलत रिवाज़ हो गया है, दूसरे लोग हमारी बात ना माने तो उसको हमारी नाकामी समझा जाता है, हालांकि इस राह में यह ख्याल करना बिल्कुल ही गलत है। दूसरों का मानना या ना मानना तो उनका काम है उनके किसी काम से हम कामयाब या नाकाम क्यों किए जाएं ?*

*❀__ हमारी कामयाबी यह हैं कि हम अपना काम पूरा कर दें अब अगर दूसरों ने ना माना तो यह उनकी नाकामी है हम उनके ना मानने से नाकामयाब क्यों हो गए? लोग भूल गए , मनवा देने को अपना काम और अपनी जिम्मेदारी समझने लगे (जो असल में अल्लाह का काम है ) हालांकि हमारी जिम्मेदारी सिर्फ अच्छे तरीक़े से अपनी कोशिश लगा देना है, मनवाने का काम तो पैगंबरों के सुपुर्द भी नहीं किया गया।*

*❀_ हां ! ना मानने से यह सबक लेना चाहिए कि शायद हमारी कोशिश में कमी रही और हमसे हक अदा ना हो सका जिसकी वजह से अल्लाह पाक ने यह नतीजा दिखाया और उसके बाद अपनी कोशिश की मिक़दार को बढ़ा देना और दुआ व तौफीक़ मांगने में भी जितना हो सके इज़ाफ़ा करने का पक्का इरादा कर लेना चाहिए।*
     
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*❀_ हमारे आम काम करने वाले जहां भी जाएं वहां के हक्कानी आलिमो व नेक लोगों की खिदमत में हाज़िरी की कोशिश करें लेकिन यह हाज़री सिर्फ फायदा हासिल करने की नियत से हो और उन हजरात को सीधे इस काम की दावत ना दें ।*

*❀_ वह हजरात जिन दीनी कामों में लगे हुए हैं उनको वह खूब जानते हैं और उनके मुनाफे का तजुर्बा रखते हैं और तुम उनको अपनी बात अच्छी तरह समझा ना सकोगे यानी तुम उनको अपनी बातों से इसका यक़ीन नहीं दिला सकोगे कि यह काम उनके दूसरे कामों से ज़्यादा दीन के लिए मुफीद और ज़्यादा नफा देने वाला है।*

*❀_ नतीजा यह होगा कि वह तुम्हारी बात को नहीं मानेंगे और जब एक दफा उनकी तरफ से ना हो जाएगी तो फिर उस ना को कभी भी हां में बदलना मुश्किल हो जाएगा, फिर इसका बुरा नतीजा यह हो सकता है कि अकीदतमंद आवाम भी फिर तुम्हारी बात ना सुने । यह भी मुमकिन है कि तुम्हारे अंदर हिचकिचाहट पैदा हो जाए।*

*❀_ इसलिए उनकी खिदमत में सिर्फ फायदा हासिल करने के लिए ही जाया जाए लेकिन उनके माहौल में निहायत मेहनत से काम किया जाए और उसूलों की ज्यादा रियायत की कोशिश की जाए, इस तरह उम्मीद है कि तुम्हारे काम और उसके नतीजों की इत्तेला खुद ब खुद उनको पहुंचेगी और वो उनको इस काम की तरफ बुलाने वाली और तवज्जोह दिलाने वाली होगी फिर अगर इसके बाद वह खुद तुम्हारी तरफ और तुम्हारे काम की तरफ मुतवज्जह हो तो उनसे सरपरस्ती और खबरगिरी की दरख्वास्त की जाए और उनका दीनी अदब और अहतराम रखते हुए अपनी बात उनसे कही जाए।*
    
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*❀_ अगर कहीं देखा जाए कि वहां के उलमा और सुलहा इस काम की तरफ हमदर्दाना तौर से मुतवज्जह नहीं होते तो उनकी तरफ से बदगुमानियों को दिल में जगह ना दी जाए बल्कि यह समझा जाए चूंकि यह दीन के खास खादिम है इसलिए शैतान उनका हमसे ज़्यादा गहरा दुश्मन है (चोर धन दौलत ही पर तो आता है )*

*❀__इसके अलावा यह भी समझने की बात है कि दुनिया जो हकी़र व ज़लील चीज़ है जब उसके गिरफ्तार अपने दुनियावी कामों पर इस काम को तरजीह नहीं दे सकते और अपने कामों में मसरूफियात को छोड़कर इस काम में नहीं लग सकते तो अहले दीन अपने आला कामों को इस काम के लिए कैसे आसानी से छोड़ सकते हैं।*

*❀_ उरफा (अल्लाह को पहचानने वालों) ने कहा है कि नूरानी हिजाबात ज़ुलमानी हिजाबात से कई दर्ज़े ज्यादा शदीद होते हैं ।*
   
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*❀_ जितना भी अच्छे से अच्छा काम करने की अल्लाह तौफीक दे, हमेशा उसका खा़त्मा इस्तगफार पर ही किया जाए गर्ज़ हमारे हर काम का आख़री हिस्सा इस्तगफार हो यानी यह समझ कर कि मुझसे यक़ीनन उसकी अदायगी में कोताहियां हुई है, उन कोताहियों के लिए अल्लाह से माफी मांगी जाए ।*

*❀_ रसूलुल्लाह ﷺ नमाज़ के ख़त्म पर भी अल्लाह से इस्तगफार किया करते थे लिहाज़ा तबलीग का काम भी इस्तगफार पर ही ख़त्म किया जाए ।*

*❀_बंदे से किसी तरह भी अल्लाह का हक़ अदा नहीं हो सकता, इसके अलावा एक काम में मशगूलियत बहुत से दूसरे कामों के ना हो सकने की वजह भी बन जाती है तो इस क़िस्म की चीज़ों के बदले के लिए भी हर अच्छे काम के ख़ात्मे पर इस्तगफार करना चाहिए ।*
       
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*❀_आप लोगों की यह चलत फिरत और सारी कोशिश बेकार होगी अगर उसके साथ इल्मे दीन और जि़करुल्लाह का पूरा एहतमाम आपने नहीं किया गोया यह इल्म व जिक्र दो बाजू़ हैं, जिनके बगैर इस फिज़ा में उड़ा नहीं जा सकता।*

*❀_ बल्कि सख्त खतरा और पक्का डर है कि अगर इन दो चीज़ों की तरफ से गफलत बरती गई तो यह कोशिश कहीं फितना और गुमराही का एक नया दरवाज़ा ना बन जाए, दीन का अगर इल्म ही ना हो तो इस्लाम व ईमान सिर्फ रस्मी और नाम के हैं, और अल्लाह के जिक्र के बगैर अगर इल्म हो भी तो यह सरासर ज़ुल्मत है ।*

*❀ _इसी तरह अगर दीन के इल्म के बगैर अल्लाह के ज़िक्र की कसरत भी हो तो इससे भी बड़ा खतरा है। गर्ज़ कि इल्म में नूर ज़िक्र से आता है और दीन के इल्म के ज़िक्र से आता है और दीन के इल्म के ज़िक्र के बगैर हकी़की बरकात व नतीजे हासिल नहीं होते, बल्कि बाज़ अवक़ात ऐसे जाहिल सूफियों को शैतान अपना काम का आला बना लेता है ।*

*❀_ इसलिए इल्म व जिक्र की अहमियत को इस सिलसिले में कभी भूला ना जाए और इसका हमेशा खास अहतमाम रखा जाए वरना आपकी यह तबलीगी तहरीक़ भी बस एक आवारागर्दी होकर रह जाएगी और खुदा ना करे आप लोग सख्त घाटे में रहेंगे।*

*❀_ हजरत का मतलब इस हिदायत से यह था कि काम करने वाले तबलीग व दावत के सिलसिले की मेहनत व मशक्कत, सफर व हिजरत, इसरार व कुर्बानी ही को असल काम ना समझें जैसा कि आजकल आम हवा है बल्कि दीन को सीखने व सिखाने और अल्लाह के ज़िक्र की आदत डालने और उससे ताल्लुक़ पैदा करने को अपना एक अहम फर्ज़ समझे ।*

*❀_ दूसरे लफ़्ज़ों में सिर्फ सिपाही और वालंटियर बनना नहीं बल्कि तालिबे इल्मे दीन और अल्लाह को याद करने वाला बंदा भी बनना है।*
    
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*❀_हम दुनिया में नफ्स की हिमायत और नफ्सानी ख्वाहिशात के मुताबिक चलने के लिए नहीं भेजे गए जिससे यह दुनिया आदमी के लिए जन्नत बन जाती है बल्कि हम नफ़्स की मुख़ालफ़त और अल्लाह के अहकाम की इता'त के लिए भेजे गए जिससे यह दुनिया मोमिन के लिए "सिज्न" (जेल खाना ) बन जाती है ।*

*❀_अगर हम भी गैरों की तरह नफ्स की हिमायत व तरफदारी करके दुनिया को अपनी जन्नत बनाएंगे तो हम गैरों की जन्नत पर कब्ज़ा करने वाले और हड़पने वाले होंगे।*

*❀_ इस सूरत में खुदा की मदद कब्जा़ करने और हड़पने वालों के साथ ना होगी बल्कि उन लोगों के साथ होगी जिनकी जन्नत पर कब्ज़ा किया गया यानी गैरों के साथ अल्लाह की मदद होगी। फरमाया कि इस बात में अच्छी तरह गौर करो।*
    
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*❀_ लोग तब्लीग की बरकात को देखकर यह समझते हैं कि काम हो रहा है, हालांकि काम और चीज़ है और बरकत और चीज़ है।*

*❀_ देखो रसूलुल्लाह ﷺ की पैदाइश ही से बरकात का ज़हूर होने लगा था मगर काम बहुत बाद में शुरू हुआ इसी तरह यहां समझो। मैं सच कहता हूं कि अभी तक असली काम शुरू नहीं हुआ- जिस दिन काम शुरू हो जाएगा तो मुसलमान 700 बरस पहले की हालात में लौट जाएंगे ।*

*❀_और अगर काम शुरू नहीं हुआ बल्कि इसी हालत पर रहा जिस हालत पर अभी तक है और लोगों ने उसको दूसरी तमाम तहरीकों की तरह एक तहरीक समझ लिया और काम करने वाले इस राह से बिछड़ गए तो जो फितने सदियों में आते वह महीनों में आ जाएंगे। इसलिए इसको समझने की ज़रूरत है।*
   
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*❀_अल्लाह के अहकाम की तलाश ज़रूरी है, बराबर तलाश में लगे रहना चाहिए जैसे किसी काम में मशगूल होने से पहले सोचना चाहिए कि काम दो चीजों को चाहता है एक- उस काम पर तवज्जो़ को जिस में मशगूल होना चाहता है दूसरे और कामों से उस वक्त गफलत को।*

*❀_ नमाज़ से पहले कुछ देर नमाज़ का मुराक़बा (सोच विचार) करना चाहिए । जो नमाज़ बिला इंतज़ार के हो वह फुसफुसी है ,तो नमाज से पहले नमाज को सोचना चाहिए, शरीयत ने इसी वास्ते फराइज़ से पहले सुन्नतों वह नवाफिल और इका़मत वगैरा बताए हैं ताकि नमाज का मुराक़बा अच्छी तरह हो जाए ,फिर फर्ज अदा किया जाए ।*

*❀__मगर ना तो हम सुन्नतों व नवाफिलों और इका़मत वगैरा के इन फायदों और मसलिहतों को समझते हैं और ना उनसे यह फायदे हासिल करते हैं इसलिए हमारे फराइज़ भी खराब अदा होते हैं।*
      
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*❀_ तबलीग के काम करने वालों को अपने दिल में वुस'अत पैदा करना चाहिए, जो अल्लाह की रहमत की वुस'अत पर नज़र करके पैदा होगी, उसके बाद तरबियत का अहतमाम करना चाहिए।*

*❀_ हमारे सरदार रसूलुल्लाह ﷺ इस्लाम के शुरू के ज़माने में (जब दीन कमज़ोर था और दुनिया ताक़तवर थी ) उन लोगों के घर जाकर जिनके दिलों में दीन की तलब नहीं थी उनकी मजलिसों में बे तलब पहुंचकर दावत देते थे, तलब का इंतजार नहीं करते थे। कुछ मुक़ामात पर हजरात ए सहाबा को खुद से भेजा है कि फलां जगह तबलीग करो ।*

*❀_ इस वक्त वही कमजोरी की हालत हैं तो हमको भी बेतलब लोगों के पास खुद जाना चाहिए। मुल्हिदों, दीन से फिर जाने वाले, फासिको, गुनहगारों के मजमे में पहुंचना चाहिए और कलमा ए हक़ बुलंद करना चाहिए।*     
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*❀_हमारे तबलीग में इल्म व ज़िक्र की बड़ी अहमियत है, बगैर इल्म के नाम अमल हो सके ना अमल की मार्फत और बगैर जिक्र के इल्म में ज़ुलमत ही ज़ुल्मत (अंधेरा) है उसमें नूर नहीं हो सकता । मगर हमारे काम करने वालों में इसकी कमी है ।*

*❀_मुझे इल्म व जिक्र की कमी का रंज है और यह कमी इस वास्ते हैं कि अब तक अहले इल्म और अहले जिक्र इसमें नहीं लगे हैं । अगर यह हज़रात आकर अपने हाथ में काम ले लें तो यह कमी भी पूरी हो जाए । मगर उलमा और अहले ज़िक्र तो अभी तक बहुत कम आए हैं ।*
*❀__खुलासा यह है कि अब तक जो जमाते तबलीग के लिए रवाना की जाती हैं उनमें अहले इल्म और अहले निसबत की कमी है ,जिसका हज़रत को रंज था, काश अहले इल्म और अहले निस्बत भी इन जमातों में शामिल होकर काम करें तो यह कमी पूरी हो जाए ।*

*❀_अल्हम्दुलिल्लाह तबलीग के मरकज़ में अहले इल्म और अहले निसबत इस वक्त मौजूद है मगर वह चंद गिनती के आदमी हैं, अगर वह हर जमात के साथ जाया करें तो मरकज़ का काम कौन अंजाम दे।*

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*❀_ ख्वाब नबूवत का 46 वां हिस्सा है, कुछ लोगों को ख्वाब में ऐसी तरक़्क़ी होती है कि रियाज़त व मुजाहिदे से नहीं होती क्योंकि उनको ख्वाब में सही उलूम बताए जाते हैं जो नबूवत का हिस्सा हैं, फिर तरक्की क्यों ना होगी ।*

*❀_ इल्म से मार्फत बढ़ती है और मार्फत से कुर्ब बढ़ता है, आपने फरमाया कि इस तब्लीग का तरीक़ा मुझ पर ख्वाब में ज़ाहिर हुआ। अल्लाह ताला का इरशाद है "कुंतुम खैरा....... बिल्लाहि_," की तफसीर ख्वाब में मिली कि तुम (यानी इस्लाम लाने वाली उम्मत) अंबिया अलैहिस्सलाम की तरह लोगों के वास्ते जाहिर किए गए हो ,तुम्हारा काम भलाइयों का हुक्म देना और बुराइयों से रोकना है।*

*❀_ इसके बाद "तू मिनूना बिल्लाहि_," फरमा कर यह बतलाया है कि इस भलाई के हुक्म से खुद तुम्हारे ईमान को तरक्की होगी बस दूसरों की हिदायत का इरादा ना करो अपने नफे की नियत करो।*

*❀__और "उखरिजत लिन्नासि_," में "अन्नास" से मुराद अरब नहीं बल्कि गैर अरब दूसरे लोग हैं क्योंकि अरब के बारे में तो फरमा दिया गया कि उनके मुताल्लिक़ हिदायत का इरादा हो चुका है आप ﷺ उनकी ज़्यादा फिक्र ना करें।*

*❀__ तबलीग करने वालों को तो तबलीग ही से ईमान के पूरा होने का फायदा हासिल हो जाता है चाहे मुखातब क़ुबूल करें या ना करें । अगर मुखातिब क़ुबूल करके ईमान ले आए तो उसका अपना भी फायदा होगा, तब्लीग करने वाले का फायदा इस पर मोकूफ नहीं।*
  
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*❀_ एक खत में मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी का यह जुमला था कि मुसलमान दो ही किस्म के होते हैं तीसरी कोई किस्म नहीं, या अल्लाह के रास्ते में खुद निकलने वाले हों या निकलने वालों की मदद करने वाले हों। फरमाया :- बहुत खूब समझे हैं । फिर फरमाया कि निकलने वालों की मदद में यह भी दाखिल है कि लोगों को निकलने पर तैयार करें और उनको बताएं कि तुम्हारे निकलने से फलां आलिम के बुखारी के दर्स या क़ुरान के दर्स का हर्ज ना होगा, तो तुमको भी उसके दर्स का सवाब मिलेगा ।*

*❀_इस किस्म की नियतों से लोगों को आगाह करना चाहिए और सवाब के रास्ते बतलाना चाहिए। हमारी तबलीग का हासिल यह है कि आम दीनदार मुसलमान अपने ऊपर वालों से दीन को ले और अपने नीचे वालों को दे मगर नीचे वालों को अपना मोहसिन समझे क्योंकि जितना हम कलमें को पहुंचाएंगे फैलाएंगे इससे खुद हमारा कलमा भी कामिल और मुनव्वर होगा और जितनो को हो हम नमाज़ी बनाएंगे इससे खुद हमारी नमाज़ भी कामिल होगी।*

*❀_ तबलीग से फायदा उठाने के लिए एक बड़ी शर्त यह है कि तब्लीग करने वाले को उससे अपना कामिल होना मक़सूद हो दूसरों के लिए अपने को हिदायत देने वाला ना समझें क्योंकि हिदायत देने वाला अल्लाह ताला के सिवा कोई नहीं।*
    
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 *❀_ मुसलमान को उल्मा की खिदमत 4 नियतों से करना चाहिए :-*
*१_ इस्लाम की नियत से -- चुनांचे सिर्फ इस्लाम की वजह से कोई मुसलमान किसी मुसलमान को देखने जाए यानी सिर्फ सलाह के लिए मुलाकात करें तो 70 हज़ार फरिश्ते उसके पांव तले अपने पर बाजू बिछा देते हैं तो जब हर मुसलमान की जियारत की फजीलत है तो उल्मा की जियारत में भी यह फजीलत ज़रूरी है।*

*★_२_यह कि उनके दिल व जिस्म नबूवत के उलूम को उठाए हुए हैं इस लिहाज से भी वो अदब के काबिल और खिदमत के लायक है।*
*"_३_ यह की वह हमारे दीनी कामों की निगरानी करने वाले हैं।*

*★_4_ उनकी जरूरियात की तलाश के लिए क्योंकि अगर दूसरे मुसलमान उनकी दुनियावी जरूरतों को तलाश करके पूरा कर दें तो उलमा अपनी जरूरतों में वक्त लगाने से बच जाएंगे और वह वक्त भी इल्मे दीन की खिदमत में खर्च करेंगे।*

*★_मगर आम मुसलमानों को चाहिए कि भरोसे के लायक उलमा की तरबियत और निगरानी में उलमा की खिदमत का फर्ज अदा करें क्योंकि उनको खुद इसका इल्म नहीं हो सकता कि कौन ज्यादा इमदाद का मुस्तहिक़ है और कौन कम और अगर किसी को खुद अपनी तलाश से इसका इल्म हो सके तो वह खुद तलाश करे।*  
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*❀_ हदीस में है, जो (किसी पर) रहम नहीं करता उस पर रहम नहीं किया जाता, ज़मीन (पर रहने ) वालों पर रहम करो आसमान वाला तुम पर रहम करेगा । मगर अफसोस लोगों ने इस हदीस को भूख और फाके़ वालों पर रहम के साथ मखसूस कर लिया है इसलिए उनको उस शख्स पर तो रहम आता है जो भूखा हो प्यासा हो, नंगा हो मगर मुसलमानों की दीन से मेहरूमी पर रहम नहीं आता ।*

*❀__गोया दुनिया के नुक़सान को नुक़सान समझा जाता है फिर हम पर आसमान वाला क्यों रहम करें ? जब हमें मुसलमानों की दीनी हालत के बिगड़ने पर रहम नहीं । फरमाया- हमारी इस तबलीग की बुनियाद इसी पर है इसलिए यह काम शफक़त के साथ अपने फ़र्ज़ को पूरा करेगा लेकिन अगर यह मंशा नहीं कुछ और मंशा है तो फिर वह घमंड व गुरूर में घिर जाएगा जिससे फायदे की उम्मीद नहीं ।*

*❀_ और जो शख्स इस हदीस को सामने रख कर तब्लीग करेगा उसमें खुलूस भी होगा, उसकी नज़र अपने ऐबों पर भी होगी और दूसरों के ऐबों पर नज़र के साथ उनकी इस्लामी खूबियों पर भी नज़र होगी तो यह शख्स अपने फायदे का हामी ना होगा बल्कि शिकायत करने वाला होगा और इस तब्लीग का गुर यही है नफ्स की हिमायत (मदद ) से अलग हो कर नफ़्स की शिकायत का सबक हमेशा नज़र के सामने रहे।*
       
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*❀_मुसलमान दुआ से बहुत गाफिल है और जो करते हैं उनको दुआ की हक़ीक़त मालूम नहीं। मुसलमानों के सामने दुआ की हक़ीक़त को वाज़े करना चाहिए।*

*❀_ दुआ की हक़ीक़त है अपनी ज़रूरतों को बुलंद बारगाह में पेश करना, पस जितनी बुलंद वो बारगाह है उतना ही दुआओं के वक्त़ दिल को मुतवज्जह करना और दुआ के अल्फ़ाज़ को रोते -गिडगिडाते आंसू बहाते हुए अदा करना चाहिए और यक़ीन व भरोसे के साथ दुआ करना चाहिए कि ज़रूर कबूल होगी।*

*❀_ क्योंकि जिससे मांगा जा रहा है वह बहुत सखी और करम करने वाला है अपने बंदों पर रहम करने वाला है, ज़मीन आसमान के ख़ज़ाने सब उसी के क़ब्ज़े में है।*
         
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*❀_ तक़रीर में शरई अहकाम की मसलिहतो व असबाब को बयान ना करो बस तीन चीज़ों का ख्याल रखने की तालीम दी जाए, एक यह कि हर अमल में अल्लाह की रज़ा व खुशी का इरादा करें और आखिरत का यकीन रखें,*

*❀_ जो अमल भी रज़ा ए हक़ के लिए और आखिरत के यक़ीन के साथ हो वह आखिरत में मुफीद होगा, वहां इससे सवाब मिलेगा या अजा़ब दूर होगा,*

*❀_ इसके साथ किसी ऐसे नफे का इरादा ना हो जो मौत से पहले दुनिया में हासिल होने वाला है। वो नफे तो खुद बा खुद हासिल हो जाते हैं वो मकसूद नहीं हैं। गो इनका हासिल होना यक़ीनी है और इसका यक़ीन रखना भी ज़रूरी है मगर अमल से इनका इरादा ना किया जाए।

*❀_ तब्लीग के काम के लिए सैयदों को ज़्यादा कोशिश के साथ उठाया जाए और आगे बढ़ाया जाए, यही हदीस का तकाज़ा है। इन बुजुर्गों से दीन का काम पहले भी बहुत हुआ है और आइंदा भी इन्हीं से ज्यादा उम्मीद है।*
      
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*❀_किसी मुसलमान को किसी से अल्लाह के लिए मोहब्बत हो या उससे किसी मुसलमान को अल्लाह के लिए सच्ची मोहब्बत हो तो यह मोहब्बत और नेक ख्याल ही आखिरत के लिए ज़खीरा है ।*

*❀_अपने खाली हाथ होने का यक़ीन ही कामयाबी है कोई भी अपने अमल से कामयाब नहीं होगा सिर्फ अल्लाह के फ़ज़ल से कामयाब होगा ।*

*❀_मुझे अपने ऊपर इस्तिदराज (ढील) का डर् है, मैंने अर्ज़ किया कि यह डर ऐन ईमान है (हसन बसरी रहमतुल्लाह का इरशाद है कि अपने ऊपर निफाक़ का ड़र मोमिन ही को होता है) मगर जवानी में डर का ज़्यादा होना अच्छा है और बुढ़ापे में अल्लाह से नेक गुमान और उम्मीद का ज़्यादा होना अच्छा है, फरमाया -हां सही है,*

*❀_इस्लाम में एक तो वुस'अत का दर्जा है यह वुस'अत तो इतनी है कि मुसलमान के घर में पैदा हो जाना दारुल इस्लाम में पैदा हो जाना है। किसी की बात में 99 कुफ्र की वजह मौजूद हो और एक वजह इस्लाम की हो तो उसको मुसलमान ही कहा जाएगा मगर यह हक़ीक़ी इस्लाम नहीं रस्मी है,*

*❀_ इस्लाम यह है कि मुसलमान में ला इलाहा इलल्लाह की हक़ीक़त पाई जाए और उसकी हक़ीक़त यह है कि इसका भरोसा करने के बाद अल्लाह ताला की बंदगी का पक्का इरादा दिल में पैदा हो मा'बूद को राज़ी करने की फिक्र दिल को लग जाए, हर वक्त़ यह ध्यान रहे कि हाय वह मुझसे राज़ी है या नहीं?*
 
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*❀_ दो चीज़ों की मुझे बड़ी फिक्र है उनका अहतमाम किया जाए, एक जिक्र ,दूसरे माल वालों को ज़कात का सही मसरफ समझाया जाए। उनकी ज़काते सही जगह खर्च नहीं होती अक्सर बर्बाद जा रही हैं।*

*❀_ जो अल्लाह के भरोसे तबलीग में लगे हुए हैं उनकी इमदाद बहुत जरूरी है उनको ज़कात दी जाए तो उनमें हिर्स व लालच पैदा ना होगी, माल वालों को ऐसे लोगों को तलाश करना चाहिए कि किसको कितनी ज़रूरत है। यह जो पैशावर मांगने वालों को और आम चंदा मांगने वालों को ज़कात देते हैं ,अक्सर इससे उनकी ज़काते मसरफ में नहीं खर्च हुआ करती।*

*❀_इल्म से अमल पैदा होना चाहिए और अमल से ज़िक्र पैदा होना चाहिए तभी इल्म है और अगर इल्म से अमल पैदा ना हो तो सरासर ज़ुल्म है और अमल से अल्लाह की याद पैदा ना हुई तो फुसफुसा है और ज़िक्र बिना इल्म के फितना है ।*

*❀_लोगों को हदिया, सदक़ा और कर्ज के फज़ाइल सहाबा के वाक़ियात से बताना चाहिए ।सहाबा मजदूरी कर कर के सदका़ करते थे, उनमें सिर्फ मालदार ही सदका़ नहीं करते थे, गरीब भी मज़दूरी करके कुछ ना कुछ सदका़ किया करते थे क्योंकि सदका़ के फज़ाइल उनकी नज़र में थे और जब सदका़ का यह दर्जा है तो हदिया तो उससे भी अफज़ल है।*

*❀_ इस तरह कर्ज देने के भी बहुत फजाइल है, जैसे जिस वक्त़ कर्ज की मुद्दत पूरी हो जाए उसके बाद तंगदस्त क़र्ज़ लेने वाले को अगर मोहलत दी गई तक़ाज़ा ना किया गया तो हर दिन सदके़ का सवाब मिलता है।*
     
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*❀_तब्लीग में हिस्सा लेने वालों को चाहिए कि कुरान व हदीस में दीन की दावत व तब्लीग पर जो अज्र व सवाब के वादे किए गए हैं और जिन इनामात की खुशखबरी सुनाई गई है उन पर पूरा यक़ीन हो। पूरा यक़ीन करते हुए उन्हीं की चाहत व उम्मीद में काम में इस काम लगें ।*
*❀_ और इसका भी ध्यान किया करें कि हमारी इस हकीर कोशिशों के जरिए अल्लाह पाक जितनों को दीन पर लगा देंगे और फिर इस सिलसिले से जितने लोग क़यामत तक दीन पर चलेंगे और जो भी नेक अमल करेंगे तो उनके आमाल का जितना सवाब उनको मिलेगा, इंशा अल्लाह उन तमाम सवाबों के मजमुऐ के बराबर अल्लाह ताला अपने वादों के मुताबिक हमको भी अता फरमाएंगे बशर्ते कि हमारी नियत खालिस और हमारा काम क़ाबिले कुबूल हो,*

*❀_लोगों को जब इस तब्लीग के काम के लिए तैयार करना हो तो अच्छी तरह इस काम में लगने के फायदे और आखिरत में मिलने वाला उसका अज्रो सवाब भी खूब तफसील से उनको बताओ और इस तरह बयान करने की कोशिश करो कि थोड़ी देर के लिए तो जन्नत का कुछ समां उनकी आंखों के सामने आ जाए जैसा कि कुरान मजीद का तरीक़ा है ।*

*❀_इसके बाद इंशा अल्लाह उनके लिए आसान होगा कि इस काम में मशगूली की वजह से थोड़े बहुत दुनिया के कामों के हर्ज और नुकसान का जो डर उन्हें होगा वह उसको नजर अंदाज कर सकेंगे ।* 
    
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*❀_इंसान का फर्क अपने अलावा दूसरी मखलूक से ज़बान की वजह से है, होना तो यह चाहिए था कि यह फर्क भलाई ही में हो लेकिन होता है यह बुराई में भी ।*

*❀__यानी जिस तरह ज़बान के सही इस्तेमाल और उससे अल्लाह का और दीन का काम लेने की वजह से भलाई व नेकी में फरिश्तों से भी बढ़ जाता है उसी तरह इस ज़ुबान का बेजा़ इस्तेमाल करने से सूअर और कुत्ते से भी बदतर हो जाता है ।*

*❀__हदीस पाक में इरशाद है कि लोगों को उनकी नाक के बल घसीटने वाली जहन्नम की तरफ ज़बान से ज्यादा कोई चीज़ नहीं।*
   
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*❀_ इमाम अब्दुल वहाब शिरानी रहमतुल्लाह ने क़ुतूबियत ( बुजुर्गी का दर्जा ) हासिल करने की एक तदबीर लिखी है जिसका हासिल यह है :- अल्लाह की ज़मीन पर जहां जहां जो नेकिया मिटी हुई है और मुर्दा हो गई है उनका ख्याल करें, फिर दिल में उनके मिटने का एक दर्द महसूस करें और रोते व गिड़गिड़ाते हुए उनके जिंदा और जारी करने के लिए अल्लाह ता'ला से दुआ करें और अपने दिन की ताकत को भी उनके जिंदा करने के लिए इस्तेमाल करें ।*

*❀_इसी तरह जहां-जहां जो बुराई फैली हुई है उनका भी ध्यान करें और फिर उनके बढ़ जाने की वजह से अपने अंदर एक दर्द और दुख महसूस करें फिर गिड़गिड़ाते हुए अल्लाह ता'ला से उनको मिटा देने के लिए दुआ करें और अपनी हिम्मत व तवज्जो को भी उनके जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए इस्तेमाल करें।*

*❀_ इमाम अब्दुल वहाब शिरानी रहमतुल्लाह ने लिखा है कि जो शख्स ऐसा करता रहेगा, इंशा अल्लाह वह ज़माने का कुतुब होगा।*
    
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*❀_ लोगों को शोक दिलाओ कि दीन सीखने सिखाने और दीन फैलाने के वास्ते अपने खर्च पर घरों से निकले, अगर उनमें इसकी बिल्कुल ताक़त ना हो या वो इतनी कुर्बानी पर तैयार ना हो तो फिर जहां तक हो सके उन्हीं के माहौल से इसका इंतज़ाम करो ।*

*❀__और अगर यह भी ना हो सके तो फिर दूसरी जगह से ही इंतजाम कर दो, लेकिन यह बहरहाल ख्याल रहे कि उनमें इसराफे नफ्स पैदा ना हो जाए।*

*❀__ यह चीज़ (यानी अपनी ज़रूरतों के बजाय अल्लाह ताला के बंधुओं पर नज़र होना जिसका नाम इसराफ है) ईमान की जड़ों को खोखला कर देने वाली है और उन निकलने वालों को यह भी अच्छी तरह समझा दिया जाए की इस राह की तकलीफों भूख, प्यास वगैरा को अल्लाह की रहमत समझे।*

*❀_ इस रास्ते में यह तकलीफें तो नबियों और सिद्दिकी़न और मुक़र्रबीन की गिजा़एं हैं।*
    
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*❀_ जन्नत तवाज़ों व इन्कसारी करने वालों ही के लिए हैं, इंसान में अगर किब्र (अपने को बड़ा समझना) का कोई हिस्सा है तो पहले उसको जहन्नम में डालकर फूंका जाएगा, जब खालिश तवाजो़ रह जाएगा तब वह जन्नत में भेजा जाएगा । बहरहाल किब्र के साथ कोई आदमी जन्नत में नहीं जाएगा ।*

*❀__अभी काम का वक्त बाक़ी है, जल्दी ही दीन के लिए दो जबरदस्त खतरे पेश आएंगे, एक तहरीक शुद्धी की तरह क़ुफ्र की तबलीगी कोशिश जो जाहिल अवाम में होगी और दूसरा खतरा है दीने हक़ से फिर जाना और खुदा को ना मानना जो मगरिबी हुकूमत व सियासत के साथ आ रहा है, यह दोनों गुमराहियां सैलाब की तरह आएंगी जो कुछ करना है उनके आने से पहले कर लो।*

*❀__ दीन के काम करने वालों को चाहिए कि गश्त और चलत फिरत के कु़दरती असरात को तन्हाई के जिक्र व फिक्र के ज़रिए धोया करें।*
      
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*❀_ हमारा काम दीन का बुनियादी काम है और हमारी तहरीक हक़ीक़त में ईमान की तहरीक है ।*

*❀_आजकल आमतौर से जो इस्तिमाई काम होते हैं उनके करने वाले ईमान की बुनियाद को क़ायम फर्ज करके उम्मत की ऊपर की तामीर करते हैं और ऊपर के दर्जे की ज़रूरियात की फिक्र करते हैं और हमारे नज़दीक उम्मत की पहली जरूरत यही है कि उनके दिलों में पहले सही ईमान की रोशनी पहुंच जाए ।*

*❀__हमारे नज़दीक इस वक्त उम्मत की असल बीमारी दीन की तलब व क़दर से उनके दिलों का खाली होना है, अगर दीन की तलब व फिकर उनके अंदर पैदा हो जाए और दीन की अहमियत का एहसास उनके अंदर जिंदा हो जाए तो उनकी इस्लामियत देखते-देखते हरी-भरी हो जाए।*

*❀_ हमारी इस तहरीक़ का असल मक़सद इस वक्त़ बस दीन की तलब व क़दर पैदा करने की कोशिश करना है, ना कि सिर्फ कलमा और नमाज वगैरा का सही करना और तालीम व तरबियत करना।*
     
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*❀_ हमारे काम के तरीक़े में दीन के वास्ते जमातो की शक्ल में घरों से दूर निकलने को बहुत ज़्यादा अहमियत है। इसका खास फ़ायदा यह है कि आदमी इसके ज़रिए अपने पुराने और ठहरे हुए माहौल से निकलकर एक नए नेक और चलने फिरने वाले माहौल में आ जाता है जिसमें उसके दीनी जज़्बात के बढ़ने का बहुत कुछ सामान होता है ।*

*❀_और इस सफर व हिजरत की वजह से जो तरह-तरह की तकलीफें मुसीबतें पेश आती है और दरबदर फिरने में जो ज़िल्लतें अल्लाह के लिए बर्दाश्त करनी होती है उनकी वजह से अल्लाह की रहमत खासतौर से मुतवज्जह हो जाती है।*

*❀_ (जो इस रास्ते में जद्दोजहद करेगा अल्लाह ज़रूर बा ज़रूर उसको हिदायत देगा) _इसी वास्ते इस सफर व हिजरत का ज़माना जिस क़दर लंबा होगा उसी क़दर मुफीद होगा। यह काम दर हक़ीक़त बहुत बड़े दर्जे का है, अफसोस ! कि लोग इसकी हक़ीक़त को समझते नहीं।*
       
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*❀_ हमारे इस काम को समझने और सीखने के लिए सही सही तरतीब यह है कि पहले यहां ( निजामुद्दीन मरकज़ ) आकर कुछ दिन क़याम किया जाए और यहां के रहने वालों (तब्लीग के पुराने जिम्मेदारों) से बातें की जाए, उसके बाद अपनी जगह जाकर काम किया जाए ।*

*❀_यह भी ज़रूरी है कि अपने जिन बड़ों से हम दीनी बरकात हासिल करें उनसे अपना ताल्लुक सिर्फ अल्लाह के लिए रखें और सिर्फ उसी लाइन की उन बातों व कामों और हालात से मतलब रखें। बाकी दूसरी लाइनों की उनकी निजी और घरेलू बातों से बेताल्लुक़ बल्कि बेखबर रहने की कोशिश करें क्योंकि यह अपना-अपना मामला है।*

*❀_ला मुहाला उसमें कुछ कदूरते होंगी और अब आदमी अपनी तवज्जो उनकी तरफ चलाएगा तो वह उसके अंदर भी आएंगी और किसी वक्त एतराज़ भी पैदा होगा जो दूरी और मेहरूमी का सबब हो जाएगा, इसलिए बुजुर्गों की किताबों में सालिक ( सीधे रास्ते पर चलने वालों को ) बुजुर्गों के घरेलू हालात पर नजर ना करने की ताकीद की गई है।*
      
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*❀_इल्म वाले और असर वाले हजरात एक सिलसिला यह शुरू करें कि हर जुमा को पहले से सोच कर तैय कर लिया करें कि हम जुमा फलां मोहल्ले की मस्जिद में पड़ेंगे और इस इंतखाब में गरीब पिछड़ी और जाहिल आबादी का ज्यादा ध्यान रखें,*

*❀_ जैसे जिन मोहल्लों में धोबी, सक्का, तांगा चलाने वाले, कुली और सब्जी बेचने वाले रहते हो ( जिनमें दीन से जहालत और ग़फलत अगरचे बहुत ज़्यादा है लेकिन नाफरमानी और इंकार की हालत पैदा नहीं हुई है) तो ऐसे लोगों की आबादी की मस्जिद पहले से तज्वीज़ कर लें और अपने ताल्लुक वालों और मिलने जुलने वाले लोगों को भी इसकी इत्तेला दे दें और साथ चलने पर भी उन्हें उभारे ।*

*❀_फिर वहां पहुंचकर जुमे की नमाज़ से पहले मोहल्ले में तबलीगी गश्त करके लोगों को नमाज़ के लिए तैयार करके मस्जिद में लाएं, फिर थोड़ी देर के लिए उन्हें रोककर दीन की अहमियत और उसके सीखने की जरूरत समझा कर दीन सीखने के वास्ते तब्लीगी जमात में निकलने की दावत दें।*

*❀_और उनको समझाएं कि इस तरीक़े पर वह कुछ रोज़ में दीन का ज़रूरी इल्म व अमल सीख सकते हैं, फिर इस दावत पर अगर थोड़े से थोड़े आदमी भी तैयार हो जाएं तो किसी मुनासिब जमात के साथ उनको भेजने का बंदोबस्त करें।*
   
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*❀_ अगर किसी जगह के कुछ गरीब लोग तबलीगी जमात के साथ निकलने को तैयार हो जाए और खर्च से मजबूर हो तो कोशिश करके जहां तक हो सके उन्हीं के माहौल से कुछ अमीरों को भी उनके साथ के लिए उठाया (तैयार किया )जाए और उनको यह भी बताया जाए अल्लाह की राह में निकलने वाले गरीबों और कमजोर की इमदाद का अल्लाह के यहां क्या दर्जा है।*

*❀_ लेकिन साथ ही पूरी अहमियत से यह बात भी उनको याद कराई जाए कि अगर वह अपने किसी गरीब साथी की मदद करना चाहें तो उसके उसूल और उसका तरीका इस राह के पुराने तजुर्बेकार काम करने वालों से जरूर मालूम करें और उनके मशवरे से ही यह काम करें ।*

*❀_उसूल के खिलाफ और गलत तरीके पर किसी की मदद करने से किसी वक्त बहुत सी खराबियां पैदा हो जाती हैं, फिर दीन के लिए निकलने वाले गरीब और मजबूर लोगों पर खर्च करने के कुछ उसूल हजरत ने बयान फरमाए और इरशाद फरमाया कि इसको लिख लो।*      
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 *☞_दीन के लिए निकलने वाले गरीब और मजबूर लोगों पर खर्च करने के उसूल -*

*❀_ १_मजबूरों को इस तरह हिकमत से दिया जाए कि वह इसको किसी मुस्तकि़ल सिलसिला ना समझने लगे और उनमें इसराफ पैदा ना होने पाए।*

*❀_ २_ देना "तालीफ" के लिए हो (यानी दीन से लगाव और ताल्लुक़ पैदा करने के वास्ते हो) इसलिए सिर्फ ज़रूरत भर ही तालीफ हो । फिर जैसे-जैसे उनमें दीन की क़दर व तलब और इस काम से ताल्लुक़ व लगाव बढ़ता जाए उसी क़दर माली इमदाद से हाथ खींचा जाए।*

*❀_ और साथ रहने व बातचीत वगैरह के ज़रिए यह जज़्बा उनमें पैदा किया जाए कि वह मेहनत मजदूरी करके यह काम करें या जिस तरह अपनी दूसरी ज़रूरतों के लिए कर्ज़ लेते हैं इसको भी एक अहम ज़रूरत समझ कर मौक़े के हिसाब से इसके लिए क़र्ज़ लें ।*

*❀__ इस रास्ते में दूसरे का एहसानमंद ना होना अजी़मत है, हिजरत के वक्त सिद्दीके अकबर रजियल्लाहु अन्हु जैसे फिदाई ने रसूलुल्लाह ﷺ को ऊंटनी पेश की थी तो हुज़ूर ﷺ ने क़ीमत तैय करके कर्ज़ ली ।*

*❀_ _लेकिन जब तक रग़बत व ताल्लुक का यह जज़्बा पैदा ना हो उस वक्त़ तक मुनासिब तौर पर उनकी माली मदद की जाती रहे।*

*❀_ 3_माली इमदाद के आदाब में से एक यह भी है कि बहुत ही छुपे तौर पर और इज्जत व एहतराम के साथ दिया जाए और देने वाले अमीर लोग दीन की खिदमत में लगे हुए गरीबों के कुबूल कर लेने को उनका अहसान समझे और उनको अपने से बड़ा समझे कि बावजूद तंगी गरीबी के वो दीन के लिए घर से निकलते हैं,*

*❀_ दीन के लिए घर से निकलना हिजरत की सिफात है और उनकी मदद करना नुसरत की सिफात है और अंसार कभी मुहाजिरीन के बराबर नहीं हो सकते।*

*❀_४_ इस रास्ते में काम करने वालों की मदद ज़कात व सदका़त से ज़्यादा तोहफे की सूरत में की जाए। ज़कात व सदका़त की मिसाल हांडी के मेल कुचैल और रद्दी हिस्से की सी है कि उसको निकालना ज़रूरी है वरना सारी हांडियां खराब रहेंगी और तोहफे की मिसाल ऐसे समझो जैसे कि तैयार खाने में खुशबू डाली जाए और उस पर चांदी सोने के वर्क लगा दिया जाएं।* 

*❀_ 5_ दीन के लिए घर से निकलने वालों की मदद की एक सबसे बड़ी सूरत यह भी है कि उनके घर वालों के पास जाकर उनके सौदा वगैरा और उनकी जरूरतों की फिक्र करें और उनको आराम पहुंचाने की कोशिश करें उन्हें बताएं कि तुम्हारे घर के लोग कैसे अज़ीमुश्शान काम में निकले हुए हैं और वह कितने खुशनसीब है,*

*❀_गरज़ यह की खिदमत और तरगीब से इतना मुतमईन करें कि वह खुद अपने घर से निकले हुए लोगों को लिखें कि हम लोग यहां हर तरह आराम से हैं, तुम इत्मिनान के साथ दीन के काम में लगे रहो।*

*❀_6_ माली मदद के सिलसिले में हालात जानने की कोशिश करने की भी ज़रूरत है (यानी दीन के काम में लगे रहने वालों के हालात पर गौर करें और टोह लगाएं कि उनकी क्या ज़रूरत है और उनकी गुजर-बसर कैसी है)।*

*❀_7- हालात जानने की एक सूरत जिसको खासतौर से रिवाज़ देना चाहिए यह है कि बड़े लोग अपनी औरतों को दीन के वास्ते निकलने वाले गरीबों के घरों में भेजा करें। उनसे उन गरीब घर वालों की हौसला अफजाई और दिलदारी भी होगी और उनके अंदरूनी हालात का भी कुछ इल्म होगा।**

*❀_खुदा की राह में खर्च करने पर कुरान और हदीस में दुनियावी बरकात का जो वादा किया गया है ,वह उसका अजर् नहीं है, नेकियों के असल अजर् को तो दुनिया बरदास्त ही नहीं कर सकती, वहां की खास नियामतों की बरदास्त यहां कहां ?*

*❀_ इस दुनिया में तो पहाड़ जैसी सख्त मखलूक और हजरत मूसा अलैहिस्सलाम जैसे बड़े पैगंबर भी एक तजल्ली की ताब ना ला सके।*

*❀_जन्नत के नियामतें अगर यहां भेज दी जाए तो खुशी से मौत वाके़ हो जाए यही हाल वहां के अजाब का है अगर दोजख का एक बिच्छू इस दुनिया की तरफ रुख करें तो यह सारी दुनिया उसके ज़हर के तेजी से सूख जाए।*

*❀_ खुदा की राह में खर्च करने वालों की मिसाल कुराने पाक ने जो उस उस शख्स से दी गई है जिसने एक दाना बोया और उससे 700 दाने पैदा हुए, तो यह मिसाल दुनियावी बरकात की ही है, आखिरत में इसका जो अज्र मिलेगा वह तो बहुत ऊंचा होगा।*
    
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*❀_इस राह में काम करने की सही तरतीब यूं है कि जब कोई क़दम उठाना हो जैसे खुद तबलीग में जाना हो या किसी को भेजना है या शुकूक़ व शुबहात रखने वाले किसी शख्स को मुतमईन करने के लिए उससे मुखातब होने का इरादा हो तो सबसे पहले अपनी ना अहलियत का और बेबसी और वसाइल व असबाब से अपने खाली हाथ होने का ख्याल करके अल्लाह को हाजिर नाजिर और का़दिरे मुतलक़ यकीन करते हुए पूरी गिड़गिड़ाहट व रोने के साथ उससे अर्ज करें :-*

*❀_ कि ऐ अल्लाह ! तूने बारहा बगैर असबाब के भी सिर्फ अपनी पूरी कुदरत से बड़े-बड़े काम कर दिए, इलाही बनी इसराइल के लिए तूने सिर्फ अपने कुदरत से ही समंदर में खुश्क रास्ता पैदा कर दिया, हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के लिए तूने अपनी रहमत और कुदरत ही से आग को गुलजार बना दिया था, और ऐ अल्लाह तूने अपनी छोटी-छोटी मखलूक से भी बड़े-बड़े काम लिए है,अबाबील से तूने अबरहा के हाथियों वाले लश्कर को हार दिलवाई और अपने घर की हिफ़ाज़त फरमाई।*

*❀_ अरब के ऊंट चराने वाले अनपढ़ों से तूने दीन को सारी दुनिया में चमकाया और कैसर व किसरा की हुकूमतों को टुकड़े टुकड़े कर दिया, पस ऐ अल्लाह ! अपनी इस पुरानी सुन्नत के मुताबिक़ मुझ निकम्मे नाकारा और आजिज़ व कमजोर बंदे से भी काम लें ले और मैं तेरे दीन के जिस काम का इरादा कर रहा हूं उसके लिए जो तरीक़ा तेरे नज़दीक सही है मुझे उसकी तरफ रहनुमाई फरमा और जिन असबाब की जरूरत हो वो सिर्फ अपने कु़दरत से अता फरमा दे।*

*❀_बस अल्लाह से यह दुआ मांग कर फिर काम में लग जाएं, जो असबाब अल्लाह की तरफ से मिलता रहे उन से काम लेता रहे और सिर्फ अल्लाह की कुदरत व मदद पर पूरा भरोसा रखे हुए अपनी पूरी कोशिश करते रहे और रो-रोकर उससे मदद और इंजाज़े वाद (कुराने पाक का वादा) की दरखास्त भी करता रहे बल्कि अल्लाह ही को असल समझे और अपनी कोशिश को इसके लिए शर्त और पर्ता समझें।*
     
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*❀_ खुद काम करने से भी ज़्यादा तवज्जों और मेहनत दूसरों को इस काम में लगाने और उन्हें काम सिखाने के लिए करनी चाहिए।*

*❀_ शैतान जब किसी के मुताल्लिक़ यह समझ लेता है कि यह तो काम के लिए खड़ा हो ही गया है और अब मेरे बैठाए बैठने वाला नहीं है तो फिर उसकी कोशिश यह होती है कि खुद तो लगा रहे मगर दूसरों को लगाने की कोशिश ना करें, इसलिए वह इस पर राज़ी हो जाता है कि वह शख्स भलाई के काम में पूरे तौर से इस क़दर मसरूफियत से लग जाए कि दूसरों को दावत पर लगाने का होश ही ना हो ।*

*❀_ इसलिए शैतान को हार इस तरह दी जा सकती है कि दूसरों को उठाने और उन्हें काम पर लगाने और काम सिखाने की तरफ ज़्यादा से ज़्यादा तवज्जो दी जाए और दावत इललखैर और दलालत इललखैर के काम पर अजरों सवाब के जो वादे कुरान व हदीस में फरमाए गए हैं उनका ख्याल और ध्यान करते हुए और उसी को अपनी तरक़्क़ी और तक़र्रूब का सबसे बड़ा ज़रिया समझते हुए इसके लिए कोशिश की जाए।*
           
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            *☞ दीन में ठहराव नहीं _,*

*❀_ या तो आदमी दीन में तरक्की कर रहा होता है और या नीचे गिरने लगता है, इसकी मिसाल यूं समझें कि बाग को जब पानी और हवा मुवाफिक़ हो तो हरियाली व ताज़गी में तरक्की ही करता रहता है और जब मौसम मुवाफिक़ ना हो या पानी ना मिले तो ऐसा नहीं होता कि यह हरियाली और ताज़गी अपनी जगह पर ठहरी रहे बल्कि उसमें कमी शुरू हो जाती है । यही हालत आदमी के दीन की होती है।*

*❀_ लोगों को दीन पर लाने और दीन के काम में लगाने की तरकीबें सोचा करो (जैसे दुनिया वाले अपने दुनियावी मका़सिद के लिए तरकीबें सोचा करते हैं) और जिसको जिस तरह से मुतवज़्जह कर सकते हो उसके साथ उसी रास्ते से कोशिश करो।*

*❀_ तबीयत मायूसी ना उम्मीदी की तरफ ज़्यादा चलती है क्योंकि मायूस हो जाने के बाद आदमी अपने को अमल का ज़िम्मेदार नहीं समझता और फिर उसे कुछ करना नहीं पड़ता। खूब समझ लो यह नफ्स और शैतान का बड़ा धोखा है।*

*❀_ असबाब की कमी पर नज़र डालकर मायूस हो जाना इस बात की निशानी है कि तुम असबाब परस्त हो और अल्लाह के वादों और उसकी गैब की ताकतों पर तुम्हारा यक़ीन बहुत कम है।अल्लाह पर भरोसा करके और हिम्मत करके उठो तो अल्लाह ही असबाब पैदा करते हैं वरना आदमी खुद क्या कर सकता है, मगर हिम्मत और ताकत भर कोशिश शर्त है।*     
   
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      *☞ _गैर क़ौमों की पैरवी ना करें,*

*❀_ ज़रा सोचो तो ! जिस क़ौम के आसमानी उलूम (यानी हजरत मसीह अलैहिस्सलाम का लाया हुआ इल्म) का चिराग, उलूमें मोहम्मदी ( क़ुरान व सुन्नत) के सामने बुझ गया बल्कि अल्लाह की तरफ से मनसूख कर दिया गया।*

*❀_ और बराहे रास्त उससे रोशनी हासिल करने को साफ मना फरमा दिया गया। उसी क़ौम की अहवा व अमानी ( यानी उन ईसाई क़ौमों के अपने खुद के बनाए हुए नज़रियों, तरीकों ) को इस कुरान व सुन्नत के हामिल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्मत का अख्त्यार कर लेना और उसको सही काम का तरीक़ा समझना कितना बुरा और किस क़दर अल्लाह को गुस्सा दिलाने वाला होगा ?*

*❀_ और अक़्ल के हिसाब से भी यह बात कितनी ग़लत है कि उम्मत वही ( कुरान व सुन्नत) के महफूज़ होते हुए भी (जिसमें जिंदगी के तमाम इंफ्रादी व इज्तिमाई शोबों के मुताल्लिक़ पूरी हिदायतें मौजूद हैं) गैर क़ौमों के तौर-तरीकों की पैरवी की जाए, क्या यह उलूमें मुहम्मदी की नाक़दरी नहीं है ?*
     
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  *☞ _बहुत सादा और नाज़ुक काम है ,*

*❀ _हम जिस दीनी काम की दावत देते हैं जाहिर में तो यह बड़ा सादा सा काम है लेकिन हक़ीक़त में बड़ा नाज़ुक काम है क्योंकि यहां मक़सूद सिर्फ करना कराना ही नहीं है बल्कि अपनी कोशिश करके अपनी मजबूरी का यक़ीन और अल्लाह ताला की कु़दरत व मदद पर भरोसा पैदा करना है ।*

*❀_अल्लाह का तरीका यही है कि अगर अल्लाह की मदद के भरोसे पर अपनी सारी कोशिशें हम करें तो अल्लाह ताला हमारी कोशिश और हरकत ही में अपनी मदद को शामिल कर देते हैं।*

*❀ _अपने को बिल्कुल बेकार समझ कर बैठे रहना तो "जबरियत" है और अपनी ही ताक़त पर भरोसा करना "क़दरियत" करना है ( और यह दोनों गुमराहियां है) और सही इस्लाम इन दोनों के दरमियान है। यानी अल्लाह ताला ने मेहनत और कोशिश को जो हकीर सी ताकत और सलाहियत हमें दे रखी है ,अल्लाह के हुक्म को पूरा करने में उसको तो पूरा पूरा लगा दें और इसमें कोई कसर न छोड़ें ।*

*❀_लेकिन नतीजे के पैदा करने में अपने को बिल्कुल आजिज़ और बे -बस यक़ीन करें और सिर्फ अल्लाह ताला की मदद ही पर भरोसा करें और सिर्फ उसी को काम करने वाला समझे। फरमाया - नबी करीम सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम के नमूने से इसकी पूरी तफसील मालूम की जा सकती है, मुसलमानों को हमारी दावत बस यही है ।*

*💤 हज़रत मौलाना मंजूर नोमानी रह. की तशनीफ शुदा मलफूज़ात (हज़रत जी मौलाना इल्यास रह.) से मज़कूर,*
  
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         *☞ _जियारत का मफहूम,*

*❀_ पंजाब के एक दीनदार मुसलमान का जिक्र करते हुए फरमाया :- वह जब पहली दफा आए तो इत्तेफाक से मैं उस वक्त इब्ने माजा शरीफ का सबक पढ़ा रहा था। उन्होंने सलाम किया, मैंने हदीस के दर्श में मशगूलियत की वजह से जवाब नहीं दिया,*

*❀_फिर वह वहीं बैठ गए और थोड़ी देर के बाद (सबक ही के दौरान ) उन्होंने कहा कि मैं फलां जगह से आया हूं , मैंने उसका भी कोई जवाब नहीं दिया ।*

*❀_कुछ देर बाद वह उठकर चलने लगे तो अब मैंने उनसे पूछा कि आप क्यों आए थे ? उन्होंने कहा कि "जि़यारत" के लिए । मैंने कहा जिस ज़ियारत की हदीस में तरगीब और फजी़लत आई है वह यह नहीं है कि किसी की सिर्फ सूरत देख ली जाए तो यह ऐसा है जैसे किसी की तस्वीर देख ली ।*

*❀_ शरई जियारत यह है कि उसकी बात पूछी जाए उसकी सुनी जाए और आपने तो ना कुछ कहीं और ना मेरी कुछ सुनी _," उन्होंने कहा कि क्या मैं ठहर जाऊं ? मैंने कहा जरूर। चुनांचे वह ठहर गए और फिर जब उन्होंने मेरी बात को सुना और समझा और यहां के काम को देखा तो अपने बड़े भाई.....को बुलाया ।*

*❀_अगर मैं उसी वक्त उसी तौर पर थोड़ी बात उनसे कर लेता तो जो कुछ बाद में हुआ कुछ भी ना होता और बस वो जियारत ही करके चले जाते।*

*❀_फरमाया :- ज़माने के बदलने से दीनी इस्तिलात के मायने भी बदल गए और उनकी रूह निकल गई। दीन में मुस्लिम की मुस्लिम से मुलाक़ात की फजीलत इसलिए है कि उनमें दीन की बातें हों, जिस मुलाकात में दीन का कोई जिक्र ना हो वह बे-रूह है ।* 

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           *☞ _इसलाह की तरतीब,*

*❀_ हमारे नज़दीक इसलाह की तरतीब यूं है कि ( कलमा ए तय्यबा के जरिए ईमानी मुहाइदों को ताज़ा करने के बाद) सबसे पहले नमाजो़ं की दुरुस्तगी और पूरे होने की फिक्र की जाए, नमाज़ की बरकत पूरी ज़िंदगी को सुधारेगी। नमाज़ ही के सलाह और कमाल से बाक़ी ज़िंदगी पर सलाहियत और कमाल का फैज़ान होता है।*

*❀_ हमारी इस दीनी दावत में काम करने वाले सब लोगों को यह बात अच्छी तरह समझा देनी चाहिए कि तबलीगी जमातों के निकलने का मक़सद सिर्फ दूसरों को पहुंचाना और बताना ही नहीं बल्कि इसके ज़रिए से अपनी इसलाह और अपनी तालीम व तरबियत भी मक़सूद है, इसलिए निकलने के ज़माने में इल्म और ज़िक्र में मशगूलियत का बहुत ज्यादा अहतमाम किया जाए।*

*❀_ दीन के इल्म और अल्लाह के जिक्र के अहतमाम के बगैर निकलना कुछ भी नहीं है, फिर यह भी ज़रूरी है कि इल्म व जिक्र में मशगूलियत इस रास्ते के अपने बड़ों से ताल्लुक़ रखते हुए और उनकी हिदायत व निगरानी में हो, अंबिया अलैहिस्सलाम का इल्म व ज़िक्र अल्लाह ताला के ज़ेरे हिदायत था और सहाबा किराम की हुजूर ﷺ पूरी पूरी निगरानी फरमाते थे,*

*❀_इसलिए हर ज़माने के लोगों ने अपने बड़ों से इल्म व ज़िक्र लिया और उनकी निगरानी और रहनुमाई में पूरी तरह सीखा। ऐसे ही आज भी हम अपने बड़ों की निगरानी के मोहताज हैं, वरना शैतान के जाल में फंस जाने का बड़ा डर है।*
      
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*☞_ जो अल्लाह की रहमत व मदद की उम्मीद ना रखें गुनहगार है,*

*❀_ दोस्तों ! हमारा यह काम (इस्लाही व तबलीगी कोशिश ) एक तरह का तसखीर का अमल है (यानी जो कोई इस काम में लगेगा और उसको अपनी धुन बना लेगा अल्लाह ताला उसके काम बनाता रहेगा) अगर तुम अल्लाह के काम में लगोगे तो ज़मीन व आसमान और फिज़ां की हवाएं तुम्हारे काम अंजाम देंगी ।*

*❀_ तुम अल्लाह के दीन के लिए घर और कारोबार छोड़ कर निकले थे अब आंखों से देख लेना कि तुम्हारे कारोबार में कितनी बरकत होती है अल्लाह की मदद करके जो उसकी मदद व रहमत की उम्मीद ना रखे वह गुनाहगार और बद नसीब है।( आखिरी जुमला आपने ऐसे अंदाज़ और इतने जोश में कहा कि मजलिस में हाज़िर रहने वालों के दिल हिल गए)*

*❀_ हमारे इस काम की सही तरतीब तो यही है कि पहले क़रीब क़रीब जाया जाए और अपने माहौल में काम करते हुए आगे बढ़ा जाए लेकिन कभी-कभी काम करने वालों में पक्का इरादा और काम की पुख्तगी पैदा करने के लिए शुरू में दूर-दूर भेज दिया जाता है इन लंबे सफरों से पक्का इरादा और काम का इश्क पैदा होगा ।*

*❀_ हमारे इस काम में फैलाव से ज्यादा रुसूख (पहुंच) अहम है, लेकिन इस काम का तरीक़ा ऐसा है कि रूसूख के साथ ही फैलाव भी होता जाएगा क्योंकि रुसूख बगैर इसके पैदा ही नहीं होगा कि इस दावत को लेकर शहरों शहरों और मुल्कों मुल्कों फिरा जाए ।*
      
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*☞_ एक नियाज़मंद से एक दिन फरमाया (जिनको तबलीग के अलावा किताबें और मजमून वगैरह लिखना उनका खास काम था)*

*❀__ मैं अब तक इसको पसंद नहीं करता था कि इस तबलीगी काम के सिलसिले में कुछ ज्यादा लिखा पढ़ा जाए और तहरीर के जरिए इसकी दावत दी जाए बल्कि में इसको मना करता रहा लेकिन अब मैं कहता हूं कि लिखा जाए और तुम भी खूब लिखो मगर फलां फलां काम करने वालों को मेरी यह बात पहुंचा कर उनकी राय भी ले लो (चुनांचे उन नामजद हजरात को हजरत की यह बात पहुंचाकर मशवरा तलब किया गया ,उन हजरात ने अपनी राय जाहिर की कि इस बारे में अब तक जो तरीका़ रहा है वहीं अब भी रहे हमारे नज़दीक यही बेहतर है),*

*❀_पहले हम बिल्कुल कश्म पुर्सी की हालत में थे कोई हमारी बात सुनता नहीं था और किसी की समझ में हमारी बात नहीं आती थी उस वक्त यही ज़रूरी था कि हम खुद ही चल फिर कर लोगों में तलब पैदा करें और अमल से अपनी बात समझाएं, उस वक्त अगर तहरीर के ज़रिए आम दावत दी जाती तो लोग कुछ का कुछ समझते और अपने समझने के मुताबिक़ ही राय का़यम करते और अगर बात कुछ दिल को लगती तो अपनी समझ के मुताबिक़ कुछ सीधी कुछ उल्टी उसके काम की शक्ल बना लेते और फिर जब नतीजे ग़लत निकलते तो (दावत को) ग़लत कहते।*

*❀_इसलिए हम यह बेहतर नहीं समझते कि लोगों के पास तहरीर के जरिए दावत पहुंचे लेकिन अल्लाह के फज़ल व करम और उसकी मदद से अब हालात बदल चुके हैं हमारी बहुत सी जमाते मुल्क के चारों तरफ निकलकर काम का तरीक़ा दिखला चुकी है और अब लोग काम पर तालिब बन कर खुद हमारे पास आते हैं और अल्लाह ताला ने हमें इतने आदमी दे दिए हैं कि अगर अलग-अलग सिम्तों में तलब (मांग) पैदा हो और काम सिखाने के लिए जमातों की ज़रूरत हो तो जमाते भेजी जा सकती हैं, तो अब इन हालात में भी कश्म पुर्सी वाले शुरू ज़माने ही के काम के तरीक़े से हर हर हिस्से पर जमे रहना ठीक नहीं इसलिए मैं कहता हूं कि तहरीर के ज़रिए भी दावत देनी चाहिए ।,*
   
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*☞_अपने बड़ों से काम क़दर के साथ लो,*

*❀_ अब यह कहना छोड़ दो कि 3 दिन दो या 5 दिन दो या 7 दिन दो, बस यह कहो कि रास्ता यह है जो जितना करेगा उतना पाएगा इसकी कोई हद नहीं, कोई सिरा नहीं है।*

*❀_रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम का काम सब नबियों से आगे हैं और हजरत अबू बकर रजियल्लाहु अन्हु की एक रात और 1 दिन के काम को हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हु नहीं पा सके , फिर इसकी हद ही क्या है ? यह तो सोने की खान है जितना खोदोगे उतना निकलेगा।*

*❀_जज्बात और दिल का रुख बदले बगैर जिंदगी के काम बदलवाने की कोशिश गलत है, सही तरीका यह है कि लोगों के दिलों को अल्लाह की तरफ फैर दो, फिर उनकी पूरी जिंदगी अल्लाह के हुक्म के मातहत हो जाएगी । ला इलाहा इल्लल्लाह का यही मक़सद है और हमारी मेहनत की यही बुनियाद है।*

*❀_लोगों से दीन पर अमल कराने के लिए पहले उन्हें हकी़की़ ईमान, आखिरत की फिक्र और दीन की क़दर पैदा करो। अल्लाह का इनाम बहुत है मगर उसके यहां गैरत भी है, वो ना- क़द्रों को नहीं देता।*

*❀_तुम भी अपने बड़ों से दीन को क़दर के साथ लो और इस क़दर का तकाज़ा यह भी है कि उनको अपना बहुत बड़ा मोहसिन समझो और पूरी तरह उनकी ताज़ीम करो । यही मंशा है उस हदीस का जिसमे फरमाया गया है कि जिसने अपने मोहसिन का शुक्र अदा ना किया उसने अल्लाह का भी शुक्र अदा नहीं किया।*
   
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*☞_इल्म और अमल का जोड़ हो (देवबंद के तल्बा से खिताब ):-*

*❀_ दूसरी बात यह है कि हमेशा इस फिक्र में लगे रहो और इस फिक्र के बोझ के साथ जिंदगी गुज़ारों कि जो कुछ पढ़ा है और जो पढ़ेंगे उसके मुताबिक़ जिंदगी गुजारेंगे, इल्मे दीन का यह पहले ज़रूरी हक़ है।*

*❀_ दीन कोई फन और फलसफा नहीं है बल्कि ज़िंदगी गुजारने का वो तरीक़ा है जो अंबिया अलैहिस्सलाम लेकर आए। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उस इल्म से जो अमल पर ना डालें पनाह मांगी है और इसके अलावा भी आलिम बे अमल के लिए जो सख्त सज़ा देने की वईदे कुरान व हदीस में आई हैं वह आप के इल्म में है।*

*❀_यह भी समझ लेना चाहिए कि आलिम बे अमली नमाज ना पढ़ना और रोज़ा ना रखना, नहीं , यह तो आम लोगों के आम गुनाह है, आलिम के गुनाह यह है कि वह इल्म पर अमल ना करें और उसका हक़ अदा ना करें।क़ुरआने करीम में अहले किताब उलमा के मुताल्लिक फरमाया ,"उनके वादा तोड़ने की वजह से हमने उनको लानत की उनके दिलों को सख्त कर दिया_,"*

*❀_ अल्लाह की बातों को फैलाने की कोशिशों में जान देने के शौक को जिंदा करें और इसका तरीका़ सीखे और इस पर अल्लाह ताला की तरफ से जो वादे हैं यक़ीन के साथ उनसे उम्मीदें लगाते हुए और उसके गैर से बिल्कुल उम्मीद ना लगाते हुए बल्की गैरों से उम्मीदें खत्म करते हुए काम करना सीखें।*

*❀__जितनी ज़रूरत इसकी है कि अल्लाह से उम्मीद रखी जाए, उतनी ही ज़रूरत इस कोशिश की है कि अल्लाह के अलावा गैरों से उम्मीद ना रखी जाए बल्कि बिल्कुल नजरअंदाज करके काम करने की मश्क की जाए। हदीस में है कि जो लोग गैरों से कुछ उम्मीद कर अच्छे काम करेंगे क़यामत में उनसे कह दिया जाएगा कि जाओ उन्हीं से जाकर अपना अजर लो।* 

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*☞_ अपनी क़द्र करो( देवबंद के तल्बा से फरमाया):-*

*❀_ तुम अपनी क़द्र व क़ीमत तो समझो, दुनिया भर के ख़ज़ाने भी तुम्हारी क़ीमत नहीं, अल्लाह ताला के सिवा कोई भी तुम्हारी क़ीमत नहीं लगा सकता तुम अंबिया अलैहिमुस्सलाम के नायब हो जो सारी दुनिया से कह देते हैं।*

*❀_ तुम्हारा काम यह है कि सबसे उम्मीदों को खत्म करते हुए और सिर्फ अल्लाह के अजर पर यक़ीन व भरोसा रखते हुए तवज्जो और तज़ल्लुल (अपने को कम और पस्त समझना) से ईमान वालों की खिदमत करो, इसी से अब्दियत की तकमील व तज़ईन होगी।*

*❀_ अल्लाह ताला ने ज़ाहिर व बातिन की जो ताक़तें हमें दी हैं मसलन फिक्र व राय और हाथ-पांव. यह सब अल्लाह ताला का इनाम है और अल्लाह के कामों में और उसके दीन के लिए इन चीज़ों का इस्तेमाल करना भी इसमें शामिल है।* 
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*☞_ अपनी ताकतों का सही इस्तेमाल हो,*

*❀__अल्लाह ने जो ज़ाहिर व बातिन की ताकतें अता फरमाई हैं उनका सही इस्तेमाल यह है कि उनको उसी काम में लगाया जाए जिसमें हुजूर सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने अपनी ताक़त लगाई और वह काम है अल्लाह के बंदों को और खास कर गाफिलों और बेतलबों को अल्लाह की तरफ लाना और अल्लाह की बातों को फैलाने के लिए जान को बे क़ीमत करने का रिवाज देना।*

*❀__यह काम अगर होने लगे (अल्हम्दुलिल्लाह आज हालात बन चुके हैं )तो अबसे हजारों गुना ज्यादा मदरसे और हजारों गुना ज्यादा ही खानका़हे क़ायम हो जाए बल्कि हर मुसलमान मदरसा और खानका़ह हो जाए और हुजूर सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम की लाई हुई नियामतें इस आम अंदाज़ में बटने लगे जो उसकी शान के मुताबिक है।*

*❀__अल्लाह का काम करने और उसकी मदद के मुस्तहिक होने की शर्तों में से यह है कि आदमी अपने आप को आजिज़ व लाचार समझे और सिर्फ अल्लाह ही को काम बनाने वाला यक़ीन करें इस के बगैर मदद नहीं होती, हदीस पाक में है मैं उन्हीं के साथ हूं जिनके दिल टूटे हुए हैं।*

*❀__हर मुसलमान के लिए उसकी ना मौजूदगी में दुआ करना हकीकत के लिए दुआ करना है, हदीस में है कि जब कोई मुसलमान अपने किसी मुसलमान भाई के लिए खैर व फलाह की कोई दुआ करता है तो अल्लाह के फरिश्ते कहते हैं कि अल्लाह के बंदे यही चीज अल्लाह तुझे भी दे।* 
      
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             *☞_ खैरियत का मैयार,*

*❀_ हमारे इस काम (दावत तबलीग ) मे इखलास और सच्चे दिल के साथ इज्तिमाइयत और मिलजुलकर आपसी मशवरे से काम करने की बड़ी जरूरत है और इसके बगैर बड़ा खतरा है।*

*❀_ हजरत फारूक़े आज़म रजियल्लाहु अन्हु हजरत अबू उबैदा और हजरत अब्बास रजियल्लाहु अन्हु से फरमाते थे कि मैं तुम्हारी निगरानी से बेनियाज़ नहीं हूं ।मैं भी आप लोगों से यही कहता हूं कि मेरे हालात पर नज़र रखिये और जो बात टोेकने की हो उस पर टोकिये ।*

*❀_ हज़रत फारूक़े आज़म रजियल्लाहु अन्हु के गवर्नरों के पास से जब कोई क़ासिद आते तो आप उनसे गवर्नरों की खैरियत पूछते और उनके हालात मालूम करते, लेकिन इसका मतलब दीनी खैरियत और दीनी हाल पूछना होता था ना कि आजकल के रिवाज़ के मुताबिक मिज़ाज पुरसी।*

*❀_चुनांचे एक गवर्नर के पास से आने वाले क़ासिद से जब आपने गवर्नर की खैरियत पूछी तो उन्होंने कहा-" वहां खैरियत कहां है मैंने तो उनके दस्तरखान पर दो-दो सालन जमा देखें। गोया कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम जिस तर्ज़े ज़िंदगी पर सहाबा किराम को छोड़ गए थे बस उस पर क़ायम रहना ही इन हजरात के नज़दीक खैरियत का मैयार था ।*
 
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 *☞_ दीन के लिए कम से कम पसीना तो बहाओ,*

*❀__ अल्लाह से उसका फज़ल व रिज़्क़ वगैरा मांगना तो फ़र्ज़ है और अपनी इबादत व खिदमत वगैरह का दुनिया ही में बदला चाहना हराम है ।*

*❀_ तमाम गुनाह कुफ्र ही की शाखें हैं और उसकी औलाद हैं और इसी तरह तमाम नेकियां ईमान की आल औलाद है, हमारी यह तहरीक दर हक़ीक़त ईमान की तजदीद ( ताज़ा करना ) और उसकी तकमील की तहरीक है।*

*❀_दीनी कामों को बे मक़सद या अल्लाह के हुक्म की इता'त के साथ और अल्लाह की रज़ा और आखिरत के सवाब के सिवा किसी और मक़सद के लिए करना भी दीन का लहु व लइब ( नाजायज़ खेलकूद) बनाना है।*

*❀_फरमाया- जिन जगहों को हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जानों की बाज़ी लगाकर और सहाबा किराम ने दीन की राह में अपने को मिटाकर जो कुछ हासिल किया था तुम लोग उसको आराम से लेटे लेटे किताबों से हासिल कर लेना चाहते हो, जो इनामात और नतीजे खून से वाबस्ता थे उनके लिए कम से कम पसीना गिराना तो चाहिए।*

*❀_ वहां हाल यह था कि हजरत अबू बकर व हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हुम भी दीन की राह में अपने को मिटा देने के बावजूद और हुजूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की खुली हुई और यकी़नी खुशखबरियों के बावजूद इस दुनिया से रोते रोते हुए गये ।*
    
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 *☞_ निकलने के ज़माने की मेहनत,*

*❀_ यह भी जरूरी है कि खासतौर से निकलने के ज़माने में सिर्फ अपने खास कामों में मशगूलियत रहे और दूसरे तमाम कामों से अलग रहा जाए ।*

*❀_वह खास काम तबलीगी गश्त, इल्म व जिक्र ,दीन के लिए घर छोड़कर निकलने वाले अपने साथियों की खास तौर से और अल्लाह ताला की आम मखलूक़ की आम तौर से खिदमत की मश्क ।*

*❀_ ५-नियत का सही होना और इखलास व अहतसाब (अपना मुहासबा करना) का अहतमाम और इत्तिहामे नफ्स ( नफ्स की शिरकत की तोहमत) के साथ बार-बार इखलास व अहतसाब की तजदीद करना।*

*❀_यानी इस काम के लिए निकलते वक्त भी ख्याल करना और सफर के दरमियान में भी बार बार इस ख्याल को ताज़ा करते रहना कि हमारा यह निकलना सिर्फ अल्लाह के लिए और उन आखिरत की नियामतों के लालच में है जिन का वादा दीन की मदद करने और इस रास्ते की तकलीफे उठाने पर फरमाया गया है।*

*❀_यानी बार-बार इस ध्यान को दिल में जमाया जाए कि अगर मेरा यह निकलना खालिस हो गया और अल्लाह ताला ने उसको क़ुबूल फरमा लिया तो अल्लाह ताला की तरफ से मुझे वो नियामतें ज़रूर मिलेंगी जिनका वादा इस काम पर कु़राने पाक और हदीस में फरमाया गया है और वह यह होंगी।*

*❀_बहरहाल इन अल्लाह के वादों पर यक़ीन और इनकी उम्मीद के ध्यान को बार-बार ताज़ा किया जाए और अपने सारे अमल को उसी यक़ीन और उसी ध्यान से बांधा जाए , बस इसी का नाम " ईमान व अहतसाब " है और यही हमारे आमाल की रूह है।*
 
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     *☞_ मिस्कीन गरीबों की क़द्र करो,*

*❀_ इस सिलसिले का एक उसूल यह है की आजा़द रवि और खुद राय (मनमर्जी ) ना हो बल्कि अपने को बड़ों के मवशरों का पाबंद रखो जिन पर दीन के बारे में उन अका़बिरीन ने भरोसा जाहिर किया जिनका अल्लाह के साथ खास ताल्लुक़ जाना और मना रहा है।*

*❀_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम के बाद सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम का पैमाना यही था कि उन्हीं अक़ाबिर पर ज़्यादा भरोसा करते थे जिन पर हुजूर सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम खास भरोसा फरमाते थे और फिर बाद में वो हजरात ज्यादा भरोसे के क़ाबिल समझे गये जिन पर हजरत अबू बकर और हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हुम ने भरोसा फरमाया था,*

*❀_दीन में भरोसे के लिए बहुत होशियारी और बेदारी के साथ इंतखाब (चुनाव) ज़रूरी है वरना बड़ी गुमराहियों का भी खतरा है, आमतौर पर काम करने वाले लोग बड़े आदमियों और नुमाया हस्तियों के पीछे लगते हैं और अल्लाह के गरीब और खस्ताहाल बंदे अगर खुद भी आ जाएं तो उनकी तरफ मुतवज्जह नहीं होते, यह माद्दियत है।*

*❀_खूब समझ लो जो खुद-ब-खुद तुम्हारे पास आ गया वह अल्लाह का दिया हुआ और उसका भेजा हुआ है और जिसके पीछे लग कर तुम उसे लाए वह तुम्हारी कमाई है। जो अल्लाह की खालिस अता हो उसकी क़द्र अपनी कमाई से ज्यादा होनी चाहिए ।*
 
*❀_जरा सोचो तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने दुआ की थी, ऐ अल्लाह , मुझे मिस्कीन की हालत में जिंदा रख और मिस्कीनी की हालत में मुझे मौत दे और क़यामत के रोज़ गरीबों की जमात में मुझे उठा।*
     
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          *☞__औरतों से खिताब,*

*❀_ हजरत गंगोही नवरल्लाहु मरक़दहु के नवासे हज़रत हाफ़िज़ मौहम्मद याक़ूब साहब गंगोही अपने घराने की औरतों के साथ हज़रत की जियारत व इयादत के लिए तशरीफ लाए। हज़रत ने पर्दे के पीछे से उनको खिताब करते हुए फरमाया ( मुख्तसर जुमलों में लिखा है )*

*❀_ मुझे दीन की नियामत आप ही के घराने से मिली है, मैं आपके घर का गुलाम हूं, गुलाम के पास अगर कोई चीज़ आ जाए तो उसे चाहिए कि तोहफे में अपने मालिक के सामने पेश कर दे, मुझ गुलाम के पास आप ही के घर से हासिल किया हुआ वुरासते नबुवत का तोहफा है इसके सिवा और इससे बेहतर मेरे पास कोई सौगात नहीं है जिसे मैं पेश कर सकूं।*

*❀_दीन क्या है? हर मौक़े पर अल्लाह के हुक्मों को तलाश करते हुए और उनका ध्यान करते हुए और अपने नफ्स के तक़ाज़ों की मिलावट से बचते हुए उनको पूरा करने में लगे रहना और अल्लाह के हुक्मों की तलाश और ध्यान के बगैर कामों में लगना ही दुनिया है।*

*❀_मैं औरतों से कहता हूं कि दीनी काम में तुम अपने घर वालों की मददगार बन जाओ , उन्हें इत्मीनान के साथ दीन के कामों में लगने का मौक़ा दे दो और घरेलू कामों का उनका बोझ हल्का कर दो ताकि वह बेफिक्र होकर दीन का काम करें, अगर औरतें ऐसा नहीं करेंगी तो हिबालतुस शैतान हो जाएंगी ( यानी शैतान का जाल व फंदा)*

*❀_ दीन की हक़ीक़त है जज्बात को अल्लाह के हुक्म का पाबंद करना, सिर्फ दीनी मसाईल के जानने का नाम दीन नहीं है, यहूदी उलमा दीन की बातें और शरीयत को बहुत जानते थे लेकिन अपने जज़्बात को उन्होंने अल्लाह के हुक्म का पाबंद नहीं किया था इसलिए मगबूज़ और मरदूद हो गए।* 
  
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      *☞_अल्लाह के दीन की मदद करो,*

*❀_ इसी बातचीत के दौरान हज़रत से किसी मामले में दुआ की दरख्वास्त की गई तो फरमाया :- जो कोई अल्लाह का तक़वा अख्तयार करें यानि जज़्बात को अल्लाह के हुक्मों के ताबे कर दे तो फिर अल्लाह ताला उसकी तमाम मुश्किलें गैब के पर्दे से हल करते हैं और ऐसे तरीकों से उसकी मदद करते हैं कि खुद उसे वहम व गुमान भी नहीं होता।*

*❀_ अल्लाह की खास मदद हासिल करने की यक़ीनी और शर्तिया तरतीब यह है कि उसके दीन की मदद की जाए।*

*❀_ " इन तंसुरुल्लाहा यनसुरूकुम " अगर तुम अल्लाह के दीन की मदद करो तो हलाक करने वाली चीज़ें तुम्हारे लिए ज़िंदगी और आराम का सामान बन जाए। हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने जी जान से अल्लाह के दीन की मदद की, अल्लाह ने आग को गुलज़ार बना दिया, ऐसे ही हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और उनकी क़ौम को उस दरिया ने जिसकी खासियत डुबोना है सलामती के साथ साहिल तक पहुंचा दिया।*
 
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 *☞_*२ जमादिल उला १३६३ ( २५-४-१९९४) हिजरी, देवबंद के तल्बा को खिताब,*

*❀_अपने तमाम उस्तादों की इज्जत और उन सब का अदब व एहतराम आपका खास और बड़ा फर्ज है, आपको उनकी ऐसी इज्जत करनी चाहिए जैसे कि दीन के इमामों की की जाती है। वो आप लोगों के लिए नबवी इल्म के हासिल करने का ज़रिया है अगर उनके दरमियान कुछ निज़ा'ते ( झगड़े ) भी हो तब भी अदब व इज्जत का ताल्लुक सबके साथ बराबर रहना चाहिए चाहे मोहब्बत व अक़ीदत किसी के साथ कम और किसी के साथ ज्यादा हो लेकिन ताज़ीम में फर्क ना आना चाहिए और दिल में उनकी तरफ से बुराई ना आना चाहिए।*

*❀_कुरान मजीद ने तो हर मोमिन का यह हक़ आपको बताया है कि उनकी तरफ से अपने दिलों को साफ रहने के अल्लाह ताला से दुआ की जाया करे, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम फरमाया करते थे ,तुममें से कोई मुझे एक दूसरे की बात ना पहुंचाया करें मैं चाहता हूं कि मैं जब तुम्हारे पास आऊं तो मेरा सीना सब की तरफ से साफ हो।*

*❀_ इन चीजों का अज्र ( यानी छोटे बड़ों के हुकूक की रियायत) अरकान से कम नहीं है बल्कि ज्यादा ही है, उनके हुक़ूक़ की अदायगी का मामला बहुत अहम है और फिर इस दर्जे मे इल्मे दीन के उस्तादों के हुक़ूक़ का मामला ज्यादा नाजुक है ।*
    
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 *☞__कुफ्र ताक़तवर है , इस्तिमाई कोशिश होनी चाहिए,*

*❀__ पसंद को मुबाशरत के बराबर समझना बड़ा धोखा है और शैतान यही करता है कि आदमी को पसंद पर ही का़ने (काफी समझने वाला ) बना देता है । इस इरशाद का मतलब यह है कि किसी अच्छे काम को सिर्फ अच्छा समझ लेने से उस काम में शिरकत नहीं होती बल्कि उसमें लगने और उसको करने से उसका हक़ अदा होता है ।*

*❀__ लेकिन बहुत से लोगों को शैतान यह धोखा देता है कि वह काम से मुत्तफिक हो जाने को काम में लग जाना और शामिल होना समझने लगते हैं ,यह शैतान का बड़ा धोखा है।*

*❀__ हमारी यह तहरीक दुश्मनों को भी दोस्त बनाने वाली है ,आ जाए जिसका जी चाहे ।*

*❀__ भाई ! इस वक्त कुफ्र व इलहाद बहुत ताकतवर है ऐसी हालत में मुंतशिर और इंफ्रादी इस्लाही कोशिशों से काम नहीं चल सकता । इसलिए पूरी ताकत के साथ इस्तिमाई कोशिश होनी चाहिए ।*

*❀__कायनात को तुम्हारा खादिम इसलिए बनाया गया था कि तुम अल्लाह ताला का काम करो और उसकी इता'त व बंदगी और उसकी मर्जी के फरोग में लगे रहो, जब तुमने अपना फ़र्ज़ छोड़ दिया तो ज़मीन व आसमान भी तुमसे फिर गए,* 
 
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         *☞__हकी़क़ते इल्म व ज़िक्र,*

*❀__ इल्म व जिक्र को मजबूती से थामने की ज़्यादा जरूरत है, मगर इल्म व जिक्र की हक़ीक़त अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। जिक्र की हक़ीक़त है लापरवाही ना होना और दीनी फरायज़ की अदायगी में लगे रहना, सबसे ऊंचे दर्जे का जिक्र है ।*

*❀_इसलिए दीन की मदद और उसके फैलाने की कोशिश में लगे रहना जिक्र का ऊंचा दर्जा है बशर्ते कि अल्लाह के हुक्मों और वादों का ख्याल रखते हुए हो।*

*❀_ और निफ्ली जिक्र इस वास्ते हैं कि आदमी के जो औका़त फराइज़ में मशगूल ना हो वह बेकार बातों में ना गुज़रे, शैतान यह चाहता है कि फराइज़ में लगने से जो रोशनी पैदा होती है और जो तरक्की हासिल होती है वह बेकार बातों में लगा के उसको बर्बाद कर दे इससे हिफाज़त के लिए निफ्ली जिक्र है।*

*❀_गर्ज़ कि फराइज़ से जो वक्त फारिग हो उसको निफ्ली जिक्र से पूरा किया जाए ताकि शैतान बेकार बातों में मशगूल करके हमें नुकसान न पहुंचा सके।*

*❀_ और निफ्ली जिक्र का एक खास अहम फायदा यह भी है कि इससे आम दीनी कामों में जिक्र की शान पैदा होती है और अल्लाह के हुक्म के पूरा करने में और उसके वादों के शौक में काम करने की महारत पैदा होती है।* 
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         *☞_सिर्फ जान लेना इल्म नहीं है,*

*❀_ फराइज़ में लगना यहां तक कि नमाज में पढ़ना भी अगर अल्लाह के हुक्म और वादों के ध्यान के साथ ना हो तो असली जिक्र नहीं बल्कि जिस्म के कुछ हिस्सों का जिक्र है और दिल की गफलत है और हदीस में दिल ही के मुताल्लिक है कि इंसान के वजूद में यही वह सेंटर है कि अगर वह ठीक हो तो फिर सब ठीक है और अगर यह खराब हो तो सब खराब है ।*

*❀_तो असली चीज़ है बस अल्लाह के हुक्मों और उसके वादों के ध्यान के साथ अल्लाह के कामों में लगा रहना यही हमारे नज़दीक जिक्र का हासिल है और इल्म से मुराद सिर्फ दीनी मसाइल और दीनी उलूम का जाना नहीं है।*

*❀_देखो यहूद अपनी शरीयत और अपने आसमानी उलूम के कैसे आलिम थे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम के नायबों के नायब तक के हुलिए और नक़्शे, यहां तक कि उनके जिस्म के तिल के मुताल्लिक भी उनको इल्म था लेकिन क्या इन बातों के सिर्फ जान लेने ने उनको फायदा दिया ?*

*❀_ (कुछ रिवायतों में है कि) कुछ यहूदियों उल्मा ने हजरत फारूक़ ए आज़म रजियल्लाहु अन्हु के बदन के किसी खास हिस्से पर तिल या तिल के किसी क़िस्म का कोई निशान देखकर उनके मुताल्लिक बता दिया था कि यह शख्स आखिरुज़ज़मां सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम का ख़लीफा है और बेतुल मुकद्दस इनके दौर में फतह होगा ।*
   
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             *☞ _इमान का तक़ाज़ा,*

*❀_ ईमान यह है कि अल्लाह और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को जिस चीज़ से खुशी और आराम हो, बंदे को भी उससे खुशी और आराम हो, और जिस चीज़ से अल्लाह और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को नागवारी और तकलीफ हो ,बंदे को भी उससे नागवारी और तकलीफ हो ,*

*❀__ और तकलीफ जिस तरह तलवार से होती है उसी तरह सुई से भी होती है, पस अल्लाह और रसूल को नागवारी और तकलीफ कुफ्र व शिर्क से भी होती है और गुनाह से भी । इसलिए हमको भी गुनाह से नागवारी और तकलीफ होनी चाहिए।*

*❀__फरमाया:- हजरत उमर फारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के ज़माने में उम्मुल मोमिनीन हजरत जे़नब रज़ियल्लाहु अन्हा के यहां जब माले गनीमत में से उनका हिस्सा पहुंचा ( जो शायद मिक़दार में ज्यादा होगा और उससे उनको दिल बस्तगी का अंदेशा हुआ होगा ) तो परेशान होकर दुआ फरमाई कि ऐ अल्लाह इस घर में ये फिर ना आए, चुनांचे ऐसा ही हुआ ( यानि उनकी वफात हो गई)*

*❀__ नियत के साथ मोमिन बंदों की खिदमत अब्दियत की सीढ़ी है।*  
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*☞ _मोमिन का रूपया दीन के काम आए,*

*❀_मशवरा बड़ी चीज़ है, अल्लाह ताला का वादा है कि जब तुम मशवरे के लिए अल्लाह पर भरोसा करके जमकर बैठोगे तो उठने से पहले तुमको नेकी की तौफीक़ मिल जाएगी।*

*❀_ फरमाया हजरत फारूक़ ए आज़म रजियल्लाहु अन्हु और इसी तरह दूसरे सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम की आमदनियां बहुत थी और अपने ऊपर खर्च करने में भी वो बहुत सोच समझ कर खर्च करने वाले थे, उनका खाना उनका पहनना बहुत मामूली था और निहायत सादा बल्कि फकीराना ज़िंदगी गुज़ारते थे ,*

*❀_इसके बावजूद उनमें से बहुत से दुनिया से कर्ज़दार गए क्योंकि वो अपनी सारी आमदनी दीन की राह में खर्च कर देते थे । दरअसल मोमिन का रुपया इसलिए है कि वह अल्लाह के काम आए।*

*❀_ बरकत यह है कि कोई चीज़ आदतन जिस वक्त और जिस हालत में खत्म हो जानी चाहिए वह उसमें खत्म ना हो और बाक़ी रहे, हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दुआ से बाज़ औका़त खाने वगैरह में बरकत के जो वाक़ियात हुए हैं उनकी क़िस्म यही थी कि असल चीज़ खत्म नहीं होती थी ।*

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          *☞ _.अपना मुहासबा करो _*

*❀_जो काम हो चुका उसका क्या ज़िक्र करना,बस यह देखो कि जो कुछ हमको करना था उसमें से क्या रह गया और जो कुछ किया जा चुका उसमें कितनी और कैसी-कैसी कोताहियां हुई।इख़लास में कितनी कमी रही, अल्लाह ताला के हुक्म की अजमत के ध्यान में कितना कुसूर हुआ अमल के आदाब की तलाश में और इत्तेबा की कोशिश में कितना नुकसान रहा ।*

*❀_ इन हुक्मों के बगैर पिछले काम का जिक्र मुज़ाकरा और उस पर खुश होना बस ऐसा है जैसे रास्ते चलने वाला मुसाफिर खड़ा होकर पीछे की तरफ देखने लगे और खुश होने लगे ।*

*❀_पिछले काम कि सिर्फ कोताहियां तलाश करो और उनको पूरा करने की फिक्र करो और आइंदा के लिए सोचो कि क्या करना है।यह मत सोचो कि एक शख्स ने हमारी बात समझ ली और एतराफ कर लिया बल्कि इस पर गौर करो कि ऐसे कितने लाख और करोड़ बाकी हैं जिनको हम अभी अल्लाह की बात पहुंचा भी नहीं सके और कितने हैं जो जानकारी और ऐतराफ के बाद भी हमारी कोशिशों की कमी की वजह से अमल पर नहीं पडे।*   
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          *☞ _नमाज़ दीन का सुतून,*

*❀ नमाज को हदीस में दीन का सुतून फरमाया गया है । इसका मतलब यह है कि नमाज़ पर बाक़ी दीन मुअल्लक़ है और वह नमाज़ ही से मिलता है।*

*❀_ नमाज से दीन का तफक़को भी मिलता है और अमल की तौफीक भी मिलती है, फिर जैसी जिसकी नमाज होगी वैसी ही उसके हक में अता भी होगी।इसलिए नमाज़ की दावत देना और लोगों की नमाज़ में खुशू खुज़ु पैदा करने की कोशिश करना बिल वास्ता पूरे दीन के लिए कोशिश करना है।*

*❀_ फरमाया- जो काम आवाम मुखलिसीन से लिया जा सकता हो और उससे उन मुखलिसीन के दर्जे और अजर् में तरक्की़ की उम्मीद हो, वह उनसे ना लेना और उसको खुद करना उन मुखलिसों के साथ हमदर्दी नहीं है बल्कि उन पर एक तरह का ज़ुल्म है और अल्लाह के कानून की ना क़द्री है,*

*❀_भाई ! दीन पर अमल बड़े तफक़कों को चाहता है।*
 
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*☞_अहले हक़ को दावत की ज़्यादा ज़रूरत,*

*❀_ यह बहुत अहम उसूल है कि हर तबके़ को दावत उसी चीज़ की दी जाए जिसका हक़ होना और ज़रूरी होना वो खुद भी मानता हो और अमल में कोताही को अपनी कोताही समझता हो । जब वह तबका़ उन चीजों पर अमल करने लगेगा तो अगली चींजों का एहसास खुद ब खुद पैदा होगा और उनकी अदायगी की सलाहियत भी पैदा होगी,*

*❀_ फरमाया :- जो जितना ज़्यादा अहले हक़ है उनमें उतनी ही ज़्यादा काम और कोशिश की ज़रूरत है उनका दीन के वास्ते उठना बहुत ज़रुरी है क्योंकि वही असल और जड़ हो सकते हैं ।*

*❀_ अफसोस ! जो लोग दीन के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं और दीन के मामले में बिल्कुल ही गाफिल और पिछड़े हुए हैं हम उनको देख देख कर अपनी ज़रा सी कोशिशों व हरकत पर क़ाने और मुतमईन हो जाते हैं और समझने लगते हैं कि हम अपना हक़ अदा कर रहे हैं।*

*❀_ हालांकि चाहिए यह कि अल्लाह के जिन बंदों ने दीन के लिए अपने को बिल्कुल मिटाया था हम उनके नमूनों को नज़र के सामने रखकर हमेशा अपने को छोटा और कोताही करने वाला समझते रहे और वह जितना कर रहे हैं उससे ज़्यादा करने के लिए हर वक्त हरीस और बेचैन रहे।*

*❀_ हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हु को हमेशा इसकी लालच रहती थी कि किसी तरह दीन की खिदमत में वो हजरत अबू बकर रजियल्लाहु अन्हु का मुका़म पा लें।*
  
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     *☞_लम्बी बात और मुतालबा ना हो,*

*❀_ तबलीग के आदाब में से यह है कि बात बहुत लंबी ना हो और शुरू में लोगों से सिर्फ उतने अमल का मुतालबा किया जाए जिसको वह बहुत मुश्किल और बड़ा बोझ न समझें, कभी कभी लम्बी बात और लम्बा मुतालबा लोगों को मुंह फैरने की वजह बन जाता है ।*

*❀_ बहुत से लोग समझते हैं कि बस पहुंचा देने का नाम तबलीग है, यह बड़ी गलत फहमी है, तबलीग यह है कि अपनी सलाहियत और काबिलियत की हद तक लोगों को दीन की बात इस तरह पहुंचाई जाए जिस तरह पहुंचाने से लोगों के मानने की उम्मीद हो, अंबिया अलैहिस्सलाम यही तबलीग लाएं हैं।*

*❀_ फरमाया:- फज़ाइल का दर्जा मसाइल से पहले है फजा़इल से आमाल के अजर पर यकीन होता है ईमान का मक़ाम है और इसी से आदमी अमल के लिए तैयार होता है, मसाइल मालूम करने की ज़रूरत का एहसास तो तभी होगा जब अमल पर तैयार होगा इसलिए हमारे नज़दीक फज़ाइल की अहमियत ज़्यादा है।*
   
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          *☞_ मुहब्बत का तक़ाज़ा,*

*❀_ फरमाया- असली मोहब्बत का तकाज़ा यह होता है कि मोहब्बत करने वाले और महबूब के जज़्बात और ख्वाहिशात तक में पूरा इत्तिहाद होता है,*

*❀_ मेरे भाई मौलाना मोहम्मद याहिया साहब (रहमतुल्लाह) का यह हाल था कि बावजूद यह कि वह खानक़ाह से दूर रहते थे लेकिन अक्सर ऐसा होता कि अचानक उनके दिल में खानक़ाह जाने का तकाज़ा पैदा होता और वह फौरन चल देते और जब दरवाज़ा खोलते तो हजरत गंगोई (रहमतुल्लाह )को इंतजार में बैठा पाते।*

*❀_फरमाया कि - अल्लाह ताला से जब किसी बंदे को सच्ची मोहब्बत हो जाती है तो फिर यही मामला अल्लाह पाक के साथ हो जाता है कि उसकी खुशियां बंदे की खुशियां हो जाती है और जो बातें अल्लाह को नापसंद होती है बंदे को भी उनसे नफरत हो जाती है और इस मोहब्बत के पैदा करने का तरीक़ा है मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के तरीक़े की फरमा बरदारी ।*

*❀_जो लोग दीनदार और दीन को जानने वाले होने के बावजूद दीन फैलाने के लिए और उम्मत की इसलाह के लिए वो कोशिश नहीं कर रहे जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ायम मका़मी तकाज़ा है।*

*❀_उनके बारे में एक रोज़ हजरत की जुबान से निकल गया कि उन लोगों पर बड़ा रहम आता है, उसके बाद देर तक इस्तिग्फार रहते रहे, फिर इरशाद फरमाया :- मैंने इस्तिग्फार इस पर किया कि मेरी ज़बान से यह दावे का कलमा निकल गया था कि "मुझे उन लोगों पर रहम आता है _,"*   
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*☞_ हमारी मस्जिदें मस्जिदे नबवी का नमूना बने,*

*❀_ फरमाया :- मस्जिदें मस्जिद-ए-नबवी की बेटियां हैं इसलिए उनमे वह सब काम होना चाहिए जो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद में होते थे।*

*❀_ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद में नमाज़ के अलावा तालीम व तरबियत का काम भी होता था और दीन की दावत के सिलसिले के सब काम भी मस्जिद ही से होते थे, दीन की तब्लीग या तालीम के लिए काफिलों (जमातों) की रवानगी भी मस्जिद ही से होती थी यहां तक कि फौजों तक का नज्म भी मस्जिद ही से होता था, हम चाहते हैं कि हमारी मस्जिदों में भी इसी तरीके पर यह सब काम होने लगे_,"*

*❀_सही काम का तरीक़ा यह है कि जो काम नीचे दर्जे के लोगों से लिया जा सकता हो वह उन्हीं से लिया जाए, उनसे ऊंचे दर्जे के लोगों का उसमें लगने जबकि नीचे दर्जे के काम करने वाले भी नसीब हो बड़ी गलती है, बल्कि एक तरह से नियामत की नाशुक्री है और नीचे दर्जे वालों पर जुल्म है।*

*❀_ दीन की दावत का एहतमाम मेरे नजदीक इस वक्त इतना जरूरी है कि अगर एक शख्स नमाज़ ( निफ्ली ) में मशगूल हो और एक नया आदमी आए और वापस जाने लगे और फिर उसके हाथ आने की उम्मीद ना हो तो मेरे नजदीक नमाज़ को दरमियान में तोड़कर उससे दीन की बात कर लेनी चाहिए और उससे बात करके या उसको रोक कर अपनी नमाज़ फिर से पढ़नी चाहिए।*
     
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*☞_ हर अच्छे से अच्छे काम के खत्म पर इस्तिगफार हो,*

*❀_ फरमाया_:- मेरी हैसियत एक आम मोमिन से ऊंची ना समझी जाए। सिर्फ कहने पर अमल करना बददीनी है, मैं जो कुछ कहूं उसको किताब व सुन्नत पर पेश करके और खुद गौर व फिक्र करके अपनी जिम्मेदारी पर अमल करो, मैं तो बस मशवरा देता हूं।*

*❀_ हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हु अपने साथियों से कहा करते थे कि "तुमने मेरे सर बहुत बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है , तुम सब मेरे आमाल की निगरानी किया करो_," मेरा भी अपने दोस्तों से बड़े इसरार और मन्नत से यह दरख्वास्त है कि मेरी निगरानी करो, जहां गलती करूं वहां टोको और मेरी हिदायत व दुरुस्तगी के लिए दुआएं भी करो ।*

*❀_फरमाया:- शरीयत में जो यह तालीम दी गई है कि हर अच्छे से अच्छे काम के खत्म पर इस्तगफार किया जाए, मेरे नज़दीक इसमें एक राज़ यह भी है कि शायद इस अच्छे काम में मशगूली और मसरूफियत की वजह से किसी दूसरे हुक्म को पूरा करने में कोताही हो गई हो।खासकर जब किसी काम की लगन में दिल लग जाता है और दिल व दिमाग पर वह काम छा जाता है तो फिर इसके अलावा दूसरे कामों में अक्सर देर हो जाती है,*

*❀_इसलिए हमारे इस काम में लगने वालों को खासतौर से काम में जमने और काम के खत्म पर इस्तिगफार की कसरत अपने ऊपर ज़रूरी कर लेनी चाहिए।*
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     *☞_ काम हिकमत और बसीरत से करें,*

*❀_ यह बात जरूरी है कि अपनी मेहनत के साथ-साथ इस काम की हक़ीक़त और इसका तर्ज़े तरीक़ा और इसके उसूल व आदाब समझने की कोशिश भी करते रहें और अपने बुजुर्गों से तहक़ीक़ भी करते रहें।अल्लाह ताला की आयत और हदीसे नबवी से मुताब'अत करते रहें ताकि इस काम को सिर्फ तक़लीदी तरीक़े पर नहीं बल्कि अपने क़ल्बी इशारे और बसीरत के साथ करने वाले हों और इस काम के हक़ीक़त हम पर खुलती चली जाए।*

*❀_ और हिकमत के साथ हमें इस काम को करना आ जाए ताकि मुसलमानों के आम तबक़े को भी और खवास को भी जो मुख्तलिफ दीनी कामों में लगे हुए हैं अपनी हिकमत और अखलाक़ के जरिए इसकी तरफ मुतवज्जह कर सके और किसी को इस बात पर इशकाल ना रहे और इस एतराज़ का मौक़ा ना मिले कि यह काम पूरे दीन के लिए अहम दर्जा रखता है और तमाम शौबे इसके अंदर दाखिल हैं ।*

*❀_ अपने को कम इल्म समझते हुए और मोहताज जानते हुए हक़ ताला शानहु से इसकी दुआएं भी कर रहे हों कि अल्लाह हमें बात समझा दो क्योंकि शैतान आज बहुत आसानी से हमें इस बात पर मुतम'इन कर देता है कि हम इस काम को समझ गए ।*

*❀_ हालांकि मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह का मलफूज़ है कि मैं इस काम का हजारवा हिस्सा भी लोगों के सामने पेश नहीं कर सकता जो कुछ पेश किया उसका हजार वां हिस्सा भी किसी ने नहीं समझा। तो जब इनका यह फरमाना है तो हम किस दर्ज़े में उसको समझ सकते हैं।*
 
*💤 हज़रत मौलाना मंजूर नोमानी रह. की तशनीफ शुदा मलफूज़ात (हज़रत जी मौलाना इल्यास रह.) से मज़कूर,*
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     *☞_ दीनी शौबों से तक़ाबुल ना हो,*

*❀_ अभी तक तो हमें दावत देना भी नहीं आई और इसकी हिकमत और बसीरत से भी वाक़फियत नहीं हुई जिसकी वजह से बहुत से हज़रात को खुसुसन किसी दीनी शौबों को चलाने वालों के लिए हमारी दावत और हमारे बयानों से एतराज़ पैदा हो जाते हैं की गोया हम इन शौबों को नाकिस समझ रहे हैं या उनको हकी़र समझ रहे हैं,*

*❀_ अगर हमें दावत का सही-सही तर्ज़ आ जाए तो हर एक हमें अपना हमदर्द और खैर ख्वाह समझ कर खुद भी करीब होगा और हमें भी अपने से करीब करेगा, मसलन जब हम दावत के नंबर को और उसकी अहमियत को बयान करते हैं तो कभी इल्म वालों के शौबो पर यानी मदारिस पर इस तरह फौकियत देते हैं गोया वो इसके मुकाबले में कुछ भी नहीं, और कभी जिक्र वालों के मुकाबले में, जैसा कि बहुत से तकरीर करने वाले हुजूर सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम की फजी़लत दूसरे अंबिया अलैहिस्सलाम के मुकाबले में इस तरह बयान करने लगते हैं कि दूसरे अंबिया अलैहिस्सलाम की तनकी़द लाज़िम आने लगती है और उनका यह तर्जे़ बयान दीन के लिए बहुत खतरनाक है, ऐसे ही हमारा तर्ज़े बयान भी खतरनाक हो जाता है।*

*❀_अहले इल्म को दावत देने का तर्ज़े बयान यह होना चाहिए कि पहले इल्म के फजा़इल बयान करें और इल्म वालों के दर्जात बयान करें जो आयाते क़ुरान और हदीस में आए हैं , और इतना बयान करें कि खुद हमारे दिल इल्म और इल्म वालों की अज़मत और मोहब्बत से भर जाए, इस निस्बत से कि यह इल्म हक़ ता'ला की सुन्नत है और हम अपने को इल्म और इल्म वालों का मोहताज समझें, फिर यह कहें कि यह इल्म पूरी उम्मत के हर फर्द में बा क़द्र इसकी अहतयाज़ और ज़रूरियात के कैसे आ जाए, इसके लिए मेहनत है।*

*❀_ अगर इस इल्म और इस मेहनत को करते हुए इल्म की इशा'त करें तो उम्मत का कोई फर्द ऐसा जाहिल ना रहे कि उसको ज़रूरत के बा क़द्र इल्म ना पहुंचा हो, औरत हो या मर्द, हर एक इसका मोहताज है, इसलिए हम इस मेहनत में अहले इल्म के ज्यादा मोहताज हैं।*

*❀_अहले ज़िक्र को दावत देने का तर्ज़:- ऐसे ही जि़करुल्लाह की और ज़िक्र वालों की खूब अहमियत बयान करें जो क़ुरान व अहादीस में आई है और इस क़दर जौ़क व शौक के साथ हम बयान करने वाले हों कि हमारा दिल जि़क्र की अज़मत और जि़क्र करने वालों के एहतराम से भरपूर हो जाए और मुतास्सिर हो जाएं, फिर यह बयान करें कि जिक्र का तो उम्मत का हर फर्द मोहताज है औरत हो या मर्द, उनमें जिक्र फैलाने के लिए हम जिक्र करने वालों के मोहताज हैं,*
 
*💤 हज़रत मौलाना मंजूर नोमानी रह. की तशनीफ शुदा मलफूज़ात (हज़रत जी मौलाना इल्यास रह.) से मज़कूर,*
 
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*☞_ दीन के शोबो में तक़ाबुल नहीं तआवुन हो,*

*❀_ बयान में एक नंबर को दूसरे नंबर का मुक़ाबिल ना ठहराया जाए ( क्योंकि मुकाबले से तनक़ीद का शाइबा आ जाता है) बल्कि मुआविन क़रार दिया जाए, क्योंकि दीन के तमाम शौबे ऐसे ही हैं जैसे इंसान के आजा़ जवारेह ।*

*❀_ आंख से देखने का काम, ज़ुबान से बोलने का काम ,हाथ से पकड़ने, कानों से सुनने, पैरों से चलने, दिमाग से सोचने का काम, यह सारे काम इंसान के लिए ज़रूरी है ,अगर एक उज्व में भी कमज़ोरी होगी या नुक़्स होगा तो उससे तमाम जिस्म को तकलीफ होगी और चीजों से इस्तेफादा में नुक़सान होगा। इन सब आज़ा की सख्त ज़रूरत है, यह सब आजा़ एक दूसरे के मददगार हैं मुक़ाबिल नहीं है ।*

*❀_ इसी तरह से अल्लाह का जिक्र और इल्म, इबादत, खिदमत और मामलात सब एक दूसरे के मुआविन हैं मुक़ाबिल नहीं, मुआविन होने ही की वजह से दीन मुकम्मल होता है, दावत तो सिर्फ इन तमाम शोबों को दुनिया में फैलाने और आम करने ही के लिए है।*
 
*💤 हज़रत मौलाना मंजूर नोमानी रह. की तशनीफ शुदा मलफूज़ात (हज़रत जी मौलाना इल्यास रह.) से मज़कूर,*
      
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*☞_ दावत में ज़ौफ का तमाम शौबों पर असर,*

*❀__ अगर दावत में ज़ौफ या नुक्स होगा तो इसका असर तमाम दीनी शौबों पर पड़ेगा और शौबों से इसका असर हुसूले रजा पर आएगा कि कमजोरी के साथ या नुक्स के साथ शौबो में चलने वाला अल्लाह ताला की कामिल रज़ा हासिल नहीं कर सकता।*

*❀_ इसकी मिसाल इससे समझ में आती है कि दुनिया में एक फल है ,एक उनके लिए दरख्त है, एक दरख्तों के लिए ज़मीन है। मकसूद बिज़्जा़त ना दरख्त है, ना ज़मीन बल्कि फल है, लेकिन फल के लिए मौक़ूफे अलैही दरख्त है कि बगैर दरख़्त कि फल का वजूद नहीं होता, गो हक़ ता'ला शानहु इस पर का़दिर है मगर असबाबे दुनिया से इंसान को मरबूत किया है और दरख़्त बगैर जमीन के नहीं पाए जाते ।*

*❀__ लेकिन अगर ज़मीन में इस्तेदाद कमज़ोर है तो इसका असर दरख्त पर पड़ेगा और दरख्त की कमजोरी का असर फल की कमजोरी पर ,*

*❀__ इसलिए मक़सद हर वक्त हमारी निगाह के सामने और नसबुल ऐन बनकर हो कि अल्लाह ताला को कामिल तरीके से राज़ी करने का जज़्बा हमारे अंदर पैदा हो रहा हो और यह यक़ीन हो कि अपने अवामिर के बजा लाने ही से अल्लाह ताला राज़ी होते हैं।* 
 
*💤 हज़रत मौलाना मंजूर नोमानी रह. की तशनीफ शुदा मलफूज़ात (हज़रत जी मौलाना इल्यास रह.) से मज़कूर,*           
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*☞_ हाकिम की अजमत हुक्म पूरा करना है,*

*❀_यह अल्लाह का ज़िक्र अवामिरे खुदावंदी के लिए अज़मत और वक़त पैदा करने के लिए है और आमिर की अज़मत अवामिर से पहले हैं , वरना अवामिर का पूरा करना मुश्किल हो जाता है,*

*❀_ बादशाह के अहकामात उस क़दर ही लोगों में जा़री हो सकते हैं जिस क़दर कि बादशाह का दबदबा, उसकी अज़मत और उसकी मोहब्बत दिलों में होगी,*

*❀_ तो यह दावत भी नाज़ुक तरीक़ा रखती है ,अपने को पीसना पड़ता है, अपनी हैसियत को खत्म कर देनी पड़ती है।*
 
*💤 हज़रत मौलाना मंजूर नोमानी रह. की तशनीफ शुदा मलफूज़ात (हज़रत जी मौलाना इल्यास रह.) से मज़कूर,*

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