Noor E Hidayat- Tableeg Ke Aham Usool (Hindi)

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        ☜█❈ *हक़ - का - दाई* ❈ █☞
         ☞❦ *नूर - ए - हिदायत* ❦☜           
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       *☞_ हर ईमान वाला अज़ीम है,*

*❀_ मुसलमान का मर्तबा उसके फज़ाइल के बा-क़दर दिल में बैठता चला जाए , अदना से अदना मुसलमान कितना ही गुनहगार हो लेकिन अल्लाह ताला पर ईमान लाने की वजह से हमारी निगाहों में अज़ीम हो, तभी हम उसके साथ अखलाक का मामला कर सकते हैं,*

*❀_ हर मुसलमान की जियारत अपने को मुमताज समझते हुए कि जियारत से अल्लाह ताला राज़ी होते हैं बरकते हासिल होती है और मुहब्बत बढ़ती है और मुसलमान की मोहब्बत ईमान को बढ़ाती है ।*

*❀_ जब एक अदना दर्जा मुसलमान की जियारत से यह फायदा हासिल होता है तो अहले इल्म और अहले ज़िक्र मसाइख की जियारत तो बहुत अज़ीम है ।*
      
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              *☞_ ऐब बीनी से बचो,*

*❀_ इस दावत में एक खास चीज यह भी है कि लोगों की कोताहियों, गलतियों और ऐबों पर निगाह जाने से बचा जाए ।*

*❀_ और अगर शैतान वसवसा डाल ही दे तो तौबा व इस्तगफार से और उस मुस्लिम से मोहब्बत और अलग से मिलने से इस कमी को पूरा किया जाए और तीन चीज़ों को काम में लाया जाए :-*

*"_ १_ जब मिले तो उसको सलाम करें ,*
*"_२ _ जब वो आपके पास आए तो उसको अच्छी जगह बिठाएं और उसका इकराम करें,*
*"_३ _ और कभी-कभी उसे हदिया दें,*

*❀_ तौबा व इस्तगफार के साथ यह तीन चीजें मौ'स्सिर हैं।*
    
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 *☞_ अहले इल्म को अपना सर परस्त समझें,*

*❀_ इस काम में आम लोगों को निकलने की दावत ज़रूर दी जाए लेकिन यह ख्याल रखते हुए कि अगर यह दावत में चलेंगे तो मुझसे बेहतर तरीके से चलेंगे और इनसे दीन के फैलने में ज़्यादा मदद मिलेगी और अहले इल्म को अपना सरपरस्त समझकर उनकी जि़यारत और उनसे दुआओं का तालिब बनकर मिला जाए।*

*❀_ मशवरा तो हर फन में उसके फन वालों से लिया जाता है, मसलन किसी को आंख का ऑपरेशन के बारे में मशवरा करना है तो वह हर डॉक्टर से मशवरा नहीं करेगा जो हर उज़्व का थोड़ा-थोड़ा इलाज करते हैं, बल्कि खास आंख का इलाज करने वाले डॉक्टर ही से मशवरा करेगा, यह तो दुनियावी मिसाल है।*

*❀_ और दीनी मिसाल यह है कि अगर किसी को मसला पूछना है तो उसे मुफ्ती के पास जाना चाहिए । हर आलिम से मसला नहीं पूछना चाहिए क्योंकि मुफ्ती मसाईल के फन का माहिर है,*

*❀_ अगर बगैर मशवरा लिए कोई शख्स मशवरा देने लगे तो उसकी बात को गौर से अहतमाम से सुना जाए और उसको मुखलिस और खैर ख्वाह खयाल करें जिससे वह यह ना समझे कि मेरी बात की क़दर नहीं की।*
   
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 *☞_नबवी उसूल छोड़ने के नुक़सानात,*

*❀_ हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम ने दुनिया में दीन को फैलाने के लिए कुछ बुनियादी उसूल क़ायम फरमाए ,जब तक वह उसूल पूरे तौर पर जिंदा रहे और उम्मत उन पर चलती रही और काम करती रही दीन का हर जुज्व उम्मत के हर फर्द की तरफ पहुंच रहा था और 100 फीसद दीन दुनिया में फैल रहा था।*

*❀_ कुछ और से के बाद दायरा ए इस्लाम वसी हो जाने की वजह से और कसरत से क़ौमो के इस्लाम में दाखिल होने की वजह से कुछ इस्तंबाती शक्लें अख्तियार करना ज़रूरी हुई, लेकिन वह इस्तंबाती शक्लें इतनी अहमियत पकड़ गई कि बुनियादी उसूल निगाहों से ओझल होते गए जिसके तीन नतीजे इस उम्मत में मुरत्तब हुए,*

*❀_ पहला नुक़सान तो यह हुआ कि दीन पूरी उम्मत में पहुंचना बंद होने लगा बल्कि सिर्फ अफराद इससे मुस्तफीद होने लगे, दूसरा नतीजा यह आया कि हर एक ने दीन का एक जुज़्व अपनी मेहनत के लिए मखसूस कर लिया और उसूली तरीके से पूरे दिन पर उसकी मेहनत ना रही।*

*❀_और तीसरा नतीजा यह आया कि आपस में इख्तिलाफात पैदा होकर एक शोबा वाले दूसरे शोबे वाले से टकराने लगे और बदज़न होने लगे और बजाए मददगार बनने के मुक़ाबले पर आने लगे, जिससे दीन को बहुत नुक़सान पहुंचने लगा ।*

*❀_इसलिए बुनियादी उसूलों को जिंदा कर के सामने रखकर चलना जरूरी है।*
       
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     *☞_नबवी तरतीब के बुनियादी उसूल-

*❀__ १_ सबसे पहले हुजूर अकरम सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने हर उम्मती को दाई बनाया , गरीब हो या अमीर ,काश्तकार हो या ताजिर, हर एक दीन का दाई था क्योंकि जब 100 फीसद उम्मत दावत दे रही होगी तो दीन सो फीसद इंसानों में आ जाएगा ,हर एक की दावत उसके इल्म के बा क़दर थी,*

*❀__२_, हुजूर अकरम सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने दीन सीखने सिखाने का असल मरकज़ मस्जिद को बनाया ,सहाबा रजियल्लाहु अन्हुम मस्जिद में आकर दीन सीखते थे जिसमें उनके तीन तबकात थे :-*

*❀_ एक तबका वो था जो बीवी बच्चों और दुनिया की मशगूली से फारिग था, यह असहाबे सुफ्फा में दाखिल थे,*
*"_दूसरा तबका वह मामूली मशगला अपनी मासियत के लिए करता लेकिन अक्सर वक्त उसका दीन के लिए फारिग था, इसमें अक्सर मुहाजिरीन थे,*
*"_तीसरा तबका़ अंसार का था ,वह तबका़ जो अपनी खेती बागात के कामों और दूसरे मशगलों में मसरूफ होते ,कोई रात को कोई दिन में कोई आधा दिन कोई आधी रात सीखने में लगाता था।*

*❀__इस्लाम में नए आने वाले बड़ते जा रहे थे यहां तक कि खुलफा ए राशिदीन के जमाने में बहुत से शहर फतह हो चुके थे और कौ़मे इस्लाम में दाखिल हो रही थी लेकिन मस्जिद से बाहर कोई इमारत दीन सीखने के लिए नहीं थी ।*

*❀__इसमें खास राज़ यह मालूम होता है कि जिन आदाब और कैफियात के साथ दीन मस्जिद में लिया जा सकता है मस्जिद से बाहर लेना आदतन नामुमकिन है। मसलन मस्जिद में दुनिया की बातों से हिफाजत, हंसी मजाक से हिफाजत, बा वजू रहना, जिक्र की कैफियत से रहना और तकबीरे अवला से नमाज पढ़ने का अहतमाम वगैरह ऐसी चीजें हैं जो दीन सीखने में अज़मत और अज़मियत पैदा करती हैं और अमल की तौफीक की तरफ रहनुमाई करती है।* 

*❀_ 3- दीन सीखने के लिए बड़ों को जो मुकल्लफ है और कुरान ए करीम में मुखातिब में अव्वल क़रार दिया गया उनसे यह नहीं कहा गया कि तुम तो तिजारत और खैतियों में होने की वजह से मजबूर हो अपने बच्चों को हमारे पास भेज दिया करो असहाबे सुफ्फा उनको दीन सिखाया करेंगे बल्कि बड़ों को अहतमाम से बुलाया जाता ,बूढ़ा हो या जवान ,खेती वाला हो या ताजिर ,उसको दीन सीखने पर आमादा किया क्योंकि दिन को अपने घर में, कारोबार में ,अपने मामलात में बड़ा ही नाफिज़ कर सकता है छोटो का काम नहीं और जन्नत दोज़ख का यकीन करके बड़ा ही चल सकता है छोटा नही और अवामिरे खुदावंदी की अज़मत बड़ा ही समझ सकता है।*

*★_4- दीन को बगैर उज़रत सीखने सिखाने का निजाम क़ायम फरमाया और हर शख्स को अपने मातहत को दीन सिखाने का जिम्मेदार क़रार दिया। जब हर शख्स अपने घर में दीन सिखाएगा और अपने बच्चों को मोअल्लिम बनाएगा तो उज़रत और मुआवजे का सवाल ही नहीं आएगा , इस तरह बगैर माल के हर शख्स दीन सीखने और सिखाने वाला बन सकता है, जैसा कि सहाबा किराम बने।*

*★_ क्योंकि दीन इंसानी जिंदगी के लिए ऐसा ही जरूरी है जैसे जिस्मानी जिंदगी के लिए हवा और पानी । हक़ ताला ने हवा और पानी तमाम इंसानों के लिए मुफ्त ही रखा , वैसे ही दीन को सीखने और सिखाने को भी बगैर मुआवजा़ के रखा गया ताकि हर गरीब, मिस्कीन , यतीम, गांव के रहने वाले दीन सीख सकें।*

*★_ दीन सीखने सिखाने के लिए ना चंदा जमा किया गया ना उसकी तरगीब दी गई बल्कि उनको फाकों में दीन सीखना पड़ता था जिससे दीन की अज़मत और अहमियत उनके दिलों में बढ़ती थी।*

*❀_ 5-दीन में सबसे पहले ईमानियात है इसके बाद अखलाकियात सिखाए जाते थे जिसका पता इस हदीस से चलता है कि हजरत जाफर बिन अबी तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु से जो सवालात शाहे हब्शा ने किए कि तुम्हारे नबी सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम तुम्हें क्या तालीम देते हैं ?*

*★_ उन्होंने जो जवाबात दिए वह काबिले गौर है क्योंकि अहकामाय पर अमल उन्हीं सिफातो (ईमान और अखलाक) से हो सकता है वरना अल्लाह ताला के अहकामात पर अमल करना आसान नहीं रहता।*

*★_आज हमारे इस जमाने में दीन सीखने सिखाने की तरतीब बदल जाने की वजह से अमल करना मुश्किल हो रहा है ,अगर इन दो चीजों (ईमान व अखलाक) को पहले सिखाया जाए ताकि इंसान की ईमानी ताकत आखिरत के इस्तेहजारर के साथ सही कामिल हो जाए।

*★_अखलाकियात अंदर आ जाए तो फिर अखलाकी मसाईल पर भी अदावत का और टकराव का मैदान क़ायम नहीं होगा बल्कि सहाबा किराम की तरह जुज़्वी इख्तिलाफात के बावजूद इत्तेफाक व इत्तेहाद, उल्फत व मोहब्बत व इकराम बाक़ी रहेगा ।*

*★_ इन बुनियादी उसूलों के क़ायम करते हुए फिर इस्तंबाती शक्लें, मदारिस और खानकाह की और बच्चों की तालीम देने की बहुत मुफीद साबित होंगी और यह शक्लें भी बहुत ज़रूरी है मगर इनकी जरूरत बुनियादी उसूलों से कम है ।*

*★_आज बुनियादी चीज़ें बाकी ना रहने की वजह से ईमान इस क़दर कमजोर हो चुका है कि फराइज़ का अहतमाम निफ्लों से घट गया जिसकी वजह से दीन अपनी अहमियत व अजमत के साथ और तवक्कुल और तक़वे के साथ नहीं सीखा जा रहा जिसका नतीजा यह हुआ कि दीन वालों में इख्तिलाफात जिस कदर अदावत को पहुंचे शायद दुनिया वालों के भी ना पहुंचे हों ।* 
 
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 *☞_ दावत के मैदान में सीखना सिखाना,*

*❀_ अगर हमारा सीखना सिखाना सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम की तरतीब पर आ जाए कि हम दावत के मैदान में चलते हुए सीख रहे हो और सिखा रहे हो तो अब भी दीन का हर जुज्व और हर शोबा सौ फ़ीसदी उम्मत में जिंदा हो सकता है और इल्म व जिक्र जो पूरे दीन की मां है और हर फर्द के लिए रूहे ईमानी को तक़वियत देने वाला है ,हर कच्चे और पक्के घर में , हर क़ल्बे सलीम में अपनी अज़मत के साथ दाखिल हो सकता है ।*

*❀_आमाल बगैर सिफाते ईमानी के कमज़ोर और बेजान है , यह सिफाते ईमानी, तक़वा, तवक्कुल, ज़ुहद फिद्दुनिया, क़ना'अत, सब्र व शुक्र और हुब्ब है।*

*❀_ जब यह सिफाते आमाल झलकती है तो आमाले हसना वजूद में आते हैं और रगबत व रहबत की कैफियत पैदा होती चली जाती है और जब यह सिफात मुस्लिम के अंदर पैदा होनी बंद हो जाती है तो आमाल मुश्किल होते चले जाते हैं , आमाले सालेहा से यक़ीन पैदा होने के बजाय दुनिया की चीज़ों से यक़ीन बनता चला जाता है, फिर दीन पर दुनिया राइज होती चली जाती है।*

*❀_ दुनिया इंसान के दिलों दिमाग पर ऐसा तसल्लुत करती है और क़ल्ब में ऐसी अज़मत व मोहब्बत पैदा कर देती है कि उसके मुक़ाबले में फराइज़ के अदा करने की भी परवाह नहीं करता ।*

*❀_ इसलिए सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम का तर्जे तरीक़ा सिफाते ईमानी पैदा करने वाला है और सिफात ही से मोमिन मोमिन के लिए आलीशान बनता है और अमीर गरीब का गरीब अमीर का हमदर्द बन जाता है, हर एक को आखिरत का फिक्र बढ़ता जाता है ।*
         
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 *☞_ हमारी बे उसूलियां रुकावट है,*

*❀_ माफी चाहना और माफ कर देना हक़ ता'ला को बहुत महबूब है । जब यह दोनों सिफातें मुस्लिम के अंदर आ जाती है तो अल्लाह ताला उसके लिए "अफू" और "करीम" बन जाता है ।*

*❀_ अगर लोगों को यह पता चल जाए, अवाम हो या खवास कि इस दावत के जरिए क्या चाहा जा रहा है और इस पर क्या नतीजे मुरत्तब होते हैं तो हर एक इस (दावत के) मैदान में चलने के लिए अपनी जिंदगी वक़्फ कर देने को तैयार हो जाए ।*

*❀_ लेकिन हम ना अहल अपनी बात को समझा नहीं सकते और शैतान और नफ्स हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है वह हमें सही तरीके से दावत में चलने से रोक देता हैं।*

*❀_ यह दावत दुश्मनों को दोस्त बनाने वाली है लेकिन हमारी बाज़ बे वसूलियों से अपने भी गैर बन जाते हैं।*

*❀_ हम बात को समझते नहीं, हिकमत और मर्दुम सनासी को पेश पेश रखकर चलें तो इंशा अल्लाह ताला हर एक अपना बनता चला जाएगा।*
 
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 *☞_इकरामे मुस्लिम सबसे बड़ा हथियार है,*

*❀__ इकरामें मुस्लिम सबसे बड़ा हथियार है जो दुश्मनों की गरदनों को ज़ेर कर देता है लेकिन इसके करने के लिए नफ्स पर बड़ा मुजाहिदा करना पड़ता है, मुक़ाबिल की लानत व हिकमत को बर्दाश्त करना और उसको अज़ियतों पर तहम्मुल करना पड़ता है जिससे खुद भी बन जाता है और दूसरों को भी बना देता है।*

*❀_ (इरशाद है कि ) नेकी और बदी बराबर नहीं है तो उस चीज के साथ बदला दो जो अच्छी हो, " यह बात हर वक्त पेशे नजर रहे,"*

*❀_ हम किसी मुसलमान को मुखालिफ और दीन का रद करने वाला ना समझें बल्कि यूं समझे कि बहुत से अहवाल उसके लिए हमारी बात कुबूल करने में माने (रुकावट) है।*
        
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 *☞_ अद्म ए क़ुबूलियत की वजह,*

*❀_ अगर वही दीन की बात जो उसको ऐसा शख्स कहें जिससे वह अकी़दत और मोहब्बत रखता है तो फौरन मान लेगा ।*

*❀_ मालूम हुआ कि वह दीन का मुख़ालिफ़ नहीं बल्कि हमारे अहवाल की वजह से हम से डरता है और क़ुबूल करने में तरद्दुद रखता है कि कहीं वह हमसे धोखा ना खा जाए ।*

*❀_ लेकिन हर वह मुसलमान जो कलमा पढ़ने वाला है, अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बात को रद्द नहीं कर सकता जबकि उसे यक़ीन हो जाए कि बेशक अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही की बात है ।*

*❀_ मगर ज़माना ए हाल के तर्ज़े तर्क ने लोगों को धोखे में डाल दिया क्योंकि बहुत से फरिश्ते सिफ्त ज़ाहिरी लोगों ने दीन से भी दुनिया वालों को धोखा दिया और अपनी इज़्ज़त और अपनी दुनिया को बनाने की कोशिश की।*

*❀_ इसलिए दुनिया डरी हुई है और यह मिसाल मशहूर है कि दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है।*   
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        *☞_ मेहरूमी के असबाब,*

*❀_ एक बात समझने की यह है कि हम अपने आप को समझा हुआ ना समझे ताकि हम इस काम को समझने की कोशिश करते रहे और तरक्की करते रहें । जब आदमी अपने आपको कामिल समझ लेता है तो आगे की तरक्की का रास्ता बंद हो जाता है और शैतान उसको वहीं से गिरा देता है।*

*❀_ हजरत मौलाना मोहम्मद इलियास रहमतुल्लाह का एक मलफूज़ है कि मुझे काम करने वालों पर दो खतरे हैं :- एक यह कि काम ना कर रहे हों और समझेंगे हम काम कर रहे हैं, काम तो छह सिफात को अपने अंदर लाने का नाम है अगर यह 6 सिफातें हमारे अंदर नहीं आ रही है तो चाहे कितना ही लोग हमारी बात पर लब्बेक कह रहे हो तो हमारा काम नहीं हुआ ।*

*❀_ दूसरा यह कि असबाब के होते हुए असबाब पर निगाह ना जाए यह तो मुश्किल है मगर असबाब पर निगाह जाने से अल्लाह ताला की मदद हट जाती है।*

*❀_ बंदे को गौर करने के बाद एक बात समझ में आई कि अगर किसी शख्स की निगाह अपने ऊपर पड़ जाती है कि मैं कुछ करने वाला हूं और मेरी वजह से दावत चल रही है चाहे किसी इलाके में या पूरी दुनिया में , तो अल्लाह ताला से डरना चाहिए कि कहीं इससे महरूम ना कर दें और ऐसा होता हुआ देखा गया है।*

*❀_ अगर लोगों की निगाह किसी एक शख्स पर जम गई कि उसकी वजह से यह दावत की गाड़ी चल रही है तो अल्लाह ताला उस शख्स को उनमें से उठा लेते हैं और यह भी देखा गया है।*

*❀_ क्योंकि यह दोनों बातें असबाब पर पर एतमाद करने की है हालांकि अल्लाह ताला ही कर रहे हैं कभी असबाब के पर्दे में, कभी बगैर असबाब के, हर वक्त निगाह और दिल का रुख अल्लाह ताला ही की तरह रहना चाहिए ।*

*❀_ और यह भी देखा गया है कि किसी दीन की बात को हल्का समझा गया तो ये बड़े खतरे में आ जाता है और यहां तक कि बाज़ मर्तबा ऐसे आमाल करने लगता है या ऐसी बातें कहने लगता है जो उसके ईमान पर सख्त ज़द डालती है ।*
       
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        *☞_ ऐतराज से बचा जाए,*

*❀__ किसी पर एतराज़ करना इस दावत ( तबलीग ) के खिलाफ है , बड़े हजरत जी रहमतुल्लाह का मक़ूला है- "_ एतराज़ हराम है और इस्लाह फर्ज है_,"*

*❀_ एतराज़ फसाद की तरफ ले जाता है और दिलों में अदावत पैदा करता है और इसलाह हुज्न और (उम्मत के) गम की तरफ ले जाती है ,आज उम्मत के हाल पर हुज़्न और (उम्मत के ) गम को बढ़ाना चाहिए जो हमारे अंदर से निकल गई।*

*❀_ एतराज़ की शक्लों से हिफाजत करनी चाहिए जो रोज़ बा रोज़ हमारे अंदर पैदा हो रही है। एतराज़ ही की वजह से आज उम्मत टुकड़े-टुकड़े होती जा रही है , अगर हर शख्स उम्मत का गम खाने वाला और एक एक शख्स पर रहम खाने वाला बन जाए तो यह दावत चलेगी।*

*❀_ बल्कि इस दावत में तो यहां तक चलना है कि दूसरों को एतराज़ का जवाब भी नहीं देना है, ना तहरीर से और ना तकरीर से और ना कनातन ना शरातन, इससे भी एतराज़ का दरवाजा खुलता है , बल्कि एतराज़ करने वाले का इकराम करके उसको क़रीब किया जाए और अपने से मानूस बनाया जाए फिर उसके बाद ऐतराज़ खुद रफा-दफा हो जाएगा और बात समझने में आसानी होगी।*   
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          *☞_ हिकमत और तवाज़ो,*

*❀__ इस दावत में हिकमत सीखनी पड़ती है जो फहम में मुइन व मददगार होती हैं ।*

*❀_ असल तो हिकमत अल्लाह ताला की अता है जिसको भी दे दे लेकिन इसका ताल्लुक सीखने से भी है सिर्फ अताई नहीं ,जैसे किताब सीखी जाती है हिकमत भी सीखी जाती है ।मगर यह हिकमत उसको आती है जिसके अंदर सिफाते क़ुदसिया पैदा हो जाए और सिफाते शहवानिया मगलूब हो जाए।*

*❀_ लिहाजा हिकमत के जरिए लोगों के कुलूब को हक़ के लिए इन्शराह कराने में हक़ ताला की तरफ से दुआ के जरिए मदद की जाए, वरना अल्फाज़ हिकमत मुनाफिक की जुबान पर भी आ जाते हैं ।*

*❀_ इस दावत में जिस क़दर तवाज़ों और इंकसारी बढ़ती रहेगी अपना जहल खुलता रहेगा और जहल के बाद इल्म का दरवाजा खुलता रहेगा क्योंकि इससे दावत तलबे सादिक़ पैदा होती है और तलब ही हर चीज़ का दरवाजा खोलती है।*
 
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     *☞_ बड़ों की सोहबत और मशवरा,*

*❀_ जो अपने को बुजुर्गों की निगरानी में नहीं चलाता शैतान उनको बहका देता है, ऐसे ही लोगों से दुनिया में सबसे बड़े फितने उठे हैं।*

*❀_ हुजूर पाक सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम अल्लाह ताला की निगरानी में चलते थे और हजरत जिब्राइल अलैहिस्सलाम और अपने सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम से मशवरा करते थे जैसा कु़राने पाक में हुक्म है।*

*❀_ सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम हुजूरे पाक सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम की निगरानी में चलते थे, इसी तरह बाद में आने वाले अपने से पहले वालों की निगरानी में चलने वाले थे जिससे उम्मत एक-दूसरे से जुड़ी हुई थी और हिदायत याफ्ता थी।*

*❀_ अब जबसे हमने बड़ों की निगरानी और मशवरा को छोड़ा है उस वक्त से बिखर गए और गुमराही के रास्ते पर चल पड़े ,हर शख्स अपनी राय को सही समझने लगा, जो एक बहुत बड़ा खतरा है, शैतान ने अपनी राय को सही समझा तो खुदा का हुक्म भी ना मान सका ।*

*❀_ यह कहना कि हमने अज़ खुद मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह से फैज़े सोहबत के ज़रिए और उनका कलाम बाराहे रास्त सुनने के जरिए सारे उसूल सीख लिए और अब हम किसी के मशवरे के मोहताज नहीं, बड़ी नादानी हैं और बड़े खतरे की चीज है ,ऐसा शख्स ना कभी उम्मत को जोड़ सकता है ना जुड़ सकता है ।इस दावत में दो ही बड़े काम है एक हक़ पर जोड़ना और दूसरा जुड़ना _,"*

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            *☞_ 6 नंबर और काम,*

*❀__ यह 6 नंबर चाहे मंसूस मिन अल- क़ुरान व हदीस क़तई ना हो लेकिन मुस्तनाबाद मिन अल- क़ुरान व हदीस इस दर्जे पर हैं कि कोई उम्मत का सही इल्म व यक़ीन वाला इनकार नहीं कर सकता और इन पर एतराज़ की गुंजाइश नहीं रखता।*

*❀_रहा तरीक़ा ए कार तो इसकी जो शक्ल इसमें अख्त्यार की गई है जैसे गश्त, तालीम के हल्के लगाना और निकलना और निकालना, इसमें गौर करने से दो बातें मालूम होगी एक यह कि दिलों का रुख अल्लाह ताला की और आखिरत की तरफ बदलता है या नहीं, यह तो तजुर्बे से सबके सामने यह बात आ गई कि इस निज़ाम में शामिल होने वाले का रुख अल्लाह ताला अपनी तरफ बदल देते हैं ।*

*❀_दूसरे इस तरीक़ा ए कार से तवाज़ों, मोहब्बत और सिफाते हमीदा पैदा होती है,*

*❀_ लेकिन यह तब ही है जबकि खालिसन अल्लाह ताला के लिए और उसूल के मुताबिक निकला जाए और कोई गरज़ दरमियान में ना आए और निकलने के बाद अपने वक्तों को सही तरीके से अमीर की इता'त में गुज़ारा जाए।*
          
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 *☞_ इम्तिहान तरक्की़ का जरिया है-,*

*❀__ कभी-कभी हक़ ताला इस काम को करने वालों पर इब्तला व इम्तिहान की शक्ल भी लाते हैं जो काम करने वालों के लिए मदद और नुसरत का दरवाजा खोलने के लिए होती है , कभी बगैर इम्तिहान और इब्तला के गैबी नुसरत नहीं आती , आयाते क़ुरानी और सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम के तमाम इब्तला और इम्तिहान वाले मैदान इस पर दलालत कर रहे हैं ।*

*❀_ इससे अखलाक़ की तरक्की होती है, असबाब से यकीन हटता है हिकमत के पर्दे खुलते हैं बसीरत बढ़ती है गैबी निजाम समझ में आता है और अल्लाह ताला की बढ़ी हिकमतें इसके अंदर होती हैं जिनको हमारी अक्ल नहीं समझती।*

*❀_ लेकिन अपनी कमज़ोरी और बेबसी की वजह से दुआएं और आहोजारी इस दर्जे करते रहना चाहिए कि बेसाख्ता जुबान से निकले "अल्लाह ताला की मदद कब आएगी", सिर्फ तकलीफ से नहीं बल्कि बेचैनी और बेक़रारी के साथ जुबाने बे अख्तियार हो कर यह अल्फाज़ कहने लगे ,इस पर " खबरदार अल्लाह की मदद करीब है " वजूद में आएगा । जब इम्तिहानात खत्म हो जाते हैं तो खतरे की घंटियां शुरू हो जाती हैं और यक़ीन घटने लगता है ।*

*❀__ हुजूर पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का २३ साला दौर इम्तिहान व इब्तला ही में गुज़रा, ऐसे ही अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु की खिलाफत का ज़माना, खिलाफते फारूकी़ में वह इम्तिहान व इब्तला खत्म हो गया और हर तरह की आसानी और सहूलियत का दौर शुरू हो गया, जिसकी वजह से ज़रा संभलना पड़ा,*

*★_ इसी तरह से हमने मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह का ज़माना कुछ सुना कुछ देखा, वह भी किसी क़दर इब्तला व इम्तिहान का मालूम होता था, लोगों का आम इस्तक़बाल ना था और शायद ही तीन दिन के लिए कोई निकलता था, तारीफ करने वाले कम और बद-ज़नी करने वाले ज्यादा, यहां तक कि उलमा भी मायूसी दिलाते थे या इस काम पर इशकालात करते थे और बहुत से एतराज़ात करते थे ।*

*★_ जमातो का ना तो इस्तक़बाल था न खाने की दावत बल्कि अपनी मस्जिदों में उनका ठहराना भी नागवार समझते थे, पैदल चलना, चने चबाना, पत्ते खाना और इस पर भी बात सुनने के लिए किसी का तैयार ना होना बड़ा इंतिहान था।*

*★_ लेकिन अब दौरे फारूकी़ की तरह इस्तक़बाल है लेकिन इस ज़माने में बड़ी-बड़ी कमाइयों को छोड़कर निकलना भी कोई मामूली हैसियत नहीं रखता। उस वक्त फारिग ज़्यादा थे इस वक्त मशगूल ज़्यादा हैं यह भी एक कुर्बानी है ।*

*★_ उस वक्त काम कम था लिहाज़ा जिक्र व तहज्जुद के लिए वक्त फारिग होता था और अब काम ज़्यादा, जमातो की मशगूली, तशकील, हिदायात, रवानगी वगैरा औक़ात को इस क़दर घैर गए कि ज़िक्र का पूरा करना भी मुश्किल और रात का तहज्जुद पढ़ना भी, यह फितरी चीज़ है इससे ना उम्मीद होने की कोई वजह नहीं।*
          
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 *☞_ काम का फैलाव ही गहराव का जरिया है,*

*❀_ आज एक फिक़रा ज़बानों पर आ रहा है कि काम में फैलाव की बजाय गहराव पैदा करो। बंदे को यह फिक़रा शैतान का वसवसा मालूम होता है क्योंकि यह ना खुल्फा ए राशिदीन के जमाने में किया गया और ना ताब'ईन और तबा ताबाईन के ज़माने में कि फैलाव को रोककर गहराई में लगो ।*

*❀_ वरना दावत का मिज़ाज तो यह है कि फैलाव के साथ ही गहराई की जिस क़दर कोशिश अपने लिए हो सके करनी चाहिए क्योंकि फैलाव को रोककर गहराई में लगने से दावत खत्म हो जाती है।*

*❀_ दुनिया वालों ने भी अपने कारोबार में इसकी कोशिश नहीं की बल्कि अपनी चीजों को फैलाने में कोशिश बढ़ती ही चली जा रही है और गहराव उनका कम होता चला जाता है ।*

*❀_ यह एक कुदरती निज़ाम है कि जब फैलाव ज्यादा होगा तब गहराई में कमी आएगी, जब हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हु के जमाने में नए-नए शहर फतह हुए और इस्लाम चारों तरफ फैला उस वक्त गहराई की कैफियत कम हो गई और लोगों में हर चीज की कैफियत घट गई ,कुरान की आयात भी इसकी तरफ इशारा करती है कि गहराई फतेह मक्का से पहले थी ,इसमें कमी आई।*

*❀_इसमें बहुत सो को इशकाल पैदा हो सकता है कि फैलाव को रोककर गहराई में लगना दावत का मिज़ाज नहीं है और दावत जब चलेगी तो फैलाव जरूर होगा दावत है ही फैलाने के लिए और जो नए-नए इस्लाम में आएंगे यह दावत में खड़े होंगे उनका गहराव पुरानों की तरह नहीं हो सकता।*

*❀_ खुल्फा ए राशिदीन का दौर भी फर्क दिखा रहा है कि जो गहराई हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु के जमाने में थी वह हजरत उमर रजियल्लाहु अन्हु के जमाने में नहीं रही और जो उनके जमाने में थी वह हजरत उस्मान गनी रजियल्लाहु अन्हु के जमाने में नहीं रही लेकिन इस्लाम आलम में फैलता चला गया ।*

*❀_ लिहाजा लोगों को इस फिक़रे में नहीं पड़ना चाहिए लेकिन काम करने वालों को मुतवज्जह जरूर करते रहें कि वह अपने अंदर सिफाते हमीदिया और यक़ीन को बढ़ाने की कोशिश करते हुए चलें।*
        
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 *☞_ अंबिया अलैहिस्सलाम की सियासत,*

*❀__ इसमें (दावत में ) एक बहुत बड़ी चीज़ यह शर्त है कि ज़माना ए हाल की सियासत में ना पढ़ा जाए क्योंकि वह सियासत सियासत ए नबवी से बिल्कुल अलग है और बहुत ब'ईद है ।*

*❀_ जंगे बदर की तरफ जाते हुए हुजूर पाक ﷺ को रास्ते ही में मालूम हो गया कि हमारे मुक़ाबले के लिए कुरेश निकल खड़े हुए और ज़ाहिर था कि वह अपनी पूरी ताक़त और असबाब के साथ निकले हैं और मदीना मुनव्वरा हुजूर पाक ﷺ के क़रीब ही था, दो ही मंजिल चले थे तो आपने मदीना मुनव्वरा से अपनी ताक़त क्यों नहीं बुलवाई ? क्या चीज़ माने थी ? क्या सियासत थी इसमें क्या राज़ था ? इसी तरह तमाम गज़वात और असफार एक गहरा सबक और सियासत रखते हैं जो इस ज़माने के सियासत वालों के दिमागों पर जर्ब लगाती है ।*

*❀_ गज़वा ए मौता में हुजूर पाक ﷺ को जंग का नक्शा दिखाया गया और यह भी जानते थे कि जिस थोड़ी सी तादाद को हम भेज रहे हैं वह रोमियो के मुकाबले में बहुत कम है और आप ﷺ के पास उस वक्त मुसलमानों की तादाद कुछ कम ना थी, तो इसमें क्या राज़ था ?सियासत दुनियावी फायदे हासिल करने के लिए मुशरिकीन की भी हो सकती है लेकिन लोगों के दिलों का रूख अल्लाह की तरफ फैरने के लिए नबी ही की सियासत हो सकती है, नबी की सियासत से लोगों के अंदर तवक्कुल और तक़वा की सिफात पैदा होती है और इस जमाने की सियासत से बचना जरूरी है , इस सियासत से तो उम्मत के टुकड़े टुकड़े होते हैं ,यह गैरों पर क्या गालिब आएंगे अपनों को भी नहीं जोड़ सकते,*
     
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         *☞_ इख्तिलाफात से दूर रहें,*

*❀__ फरुई इख्तिलाफात से बचने की इस काम में सख्त जरूरत और ताकीद है, ज़माने के इख्तिलाफात लड़ाई और खून खराबे का रास्ता अख्तियार कर चले हैं ।*

*❀_ सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम में फरूई इख्तिलाफात से मोहब्बत और इत्तेफाक व इत्तेहाद कम नहीं होता था और इससे मुखालफत पैदा नहीं होती थी और आज मुखालफत इस दर्जे पर पहुंच गई है कि एक दूसरे से क़ता ताल्लुक करने लगे, मोहब्बत के बजाय अदावत पैदा हो गई ।*

*❀_ इसलिए इस क़ैद को लगाकर उम्मत के इख्तिलाफात और इंतेशार को खत्म किया है। अहले हक़ के तमाम मज़ाहिब इस काम को करते रहे हैं और उनके उलमा भी इस उसूल को पसंद करके इस काम की पैरवी फरमा रहे हैं ।*
     
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              *☞_ बयान के आदाब,*

*❀__ इस काम में सबसे बड़ा खतरा बयान करने वालों पर है, वह या तो अपने बयानात उसूल से हटा देते हैं, किसी का ज़र्ब, किसी पर ऐतराज़ ,किसी की तंक़ीद,*

*❀_ या फिर बयानात में तवाज़ों की बजाय क़िब्र की शान पैदा हो जाती है, यह भी हमारे लिए बहुत खतरे की चीज़ है । बयान का तरीका खुशामदाना हो जैसे छोटा बड़ों से कोई बात कह रहा हो ।*

*❀_ इस वास्ते जब किसी चीज की कमी को बयान करें और किसी चीज़ का नुक्स बयान करें तो उसमें लफ़्ज़ "हम" इस्तेमाल करना चाहिए कि हमसे यह कसूर हो रहा है हममे यह कमी है ।*

*❀_ और जब तारीफ का वक्त आए तो लफ्ज़ "आप" का इस्तेमाल करना चाहिए और यह चीज़ सिर्फ रस्मन नहीं बल्कि ऐतराज़ कुसूर के जज्बे से होनी चाहिए, अपना कुसूर और अपनी कमी औरों से ज्यादा सामने हो ताकि दूसरों के कुसूर और कमी की वजह से उन पर एतराज़ या नफरत की शक्ल पैदा ना हो क्योंकि वह भी इकराम के खिलाफ है ।*
     
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              *☞_इकरामे मुस्लिम,*

*❀_ इकरामे मुस्लिम एक अहम नंबर रखा गया है ,असल इकराम 3 तबकात का है - एक अपने साथी, दूसरे उलमा और तीसरा अवामुन्नास । इन तीनों तबका़त का इकराम करने की दिल के साथ और इखलास के साथ कोशिश करनी चाहिए और इसकी मस्क करनी चाहिए।*

*❀_ और वह मस्क़ ऐसी नहीं जैसे गैर मुस्लिम क़ुव्वतें करती हैं, बल्कि हर एक की किसी ना किसी सिफाते हमीदिया को सामने रखकर कि वह सिफ्त अल्लाह ताला को महबूब है ।*

*❀_ कम से कम मुसलमान में अगर वह सिफ्त नजर ना आए तो कलमे वाला होने की सिफ्त जरूर मिलेगी, और यह सबसे बड़ी सिफ्त है और इसका लिहाज़ करके इकराम करना गोया कि कलमे का ही इकराम है और कलमें का इकराम अल्लाह ताला ही का इकराम है ।*
         
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        *☞_इकराम के अहम उसूल,*

*❀__ इकराम में चार चीजों का उसूली तरीके से लिहाज़ रखना जरूरी है ,बाकी चीजें उन्हीं का हिस्सा है :-*

*★_ १_ अज़ियत पर सब्र,*
*२_ अपना माल उन पर खर्च करना,*
*३_ हर एक के साथ मुस्कुराते हुए मिलना,*
*४_और मामलात में नरमी करना ।*

*❀_ अगर इन चीजों की मस्क़ करते हुए हम इकराम सीखेंगे और अल्लाह ताला से दिल के साथ मांगेंगे तो इंशाल्लाह ये सिफ्ते हासिल होंगी।*

*❀_ सबसे ऊंचे दरजात इकराम होने वालों के हैं , और सबसे बड़ी जाज़बियत इकराम करने वालों में है, दुश्मन भी ज़ैर हो जाते हैं पराए भी अपने बन जाते हैं ।*
       
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*☞_हुसूले इल्म में सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम की तरतीब,*

*❀_ इल्म का नंबर भी इसमें बड़ी अहमियत रखता है, उम्मत को अगर तरीका ए नबवी सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम इल्म के सीखने सिखाने का मालूम हो जाए तो 100 फ़ीसदी उम्मत में इल्म जिन्दा हो जाए और इस दावत में इस तरीके को जिंदा करना है ।*

*❀_ हमारे ज़माने का तरीका खवास के लिए है आवाम के लिए नहीं है इसलिए एक तबका इल्म के बुलंद मर्तबा को पहुंच रहा है कि कुरान के हका़इक़ और वक़ाइक़ बयान करता है और दूसरा तबका कलमा से भी ना वाक़िफ है और फराइज़ को भी नहीं जानता है और अहम अक़ाईद की भी खबर नहीं।*

*❀_ अगर इल्म का वह तरीका जिंदा हो जाए जिस पर सहाबा किराम ने इल्म लिया तो दोनों तबकों में इफादा और स्तीफादा का ताल्लुक़ भी क़ायम हो जाएगा और हर आदमी के अंदर बा-कद्रे जरूरत इल्म भी आ जाएगा।*

*❀_ चुंकी जमाने का रिवाज़ इल्म के बारे में और उसका नक्शा दिमाग में दूसरा बन गया है इसलिए तबलीग वालों पर ऐतराज़ यह है कि इल्म की तरफ रगबत नहीं करते और ना लोगों को रगबत दिलाते हैं ।*

*❀_ दूसरे आवामुन्नास को जिनको कलमा और नमाज़ तक के सीखने की जरूरत है , अक़ाईद जानने की जरूरत है, हलाल हराम पहचानने की जरूरत है ,मामलात के इल्म की जरूरत है, उनको कुरान और हदीस के वह हका़ईक़ और वक़ाइक़ सुनाए जा रहे हैं जो उनके लिए बगैर पहली चीजों के सही हुए ज्यादा फायदा नहीं रखते, जिस चीज की पहली जरूरत है उसका इल्म मुकद्दम है।*

*❀_ हजरत मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह इल्म की नफी नहीं फरमाते थे मगर एक तरतीब बतलाना चाहते थे ताकि हर शख्स अपनी जरूरत का इल्म लाने वाला बन जाए और वह इल्म उसकी जरूरत को पूरा कर दें, महज़ तफरीह तलब ना बने, हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम के सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम जो तरीका ए इल्म रखते थे उससे इल्म ज्यादा आम हो सकता है , बाकी तरीके मुफीद ज़रूर है मगर उस दर्जे पर नहीं और उनकी उमूमियत भी कम है।*          
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*☞_ जिक्रुल्लाह में सहाबा किराम की तरतीब,*

*❀__ ऐसे ही जिक्र का नंबर बहुत अहम है और यह भी 100 फ़ीसदी उम्मत में उसी तरीके से आम हो सकता है जो तरीका नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम था जिस पर तमाम सहाबा रजियल्लाहु अन्हुम अपने कारोबार बीवी बच्चों मशागिल में अल्लाह का जिक्र करने वाले बने।*

*❀_ इनकी कसरते जिक्र कि जो शक्ल उस जमाने में थी वह तमाम अपनी जरूरतों में चलते और मशगूली में लगे हुए जारी थी, चूंकि इसका नक्शा इस जमाने में बाकी नहीं रहा इसलिए दूसरी शक्ल ऐसी वजूद में आई जो बड़ी फरागत को चाहती है, इसमें भी बड़ा फायदा है लेकिन उमूम कम है और हर शख्स नहीं चल सकता ।*

*❀_ हजरत मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाहि अलैह उसी तरीका ए नबी सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम के जिक्र को जिंदा करना चाहते थे ताकि पूरी उम्मत में जिकरुल्लाह का रिवाज पड़ जाए और वह इल्मे दीन के साथ भी और दुनियावी उलूम के साथ भी और अपने तमाम मशगलों के साथ भी चलता रहे,*

*❀_ इससे इल्म और जिक्र दोनों के तबकों में उल्फत व मोहब्बत और इफादा व इस्तफादा कि राह क़ायम हो जाएगी क्योंकि हर मुसलमान दोनों सिफ्तों का सख्त मोहताज है ।*    
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*☞_ तमाम आमाल की पाबंदी ज़रूरी है,*

*❀_ असल तो शुरू के दो ही नंबर है कलमा और नमाज़, बाक़ी तमाम चीजें इन्ही में सेहत और हक़ीक़त पैदा करने के लिए हैं और इन्हीं को फैलाने के लिए हैं।*

*❀_ सही दावत पर चलने वाला वह होगा जो इन सारी बातों का लिहाज रखते हुए उम्मत के साथ जुड़ कर चले और उम्मत को जोड़ते हुए चले और उसका मकसद ना अपनी दुनिया बनाना हो ना इज्जत व शोहरत हो बल्कि अल्लाह ताला ही के कलमे को बुलंद करना और जहालत को खत्म करना हो।*

*❀_अपनी सारी हैसियतों को इसके लिए कुर्बान करें लेकिन इसमें भी बहुत बड़ा खतरा पेश आ जाता है कि अपनी कुर्बानियां काबिले तारीफ व मदह नज़र आने लगती है और दूसरों से इकराम तलब का मुतालबा बन जाता है। हालांकि इसमें इकराम तलब करना नहीं बल्कि दूसरों का इकराम करना सीखना है ।*

*❀_ अगर साथी इकराम ना करें तो दिल में ख्याल ना आए कि मेरा इकराम नहीं किया और इसकी वजह से काम में सुस्ती ना आए, वरना शैतान इस बात पर ले जाएगा कि सारा किया कराया जा़या हो जाएगा।*
   
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        *☞_ हुब्बे जाह से बचा जाए,*

*❀_ कभी दिल में यह ख्याल ना आए कि मैंने अपनी उम्र दावत की कुर्बानियों में और दावत के तक़ाज़ों पर लगा दी इधर फिर भी मेरी क़दर नहीं कर रहे बल्कि ऐतराफ क़सूर बढ़ता रहे कि हाय ! मैंने कुछ नहीं किया और मालूम नहीं कि क़यामत में मेरे साथ क्या मामला होगा और मेरी यह मेहनत क़ुबूल भी होगी या बेकार जाएगी,*

*❀_ सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम बावजूद अपनी सही कुर्बानियों के अपने अंदर निफाक़ का खौफ रखते थे ।*

*❀_ जब तक यह सिफत हमारे अंदर पैदा ना हो जाए उस वक्त तक सिर्फ अल्फाज़ ही अल्फाज़ है हकीकत नहीं और इंतिहान के मौके पर आदमी अल्फाज़ भूल जाता है और दिल की हकीकत सामने आ जाती है और ऐसा हाल हो जाता है कि तोते को सालों कलमा पढ़ाया तो हर वक्त आने वालों के सामने बोलता रहा लेकिन जब बिल्ली ने दबोचा तो ज़ुबान से बजाए कलमा निकलने के टाय टाय निकलने लगी।*

*❀_ इसलिए हर चीज़ की हक़ीक़त का ध्यान रखना है, अभी हमारा यह लफ्ज़ और कलमा कि अल्लाह ही से होता है, गैर से कुछ नहीं होता, तोते का पढ़ाना है, मेहनत इसको अपने दिल में भी उतारने की करनी है ।*  
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        *☞_ गश्त के आदाब व अहमियत_,*

*❀__ इस काम में गश्त रीड की हड्डी है यह तमाम अंबिया किराम अलेहिस्सलाम की निस्बत है, हुजूरे पाक सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम मक्का मुकर्रमा में, ताइफ में ,मौसमे हज के मौक़े पर मीना में गश्त ही फरमाया करते थे ,कभी तन्हा कभी हजरत अब्बास रजियल्लाहु अन्हु के साथ हालांकि वह अभी मुसलमान नहीं हुए थे ,कभी हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु के साथ ,कभी ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ । गोया कि इंफ्रादी और इज्तिमाई दोनों तरीक़े से गश्त फरमाया । सूरह यासीन में 3 आदमियों का दावत देने के लिए जाना मज़कूर है । हजरत मूसा अलैहिस्सलाम अपने भाई हजरत हारून अलैहिस्सलाम के साथ दावत देने चले यह भी मज़कूर है।*

*❀__आज गश्त की अहमियत निकल गई और वह छूट गया, सिर्फ मस्जिदों का वाज़ और तक़रीर बाकी रह गया वह भी गनीमत है लेकिन गश्त करके लाने पर जो बात की तासीर है वह बगैर गश्त के नहीं ।*

*❀__ हर एक मुगालते में पड़ गया और यूं समझ लिया उम्मत इतना ईमान रखती है कि हमारे हलाल व हराम , फराइज़ व वाजिबात, हुकूक व मामलात के बयान सुनकर अमल पर आ जाएगी ।*

*❀__हालांकि ईमान इस क़दर कमज़ोर हो गया कि सुन कर अमल पर आना मुश्किल है, यही वजह है कि कसरते वाज़ व तक़रीर और तहरीर के उम्मत गिरती चली जा रही है तरक्की पजीर नहीं, बद आमाली की तरफ जा रही है आमाल की तरफ नहीं बढ़ रही है ।*

*❀__ इसलिए इस ख्याल को दिल में जमा करे कि ईमान कमज़ोर हो चुका है मौजूदा ईमान से अमल पर आना दुश्वार हो गया, पहले ऐसे ईमान की जरूरत है जो ख्वाहिशात के खिलाफ हुज़ूरे पाक सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम की तरफ खींच ले ,इसलिए गश्त की बहुत जरूरत है ।* 

*❀__ गस्त में अपने लिए ज़िल्लत की मश्क है (और तुमसे कोई शख़्स ईमान वाला नहीं हो सकता जब तक कि वो अपने भाई के लिए भी वो पसंद ना करे जो अपने लिए पसंद करता है) इस सबक़ को सीखना और मश्क करना है । दूसरे इखलास की मश्क है ,तीसरे बसीरत हासिल करने की मश्क है, चौथे उम्मत का दर्द और गम हासिल होता है और सुन्नत ए अंबिया होना तो सबसे बड़ी चीज़ है।*

*★_ और जिस क़दर जद्दोजहद इसमें पेश आती है और किसी अमल पर पेश नहीं आती और जिस क़दर सब्र व तहम्मुल की सिफात इसमें हासिल होती है और किसी अमल में नहीं होती, अगर यह जिंदा हो जाए तो पूरा दिन जिंदा हो जाएगा ।*

*★_ मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाह का एक मलफूज़ है कि हम इस काम से दो बातें चाहते हैं - अव्वल यह कि पूरी उम्मत जमाते बन बन कर गांव गांव शहर शहर मुल्क मुल्क अक़लीम अक़लीम हुजूरे पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की चीजों को लेकर फिरने की सुन्नत को जिंदा कर के पायादार कर दे और दूसरी चीज यह कि हर मुसलमान का दिल जज़्बा यह बन जाए कि मेरा काम इस दुनिया में अल्लाह के रास्ते में जान देने के सिवा और कुछ नहीं।*

*★_ और सही उसूलों, सही नियत और सही जज्बे के साथ गश्त किया जाए तो इंसानों में दीन इस तरह फैलता चला जाए जैसे बारिश के जरिए ज़मीन पर सब्जा़ गल्ले फल फूल खिलते चले जाते हैं।*

*★_और यह गश्त तमाम कामों के साथ मशगूलियों के साथ चाहे दीनी हो या दुनियावी, अहेल अयाल रखते हुए हर शख्स कर सकता है जैसे सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम करते थे , अगर यह जिंदा हो जाए तो दीन जिंदा हो जाएगा अपने अंदर भी और दूसरों के अंदर भी ।*

*★_ तर्के लायानी जरूरी है वरना इससे दीन की रौनक जाती है और यह भी बहुत दुश्वार बन जाता है ।अल्लाह ताला हमें तौफीक अता फरमाए और हमारे लिए आसानी फरमाए (आमीन)* 
     
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         *☞_ दाई की सिफात,*

*❀_ दाई मे यह आठ सिफ़ाते होना चाहिए :-*

*१_ उम्मत के साथ मोहब्बत का होना,*

*२_ अपनी इस्लाह की नियत से दावत देना,*

*३_ जान व माल व वक्त की कुर्बानी का जज़्बा होना,*

*४_ तक़ब्बुर और बढ़ई की बजाए आजिज़ी और इन्कसारी का होना,*

*५_ कामयाबी मिलने पर अल्लाह की मदद समझना,*

*६_ लोगों के ना मानने पर ना उम्मीद ना होना ,*

*७_ लोगों के तकलीफ देने का सब्र करना,*

*८_ और हर नेक अमल के आखिर में इस्तग्फार करते रहना_,*
     
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         *☞_इस्तेक़ामत के 17 असबाब,*

*❀_ दावत में इस्तेकामत के 17 असबाब हजरत मौलाना सईद अहमद खान साहब ने तहरीर फरमाए ;-*
*१_जो इस काम को दिल के साथ करेगा वह जमेगा,*
*२_ जो रोजाना दावत देगा उसके जज्बात बनते रहेंगे जो दावत नहीं देगा उसके जज्बात टूटते रहेंगे,*
*३_जो माहौल में रहेगा वह जमेगा जो माहौल से कटेगा वह दावत से कट जाएगा,*
*४_ जो इस काम में रुख ना डालेगा वह कटेगा,*
*५_अमीर की इता'त और मशवरों का पाबंद रहने वाला जमेगा,*
*६_जो किसी के ऐब देखेगा वह इस काम से कटेगा जो अच्छाइयों को देखेगा वह जमेगा,*

*७_ जो तमाज़ो अख्तियार करेगा वह जमेगा जो तकब्बुर के साथ चलेगा वह नहीं जम सकता,*
*८_ बाज़ गुनाह ऐसे होते हैं जिनकी वजह से काम से महरूम हो जाता है - गीबत अगराज़, तनकीद ,बदनज़री शहवत..,*
*९_जो मजा़हिब तवज्जह इस्तगफार करता रहेगा वह जमेगा,*
*१०_ जो दूसरों की गलतियों को अपने ऊपर लेगा वह जमेगा जो अपनी गलती दूसरों पर डालेगा वह नहीं जम सकता,*

*❀_११_जो हुजूर सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम के साथ मुनाफक़त करेगा नफा नहीं उठा सकेगा हत्ताकि ईमान भी नसीब ना होगा,*
*★_१२_जो दूसरों की गलत बात की तावील कर के अच्छे मानी मतलब की तरफ ले जाएगा वह जमेगा ,जो हर बात का उल्टा मतलब लेगा वह नहीं जमेगा ,*
*★_ १३_जो आदमी अल्लाह ताला से डरते हुए और मांगते हुए चलेगा वह जमेगा, जमने को मांगना पड़ेगा वरना हिल जाएगा, हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम भी इस्तेका़मत की दुआ मांगते थे, हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने भी दुआ मांगी, "ऐ अल्लाह मुझे बुत परस्तों की बुत परस्ती से बचा _," हालांकि उनसे बुत परस्ती का इमकान भी ना था, उन्होंने मांगा तो हम क्या चीज है ?*

*★_१४_ जो इखलास से कुर्बानी देगा अल्लाह ताला उसे हर हालत में जमाएगा ऐसे मौकों पर जब लोगों के कदम पढ़ रहे होंगे, अल्लाह ताला आला दर्जे की रज़ा नसीब फरमाएगा,*

*★_१५_जो यह कहेगा कि मेरी वजह से काम हो रहा है, वो मेहरूम हो जाएगा, जिसके मुताल्लिक लोग यह समझेंगे कि इसकी वजह से काम हो रहा है अल्लाह ताला उसे उठा लेगा ।*
*★_१६_ हजरत जी रहमतुल्लाहि अलैहि फरमाया करते थे, जो नकल पर उखडेगा वो असल पर कैसे जमेगा, हम तो नकल करने वाले हैं ।*
*★_१७_ जो पूरी उम्मत के गम लेकर चलेगा उसके दिल की कैफियत को अल्लाह पूरे आलम पर डालेगा ।*

*★"_साफ सी बात है कि कोई भी काम सही उसूलों के मुताबिक करने पर ही सही नतीजा देता है, तबलीगी काम के उसूल जानने के लिए हमारे पास इससे बेहतर कोई ज़रिया नहीं कि बानी ए जमात हजरत मौलाना इलियास साहब रहमतुल्लाहि अलैहि के क़रीबी लोगों से काम के उसूल सीखे ।*

*★_ हजरत मौलाना सईद अहमद खान साहब रह. बड़े हजरत जी मौलाना इलियास साहब रह. के बड़े क़रीबी रफ़ीक़ होने के अलावा ख़ुद भी बड़े आलिमे दीन थे और उम्र भर का तबलीगी तजुर्बा रखते थे, उनकी एक एक बात हमारे लिए क़ीमती सरमाया और का़बिले क़द्र नियामत है, अपने दो क़रीबी रफ़ीक़ो को उन्होंने एक तवील ख़त लिखा था जिसमें तबलीग के अहम उसूलों का तफ़सीली ज़िक्र किया गया था, उस ख़त को हमने हक़ का दाई ग्रुप के ज़रिये आपकी खिदमत में "नूर ए हिदायत" में पेश किया, अल्लाह तआला हम सब साथियों को अमल की तोफ़ीक़ अता फरमाये, आमीन,*

*💤 हज़रत मौलाना सईद अहमद ख़ान साहब रह.*

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