AHKAAM E MAYYAT- HINDI

 

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     ╭•═════•✭﷽✭•════•╮  
    ╭  *📿 अहकाम ए मैययत  📿* ╮
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*╠☞_ मय्यत को नहलाने और कफ़नाने का सवाब,*

*✧⇝रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि ,*
*"_ जो शख्स मैय्यत को गुस्ल दे वो गुनाहो से ऐसा पाक हो जाता हे जैसे अब मां के पेट से पैदा हुआ हो _,*

*✧⇝_ और जो मैय्यत पर कफ़न डाले अल्लाह तआला उसको जन्नत का जोड़ा पहनाएंगे _,"*

 *📓 अत्तरगीब व तरहीब, किताबुल जनाइज़ -जिल्द 4,*

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      *╠☞_ मय्यत को कौन नहलाए,?*

*✿_ 1- मय्यत को नहलाने का हक५ सबसे पहले तो उसके क़रीबतरीन रिश्तेदारों को है, बेहतर है वह खुद नहलाये और औरत की मय्यत को क़रीबी रिश्तेदार औरत नहलाये, क्यूंकी ये अपने अज़ीज़ ही आखिरी खिदमत है _,"*
*® दुर्रे मुख्तार,*

*✿_2- कोई दूसरा शख्स भी नहला सकता है लेकिन मर्द को मर्द और औरत को औरत गुस्ल दे, जो ज़रुरी मसाइल से वाक़िफ़ हो और दीनदार हो,*
*"® शामी,*

*✿_ 3- किसी को उजरत देकर भी मय्यत को गुस्ल दिलाया जा सकता है, लेकिन उजरत लेकर गुस्ल देने वाला सवाब का मुस्तहिक नहीं होता, अगरचे उजरत लेना जाइज है,*
*® बहिश्ती गोहर,*

*✿ 4- अगर कोई मर्द मर गया और मर्दो में कोई नहलाने वाला नहीं हो तो बीवी के अलावा किसी औरत के लिए उसे गुस्ल देना जाइज़ नहीं, अगरचे महरम ही हो,*
*"_ अगर बीवी भी ना हो तो उसे तयम्मुम करा दें गुस्ल ना दे, लेकिन तयम्मुम कराने वाली औरत अगर मय्यत के लिए गैर महरम हो तो उसके बदन को हाथ ना लगाये, बल्की अपने हाथ में दस्ताने पहन कर तयम्मुम कराए,*

*✿_ 5- किसी का ख़ाविंद मर गया तो बीवी को उसका चेहरा देखना, नहलाना और कफनाना दुरस्त है, और अगर बीवी मर जाये तो शोहर को उसे नहलाना उसका बदन छूना और हाथ लगाना दुरस्त नहीं, अलबत्ता देखना दुरस्त है, और कपड़े के ऊपर से हाथ लगाना और जनाज़ा उठाना भी जाइज है,*
*® बहिश्ती ज़ेवर, मुसाफिरे अखिरत,*

*✿_ 6- अगर किसी नाबालिग लड़के का इंतकाल हो जाए और वो अभी इतना छोटा था कि उसे देखने से शहवत नहीं होती तो मर्दो की तरह औरतें भी ऐसे लड़कों को गुस्ल दे सकती है,*
*⇛ और अगर नाबालिग लड़की का इंतकाल हो जाए और वो इतनी कम उमर हो कि उसे देखने से शहवत नहीं होती तो ऐसी कम उमर लड़की को औरतो की तरह मर्द भी गुस्ल दे सकते हैं,*
*⇨ अल्बत्ता नाबालिग लडका और लड़की इतने बड़े हों कि देखने से शहवत होती है तो लड़के को मर्द और लड़की को औरत ही गुस्ल दे,*
*® आलमगीर,*

 *✿_7- गुस्ल देने वाला बा वज़ू हो तो बेहतर हे,*
*✿_ 8- जो शख्स हालते जनाबत में हो या जो औरत हैज़ या निफास में हो वो मय्यत को गुस्ल ना दे, क्यूंकी उनका गुस्ल देना मकरूह है,*
*® शामी, बहिस्ती ज़ेवर,*

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*╠☞ _ गुस्ल देने वालो के लिए हिदायात:-*

*✿ 1- तरीके़ के मुताबिक़ गुस्ल दिया जाए, (इंशा अल्लाह तारीका आगे लिखा जाएगा),*
*✿ 2- गुस्ल के लिए जो समान ज़रुरत का वह वो अपने पास जमा रखे,*
*✿ 3- गुस्ल देने के लिए बेरी के पत्ते डाल कर गरम पानी तैयार कर लें, जब नीम गरम रह जाए उससे गुस्ल दें, अगर बेरी के पत्ते मयस्सर ना हो तो यही सादा नीम गरम पानी काफ़ी है,*

 *® बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿ 4- बहुत तेज़ गरम पानी से गुस्ल ना दें,*
*✿ 5- गुस्ल देने के लिए घर के बरतन इस्तेमाल किए जा सकते हैं, नए बर्तन मंगाना ज़रुरी नहीं,,*
*✿ 6- जिस जगह गुस्ल दिया जाए वो ऐसी हो कि पानी बहकर निकल जाए, वर्ना लोगो को चलना फिरने में तकलीफ़ होगी,*
*✿ 7- जिस जगह गुस्ल दिया जाए वहा पर्दा होना चाहिए,*
*✿ 8- मय्यत के बालो में कंघी ना करे, ना नखून काटे, ना ही कहीं के बाल काटे, सब इसी तरह रहने दें,*
*✿ 9- अगर नेहलाने में मय्यत का कोई ऐब देखे तो किसी से ना कहे, अगर खुदा न खास्ता मरने से उसका चेहरा बिगड़ गया या काला हो गया तो ये भी ना कहे और बिलकुल इसका कोई चर्चा ना करे, कि ये सब ना-जाएज़ है,*

*✿ 10-अगर कोई अच्छी अलामत देखे, मसलन चेहरा नूरानियत और तबस्सुम वगेरा, तो उसे ज़ाहिर करना मुस्तहब है,* 
*✿11- जो शख्स पानी में डूब कर या आग से जलकर हलाक हुआ या शहीद हुआ हो या नाहक़ क़त्ल कर दिया गया हो या किसी हादसे में उसके टुकड़े टुकड़े हो गए हों या हमल साक़ित हुआ हो तो उसके गुस्ल और कफन दफन वगेरा के मसाइल पेहले देख लिए जाए,*
*✿ 12- अगर पानी ना होने के सबब किसी मय्यत को तयम्मुम करा दिया गया हो और फिर पानी मिल जाए तो उसे गुस्ल दे देना चाहिए,*

*® बहिश्ती गोहर,*
 
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*╠☞_ मय्यत को गुस्ल देने का तरीक़ा-1,*

*✿_ जिस तख्त पर गुस्ल दिया जाए उसे 3 दफा या 5 दफा या 7 दफा लोबान की धूनी दे लो और मय्यत को उस पर इस तरह लिटाओ कि किब़्ला उसके दाई तरफ हो,*
*⇛ अगर मौका़ ना हो और कुछ मुश्किल हो तो जिस तरह चाहो लिटा दो,*

*®_ फतहुल कदीर, 1/449, शामी,1/800,*

*✿_"_ फ़िर मय्यत के बदन के कपड़े (कुर्ता, शेरवानी, बनियान वगेरा) चाक कर दो और एक तहबंद उसके सतर पर डाल कर अंदर ही अंदर वो कपड़े उतार लो,*
*"_ ये तहबंद मोटे कपड़े का नाफ से पिंडली तक होना चाहिए, ताकी भीगने के बाद अंदर का बदन नज़र ना आए,*

*✿_"_ मसला -- नाफ़ से लेकर जानू तक देखना जाइज़ नहीं, ऐसी जगह हाथ लगाना भी ना-जाइज़ है, मय्यत को इस्तिंजा कराने और गुस्ल देने में उस जगह के लिए दस्ताने पहनना चाहिए या कपड़ा हाथ पर लपेट लें, क्योंकि ज़िंदगी में जिस जगह हाथ लगाना जाइज़ नहीं वहा मरने के बाद भी बिला दस्ताने के हाथ लगाना जाइज़ नहीं और उस पर निगाह भी ना डालो,*

        *®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_"_ गुस्ल शुरू करने से पहले बाएं हाथ में दस्ताना पहन कर मिट्टी के 3 या 5 ढेलो से इस्तिंजा कराओ, फिर पानी से पाक करो, फिर वज़ू इस तरह कराओ कि ना कुल्ली कराओ, ना नाक में पानी डालो,ना हाथ गट्टो तक धुलाओ,  बल्की रूई का फ़ाया तर करके होंठों, दांतो और मसूड़ों पर फेर कर फेंक दो, इस तरह 3 दफा करो,*

*✿_"_ फिर इस तरह नाक के दोनो सुराखों को रूई के फाये से साफ करो, लेकिन अगर गुस्ल की ज़रुरत (जनाबत) की हालत में मौत हुई हो या औरत इंतकाल के वक़्त हैज़ या निफ़ास की हालत में हो तो मुंह और नाक में पानी डालना ज़रुरी है, पानी डालकर कपड़े से निकाल लो,*

*✿__ फिर नाक और मुंह और कानो में रूई रख दो ताकी वज़ू और गुस्ल कराते वक्त पानी अंदर ना जाए,*
*"_ फ़िर मुंह धुलाओ, फ़िर हाथ कोहनियो समेत धुलाओ, फ़िर सर का मसह कराओ, फ़िर 3 दफ़ा दोनों पैर धुलाओ,*

*✿_ जब वज़ू करा चुको तो सर को (और अगर मर्द है तो डाढी को भी) गुरखेरु से या खतमी से या खली या बेसन या साबुन वगेरह से कि जिससे साफ हो जाए मल कर धो दो _,"*

*✿_"_ फिर उसे बाईं करवट लिटाओ और बेरी के पत्तो में पकाया हुआ नीम गरम पानी दांयी करवट पर 3 दफा सर से पैर तक इतना डालो कि नीचे की जानिब बाईं करवट तक पहुंच जाए ,*
*"_ फ़िर दांई करवट पर लिटाकर  इसी तरह से सर से पैर तक 3 दफा इतना पानी डालो कि नीचे की जानिब दाईं करवट तक पहुंच जाए,*

*✿_ इसके बाद मय्यत को अपने बदन की टेक लगाकर ज़रा बिठलाने के क़रीब कर दो और उसके पेट को ऊपर से नीचे तक की तरफ आहिस्ता आहिस्ता मलो और दबाओ,*
*⇛अगर कुछ पेशाब या पखाना बगेर खारिज हो तो सिर्फ उसी को पोंछ कर धो दो, वज़ू और गुस्ल दोहराने की ज़रुरत नहीं  क्यूंकी इस नापाकी के निकलने से मय्यत के गुस्ल और वज़ू में कोई नुक़सान नहीं आता,*

*✿_ "_ फिर उसे बाईं करवट लिटा कर दांई करवट पर काफूर मिला हुआ पानी सर से पैर तक 3 दफा खूब बहा दो कि नीचे दांई करवट भी खूब तर हो जाए, फिर दूसरा दस्ताना पहन कर सारा बदन किसी कपड़े से खुश्क करके तहबंद दूसरा बदल दो,*

*✿_ "_ फ़िर चारपाई पर कफन के कपड़े मसनून तरीक़े पर ऊपर नीचे बिछा दो, ( मसनून तरीका आगे पार्ट में लिखा जाएगा इंशा अल्लाह)*

*✿_ "_ फिर मय्यत को आहिस्ता से गुस्ल के तख्ते से उठा कर कफन के ऊपर लिटा दो और नाक कान और मुंह से रूई निकाल डालो,*
*®_ फतावा हिंदिया, दुर्रे मुख्तार, बहिश्ती ज़ेवर, मुसाफिरे आखिरत,*

*✿_ "_ नहलाने का जो तरीक़ा ऊपर बयान हुआ सुन्नत है लेकिन अगर कोई इस तरह 3 दफा न नहलाये बल्की सिर्फ 1 दफा सारे बदन को धो डाले तब भी फ़र्ज़ अदा हो जाएगा,*
*® बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ अगर मय्यत के ऊपर पानी बरस जाए या और किसी तरह पूरा बदन भीग जाए तो ये भीग जाना गुस्ल के क़ायम मक़ाम नहीं हो सकता, गुस्ल देना बहरहाल फ़र्ज़ है,*
*"_ इसलिये कि मय्यत को गुस्ल देना ज़िन्दो पर फ़र्ज़ है और मज़कूरा सूरत में उनका कोई अमल नहीं हुआ,, हां अगर पानी से निकालते वक्त गुस्ल की नियत से उसे पानी में हरकत दे दी जाए तो गुस्ल का फ़र्ज़ अदा हो जाएगा,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

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*╠☞_ मय्यत को नहलाने के बाद खुद गुस्ल करना,*

*✿"_ मय्यत को गुस्ल देने वाले को बाद में खुद भी गुस्ल कर लेना मुस्तहब हे,*

 *® शामी,*

*✿"_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत हे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि,*
*"_जो शख्स मय्यत को गुस्ल दे तो उसे चाहिये कि गुस्ल करे,"*

*® इब्ने माजा,*

*✿_ और दूसरी हदीस में इज़ाफ़ा हे कि, "जो शख़्स मय्यत का जनाज़ा उठाये उसे चाहिये कि वज़ू करे,"*

*®_ मारफुल हदीस,*

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          *╠☞_ कफन का बयान -1,*

*✿"_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत हे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया,- "तुम लोग सफेद कपड़े पहनना करो, वो तुम्हारे लिए अच्छे कपड़े ही और इन्हीं कपड़ो में अपने मुर्दो को कफनाया करो,"*
*®_ सुनन अबी दाऊद, सुनन इब्ने माजा, जामिया तिर्मिज़ी,*

*✿"_ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत हे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया,-*
*"_बेश क़ीमत कफन इस्तेमाल ना करो, क्यूकी वो (कफ़न बहरहाल) जल्दी ही ख़तम हो जाता हे, (फ़िर बेश क़ीमत कफन का मय्यत को क्या फ़ायदा?)"*
*®_ सुनन अबी दाउद, मारफुल हदीस,*

*✿"_ जेसा कि मय्यत को गुस्ल देना फ़र्ज़े किफ़ाया है, कफन देना, उस पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ना और दफ़न करना भी फ़र्ज़े किफ़ाया है,*
*"_ कफन का कपड़ा भी अगर घर में मोजूद हो और पाक साफ हो तो उसके इस्तेमाल में कोई हर्ज नहीं, कफन का कपड़ा उसी हैसियत का होना चाहिए जैसा मुर्दा अक्सर अपनी जिंदगी में इस्तेमाल करता था, तकल्लुफात फिजूल हे,*
*® बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ मर्द और औरत दोनो के लिए सबसे अच्छा कफन सफेद कपड़े का है और नया और पुराना यकसां हैं,*
*® इमदादुल फतावा, दुर्रे मुख्तार,*

*✿_ मर्द के लिए खालिस रेशमी या ज़ाफ़रान या असफ़र से रंगे हुए कपड़ों का कफन मकरूह हे, औरत के लिए जाइज़ हे,*
*® दुर्रे मुख्तार,*

*✿_ अपने लिए पहले से कफन तैयार रखना मकरूह नहीं, कब्र का तैयार रखना मकरूह हे,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*"_ तबर्रुक के तोर पर आबे ज़मज़म में तर किया हुआ कफन देने में कोई मुजा़यका़ नहीं बल्की बाईसे बरकत है,*
*®_इम्दादुल फतावा,*

*✿_ कफन में या क़ब्र के अंदर अहदनामा या किसी बुज़ुर्ग का शजरा या क़ुरानी आयात या कोई दुआ रखना दुरस्त नहीं, इसी तरह कफन पर या सीने पर काफूर से या रोशनाई से कलमा वगेरा या कोई दुआ लिखना भी दुरुस्त नहीं _,"*
*®_बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ किसी बुज़ुर्ग का इस्तेमाल किया हुआ कपड़ा या गिलाफ़े काबा के नीचे का कपड़ा हो तो ये कफन के लिए बगेर धुले नए कपड़े से भी बेहतर है, इस कपडे का अगर कुर्ता ( जो मय्यत को कफन में पहनाया जाता है ) हो सके तो कर दो और अगर छोटा हो तो कुर्ते में सी दो,*
*®_ इमदादुल फतावा- 1/488,*

*✿ काबा शरीफ़ के गिलाफ़ के ऊपर का कपड़ा जिस पर कलमा या क़ुरानी आयत लिखी हो वो कफन या क़ब्र में रखना दुरस्त नहीं,*
*®_ इमदादुल फतावा, शामी,*

*✿_ गिलाफे काबा अगर खालिस रेशम का हो तो मर्द को उसमे कफनाना बहरहाल ना जाइज़ है चाहे उस पर कुछ लिखा हो या न लिखा हो क्यूंकी मय्यत को ऐसे कपडे में कफन देना जाइज़ नहीं जिसे पहनना उसे ज़िंदगी में जाइज़ ना था, और ख़ालिस रेशम का कपड़ा मर्दो को पहनना जाइज़ नहीं, औरतो को जाइज़ है _,"*
*®_दुर्रे मुख्तार,*

*✿_ बाज़ जगह रिवाज़ हे कि नोजवान लड़की या नई दुल्हन मर जाती है तो उसके जनाज़े पर सुर्ख चादर या ज़री गोटा का दुपट्टा वगेरा डाल देते हैं, यह ना-जायज़ है,*
*®_दुर्रे मुख्तार, इमदादुल फतावा,*

*✿_ किसी इंसान की क़ब्र खुल जाए या और किसी वजह से उसकी लाश कब्र से बाहर निकल आए और उस पर कफन ना हो तो उसे भी मसनून कफन देना चाहिए, बशर्ते कि लाश फटी ना हो और अगर फट गई हो तो सिर्फ किसी कपड़े में लपेट देना काफ़ी है,*
*®_ बहिश्ती गोहर,* 

*★"_मर्द का कफन:- मर्द के कफन के मसनून कपडे 3 हैं:-*
*1- इजा़र ............सर से पांव तक,*
*2- लिफ़ाफ़ा (इसे चादर भी कहते हैं) ......... इजा़र से लंबाई में 4 गिरह ज़्यादा,*
*3- कुर्ता- बैगर आस्तीन और बगेर कली का ...... गर्दन से पांव तक, (इसे कमीज या कफनी भी कहते हैं)*

*★"_ औरत का कफन :-औरत के कफ़न के लिए मसनून कपड़े 5 हैं:-*
*"_ 1,2,3 मर्द की तरह ही होते हैं,*

*4- सीना बंद ........बगल से रानों तक हो तो ज़्यादा अच्छा वह वरना नाफ तक भी दुरस्त है, और चोड़ाई में इतना हो कि बंध जाए,*
*5- सर बंद (इसे ओड़नी भी कहते हैं) ......तीन हाथ लंबी हो,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*★"_ मर्द को 3 और औरत को 5 कपडे में कफनाना मसनून है, लेकिन अगर मर्द को 2 कपड़े (इजार और लिफाफा) में और औरत को 3 कपड़ो (इजार, लिफाफा और सर बंद) में कफना दिया जाए तो ये भी दुरस्त है, और इतना कफन भी कफी है, इससे कम कफ़न देना मकरूह हे, अगर कोई मजबूरी और लाचारी हो तो कम भी दुरुस्त है,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

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               *╠☞_ बच्चो का कफन *

*✿_ अगर नाबालिग लड़का या लड़की मर जाए जो अभी जवान भी नहीं हुए लेकिन जवानी के क़रीब पहुंच गए हों तो लड़के के कफन में 3 कपड़े और लड़की के कफन में 5 कपड़े देना दुरस्त है,*
*"_ अगर लड़की को 5 की बजाय 3 और लड़के को 3 के बजाय 2 ही कपड़े दिए जाएं तब भी दुरुस्त है,*
*"→गर्ज़ ये कि जो हुक्म बालिग मर्द व औरत का है वही हुक्म नाबालिग लड़के और लड़की का है, बालिग मर्द व औरत के लिए वो हुक्म ताकीदी है और नाबालिग के लिए बेहतर हे_,"*
*®_ शामी, बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ जो लडका या लड़की बहुत कम उमरी में फौत हो जाए कि जवानी के क़रीब भी ना हुए हो तो बेहतर ये है कि लड़कों को मर्दो की तरह 3 कपड़े और लड़की को औरतों की तरह 5 कपड़े कफन के दिए जाएं,*
*"_ और अगर लड़कों को सिर्फ एक और लड़की को सिरफ 2 कपड़े कफन में दे दिए जाएं तो भी दुरुस्त है और नमाज़े जनाज़ा और तदफीन हस्बे दस्तूर की जाए,*
*®_बिश्ती ज़ेवर, आलमगीर,*

*✿_ जो बच्चा जिंदा पैदा हुआ फिर थोड़ी देर में ही मर गया या फौरन पैदा होने के बाद मर गया तो वो भी इसी क़ायदे से नेहला दिया जाए और कफना कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाए फिर दफ़न कर दिया जाए और उसका नाम भी कुछ रखा जाए _,"*
*®_बिश्ती ज़ेवर,*

*✿_"_ जो बच्चा मां के पेट से मरा हुआ पैदा हुआ और पैदा होते वक्त जिंदगी की कोई अलामत नहीं पाई गई, उसे भी उसी तरह नेहलाओ लेकिन का़यदे के मुवाफिक़ कफन ना दो बल्कि एक कपडे में लपेट कर दफ़न कर दो,*
*⇛उस पर नमाज़ जनाज़ा भी नहीं पढ़ी जाएगी, अलबत्ता नाम उसका भी कुछ न कुछ रख देना चाहिए,*
*® _बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ अगर हमल गिर जाए तो अगर बच्चे के हाथ-पांव-मुंह-नाक वगेरह उज़्व कुछ ना बने हों तो ना नेहलाएं और ना कफनाएं, कुछ भी न करे बल्की किसी कपडे में लपेट कर एक गढ़ा खोद कर गाड़ दो,*
*⇛अगर उस बच्चे के कुछ उज़्व बन गऐ तो उसका वही हुक्म है जो मुर्दा बच्चा पैदा होने का है, यानी नाम रखा जाए, और नेहला दिया जाए लेकिन क़ायदे के मुवाफिक कफन ना दिया जाए, न नमाज़ पढ़ी जाए, बल्कि कपड़े में लपेटकर दफन कर दिया जाए,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*"_ विलादत के वक्त बच्चे का केवल सर निकला, उस वक़्त वो जिंदा था फिर मर गया तो इसका वही हुक्म है जो मुर्दा बच्चा पैदा होने का हुकम है,*
*"_ अलबत्ता अगर ज़्यादा हिस्सा निकल आया उसके बाद मरा तो ऐसा समझेंगे कि वो ज़िंदा पैदा हुआ,*
*⇛और अगर सर की तरफ से पैदा हुआ तो सीने तक निकलने से समझेंगे कि ज़्यादा हिस्सा निकल आया और अगर उल्टा पैदा हुआ तो नाफ तक निकलना चाहिए,*
*® _बहिश्ती ज़ेवर, बा- हवाला दुर्रे मुख्तार,*

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*╠☞_ कफन की पेमाइश और तैयार करने का तरीक़ा,*

*✿ "_कफन की पेमाइश और उसकी तैयारी का तरीक़ा मर्द के लिए ये है कि मय्यत के कद के बराबर एक लकड़ी (या फीता) लो और उसमे एक निशान लगालो, और एक धागा सीने के मुकाबिल रख कर जिस्म की गोलाई में निकालो कि दोनों सिरे उस धागे के दोनों तरफ की पसलियों पर पहुंच जाएं, और इसको तोड़ कर अपने पास रख लो,*

*✿ "_ फिर एक कपड़ा लो जिसका अर्ज़ उस धागे के बराबर (या नाप के बराबर) या क़रीब बराबर हो, अगर अरज़ इस क़दर ना हो तो उसमें जोड़ लगा कर पूरा कर लो, और उस पूरी लकड़ी (या फीता से जो क़द का नाप लिया) के बराबर लंबी एक चादर फाड़ लो, इसको इजा़र कहते हे,*

 *✿_  इस तरह दूसरी चादर फाड़ लो, जो अरज़ में तो इस क़दर हो अल्बत्ता तोल में इज़ार से चार गुना ज्यादा हो इसको लिफाफ़ा कहते हैं,*

*✿_ फिर एक कपड़ा लो जिसका अरज़ बा- क़दर् चोडा़ई जिस्म मर्द के हो और लकड़ी (या फीता) के निशान से आखिर तक जिस क़दर तोल है उसका दुगना फाड़ लो और दोनो सिर कपडे के मिलाकर बीच में से चाक खोल लो कि सर की तरफ से गले में आ जाए, इसको क़मीज़ या कफनी कहते हैं,*

*✿_औरत के लिए मर्दो के सब कपड़े तो वही है और उन्हें तैयार करने का तरीक़ा भी वही है जो ऊपर बयान हुआ, इसके अलावा औरतों के लिए 2 कपड़े और है,*
*"_ 1- सीना बंद ,2-सर बंद जिसे ओड़नी कहते हे ,*
*"_सीना बंद ज़ेरे बगल से रानों तक और धागा मज़कूर के बा क़द्र चोडा़, सर बंद निस्फ इजा़र से तीन गिरह ज़्यादा लंबा और 12 गिरह चोड़ा,* 
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    *╠☞_कफ़न-- ज़ाइद (अतिरिक्त) कपडे,*

*✿__ बाज़ कपड़े लोगों ने कफन के साथ ज़रुरी समझ रखे हैं हालांकी वो कफन ए मसनून से खारिज है, इसलिये मय्यत के तर्के में से जो कि सब वारिसो में मुश्तरिक है और मुमकिन है कि इनमें बाज़ ना-बालिग भी हों या बाज़ यहां हाज़िर ना हो, उन कपड़ो का खरीदना उनके माल में ना जाइज़ तसर्रुफ करना है,*
*"_ अव्वल तो इन चीजो की हाजत नहीं बल्की इनकी पाबंदी बिद'अत है, अलबत्ता औरतो के जनाज़े पर (गहवारे की) चादर पर्दे के लिए ज़रुरी है,*

*★• वो जा़इद (अतिरिक्त) कपडे ये है:-*

 *✿_ 1- जानमाज़ ::--ये महज़ एक रस्म है, नमाज़े जनाज़ा में मुक्तदियों को चटाई या फ़र्श की ज़रुरत नहीं इसी तरह इमाम को जानमाज़ की हाज़त नहीं,*

*✿_ 2- पटका :-- ये मुर्दा को कब्र में उतारने के लिए होता है,*

  *✿_ 3- बिछौना :-- ये चारपाई पर बिछाने के लिए होता हे,*

*✿_ 4- दामनी :-- बा क़द्रे इस्तेतात 4 से 7 तक मोहताजो को देते हैं, जो महज़ औरतों के लिए मखसूस हे,*

*✿_ 5- चादर कलां :--जो गहवारे पर डाली जाती हे, मगर ये कफन से खारिज हे,* 

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*╠☞_ मर्द को कफनाने का तरीक़ा:-*

*✿_"_ जब मय्यत को गुस्ल दे चुके तो चार पाई बिछा कर कफन को 3 दफा या 5 दफा या 7 दफा लोबान वगेरह की धुनी दो, फिर कफन को चार पाई पर बिछा कर मय्यत को इस पर लिटा दो और नाक, कान, मुंह से रूई जो गुस्ल के वक्त रखी गई थी निकाल डालो,*

*✿_"_ मर्द को कफनाने का तरीक़ा ये है कि पहले लिफाफा बिछा कर उस पर इजा़र बिछा दो फिर कुर्ता (कमीज) का निचला निस्फ हिस्सा बिछा दो, और ऊपर का बाक़ी हिस्सा समेट कर सराहने की तरफ रख दो,*
*"_ फिर मय्यत को आहिस्ता से उठा कर उस बिछे हुए कफन पर लिटा दो और कमीज का जो निस्फ हिस्सा सराहने की तरफ रखा था, उसे सराहने की तरफ उलट दो कि कमीज का सुराख (गिरेबान) गले में आ जाए, और पैरों की तरफ बढ़ा दो_,"*

*✿_"_ जब इस तरह कमीज़ पहना चुको तो गुस्ल के बाद जो तहबंद मय्यत के बदन पर डाला गया था वो निकाल दो, और उसके सर और दाढ़ी पर इत्र वगेरह कोई खुशबू लगा दो, फिर दोनो घुटनो, पेशानी, नाक, हथेली, पांव पैर (जिन आजा़ पर आदमी सजदा करता है) काफूर मल दो,*
*"_ याद रहे मर्द को ज़ाफ़रान नहीं लगानी चाहिए,*

*✿_ इसके बाद इज़ार का बायां पल्ला (किनारा) मय्यत के ऊपर लपेट दो, यानि बायां पल्ला नीचे रहे और दायां ऊपर,*

*✿_ फ़िर लिफ़ाफ़ा इस तरह लपेट दो कि बायां पल्ला नीचे और दायां पल्ला ऊपर रहे, फ़िर कपडे की कतरन लेकर कफन को सर और पांव की तरफ से बांध दो, और बीच में से कमर के नीचे को भी एक कतरन से बांध दो, ताकि हवा से या हिलने जुलने से खुल ना जाए,*

*®_ शामी, बहिश्ती जेवर, मुसाफिरे अखिरत,*

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 *☞_ औरत को कफनाने का तरीक़ा -1 ,*

*★"_ औरत के लिए पहले लिफाफा बिछा कर उस पर सीना बंद और उस पर इज़ार बिछाओ, फिर क़मीज़ का निचला निस्फ हिस्सा बिछाओ और ऊपर का बाक़ी का हिस्सा समेट कर सिरहाने की तरफ रख दो,*
*"_ फिर मय्यत को गुस्ल के तख्त से आहिस्ता से उठाकर उस बिछे हुए कफन पर लिटा दो और कमीज का जो निस्फ हिस्सा सिरहाने की तरफ रखा था उसे सर की तरफ उलट दो कि कमीज का सुराख (गिरेबान) गले में आ जाए और पैरों की तरफ बड़ा दो,*

*★"_ जब इस तरह क़मीज़ पहना चुको तो जो तहबंद गुस्ल के बाद औरत के बदन पर डाला गया था वो निकल दो, और उसके सर पर काफूर इतर वगेरा कोई खुशबू लगा दो, औरत को ज़ाफरान भी लगा सकते हैं,*

*★"_ फ़िर पेशनी, नाक और दोनो हथेलियों और दोनो घुटनो और दोनो पांवो पर काफूर मल दो,*

*★"_ फिर सर के बालो के दो हिस्से करके कमीज के ऊपर सीना बंद डाल दो, एक हिसा दाहीनी तरफ और दूसरा हिस्सा बाई तरफ, फिर सरबंद, यानि ओड़नी सर पर और बालो पर डाल दो, उसको बांधना या लपेटना नहीं चाहिए,*

*★"_ इसके बाद मय्यत के ऊपर इज़ार इस तरह लपेटो के बायां पल्ला (किनारा) नीचे रहे और दायां पल्ला (किनारा) ऊपर रहे, सर बंद उसके अंदर आ जाएगा, इसके बाद सीना बंद इसके अंदर आ जाएगा, इसके बाद सीना बंद सीने के ऊपर बगलो से निकाल कर घुटनो तक दाएं बाएं बांध दो,*

*★"_ फिर लिफाफा इस तरह लपेटो कि बायां पल्ला नीचे और दायां पल्ला ऊपर रहे, इसके बाद कतरन से कफन को सर और पांव की तरफ से बांध दो, और बीच में कमर के नीचे को भी एक बड़ी कतरन से बांध दो ताकि हिलने जुलने से खुल ना जाये,*

*®_ बहिष्ती ज़ेवर, मुसाफिरे आखिरत,*


*✿_"_ बाज़ लोग कफन पर भी इतर लगाते हैं, और इतर की फुरेरी मय्यत के कान में रख देते हैं, ये सब जहालत है, जितना शरियत में आया है उससे ज़्यादा मत करो,*
*®_बहिश्ती ज़ेवर,,*

*✿_"_ जनाजे़ के ऊपर जो चादर डाल देते हैं ये कफन में दाखिल नहीं है और मर्द के लिए ज़रूरी भी नहीं, लेकिन अगर कोई शख्स अपनी चादर उस पर डाल दे और कब्र पर जाकर अपनी चादर उतार ले तो इसमें भी कोई हर्ज नहीं,*
 *®_मुसाफिरे आखिरत,*

*✿_ अलबत्ता औरत के जनाजे पर चादर डालना पर्दे के लिए जरूरी है, मगर कफन में ये भी दाखिल नहीं, चुनांचे इसका हमरंग कफन होना जरूरी नहीं, पर्दे के लिए कोई सा कपड़ा हो काफी है, बल्कि कोई शख्स अपनी चादर उस पर डाल दे और क़ब्र पर जाकर उतार ले तो भी काफ़ी है,*
*®_मुसाफिरे आखिरत, बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ अगर गहवारा मोजूद हो तो औरत के जनाजे पर वो रख कर चादर डाल दी जाए, वरना बांस की तिलियां या दरख्त की हरी शाख रख कर उस पर चादर डाल दें ताकी पर्दा रहे,*
*®_ मुसाफिरे आखिरत,*

*✿_मज़कुरा बाला तरीक़े से जनाजा तैयार करके उस आखिरत के मुसाफिर को नमाज़ जनाज़ा के लिए सब्र व तहम्मुल के साथ रुखसत करो,*
*"_ किसी को मूंह दिखलाना हो तो दिखा दो, इस मौके पर बाज़ औरतें बुलंद आवाज से रोने और बीन करने लगती है, या जनाजे के साथ घर से बाहर निकल आती है और पर्दे से भी गाफिल हो जाती है, इन सब बातों से खुद बचना और दूसरों को बचाना ज़रूरी है, वरना सब्र का अज़ीमुश्शान सवाब जाता रहेगा और आखिरत का वबाल भी सर पडेगा,*
 
          *╂───────────╂*
*╠☞_ तजहीज़ व तकफ़ीन से बचा हुआ सामान:-*
                          
*✿_"_ गुस्ल और कफन दफन के सामान में से अगर कुछ कपडा वगेर  बच जाए तो वो यूंही किसी को देना या जा़ए कर देना जाइज़ नहीं, बल्की इसमे ये तफ़सील है कि अगर वो मय्यत के तरके से लिया गया था तब तो उसे तरका ही मे रखना वाजिब है, ताकी शरियत के मुताबिक तरके की तक़सीम में वो बचा हुआ सामान भी शामिल हो जाए,*
*⇛और अगर किसी और शख्स ने अपनी तरफ से दिया था तो बचा हुआ सामान उसी को वापस कर दिया जाए,*
*®_ आलमगीरिया,*

*✿_ अगर किसी लावारिस फकीर की तजहीज़ व तकफीन के लिए लोगो से चंदा लिया गया था तो जो सामान या रक़म बचे वो चंदा देने वाले को वापस किया जाए,*
*"_ अगर चंदा देने वाले या उनका पता मालूम ना हो सके तो किसी और लवारिस फकीर की तजहीज़ व तकफीन में खर्च कर दिया जाए, वरना फुकरा मसाकीन को सदका में दे दिया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, शामी,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ जनाजा़ उठाने का बयान:-*

*★"_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, जो आदमी ईमान की सिफत के साथ और सवाब की नियत से किसी मुसलमान के जनाज़े के साथ जाए, और उस वक्त तक जनाज़े के साथ रहे जब तक कि उस पर नमाज़ पढ़ी जाए और उसके दफन से फरागत हो तो वो सवाब के दो क़ीरात लेकर वापस होगा, जिनमे से हर क़ीरात उहद पहाड़ के बराबर होगा,*
*"_और जो आदमी नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर वापस आ जाए दफन होने तक साथ ना दे तो वो सवाब का (ऐसा ही) एक क़ीरात लेकर वापस होगा_,"*
*®_ मारफुल हदीस, सही बुखारी व मुस्लिम,*

*★"_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, जनाज़े को तेज़ ले जाया करो, अगर वो नेक है तो (क़ब्र उसके लिए) खैर है, (यानी अच्छी मंजिल है) जहां तुम (तेज़ चलके) उसे जल्दी पहुंचा दोगे, और अगर उसके सिवा दूसरी सूरत है (यानी जनाज़ा नेक का नहीं है) तो एक बड़ा बोझ (तम्हारे कांधो पर) है (तुम तेज़ चलके जल्दी) उसको अपने कांधो से उतार दोगे,"*
*®_ सही बुखारी व मुस्लिम, मारफुल हदीस,*

*★"_ हदीस में है कि जो शख्स (जनाज़े की) चारपाई चारो तरफ़ से उठाए (यानी चारो तरफ से कंधा दे) तो उसके 40 कबीरा गुनाह (यानी सगाइर में जो बड़े सगाइर है) बख्श दिए जाएंगे,*
*"_® बहिष्ती ज़ेवर बा हवाला इब्ने असाकिर,*

*★"_ मय्यत अगर पडोसी या रिश्तेदार या कोई नेक परहेज़गार शख्स की हो तो उसके जनाज़े के साथ जाना निफ्ल नमाज़ पढ़ने से अफ़ज़ल हे,*
*"_ ज़रुरत पेश आ जाये तो जनाज़ा उजरत देकर भी उठवाया जा सकता हे,*
*®_आलमगिरी,*

*★"_ औरतों का जनाजे़ के साथ जाना मकरूह तहरीमी है,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

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*╠☞_ जनाज़ा ले जाने का मसनून तरीक़ा, -*

*✿_ अगर मय्यत शेरख्वार बच्चा या उससे कुछ बड़ा हो तो लोगो को चाहिये कि उसे दस्त बा दस्त ले जायें, यानि एक आदमी उसे अपने दोनों हाथो पर उठाए, फिर उससे दूसरा आदमी ले ले, इसी तरह बदलते हुए, ले जाएं,*

*✿_और अगर मय्यत बड़ी (मर्द या औरत) हो तो उसे किसी चार पाई (या गहवारा में) वगेरा पर लिटा कर ले जाएं, सराहना आगे रखे, और उसके चारो पायो को एक आदमी उठाए, और मय्यत की चार पाई हाथों से उठा कर कंधों पर रखना चाहिए,*
*"_ हाथो से उठाए बगेर माल व असबाब की तरह गर्दन पर लादना मकरूह है, पीठ पर लादना भी मकरू है, इसी तरह बिला उज़्र इसका किसी जानवर या गाड़ी वगेरा पर रख कर ले जाना भी मकरूह है, और उज्र हो तो बिला कराहत जायज़ है, मसलन क़ब्रिस्तान बहुत दूर हो,*
*®_ बहिश्ती गोहर मय हाशिया,*

*✿_ जनाजे को दो पट्टियों (लकड़ियां) के दर्मियान इस तरह उठाना भी मकरूह है कि दो आदमियों ने उठा रखा हो, एक ने आगे से दूसरे ने पीछे से, जैसे भारी सामान खींचा जाता है, हा ! मजबूरी में मुजा़यका नहीं, मसलन रास्ता इतना तंग हो कि चार आदमी सुन्नत के मुताबिक़ उठा कर ना गुज़र सकें,*
*®_ आलमगिरी,*

*✿_ जनाज़ा को उठाने का मुस्तहब तरीक़ा ये है कि पहले मय्यत के दाहिनी तरफ़ का अगला पाया अपने दाहिने कांधे पर रख कर कम से कम 10 क़दम चलें, उसके बाद उसी तरह का पिछला पाया अपने दाहिने कंधे पर रख कर कम से कम 10 क़दम चलें,*
*"_ इसके बाद मय्यत के बाएं तरफ का अगला पाया अपने बांए कंधे पर रख कर, फिर पिचला पाया अपने कांधे पर रख कर कम से कम 10-10 क़दम चले, ताकी चारो पायो को मिला कर 40 क़दम हो जाएं, हदीस शरीफ़ में जनाज़े को कम से कम 40 क़दम तक कंधा देने की बड़ी फज़ीलत आई है,*
*®_ बहिश्ती गोहर, दुर्रे मुख्तार, शामी,*
*
*✿_ जनाज़े को तेज़ क़दम ले जाना मसनून है, मगर न इतनी तेज़ कि मय्यत को हरकत व इज़्तराब होने लगे, (बहिश्ती गोहर)"*

*✿_ जनाजे़ के हमराह प्यादा पा (पैदल) चलना मुस्तहब है और अगर किसी सवारी पर हों तो जनाज़े के पीछे चले, (बहिश्ती गोहर)*

*✿_जो लोग जनाज़े के हमराह हों उनको जनाज़े के पीछे चलना मुस्तहब है, अगरचे जनाज़े के आगे चलना भी जाइज़ है ! अगर जनाज़े से आगे बहुत दूर चला जाए या सब लोग जनाज़े के आगे हो जाएं तो मकरूह हे, इसी तरह जनाज़े के आगे किसी सवारी पर चलना भी मकरूह हे, (बहिश्ती गोहर)*

*✿_ जो लोग जनाज़े के साथ हों उन्हे जनाज़े के दांये या बाएं नहीं चलना चाहिए, (आलमगिरी)*

*✿_ जनाज़े के हमराह जो लोग हों उनको कोई ज़िक्र या दुआ बुलंद आवाज़ से पढ़ना मकरूह,( बहिश्ती गोहर)*

*✿_ जो लोग जनाज़े के साथ न हो बल्की कही बेठे हों, और उनका इरादा जनाज़े के साथ जाने का भी ना हो, उनको जनाज़ा देख कर खड़ा नहीं होना चाहिए, (बहिश्ती गोहर)* 
 
                         
*✿ _जो लोग जनाज़े के साथ जाये उनको इससे पहले कि जना कांधों से उतारा जाये, बेठना मकरूह हे, हां! कोई ज़रुरत बेठने की पेश आए तो मुज़ायका नहीं, (बहिश्ती गोहर)*

*✿ _ जो शख्स जनाज़े के साथ हो उसे बेगर नमाज़ पढ़े वापस नहीं आना चाहिए, अलबत्ता नमाज पढ़ कर मय्यत वालो से इजाज़त लेकर आ सकता है, और दफन के बाद इजाज़त की जरूरत नहीं, (आलमगिरी)*

*✿ _आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जनाज़ा के साथ पैदल तशरीफ़ ले जाते, (तिर्मिज़ी) और जब तक जनाज़ा कांधो से उतारा न जाता, न बेठते, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि, जब तुम जनाज़े में आओ तो जब तक उसे ना रख दिया जाए मत बेठो _,"* 
*⇛और एक रिवायत में है कि - जब तक लहद (क़ब्र) में न रख दिया जाए मत बेठो, ( मदारिज अल- नबूवत)*

*✿_ जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जनाज़े के साथ जाते तो पैदल चलते और फरमाते  कि मैं सवार नहीं होता जबकि फरिश्ते पैदल जा रहे हों, जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (दफन से) फारिग हो जाते तो कभी पैदल वापस होते, कभी सवार होकर, (ज़ादुल माआद,)*

*✿_ रसूल अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब जनाज़े के साथ चलते तो खामोश रहते और अपने दिल में मौत के मुताल्लिक गुफ्तगु फरमाते, (इब्ने सा'द)*

          *╂───────────╂*
    *╠☞_ नमाज़ जनाज़ा का बयान ,*

*✿_ मय्यत पर नमाज़े जनाज़ा पढ़ना भी फ़र्ज़े किफ़ाया है, यानि अगर किसी ने भी उस पर नमाज़ ना पढ़ी तो जिन जिन लोगो को मालूम था वो सब गुनाहगार होंगे,*
*"_ और अगर सिर्फ एक शख्स ने भी नमाज पढ़ ली तो फर्जे़ किफाया अदा हो जाएगा, क्यूंकी जमात नमाज़ जनाज़ा के लिए शर्त या वाजिब नहीं_," ( शामी )*

*✿_ अगर जुमा के दिन किसी शख्स का इंतकाल हो गया तो अगर जुमा की नमाज़ से पहले कफन, नमाज़ और दफन वगेरा हो सके तो ज़रूर कर लें, इस ख्याल से जनाजा़ रोके रखना कि जुमा की नमाज़ में मजमा ज्यादा होगा मकरूह है_,"( शामी, बहिश्ती गोहर)*

*✿_अगर जनाज़ा उस वक्त आया जबकि फर्ज़ नमाज़ की जमात (जुमा या गैर जुमा) तैयार हो तो पहले फर्ज़, सुन्नत पढ़ ले, फ़िर जनाज़ा की नमाज़ पढ़े, (दुर्रे मुख्तार, शामी),*

*✿_ अगर नमाज़े ईद के वक्त जनाजा़ आया तो पहले ईद की नमाज पढ़े, फिर ईद का खुतबा पढ़ा जाए, उसके बाद जनाज़ा की नमाज़ पढे, (इमदादुल फतावा ,1/505)*

*✿_ मरने वाले शख्स ने वसीयत की कि मेरी नमाज़ जनाज़ा फलां शख्स पढ़ाए, तो मोतबर नहीं, और शर'न उस पर अमल करना जरूरी नहीं,*
*"_ नमाज़ जनाज़ा पढ़ने का जिन लोगो को हक़ दिया है, उन्ही को इमाम बनाना चाहिए, अलबत्ता अगर वही किसी और को इमाम बनाना चाहे तो मुज़ायका नहीं, (मराक़िल फलाह, 324 )* 

          *╂───────────╂*
*╠☞ _नमाज़ जनाज़ा का वक़्त:-*

*✿_ जिस तरह पंज वक़्ता नमाज़ों के लिए वक्त मुकर्र है, नमाज़ जनाज़ा के लिए इस तरह ​​का कोई खास वक़्त ज़रूरी या शर्त नहीं, (शामी, बहिश्ती गोहर)*

*✿_ नमाज़ फजर के बाद तुलु आफताब से पहले और नमाज़ असर के बाद आफताब ज़र्द होने से पहले निफ्ल और सुन्नत पढना तो ममनू हे, मगर नमाज़ ए जनाजा़ इन औक़ात में भी बिला कराहत दुरुस्त है, (आलमगिरी, शामी, इमदादुल फतवा)*

*✿_ आफताब के तुलु, ज़वाल (ठीक दोपहर) और गुरुब के वक़्त दूसरी नमाज़ो की तरह नमाज़ जनाज़ा भी जाइज़ नहीं, तुलु का वक्त आफताब का ऊपर का किनारा ज़ाहिर होने से शुरू होकर उस वक्त तक रहता है जब तक आफताब पूरा निकल कर ऊंचा ना हो जाए,*
*"_ यानी नज़र जब उस पर जम सकती हो, और गुरुब का वक्त आफताब का रंग ज़र्द पड़ जाने से शुरू होता है, यानि जबसे कि उस पर नज़र जमने लगे और उस वक्त तक रहता है जब तक कि आफताब पूरा गायब न हो जाए, (शामी, 1/341,344, आलमगिरी, 1/52, बहिश्ती ज़ेवर)*

*✿_ नमाज़ जनाज़ा मज़कुरा बाला (जो ऊपर बयान हुई) तीन औक़ात में पढ़ना इस सूरत में ना-जाइज़ है जबकी जनाज़ा उन औक़ात से पहले आ चुका हो, और अगर जनाज़ा खास तुलु, ज़वाल या गुरूब ही के वक्त आया हो तो उस पर नमाज़ जनाज़ा उस वक़्त भी जाइज़ है, (आलमगिरी, दुर्रे मुख्तार, शामी,)*

*✿_ खुलसा ये है कि नमाज़ जनाज़ा तीन अवक़ात (तुलु, ज़वाल, गुरुब) के अलावा हर वक़्त बिला कराहत जाइज़ है, और इन तीन औक़ात में भी इस सूरत में जाइज़ है जबकी जनाज़ा ख़ास इन्हीं वक्त में आया हो,*

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*╠☞ जुते पहन कर नमाज़ जनाज़ा पढ़ना,*

*✿_ आज कल बाज़ लोग जनाज़े की नमाज़ जुते पहने हुए पढते हैं, उनके लिए ज़रूरी है कि वो जिस जगह खड़े हों वो जगह और जूते दोनों पाक हों, वरना उनकी नमाज़ नहीं होगी,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ और अगर जूता पैर से निकाल दिया जाए और उस पर खड़े हों तो सिर्फ जूते के ऊपर का हिस्सा जो पैर से मिला है उसका पाक होना ज़रुरी है, अगरचे तला नापाक हो, नीज़ इस सूरत मे अगर वो ज़मीन भी नापाक हो तो कोई हर्ज नहीं_,"*
*®_ बहिश्ती गोहर, इमदादुल अहकाम,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ वो शर्तें जिनका मय्यत में पाया जाना ज़रुरी है:*

*✧⇝ दूसरी क़िस्म की वो शर्तें हैं जिनका मय्यत से ताल्लुक़ है वो 6 है,*
*✿_"_1- मय्यत का मुसलमान होना:- गैर और मुर्तद पर नमाज़ सही नहीं, मुसलमान अगर फासिक और बिद'ती हो उस पर नमाज़ सही है, सिवाय उन लोगों के जो मुसलमान हाकिम ए हक़ से बगावत करते हुए या डाका जनी करते हुए या कबाइली, वतनी सुबाई, या लिसानी तास्सुब के लिए लड़ते हुए मारे जाएं, उन लोगों पर नमाज़ जनाज़ा नहीं पढ़ी जाएगी, और अगर लड़ाई के बाद क़त्ल किए गए या लडाई के बाद अपनी मौत मर जायें तो फिर उनकी नमाज़ पढ़ी जाएगी,*
*®_बहिश्ती गोहर, दुर्रे मुख्तार, शामी,*

*✿_ इसी तरह जिस शख्स ने अपने बाप या मां को क़त्ल किया हो और उसकी सज़ा में वो मारा जाए तो उसकी नमाज़ भी नहीं पढ़ी जाएगी,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ जिस शख्स ने खुदकुशी की हो सही ये है कि उसको गुस्ल दिया जाएगा और उस पर नमाज़ जनाज़ा भी पढ़ी जाएगी,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ मय्यत से मुराद वो शख्स है जो ज़िंदा पैदा होकर मर गया हो, या बातने मादर से उसके जिस्म का अक्सर हिस्सा बा-हालते ज़िंदगी बाहर आया हो, और अगर मरा हुआ पैदा हुआ या अक्सर हिस्सा निकलने से पहले मर जाए तो उसकी नमाज़ दुरस्त नहीं,*
*®_ बहिश्ती गोहर, बहिश्ती जेवर,*

*✿_ मैय्यत के बदन और कफन का नजासते हकी़क़ा से पाक होना, हां अगर नजासते हकी़किया उसके बदन से कफनाने के बाद खारिज हुई हो और इस सबब से उसका बदन या कफन बिलकुल नजिस हो जाए तो कोई मुज़ायका नहीं, नमाज़ दुरस्त है, धोने की जरूरत नहीं, ( बहिश्ती गौहर व शामी)*

*✿_ अगर कोई मैय्यत नजासते हकी़किया से पाक ना हो यानि उसे गुस्ल न दिया गया हो और दर सूरत ना मुमकिन होने गुस्ल के तयम्मुम भी ना किया गया हो, उस पर नमाज़ दुरुस्त नहीं, हां अगर उसका ताहिर होना मुमकिन न हो मसलन बे गुस्ल या तयम्मुम कराये हुए दफान कर चुके हों और क़ब्र पर मिट्टी भी पड़ चुकी हो, मगर लाश फटी ना हो तो फिर उसकी नमाज़ उसकी कब्र पर उसी हालत में पढ़ी जाए,*

*✿_ अगर किसी मैय्यत पर बे गुस्ल या तयम्मुम के नमाज़ पढी गई हो और वो दफन कर दिया गया हो और बाद दफन के मालूम हुआ कि उसे गुस्ल न दिया गया था, तो जब तक लाश फटी ना हो उसकी नमाज़ दोबारा उसकी क़ब्र पर पढ़ी जाए, इसलिये कि पहली नमाज़ सही नहीं हुई, अब चूंकी गुस्ल मुमकिन नहीं है लिहाजा नमाज़ हो जाएगी, ( बहिश्ती गौहर )*

*✿_ अगर कोई मुसलमान बगैर नमाज़ जनाजा पढ़े हुए दफन कर दिया गया हो तो उसकी नमाज़ उसकी क़ब्र पर पढ़ी जाएगी, जब तक की उस लाश के फट जाने का अंदेशा न हो, जब ख्याल हो कि अब लाश फट गई होगी तो फिर नमाज़ न पढ़ी जाए, और लाश फटने की मुद्दत हर जगह के ऐतबार से मुखतलिफ है, उसकी तयीन नहीं हो सकती, यही ज्यादा सही है, और बाज़ ने तीन दिन और बाज़ ने दस दिन और बाज़ ने एक माह की मुद्दत बयान की है, (बहिश्ती गौहर),*

*✿_ मैय्यत अगर किसी पाक पलंग या तख्त या किसी पाक गद्दे या लिहाफ पर रखी हो तो उस पलंग वगेरह की जगह का पाक होना शर्त नहीं, ऐसी सूरत में बिला शक व शुबहा नमाज़ जनाजा दुरस्त है,*
*⇛और अगर पलंग या तख्त वगेरा भी नापाक हो या मैय्यत को बगेर तख्त और पलंग के नापाक जमीन पर रख दिया है तो ऐसी सूरत में मैय्यत की जगह का पाक होने के शर्त होने ना होने में इख्तिलाफ ह, बाज़ के नज़दीक शर्त है, लिहाज़ा नापाक तख्त या नपाक ज़मीन पर रखने की सूरत में नमाज़ जनाज़ा दुरस्त नहीं होगी, और बाज़ के नज़दीक शर्त नहीं लिहाज़ा नमाज़ सही हो जाएगी, (बहिश्ती गौहर),* 

*✿_3-तीसरी शर्त :- मैय्यत के जिस्म वाजिबुल सतर (यानी बदन का वो उसका छिपाना वाजिब और ज़रूरी हे) का पोशिदा होना, अगर मैय्यत बरहना हो तो उस पर नमाज़ जनाज़ा दुरस्त नहीं,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿ 4- चौथी शर्त :- मैय्यत का नमाज़ पढ़ने वालो के आगे होना, अगर मैय्यत नमाज़ पढ़ने वालो के पीछे हो तो नमाज़ दुरुस्त नहीं,*

 *✿ 5- पांचवीं शर्त :- मैय्यत का या जिस चीज पर मय्यत हो उसका ज़मीन पर रखा हुआ होना, अगर मय्यत को लोग अपने हाथो पर उठाए हो या किसी गाड़ी या जानवर पर हो और उसी हालत में उसकी नमाज पढ़ी जाए तो उज्र के बगैर सही नहीं होगी,*
*®_ बहिश्ती गोहर व शामी ,1/813*

 *✿ 6- छठी शर्त :- मैय्यत का वहा मोजूद होना, अगर मैय्यत वहां मोजूद ना हो तो नमाज़ सही ना होगी,* 

          *╂───────────╂*
 *╠☞_ नमाज़ जनाज़ा के फ़राइज़ ,*

*✿_ नमाज़ जनाज़ा में दो चीज़ें फ़र्ज़ है:-*
*"_1- चार मर्तबा अल्लाहु अकबर कहना, हर तकबीर यहां क़ायम मुक़ाम एक रकात के समझी जाती है, यानी जैसे दूसरी नमाजों में रकात ज़रूरी है वेसे ही नमाज़ जनाजा में हर तकबीर जरूर है,*

 *✿_ अगर इमाम जनाज़ा की नमाज़ में 4 तकबीर से ज़ाएद कहे तो हनफ़ी मुक्तदियों को चाहिए कि उन ज़ाएद तकबीरात में उसका इत्तेबा ना करे, बल्की सुकूत किए हुए खड़े रहें, जब इमाम सलाम फेरे तो खुद भी सलाम फैर दें ।*
*"_ हां अगर ज़ाएद तकबीरे इमाम से न सुनी जाएं बल्की मुकब्बीर से, तो मुक्तदियों को चाहिए कि इत्तेबा करे और हर तकबीर को तकबीरे तहरीमा समझे, ये ख्याल करे कि शायद इससे पहले जो 4 तकबीरें मुकब्बिर नक़ल कर चुका है वो ग़लत हों, इमाम ने अब तकबीरे तहरीमा कही हो _,"*
*®_ दुरे मुख्तार, शामी,*

*✿_ 2- क़याम, यानी खड़े होकर नमाज़ जनाज़ा पढ़ना, जिस तरह फ़र्ज़, वाजिब नमाज़ो में क़याम फ़र्ज़ है और बे उज्र इसका तर्क जाइज़ नहीं, उसी तरह नमाज़ जनाज़ा भी बिला उज़्र बेठ कर पढने से अदा नहीं होती _,"*
*®_ बहिश्ती गोहर ,*

*✿_मसला:- अज़ान व अक़ामत और क़िरात, रुकू, सजदा, क़ायदा वगेरा नमाज़ में नहीं है,*
*®_ बहिश्ती गोहर ,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ नमाज़ जनाज़ा में 3 चीज़े मसनून हैं,*

*✿_ 1- अल्लाह तआला की हम्द करना,*
*"_2- नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर दरूद पढ़ना,*
*3-और मय्यत के लिए दुआ करना,*
 *®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ जमात इस नमाज़ में शर्त नहीं, पस अगर एक शख्स भी जनाज़े की नमाज़ पढ़ ले तो फ़र्ज़ अदा हो जाएगा, चाहे वो नमाज़ पढ़ने वाला औरत हो या मर्द, बालिग हो या ना बालिग, और अगर किसी ने भी ना पढ़ी तो सब गुनहगार होंगे,*
 *® बहिष्ती गोहर, शामी,*

*✿_ लेकिन नमाज़ जनाज़ा की जमात में जितने ज़्यादा लोग हों उतना ही बेहतर है, इसलिये कि ये दुआ है (नमाजे़ जनाजा़) मैय्यत के लिए, और चंद मुसलमानो का जमा होकर बारगाहे इलाही में किसी चीज़ के लिए दुआ करना एक आजीब खासियत रखता है नुज़ूले रहमत और क़ुबूलियत के लिए,*
*"_ लेकिन नमाज़ जनाज़ा में इस गरज़ से ताखीर करना कि जमात ज़्यादा हो जाए मकरूह हे,*
 *®_ बहिश्ती गोहर,* 

          *╂───────────╂*
*╠☞ _ नमाज़ जनाज़ा का तरीका़ ;-*

*✧⇝_ नमाज़ जनाज़ा का मुस्तहब और मसनून तरीका़ ये है कि मय्यत को आगे रख कर इमाम उसके सीने के सामने खड़ा हो जाए, और सब लोग ये नियत करे, - मैने इरादा किया कि नमाज़ जनाज़ा पढ़ु, जो अल्लाह तआला की नमाज़ है और मय्यत के लिए दुआ हे,*
*✧⇝"_ ये नियत करके दोनो हाथ मिस्ल तकबीरे तहरीमा के कानो तक उठाकर एक मर्तबा ''अल्लाहु अकबर'' कह कर दोनो हाथ मिस्ल (जिस तरह नमाज में बांधते हैं) नमाज के बांध ले, फ़िर सना (सुब्हानकाल्लाहुम्मा) अखीर तक पढ़े उसके बाद फिर एक बार "अल्लाहु अकबर" कहें मगर इस बार हाथ ना उठाएं, बाद इसके दरूद शरीफ पढ़े, और बेहतर यही है कि वही दरूद शरीफ (दरूद ए इब्राहिम) पढ़ा जाए जो नमाज़ में पढ़ा जाता है,*

*⇛फिर एक मर्तबा "अल्लाहु अकबर" कहें और इस मर्तबा भी हाथ ना उठे, इस तकबीर के बाद मय्यत के लिए दुआ करे, (बालिग मर्द औरत, ना-बालिग लडका लड़की की अलग अलग दुआएं हैं) जो दुआएं हदीस में आई हैं उनको ही पढ़ें, जिनको हमारे फुक़हा ने भी नक़ल किया है जिस दुआ को चाहे पढ़े,*
*⇛जब दुआ पढ़ चुके तो फिर एक मर्तबा "अल्लाहु अकबर" कहे और इस बार भी हाथ ना उठाये, और इस तकबीर के बाद हाथ छोड़ कर सलाम फेर दें, जिस तरह नमाज़ में सलाम फेरते हैं, इस नमाज़ में अत्तहियात और क़ुरान मजीद की क़िरात वगैरह नहीं है,*
*®_ बहिश्ती गोहर,,*

*✧⇝अगर किसी को नमाज़ जनाज़ा की दुआ याद ना हो तो सिर्फ "अल्लाहुम्मगफिर लिलमु'मिनीन वल मु'मिनात" पढ़ ले, अगर ये भी याद न हो सके तो सिर्फ 4 तकबीरे कह देने से भी नमाज़ हो जाएगी, (चाहे और कुछ भी न पढ़े), इसलिये कि दरूद शरीफ़ और दुआ फ़र्ज़ नहीं है, मसनून हैं,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✧_ नमाज़ जनाज़ा के बाद वहीँ हाथ उठाकर दुआ माँगना मकरूह हे, सुन्नत से साबित नहीं है, क्यूंकी नमाज़ जनाज़ा खुद दुआ है,*

*✧⇝नमाज़ जनाज़ा इमाम और मुक्तदी दोनो के हक़ में यकसां हैं, इतना फ़र्क़ है कि इमाम तकबीरे और सलाम बुलंद आवाज़ से कहेगा और मुक्तदी आहिस्ता आवाज़ से, बाक़ी चीज़ें सना और दरूद और दुआ मुक़्तदी भी आहिस्ता आवाज़ से पढ़ेंगे और इमाम भी आहिस्ता आवाज़ से पढेगा,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✧⇝ जनाज़ा की नमाज़ में मुस्तहब है कि हज़ीरीन की 3 सफें कर दी जाएं, यहां तक कि अगर सिर्फ़ 7 आदमी हों तो एक आदमी उनमे से इमाम बना दिया जाए, और पहली सफ़ में 3 आदमी हों और दूसरी सफ़ में 2 और तीसरी में एक आदमी हो,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*
          *╂───────────╂*
*╠☞_ वो चीज़ें जिनसे नमाज़ जनाज़ा फ़ासिद हो जाती है:-*
                         
*✿_ जनाज़े की नमाज़ भी उन चीज़ों से फासिद हो जाती है जिन चीज़ों से दूसरी नमाजो़ में फसाद आता है,*

*✿_ बस इतना फ़र्क़ है कि जनाज़ा की नमाज़ में क़हक़हा (आवाज़ से हंसना) से वज़ू नहीं जाता और औरत की मुहाज़ात से भी इसमे फ़साद नहीं आता _,"*

*®_ बहिश्ती गोहर,*
          *╂───────────╂*
*☞ _मस्जिद और वो मक़ामात जिनमे नमाज़ जनाजा मकरूह हे,*

*✿ _जनाज़ा की नमाज़ उस मस्जिद में पढ़ना मकरूह तहरीमी है जो पंज वक़्ता नमाजो़ या जुमा या ईदेन की नमाज़ के लिए बनाई गई हो, चाहे जनाजा मस्जिद के अंदर हो या मस्जिद से बाहर हो और नमाज पढ़ने वाले अंदर हो,*
*"_ हां जो खास जनाजा की नमाज़ के लिए बनाई गई उसमे मकरूह नहीं,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿ _ हशिया— और अगर ये सूरत हो कि जनाजा और इमाम मय कुछ मुक्तदियो के मस्जिद से बाहर हो और बाक़ी मुक्तदी अंदर हों तो इस सूरत को भी अल्लामा शामी और साहिबे दुर्रे मुख्तार ने मकरूह क़रार दिया है, लेकिन इमदादुल मुफ्तीन में फतवा बजाज़िया के हवाले से इसे जायज़ लिखा है, लिहाज़ा अहतयात बहार हाल इसमे है कि बिला उज़्र इस सूरत से भी इज्तनाब किया जाए,*
*®_ रफ़ी'अ,*

*✿ _ अगर मस्जिद के बाहर कोई जगह न हो तो मजबूरी में मस्जिद में पढ़ना मकरूह नहीं,*
*®_ इमदादुल फतवा, 1/534*

*✿ _ हरमैन शरीफैन मे इसी उज्र की बिना पर मस्जिद मे नमाज़ जनजा पढ़ी जाती है,*

*✿_ आम रास्ते पर नमाज़ जनाज़ा पढ़ना कि जिससे गुज़रने वालो को तकलीफ़ हो मकरूह है,*
*®_ शामी ,1/827*

*✿ _ किसी दूसरे की ज़मीन पर उसकी इजाज़त के बगेर नमाज़ जनाज़ा पढ़ना मकरूह हे,*
*"_ मय्यत को नमाज के बगेर भी मस्जिद में दाखिल करना मकरूह,*
*®_ शामी , 1/827*

*✿_ जनाज़ा की नमाज़ बैठ कर या सवारी की हालत में जाइज़ नहीं, जबकी कोई उज़्र ना हो,*
 *®_ बहिश्ती गोहर,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ अगर एक वक्त में बहुत से जनाजे जमा हो जाएं ?*

*★"_ अगर एक ही वक्त में कई जनाजे जमा हो जाएं तो बेहतर ये है कि हर जनाजे की नमाज़ अल्हिदा ( अलग अलग ) पढी जाए,*
*⇛और अगर सब जनाज़ो की एक ही नमाज़ पढ़ी जाए तब भी जाइज़ है, और उस वक़्त चाहिए कि सब जनाज़ो की सफ़ क़ायम कर दी जाए, जिसकी बेहतर सूरत ये है कि एक जनाज़े के आगे दूसरा जनाजा रख दिया जाए कि सबके पैर एक तरफ हों और सबके सर एक तरफ और ये सूरत इसलिये बेहतर हे कि इसमे सबका सीना इमाम के मुक़ाबिल हो जाएगा, जो मसनून है,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*★"_ अगर जनाजे मुख्तलिफ असनाफ (क़िस्मो) के हों तो तरतीब से उनकी सफ क़ायम की जाए कि इमाम के करीब मर्दो के जनाजे, उनके बाद लड़कों के जनाजे और उनके बाद बालिगा औरतो के और उनके बाद नाबालिगा लड़कियों के_,"*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ जनाज़े की नमाज़ में मसबूक और लाहिक़ के अहकाम-,*

*✿_ अगर कोई शख्स जनाजे की नमाज़ में उस वक्त पहुंचा कि कुछ तकबीरें उसके आने से पहले हो चुकी हों तो जिस क़दर तकबीरें हो चुकी हों उनके ऐतबार से वो शख्स मसबूक़ समझा जाएगा,*
*"_ हाशिया -- क्यूंकी पीछे मालूम हो चुका है कि नमाज़ जनाज़ा में तकबीरे तहरीमा समेत हर तकबीर पूरी एक रकात के हुक्म में है, जितनी तकबीरे फौत हो गई गोया कि उतनी ही रका'ते फौत हो गई (शामी),*

*✿_ और उसको चाहिए कि फौरन आते ही और नमाजों की तरह तकबीरे तहरीमा कह कर शरीक़ ना हो जाए बल्की इमाम की अगली तकबीर का इंतज़ार करे, जब इमाम तकबीर कहे तो उसके साथ ये भी तकबीर कहे और ये तकबीर उसके हक़ में तकबीरे तहरीमा होगी,*
*"_ फिर जब इमाम सलाम फेर दे तो ये शख्स अपनी गई हुई तकबीरों को अदा करे, और इसमे कुछ पढ़ने की ज़रूरत नहीं,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ हाशिया -- लेकिन अगर वो शख्स इमाम की अगली तकबीर का इंतजार किये बगेर फोरन आते ही ''अल्लाहु अकबर" कह कर नमाज़ में शरीक़ हो गया तो फिर भी नमाज दुरस्त हो जाएगी, अलबत्ता शरीफ होते वक्त जो तकबीरे उसने कही वो उन चार तकबीरो में शुमार ना होगी जो नमाज़ जनाज़ा में फ़र्ज़ है, लिहाज़ा जब इमाम सलाम फेर दे तो उस शख्स पर लाज़िम है कि जो तकबीरे उसके नमाज में शामिल होने से पहले हो चुकी थी वो पढ़ कर फिर सलाम फेरे,*
*®_ शामी,*

*✿_अगर कोई शख्स तकबीरे तहरीमा यानी पहली तकबीर या किसी और तकबीर के वक्त मोजूद न था और नमाज़ में शिर्कत के लिए तैयार था मगर सुस्ती या किसी और वजह से शरीक नहीं हुआ ( यानी उसने तकबीरें नहीं कही ) तो उसको इमाम कि अगली तकबीर का इंतज़ार नहीं करना चाहिए बल्की फोरन तकबीर कह कर शरीक ए नमाज़ हो जाना चाहिए, और उस तकबीर का लोटाना (यानी इमाम के सलाम के बाद) उसके ज़िम्मे ना होगा,*

*✿_ बशरते कि कब्ल इसके कि इमाम आगे तकबीर कहे, ये उस तकबीर को अदा कर ले, मगर इमाम की मैयत ना हो, हां इस तकबीर से पहले जो तकबीरें फौत हो चुकी उन तकबीरो में ये शख्स मसबूक़ है, वो तकबीरें ये इमाम के सलाम के बाद अदा करे,*
*®_ शामी, बहिश्ती गोहर,*

*✿_ जनाज़े की नमाज़ का मसबूक़ जब अपनी गई हुई तकबीरों को अदा करे और ये खौफ हो कि अगर दुआ पढेगा तो देर होगी और जनाज़ा उसके सामने से उठा लिया जाएगा तो दुआ ना पढे,*
*®_ बहिश्ती गोहर, शामी,*

*✿_ जनाज़े की नमाज़ में अगर कोई शख़्स लाहिक़ हो जाए तो इसका हुकम वही है जो और नमाज़ो के लाहिक़ का है_,"*
*®_ बहिश्ती गोहर,* 

          *╂───────────╂*
*╠☞_ जनाज़ा की नमाज़ में इमामत का मुस्तहिक़:-*

*✿_"_ जनाज़े की नमाज़ में इमामत का इस्तहक़ाक़ सबसे ज़्यादा हाकिम ए वक़्त (बादशाह, सरबराहे मुल्क) को है, चाहे तक़वा में उससे बेहतर लोग भी वहां मौजूद हो,*
*"_ अगर हकीम वक्त वहा मौजूद ना हो तो उसका नायब यानि जो शख्स उसकी तरफ से हाकिमे शहर हो वो मुस्ताहिके़ इमामत है, चाहे तक़वा में उससे अफ़ज़ल लोग वहा मौजूद हों, और वो भी ना हो तो क़ाज़ी शहर, वो भी ना हो तो उसका नायब, इन लोगों के होते हुए दूसरे को इमाम बनाना बिला उनकी इजाज़त के जाइज़ नहीं, उन्ही का इमाम बनाना वाजिब हे,*

*✿_"_ अगर ये लोग वहां मोजूद ना हो तो उस मोहल्ले का इमाम मुस्तहिक़ है बशर्ते कि मय्यत के क़रीबी में उससे अफ़ज़ल ना हो वर्ना मय्यत के वो क़रीबी (रिश्तेदार) जिनको हक़ ए विलायत हासिल है वो इमामत का मुस्तहिक़ है या वो शख्स जिसको वो इजाज़त दे,*

*✿_"_ अगर बगेर इजाज़त वली ए मय्यत के किसी ऐसे शख्स ने नमाज़ पढ़ा दी हो जिसको इमामत का इस्तहक़ाक नहीं और वली उस नमाज़ में शरीक़ ना हो तो वली को अख्त्यार है कि उस मय्यत पर बाद में नमाज़ पढ़ ले, चाहे मय्यत दफन हो चुकी हो तब भी उसकी क़ब्र पर नमाज़ पढ़ सकता है, जब तक कि लाश के फट जाने का ख्याल ना हो,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ हासिल ये है कि एक जनाज़ा की नमाज़ कई मर्तबा पढ़ना जाइज़ नहीं, मगर वली ए मय्यत को, जबकी उसकी इज़ाज़त के बगेर किसी गैर मुस्तहिक़ ने नमाज़ पढ़ा दी हो तो दोबारा पढ़ना दुरस्त है _,"*
*®_ बहिश्ती गोहर,*
          *╂───────────╂*
*╠☞_नमाज़ जनाज़ा गायबाना:-*

*★"_ हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम गायबाना नमाज़ जनाज़ा नहीं पढते थे, लेकिन ये सही है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने शाहे हब्शा नजाशी की नमाज़ जनाज़ा गायबाना पढ़ी, और हज़रत माविया अन्हु लैसी रज़ियल्लाहु अन्हु पर भी गायबाना नमाज़ जनाज़ा पढ़ी, लेकिन हो सकता है कि (मय्यत हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर मुंकाशिफ़ कर दी गई हो या) ये बात हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़ुसूसियत हो_,"*
*®_ शामी,*

*★"_ गायबाना नमाज़ जनाज़ा को इमाम अबू हनीफ़ा रह. और इमाम मालिक रह. मुतलक़न मना करते हैं और आइम्मा हनफ़िया का इसके अदमे जवाज़ पर इत्तेफ़ाक़ है,*
*"_ जनाजा का सामने मोजूद होना सहते नमाज़ जनाजा की शर्त है _,"*
*®_ शामी, अल- बहर, बहिश्ती गोहर, मदारिज अल नबुव्वह,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ जनाज़ा में कसरते तादाद की बरकत और अहमियत ,*

 *✿__ हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया:-*
*"_जिस मय्यत पर मुसलमानों की एक बड़ी जमात नमाज़ पढ़े जिनकी तादाद 100 तक पहुंच जाए, और वो सब अल्लाह के हुज़ूर में उस मय्यत के लिए सिफ़रिश करें (यानी मग्फिरत व रहमत की दुआ करे) तो उनकी ये सिफ़ारिश और दुआ ज़रूर ही क़ुबूल होगी,”*
*®_ सहीह मुस्लिम, मार्फुल हदीस,*

*✿_"_ हज़रत मालिक बिन हुबेरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि मेंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ये इरशाद सुना कि:-*
*"_जिस मुसलमान बंदे का इंतकाल हो और मुसलमानों की तीन सफें उसकी नमाज़ जनाजा पढे (और उसके लिए मग्फिरत व जन्नत की दुआ करें) तो ज़रूर ही अल्लाह तआला उसके वास्ते (मग्फिरत और जन्नत) वाजिब कर देता है_,"*

*⇛मालिक बिन हुबेरा रजियल्लाहु अन्हु का ये दस्तूर था कि जब वो नमाज़ जनाज़ा पढ़ने वालों की तादाद कम महसूस करते तो इसी हदीस की वजह से उन लोगो को तीन सफों में तक़सीम कर देते थे,*
*®_ सुनन अबी दाऊद, मार्फुल हदीस,*

*✿_ जब मय्यत की नमाज से फारिग हो जाएं तो फोरन उसके दफान करने के लिए जहां क़ब्र खुदी हो ले जाना चाहिए,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_"_ नमाज़ जनाज़ा के बाद अहले जनाजा की इजाज़त के बगैर दफ़न से पहले वापस न होना चाहिए और दफ़न के बाद बगैर इज़ाज़त के भी वापस हो सकते हैं,*
 *®_ आलमगिरी, 1/165,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _नमाज़ जनाज़ा की दुआएं _,*

 *★:_सना और दरुद पढ़ने के बाद तीसरी तकबीर के बाद मय्यत के लिए दुआ पढ़ें जो इस तरह है:-*

 *✧⇝"_अल्ला हुम्मग फिर ली हय्यिना, वा मय्यितिना, वा शाहिदिना वा गाइबिना, वा सगीरिना वा कबीरिना, वा ज़करिना वा उनसाना, अल्लाहुम्मा मन अहययतहु मिन्ना फाहयिहि अलल इस्लाम, वा मन तफय्यतहु मिन्ना फा तवफ्फहु अलल ईमान "*

 *📓_ मुसन्नफ अब्दुर्रज्जा़क: 6419, सुनन तिर्मिज़ी: 1024*

 *╠☞__ बच्चे की दुआ:*

*★_नाबालिग मय्यत अगर बच्चा हो तो तीसरी तकबीर के बाद यह दुआ पढे:_*

 *✧⇝"_अल्ला हुम्मज अल्हु लना फरतन, वज अल्हु लना अजरन वा ज़ु़खरा, वा अज अल्हु लना शाफिअन वा मुशफ्फआ"*

 *╠☞_ नाबालिग बच्ची की दुआ _,*

 *✧⇝"_अल्ला हुम्मज अल्हा लना फरतन, वज अल्हा लना अजरन वा ज़ु़खरा, वा अज अल्हा लना शाफिअन वा मुशफ्फआ"*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ दफन का बयान - क़ब्र की नोइयत,*

 *✿_"_ मय्यत के गुस्ल, कफन और नमाज़ जनाज़ा की तरह दफ़न करना भी फ़र्ज़े किफ़ाया है, अगर किसी ने भी ये फ़र्ज़ अदा नहीं किया तो सब गुनागर होंगे,*
*®_ बहिश्ती गोहर, आलमगिरी,*

 *✿_"_ क़ब्र कम से कम मय्यत के निस्फ़ (आधा) क़द के बराबर गहरी खोदी जाए, और पूरे क़द के बराबर गेहरी हो तो ज़्यादा बेहतर है, क़द से ज़्यादा ना होना चाहिए, और मुवाफ़ीक़ इसके क़द के लंबी हो और चोड़ाई निस्फ क़द के बराबर,,बगली क़ब्र बनिस्बत संदूकी (शक़) के बेहतर हे,*
*"_हां अगर ज़मीन बहुत नरम हो और बगली खोदने से क़ब्र के बेठ जाने का अंदेशा हो तो फिर बगली कब्र ना खोदी जाए,*
*®_ शामी,*

*✿._ बगली क़ब्र,— यानी लहद, इसका तरीक़ा ये है कि क़ब्र खोद कर उसके अंदर से क़िब्ला की जानिब एक गढ़ा खोदा जाए जिसमे मय्यत को रखा जा सके, ये एक छोटी सी कोठरी की तरह होता है,*
*®_ शामी,*

*✿_ संदूकी (शक़) क़ब्र,— इसका तरीक़ा ये है कि तक़रीबन एक फ़िट कब्र खोद कर उसके बीचों बीच एक गढ़ा मय्यत के निस्फ़ क़द या पूरे क़द के बराबर गहरा खोदा जाए, जिसका तोल (नाप) मय्यत के क़द के बराबर हो और चौड़ाई ज़्यादा से ज़्यादा निस्फ क़द के बराबर हो _,"*
*®_ शामी,*

*✿_ _ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ब्र मुबारक भी लहद यानि बगली बनायी गई थी, बाज़ रिवायत से मालूम होता हे कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में संदूकी क़ब्र भी जिसको अरबी में "शक़" कहते हैं हस्बे मौक़ा बनाई गई है, लेकिन अफ़ज़ल लहद यानी बगली क़ब्र ही का तरीक़ा है,*
*®_ मारफुल हदीस,*

*✿__ ये भी जाइज़ है कि अगर ज़मीन नरम या सैलाब ज़दा हो और बगली क़ब्र ना खुद सके तो मय्यत को किसी संदूक (ताबूत) में रख कर दफ़न कर दें, संदूक चाहे लकड़ी का हो या पत्थर या लोहे का, बेहतर यह है कि संदूक में मिट्टी बिछा दी जाए,*
*®_ शामी, बहिष्ती गोहर,*

*✿_ बगली कब्र को कच्ची ईंटें और नरकल वगेरा लगाकर बंद करना चाहिए, पुख्ता ईंटें या लकड़ी के तख्त लगा कर बंद करना मकरूह,*
*"_ अलबत्ता जहां ज़मीन नरम या सैलाबी होने की वजह से क़ब्र के बैठ जाने का अंदेशा हो तो पुख्ता ईंटें या लकड़ी के तख्त से बंद किया जा सकता है, और ऐसी सूरत में संदूक (ताबूत) मे रखना भी जाइज़ है, अल्बत्ता संदूकी क़ब्र (शक़) में मय्यत के ऊपर लकड़ी के तख्ते या सिमेंट के स्लीपर लगाना बिला कराहत दुरुस्त है,*
*®_ दुर्रे मुख्तार,*

*✿_ _हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ब्र को उंचा नहीं बनाते और उसे ईंटें पत्थर वगेरा से पक्का तामीर न करते और उसे क़लई और सत्ता मिट्टी से ना लेपते, क़ब्र के ऊपर कोई इमारत और कुब्बा ना बनाते, यह सब बिद'अत और मकरुह है,*

*✿_ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ब्र ए अनवर और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दोनो सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हु की क़ब्र भी ज़मीन के (तक़रीबन) बराबर है, संगरेज़ सुर्ख उन पर चश्पा है,*

 *®_ मदारीजुन नबुव्वह, सफ़रुल सआदत,*

*✿_"_ आन हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ब्र शरीफ़ की हैयत और शक्ल ऊंट के कोहान के मुशाबे थी _,"*
*®_शामी,बा- हवाला बुखारी शरीफ,*

*✿_"_ हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु के साहबज़ादे आमिर रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते है कि मेरे वालिद सा'द बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने मर्ज़े वफ़ात में वसियत फरमाई थी कि,*
*"_मेरे वास्ते बगली क़ब्र बनाई जाये और उसको बंद करने के लिए कच्ची ईंटें खड़ी कर दी जाए, जिस तरह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए किया गया था,"*
*®_ मुस्लिम शरीफ़ ,मारफुल हदीस ,*

*✿_"_ आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नते तैय्यबा ये थी कि लहद (बगली क़ब्र) बनवाते, और क़ब्र गहरी करवाते और मय्यत के सर और पांव की जग को फराख करवाते (यानी क़ब्र की लंबाई मय्यत के क़द से कुछ ज़्यादा रखी जाती थी ताकी सर और पांव की तरफ जगह कुशादा रहे)*
*®_ जवादुल मा'द,*

*✿_"_ कबर के लिए अगर आम मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में जगह ना मिले या किसी खास वजह से इजाज़त ना हो तो क़ब्र के लिए ज़मीन ख़रीद ली जाये, उसकी क़ीमत भी दिगर सामाने तजहीज़ व तकफीन की तरह मैय्यत के तर्के में से अदा की जाएगी _,"*
*®_ मुफीदुल वारिसीन, 32,*

          *╂───────────╂*
             *╠☞ क़ब्र में उतारना -,,*

*☞_ लाश को एक शहर से दूसरे शहर ले जाना ,,*
*✿_"_ लाश को एक शहर से दूसरे शहर में दफन के लिए ले जाना खिलाफे अवला है, जबकि वो दूसरा मक़ाम एक दो मील से ज़्यादा ना हो, अगर इससे ज़्यादा मुसाफ़त है तो जाइज़ नहीं,*
*"_ और दफन के बाद लाश खोद कर ले जाना तो हर हालत में ना- जाइज़ है,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

        *⇛ क़ब्र में जनाज़ा उतारना,:-*
*✿_"_ जनाजे को पहले क़िब्ला की सिम्त क़ब्र के किनारे इस तरह रखे कि क़िब्ला मय्यत के दायीं जानिब हो, फ़िर उतारने वाले क़िब्ला रुख खड़े होकर मय्यत को अहतयात से उठाकर क़ब्र में रख दें,*
 *®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_"_ क़ब्र में रखते वक़्त, "बिस्मिल्लाहि वा बिल्लाहि वा अला मिल्लति रसूलिही," कहना मुस्तहब हे,*
*®_ बहिश्ती गोहर, ज़ादुल मा'द,*

*✿_"_ क़ब्र में उतारने वालों का ताक़ (3,5,7) या जफ्त होना मसनून नहीं, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को आपकी क़बरे मुक़द्दस में 4 आदमियों ने उतारा था,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ क़ब्र में मय्यत को उतारते वक्त या दफ़न के बाद अज़ान कहना बिद'अत है,*

*✿_मय्यत को क़ब्र में रख कर दाहिने पहलू पर उसको क़िब्ला रुख कर देना मसनून है, सिर्फ मुंह क़िब्ला की तरफ कर देना काफ़ी नहीं बल्की पूरे बदन को अच्छी तरह करवट दे देना चाहिए_,"*
*®_ बहिश्ती गोहर, इस्लाही इंकलाब ए उम्मत,*

*✿_ क़ब्र में रखने के बाद कफन की वो गिरह जो कफन खुल जाने के खौफ की वजह से दी गई थी, खोल दी जाए_,"*

*✿_औरत को कब्र में रखते वक़्त पर्दा करके रखना मुस्तहब है, और अगर मय्यत के बदन के ज़ाहिर हो जाने का खौफ हो तो फिर पर्दा करना वाजिब है_,"*

*✿_ मर्दो के दफ़न के वक़्त क़ब्र पर पर्दा करना ना चाहिए, हां अगर उज़्र हो मसलन पानी बरस रहा हो या बर्फ़ गिर रही हो या धूप हो तो फ़िर जाइज़ है _,"*
*®_ बहिश्ती गोहर*,

*✿_ जब मय्यत को क़ब्र में रख दें तो क़ब्र अगर बगली है तो उसे कच्ची ईंटों और नरकल वगेरा से बंद कर दें, और अगर क़ब्र संदूकी हो तो उसके ऊपर लकड़ी के तख्ते या सीमेंट की सिलेप रख कर बंद कर दिया जाए _,"*
*"_ तख्तों वगेरा के दरमियान जो सुराख और झिरियां रह जाएं उनको कच्चे ढेलो, पत्थरों या गारे से बंद कर दें, उसके बाद मिट्टी डालना शुरू करें _,"*
*®_ बहिश्ती गोहर, शामी,*

*✿_ मिट्टी डालते वक़्त मुस्तहब है कि सरहाने की तरफ से इब्तदा की जाए, और हर शख्स 3 मर्तबा अपने दोनों हाथो में मिट्टी भर कर क़ब्र में दाल दें,*
*⇛और पहली मर्तबा डालते वक़्त कहें, "मिन्हा खलक़नाकुम" और दूसरी मर्तबा कहे, "वा फीहा नुइदुकुम"_और तीसरी मर्तबा कहें, "वा मिन्हा नुखरिजुकुम तारतन उखरा",_*

*✿_ जिस क़दर मिट्टी उस क़ब्र से निकली हो वो सब उस पर डाल दें, इससे ज़्यादा मिट्टी डालना मकरूह है, जबकी बहुत ज़्यादा हो कि क़ब्र एक बालिश्त से बहुत ज्यादा उंची हो जाए, और अगर बाहर की मिट्टी थोड़ी सी हो तो मकरूह नहीं _,"*
 ,
 *✿__ क़ब्र का मुरब्बा (चोकोर) बनाना मकरूह है, मुस्तहब ये है कि उठी हुई मिस्ल कोहान ए सुतर (ऊंट के कोहान) के बनाई जाये, इसकी बुलंदी एक बालिश्त या इसे कुछ ज़्यादा होना चाहिए,*

*✿ _मिट्टी डाल चुकने के बाद क़ब्र पर पानी छिड़क देना मुस्तहब हे,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ दफन के मुतफर्रिक मसाइल,-*

*✿_"_ अगर मय्यत को कब्र में क़िब्ला रुख करना याद न रहे और बाद दफ़न करने के मिट्टी डालने के ख्याल आए तो फिर क़िब्ला रुख करने के लिए क़ब्र को खोलना जाइज़ नहीं,*
*"_ हां अगर सिर्फ तख्ते रखे गए हों मिट्टी ना डाली हो तो तख्त हटाकर उसे क़िब्ला रुख कर देना चाहिए,*

*✿_" _ अगर कोई शख्स पानी के जहाज़ या कश्ती पर मर जाए और ज़मीन वहां से इस क़दर दूर हो कि लाश के खराब हो जाने का खोफ हो तो उस वक्त चाहिए कि गुस्ल और तकफ़ीन से फरागत करके उसके साथ कोई वज़नी चीज़ पत्थर या लोहा वगैरह बांध कर उसे दरिया में डाल दें,*
*⇛और अगर किनारा दूर ना हो और वहां जल्दी उतरने की उम्मीद हो तो उस लाश को रख छोड़ें और पहुंच कर ज़मीन में दफन कर दे,*

 *✿_ जब क़ब्र में मिट्टी पड़ चुके तो उसके बाद मय्यत का क़ब्र से निकलना जाइज़ नहीं, हां अगर किसी आदमी की हक़तलफी होती हो तो अल्बत्ता निकलना जाइज़ है,—जेसे —*
*1′ - जिस ज़मीन में उसे दफ़न किया है वो किसी दूसरे की मिल्क हो और वो उसके दफ़न पर राज़ी ना हो,*
*2′ - किसी शख्स का माल क़ब्र में रह गया हो,*

*✿_ अगर कोई औरत मर जाए और उसके पेट में जिंदा बच्चा हो तो उसका पेट चाक करके वो बच्चा निकाल लिया जाए, इसी तरह अगर कोई शख्स किसी का माल निगल कर मर जाए और माल वाला मांगे तो वो माल उसका पेट चाक करके निकाल लिया जाए, लेकिन अगर मय्यत माल छोड़ कर मरा है तो उसके तरके से वो माल अदा किया जाए,*

*✿_ एक क़ब्र में एक से ज़्यादा लाशो को दफ़न नहीं करना चाहिए अलबत्ता शदीद ज़रुरत के वक़्त जाइज़ है,फिर अगर सब मुर्दे मर्द हों तो जो उन सब में अफ़ज़ल हो उसे आगे (क़िब्ला की तरफ) रखें, बाक़ी सबको उसके पीछे दर्जा बा दर्जा रख दें,*
*⇛ और अगर कुछ मर्द हों और कुछ औरतें और कुछ बच्चें तो मर्दों को आगे फिर बच्चों को फिर औरतों को रख दें, और हर दो मय्यत के दरमियान मिट्टी से कुछ आड़ बना दें,*
*®_ बहिश्ती गोहर, आलमगिरी,*

          *╂───────────╂*
           *╠☞ _तदफीन के बाद_,"*
                         
*✿_"_ मय्यत के दफन से फारिग होने के बाद हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके सहाबा रजियल्लाहु अन्हुम उस क़ब्र के पास खड़े हो गए मय्यत के लिए मुनकर नकीर के जवाब में साबित क़दम रहने की दुआ खुद भी फरमाते और दूसरों को भी तलकीन फरमाते कि अपने भाई के लिए साबित क़दम रहने की दुआ करो,*
*®_ ज़ादुल माआद,*

*✿_"_ दफन के बाद इतनी देर ठहरना मुस्तहब है जितनी देर में एक ऊंट ज़िबह करके उसका उसका गोश्त तक़सीम हो सकता है,*
*®_ आलमगिरी, 1/166,*

*✿_"_ इसका ये मतलन नहीं कि ऊंट ज़िबह किया जाए और गोश्त तक़सीम किया जाए, बल्की सिर्फ वक़्त की मिक़दार बताना मक़सूद है,*

*✿_"_ दफ़न के बाद थोड़ी देर क़ब्र ठहरना और मय्यत के लिए दुआ ए मगफिरत करना या क़ुरान शरीफ़ पढ़ कर सवाब पहुंचाना मुस्तहब है,*
*®_ शामी, बहिश्ती गोहर,*

*✿_"_ दफन के बाद क़ब्र के सरहाने सूरह बक़रा की इब्तिदाई आयात "मुफ़्लिहून" तक और पांव की तरफ़ सूरह बक़रा की आख़री आयात "आमनर्रसूलू" से ख़त्म तक सूरह पढ़ना मुस्तहब हे,*
*®_ बहकी़, शो'बुल ईमान, मारफुल हदीस, 3/485,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_क़ब्र पर कुतबा वगेरा लगाना, इमारत बनाना, क़ब्र पर चलना फिरना और खिलाफ़े सुन्नत काम,*                         
*✿ _क़ब्र पर कोई चीज़ (नाम वगेरा) बतौर यादगार लिखना बाज़ उल्मा के नज़र में जाइज़ नहीं और बाज उल्मा ने ज़रुरत हो तो इसकी इजाज़त दी है, लेकिन क़ब्र पर या इसके कुतबे पर क़ुरान शरीफ़ की आयत लिखना, या शेर लिखना या मुबालगा आमेज़ तरीफ़ लिखना मकरूह है,*
*®_शामी,*

*✿_ क़ब्र पर कोई इमारत मिस्ल गुम्बद या क़ुब्बा बनाना बगर्जे ज़ीनत हराम है, और मजबूरी की नियत से बनाना मकरूह है,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_ आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत ये भी है कि कब्रों पर चलने, बेठने और टेक लगाने से परहेज़ किया जाए,*
*®_ ज़ादुल मा'आद,*

*✿_ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत नहीं कि कब्रों को (बहुत ज़्यादा) ऊंचा किया जाए, न पक्की इंटों से और न पत्थरों से, न कच्ची ईंटों से, और न कब्रों को पुखता करना सुन्नत मे दाखिल है और न उन पर क़ुब्बे बनाना,*
*®_ ज़ादुल मा'आद,*

*✿ _ कब्रों पर चराग जलाना और कब्रों को सजदागाह बनाने से नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मना फरमाया है,*
*®_ ज़ादुल मा'आद,*

*✿_ क़ब्र बेठ जाये तो दोबारा उस पर मिट्टी डालना जाइज़ है,*
*®_ इमदादुल फतवा, 525,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ "_मौत पर सब्र का अजरो सवाब और मय्यत का सोग मनाना,*                       

*✿_"_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि, "_अल्लाह ताला का इरशाद है कि जब ईमान वाले बंदे (या बंदी) के किसी प्यारे को उठा लूं, फिर वो सवाब की उम्मीद में सब्र करे तो मेरे पास उसके लिए जन्नत के सिवा कोई मुआवाजा़ नहीं,"*
*®_ सही बुखारी, मार्फुल हदीस,*

*✿_"_ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि,_"_किसी मोमिन के लिए हलाल नहीं कि 3 (तीन) दिन से ज़्यादा किसी का सोग मनाए, सिवा बेवा के (शोहर की मौत पर) उसके सोग की मुद्दत चार (4) महीना दस दिन हैं"*
*®_ तिर्मिज़ी, बुखारी,*

*✿_"_ यहां सोग से मतलब ज़ैबो ज़ीनत का छोड़ देना है, यानी बेवा को अपने शोहर की वफ़ात के बाद इद्दत में 4 महीने 10 दिन तक ज़ैबो जीनत को छोड़ देना तो ज़रूरी है, इसके अलवा किसी शख्स को किसी मोक़े पर 3 दिन से ज़्यादा सोग मनाना जाइज़ नहीं,*

*✿_"_ सुन्नत ये है कि अल्लाह तआला के फ़ैसलो पर राज़ी रहे, अल्लाह की हम्दो सना करे और (जब भी गम आए) "इन्ना लिल्लाहि वा इन्ना इलैही राजिऊन" पढ़ा करे,*
*⇛और मुसिबत के वक़्त कपड़े फाड़ने वालों, बुलंद आवाज़ से नोहा व मातम करने वालों और बाल मुंडवाने वाले से बेज़ारी का इज़हार करे,*
*®_ ज़ादुल माआद,,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ ताज़ियत करना और मय्यत के घर वालों से हुस्ने सुलूक,*
                        
*✿_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मय्यत के साथ ऐसा एहसान और मामला फरमाते थे जो उसके लिए क़ब्र और आखिरत में फायदेमंद हो और उसके घर वालों और रिश्तेदारों के साथ भी हुस्ने सुलूक फरमाते,*
*"_ मय्यत के लिए इस्तगफार फरमाते, और नमाज़ जनाज़ा के बाद दफन तक जनाज़े के साथ जाते, और क़ब्र के सरहाने खड़े होकर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा किराम रिजवानुल्लाही अजमईन उसके लिए कलमा ईमान पर साबित क़दम रहने की दुआ फरमाते, फिर उसकी क़ब्र की ज़ियारत के लिए तशरीफ ले जाया करते और साहिबे क़ब्र को सलाम करते और उसके लिए दुआ फरमाया करते थे,*
*®_ मदारिज अन्नबुवाह,*

*✿_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि, "जिस शख्स ने किसी मुसिबतज़दा की ताजियत (तसल्ली) की उसके लिए ऐसा ही अजरो सवाब है जेसा उस मुसीबत ज़दा के लिए,"*
*®_ जामिआ तिर्मिज़ी, इब्ने माजा, मार्फुल हदीस,*

*✿_ जिस घर में गमी हो उनके यहां तीसरे दिन तक एक बार ताजियत के लिए जाना मुस्तहब है, मय्यत के मुताल्लिकीन को तस्कीन व तसल्ली देना और सब्र के फज़ाइल और उसका अज़ीमुश्शान अजरो सवाब सुना कर उनको सब्र की रगबत दिलाना और मय्यत के लिए दुआ ए मगफिरत करना जाइज़ (बल्की बड़ा नेक काम है) है, इसी को ताजियत कहते हैं,*
*"_ तीन दिन के बाद ताजियत करना मकरूह तंजीही है,*

*"_ लेकिन अगर ताजियत करने वाला सफर में हो या मय्यत के अज़ीज़ो अकारिब (जिनके पास ताजियत के लिए जाना चाहिए वो) सफर में हों और तीन दिन के बाद आए तो इस सूरत में तीन दिन के बाद भी ताज़ियत को जाना मकरूह नहीं,*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ अहले मय्यत के लिए खाना भेजना मुस्तहब हे:-*
                         
*✿__ हज़रत अब्दुल्लाह बिन जाफ़र रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि जब (उनके वालिद माजिद) हज़रत जाफ़र (बिन अबू तालिब) रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत की ख़बर आई तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि, "_जाफर के घर वालों के लिए खाना तैयार किया जाए, वो इस इत्तेला की वजह से ऐसे हाल में है कि खाना तैयार करने की तरफ तवज्जो ना कर सकेंगे_,"*
*®_ जामिया तिर्मिज़ी, इब्ने माजा, मार्फुल हदीस,*

*✿_ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत तैय्यबा ये भी थी कि मय्यत के अहले खाना ताज़ियात के लिए आने वालों को खाना खिलाने का अहतमाम ना करें, बल्की आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हुक्म फरमाया कि दूसरे लोग (दोस्त और अज़ीज़ ) उनके लिए खाना तैयार करके उन्हे भेजे, ये चीज़ अख़लाक़े हसना का एक नमूना है और मय्यत के घर वालों को सुबुकदोश करने वाला अमल हे,*
*®_ ज़ादुल मा'आद,*

*✿ _अहले मय्यत के पड़ोसियो और दूर के रिश्तेदारों के लिए मुस्तहब है कि वो एक दिन का एक रात का खाना तैयार करके मय्यत वालों के यहां भेजे और अगर वो गम की वजह से ना खाते हों तो इसरार करके उओ खिलाएं _",* 
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 1/841,*

*✿_ जो लोग मय्यत की तजहीज़ व तकफ़ीन और दफ़न के कामों में मसरूफ़ हों उनको भी ये खाना खिलाना जायज़ है,*
*®_ मदारीज अन्नबुवाह, 1/710,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ अहले मय्यत की तरफ से दावत ए आम बिदत हे,*
                          
*✿_ आज कल बाज ना-वाकिफ लोगो में जो रस्म है कि ताजियत के लिए आने वालों के वास्ते मय्यत के घर वाले खाना पकवाते है और उनकी दावत करते हैं,*
*"_ ये सुन्नत के खिलाफ होने की वजह से ना- जाइज़ है और बिद'अत है,*
*"_ क्योंकि दावत खुशी के मौक़े पर होती हे गमी पर नहीं,*

*✿_ आने वाले को भी चाहिये कि अगर वो अहले मय्यत के वास्ते खाना नहीं भेज सकते तो कम से कम उन पर अपना बोझ तो ना डाले,*
*®_ शामी, 1/841,842,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _ ज़ियाराते क़ुबूर 
                         
*✿_"_ अब्दुल्लाह बिन मसूद रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:-*
*"_मेने तुमको ज़ियारते क़ुबूर से मना किया था (अब इजाज़त देता हूं कि) तुम कब्रों की ज़ियारत कर लिया करो, क्युंकी (इसका फ़ायदा ये है कि) इससे दुनिया की बे-रगबती और आखिरात की याद और फ़िक्र होती है_",*
*®_ सुनन इब्ने माजा, मार्फुल हदीस,*

*✿_"_ कब्रों की ज़ियारत करना यानी उन्हें जाकर देखना मर्दों के लिए मुस्तहब है, बेहतर ये है हर हफ्ते में कम अज़ कम एक बार कब्रों की ज़ियारत की जाए और ज़्यादा बेहतर ये है कि वो दिन जुमा का हो_,"*
*®_ बहिश्ती गोहर,*

*✿_"_ बुज़ुर्गो की कब्रों की ज़ियारत के लिए सफ़र करना भी जाइज़ है बशर्ते की अकी़दा और अमल ख़िलाफे शर'आ हो, जैसा कि आज कल उर्सों (के नाम पर) में मुफासिद होते हैं _,"*
*®_ बहिष्ती गोहर,*

*➡ कभी कभी शबे बारात में भी क़ब्रिस्तान जाना और अहले क़ुबूर के लिए दुआ ए मग्फिरत करना सुन्नत से साबित है, जब क़ब्रिस्तान में दाखिल हो तो वहां के सब अहले क़ुबूर की नियत करके उनको एक बार सलाम करना चाहिए _,"*

*✿_"_ हदीस शरीफ में है कि, "जो शख्स भी अपने किसी जानने वाले (मुसलमान) की कब्र पर गुज़रता और उसको सलाम करता है, वो मय्यत उसको पहचान लेता है और उसको सलाम का जवाब देता है, (अगरचे उस जवाब को सलाम करने वाला नहीं सुनता)*
*®_ बहिश्ती जौहर बा हवाला कंजु़ल उम्माल,*
               
*✿_ अहले क़ुबूर को सलाम इन अल्फाज़ में करना चाहिए,*
*"_अस्सलामु अलैकुम या अहलल क़ुबूर, यगफ़िरुल्लाहु लना वा लकुम अंतुम सलफ़ुना वा नहनु बिल असरी,""*
*"_(तर्जुमा)::--"सलाम हो तुम पर ऐ क़ब्र वालों! अल्लाह ताला हमारी और तुम्हारी मगफिरत फरमाये, तुम हमसे आगे जाने वाले हो और हम पीछे पीछे आ रहे हैं,"*

*✿_"_ आन हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना तैय्यबा की चंद कब्रों से गुज़रे तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनको इन्ही अल्फाज़ में सलाम फरमाया था,*
*®_ जामिया तिर्मिज़ी, मार्फुल हदीस,*

*✿_ सलाम के बाद क़िब्ला की तरफ़ पुश्त करके और मय्यत (क़ब्र) की तरफ़ मुंह करके जितना हो सके क़ुरान शरीफ़ पढ़ कर मय्यत को सवाब पहूँचा दे,*
*"_ मसलान सूरह फातिहा, सूरह यासीन, सूरह मुल्क, सूरह अलहाकुमुत्तकासुर, या सूरह इखलास (कुल्हुवल्लाह) 11 मर्तबा या 7 मर्तबा या जितनी आसानी हो पढ़ कर दुआ करें कि या अल्लाह! इसका सवाब साहिबे क़ब्र को पहूँचा दे,*
*®_ मिरक़ात शरह मिश्कात, 4/115,*

*✿_ मय्यत के लिए दुआ ए मगफिरत भी करनी चाहिए, आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आदत करीमा ये थी कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कब्रों की ज़ियारत इसलिये (भी) फरमाते थे कि उनके लिए फरमाये ए मगफिरत फरमाएं _,"*
*®_ मदारीज अन्नाबुवाह,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_औरतों का क़ब्रिस्तान (या क़ब्रो पर) जाना:-*
                         
*✿_"_ औरतों का क़ब्रिस्तान जाना बाज़ फुक़हा किराम के नज़दीक बिलकुल ना जाइज़ है,*

*✿_"_ लेकिन फतवा इस पर है कि जवान औरत को तो जाना जाइज़ ही नहीं है और बूढ़ी औरत को इस शर्त के साथ जाइज़ है कि पर्दा के साथ जाए, बन संवर कर या खुशबू लगा कर ना जाए,*

*✿_"_ और इस बात का यक़ीन हो कि खिलाफ़ शरीयत कोई अमल ना करेगी, मसलन --- रोना पीटना, अहले क़ुबूर से हाज़ते माँगना, और दूसरी ना जाइज़ बातें और बिद'ते जो कब्रों पर की जाती है उन सबसे परहेज़ किया जाए,*

*✿_"_ (मसलन - तवाफ करना, चूमना, सजदा करना, रुकू की हालत में खड़े होना, मन्नत के लिए धागा या झूला बंधना, मन्नत मानना, ये तमाम उमूर ना-जाइज़ और हराम है)*

*✿_"_ एक हदीस शरीफ़ में क़ब्रिस्तान जाने वाली औरतो' पर अल्लाह की लानत मज़कूर है, फुक़हा किराम फरमाते हैं कि जो औरतें मज़कूरा बाला शर्तों की पाबंदी के बैगर क़ब्रिस्तान जाती हो वो लानत की जद में है_,"* 
 *®_ शामी, 1/843, इमदादुल फतावा 1/520, इमदादुल अहकाम 1/720*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ईसाले सवाब का मसनून तरीक़ा:-*
                         
*✿ _इसकी (ईसाले सवाब की) हकीकत शर'आ में सिर्फ इतनी है कि किसी ने कोई नेक काम किया, उस पर उसे जो कुछ सवाब मिला उसने अपनी तरह से वो सवाब किसी दूसरे को दे दिया, (चाहे मुर्दा हो या जिंदा) वो इस तरा है कि "_या अल्लाह ! मेरे इस अमल का सवाब जो आपने मुझे अता फरमाया है वो फलां (उस शख्स का नाम) शख्स को दे दीजिये और पहूँचा दीजिये,*

*✿_ मसलन-- किसी ने खुदा की राह में कुछ खाना या कुछ नक़द रक़म या कपड़ा वगेरा दिया, या निफ़्ल नमाज़ पढ़ी, निफ़्ल रोज़े रखे या निफ़्ल हज या उमरा किया या कलामे पाक की तिलावत की, तस्बीहात, कलमा तैयबा वगेरा पढ़ा, या मुस्तकिल खैरात जारिया मसलन - तामीर मस्जिद, दीनी मदारिस या दिनी किताबो की इशा'त फ़ि सबिल्लाह की,*
*"_ इसके बाद अल्लाह तआला से दुआ की कि, "जो कुछ इसका सवाब मिला है वो सवाब फलां शख्स (उसका नाम ले) को पहुंचा दीजिये,"*

*✿ _ ख़्वाब इस क़िस्म का काम आज किया हो या इससे पहले उमर भर में कभी किया था, दोनो का सवाब पहुंच जाता है, बस इस क़दर शरियत से साबित है,*
*®_ शामी, बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿ _ इसाले सवाब के लिए ना शर'न कोई खास वक़्त या दिन मुकर्रर है कि इसके अलावा इसाले सवाब न हो सकता हो, न कोई खास जगह मुकर्रर है, न कोई खास इबादत, न ये ज़रूरी है कि इसाले सवाब के लिए आदमी जमा हों या खाने की कोई चीज़ मीठा वगेरा सामने रखी जाए या उस पर दम किया जाए या किसी आलिमे दीन या हाफ़िज़ का़री को बुलाया जाए, ना ही यह ज़रूरी है कि पूरा क़ुरान पाक ख़त्म किया जाए या कोई खास सूरत या दुआ किसी मखसूस तादाद में पढ़ी जाए _,*

*✿ _लोगों ने अपनी तरह से ये रस्में इजाद करके पाबंदिया बड़ा ली है, वरना शरीयत ने इसाले सवाब को इतना आसान बनाया है कि जो शख्स जिस वक़्त भी चाहे, जिस दिन चाहे कोई सी भी निफ्ली इबादत करके उसका सवाब मैयत को पहुंचा सकता है _,"*

*✿ _अगर किसी इबादत का सवाब एक से ज़्यादा शख्सों को बख्शा, मसलन एक रुपिया सदका़ किया और उसका सवाब 10 मुर्दो को बख्श दिया, तो हर मय्यत को पूरा एक रुपिया का सवाब मिलेगा या एक ही रुपिया का सवाब सब मुर्दों में थोड़ा थोड़ा तक़सीम होगा ?*
*"_ इसकी क़ुरान व सुन्नत में कोई सराहत नहीं मिलती, अहतमाल दोनो है लेकिन फुक़हा की एक जमात ने पहले अहतमाल को तरजीह दी है (कि सबको बराबर पूरा पूरा सवाब मिलेगा), और अल्लाह ता'आला की वुस'अते रहमत के ज़्यादा लायक़ भी यही है,*
*®_ शामी, 1/845,*

          *╂───────────╂*
*╠☞"_ईसाले सवाब का हदीस से सबूत,*
                         
*✿_"_ किसी की मौत के बाद रहमत की दुआ करना, नमाज़ जनाजा अदा करना ये आमाले मसनूना है, इनके साथ दूसरा तरीक़ा मय्यत की नफ़ा रसानी का ये है कि मय्यत की तरफ से सदका़ किया जाए या कोई आमाले खैर कर के उसका सवाब मय्यत को पहुंचा दिया जाए, इसी को इसाले सवाब कहा जाता है,*

*✿_"_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि सा'द बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु की वालिदा का इंतक़ाल उस वक़्त हुआ कि खुद सा'द मोजूद नहीं थे, (रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ एक गज़वा में तशरीफ़ ले गए थे, जब वापस आए ) तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में आकर अर्ज़ किया:-*
*"_या रसूलुल्लाह! मेरी गैर मोजूदगी में मेरी वालदा का इंतकाल हो गया, अगर मै उनकी तरफ से सदका़ करूं तो क्या वो उनके लिए फायदामंद होगा? ( और उनको इसका सवाब पहुंचेगा ?)*

*"_ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:- हां ! पहुंचेगा, उन्होंने अर्ज़ किया,:-तो मै आपको गवाह बनाता हूं कि अपना बाग मैंने अपनी वालदा (के सवाब) के लिए सदका़ कर दिया,*

*®_ सही बुखारी, मार्फुल हदीस,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ इसका़ते हमल के मसाइल-*

*☞ 1- हमल में सिर्फ गोश्त का टुकड़ा गिरे:-*
*✿_ अगर हमल गिर जाए और उसके हाथ पांव, नाक, मुंह वगेरा उज्व कुछ न बने हों तो उसे गुस्ल न दिया जाए, न कफन दिया जाए, न नमाज़ जनाजा पढ़ी जाए और ना बाका़यदा उसे दफन किया जाए, बल्की किसी कपड़े में लपेट कर वेसे ही गढ़ा खोद कर ज़मीन में दबा दिया जाए, और उसका नाम भी न रखा जाए,( शामी,1/809)*

*☞_ 2- हमल में कुछ आ़जा बन गए हों:-*
*✿_ अगर हमल गिर जाए और उसके कुछ उज्व बन गए हो, पूरे आजा़ ना बने हो तो उसका नाम रखा जाए और गुस्ल भी दिया जाए, लेकिन बाका़यदा कफन न दिया जाए बल्की यूंही एक कपड़े में लपेट दिया जाए और नमाज़ जनाजा भी ना पढ़ी जाए, बगेर नमाज पढ़े यूंही दफन कर दिया जाए, ( शामी, 1/830, बहिश्ती ज़ेवर)*

*☞_ 3- मुर्दा बच्चा पैदा होने का हुक्म:-*
*✿_ इसकाते हमल में या मामूल के मुताबिक़ विलादत में मरा हुआ बच्चा पैदा हो और पैदाइश के वक्त जिंदगी की कोई अलामत उसमे मोजूद ना हो, चाहे आजा़ सब बन चुके हो तो ऐसे बच्चे का वही हुक्म है जो पिछले मसले में बयान हुआ कि उसको गुस्ल भी दिया जाए और नाम भी रखा जाए, लेकिन बाका़यदा कफन न दिया जाए और न नमाज़ जनाजा पढ़ी जाए बल्की ऐसे ही किसी एक कपडे में लपेट कर दफन कर दिया जाए,*
*®_ शामी, 1/830,*     

*☞_ 4 - पैदाइश के शुरू में बच्चा जिंदा था, फिर मर गया:-*
*✿_"_विलादत के वक़्त बच्चे का फक़त सर निकला, उस वक़्त वो जिंदा था, फिर मर गया, तो उसका हुक्म वही है जो मुर्दा बच्चा पैदा होने का पिछले हिस्से मे बयान हुआ,*
*"_ कि उसे गुस्ल दिया जाए, नाम रखा जाए, लेकिन बाका़यदा कफन न दिया जाए, बल्की किसी एक कपडे में लपेट कर बगैर नमाज़ जनाज़ा के यूंही दफ़न कर दिया जाए,*
*®_ शामी ,829-830,*

*☞__5- बदन का अक्सर हिस्सा निकलने तक बच्चा जिंदा हो:-*
*✿_"_ विलादत के वक़्त बदन का अक्सर हिस्सा निकलने तक बच्चा जिंदा था, उसके बाद मर गया, उसका हुक्म ज़िंदा बच्चा पैदा होने की की तरह है,*
*"_ बाका़यदा उसे गुस्ल दिया जाए, कफन दिया जाए, बेहतर ये है लड़का हो तो मर्द की तरह, लड़की हो तो औरत की तरह कफन दिया जाए, लेकिन लड़के को सिर्फ एक और लड़की को सिर्फ दो कपड़े देना दुरुस्त है,*
*"_ और उसका नाम भी रखा जाए और जनाज़े की नमाज़ पढ़ कर बाका़यदा दफन किया जाए,*
*(अक्सर हिस्सा निकलने का मतलब ये है कि बच्चा सर की तरफ से पैदा हो तो सीने तक और अगर उल्टा पैदा हो तो नाफ तक ज़िंदा निकलने से अक्सर हिस्सा निकलना समझा जाए)*
*®_ शामी,*

*☞__ 6- मुर्दा औरत के पेट में बच्चा ज़िंदा हो तो क्या हुक्म है ?*
*✿_ अगर किसी औरत का हमल की हालत में इंतकाल हो जाए और उसके पेट में बच्चा ज़िंदा हो तो औरत का पेट चाक करके ( यानी ऑपरेशन से) बच्चा निकाल लिया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, 1/840,*

*✿__ फिर अगर ये बच्चा ज़िंदा निकलने के बाद मर जाए तो सब बच्चों की तरह इस्का नाम रखा जाए, गुस्ल, कफन, दफन, नमाज़ जनाजा़ बाका़यदा किया जाए,*
*⇛और अगर हमल में जान ही न पढी हो या जान पढ़ गई हो लेकिन बाहर निकले से पहले वो भी मर गया तो अब औरत का पेट चाक करके बच्चा ना निकाला जाए, लेकिन अगर निकाल लिया तो उसका वही हुक्म होगा जो मुर्दा बच्चे का है _,"*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ मुतफर्रिक मसाइल -*

*☞ 1- जो शख्स पानी में डूब कर मर गया हो:- अगर कोई शख्स पानी में डूब कर मर जाए तो निकालने के बाद उसे गुस्ल देना फर्ज है, पानी में डूबना गुस्ल के लिए काफ़ी नहीं, क्यूंकी मय्यत को गुस्ल देना ज़िंदो पर फ़र्ज़ है, और डूबने में ज़िन्दो का कोई गुस्ल नहीं हुआ,*
*"_अल्बत्ता अगर पानी से निकालते वक़्त गुस्ल की नियत से मय्यत को पानी में हरकत दे दी जाए तो गुस्ल अदा हो जाएगा,*
*®_ अल- बहर अर-राईक़,*

*✿__ इसके बाद मय्यत को बाक़ायदा कफन देकर नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर सुन्नत के मुताबिक दफ़न करे, लेकिन अगर उसको बागियो, डाकुओ या गैर मुस्लिम मुल्क के गैरो ने डुबो दिया हो और उसमे शहीद की क़िस्मे अव्वल की वो सब सूरतें मोजूद हो तो उस पर शहीद के अहकाम जारी होंगे,*

*☞ 2- जो लाश फूल गई हो:- किसी की लाश पानी में डूबने या तजहीज़ व तकफीन में ताखीर या किसी और वजह से अगर इतनी फूल जाए कि हाथ लगाने के भी का़बिल ना रहे, यानी गुस्ल के लिए हाथ लगाने से फट जाने का अंदेशा हो तो ऐसी सूरत में लाश पर सिर्फ पानी बहा देना काफ़ी है,*
*"_ क्यूंकी गुस्ल में मलना वगेरा जरूरी नहीं है और फिर बाका़यदा कफनाकर नमाज़े जनाज़ा के बाद दफान करना चाहिए,*
*"_ लेकिन अगर नमाज़ से पहले लाश फट जाए तो नमाज पढ़े बगेर ही दफन कर दिया जाए,*
*®_आलमगिरी, बहर, इमदादुल अहकाम,*

*☞ 3-जिस लाश में बदबू पैदा हो गई हो:- जिस लाश में बदबू पैदा हो गई हो मगर फटी ना हो उसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी,*
*⇛ और जो लाश फूल कर फट गई हो उसकी नमाज़ जनाज़ा साक़ित है उसकी नमाज़ जनाज़ा ना पढ़ी जाए,*
*®_ बहर व इमदादुल अहकाम,*

*☞_4 - सिर्फ हड्डियों का ढांचा बरामद हुआ हो :- जिस लाश का गोश्त वगेरा सब अलग अलग हो गया हो और उसकी सिर्फ हड्डियों का ढांचा बरामद हुआ हो, तो उस ढांचे को गुस्ल देने की जरूरत नहीं, उस पर नमाज़ जनाज़ा भी ना पढ़ी जाए बल्की वेसे ही किसी पाक कपड़े में लपेट कर दफन कर दिया जाए,*
*®_ इमदादुल अहकाम, 1/738,*

*☞ 5- जो शख्स जल कर मरा हो:- जो शख्स आग या बिजली वगेरा से जल कर मर जाये उसे बाका़यदा गुस्ल व कफन दे कर और नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर सुन्नत के मुताबिक दफन किया जाए, और अगर लाश फूल और फट गई हो तो उसका हुक्म पहले बयान हो चुका है _,"*
*®_ दुर्रे मुख्तार, बहर, इमदादुल अहकाम,*

*✿_"_ लेकिन जिस शख्स को बागियो, डाकू या गैर मुस्लिम मुमालिक के गैरों ने जला कर मारा हो या वो मारका जंग में मारा हुआ पाया जाए और उसमे शहीद की क़िस्मे अव्वल की सब शरायत मोजूद हो तो उस पर शहीद के अहकाम जारी होंगे _,"*

*✿_"_6 - जल कर कोयला हो जाने का हुक्म:- जो शख्स जल कर बिल्कुल कोयला बन गया या बदन का अक्सर हिस्सा जल कर खाकतर हो गया तो उसको गुस्ल व कफन देना और नमाज़ जनाजा पढ़ना कुछ वाजिब नहीं है, यूंही किसी कपडे में लपेट कर दफन कर दिया जाए_,"*
*®_ आलमगिरी व फतवा दारुल उलूम, 1/345,*

*✿_7_ और अगर बदन का अक्सर हिस्सा जलने से महफूज़ हो, अगरचे सर के बगेर हो या आधा बदन मय सर के महफूज़ हो या पूरा जिस्म जला हो मगर मामूली जला हो, गोश्त पोष्त और हड्डियां सालिम हो तो उसको बाका़यदा गुस्ल व कफ़न देकर और नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफ़न करना चाहिए,*
*®_ आलमगिरी व शामी, 1/809,*

*✿_"_8 - दब कर या गिर कर मरने वाले का हुक्म:-जो शख्स किसी दीवार या इमारत के नीचे दब कर मर जाए या किसी बुलंद जगह से नीचे गिरे या फिजा़ई हादसे का शिकार होकर हलाक हो जाए, और बदन का अक्सर हिस्सा महफूज़ हो तो उसे बाका़यदा गुस्ल व कफ़न देकर और नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफन करना चाहिए,*
*"_लेकिन अगर ये हादसा दुश्मन गैर मुस्लिमों या बागियों या डाकूओ की कार्रवाई हो तो उसमे मरने वाले पर शहीद के अहकाम जारी होंगे,*

 *✿_"_9- आम हदसे का शिकार होने वालो का हुक्म:- मोटर साइकिलों, रेल गाड़ियो और दीगर सवारियों के एक्सीडेंट से हलाक शुदा का भी वही हुक्म है जो ऊपर (8 नंबर) में बयान हुआ,*
*®_दुर्रे मुख़्तार,* 

*✿_ 10 - जो लाश कुंवे या मल्बे से निकाली न जा सके :- अगर कोई शख्स कुंवे वगेरा में गिर गया या किसी इमारत वगेरा के मलबे में दब कर मर गया और वहां से लाश निकालना मुमकिन ना हो तो मजबूरी की वजह से उसका गुस्ल व कफन माफ है,*
*⇛और जहां लाश डूबी या दबी रह गई हो उस जगह को उसकी क़ब्र समझा जाएगा और उसी हालत में उस पर नमाज़ जनाज़ा पढ़ी जाएगी,*
*®_ शामी ,1/827,*

*✿_ 11- जो लाश समुंदर वगेरा में लापता हो जाए:- कोई शख्स समुंदर में डूब कर मर गया और लाश का पता न चले या किसी और तरीक़े से मरा हो और लाश गुम या लापता हो तो ऐसी सूरत में गुस्ल व कफन, नमाज़ जनाजा़ और तकफीन सब माफ है,*
*⇛_ उसकी नमाज़े जनाज़ा ग़ायबाना भी ना पढ़ी जाये, क्योंकी नमाज़ जनाज़ा दुरस्त होने के लिए एक शर्त ये भी है कि मय्यत सामने मोजूद हो,*
*®_ शामी ,1/827,*

*✿_12- खुदकुशी करने वाले का हुक्म:-जो शख्स अपने आपको गल्ती से या जान बूझकर हलाक कर दे तो उसे बाका़यदा गुस्ल व कफन देकर नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफन किया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 1/815,*

          
*☞ 13- मुसलमान और गैर मुस्लिम की लाशे खलत मसलत हो जाए और पहचानी ना जा सके:- किसी हादसे में अगर मुसलमान और गैर मुस्लिम की लाश खलत मलत हो जाए तो अगर मुसलमान किसी भी अलामत (खतना वगेरा) से पहचाने जा सके तो उनको अलग कर लिया जाए, और उनका गुस्ल, कफन, नमाजे जनाजा और दफन वगैरह सब काम मुसलमानों की तरह किए जाएं और गैर मुस्लिमों की लाशों के साथ वो मामला किया जाए जो उनके मज़हब में किया जाता हे,*
*®_ बहिश्ती गोहर बनाम शामी, 1/805, आलमगिरी, 1/159,*

*✿_"_ अगर मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के दरमियान कोई फ़र्क मालूम ना हो सके और किसी अलामत से पता न चले कि कौनसी लाश मुसलमान की है और कौनसी गैर मुस्लिम की है, तो उसकी 3 सूरतें है :-*
*"_ 1- अगर मरने वालो में मुसलमानो की तादाद ज़्यादा हो तो सब लाशो के साथ वही मामला किया जाए जो मुसलमानों के साथ किया जाता हैं, यानि बकायदा गुस्ल, कफन, नमाज़ जनाज़ा के बाद मुसलमानो के क़ब्रिस्तान में दफन किया जाए लेकिन जनाजे की नमाज़ में सिर्फ मुसलमानो पर नमाज पढ़ने की नियत की जाए, गैर मुस्लिम पर नमाज़ ए जनाजा की नियत करना जाइज़ नहीं,*
*®_ शामी ,1/805, आलमगिरी,1/159,*

*☞ 2- अगर लाशें गैर मुस्लिमों की ज़्यादा और मुसलमानों की कम हो तो सब लाशों को गुस्ल व कफन दिया जाए और उन पर नमाज जनाजा भी सिर्फ मुसलमानो की नियत से पढ़ी जाए और उसके बाद सबको गैर मुस्लिमों के कब्रिस्तान में दफन कर दिया जाए,*
*®_ शामी व दुर्रे मुख्तार, 1/805,*
*"_ ये गुस्ल व कफन मुसलमानों की तरह बाकायदा नहीं होगा (बल्की युंही पानी से लाशो को धोकर एक कपडे में लपेट दिया जाए),*
*®_ फतवा आलमगिरी, 1/159,*

*✿_3- अगर मुसलमानों और गैर मुस्लिमों की लाशो की तादाद बराबर हो तो जेसा ऊपर (2) में लिखा गया हे कि गुस्ल व कफन देकर सब पर मुसलमानों की नियत से नमाज़ जनाज़ा पढ़ी जाए,*
*"_ अलबत्ता मक़ामे दफ़न में फुक़हा के 3 क़ॉल है --*
*1- एक ये कि सबको मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़न कर दिया जाए,*
*2- दूसरा ये के सबको गैर मुस्लिमों के क़ब्रिस्तान में दफ़न कर दिया जाए,*
*3- तीसरे ये के उनके लिए कोई अलग से क़ब्रिस्तान बना दिया जाए, इस क़ौल में अहतयात ज़्यादा है (लेकिन इनमे से जिस क़ौल पर भी अमल कर लिया जाए दुरूस्त है)*
*®_ दुर्रे मुख्तार, शामी 1/805- 806,*
          
*☞ 14-- जिस मय्यत का मुसलमान होना मालूम ना हो:- किसी मर्द या औरत की लाश मिले और किसी अलामत वगेरा से मालूम ना हो कि मुसलमान हे या गैर मुस्लिम तो जिस इलाक़े से ये लाश मिली है वहां अगर मुसलमानो की अक्सरियत है तो उसे मुसल्मान समझा जाए और बाक़ायदा गुस्ल व कफन देकर नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफ़न किया जाए,*
*"_ और अगर वहां गैर मुस्लिमों की अक्सरियत है (यानी तादाद ज़्यादा है) तो उसके साथ गैर मुस्लिम का सा मामला किया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व आलमगिरी व बहिश्ती गोहर मय हाशिया,*

*☞_ 15- जिस मय्यत को गुस्ल या नमाज़ जनाज़ा के बगेर ही दफन कर दिया गया:- अगर किसी मुसलमान मय्यत को गलती से गुस्ल दिए बगेर या नमाज़ जनाजा पढ़े बगेर क़ब्र में रख दिया तो अगर मिट्टी डालने से पहले याद आ जाए तो मय्यत को बाहर निकल कर, अगर गुस्ल भी नहीं दिया था तो गुस्ल देकर नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफन किया जाए, और अगर गुस्ल दे दिया था तो सिर्फ नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफन कर दिया जाए,*
*⇛और अगर मिट्टी डालने के बाद याद आये तो गुस्ल या नमाज़ जनाज़ा के लिए उसकी क़ब्र खोलना जायज़ नहीं, अब हुक्म ये है कि जब तक गुमाने ग़लिब ये हो के लाश फटी ना होगी, क़ब्र ही पर नमाज़ पढ़ी जाए,*
*⇛और जब ग़ालिब गुमान ये हो के लाश फट चुकी होगी तो अब नमाज़ जनाज़ा न पढ़ी जाए, ऐसी सूरत में क़ुदरत के बावजूद ना पढ़ने वाले गुनाहगर हुए, उन पर लाज़िम है कि तौबा व इस्तगफ़ार करे और आइंदा ऐसी गलती न ऐसी,*
*®_ दुर्रे मुख्तार,*

*☞_ अगर शक हो कि लाश फटी होगी या नहीं ? तो इस सूरत में भी क़ब्र पर नमाज़ जनाज़ा नहीं पढी जाये,*
*®_ शामी ,1/827,*

*✿_"_ 16 - किसी लाश के टुकड़े दस्त्याब हुए:- अगर किसी की पूरी लाश दस्त्याब न हो, जिस्म के कुछ हिस्से दस्त्याब हों तो इसकी चंद सूरतें है ::--*
*✿_"_ सिर्फ हाथ या टांग या सर या कमर या कोई उज़्व मिले तो उस पर गुस्ल व कफन और नमाज़ जनाज़ा कुछ नहीं, बल्की किसी कपडे में लपेट कर यूं ही दफन कर देना चाहिए,*

*✿_"_ जिसके चंद मुतफर्रिक आजा़ मसलन सिर्फ 2 टांगे या सिर्फ 2 हाथ या सिर्फ एक हाथ और एक टांग या इसी तरह दीगर चंद आजा़ मिले और ये मुतफर्रिक आजा़ मिल कर मय्यत के पूरे जिस्म के आधे हिस्से से कम हों, मय्यत का अक्सर हिस्सा गायब हो तो उन आज़ा पर गुस्ल व कफन और नमाज़ कुछ नहीं, यूं ही किसी कपडे में लपेट कर दफ़न कर दिया जाए,*

*✿_"_ और अगर मय्यत के जिस्म का आधा हिसा बगेर सर के मिले तो उसका भी गुस्ल व कफन और नमाज़ जनाज़ा कुछ नहीं, यूंही कपड़े में लपेट कर दफन कर दिया जाए,*
*"_ और अगर मय्यत के जिस्म का आधा हिस्सा मय सर के मिले तो उसे बाका़यदा गुस्ल व कफन दे कर और नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफन किया जाए,*

*✿_"_ और अगर मय्यत के जिस्म का अक्सर हिस्सा मिल जाए अगरचे बगेर सर के मिले तो भी बाका़यदा गुस्ल व कफन दे कर और नमाज़ जनाज़ा पढ़ कर दफन किया जाए,*

*®_शामी, बहिश्ती गोहर,*

*✿__ 17- दफन के बाद बाक़ी आजा़ मिले हो:- किसी मय्यत के जिस्म का अक्सर हिस्सा मिला और बाक़ी हिस्सा न मिला और अक्सर हिस्सा ए बदन पर नमाज़ जनाजा पढ़ कर दफन कर दिया, उसके बाद जिस्म का बाक़ी हिस्सा मिला तो अब उस बाक़ी हिस्से पर जनाजे की नमाज़ नहीं पढ़ी जाएगी बल्कि यूंही कपड़े में लपेट कर दफन कर दिया जाए,*
*®_ आलमगिरी व शामी,*

*✿_"_ 18- ज़िंदगी में जिस्म से अलग हो जाने वाले आज़ा का हुक्म:- किसी ज़िंदा शख़्स का कोई उज़्व उसके बदन से कट जाए या ऑपरेशन के ज़रीये अल्हिदा कर दिया जाए तो उसका गुस्ल व कफन और नमाज़ जनाज़ा कुछ नहीं, यूंही किसी कपड़े में लपेट कर दफ़न कर दिया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार,*

*✿_"_ 19- क़ब्र से सही सालिम लाश बारामद हो:- कोई क़ब्र खुल जाए या किसी वजह से लाश बाहर निकल आए और कफन उस पर ना हो तो अगर लाश फट चुकी हो तो अब कफन की ज़रूरत नहीं यूंही कपड़े में लपेट कर दफन कर दिया जाए,*
*"_ और अगर लाश फटी ना हो तो पूरा कफन सुन्नत के मुताबिक़ देना चाहिए, इसका पूरा खर्च उसी मय्यत के असल तरका से लिया जाएगा, अगर उसका तरका वारिसों में तकसीम हो गया था तो हर वारिस को जितना जितना फीसदी हिस्सा मीरास मे मिला था, कफन का ख़र्च भी इसी तरह हर वारिस पर आएगा,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी,*

*✿__ 20- डाकु या बागी लड़ाई में क़त्ल हो जाए या वो दूसरों को क़त्ल कर दे:- अगर डाकू या बागी लड़ाई के दौरान क़त्ल हो जाए तो उनकी अहानत और दूसरो की इबरत के लिए हुक्म ये है कि उन्हें गुस्ल न दिया जाए, न उनकी नमाज़ जनाज़ा पढ़ी जाए बल्की यूं ही दफना दिया जाए, लेकिन अगर लडाई के बाद क़त्ल किए गए या अपनी मौत से मर जाए तो फिर उनको गुस्ल व कफन दिया जाएगा और नमाज़ जनाज़ा भी पढ़ी जाएगी,*
*"_ यही हुक्म उन लोगों का है जो क़बाइली, वतनी या लिसानी तास्सुब के लिए लडते हुए मारे जाएं,*
*"_ और अगर डाकु या बागी डाकाज़नी या लड़ाई के दौरान किसी को क़त्ल कर दे तो वो (जिसको क़त्ल किया गया) शहीद है, बगैर गुस्ल व कफन के सिर्फ नमाज़ जनाजा पढ़ कर दफन कर दिया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 1/814,*
*
          *╂───────────╂*
           *╠☞_ मौत की इद्दत *

 *✿_ शोहर का इंतका़ल हो जाए या तलाक़ हो जाए या खुला वगैरा या किसी और तरह से निकाह टूट जाए तो सब सूरतों में औरत को मुक़र्रर मुद्दत तक एक घर में रहना पड़ता है, जब तक ये मुद्दत खत्म ना हो जाए उस वक्त तक कहीं और जाना जाइज़ नहीं, मुद्दत गुज़ारने को "इद्दत" कहते हैं, इस मुद्दत में किसी और मर्द से निकाह भी नहीं कर सकती, अगर कर लिया तो वो निकाह बातिल है, मुन'अक़्द ही नहीं हुआ,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर, इस्लाही इंकलाबे उम्मत,*

*✿_ जिस औरत के शोहर का इंतका़ल हो जाए वो 4 माहिने 10 दिन तक इद्दत में रहे, शोहर के इंतका़ल के वक्त जिस घर में रहा करती थी उसी घर में रहना चाहिए, बाहर निकालना दुरस्त नहीं,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ शोहर की जिंदगी में उसके साथ औरत की मुबाशरत (हमबिस्तरी) या किसी क़िस्म की तन्हाई (खिलवत) हुई हो या नहीं हुई हो, रूखसती हुई हो या न हुई हो और चाहे माहवारी आती हो या नहीं आती हो, बूढ़ी हो या जवान, बालिगा हो या नाबलिगा सबका हुक्म ये है कि 4 माहिने 10 दिन इद्दत में रहे,*

*✿"_ अलबत्ता अगर वो औरत हमल से थी, इसी हालत में शोहर का इंतका़ल हुआ तो बच्चा पैदा होने तक इद्दत रहेगी अब महीनों का कुछ ऐतबार नहीं, अगर शोहर की मौत के थोड़ी देर बाद ही बच्चा पैदा हो गया तब भी इद्दत खत्म हो गई,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर, आलमगिरी, इमदादुल फतावा,*

*✿_ घर भर में जहां जी चाहे रहे, बाज़ घरों में जो रस्म है कि खास एक जगह मुक़र्रर करके रहती है बेचारी को उस जगह से हटना ऐब और बुरा समझा जाता है यह बिलकुल वाहियात और गलत है, यह रस्म छोड़ना चाहिए, ( बहिश्ती ज़ेवर)*

*✿_ औरत घर से बाहर किसी काम के लिए कहीं गई थी (शोहर साथ हो या न हो) इतने में उसके शोहर का इंतका़ल हो गया तो अब फौरन वहां से चली आए और जिस घर में रहती थी उसी में रहे, शोहर का इंतका़ल चाहे किसी भी जगह हुआ हो_," (बहिश्ती ज़ेवर, इमदादुल फतावा, 2/442, 427)*

*✿_ जिस औरत को नाराज़ होकर मायके भेज दिया हो, फिर शोहर का इंतका़ल हो जाए तो वो शोहर के घर आकार इद्दत पूरी करे, क्यूंकी इद्दत उस घर में पूरी की जाती है जहां शोहर के इंतका़ल पर औरत को मुस्तकिल रिहाइश थी, आरज़ी रिहाइश का ऐतबार नहीं, और जाहिर है कि मायके में आना आरजी था_," (इमदादुल फतावा, 2/427)*

*✿_ अगर शोहर का इंतका़ल चांद की पहली तारीख को हुआ और औरत को हमल नहीं है तो चांद के हिसाब से 4 महीने 10 दिन पूरे करना होगा, और अगर पहली तारीख के अलावा किसी और तारीख में इंतका़ल हुआ तो हर महीने 30-30 दिन का लगाकर 4 माहिन 10 दिन पूरे करना होंगे, (यानी पूरे 130 दिन) और जिस वक़्त वफात हुई जब ये मुद्दत गुज़र कर वही वक़्त आएगा इद्दत खत्म हो जाएगी_," ( बहिश्ती ज़ेवर व मार्फुल कुरान)*

*✿ _इद्दत शोहर की वफ़ात से शुरू हो जाती है, अगर चे औरत को वफ़ात की ख़बर ना हो और उसने इद्दत की नियत भी ना की हो _," (दुर्रे मुख्तार)*

*✿_ किसी के शोहर का इंतका़ल हो गया मगर उसे खबर नहीं मिली, 4 महिने 10 दिन गुज़र जाने के बाद खबर मिली तो उसकी इद्दत पूरी हो चुकी, यानि जब से खबर मिली उस वक़्त से अज़ सरेनो इद्दत नहीं गुज़ारी जाएगी _," (बहिश्ती ज़ेवर)*

*✿_ किसी औरत को शोहर के इंतका़ल की खबर कई दिन बाद मिली, मगर तारीखे वफात में शक है तो जिस तारीख का यक़ीन हो इद्दत उस तारीख से शुमार की जाएगी_," (शामी ,2/838)*

*✿_ बाज़ लोगों मे ये दस्तूर है कि शोहर की मौत के बाद औरत साल भर तक इद्दत के तोर पर बेठी रहती है, ये बिलकुल हराम है _," (बहिश्ती ज़ेवर)*

          *╂───────────╂*
            *╠☞ _ इद्दत के मसाइल _"*

*☞_ 1- ज़माना ए इद्दत में औरत का नान नफका़:-*
*"_ इद्दते वफ़ात में औरत का नान नफ़क़ा (खाना कपड़ा) और रिहाइश का मकान उसकी ससुराल के ज़िम्मे नहीं, शोहर के तर्के में से भी नान नफ़्क़ा लेने का हक़ नहीं, अल्बत्ता तर्के में जो हिस्सा मीरास शरीयत ने मुकर्रर किया है वो उसको मिलेगा _,"*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*☞ 2- हमल की इद्दत और इस्का़ते हमल:-*
*"_ हामला औरत की इद्दत बच्चा पैदा होने से खत्म होती है, लेकिन अगर हमल गिर जाए यानी इस्का़ते हमल हो जाए तो इसमे ये तफ़सील है कि हमल का कोई उज़्व मसलन मुंह, नाक या उंगली वगैरह बन गया था तब तो इद्दत खत्म हो गई और अगर कोई उज़्व बिलकुल न बना था सिर्फ लोथड़ा या गोश्त का टुकड़ा था, तो इससे इद्दत खत्म न होगी बल्की यूं समझा जाएगा कि ये औरत हमल से नहीं थी, लिहाज़ा उसकी इद्दत 4 महीने 10 दिन होगी _,"*
*"_ अगर किसी हामला के पेट में 2 बच्चे थे एक पैदा हो गया, दूसरा बाक़ी है तो जब तक दूसरा बच्चा भी पैदा ना हो इद्दत खत्म ना होगी,*
*®_ शामी ,2/831,*

*☞ 3 - इद्दते तलाक़ में शोहर का इंतका़ल हो जाए :-*
*"_ जिस औरत को शोहर ने किसी भी क़िस्म की तलाक़ दी हो या खुला हुआ हो या किसी और तरह से निकाह टूट गया हो, फ़िर इद्दते तलाक़ ख़त्म हो जाने के बाद उस साबिक़ शोहर का इंतका़ल हो जाए तो अब मौत की वजह औरत पर कोई इद्दत वाजिब नहीं और वो उसकी वारिस भी नहीं,*
*®_ शामी ,2/833,*

*☞⇛ और अगर शोहर का इंतका़ल इद्दते तलाक़ ख़त्म होने से पहले हो गया तो इसमे तफ़सील ये है ::-*
*✿_ 1- अगर शोहर ने तलाक ए रुजुई दी थी, चाह अपनी बिमारी में दी हो या तंदूरस्ती में, तो अब इद्दते तलाक़ को वहीं छोड़ कर इंतका़ल के वक़्त से अज़ सरेनो सिर से इद्दते वफात गुजारेगी और शोहर की वारिस भी होगी _,"*

*✿ _2- अगर तलाक बा'इन दी थी और तलाक के वक़्त शोहर तंदूरस्त था, चाहे तलाक़ औरत की मर्ज़ी से दी हो या मर्ज़ी के बैगर, फिर इद्दत तलाक खत्म होने से पहले शोहर का इंतका़ल हो गया तो अब औरत सिर्फ इद्दते तलाक़ ही जितनी बाक़ी रह गई हो वो पूरी करेगी, इद्दते वफ़ात नहीं गुज़ारेगी और शोहर की वारिस भी नहीं होगी,*

*✿_ 3- अगर तलाक ए बा'इन के वक़्त शोहर बीमार था और तलाक औरत की मर्ज़ी से दी थी तो सूरत में भी वही हुक्म है जो ऊपर बयान हुआ कि औरत सिर्फ इद्दते तलाक़ ही जितनी रह गई वो पूरी करेगी, इद्दते वफात नहीं गुजारेगी और शोहर की वारिस भी नहीं होगी,*
*®_शामी व हिदाया,*

*✿_ 4- अगर तलाक़ बाइन शोहर ने अपनी बीमारी में औरत की मर्ज़ी के बगेर दी थी तो इस सूरत में देखा जाए कि तलाक़ की इद्दत पूरी होने में ज़्यादा दिन लगेंगे या मौत की इद्दत पूरी होने में लगेंगे, जिस इद्दत मे ज्यादा दिन लगेंगे औरत वो इद्दत पूरी करेगी और शोहर की वारिस होगी,*
*®_ शामी, 2/832, बहिश्ती ज़ेवर,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_वो काम जो इद्दत में जाइज़ नहीं ,*

*✿ "_जिस औरत के शोहर का इंतका़ल हुआ हो उसके लिए हुक्म ये है कि इद्दत के ज़माने में ना तो घर से बाहर निकले, न अपना दूसरा निकाह करे, न कुछ बनाव सिंगार करे, इद्दत में ये सब बाते उस पर हराम वह है,_," ( बहिश्ती ज़ेवर )*

*✿ "_ इद्दत में सोग वाजिब है:-*
*"_ सोग करना उसी औरत पर वाजिब है जो मुसलमान आक़िल व बालिग हो, गैर मुस्लिम या मजनून औरत या ना-बालिग लड़की पर वाजिब नहीं, उनको बनाव सिंगार करना जाइज़ है, अलबत्ता घर से निकलना और दूसरा निकाह करना उनको भी दुरुस्त नहीं _,"*
*⇛ जिसका निकाह सही नहीं हुआ था, फिर ऐसी औरत का मर्द मर गया तो ऐसी औरत को भी सोग करना वाजिब नहीं,*
*"_ जो औरत इद्दते वफात में हो उसे साफ लफ्जों में पैगामे निकाह देना या उससे मंगनी करना हराम हे,*

*✿ "_ जब तक इद्दत खत्म ना हो उस वक्त तक खुशबू लगाना, कपड़े या बदन में खुशबू बसाना, ज़ेवर, गहना पहनना, फूल पहनना, चूड़ियां पहनना, सुर्मा लगाना, पान खाना, सर में तेल डालना, रेशमी और रंगे हुए नए कपड़े पहनना ये सब बाते हराम हे,*
*"_ सर धोना और नहाना इद्दत में जाइज़ है, ज़रूरत के वक़्त कंघी करना भी दुरुस्त है, जैसे किसी ने सर धोया या जूं पड़ गई, लेकिन पट्टी न झुकाए न बारीक कंघी से कंघी करे, जिसमे बाल चिपके हुए जाते हैं ,बल्की मोटे दंदाने वाली कंघी करे कि ज़ीनत ना होने पाए,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿ "_ जिस औरत के पास सारे ही कपड़े ऐसे हो जिनसे ज़ीनत होती है, मामूली कपड़े बिलकुल ना हो उसे चाहिए कि ममूली कपड़े कहीं से हासिल करके पहने, चाहे इसके लिए अपने बड़ियां कपड़े फरोख्त करना पड़े और जब तक वो हासिल हो वही कपड़े पहनती रहे, मगर ज़ीनत की नियत ना करे,*
*®_ शामी ,115,*

*✿ _इद्दत गुजर जाने के बाद ये सब पाबंदिया खत्म हो जाती है, दूसरा निकाह भी कर सकती है,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ शोहर के अलावा किसी और की मौत पर सोग करना जाइज़ नहीं, अलबत्ता अगर शोहर मना ना करे तो अपने अज़ीज़ और रिश्तेदार के मरने पर भी 3 दिन तक बनाव सिंगार छोड़ देने दुरस्त है, इससे ज़्यादा बिल्कुल हराम है _,"*
*⇛और अगर शोहर मना करे तो 3 दिन भी न छोड़ें,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि किसी मोमिन के लिए ये जाइज़ नहीं कि तीन दिन से ज़्यादा किसी का सोग मनाए, सिवाय बेवा के (शोहर की मौत पर) उसके सोग की मुद्दत (जबकी वो हामला ना हो) चार महिन दस दिन है_,"*
*®_ तिर्मिज़ी व बुखारी,*

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*╠☞_इलाज के तोर पर ज़ीनत की चीज इस्तेमाल करना,*

*✿_ सर में दर्द हो या जूं पड़ जाने की वजह से तेल डालने की ज़रुरत पड़े तो जिसमे खुशबू ना हो वो तेल डालना दुरस्त है _," (बहिश्ती ज़ेवर व इमदादुल फतावा, 2/450)*

*⇛ जिस औरत को सर में तेल डालने की ऐसी आदत हो कि ना डालने से ज़ने गालिब ये है कि दर्द हो जाएगा, वो भी बगेर खुशबू का तेल दर्द के खोफ से डाल सकती है, अगरचे अभी दर्द शुरू ना हुआ हो_,"( हिदाया व आलमगिरी,)*

*✿_ दवा के लिए सूरमा लगाना भी ज़रूरत के वक्त दुरुस्त है लेकिन रात को लगाए और दिन को पोंछ डाले_," ( बहिश्ती ज़ेवर)*

*✿_ रेशम का कपड़ा अगर खारिश वगेरा के इलाज़ के तोर पर पहनने की ज़रूरत पड़ जाए तो उसकी भी गुंज़ाइश है, फिर भी ज़ीनत के इरादे से ना पहने_," (हिदाया- जिल्द -2)*

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  *╠☞_मजबूरी में घर से निकलना,*

*✿_ शोहर के इंतका़ल के वक़्त जिस घर में औरत मुस्तकि़ल (यानी जिस घर को उसके रहने का घर समझ जाता है) रिहाइश थी उसी घर में इद्दत पूरी करना वाजिब है, बाहर निकल जायज़ नहीं, अलबत्ता अगर वो इतनी गरीब है कि उसके पास से गुज़ारे के मुवफ़िक़ ख़र्च नहीं तो उसे मुलाज़मत (नौकरी) या मज़दूरी के लिए पर्दे के साथ बाहर निकलना दिन में जायज़ है, लेकिन रात को अपने घर में रहा करे,*
*⇛ और दिन में भी काम से फारिग होते ही वापस आ जाए, मजी़द वक़्त घर से बाहर गुजा़रना जायज़ नहीं,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर, इमदादुल फतावा, शामी,*

*✿_ इद्दत में सफ़र भी जायज़ नहीं चाहे हज का सफर हो या गैर हज का,*
*®_ इमदादुल फतावा, 2/428,*

*✿ _इद्दत में अगर बेवा की मुलाज़मत, मजदूरी ऐसी है कि उसमे रात का भी कुछ हिस्सा खर्च हो जाता है तो ये भी जायज़ है, लेकिन रात का अक्सर हिस्सा अपने ही घर में गुजा़रना चाहिए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी,*

*✿_ जिस बेवा के पास इद्दत में गुजा़रने के लिए खर्च मोजूद हो उसे दिन में भी घर से निकलना जायज़ नहीं,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, 2/854,*

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*╠☞ _ इद्दत में मजबुरन सफर करना पड़े:-*

*✿_ जिस औरत को कोई ज़री ज़मीन, बाग, जायदाद या तिजारत ऐसी हो कि उसके इंतज़ाम और दुरुस्तगी के लिए खास उसी का जाना ज़रुरी हो कोई और शख्स ऐसा नहीं हो जो इद्दत में ये काम कर दे तो ऐसी मजबूरी में भी घर से निकलना पर्दे के साथ जायज़ है, लेकिन रात अपने ही घर में गुजा़रे और इस काम से फारिग होते ही घर वापस आ जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी,*

*✿_ इद्दते वफ़ात में अगर औरत बीमार हो और घर पर इलाज करने वाले को बुलाना या इलाज कराना मुमकिन ना हो तो मुआलिज के पास जाना या मजबूरी में अस्पताल जाना भी जायज़ है,*
*⇛ अगर इलाज या तशखीस उस बस्ती में मुमकिन ना हो तो इस गर्ज़ से दूसरे शहर जाना भी जितने दिन के लिए ज़रूरी हो जायज़ है, लेकिन वो दूसरा शहर मुसाफते सफर पर हो तो महरम का साथ होना ज़रूरी हे,*
*®_ इमदादुल फतावा, 2/428,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_इद्दत में मजबूरन दूसरा घर मुंतकिल करना,*

*✿ _ शोहर के इंतकाल के वक्त जिस घर में रहा करती थी अगर वो किराये का मकान था और अगर किराया अदा करने की क़ुदरत है तो किराया देती रहे और इद्दत खत्म होने तक वहीं रहे,*
*"_ और अगर किराया देने की क़ुदरत नहीं तो वहा से क़रीब तरीन जगह जहां उसकी रिहाइश, जान व माल और आबरू की हिफ़ाज़त और पर्दा के साथ मुमकिन हो मुंतक़िल हो जाए, बिला ज़रुरत दूसरे के मकान में मुन्तक़िल ना हो, जिस घर में मुन्तक़िल हो बक़िया इद्दत वहीं गुजारे,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी ,2/854,*

*✿ "_शोहर के इंतकाल के वक़्त जिस घर में रहा करती था अगर वो शोहर की मिल्कियत था मगर अब वारिसो में तक़सीम हो गया और बेवा के हिस्से मीरास में जितना मकान आया वो रिहाइश के लिए काफी नहीं और बाक़ी वारिस उसे अपने हिस्से में रहने नहीं देते या काफ़ी तो है मगर जिन लोगो से शर'न पर्दा करना चाहिए वो भी वहीं रहते हैं और पर्दा करने नहीं देते तो इस सूरत में भी वो किसी क़रीब तरीन मकान में जो जान व माल, आबरू और पर्दा की हिफाज़त के साथ रिहाइश के लिए काफ़ी हो, मुंतक़िल हो सकती है, बाक़ी इद्दत वहां गुज़ारे,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी व हिदाया,*

*✿ "_ इद्दत का मकान अगर गिर जाए या गिरने का खौफ हो या वहा आबरू जान माल या सहत के तकल्लुफ हो जाने का क़वी अंदेशा हो या जिन लोगों से शर'न पर्दा होना चाहिए वहां उनसे पर्दा मुमकिन न हो तो इन सब सूरतों में भी औरत उस मकान से मुंतक़िल हो सकती है,*
*®_ इमदादुल फतावा, शामी, दुरे मुख्तार,*

*✿ _इद्दत के मकान में औरत अगर तन्हा डरती है और कोई क़ाबिले इत्मिनान शख्स साथ रहने वाला नहीं तो अगर डर इतना शदीद हो कि बर्दाश्त नहीं कर सकती तो इस सूरत में भी उस मकान से रिहाइश मुंतकिल कर सकती है, और डर इतना शदीद ना हो तो मुंतक़िल होना जायज़ नहीं,*
*"_ इसी तरह अगर इद्दत का मकान आसेब ज़दा हो और औरत आसेब से इतना डरती हो कि बर्दाश्त नहीं होता या आसेब का कोई खुला हुआ ज़रर है तो इस सूरत में भी दूसरे मकान में मुंतकिल करना जायज़ है,*
*®_ इमदादुल फतावा, 2/443,*

*✿_ ऊपर जिन मसाइल में घर से मुंतक़िल होने को जायज़ लिखा है उन सबमें ये ज़रूरी हे कि औरत वहा से क़रीब तरीन मकान में मुंतक़िल हो, जहाँ उसकी रिहाइश जान माल व आबरू और पर्दा की हिफाज़त के साथ हो सके, बिला ज़रुरत दूसरे मकान में मुंतकिल ना हो, और जिस घर में मुंतकिल हो बक़िया इद्दत वहीं गुज़ारे, अब इस घर का वही हुक्म होगा जो असल घर का था कि यहां से मजबूरी के बगैर निकलना जायज़ नहीं,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 2/854,*

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*╠☞ आपस की नाचाकी (लड़ाई झगड़ा) उज्र नहीं,*

*✿"_ अगर औरत और सास में सख्त नाचाकी हो कि साथ रहना मुश्किल है तो सिर्फ इस वजह से दूसरे घर में मुन्तक़िल होना जायज़ नहीं, नाचाकी से अगरचे तकलीफ तो ज़रूर होगी लेकिन ये ऐसी तकलीफ नहीं जिससे इद्दत में बर्दाश्त ना किया जा सके _,"*
*®_ इमदादुल फतावा, 2/448,*

*☞_ शोहर के इंतका़ल के वक़्त औरत सफर में हो तो इद्दत कहां गुजा़रे ?*

*✿ _शोहर के इंतकाल के वक़्त अगर औरत सफ़र में हो तो मुख्तलिफ़ सूरतों में शरई हुक्म अलग अलग है, जिसकी तफ़सील यह है ::-*
*"_1- अगर शोहर के इंतकाल के वक़्त (ये इंतका़ल की खबर के वक़्त) रास्ते ही में कहीं थी, चाहे किसी बस्ती में हो या गैर आबाद जगह मे, तो देखे के यहां से अपनी बस्ती कितने फासले पर है? अगर फासला "मुसाफते सफर" से कम हो तो फौरन अपनी बस्ती में वापस आ जाए चाहे कोई मेहरम साथ हो या न हो, और चाहे वो बस्ती जहां जाने के लिए सफर किया था वो "मुसाफते सफर" पर हो या उससे कम मुसाफत पर,*
*®_ हिदाया, फतहुल क़दीर, दुर्रे मुख्तार, शामी, 2/856,*

*✿ 2- और अगर वहां से अपनी बस्ती मुसाफते सफर पर है और मंजिल मक़सूद उससे कम मुसाफत पर हो तो सफर जारी रखे और मंजिल मक़सूद पर पहुंच कर वहीं इद्दत पूरी करे, महरम साथ हो या न हो,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, शामी,*

*✿ अलबत्ता बाज़ फुक़्हा ए हनफिया ने फरमाया कि जब मंज़िल मक़सूद भी मुसाफते सफर से कम पर हो तो औरत को अख्त्यार है चाहे वहां जाकर इद्दत पूरी करे या अपनी बस्ती में वापस आकर, लेकिन उनके नज़दीक भी बेहतर यही है कि अपनी बस्ती में वापस आ जाए,*
*®_ शामी ,2/856,*

*✿_3- और अगर वहां से दोनो बस्तिएं मुसाफते सफर पर हों तो अगर वो जगह गैर आबाद है तो अख्त्यार है चाहे अपनी बस्ती में वापस आ जाए या मंज़िल मक़सूद पर पहुंच प्कर इद्दत पूरी करे, लेकिन अपनी बस्ती में वापस आ जाना बेहतर है, चाहे कोई महरम साथ हो या ना हो,*
*"_ अलबत्ता अगर अपनी बस्ती या मंज़िल मक़सूद के रास्ते में कोई ऐसी बस्ती हो जहां जान माल और आबरू की हिफाज़त के साथ क़याम हो सकता है या शोहर के इंतका़ल के वक्त ही वो ऐसी बस्ती में थी तो वहीं रह कर इद्दत पूरी करे चाहे मेहरम साथ हो या ना हो,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, शामी, हिदाया, फतहुल क़दीर,*

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*╠☞ _ इद्दत में कोताहियां और गलत रस्में ,-*

*✿_ आज कल इज ज़माने में मगरिब की पेरवी की एक लानत ये भी है कि बेवा और वो जिनकी तलाक़ हो गई हो इद्दत में नहीं बेठती, खुले आम घर से बाहर निकलना, बाज़ार जाना, और शादी वगैरा दीगर तकरीबात में शिरकत करना होता रहता है और इस शरई हुक्म की कोई परवाह नहीं की जाती, ये सख्त गलत और गुनाह ए कबीरा हे, इससे तौबा करें और इद्दत में बेठने के हुक्म की तामील करें _,"*

*✿_ इसी तरह और भी बहुत सी कोताहियां और गलत रस्में आज कल इद्दत में और इद्दत के बाद इजा़द हो गई है जिनसे बचना ज़रूरी है, यहां उनमे से खास खास लिखी जा रही है-'*

*☞ 1- शोहर के इंतकाल पर बेवा की चूड़ियां तोडना:-*
*✿_ इद्दत में चूड़ियां चाहे कांच की हो पहनना जाइज़ नहीं, लेकिन औरतों में जो रस्म है कि शोहर के इंतका़ल पर बेवा की चूड़ियां उतारने के बजाय तोड़ डालती है, या वो खुद ही तोड डालती है ,*
*"_ ये गैर मुस्लिमों की रस्म है और माली नुक़सान होने की वजह से इसराफ भी है, लिहाज़ा तोड़ी ना जाए बल्की उतार ली जाए, ताकी इद्दत के बाद पहन सके, अगर उतारने में कुछ तकलीफ़ और दुशवारी हो तो मजबूरी में तोड़ी जा सकती है,*
*®_ इमदादुल फतावा, 2/451,*

*☞ 2- बिला उज़्र इद्दत में निकलना :-*
*✿_ बाज़ औरतें इद्दत में बेठ जाती है लेकिन मामूली उज़्र पेश आने पर घर से बाहर निकल जाती है, घर में मर्दों के होते हुए भी दीगर कामों के लिए, इसकी तमाम तफ़सील पीछे गुज़र चुकी है, कोई और उज्र पेश आ जाए और बाहर निकलना ज़रूरी हो तो मो'तबर उलमा से मसला दरियाफ्त कर लें, वो इजाज़त दें तो निकले वरना नहीं,*

*✿- बाज़ ना वाक़िफ़ हज़रात ये समझते हैं कि अगर बेवा बगैर किसी उज़्र के घर से बाहर आ जाए तो अज सारे नो (दोबारा शूरु से) इद्दत वाजिब हो गई, पहली इद्दत टूट गई, ये बिलकुल ही ग़लत है, इस तरह इद्दत नहीं टूटती, अल्बत्ता बिला उज़्र शरई इद्दत में घर से निकलना जायज़ नहीं, बड़ा गुनाह है _,"*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत,*

*☞ 3- इद्दत में ज़ेबो जीनत की चीज़ इस्तमाल करना:-*

*✿_ बाज़ औरतें इद्दत में बनाव सिंगार की चीज़े करती है और कुछ ख्याल नहीं करती कि ऐसा करना जायज़ नहीं, हालांकी इद्दत में मेकअप, तेल, खुशबू, बनाव सिंगार, कंघी, सुरमा, सुर्खी, मेंहदी, भड़कीले कपड़े और जे़बाइश की तमाम चीजें इस्तेमाल करना हराम हे,*

*☞4- इद्दत में निकाह या मंगनी करना,*

*✿_ एक कोताही आम तौर पर यह होती है कि बाज़ लोग इद्दत के अंदर ही बेवा से निकाह कर लेते हैं, इद्दत पूरी होने का इंतज़ार नहीं करते,*
*"_ याद रखना चाहिए कि इद्दत के अंदर निकाह जायज़ नहीं, अगर कर लिया तो मुन'क़द नहीं होगा, बल्की इद्दत में तो मंगनी करना और खुले अल्फ़ाज़ में पैगाम ए निकाह देना भी जायज़ नहीं, क़ुराने करीम में इसकी मुमा'नत आई है,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 2/62,*

*☞"_5- इद्दत में अहतयातन कुछ दिन बढ़ाना:-*

*✿_ एक आम गल्ती ये है कि अगर बेवा की इद्दत 4 माहीने 10 दिन है उसमे अगर एक या दो महिने 29 के हों तो उस कमी के बदले में 10 दिन इद्दत में और बड़ा देते हैं, ये गलत है, इद्दत का हिसाब खूब याद रखना चाहिए,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत,*

 *☞ 6- इद्दत से निकलने के लिए औरतों का इकट्ठा होना:-*

*✿_ जब कोई औरत बेवा हो जाए तो उसके खत्मे इद्दत की रस्म की जाती है, और बहुत सी औरतें इकट्ठी हो जाती है कि इद्दत से निकालने आई है, और बाज़ औरते यह ज़रूरी समझती है कि इद्दत से निकालने के लिए इद्दत वाले घर से निकल कर दूसरे घर जाएंगे और इस्का बड़ा अहतमाम किया जाता है,*
*"_ ये दोनो बात गलत है, बेवा के इद्दत के जब 4 महीने 10 दिन गुज़र जाएं या वजा ए हमल हो जाए तो वो इद्दत से खुद बा खुद निकल जाती है, चाह उसी घर में रहे,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत,*

*☞"_ 7- बेवा के निकाह की ऐब समझना:-*
*✿ _एक बड़ी खराबी जो गैर मुस्लिमों की जाहिलाना रस्म है और बहुत से मुस्लिम खानदानों में आ गई है, ये है कि बाज़ बेवा औरतों और जिनका तलाक़ हो गई हो वो इद्दत के बाद भी निकाह सानी को ऐब समझती है,*
*"_ हालांकी क़ुराने करीम ने इद्दत के बाद निकाह की तरगीब दिलाई है और जो लोग इसको रोकते हो उन पर ज़ोर अंदाज़ में तम्बीह फरमाई है कि हरगिज़ उनको निकाह सानी से ना रोकें _,"*

*✿_आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की अज़वाजे मुताहरात भी हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के सिवा कोई कुंवारी ना थी, बल्की इनमे से अक्सर बेवा और बाज़ मुतलका़ थीं, सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम भी इस पर अमल पेरा रहे,*

*✿_ ऐसा मुबारक अमल जिसकी कु़राने करीम ने तरगीब दी हो, जिस पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम ने मुसलसल अमल फरमाया हो, उसे ऐब समझना सख्त जहालत है, खतरनाक गुमराही है, बाज़ औरतें तो इस मामले में ऐसी बातें ज़ुबान से कह डालती है जो कुफ्र की हद तक पहुंच जाती है,*

*✿_ बाज़ औरतें ऐब तो नहीं समझती लेकिन बे-निकाह रहने को ज्यादा इज्ज़त की बात समझती है, ये भी गुमराही है जो कुफ्र तो नहीं मगर उसके करीब है, वरना कामिल मुसलमान क्या वजह है कि खिलाफे सुन्नत को ज़्यादा ऐजाज़ का सबब समझे,*
*"_ बाज औरतें निकाह करना भी चाहती है तो खानदान के लोग उसे रोकते हैं और आर दिलाते हैं, याद रखना चाहिए कि उन्हें निकाह से रोकना या आर दिलाना सख्त गुनाह और हराम है,*

*✿_ मसला - जो बेवा इस खौफ से कि बच्चे जा़या हो जाएंगे, या इस वजह से कि कोई उसे क़ुबूल नहीं करता निकाहे सानी नहीं करती, वो माजू़र है, बल्की बच्चों के ज़ाया हो जाने के खौफ से निकाह ना करना तो बाइसे अजरो सवाब भी है _,"*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 2/42,*

*✿_अगर तबियत में निकाह का तकाज़ा है और निकाह की क़ुदरत भी है और शोहर के हुकूक़ भी अदा कर सकती है तो निकाह करना वाजिब है, ना करने से गुनाह होगा, और अगर तकाज़ा (ख्वाहिश) बहुत ज्यादा है कि निकाह किए बग़ेर हराम में मुब्तिला होने का अंदेशा है तो निकाह करना फ़र्ज़ हे,*
*"_ अगर तबियत में निकाह का तकाज़ा तो नहीं लेकिन शोहर के हुकूक अदा करने की कुदरत है तो इस सूरत में निकाह करना सुन्नत है, कुदरत नहीं तो ममनु है,*
*®_ ईज़ा ,39-40,*

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*╠☞ _ तरका और उसकी तक़सीम:-*

*✿_"_ मरने वाला इंतेकाल के वक्त अपनी मिल्कियत में जो कुछ माल व जायदाद, नक़द रुपिया, ज़ेवरात, कपड़े और किसी भी तरह का छोटा बड़ा सामान छोड़ता है, चाहे सूई धागा ही हो, शरियत मे यह सब उसका "तरका" है,*
*"_ इंतेकाल के वक्त उसके बदन पर जो कपडे़ हो वो भी उसमे दाखिल हे, नीज़ मय्यत का जो क़र्ज़ किसी के जिम्मे रह गया हो और मय्यत की वफात के बाद वसूल हुआ हो वो भी उसके "तरका", मे दाखिल है,*

*✿_"_ मय्यत के कुल तरके में तरतीबवार 4 हुक़ूक़ वाजिब है, उनको शरई क़ायदे के मुताबिक़ ठीक ठीक अदा करना वारिसों की अहम ज़िम्मेदारी है, यहां तक कि अगर मय्यत की जेब में एक इलायची भी पडी हुई है तो किसी शख्स को यह जायज़ नहीं कि सब हक़दारों की इजाज़त के बगेर उसे मुंह में डाल ले, क्यूंकी वो एक आदमी का हिस्सा नहीं,*

*✿_"_चार हुकूक़ ये हैं:-*
*"_1- तजहीज़ व तकफीन,*
*"_2- देन और क़र्ज़, अगर मय्यत के ज़िम्मे किसी का रह गया हो,*
*"_3- जायज़ वसियत अगर मय्यत ने की हो,*
*"_ 4- वारिसों पर मीरास की तक़सीम,*

*✿_"_ यानि तरका में सबसे पहले तजहीज़ व तकफीन और तदफीन के मसरिफ अदा किए जाएं, फिर अगर कुछ तरका बचे तो मय्यत के जिम्मे जिन लोगो के कर्जे़ हों वो सब अदा किए जाएं, फिर अगर उसके बाद कुछ तरका बाक़ी रहे तो उसके एक तिहाई की हद तक मय्यत की जायज़ वसियत पर अमल किया जाए और बक़िया दो तिहाई बतौर मीरास सब वारिसों में शरई हिस्सों के मुताबिक़ तक़सीम किया जाए,*

*✿_"_ अगर मय्यत के ज़िम्मे न कोई क़र्ज़ था, ना उसने तरका के मुताल्लिक़ कोई वसियत की तो तजहीज़ व तकफ़ीन और तदफ़ीन के बाद जो तरका बचे वो सबका सब वारिसों का है, जो शरीयत के मुकर्रर करदा हिस्सों के मुताबिक़ उनमें तक़सीम होगा _,"*

          *╂───────────╂*
*╠☞_वो चीज़ें जो तरका में दाखिल नहीं,*

*✿_"_ मय्यत के पास जो चीजें ऐसी थी शर'न वो उनका मालिक ना था, अगरचे वो बिला तकल्लुफ उनको मालिको की तरह इस्तेमाल करता रहा हो, वो उसके तर्के में दाखिल ना होंगी, ऐसी सब चीज़े उनके असल हक़दारों को वापस की जाएं, तजहीज़ व तकफ़ीन वगेरा में उनका खर्च करना जायज़ नहीं,*

*✿_"_ मसलन ,,--1- जो चीजें मय्यत ने किसी से आरियत (आरजी़ तोर पर मांगी हो) ली थी, या किसी ने उसके पास अमानत रख दी थी, वो तरका में दाखिल न होगी, ऐसी सब चीज़ों को उनके मालिकों को वापस की जाएं,*
*"_2- अगर मय्यत ने किसी की कोई चीज़ ज़बर्दस्ती या चोरी या ख़यानत करके रख ली थी तो वो भी तरका में दाखिल नहीं, उसके मालिक की वापस की जाए,*
*"_3- अगर मय्यत ने मरज़ुल मौत से पहले अपनी कोई चीज़ हिबा कर दी, यानि किसी को तोहफ़ा या हदिया में दे दी थी और उस पर लेने वाले का क़ब्ज़ा भी करा दिया था वो चीज़ मय्यत की मिल्क से निकल गई और लेने वाला उसका मालिक हो गया, लिहाज़ा मय्यत के इंतका़ल के बाद वो उसके तर्के में दाखिल नहीं होगी,*

*✿_"_लेकिन अगर सिर्फ ज़ुबानी या तहरीरी तोर पर कहा था कि," ये चीज़ तुमको देता हूं, "या," मैंने ये चीज़ तुम्हें हिबा कर दी है," और कब्ज़ा नहीं करवाया था तो उसके कहने या लिखने का कोई ऐतबार नहीं, ये ना हिबा हे, ना वसियत, बल्की ये चीज़ मय्यत ही की मिल्क में रहेगी और मय्यत के इंतका़ल के बाद उसके तर्के में दाखिल होगी,*

*✿_"_ और अगर मरज़ुल मौत में दी थी और उसका क़ब्ज़ा भी करा दिया था, ये देना वसियत के हुक्म में है, लिहाज़ा ये चीज़ तरका में शुमार होगी, और तजहीज़ व तकफ़ीन और क़र्ज़ो की अदायगी के बाद जिन शराइत साथ दूसरी वसीयतों पर अमल होता है इस पर भी होगा,*

 *🗂️_ बहिश्ती ज़ेवर, मुफीदुल वारिसीन, शामी,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ मौत के बाद वसूल होने वाली पेंशन भी तरका में दाखिल नहीं,*

*✿_ पेंशन जब तक वसूल ना हो जाए मिल्क में दाखिल नहीं होती, लिहाज़ा मय्यत की पेंशन की जितनी रक़म उसे मौत के बाद वसूल हो वो तरका में शूमार ना होगी, क्यूंकी तरका वो होता है जो मय्यत की वफात के वक़्त उसकी मिल्कियत मे हो और ये रक़म उसकी वफ़ात तक उसकी मिल्कियत में नहीं आई थी,*

*✿"_ लिहाज़ा तरका में जो हुक़ूक़ वाजिब है वो इस रक़म में वाजिब नहीं होंगे, और मीरास भी इसमे जारी ना होगी, अलबत्ता हुकुमत (या वो कंपनी जिससे पेंशन मिली है) जिसको ये रकम देगी वही इसका मालिक हो जाएगा, क्यूंकि यह एक क़िस्म का इनाम है तनख्वाह या उजरत नहीं, लिहाज़ा हुकुमत या कंपनी अगर ये रक़म अगर किसी एक रिश्तेदार को दे तो वही उसका तन्हा मालिक होगा और अगर सब वारिसों के वास्ते दे तो सब वारिस आपस में तक़सीम कर लेंगे _,"*
*®_ बा-हवाला—दुर्रे मुख्तार, 5/603,*

*✿"_ हर माह तनख्वाह में से वज़ा (काटे गए) हुए प्रोविडेंट फंड जो कि मौत या रिटायरमेंट होने पर दिए जाते हैं, पेंशन के इस हुक्म में दाखिल नहीं है, उनका हुक्म मोअतबर उल्मा से दरयाफ्त करके अमल किया जाए,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _मय्यत के बाज़ अमलाक भी तरका में दाखिल नहीं होते,*

*"_ बाज़ मुतैयन चीजें जिनकी ज़ात ही के साथ किसी और शख्स का हक़ वाबस्ता हो वो मय्यत की मिल्क में होने के बावजूद तरका में दाखिल नहीं होती, इसकी 2 मिसालें यहां ज़िक्र की जाती है:-*

*✿_"_ 1- जो चीज़ मय्यत ने ख़रीद ली थी लेकिन क़ीमत अदा नहीं की थी और ना ही उस चीज़ पर क़ब्ज़ा किया था, बल्की फ़रोख़्त करने वाले ही के पास मोजूद थी और मय्यत ने इसके सिवा कोई माल भी नहीं छोड़ा (जिससे तजहीज़ व तकफीन का खार्च अदा करने के बाद वो क़ीमत अदा की जा सके) तो वो चीज़ तरका में दाखिल नहीं होगी,*

*✿_"_2- इसी तरह जो चीज़ मय्यत ने कर्ज़ के बदले में रेहन (गिरवी) कर दी थी और उस कर्ज की अदायगी के लिए कोई माल भी नहीं छोड़ा तो वो भी अगरचे मय्यत की मिल्क थी मगर उसके तरका मे दाखिल नहीं होगी,*

*✿_"_ यानी जब मय्यत ने कुछ माल ही नहीं छोड़ा तो वो फरोख्त करने वाला जिसने अपनी चीज़ की क़ीमत नहीं पाई और वो क़र्ज़ख़्वा जिसका क़र्ज़ अभी वसूल नहीं हुआ उन चीज़ों को जो उनके कब्जे़ में मोजूद है फरोख्त करके सबसे पहले अपना हक़ ले सकता है, उनका हक़ अदा हो जाने के बाद अगर कुछ बाक़ी रहे तो वो तरका समझा जाएगा और उसमे तजहीज़ व तकफीन, क़र्ज़ व वसीयत और मीरास क़ायदे के मुताबिक जारी होंगे, और अगर कुछ बाक़ी न रहे तो अज़ीज़ रिश्तेदार अपने पास से तजहीज़ व तकफीन करें,*
*®_  दुर्रे मुख्तार, शामी, मुफिदुल वारसीन,*

*✿_"_ हमने यहां सिर्फ 2 मिसालें ज़िक्र की है, अगर इनसे मिलती जुलती कोई और सूरते पेश आए कि मय्यत की किसी खास और मुतैयन ममलूक चीज़ में दूसरे का हक़ लगा हो तो मो'तबर उल्मा से पूंछ कर अमल किया जाए, क्योंकि ज़रा से फर्क से (जिसे हर आदमी नहीं समझ सकता) हुक्म बदल जाता हे,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ जो चीज जिंदगी में किसी के लिए खास कर दी हो वो तरका में दाखिल है,*

*✿_"_ अगर किसी ने ज़िंदगी में अपनी औलाद की शादी के लिए नक़द रूपिया या कपड़ा और ज़ेवर वगेरा जमा किया था और इरादा था कि उसको खास फलां बेटा या बेटी की शादी में खर्च करुंगा, या बेटी के जहेज़ में दूंगा, मगर तक़दीर से उस शख्स का इंतकाल हो गया और वो चीज़ उस औलाद को मलिकाना तोर पर कब्ज़े में नहीं दी थी तो सब माल व असबाब तर्के में दाखिल होगा,*

*⇛ और उस बेटे या बेटी का कोई खास इस्तहका़क़ ना होगा बल्की तजहीज़ व तकफीन, अदा ए क़र्ज़ और वसियतों की तामील के बाद मीरास के क़ायदे के मुताबिक़ उसका जितना हिस्सा बनता है वही मिलेगा,*
*®_  मुफीदुल वारिसीन,*

*✿_ _ अगर ये सूरत किसी ना-बलिग औलाद के बारे में पेश आए तो उसका हुक्म मोअतबर उलमा से दरियाफ्त कर लें,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_तजहीज़ व तकफ़ीन के मसारिफ़ ,*

*✿_"_ मय्यत के तर्के से सबसे पहले उसकी तजहीज़ व तकफ़ीन का खर्च लिया जाए, मगर ये काम बहुत सीधे सादे शरई तरीक़े से सुन्नत के मुताबिक करें और कफन भी मय्यत की हैसियत के मुताबिक़ दें , कपड़ा सफेद होना चाहिए लेकिन ऐसी कीमत का हो जिस कीमत का कपड़ा अक्सर पहन कर घर से बाहर निकलता और लोगों से मिलता था, और मस्जिद व बाज़ार में जाता था, ना इतनी कम कीमत का घटिया हो और ना इतना बेश कीमत हो जिसमे इसराफ हो, और क़र्ज़ ख्वाहों और वारिसों के हक़ में नुक़सान आए,*

*✿_ कब्र भी कच्ची बनाई जाए, चाहे मय्यत मालदार हो या फकीर, गुस्ल देने वाला अगर उजरत पर लेना पड़े तो यह खर्च भी हस्बे हैसियत मुतावासित दर्जे का करे,*
*"_ अगर आम मुसलमान के क़ब्रिस्तान में जगह ना मिले तो क़ब्र के लिए ज़मीन ख़रीद ली जाये, उसकी क़ीमत भी दीगर सामाने तजहीज़ व तकफ़ीन की तरह तर्के में से ले ली जाये,*

 *"®_ मुफिदुल वारिसीन, 33,*

*✿_"_ बड़ी चादर जो जनाज़ा के ऊपर ढांप दिया जाता है वह कफन में दाखिल नहीं, और वो जायनमाज जो कफन के कपड़े में से इमाम के लिए बचाई जाती है, कफन से बिलकुल जा़इद और फ़िज़ूल है लिहाज़ा अगर मय्यत के तर्के में अदा ए क़र्ज़ से ज़्यादा माल न हो या वारिस ना-बालिग हों तो ये चादर और जायनमाज़ बना कर क़र्ज़ख़्वाहों या यतीमों का नुक़सान करना हरगिज़ जायज़ नहीं, सख़्त ममनू है,*

*✿_ शरियत की मोअतबर किताबों में यहां तक लिखा है कि अगर मय्यत ज़्यादा मक़रूज़ है तो वारिसों पर क़र्ज़ख़्वाह जबर कर सकते हैं कि सिर्फ दो ही कपड़ो में कफन दें, यानि कफने मसनून से भी एक कपड़ा (कफ़नी या इज़ार) कम करा सकते हैं, फ़िर इन ज़ाइद चादरों और जायनमाज़ो की क्या हक़ीक़त है,*
*"_®  मुफिदुल वारिसीन, 33,*

*✿__ शरीयत के मुताबिक़ तजहीज़ व तकफ़ीन और तदफ़ीन करने के अलावा और जो तरह तरह की रस्में, फ़िज़ूल खर्ची और बिद'अतें इस मोक़े पर की जाती है,*
*"_ मसलन - अहले मय्यत की तरफ से दावत के बगैर इनके अखरजात तर्के से लेना हरगिज़ जायज़ नहीं, इसी तरह ताजि़यत के लिए आने वालों की महमानदारी में भी तरका की कोई चीज़ खर्च करना जायज़ नहीं, जो शख्स ऐसा करेगा चाहे वो वारिस हो या गैर वारिस तो इस ज़ाइद खर्च का उसे तावान देना पड़ेगा या अगर वो वारिस हैं तो उसके हिस्सा ए मीरास में से कम किया जाएगा,*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 33,*

*✿_"_ सदक़ात व खैरात जो बाज़ नावक़िफ़ लोग मय्यत के तर्के में से (तर्के की तक़सीम से पहले) कर देते हैं, मसलन- गल्ला, कपड़े वगेरा खैरात कर देते हैं, ये हरगिज़ मसारिफ़े तजहीज़ व तकफीन में शुमार ना होंगे, बल्की करने वाले के ज़िम्मे तावान वाजिब होगा, इस मामले में बहुत अहतयात करनी चाहिए,*

*✿_"_ बाज़ दफा मय्यत के वारिसों में छोटे काबिले रहम यतीम बच्चे होते हैं या मय्यत मकरूज़ होता है और दूसरे रिश्तेदार रस्मों की पाबंदी और माले मुफ्त दिले- बेरहम समझ कर बेजा खर्च करते हैं और आखिरत का अज़ाब अपने सर ले लेते हैं क्युंकी इससे क़र्ज़ ख्वाहो और वारिसों का हक़ मारा जाता है,*
*⇛कभी ये होता है कि मय्यत के सिले हुए कपड़े मय्यत की तरफ से अल्लाह वास्ते दे दिए जाते हैं, कही शोहर मर जाता है और बेवा और ना-बालिग बच्चे रह जाते हैं तो बेवा बे शदक उसके तर्के में से खैरात करती है, ये खबर नहीं कि इस माल में मासूम बच्चो का हक़ है, अगरचे वो उनकी मां है लेकिन उनके माल को बिला ज़रूरत खर्च करने की मुख्तार नहीं, बच्चे अगर इजाज़त भी दे तो उनकी इजाज़त शर'अन मोतबर नहीं,*

*✿_"_ मय्यत की तरफ से सदका़ करना बिला शुबहा बहुत पसंदीदा और बाईसे सवाब है और मय्यत को इसका सवाब पहुंचता है लेकिन सदका़त उस वक्त पसंदीदा और नाफे हो सकते हैं कि शरियत के मुवाफिक़ हो, शरियत हुक्म देती है कि हक़दारों और यतीमो के माल पर हाथ साफ मत करो, बल्की जिस किसी को तोफीक़ हो अपने हलाल माल से सदका़ करे, इसलिये लाज़िम है कि पहले तरका की तक़सीम शरई क़ायदे से कर ली जाये, फिर बालिग वारिस अपने हिस्से में से जो चाहे दें, तक़सीम से पहले हरगिज़ ना देना चाहिए,*
*®_  मुफीदुल वारिसीन, 34 बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_"_ मसाला - अगर मय्यत औरत हो और उसका ख़ाविंद हयात हो तो तजहीज़ व तकफ़ीन का खर्च शोहर के ज़िम्मे वाजिब है, औरत के तर्के में से ना लिया जाए, अगर शोहर नहीं हो तो हस्बे मामूल औरत ही के तर्के में से खर्च किया जाए,*
*®_ शामी, 1/810, मुफीदुल वारिसीन 36,*

*✿_"_ मय्यत चाहे मर्द हो या औरत अगर उसमें कोई अज़ीज़ क़रीब या कोई और शख्स अपनी ख़ुशी से तजहीज़ व तकफ़ीन और दफ़न का ख़र्च अपने पास से करना चाहे और वारिस भी इस पर राज़ी हों तो कर सकता है, बा-शर्ते कि खर्च देने वाला आक़िल बालिग हो, ऐसी सूरत में तरका से खर्च ना लिया जाए,*
*"_ अगर इत्तेफाक से दरिंदो ने क़ब्र उखेड़ डाली और कफन ज़ाया करके मय्यत निकाल डाला या कफन चोर ने मय्यत को निकाल कर बरहाना डाल दिया, तो दोबारा भी कफन का खर्च मय्यत के तर्के से दिलाया जाए, ऐसी सूरत में गुस्ल व नमाज़ दोबारा नहीं किया जाए,*

*✿_"_ तरका में जो चार हुक़ूक़ तरतीबवार वाजिब है उनमे सबसे अव्वल तजहीज़ व तकफीन है, अगर तजहीज़ वी तक़फीन के खर्च से कुछ भी ना बचा तो ना क़र्ज़ ख्वाहो को कुछ मिलेगा, ना ही वसीत मे खर्च हो सकता है, ना ही वारिसों को मीरास में कुछ मिल सकता है,*
*®_  मुफीदुल वारिसीन, 36,*

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*╠☞ _ क़र्ज़ों की अदायगी ,*

*✿_"_ तजहीज व तकफीन के बाद सबसे अहम काम लोगो (मखलूक़ ए खुदा) के उन कर्ज़ों की अदायगी है जो मय्यत के जिम्मे रह गए थे:-*
*"_ अगर मय्यत ने बीवी का मेहर अदा नहीं किया था तो वो भी क़र्ज़ है और इसकी अदायगी भी ऐसी ही ज़रूरी व लाजिम है जेसी दूसरे कर्ज़ों की,*

*✿_"_ गर्ज तजहीज व तकफीन और तदफीन के बाद जो तरका बचे उसमे से सबसे पहले मय्यत के तमाम कर्जे अदा करना फ़र्ज़ है , चाहे उसने कर्ज अदा करने की वसियत की हो या ना की हो, और चाहे सारा तरका कर्ज़ों की अदायगी मे ही खर्च हो जाए, अगर कर्ज़ों की अदायगी के बाद कुछ बचा तब तो वसियत में भी शरई का़यदे के मुताबिक़ खर्च किया जाएगा और उन वारिसों को भी हिस्से मिलेंगे, और कुछ भी ना बचा तो ना वसियत में, ना वारीसो में कुछ खर्च होगा, क्योंकि शरियत में क़र्जों की अदायगी वसियत और मीरास पर बहरहाल मुक़द्दम है,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन, 36,*

*✿_ आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़र्ज़ो के मुताल्लिक निहायत सख़्त ताक़ीद और तंबीह फ़रमाई है, जो लोग अपने ज़िम्मे क़र्ज़ छोड़ जाते हैं और उसकी अदायगी के लिए तरका में माल भी नहीं छोड़ते तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम ऐसे लोगों की नमाज़ जनाज़ा खुद ना पढ़ाते थे बल्की सहाबा किराम से फरमाते कि, तुम नमाज़ पढ़ दो और अपनी दुआ व नमाज़ से आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उनको मेहरूम रखते,*

*✿_"_ हदीस -हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास जब (नमाज़े जनाज़ा के लिए) ऐसा मय्यत लाया जाता जो मक़रूज़ था तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम दरियाफ्त फरमाते कि क्या इसने अपना क़र्ज़ अदा करने के लिए माल छोड़ा है ?*
*"_ अगर बताया जाता कि इसने इतना माल छोड़ा है कि क़र्ज़ अदा करने के लिए काफ़ी है तो उस पर नमाज़ (जनाज़ा) पढ़ते, वर्ना आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सहाब किराम से फ़रमा देते कि, इस पर तुम नमाज़ पढ़ दो,*
*®_ सही मुस्लिम, 2/35,*

*✿_"_ हालांकी उन लोगों का क़र्ज़ भी कुछ हद से ज़्यादा न होता था, और जरूरत ही के लिए क़र्ज़ लेते थे, फिर भी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस क़दर सख्ती फरमाते थे, आज फ़िज़ूल रस्मों और बेजा खर्चों के वास्ते बड़े बड़े क़र्ज़ लेते हैं और मर जाते हैं और वारिस भी कुछ फ़िक्र नहीं करते,*

*✿_ सही हदीस में इशारा है कि मोमिन का जब तक क़र्ज़ अदा न कर दिया जाए उसकी रूह को (सवाब या जन्नत में दाखिला से) रोका जाता हे, एक शख्स ने अर्ज़ किया :- या रसूलअल्लाह ! मेरे भाई का इंतकाल हो गया और छोटे बच्चे छोड़ गया हे, क्या मैं उन पर माल खर्च करूं (और क़र्ज़ अदा ना करू?)*
*"_आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि, तुम्हारा भाई क़र्ज़ की वजह से मुकी़द है, क़र्ज़ अदा करो_,"*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 40 बा हवाला मिश्कात,*

*✿_ अगर तजहीज़ व तकफीन और तदफीन के बाद बाक़ी तरका तमाम कर्ज़ों की अदायगी के लिए काफी है तो बिला किसी फ़र्क के तमाम कर्जे की अदायगी की जाए और अगर काफी नहीं और क़र्ज़ सिर्फ एक शख्स का है तो जितना तरका तजहीज़ व तकफीन और तदफ़ीन से बचा है वो सब उसे दे दिया जाए, बाक़ी वो अगर चाहे तो माफ कर दे या आखिरत पर मोकू़फ रखे_,"*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 38,*

*✿_ अगर तजहीज़ व तकफ़ीन और तदफ़ीन के बाद बचा हुआ हुआ तरका क़र्ज़ो की अदायगी के लिए काफ़ी नहीं और क़र्ज़ कई आदमियों का है तो वो उनमें कितना कितना किस तरह तक़सीम होगा ? और किस क़िस्म के क़र्ज़ को दूसरे क़र्ज़ पर मुक़द्दम किया जाएगा? इसकी तफ़सील किसी साहिबे फतवा मुस्तनद आलिमे दीन को पूरी सूरते हाल बता कर मालूम कर लिया जाए, या किताब "मुफिदुल वारिसीन" का बागौर मुताला किया जाए,*

*✿_"_ अगर तजहीज़ व तकफीन और तदफीन के बाद तरका बिलकुल ना बचे या इतना थोड़ा बचा कर सब कर्जे उससे अदा ना हो सके बाक़ी कर्ज़ों का अदा करना वारिसो के जिम्मे वाजिब नहीं, हां मुहब्बत का तकाज़ा और बेहतर पसंदीदा यही है कि जितना हो सके मय्यत की तरफ से कर्जे़ अदा करके उसे राहत पहुंचाएं,*

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*╠☞_ अल्लाह ताला के क़र्ज़ो की अदायगी,,*

*✿_ अल्लाह तआला के क़र्ज़ यानी हुकूक़ (फ़राइज़ व वाजिबात) रह गए हो, मसलन -नमाज़ो, रोज़ो का फिदया, ज़कात, हज, सदक़ातुल फ़ितर, नज़र या कफ्फारा वगेरा ऐसा रह गया था जो मय्यत ने अदा नहीं किया था, तो इनका हुक्म ये है कि अगर बंदो के तमाम क़र्ज़ें अदा करने के बाद तरका में कुछ माल बाक़ी रहे और मय्यत ने अल्लाह के हुक़ूक़ को अदा करने की वसियत भी की हो तो बचे हुए माल के एक तिहाई (1/3) में से हुक़ूक़ को अदा किया जाए,*

*✿_ अगर एक तिहाई में वो पूरे अदा न हो सकें तो जितने अदा हो सके अदा कर दें, तिहाई से ज़्यादा माल खर्च करके उनको अदा करना वारिसों पर लाज़िम नहीं, क्यूंकी बाकी दो तिहाई (2/3) माल वारिसों का है, लिहाज़ा आक़िल बालिग वारिसों को अख्त्यार है कि चाहे तो अपने अपने हिस्से और माल में से खर्च करके उन बाक़ी हुक़ूक़ को भी अदा करें और मय्यत को आखिरत के मुवाखज़े से बचाये, और खुद भी सवाब कमायें,*

*✿__ (लेकिन मजनून या ना- बालिग वारिसों का हिस्सा इसमें ख़र्च करना हरगिज़ जाइज़ नहीं, अगरचे वो बा ख़ुशी इजाज़त दे दें) और चाहे तो दो तिहाई माल सब वारिस शरई हिस्सों के मुताबिक़ आपस में तक़सीम कर लें, इस सूरत में अल्लाह ताला के जो हुक़ूक़ अदा होने से रह जाएंगे उनकी जिम्मेदारी मय्यत पर होगी, वारिसों से कोई मुवाखजा़ ना होगा,*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 39 इस्लाही इंक़लाबे उम्मत, 1/185,*

*✿_"_ इसी तरह अगर तिहाई माल इतना हो कि अल्लाह तआला के सब हुक़ूक़ उससे अदा हो सकते हों लेकिन मरने वाले ने सिर्फ बाज़ हुक़ूक़ अदा करने की वसियत की और बाक़ी हुक़ूक़ की नहीं की या इतने कम माल की वसीयत की कि उससे वो सब हुक़ूक़ अदा नहीं हो सकते, मसलन - तिहाई माल 2000 था जिससे सब हुक़ूक़ अदा हो सकते थे, लेकिन मय्यत ने सिर्फ 1500 रूपया खर्च करने की वसीयत की तो वारिसों पर अदायगी सिर्फ वसियत की हद तक लाज़िम होगी, पूरे 2000 खर्च करना लाज़िम ना होगा, अलबत्ता मरने वाला पूरे हुक़ूक़ की वसीयत ना करने की वसीयत ना करने की वजह से गुनाहगार होगा,*
*"_®_ दलीलुल खैरात,-28,*


*✿_खुलासा ये है कि बंदो के क़र्ज़ो और अल्लाह ताला के क़र्ज़ो (हुक़ूक़) में तीन फ़र्क़ है:-*
*"_1- एक ये कि बंदो के क़र्ज़ो का अदा करना मय्यत की वसीयत पर मोकूफ़ नहीं, बल्की वसीयत ना की हो तब भी तजहीज़ व तकफ़ीन के बाद उनका अदा करना फ़र्ज़ है और अल्लाह ताला के हुकूक़ का अदा करना मय्यत की वसीयत पर मोकू़फ है, वसीयत ना करे तो उनका अदा करना वारिसों पर लाज़िम नहीं,*

*✿_2- दूसरा फ़र्क़ ये है कि बंदो का क़र्ज़ अदा करने में कोई हद नहीं थी, तजहीज़ व तकफ़ीन के बाद सारा तरका भी उसमे ख़र्च हो जाए तो खर्च करके अदा करना फ़र्ज़ है, और अल्लाह ताला के हुकूक़ को बंदो के तमाम क़र्ज़ें अदा करने के बाद जो तरका बचे उसके सिर्फ एक तिहाई में से अदा करना फ़र्ज़ है, तिहाई से ज़्यादा ख़र्च करना वारिसों पर लाज़िम नहीं,*

*✿_3- तीसरा फ़र्क जाहीर है कि अल्लाह तआला के हुकूक़ का अदा करना उसी सूरत में फ़र्ज़ है जबकी बंदो के तमाम क़र्ज़े अदा हो चुके हो,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन, 40,*

*✿_ तम्बीह— क़र्ज़ की इस दूसरी क़िस्म यानि अल्लाह ताआला के माली हुकूक़ की अदायगी चूंकी वसीयत पर मोक़ूफ है, मय्यत ने वसीयत ना की हो तो अदायगी लाज़िम नहीं,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _जायज़ वसीयतों की तामील:-*

*✿_"_ मय्यत के तरके में तरतीबवार जो 4 हुकूक वाजिब होते हैं उनमे तीसरा हक़ यानि वसीयत की जरूरी तफसीलात का बयान होता हे,*

*✿__ ये कहना कि "मैं इतने माल की फलां के लिए वसियत करता हूं" या ये कहना कि "मेरे मरने के बाद मेरा इतना माल फलां शख्स को देना," या "फलां काम में लगा देना," ये वसीयत है, चाहे बीमारी मे कहा हो या तंदूरस्ती में, और चाहे कहने वाला उसी बीमारी में मारा हो या बाद में,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_"_ अगर अपनी मौत का ज़िक्र बिलकुल ना किया, ना वसीयत का लफ्ज़ बोला बल्की सिर्फ यूं कहा कि फलां चीज़ मेरी फलां शख्स को दे दो या फलां काम में लगा दो, तो ये वसीयत नहीं और इस पर वसियत के अहकाम जारी ना होंगे क्यूंकी शरियत में वसीयत वही है जिसमे अपनी मौत के बाद के लिए कोई हिदायत दी गई हो,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, 5/568,*

*✿__ इसी तरह अगर किसी ने मस्जिद तामीर करने के लिए या कुँवा वगेरा बनाने के लिए या फ़ि सबीलिल्लाह तक़सीम करने के लिए या किसी को तोहफ़ा, हदिया देने के इराके से रुपिया रखा था या सामान जमा किया था या हज के वास्ते रक़म रखी थी और फिर बा-क़ज़ा ए इलाही सफ़रे आखिरत पेश आ गया (यानी मौत आ गई) तो ये सब चीज़ तरका में दाखिल होकर मीरास में तक़सीम होंगी, और इनको वसीयत में शुमार नहीं किया जाएगा, क्योंकि उसने ऐसी कोई हिदायत लोगों को नहीं की जिसको वसीयत कहा जा सके,*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 69,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _ सही और बातिल वसीयतें *

*✿_ हर आकिल बालिग को अपने माल में सिर्फ इतनी वसीयत करने का अख्त्यार है जो तजहीज़ व तकफीन और अदा ए क़र्ज़ के बाद जो तरका बचे उसके एक तिहाई (1/3) के अंदर वो वसीयत पूरी हो सके, अगर इससे ज़्यादा की वसीयत की हो तो तिहाई से ज़्यादा खर्च कर के उसे पूरा करना वारिसों पर लाज़िम नहीं, क्यूंकी बाक़ी दो तिहाई (2/3) सिर्फ वारिसो का हक़ है, अलबत्ता जो वारिस आक़िल बालिग हों वो अपने अपने हिस्से से अगर उस ज़ा'इद वसीयत को भी पूरा करना चाहे तो कर सकते हैं,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी,*

*✿_ अगर किसी का कोई वारिस ही ना हो तो उसको तजहीज़ व तकफीन और अदा ए क़र्ज़ से बचे हुए सारे माल की वसीयत कर जाने का अख़्त्यार है, और अगर वारिस सिर्फ बीवी हो तो तीन चौथाई (3/4) तक की वसीयत दुरुस्त है, इसी तरह अगर औरत का वारिस शोहर के अलावा कोई नहीं हो तो निस्फ (1/2) माल तक की वसीयत सही है, क्युंकी इन सूरतो में किसी वारिस की हक़तलफी नहीं होती,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर, दुर्रे मुख्तार, 5/572,*

*✿_ अगर मय्यत के जिम्मे क़र्ज़ इतना ज़्यादा हो कि अदा ए क़र्ज़ के बाद कुछ तरका बाक़ी ही ना रहे तो हर क़िस्म की वसीयत बेकार और बातिल है, अगर कर्ज ख्वाह अपना क़र्ज़ माफ कर दें तो जो कुछ माल रह जाए उसका एक तिहाई में वसीयत पर अमल किया जाएगा, बाक़ी वारिसों को मिलेगा,*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 62,*

*✿_ ना-बालिग या मजनून की वसीयत शर'अन बातिल है, उस पर अमल करना एक तिहाई में भी वाजिब नहीं,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 5/576,*

*✿_ अपने किसी वारिस को मीरास से महरूम करने या उसके हिस्से में कम करने की वसीयत भी बातिल है, उस पर अमल हरगिज़ जाइज़ नहीं और ऐसी वसीयत करना गुनाह भी है,*
*®_ मुफिदुल वारिसीन, 57, दुर्रे मुख्तार,*

*✿_ किसी गुनाह के काम में माल खर्च करने की वसीयत भी बातिल है और उसमे तरका को खर्चों करना वारिसों की इजाज़त से भी जाइज़ नहीं,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 5/605, बहिश्ती ज़ेवर,*

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*╠☞_ सही और बातिल वसीयतें -2*

*✿_ मय्यत ने अगर अपने किसी वारिस के लिए मसलन -मां, बाप, शोहर, बेटे वगेरा के लिए वसीयत की तो ये वसियत भी बातिल है, क्यूंकी हर वारिस का हिस्सा ए मीरास शरियत ने खुद मुकर्रर कर दिया है वही उसको मिलेगा, वसीयत की बुनियाद पर किसी को कुछ नहीं दिया जा सकता, ताकी दूसरे वारिसों की हक़ तल्फी ना हो,*
*"_ अलबत्ता अगर मय्यत का उस वारिस के अलावा कोई और वारिस ही ना हो या बाक़ी सब वारिस राज़ी हों तो उनकी इजाज़त से दे देना जाइज़ है, लेकिन ना-बालिग या मजनून की इजाज़त मोतबर नहीं, सिर्फ आक़िल बालिग वारिस अपने हिस्से में से चाहे तो दे सकते हैं,*
*®_ बहिश्ती ज़ेवर व मुफीदुल वारिसीन,*

*✿_अगर मय्यत ने अपने क़ातिल के लिए वसीयत की चाहे क़त्ल से पहले की हो या ज़ख्मी हो जाने के बाद, तो अगर क़ातिल ना - बालिग या दीवाना नहीं था तो ये वसीयत भी अक्सर सूरतों में बातिल और बाज़ सूरतों में दुरुस्त है, ऐसा मसला पेश आ जाए तो मो'तबर उलमा किराम से पूछ कर अमल किया जाए,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी, 5/569 -575,*

*✿_"_ अगर वसीयत करने वाले ने अपनी जिंदगी में वसीयत से रुजू कर लिया मसलन - यू कहा कि, "मै वसियत से रुजू करता हूं," या "इसे जारी न किया जाए", या "इसे मनसूख करता हूं" तो वसीयत बातिल हो जाएगी गोया की ही नहीं थी, जब तक वसीयत करने वाला ज़िंदा है उसको इस तरह अपनी वसीयत बातिल करने का पूरा अख्त्यार है,*
 *"_ (लेकिन अगर झूठ बोले और यू कहे,” कि मेने वसीयत की ही नहीं थी,” हालांकी गवाह मोजूद है या लोगों को आम तोर पर मालूम है कि वसियत की थी तो उस झूठे इन्कार से वसीयत बातिल न होगी और झूठ का गुनाह अलग होगा।)*
*®_ मुफीदुल वारिसीन,*

*✿_ इसी तरह अगर जिंदगी में ऐसा अमल करे जिससे मालूम हो कि वसीयत से फिर गया है तब भी वसीयत बातिल हो जाएगी, मसलो एक ज़मीन की किसी के लिए वसीयत की थी, फिर उसी ज़मीन में अपना मकान बना लिया या कोई चीज़ की वसीयत की थी और उसे फ़रोख़्त कर दी तो ऐसी सूरतों में ये समझा जाएगा कि उसने वसीयत से रुजू कर लिया है, लिहाज़ा वसीयत बातिल हो जाएगी।*
*®_ मुफीदुल वारिसीन, 64,*

*✿_"_ अगर किसी खास ज़मीन या खास मकान या खास कपड़े या खास ज़ेवर वगेरा की वसीयत की थी और फिर वो किसी तरह उसकी मिल्कियत से निकल गया या ज़ाया हो गया या मर गया (जानवर ) तो वसियत बातिल होगी, क्योंकि जिस खास चीज़ की वसीयत की थी वो मोजूद ही नहीं रही,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन, 64,*

*✿_"_ मय्यत ने जिसको माल दिए जाने की वसीयत की थी वो मय्यत के इंतकाल के बाद क़ुबूल करने से इन्कार कर दे और कह दे कि मै नहीं लेता, तो वसीयत बातिल हो जाएगी, अब बाद में वो इसका मुतालबा नहीं कर सकता,*
*'_ लेकिन अगर इन्कार मय्यत की जिंदगी में किया था तो बातिल ना होगी, क्युंकी वसीयत को क़ुबूल या रद्द करना वही मोतबर है जो मय्यत के इंतका़ल के बाद हो, मौत से पहले क़ुबूल या रद्द का ऐतबार नहीं,*
*®_दुर्रे मुख्तार व शामी, 5/577,*

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*╠☞ _ वसीयतों की तामील का तरीक़ा,,*

*✿_ तजहीज़ व तकफीन और तदफीन और कर्ज़ों की अदायगी के बाद जो तरका बाक़ी रहे उसके तीन हिस्से करेंगे इनमें से दो हिस्से (2/3) सिर्फ वारिसों का हक़ है, जो उन पर शरई क़ायदे के मुताबिक़ तक़सीम होंगे और एक हिस्सा (1/3) वसियत में खर्च किया जाएगा, चाहे उस एक तिहाई से उसकी सारी वसीयत पूरी हो या न हो,*
*"_अगर सारी वसीयत पूरी होकर उस एक तिहाई में से कुछ बाक़ी बचा तो वो सब भी वारिसों का है _,"*
*®_ मुफीदुल वारिसीन,*

*✿"_ एक से ज़्यादा वसीयतों में भी यही हुक्म है कि एक तिहाई के अन्दर अन्दर जिस क़दर वसीयत पूरी हो सके अदा कर दी जाए, बाकी छोड़ दें, क्योंकि बाक़ी वसीयतों का पूरा करना वारिसों के जिम्मे लाज़िम नहीं_,"*
*®_ शामी, बहिश्ती जे़वेर,*

*✿__ वारिसों में से जो आक़िल बालिग और हाजिर हों वो अपनी खुशी से अपने अपने हिस्से में से अगर मय्यत की बाक़ी वसियतों को पूरा करना चाहें तो कर सकते हैं, लेकिन गैर हाज़िर या ना- बालिग या मजनून वारिस का हिस्सा इस एक तिहाई से ज़्यादा ख़र्च में लगाना जाइज़ नहीं,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन,*

*✿_ जो वसीयतें शर'अन ज़्यादा ज़रूरी है उन्हें पहले पूरा किया जाए, उनसे कुछ बाक़ी रहे तो कम ज़रूरी वसियत का भी पूरा करना वाजिब है, उनसे भी कुछ बचे तो गैर ज़रूरी वसीयत पर जितना हो सके अमल करना वाजिब है,*
*"_ मसलन - क़ज़ा रोज़ो के फ़िदये की भी वसीयत की और सदक़तुल फ़ित्र अदा करने की भी और कुँवा खुदवाने की भी, तो सबसे पहले रोजो़ं का फिदया अदा किया जाए, क्यूंकी रोज़े फ़र्ज़ है, फिर अगर कुछ माल बचे तो सदक़तुल फितर जितना हो सके अदा करें बाक़ी छोड़ दें क्यूंकी ये वाजिब है फ़र्ज़ नहीं और कुवां बिल्कुल ही छोड़ दें क्योंकि ये तो वाजिब भी नहीं सिर्फ मुस्तहब है, माल बचता तो ये भी बनवाना वाजिब होता,*
*®_ दुर्रे मुख्तार व शामी,*

*✿_ अगर सभी वसीयतें बराबर दर्जे की हों तो जो वसीयत पहले की थी उसे पहले पूरा किया जाए, फिर कुछ माल बाक़ी रहे तो दूसरी को पूरा करे वर्ना नहीं,*
*"_मसलन - रोज़े का फ़िदया और नमाज़ का फ़िदया की वसीयत ये दोनो फ़र्ज़ है, इसलिये जिसकी वसीयत पहले की थी उसे पहले अदा करें,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन व शामी,*

*✿_"_ इन मसलों में तफ़सीलात और बारीकियां बहुत है, जब भी ऐसा मसला पेश आए तो माहिर उल्मा ए दीन से पूछ कर अमल करें,*

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*╠☞_ मसाइल ए फिदया -नमाज़ व रोज़ा वगेरा और उनकी मिक़दार:-*

*✿_"(1)- हर रोज़ की नमाज़ वित्र समेत 6 लगाई जाएंगी और हर नमाज़ का फ़िदया एक सेर 12.5 छटाक गंदुम या इसकी क़ीमत होगी, अहतयात इसमें है कि पूरे 2 सेर गंदुम या इसकी क़ीमत अदा की जाए, इसी तरह एक दिन की नमाज़ का फ़िदया पूरे 12 सेर गंदुम या इसकी क़ीमत होगी,*

*✿_"(2)- हर रोज़े का फ़िदया एक नमाज़ के फ़िदया के बराबर है, (जो ऊपर गुज़रा) रमज़ान के रोज़ो के अलावा अगर कोई नज़र (मन्नत) के रोज़े माने हों तो उसका भी फ़िदया देना होगा,*

*✿_"(3)- ज़कात जितने साल की हो और जितनी मिक़दार माल की रही है, उसका हिसाब करके अदा करना होगा,*

*✿_"( 4)- हज फ़र्ज़ अगर मय्यत अदा नहीं कर सका तो बस्ती से किसी को हज ए बदल के लिए भेजा जाएगा और उसका पूरा किराया आना जाना और क़याम व ता'म (रुकना व खाना) के तमाम जरूरी खर्च अदा करने होंगे, अगर तर्के के एक तिहाई में इतनी गुंज़ाइश ना हो तो जिस बस्ती से खर्च कम आता हो वहां से भेज दिया जाए,*

*✿_"(5) - जितने सदक़ातुल फितर् रहे हों हर एक के एक सेर साढे बारह (12.5) छटांक (अहतयातन पूरे दो सेर गंदुम ) या इसकी क़ीमत अदा की जाये,*

*✿_"(6)- कुर्बानी कोई रह गई हो तो उस साल में एक बकरे की क़ीमत या सातवे हिस्से का अंदाज़ा करके क़ीमत का सदका़ किया जाए,*

*✿_"( 7)- सजदा ए तिलावत रह गए हों तो अहतयात इसमे है कि हर सजदे के बदले एक नमाज़ के बराबर सदका़ किया जाए,*

*✿_"( 8)- अगर फौत शुदा नमाजो़ या रोजो़ वगेरा की सही तादाद मालूम न हो तो तखमीने से हिसाब किया जाए,*

*®_ माखूज़- हीला ए इसक़ात,* 

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*╠☞_ ना जायज़ वसीयतों की चंद मिसालें,*

*✿_"_ बातिल वसीयतों का बयान पहले गुज़र चुका है, इन्हीं बातिल वसीयतो में से एक यह है कि, किसी ना-जायज़ काम में खर्च करने की वसीयत की हो,*
*"_मसलन - तीजा (सोम) करने की या ग्यारवी, बारवी, दसवा, बीसवा, चालीसवा (चहल्लुम) करने की, या मुरव्वजा मीलाद या उर्स कराने की वसीयत की,*

*✿_"_ या पक्की क़ब्र बनाने या उस पर क़ुब्बा (गुंबद) बनाने की वसीयत की, या ये वसीयत की कि क़ब्र पर किसी हाफिज़े क़ुरान को पैसे देकर बिठा देना ताकी पढ़ कर सवाब बख्शता रहे,*

*✿_"_तिलावत क़ुरान पर उजरत लेना हराम है, जो तिलावत उजरत ले कर की जाए उसका सवाब ना पढ़ने वाले को मिलता है, ना मय्यत को, बल्की ऐसा करने वाला उल्टा गुनाहगार है _," (शरह अक़वु रस्म मुफ्ती)*

*✿_"_ या किसी वारिस को महरूम करने की वसीयत की या सिनेमा हाल बनाने की वसीयत की,*
*☞ तो ऐसी ( ना जायज़) वसीयते करने वाला सख्त गुनाहगार है और इन वसीयतों पर अमल करना भी जायज़ नहीं,*

*®_ शामी, 5/205 व बहिश्ती ज़ेवर,*

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*╠☞ _ वसीयत नामा :-*

 *✿_"_वसीयत के लिए बेहतर और आसान सूरत ये है कि एक कॉपी में वसीयत नामा और ज़रूरी याद्दाशतें लिख दिया जाए, और अंदर हर उनवान के लिए वर्क़ (पेज) खास कर लिए जाए,*

*✿_"_ उनवानात :-*
*1-नमाज़े जो ज़िम्मे बाक़ी है,*
*2- ज़कात जो ज़िम्मे बाक़ी हैं,*
*3- रमज़ान और मन्नत के रोज़े जो ज़िम्मे बाक़ी हैं,*
*4- हज ए फर्ज़,*
*5- सदक़तुल फ़ित्र जो अपने और अपने ना-बालिग बच्चों के बाक़ी हैं,*
*6- क़ुर्बानिया जिन बरसों की बाक़ी है उनकी क़ीमत का सदक़ा करना है,*
*7- सजदा ए तिलावत जो ज़िम्मे बाक़ी है,*
*8- क़सम के कफ्फारे जो ज़िम्मे बाक़ी हैं,*
*9- दूसरों का क़र्ज़ जो ज़िम्मे बाक़ी है, और अपना क़र्ज़ जो दूसरो के ज़िम्मे बाक़ी है,*
*10- अमानते जो दूसरों के पास है और वो अमानतें जो दूसरों की अपने पास है,*
*11- वसीयत नामा,*

*✿_"_ हर उनवान के तहत मुकम्मल हिसाब लिखा रहना चाहिए और आखिरी उनवान "वसीयत नामा" के अंदर भी तहरीर करें कि पिछले अवराक़ (पेज) में जो हुकूक और हिसाबात दर्ज हैं उनके मुताबिक अदायगी की जाए,*

*✿_"_ इसके अलावा वसीयत नामा में जरूरत के मुताबिक लिखते रहें और अपने किसी क़ाबिले एतमाद को बता दिया जाए कि ये कॉपी फलां जगह रखी है, ताकी किसी वक़्त भी पैगामे अजल आ जाए तो अल्लाह और बंदों के हुक़ूक़ अदा हो सके और अपने ऊपर दुनिया व आखिरत का कोई बोझ ना रहे,*

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*╠☞_मरजु़ल मौत में तोहफा या सदका़ देना भी बा-हुमे वसीयत है,-*

*✿_ खुलासा यह है कि मरजु़ल मौत में दिए गए तोहफे, हदिये और सदाका़त व खैरात सबके सब वसीयत के हुक्म में है, जो पाबंदियां वसीयत में है वही उनमे भी होगी,*

*✿_ जिस तरह तिहाई माल से ज़्यादा की वसीयत करना दुरस्त नहीं उसी तरह मरजु़ल मौत में अपना माल तिहाई से ज़्यादा किसी को बिला मुआवजा़ देना मसलन हदिया, हिबा या फिदया व सदका़ देना भी दुरस्त नहीं है, तिहाई से ज़्यादा दे दिया तो जब तक मय्यत के इंतका़ल के बाद सब वारिस उसकी इजाज़त ना दें या देना दुरुस्त नहीं होगा, जितना तिहाई से ज़्यादा है वारिसों को वापस लेने का अख्त्यार है, और ना-बालिग मजनून इजाज़त दे तब भी मोतबर नहीं,*

*⇛ और मरज़ुल मौत में किसी वारिस को तिहाई के अंदर देना भी सब वारिसों की इजाज़त के बगैर दुरुस्त नहीं और ये सब हुक्म उस वक़्त है जब अपनी ज़िंदगी में देकर क़ब्जा भी करा दिया हो, और अगर दे तो दिया लेकिन क़ब्जा अभी नहीं हुआ तो मरने के बाद वो देना बिलकुल ही बातिल है उसको कुछ ना मिलेगा वो सब माल वारिसों का हक़ है,*

*✿_मरजुल मौत में खुदा की राह में देने और नेक काम मसलन वक्फ वगेरा में लगाने का भी यही हुक्म है, गर्ज़ ये कि तिहाई से ज़्यादा माल बिला मुआवजा़ देना किसी तरह भी दुरुस्त नहीं और वारिस को देना तिहाई में भी दुरुस्त नहीं,*
*®_ दुर्रे मुख्तार बनाम बहिश्ती ज़ेवर,*

*✿_ बीमार के पास मरजुल मौत में मिज़ाज पुरसी के लिए कुछ लोग आ गए और कुछ रोज़ खाते पीते रहे तो अगर मरीज़ की खिदमत के लिए उनके रहने की ज़रूरत है तो कुछ हर्ज नहीं और अगर ज़रूरत नहीं तो उनकी दावत, खातिरदारी और खाने पीने मे भी तिहाई से ज़्यादा लगाना जायज़ नहीं,*
*⇛और अगर ज़रुरत भी ना हो और वो लोग वारिस हो तो तिहाई माल से कम भी बिलकुल जायज़ नहीं, यानी उनको उसके माल में खाना जायज़ नहीं है अगर सब वारिस राज़ी हो तो जायज़ है,*
*®_बहिश्ती ज़ेवर,*

*╠☞ _ मरजु़ल मौत कब शुमार होगा ?*

*✿__ मरज़ुल मौत उस बीमारी को कहते हैं जिसमे मुब्तिला होकर आदमी दुनिया से रुखसत हो जाए, ज़िंदगी में हरगिज़ ये मालूम नहीं हो सकता है कि वो बीमारी कौनसी है जिसमें मरीज़ दुनिया से रुखसत हो जाए,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन,*

*✿__ जब कोई शख्स किसी मर्ज़ में मुब्तिला हो कर मर जाए तो जिस वक़्त से मुब्तिला हुआ था उसी वक़्त से मरज़ुल मौत की हालत शुमार होगी, लेकिन जो मर्ज़ साल भर तक या ज्यादा रहा हो उसको इब्तिदा ही से मरज़ुल मौत शुमार नहीं करेंगे बल्कि जिस वक़्त मर्ज़ शदीद होकर हलाकत की नौबत पहुंची है उस रोज़ मरज़ुल मौत शुमार होगा, और उसी रोज़ से मरज़ुल मौत के अहकाम जारी होंगे,*

*✿__ मसलन - अगर कोई शख्स साल दो साल से टीबी में, फालिज या मिर्गी या बवासीर वगेरा अमराज़ में मुब्तिला था उसके बाद एक हफ्ते के लिए मर्ज़ शदीद होकर उसी में इंतकाल हो गया तो मरज़ुल मौत सिर्फ एक हफ्ता शुमार होगा, इससे पहले के सब मामलात हिबा, सदका़ वगैरा बिलकुल जायज़ और मिस्ल ए हालत सहत के समझे जाएंगे,*
*®_ शामी, दुर्रे मुख्तार, 5/579 मुफीदुल वारिसीन,*

*✿_ औरत अगर विलादत की तकलीफ मे मर गई तो जिस वक़्त से दर्दे ज़ह शुरु हुआ था उस वक़्त से मरज़ुल मौत शूमार होगी,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन व बहिश्ती जे़वेर,*

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*╠☞_वसी यानी वसीयत का वकील और नायब,*

*✿_"_वसीयत करने वाला जिस शख्स को अपनी मौत के बाद तर्के से कर्ज़ों की अदायगी या वसीयतों की तामील, मीरास की तक़सीम और अपने बच्चों के मामले में इंतजाम करने के लिए अपना नायब और वकील मुकर्रर कर दे उसको वसी कहते हैं,*

*✿_"_ जिसको वसी बनाया था अगर उसने ज़बान से क़ुबूल कर लिया तब भी उस पर लाज़िम हो गया या कोई ऐसा काम किया जिससे मालूम हो गया कि ये शख्स वसी बनने पर राज़ी है तब भी वसी बन गया, लेकिन जब तक वसीयत करने वाला ज़िंदा है वसी को अख्त्यार है कि वसी बनने से इन्कार कर दे, अलबत्ता उसकी मौत के बाद अख्त्यार ना रहेगा,*
*®_ मुफीदुल वारिसीन,*

*✿_ अगर एक शख्स को बाज़ उमूर का वसी बनाया और दीगर उमूर का ज़िक्र नहीं किया और ना उनके लिए किसी और को वसी बनाया है तो तमाम उमूर का वसी याही शख्स समझा जाएगा,*

*✿_ अगर तमाम उमूर में दो शख्सों को वसी बनाया है तो उन दोनों को मिलकर काम करना चाहिए, सिर्फ एक शख्स अगर तसर्रुफात करेगा तो ना-जायज़ होगा, अलबत्ता अगर तजहीज़ व तकफ़ीन का इंतज़ाम और मय्यत के अहलो अयाल की फौरी ज़रुरतों को एक शख्स भी अंजाम दे दे तो जायज़ व मोतबर होगा,*
*®_ दुर्रे मुख्तार, 5/616, मुफीदुल वारिसीन,* 

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*╠☞_ वारिसों पर मीरास की तक़सीम,*

*✿_मय्यत के तर्के में तरतीबवार जो चार हुक़ूक़ वाजिब होते हैं छोथा हुकूक यानि ”वारिसों पर मीरास की तक़सीम“ है,*

*✿_ जायज़ वसीयतों की तामील तिहाई तर्के की हद तक करने के बाद जो कुछ माल बाक़ी रहे वो सब तमाम वारिसों में शरीयत के मुताबिक़ तक़सीम होगा,*
*"_ शरीयत ने हर वारिस का हिस्सा खुद मुक़र्रर किया है जिसमे रद्दो बदल, तरमीम या कमी बेशी का किसी को अख्त्यार नहीं, अलबत्ता खुद शरियत ही ने हर वारिस का हिस्सा हर हालत में एक नहीं रखा है बल्कि मुख्तलिफ हिस्से मुकर्रर किए हैं, (जिनको अपने मोतबर उल्मा से मालूम किया जाए)*

*✿_ जब किसी का इंतका़ल हो तो इंतका़ल के वक्त उसके मां बाप, लड़के लड़कियां और बीवी या शोहर में से जो ज़िंदा हो (चाहे मुख्तलिफ मुल्कों में रहते हो) सबकी मुकम्मल फेहरिस्त तादाद और रिश्तें लिख कर किसी मोतबर आलिम व मुफ्ती से वारिसों का हिस्सा मालूम कर लें। और उनके बताए हुए तरीक़े और हिसाब से मीरास तक़सीम कर दे,*

*✿_अगर मय्यत के इंतका़ल के वक्त मां बाप, बेटे बेटी में से बाज़ जिंदा हों और बाज़ न हो तो मय्यत के दूसरे जिंदा रिश्तेदारों की तादाद भी मय रिश्ता लिखें,*
*"_ मय्यत के हकीक़ी जो भाई बहन हो या सिर्फ बाप शरीक़ हो या मां शरीक़ हो उनकी भी अलग अलग जरूर वजा़हत करें, सोतेले मां बाप और सास ससुर और सुसरली रिश्तेदार शर'अन वारिस नहीं, उनको फेहरिस्त में शामिल ना किया जाए,*

*✿_ मय्यत के इंतका़ल के बाद अगर उसका कोई वारिस तक़सीम ए मिरास से पहले फौत हो गया तो उसका हिस्सा उसके वारिसों में तक़सीम होगा, लिहाज़ा उस फौत होने वाले को भी फेहरिस्त में शामिल करना ज़रूरी है,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ कई रिश्तेदार एक हादसे में हलाक़ हो गए तो उसका हुक्म, और गुमशुदा वारिस का हिस्सा _,"*

*✿_ अगर कई रिश्तेदार एक हादसे में हलाक़ हो गए और ये मालूम ना हो सके कि किसकी मौत पहले और किसकी बाद में हुई, मसलन-जहाज़ या गाड़ी वगेरा का हादसा, या किसी इमारत के गिर जाने से हलाक़ हो गये तो ऐसी सूरत में कोई दूसरे का वारिस नहीं होगा और शर'अन यू समझा जाएगा कि गोया सब एक साथ हलाक हुए हैं, ना उसका वारिस होगा ना वो इसका, उनके बाद जो वारिस ज़िंदा है सिर्फ उनमे मीरास तक़सीम होंगी,*

*☞_ गुमशुदा वारिस का हिस्सा ए मीरास,*

*✿_ जो वारिस मय्यत के इंतका़ल से पहले कहीं लापता हो और तलाश के बावजूद ये मालूम न हो सके कि जिंदा है या मर गया ? तो उसके मुताल्लिक़ शरई हुक्म ये है कि उसका हिस्सा बतौर अमानत महफूज़ रखा जाए, अगर आ गया तो ले लेगा और अगर न आया यहां तक कि इंतज़ार की शरई मुकर्रर मुद्दत गुज़र जाने के बाद मुसलमान हाकिम ने शरई क़ायदे के मुताबिक़ उसे मुर्दा क़रार दे दिया तो वो अमानत रखा हुआ हिस्सा भी मय्यत के बाक़ी वारिसो में तक़सीम होगा, गुमशुदा के वारिसो में नहीं, अलबत्ता उसका अपना माल उसके मोजूदा वारिसों में तक़सीम होगा,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 2/213-218,*

*✿_ इस मसले में भी तफ़सीलात बहुत है, ऐसी सूरत पेश आ जाए तो किसी साहिबे फतवा आलिमे दीन से पूछ कर अमल किया जाए,* 

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*╠☞ _मुतफ़र्रिक:-*

*✿_"_अगर मय्यत के इंतका़ल के वक़्त कोई वारिस मां के पेट में है अभी तक विलादत नहीं हुई तो मीरास में शर'अन वो भी हिस्सेदार है, मगर चुंकी मालूम नहीं कि लडका है या लड़की इसलिये जब तक उसकी विलादत ना हो तक़सीम नहीं की जाए,*

*✿_"_ क़ातिल अपने मक़तूल का वारिस नहीं होता, यानि अगर मय्यत को किसी ऐसे रिश्तेदार ने ज़ुल्मन क़त्ल किया हो जो शर'अन उसका वारिस था तो क़त्ल की वजह से शरीयत ने अपने मक़तूल की मीरास से मेहरूम कर दिया है चाहे वो कितना ही क़रीबी रिश्ते हो, लेकिन शर्त ये है कि क़त्ल करने वाला आक़िल बालिग हो, अगर ना-बालिग या मजनून ने क़त्ल किया तो वो मीरास से महरूम नहीं होगा,*

*✿_"_ मुसलमान और गैर मुस्लिम के दरमियान भी मीरास जारी नहीं होती, यानी मुसलमान गैर मुस्लिम का और गैर मुस्लिम मुसलमान का वारिस नहीं हो सकता,अगरचे दोनों में कितनी ही क़रीबी रिश्तेदारी हो, चाहे बाप हो या बेटा ही हो,*
*®_ शरीफिया शरह सिराजी, 11-12-14,*

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*╠☞ _ तर्के के मुताल्लिक़ कोताहियां,*

*✿_शरीयत का हुक्म है कि तर्के में जिन हुकूक की अदायगी वाजिब है जल्द उनको अदा करके बाक़ी मीरास वारिसो में तक़सीम कर दी जाए, ताखीर होने से बहुत ज्यादा ज़्यादा पेचीदगियां और बदगुमनियां पैदा होती है, बाज़ मर्तबा ज्यादा ताखीर की वजह से तक़सीमे मीरास में सख्त उलझनें और मुश्किलें पैदा हो जाती है और हक़ तल्फी तक नोबत आ जाती है,*

*✿_ ये जज्बात सही नहीं है अगर मरहूम का तरका फौरन तक़सीम किया जाए तो दुनिया ये कहेगी कि बस इसी के मुंतजिर थे कि मरहूम की आंख बंद हो और उसके सरमाये पर क़ब्जा कर लिया जाए,*

*✿_ मगर अल्लाह तआला के हुक्म के आगे ये सब ख्यालात व जज़्बात बेकार हे, सब वारिसों को बता दिया जाए कि तरका की तक़सीम अल्लाह तआला का हुक्म है, और उसके मुताबिक जल्द से जल्द अमल किया जाए,*

*☞_ तर्के मुताल्लिक बाज़ कोताहियां जो कसरत से हमारे माशरे में फैली हुई है:-*
*✿_ 1- मय्यत का क़र्ज़ अदा न करना:-आम तोर पर एक कोताही ये होती है कि तहरीरी क़र्ज़ के अलावा अगर कोई दूसरा क़र्ज़ मय्यत के ज़िम्मे हो तो शायद ही कोई उसे अदा करता है, वरना साफ इनकार कर देते हैं, ऐसे ही मय्यत के क़र्ज़ें जो दूसरों के जिम्मे हो वो लोग उनसे मुकर जाते हैं, दोनों बातें शर'अन ज़ुल्म है, ख़ुसुसन मय्यत पर अगर क़र्ज़ हो तो वारिसों को समझाना चाहिए कि मरहूम की रूह जन्नत में जाने से मुअल्लक़ रहेगी जब तक क़र्ज़ अदा ना हो तो क्या अपने अज़ीज़ के लिए इतनी ज़बरदस्त मेहरूमी क़ाबिले बर्दाश्त है ?*

*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 242,*

*✿_ 2- जायज़ वसियत पूरी ना करना:-एक बड़ी कोताही ये हो रही है कि मय्यत की जायज़ वसीयत की परवाह नहीं की जाती, हालांकी जहां तक शरियत ने वसियत का अख्त्यार दिया है, यानी एक तिहाई तर्के तक वो उसकी मिल्क है, वसियत करने के बाद किसी को इसमें दखल अंदाज़ी का हक़ नहीं है, अगर इसमे मरहूम की खिलाफ़ वर्ज़ी करके उसकी जायज़ वसीयत पूरी ना की तो उसकी हक़ तल्फ़ी होगी, और हक़्क़ुल अब्द रह जाएगा, इसलिए बड़े फ़िक्र व अहतमाम से मय्यत की वसीयत पूरी करनी चाहिए, अगर मरहूम ने किसी ना-जायज़ काम में खर्च करने की वसीयत की हो तो पूरा करना जायज़ नहीं_,"*
*®_ माखुज़ाज़ वाज़ "इस्लाम हक़ीक़ी",*

*✿_ 3- बिला वसियत नमाज़ रोज़े का फिदया मुश्तरक तर्के से देना:⇛एक कोताही ये है कि बाज़ लोग तक़वा के जोश में मय्यत की वसीयत के बगेर ही मुश्तरक तर्के में से मय्यत की नमाजो़ और रोजो़ का फिदया दे देते हैं, ये उसकी तरफ से ज़कात या हज करा देते हैं,*

*✿_ हालांकी अगर मय्यत ने वसीयत न की हो तो उसकी तरफ से जो वारिस फिदया या ज़कात या हज अदा करना चाहे अपने हिस्सा ए मीरास या अपने दूसरे माल से अदा करे, जिसका बहुत सवाब है, लेकिन दूसरे वारिसों के हिस्से में से उनकी मर्जी के बैगर देना जायज़ नहीं और ना-बलिग या मजनून के हिस्से में से देना उनकी इजाज़त से भी जायज़ नहीं,*
*®_ इस्लाही इंक़लाबे उम्मत, 1/239,* 
 
*✿_ 4- नमाज़ रोजों के फिदया की परवाह ना करना'⇛ एक कोताही ये है कि कोई वसीयत किये बगेर मर जाए तो वारिस नमाज़, रोजों के फिदया वगेरा से कम दर्जा के कामो में तो बल्की फिजूल खर्च में हत्ताकी इससे बढ़कर ये कि नाजायज़ रस्मों और बिद'तो में मय्यत का तरका उड़ाते हैं, मगर इसकी तरफ बहुत कम लोग तवज्जोह देते है कि और खर्चे बंद करके अपने हिस्सा ए मीरास में से कुछ मय्यत की तरफ से फिदया में दे दें या अगर मय्यत के जिम्मे ज़कात हज वगेरा रह गए हैं तो वो अदा करें,*

*✿_5- फिदया की अदायगी के लिए हीला ए इसक़ात:- हीला ए इस्क़ात बाज़ फुक़्हा ने ऐसे शख्स के लिए तजवीज़ फरमाया था जिसके कुछ नमाज़, रोज़े वगेरा इत्तेफ़ाकन फ़ौत हो गए हो, क़ज़ा करने का मोक़ा नहीं मिला और मौत के वक़्त वसीयत की लेकिन इतना तरका नहीं छोड़ा कि जिससे एक तिहाई से तमाम फिदया अदा किया जा सके, यह नहीं कि उसके तर्के में जो माल मोजूद है उसको तो बांट खाए और थोड़े से पैसे लेकर हीला हवाला करके खुदा और मखलूके़ खुदा को फरेब दे,*

*✿_ फुक़हा की किताबों दुर्रे मुख्तार, शामी वगेरा में इसकी सराहत मोजूद है, साथ ही कुछ और शर्ते भी है जिनकी आज कल बिल्कुल रियायत नहीं की जाती, इनकी तफ़सीलात हज़रत मौलाना मुफ्ती शफ़ी साहब रह. के रिसाले "हीला ए इसक़ात" में देखी जा सकती है,*

*✿ 6- किसी खास शख्स से नमाज़ पढ़ने या खास जगह दफन करने की वसीयत:-बाज़ लोग किसी खास शख्स से नमाज़ पढ़ाने या किसी खास जगह दफन होने की वसीयत कर जाते हैं, फिर वारिस उसका क़दरे अहतमाम करते हैं कि बाज़ मर्तबा शरीयत वाजिबात की भी खिलाफ वर्जी हो जाती है,*
*"_ याद रखें, शर'अन ऐसी वसीयत लाज़िम नहीं होती, अगर कोई बात खिलाफे शरियत लाज़िम ना आए तो उस पर अमल जायज़ है वरना जायज़ नहीं,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1/243,* 

          *╂───────────╂*
*╠☞_मीरास तक़सीम ना करना,*

*✿ _एक संगीन कोताही जो बहुत कसरत से हो रही है वो यह है कि मीरास तकसीम नहीं की जाती, जिसके कब्ज़े में जो माल है वही उसका मालिक बन बेठता है और तरह तरह के हीले बहाने कर उसे हलाल बनाने की कोशिश करते हैं, पढ़े लिखे लोग भी इसमे गिराफ्तार है और ये समझ लेते हैं कि हम सब एक ही तो है, और एक दूसरे को तसर्रुफ की इजाज़त भी है, लिहाज़ा तक़सीम की क्या जरूरत है? और इस तरह की तावील वो ही शख्स कर सकता हे जो क़िबिज हो क्योंकि उसी का नफा है,*

*✿ _ दूसरे वारिस छोटे या मातहत होने की वजह से शर्मा शर्मी में कुछ नहीं कहते मगर दिल से कोई इजाज़त नहीं देता, और ये ज़ाहिरी इज़ाजत खुश दिली से नहीं होती, जिसकी बिना पर एक वारिस का तमाम तर्के पर क़ब्जा कर लेना बिल्कुल हराम और ना-जायज़ होता है,लिहाज़ा अज़ाबे क़ब्र और अज़ाबे जहन्नम से डरें और ज़ुल्म व गज़ब से बाज़ आए और वारिसो को शरई मुताबिक़ उनका पूरा पूरा हक़ पहूँचा दें,*

*☞"_ बहनों और लड़कियों को मीरास ना देना जुल्म है:-*
*✿_ एक कोताही ये है कि बाज़ लोग बहनों और लड़कियों को मीरास नहीं देते, उनकी शादी के मोके पर तोहफें तहाइफ देने से समझते हैं उनका जो हक़ था अदा हो गया, याद रखिये इस तरह हरगिज़ मीरास से हक़ खत्म नहीं होता,उनका हिस्सा ए मीरास पूरा पूरा अदा करना वाजिब है और मीरास से महरूम करना हराम और जुल्म है,*

*☞"_ बहनों से हिस्सा ए मीरास माफ करना लेना:-*
*✿ _अक्सर दीनदार और अहले इल्म घरानो में भी बहनों से हिस्सा ए मीरास माफ करा लेते हैं, याद रखिये की रस्मी तोर पर बहनों के माफ करने से आप हरगिज बरी ज़िम्मे नहीं हो सकता,*

*✿_ खुलासा यह है कि हराम को हलाल बनाने और ज़वान मज़लूम बहनों का हिस्सा ए मीरास हज़म करने की जो चाले भी चली जाती है वो शर'अन मर्दूद और बातिल है, सलामती इसी में है कि साफ दिल से उनका पूरा हिस्सा उनके कब्ज़े मे दे दिया जाए,* 

          *╂───────────╂*
*╠☞_तरका पर कब्ज़ा कर तिजारत करना और तरका में से चोरी करना:-*

*✿_ एक कोताही ये हो रही है कि मय्यत के इंतकाल के बाद मय्यत का कारोबार उसकी ज़िंदगी में जिस वारिस के कब्ज़े में होता है वही बाद में भी उस पर क़ाबिज़ रहता है और उसे चलाता है, जिससे कारोबार बड़ता रहता है और यह सब वारिसों की बेगर इजाज़त होता है,*

*✿_फिर बाद में एक अरसा गुज़र जाने के बाद तक़सीम का ख्याल आता है तो फिर असल और नफा दोनों की तक़सीम में सख्त झगड़ा होता है और शरई ऐतबार से भी उस नफे में बड़ी उलझनें है, इसलिए पहले तक़सीम कर लें, उसके बाद सबकी रज़ामंदी से या अलग कारोबार करें, ना-बलिग की तरफ से उनका वली शिरकत या अदमे शिर्कत का मामला कर सकता है,*

*✿_ एक कोताही ये होती है कि जो चीज़ जिस वारिस के कब्ज़े में आ जाती है उसे छुपा लेता है, याद रखिये क़यामत के दिन सब उगलना पडेगा,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 241,* 

*╠☞_ बेवा को निकाह सानी करने पर मीरास से मेहरूम करना:- बाज जगह ये दस्तूर है कि बेवा अगर दूसरा निकाह कर ले तो उसे मरहूम शोहर की मीरास से मेहरूम कर देते हैं, इसलिये वो बेचारी अपना हिस्सा ए मीरास मेहफूज़ रखने के लिए दूसरा निकाह नहीं करती, और उम्र भर बेवगी के मसाइब बर्दाश्त करने के साथ मरहूम शोहर के अज़ीज़ो अक़रबा के ज़ुल्मो सितम बर्दाश्त करती रहती हैं, याद रखिये ये भी सरासर ज़ुल्म और हराम है, निकाह सानी करने के बावजूद शर'न बेवा बा -दस्तूर अपने हिस्सा ए मीरास की मालिक रहती है,*

*☞_ बेवा को दूसरे क़बीले ( या क़ौम) से होने की बिना पर मेहरूम करना:-सिंध में ये रिवाज़ है कि जो औरत शोहर के क़बीले से ना हो उसे शोहर के माल से हिस्सा ए मीरास नहीं देते, ये भी बहुत बड़ा ज़ुल्म और जहालत है, बेवा का हिस्सा कु़राने करीम ने बहरहाल फर्ज़ किया है चाहे वो शोहर के खानदान से हो या किसी दूसरे खानदान से,*

*☞_ बेवा का ना-हक़ तमाम तर्के पर क़ब्ज़ा करना:- बाज़ औरतें मरहूम के इंतकाल के बाद अपने को तमाम मनकू़ल माल का मालिक समझती है, ये भी ज़ुल्म है, जो चीज़ शोहर ने उसे अपनी ज़िंदगी में मरज़ुल मौत से पहले हिबा करके क़ब्जे में दे दी वो बेशक उसकी है, बाक़ी सब तरका मुश्तरक है, शर'अन क़ायदे के मुताबिक़ सब वारिसों पर तक़सीम करना वाजिब है,*

*☞_ दुल्हन मायके या ससुराल में मर जाए तो उसके जहेज़ का हुक्म:- एक कोताही ये है अगर दुल्हन अपने मायके में मर जाए तो उसका तमाम साजो सामान और जहेज़ वगेरा पर वो लोग कब्ज़ा कर लेते हैं, और अगर ससुराल में मर जाए तो शोहर और उसके घर वाले कब्ज़ा कर लेते हैं, ये भी सरासर नाजायज़ है, आखिरत में एक एक पाई का हिसाब देना होगा,*
*⇨बहरहाल दुल्हन के जहेज़ और तमाम तर्के में दुल्हन के तमाम वारिसों का हिस्सा है, जिनमे शोहर भी दाखिल है और दुल्हन के वालदेन वगेरा भी, अगरचे दुल्हन का इंतका़ल कहीं भी हो,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1/241-42,* 

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*╠☞_मरने से पहले बंदो के हुक़ूक़ की माफ़ी तलाफ़ी ज़रुरी है,*

*✿_ हुकूक़ुल इबाद (बंदो के हुकूक़) का मामला निहायत संगीन हे, क्यूंकी वो साहिबे हक की माफ़ी के बगेर माफ़ नहीं होते, एक हदीस में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इरशाद फरमाते हैं कि "जिसके ज़िम्मे किसी (मुसलमान या इंसान) भाई का कुछ हक हो, उसकी आबरु के मुताल्लिक या और किसी क़िस्म का, वो आज उससे माफ़ करा ले, ऐसे वक़्त (हिसाब के दिन) से पहले कि जब उसके पास ना दीनार होगा ना दिरहम_," (मिश्कात,)*

*✿_"_ हुकूकुल इबाद 2 क़िस्म के होते हैं, एक माली, दूसरे गैर माली:-*
*⇛ माली हुकूक़ के मुताल्लिक ज़रूरी मसाइल पीछे तरका, क़र्ज़ो, वसीयत और मीरास के बयान में आ चुका हे,*

*"⇛_ गैर माली हुकूक़,-रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में अज़ीज़ो अकारिब, दोस्त अहबाब के ताल्लुक़ात में, लेन देन के मामले में, बदगुमानी की वजह से झूठ या धोखा से आबरू व माल का नुक़सान, ये सब गुनाहे कबीरा है आखिरत में इस पर शदीद अज़ाब की खबर क़ुरान हदीस में दी गई है, इसलिये लाज़मी और ज़रूरी है कि अपनी ज़िंदगी का जायज़ा लेकर अपनी मौत से पहले माफ़ी तलाफ़ी की जाए, और अल्लाह ताला से भी उन गुनाहो के लिए नदामत तौबा, इस्तगफ़ार किया जाए,*

*⇛ अगर किसी वजह से हक़दारो से माफ कराना मुमकिन नहीं रहा मसलन वो लोग मर चुके तो उनके लिए हमेशा मगफिरत की दुआ करते रहें और इसाले सवाब भी करें, अजब नहीं कि अल्लाह ताआला क़यामत में उन्हें राज़ी करके माफ करवा दें,*

*✿ _इसके बरअक्स यही सब बातें दूसरों की तरफ से हमारे साथ भी पेश आती है, इसलिये शराफते नफ्स इसी में है और अक़ल का तकाज़ा और शरियत का मुतालबा यही है कि उनको माफ कर देना चाहिए, इससे अपने नफ्स को इतमिनान होता है और दूसरे शख्स को आखिरत की पकड़ से बचाने का ज़रिया भी है और ये बात अल्लाह ताला को बहुत महबूब है,*

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*╠☞ _सदका के मुताल्लिक कोताहियां-*

*✿_"_मरीज़ या उसके मुताल्लिक़ीन सदका़ करने में एक ग़लती ये करते हैं कि किसी बुज़ुर्ग मरहूम के नाम का खाना पका कर तक़सीम करते हैं या ख़िलाते हैं, और उसमे उनका ये एतक़ाद होता है कि वो बुजुर्ग खुश होकर कुछ सहारा लगा देंगे _,*
*"_ये अकी़दा शिर्क है, बाज़ लोग उनकी दुआ का यक़ीन रखते हैं और वो भी इस तरह कि उनकी दुआ रद्द नहीं हो सकती, ऐसा ऐतका़द भी खिलाफ़े शरा है _,"*

*✿_"_ बाज़ लोग सदका़ में जान का बदला जान ज़रूरी समझते हैं और बकरे वगेरा को तमाम रात मरीज़ के पास रख कर या मरीज़ का हाथ लगवा कर खैरात करते हैं या मरीज़ के पास जिबह करते हैं और यह समझते हैं कि मरीज़ का बकरे पर हाथ लगाने से तमाम बलाएं गोया कि कि बकरे की तरफ मुंतक़िल हो गई और जान के बदले जान दे देने से मरीज़ की जान बच जाएगी,*
*"_याद रखें, ऐसा ऐतक़ाद ख़िलाफ शरई है,*

*✿_ बाज़ लोगो ने सदका़ के लिए खास खास चीज़ मुकर्रर कर रखी है, जेसे माश, तेल और पैसे जिनमे अमरे मुश्तरक सियाह रंग की चीज़ मालूम होती है, गोया कि बला को काली समझ कर उसको दूर करने के लिए भी काली चीज़े मुंतखब की गई हैं, यह सब मन गडंत बाते हैं और खिलाफ़े शरई है,*

*✿_"_ बाज लोग सदका में गोश्त वगेरा चीलो को देना ज़रूरी ख्याल करते हैं, ये भी गलत है, शरीयत में सदका़ का बेहतरीन मसारिफ मिसकीन है,*
*"®_ इस्लाही इंक़लाबे उम्मत, 1/232,*

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*╠☞_ ऐन वक़्त मौत की रस्में _,"*

 *☞ 1- रोना, पीटना और गिरेबान फाड़ना:-*
*✿__आम तोर पर एक कोताही ये है कि मय्यत की जान कनी के वक़्त बजाये इसके कि कलमा पढ़े, सूरह यासीन पढ़े, मय्यत की सहुलियते नज़ा और खात्मा बिल खैर की दुआ करे, औरतें रोना, पीटना फैलाती हैं, उस बेचारे को नज़ा की तकलीफ ही क्या कम है जो ये तकलीफ और देती है,*
*✿_ याद रखिये! बुलंद आवाज़ से रोना चिल्लाना, मातम करना और गिरेबान फाड़ना सब हराम और गुनाह है, अलबत्ता रोना आए तो चीखने चिल्लाए बगेर आंसुओं से रोने में कोई हर्ज़ नहीं,*

*☞ 2- बीवी बच्चों को सामने करना:-*
*✿_ एक नामाकूल हरकत ये की जाती है कि बाज़ औरतें मरने वाले की बीवी को उसके सामने खड़ा कर देती है या बीवी खुद ही सामने आ जाती है और मरीज़ से पूछते हैं कि इसको या पर मुझे किस पर छोड़े जा रहे हो? और उस गरीब को जवाब देने पर मजबूर करती है,*
*"_ बड़े ही अफसोस की बात है, उसका ये वक्त खालिक़ की तरफ मुतवज्जह होने का है, मगर ये ना लायक़ मखलूक़ की तरफ मुतवज्जह करना चाहते हैं, जो उस पर सरासर ज़्यादती है, होना यह चाहिए कि अगर वो खुद भी बिला ज़रुरत शरई के आलम की तरह मुतवज्जह हो तो उसकी तवज्जोह हक़ ताआला शानहु की तरफ फेर दी जाए,*

*✿_"_ बाज़ अवक़ात मरीज़ के बच्चों को उसके सामने लाती है कि इनका कौन होगा? ज़रूरी ये है कि जान कनी के वक़्त मय्यत के पास समझदार दीनदार लोग हों,*

*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1/234,*

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*╠☞ बद फाली से यासीन ना पढ़ना और मय्यत से दूर रहना, या कलमे की तलक़ीन में हद से बढ़ना:-*

*✿_"_ बाज़ लोग ये करते हैं कि बदफाली के ख्याल से या दीन की अज़मत दिल में ना होने से ना उस वक़्त सूरह यासीन पढ़ते हैं और ना उसे पढ़ाना गवारा करते हैं और ना कलमा का अहतमाम करते हैं, ना मय्यत को कलमा की तरफ मुतवज्जह करते हैं, बल्की फ़िज़ूल बातों में और उन कामों में लग जाते हैं जिसकी ज़रूरत बाद में होगी, ये सब जहांलत की बात वह, इनसे बचना लाज़िम है,*
*"_ बाज़ जगह मय्यत के वारिस माल व दौलत, रूपया पैसा, साज़ो सामान पर क़ब्ज़ा करने की फ़िक्र में भागते फिरते है और मरीज़ के पास कोई नहीं रहता वो तन्हा ही खत्म हो जाता है, बड़ी नादानी और ज़ुल्म की बात है,*

*✿__ बाज़ लोग मरीज़ के पास इस बिना पर नहीं बेठते कि इन्हें बीमारी लग जाने का खौफ रहता है। हालांकी अल्लाह तआला के हुक्म के बगेर कोई बीमारी किसी को नहीं लग सकती, चुनांचे देखा जाता है कि अक्सर जगह कुछ भी नहीं होता, इसलिये ऐसा करना बड़ी संगदिली की बात है, हरगिज़ वहम ना करें, मरीज़ को तनहा ना छोड़े और उसकी दिल शिकनी ना करे,*

*☞_ कलमे की तलक़ीन:-*

*✿_ बाज लोग मरने वाले को कलमा पड़वाने में इस क़दर सख्ती करते हैं कि उसके पीछे ही पड़ जाते हैं, वो पढ़ भी लेता है फिर भी चाहते हैं कि वो पढ़ता ही रहे,*
*"_ बाज़ लोग इससे बढ़ कर ये ज़्यादती करते हैं कि मरने वाले से आखिर तक बातें करना चाहते हैं, अलबत्ता शर'अन किसी बात को मालूम करना ज़रूरी हो मसलन किसी की अमानत, क़र्ज़ का लेन देन, कोई हक़ वाजिब हो तो मालूम करने में कोई मुज़ायका नहीं बल्की ज़रूरी है बशर्ते कि मरीज़ बतलाने में नाक़ाबिले बर्दाश्त तकलीफ़ में ना हो,*

*✿_ बाज़ लोग उस बेचारे को क़िब्ला रुख करने में ये करते हैं कि उसका तमाम बदन और मुंह पकड़ कर बेठ जाते हैं,*
*"_ याद रखिये, क़िब्ला रुख करने का मतलब ये है कि जब मरीज़ पर शाक़ ना हो या जब वो बिलकुल बेहस व हरकत हो जाए उस वक़्त क़िबला रुख कर दिया जाए, ना ये ज़बरदस्ती करके उसको तकलीफ पहुंचाएं _,"*
*©_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1/237,* 

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*╠☞_नज़ा की हालत में ना- मेहरम मर्द को देखना, मेहंदी लगाना:-*

*✿_ एक बे अहतयाती ये होती है कि नज़ा की हालत में ना-मेहरम औरतें उसके सामने आ खड़ी होती है और पर्दे को भी ज़रूरी नहीं समझती, ये बड़ी जहालत की बात है, क्यूंकी अगर उसको होश है कि वो देखता और समझता है तब तो उसके सामने आना और देखना जायज़ नहीं, और अगर इतना होश नहीं तो भी चाहे मरीज़ ना देखे मगर उन औरतों ने बिला ज़रुरत ना-मेहरम को देखा, हदीस शरीफ़ में इसकी मुमानत आई है इसलिये ना-मेहरम औरतें हरगिज़ मरीज़ के सामने ना आएं,*

*✿_ इसी तरह बाज़ मर्द भी ना-मेहरम औरत के सामने चले जाते हैं और देखने लगते हैं, सो उनके लिए भी ऐसा करना जायज़ नहीं,*

 *☞_ औरत के मेहंदी लगाना:-*

*✿_ बाज़ जगह ये क़बीह रस्म होती है कि जब किसी औरत के इंतका़ल का वक़्त क़रीब होता है तो दूसरी औरतें उसके हाथों पर मेहंदी लगाती है, और इसको मसनून समझती है, याद रहे ये मसनून नहीं बल्कि ना-जायज़ है _,"* 

          *╂───────────╂*
*╠☞"_ मौत के वक़्त मेहर माफ़ कराना:-*

*✿_ एक कोताही जो आम है कि जब कोई औरत मरने लगती है तो उससे कहते हैं कि मेहर माफ़ कर दे, वो माफ़ कर देती है और शोहर इस माफ़ी को काफ़ी समझ कर अपने आपको मेहर अदा करने से बरी ज़िम्मा समझता है और कोई वारिस मांगे भी तो नहीं देता,*

*✿_"_ याद रखिये! अव्वल तो उस वक्त इस तरह माफ करवाना बड़ी संगदिली की बात है, दूसरे अगर वो पूरी तरह होश में हो और खुश दिली से माफ भी कर दे तो भी मेहर माफ नहीं होगा, क्युंकी पीछे मरजुल मौत के मसाइल में मालूम हो चुका है कि मरजुल मौत में माफ़ी बा हुकमे वसीयत है और वसीयत शोहर के लिए नहीं की जा सकती, क्योंकि वारिस के हक़ में वसीयत बातिल है,*

*✿_"_ अलबत्ता अगर औरत के दूसरे वारिस जो आकिल बालिग हो वो अपना अपना हिस्सा ए मीरास इस मेहर में से बा-खुशी छोड़ना चाहें तो छोड़ सकते हैं, लेकिन जो वारिस मजनून या ना-बालिग हो उसका हिस्सा उसकी इजाजत से भी माफ नहीं होगा,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1/238,*

*✿_ एक कोताही बाज़ लोगो में ये होती है कि जिसका इंतका़ल होने लगे, अगर उसने मेहर अदा ना किया हो तो उसकी बीवी को मजबूर करते हैं कि वह अपना मेहर माफ कर दे, हालांकी बीवी इस पर बिलकुल राज़ी नहीं होती है मगर लोगों के इसरार करने पर या रस्म से मजबूर होकर शर्मा शर्मी में माफ़ कर देती हैं,*

*✿_ याद रखिये ! इस तरह मेहर माफ़ कराना जायज़ नहीं, बड़ा ज़ुल्म हे,*

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*╠☞_इज़हारे गम मे गुनाहों के काम,*

*✿_ बहुत सी जगह रोने पीटने में औरतें बेपर्दा हो जाती है और पर्दे का बिलकुल ख्याल नहीं रखती, बाज जगह इससे बढ़ कर ये गज़ब होता हे कि नोहा करने वालों और वालियों की तस्वीरें (फोटो) खींची जाती है और अखबार में छपवाई जाती है, ये भी हराम और गुनाहे कबीरा है,*

*✿_ बाज़ जगह औरतें गम के मोके़ पर अपने ना-मेहरम अज़ीज़ो मसलन देवर, चाचाज़ाद, या ख़ालज़ाद भाई वगेरा से लिपट लिपट कर रोटी है, ये भी हराम है, क्यूकी रंजो गम मे शरियत के अहकाम खत्म नहीं हो जाते,*

*✿_ बाज़ जगह ऊपर की औरतें दीदा व दानिश्ता ऐसी बात करती है जिससे रोना आए और बाज़ औरतें बन बन कर बा तकल्लुफ रोती वह, ये सब गलत व ममनू है,*

*✿_ बाज़ जगह घर की और बिरादरी की औरतें मय्यत के घर से निकालते वक्त नोहा करती हुई घर के बाहर तक आ जाती है और तमाम गैर मर्दो के सामने बेहिजाब हो जाती है, ये सब नाजायज़ और हराम है,*

          *╂───────────╂*
              *╠☞ _ पोस्ट मार्टम:-*

*✿_ आज कल हदसात में हलाक़ होने या क़त्ल होने वालों का पोस्ट मार्टम किया जाता है और जिस्म को चीरफाड़ कर अंदरूनी हिस्से देखे जाते हैं, इनमे ज़्यादातर सूरतें ऐसी होती हैं जहां पोस्ट मार्टम शरई जरूरत के बैगर किया जाता है, जो जायज़ नहीं,*

*✿_ और अगर कहीं शरई ज़रुरत हो यानि किसी दूसरे ज़िंदा शख्स की जान बचाने या किसी का माल ज़ाया होने से बचाने के लिए पोस्ट मार्टम ज़रूरी हो तो इसमें भी शरई अहकाम मसलन सतर और अहतराम ए मैय्यत वगैरा का लिहाज़ रखना ज़रूरी है और फारिग होने के बाद उसके तमाम आज़ा को दफ़न कर देना ज़रूरी है,*
*®_ इमदादुल फतावा, 1/508 व किफायतुल मुफ्ती, 4/188,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _ तजहीज़ व तकफ़ीन और तकफीन में ताखीर, सिला हुआ कपड़ा और मुसल्ला बनाना:-*

*✿_ बाज़ जगह मय्यत के माल व दोलत की जांच पड़ताल या तक़सीम ए तरका के इंतेज़ाम व अहतमाम या दोस्तों और रिश्तेदारों के इंतज़ार में या नमाज़ियों की क़सरत या ऐसी ही और किसी वजह से मय्यत की तदफीन में देर करते हैं, यहां तक कि बाज़ जगह पूरे 2 दिन मय्यत को पड़ा रखते हैं, ये सब नाजायज़ और ममनू है _,"*
*®_ दलीलुल खैरात,*

*✿_ बाज़ जगह ये रस्म है कि मय्यत की तजहीज़ व तकफ़ीन से पहले गुठलियो पर एक लाख मर्तबा कलमा तैयबा पढ़वाना ज़रूरी समझते हैं और इसकी तकमील के वास्ते दूसरों को बुलावा देते हैं और उने मजबूरन आना पड़ता है और जो शख्स ना आए या शरीक़ ना हो सके वो जनाजा और ताजियत में भी नदामत की वजह से शिरकत नहीं करता है, इसमे भी बहुत सी खराबियां है और तजहीज़ व तकफीन में भी ताखीर होती है, इसलिये ये रस्म भी वाजिबुल तर्क हे,*
*®_ इमदादुल अहकाम, 1/103,*

*☞"_ मय्यत को सिला हुआ पायजामा टोपी पहनाना:-*
*✿_"बाज जगह मय्यत को कफनाने के वक्त मर्द हो या औरत पायजामा और टोपी पहनाते हैं, ये ना जायज़ है,*
*®_फतावा दारुल उलूम मुकम्मल व मुदल्लिल, 5/271,*

*☞"_ मय्यत के कफन से कपड़ा बचा कर इमाम का मुसल्ला बनाना:-*
*✿__ एक आम रस्म ये भी है कि मय्यत के कफन से बचा कर कोई गज़ भर कपड़ा या ज़्यादा खरीद लेते हैं, जो नमाज़ जनाज़ा के बाद इमाम का हक़ समझा जाता है, बाज़ जागह ऊपर की चादर भी इमाम को दे देते हैं, सो ये मुसल्ला और चादर बनाना ही गलत है, कफन के मसारिफ से इसका कोई ताल्लुक़ नहीं, इमाम का इनमे कोई हक़ नहीं और मुश्तरक तर्के से इसका सदका़ में देना भी जायज़ नहीं,*
*®_ अहसानुल फतावा ,1/379,*

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*╠☞_ मय्यत के सीने और कफन पर कलमा लिखना और शजरा व अहदनामा रखना, इमामा पहनाना और इमाम का ख़त रखना, सुरमा लगाना:-*

*✿_"_बाज़ जगह मय्यत के सीने या पेशानी या कफन पर कलमा तैयबा, कलमा ए शहादत, आयतुल कुर्सी और दीगर आयात और दुआएं रोशनाई (स्याही) वगेरा से लिखी जाती है, इस तरह लिखना जायज़ नहीं, क्योंकि मय्यत के फटने से बे हुरमती होगी,*
*"_ अलबत्ता बगेर रोशनाई के सिर्फ उंगली से कुछ लिख दिया जाए कि लिखने के निशान ज़ाहिर ना हो तो ये जाइज़ है, बा-शर्ते कि इसे भी मसनून या मुस्तहब या ज़रूरी ना समझा जाए, वरना ये भी बिद'अत और वाजिबुल तर्क होगा,*
*®_ एहसानुल फतावा, 1/351,*

*✿_"_ बाज लोग मय्यत के सीने पर अहदनामा या शजरा या सूरह यासीन वगेरा रख देते हैं या फिर लिख कर उसके साथ क़ब्र में रख देते हैं, मय्यत के गलने सड़ने से इसकी बे-अदबी होती है, लिहाज़ा इसको भी तर्क करना चाहिए,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1.241,*

*✿_"_ बाज़ जगह उल्मा और सरदारो वगेरा की मय्यत को कफन के तीन कपड़ों के अलावा एक अदद इमामा भी देते हैं, सो ये इमामा देना मकरूह है, खुद सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को तीन यमनी चादरों में कफनाया गया था, जिसमें इमामा नहीं था, हदीस में इसकी सराहत मोजूद है,*
*®_ इमदादुल फतावा, 1/510 फतवा दारुल उलूम देवबंद मुदल्लिल, 5/259,*

*✿__ बाज लोग मय्यत को कफन पहनने के बाद इमाम ए मस्जिद का लिखा हुआ खत मय्यत के दो हाथो में देते हैं, ये भी बेअसल और लग्व है,*
*"_ बाज लोग मय्यत की आंखो में सुरमा और काजल लगाते हैं, सर और ढाडी के बालो को कंघी भी करते हैं, बाज़ लोग नाखून और बाल कतर देते हैं ये सब ना-जायज़ है,*
*®_ फतावा दारुल उलूम देवबंद मुदल्लिल, 5/256,*

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*╠☞_नमाज़े जनाज़ा से पहले और बाद में इज्तिमाई दुआ करना:-*

*✿"_बाज़ जगह ये रस्म है कि मय्यत को कफनाने के बाद जनाज़ा तैयार करके तमाम हाज़िरीन इज्तिमाई तोर पर फ़ातिहा पढते है और दुआ करते हैं और बाज़ जगह नमाज़े जनाज़ा के बाद भी इज्तिमाई दुआ की जाती है,*
*"_ याद रखिये! कि नमाज़े जनाजा़ खुद दुआ है, मैय्यत के लिए जो शरीयत ने दुआ मुकर्रर फरमा दी है उसमे इज्तिमाई तोर पर दुआ पढ़ी जाती है वो मय्यत और तमाम मुसलमानों के लिए इतनी जामे और मुफीद दुआ है कि हम और आप उम्र भर सोच विचार से भी इससे बेहतर दुआ नहीं कर सकते, नमाज़े जनाज़ा से पहले या बाद में इज्तिमाई दुआ या फातिहा पढ़ने का शरीयत में कोई सबूत नहीं, इसलिये ये नाजायज़ और बिद'अत है,*

*✿ _अगर किसी को शुबहा हो कि दुआ तो तमाम ज़िंदा मुर्दा मुसलमानों के लिए हर वक़्त जायज़ हे, फ़िर इस मोक़े पर दुआ मकरूह होने की क्या वजह है,?*
*"_ जवाब ये है कि फुक़हा किराम रह. ने इंफिरादी तोर पर (अलग अलग) दुआ करने से मना नहीं फरमाया, मय्यत के इंतका़ल के वक्त बल्की इससे भी पहले अयादत के ज़माने से उसके लिए फरदन फरदन (अलग अलग) दुआ मांगने का सबूत अहादीस और फुक़हा की किताबों में मोजूद है, हर मुसलमान को अख्त्यार है,*

*✿_ बल्की बेहतर ये है कि जब वो किसी मरीज़ की अयादत को जाए तो उसके लिए दुआ करे और अगर उसका इंतका़ल हो जाए तो उसके लिए दुआ ए मगफिरत करे और दफन तक बल्की अपनी जिंदगी भर मय्यत के लिए दुआ करते रहें, तिलावत ए कुरान और दीगर माली, बदनी इबादतों का सवाब करने की कोई मुमानत नहीं है, बा-शर्तें अपनी तरफ से कोई ऐसी बात ईजा़द ना करें जो शरीयत के खिलाफ हो और कोई ऐसी शर्त या पाबंदी अपनी तरफ से ना लगाये जो शरियत में मोजूद नहीं,*

*✿_और रहमते आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुसलमान मय्यत के लिए इज्तिमाई दुआ करने का तरीक़ा सिर्फ ये मुकर्रर फरमाया है जिसे नमाज़ जनाज़ा कहते हैं, इन्फिरादी तोर पर हर शख्स हर वक्त दुआ कर सकता है, लेकिन जमा होकर दुआ करने का सबूत सिर्फ नमाज़े जनाज़ा के अंदर है, इसे पहले या बाद में जिन मोको़ पर दुआ के लिए लोगों को जमा किया जाता है ये लोगों का अपना बनाया हुआ तरीक़ा है, और फुक़हा किराम रह. इसी इज्तिमा को (जमा होने को) मकरूह और बिद'अत फरमाते हैं, फतावा बज़ाज़िया में इसकी मुमानत की सराहत मोजूद है,*
*®_ दलीलुल खैरात, 51-53 व इमदादुल मुफ्तीन, 444,*

*✿_आज कल इस पर मजी़द सितम ये होने लगा है कि जो शख्स इस बिद'अत में शरीक़ नहीं होता उस पर तान तशनी की जाती है, अल्लाह ताला हम सबको हर क़िस्म की बिद'अत और जहालत व गुमराही से मेहफूज़ रखे और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत पर जीने और उसी पर मरने की तोफीक अता फरमाये,*

          *╂───────────╂*
*╠☞ _ जनाज़े या क़ब्र पर फूलों की चादर डालना, जूते पहन कर नमाज़ पढ़ना, तस्वीरें खिचवाना:-*

*✿_ क़ब्र पर और जनाज़ा पर फूलों की चादर डालने का भी एक रिवाज़ चल निकला है और इसे तजहीज़ व तकफ़ीन के अमल में से एक अमल समझा जाता है,*
*"_ और क़ब्र पर अगरबत्तियां जलाई जाती है, हालांकी क़ुरान व सुन्नत और साहबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम और आइम्मा मुजतहिदीन से इन तीनो उमूर (जनाज़े पर फूलों की चादर, क़ब्र पर फूलों की चादर और अगरबत्तियां जलाना) का कोई सबूत नहीं है, लिहाज़ा ये भी बिद'अत और ना-जायज़ हैं,*
*®_ इमदादुल अहकाम, 1/92 व उल्मा का मुत्तफ़िक़ फ़ैसला,*

*☞"_ नमाज़ जनाज़ा के फ़ोटो छपवाना:-*
*✿_ दोरे हाज़िर की एक लानत ये भी है कि नमाज़ जनाज़ा की तस्वीरें अखबार में छपवाई जाती है और फ़ोटो में मुमताज़ शख्सियात को नुमाया करने की कोशिश की जाती है हालांकी ये तस्वीर कशी हराम है,*
*"_बाज लोग मय्यत का मुंह खोल कर उसका भी फोटो खींचते हैं या खिंचवाते हैं ताकि बतोर यादगर उसे रखे, याद रखिए ! तस्वीर कशी मुतलक़न हराम है, लिहाज़ा मय्यत का फोटो लेना भी हराम है, फोटो खींचने और खिचवाने वाले दोनों गुनाहे कबीरा के मुर्तकिब होते हैं,*

*☞"_ जूते पहन कर नमाज़ ए जनाजा़ पढना:-*
*✿_एक कोटही आम तोर पर ये हो रही है कि लोग रोज़ मर्रा के ज़ेरे इस्तेमाल जूते पहन कर या उनके ऊपर क़दम रख कर जनाजे़ की नमाज़ पढ़ लेते हैं और ये नहीं देखते कि वो जूते पाक भी है या नहीं?*
*"_ हालांकी अगर जूते पहने पहने नमाज़ पढी जाए तो ये ज़रूरी है कि ज़मीन और जूते के अंदर और नीचे दोनों जानिब पाक होना चाहिए, वर्ना नमाज़ ना होगी, और अगर जूते निकाल कर उस पर क़दम रख लिए हैं तो ये ज़रूरी है कि जूतों का ऊपर का हिस्सा जो पैर से लगा है पाक होना चाहिए अगरचे नीचे (तला) नापाक हो, अगर ऊपर का हिस्सा भी नापाक हो तो उस पर नमाज़ दुरुस्त नहीं होगी,*
*®_ इमदादुल अहकाम, 1/740,*

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*╠☞_ बुलंद आवाज़ से नियत करना, मय्यत के साथ बुलंद कलमा शहादत पढ़ना, जनाज़े के साथ अनाज, पैसा और खाना भेजना:-*

*☞"_ बुलंद आवाज़ से जनाज़े की नियत करना:-*
*✿_ बाज़ जगह देखा जाता है कि लोग जनाज़े की नियत बुलंद आवाज़ से करते हैं, तो इसकी भी कोई असल नहीं है, अलबत्ता इमाम इत्तेफाक़न कभी तालीम की गर्ज़ से जनाजे़ के नियत बतला दे तो इसमे कोई मुज़ायका नहीं, दुरुस्त है, लेकिन इसका मामूल बना लेना और ज़रूरी समझना बिद'अत है _,"*

*☞"_ जनाज़े के साथ कलमा शहादत बुलंद आवाज़ से पढ़ना:-*
*✿_ एक रस्म ये पढ़ गई है कि मय्यत को कांधा देते वक्त और दौराने राह एक या कई आदमी बुलंद आवाज़ से कलमा शहादत पुकारते हैं और सब हाजरीन बुलंद आवाज़ से कलमा शहादत पढते हैं, हालांकी जनाज़े के साथ बुलंद आवाज़ से कलमा शहादत तैयबा या कोई ज़िक्र करना आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत नहीं है, इस मोक़े पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम खामोश रहते थे, लिहाज़ा ये रस्म भी सुन्नत के खिलाफ है और बिद'अत है,*
*®_ इमदादुल मुफ्तीन,172,*

*☞"_ जनाज़े के साथ अनाज, पैसा और खाना भेजना:-*
*✿_"_ बाज़ जगह जनाज़े के साथ अनाज या पैसा या खाना आगे आगे ले जाकर चलते हैं, फिर ये अनाज खाना क़ब्रिस्तान में तक़सीम करते है,*
*"_ याद रखिये! ईसाले सवाब तो बहुत अच्छा काम है, ईसाले सवाब की ये अपनी तरफ से तय करदा सूरत कहीं से साबित नहीं, इसलिये ये बिद'अत और ना जायज़ है,*
*®_ दलीलुल खैरात,*

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*╠☞_आदाबे क़ब्रिस्तान की रियायत ना रखना:-*

*✿_ एक आम कोताही ये है कि क़ब्रिस्तान में पहुंच कर भी लोग दुनिया की बातें नहीं छोड़ते, हालांकी ये इबरत की जगह है, क़ब्र और आखिरत के मराहिल, उनकी होलनाकियां और अपने अंजाम की फ़िक्र करने की जगह है,*

*✿_ क़ब्रिस्तान में दाखिले के वक़्त अहले क़ब्रिस्तान को सलाम करने के जो कलमात है अकसर लोग उससे गाफ़िल रहते हैं,*

*✿_ अक्सर लोग क़ब्रिस्तान में दाखिल होने का आम रास्ता छोड़ कर क़ब्रो के ऊपर से फलांग कर मय्यत की क़ब्र तक पहंचने की कोशिश करते हैं, बाज़ मर्तबा क़ब्रो पर भी चढ़ जाते हैं, याद रखिए ऐसा करना मना है, मारूफ और मुकर्रर रास्ता चाहे लंबा हो मगर उसी पर चलना चाहिए,*

*✿_ बाज़ लोग क़ब्रिस्तान पहुंच कर मय्यत के आस पास जमकर बेठ (या खड़े हो) जाते हैं, मक़सद मय्यत की तदफ़ीन की कार्यवाही देखना होता है, लेकिन उनके जमा होने से अहले मय्यत और क़ब्र बनाने वालों को बहुत तकलीफ़ होती है और हुजूम (भीड़) की वजह से आपस में भी एक दूसरे को अज़ीयत होती है, कुछ अक्सर आस पास की कब्रों को भी अपने पैरो से बुरी तरह रौंदते है,*

*✿_ याद रखिये ! दफ़न की कार्यवाही देखना कोई फ़र्ज़ या वाजिब नहीं है, लेकिन दूसरों को अपने इस दर्जे़ अमल से तकलीफ़ देना हराम है, और क़ब्रो को रोंदना भी जायज़ नहीं, लिहाज़ा इन गुनाहो से बचिए, क़ब्र के पास सिर्फ काम करने वालों को रहने दीजिए ताकी सहुलत से वो अपना काम कर सकें और जब मिट्टी देने का वक्त आए मिट्टी दे दीजिये,*

*✿_ बाज़ लोग मिट्टी देने में भी जल्दबाजी करते हैं और एक दूसरे पर चढ़ जाते हैं और सख्त तकलीफ पहूँचाते हैं, ये भी ना-जायज़ है _,"*

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*╠☞ _मय्यत का मुंह क़ब्र को दिखाना, सिर्फ चेहरा क़िब्ला रुख करना, अमानत के तोर पर दफन करना, मय्यत के सिरहाने कु़ल पढ़ी हुई कंंकरियां रखना:-*

*☞ "_ मय्यत का मुंह क़ब्र को दिखाना:-*
*✿_"_ बाज़ लोग मय्यत को क़ब्र में रखकर उसका मुंह खोल कर क़ब्र को दिखलाना ज़रूरी समझते हैं, शरियत में इसकी कोई असल नहीं है,*

*☞ "_ मय्यत का सिर्फ चेहरा क़िब्ला रुख करना:-*
*✿_"_ बाज़ लोग मय्यत को क़ब्र में चित लिटा देते हैं और सिर्फ मय्यत का मुंह क़िब्ला की तरफ कर देते हैं, बाक़ी सारा जिस्म को करवट नहीं देते, ये भी फुक़हा की तसरिहात के खिलाफ है, बल्की मय्यत के तमाम बदन को अच्छी तरह करवट देकर क़िब्ला रुख करना चाहिए,*
*®_ इस्लाही इंकलाबे उम्मत, 1/240,*

*☞ "_ अमानत के तोर पर दफन करना:-*
*✿_"_ बाज़ लोग मय्यत को जिसकी दूसरे इलाक़े में मौत हो गई हो या ताबूत वगेरा में रख कर अमानत कह कर दफ़न करते हैं, और फिर बाद में किसी मोक़े पर ताबूत निकाल कर अपने इलाक़े में ले जाकर दफ़न करते हैं,*
*"_ याद रखिये! कि दफन करने के बाद चाहे अमानतन दफन किया हो या बगेर उसके, दोबारा निकालना जायज़ नहीं और अमानतन दफन करना भी शर'अन बेअसल है,*
*®_ अज़ीज़ुल फतावा- 1/342,*

*☞ "_ मय्यत के सरहाने कु़ल पढ़ी हुई कंंकरियां रखना:-*
*✿_"_ बाज़ लोग कु़ल पढ़ी हुई कंंकरियां या मिट्टी के ढेले मय्यत के सिरहाने रखा करते हैं, शर'अन इसका भी कोई सबूत नहीं, लिहाजा बिद'अत है और वाजिबुल तर्क है, और बाज़ लोग मय्यत के सरहाने रोटी सालन रखतें हैं, बाज़ क़ब्र में मय्यत के नीचे गद्दा बिछाते हैं, ये बाते भी बेअसल है और वाजिबुल तर्क है,*

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*╠☞_दफन के बाद मुंकर नकीर के सवालों के जवाब बतलाना, सूरह मुज़म्मिल व अज़ान पढ़ना, क़ब्र पुख़्ता व क़ुब्बा बनाना:-*

*✿_बाज लोग मुर्दे को क़ब्र में दफन कर चुकते है तो क़ब्र पर उंगली रख कर मुखातिब करके क़ब्र के सवालात के जवाबात बतलाते हैं,*
*"_ याद रखें! ये रवाफिज़ का तरीक़ा है और इसमे काई खराबियां है, इसलिये ये तलकीन दुरुस्त नहीं, इससे परहेज़ कीजिये,*
*®_ इमदादुल अहकाम -1/115 से 119,*

*☞_ सूरह मुज़म्मिल और अज़ान देना:-*
*✿_ बाज़ जगह दफ़न के बाद हलका बना कर सूरह मुज़म्मिल पढ़ने को या इज्तिमाई तोर पर हाथ उठा कर दुआ करने को लाज़िम समझा जाता है और दफ़न के बाद क़ब्र पर अज़ान भी देते हैं,*
*"_ कुरान व सुन्नत, सहाबा रजियल्लाहु अन्हुम व ताबईन रह. आइम्मा मुजतहिदीन और सल्फ़ सालेहीन रह. से किसी से इसका कोई सबूत नहीं मिलता, लिहाज़ा ये रस्म भी बिद'अत है,*
*®_ उलमा का मुत्तफिक़ फैसला _,"*

*☞_ क़ब्र को पुख्ता बनाना:-*
*✿_ कबर को पक्की (पक्की) बनाने का रिवाज़ बहुत आम हो चुका है, बाज लोग चूने रेत से, बाज सीमेंट ईंट से और बाज़ संग मरमर से पक्का करवाते हैं, ये सब ना-जायज़ है, अहादीस मे साफ साफ मुमानत मोजूद है,*
*®_ फतावा दारुल उलूम मुकम्मल मुदलिल -5/388,*

*☞_ क़ब्र पर क़ुब्बा और कटहरा बनवाना:-*
*✿"_ बाज़ लोग क़ब्र का बालाई हिस्सा तो कच्चा रखते हैं लेकिन क़ब्र का बाक़ी हिस्सा यानि दायें, बाएं और आगे पीछे का हिस्सा पुख्ता बनवाते हैं और क़ब्र के चारो तरफ जालियां या फिर संगे मरमर वगैरा का कटहरा बनवाते हैं' और बाज़ लोग इससे भी आगे बढ़ कर क़ब्र के ऊपर कुब्बा बनवाते हैं, ये सब नाजायज़ और बिद'अत है, हदीस में इसकी मुमानात आई है _,"*
*®"_ फतावा दारुल उलूम मुकम्मल मुदल्लिल, 5/395,*

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*╠☞_ ईसाले सवाब के लिए खत्म की रस्म, (रस्मे सेम),*

*✿_"_ क़ब्रिस्तान से वापसी पर उस दिन या दूसरे दिन या तीसरे दिन जमा होकर कु़राने करीम या आयाते करीमा या कलमा तैयबा का ख़त्म होता है, जिसके लिए अखबारत में भी इस्तेहार दिए जाते हैं, फिर इज्तिमयी इसाले सवाब और दुआ के बाद हाजिरीन का कहीं खाना, कहीं नक़द या कहीं शीरनी वगेरा तक़सीम की जाती है,*

*✿_ अव्वल तो इस तरीक़े से जमा होकर खत्म और इसाले सवाब की रस्म का शरीयत में कहीं सबूत नहीं, इसलिए बि'अदत है, दूसरी इसमे ये खराबी है कि दोस्त अहबाब, रिश्तेदार अमुमन महज़ शिकायत से बचने के लिए आते हैं, इसाले सवाब हरगिज़ उनका मक़सद नहीं होता, अगर कोई शख्स घर बेठ कर पूरा कुरान भी पढ़ कर बख्श दे तो अहले मय्यत हरगिज़ राज़ी नहीं होते और ना आने की शिकायत बाक़ी रहती है, और यहां आ कर यू ही थोडी देर बैठ कर कोई हीला बहाना करके चला जाए तो शिकायत से बच जाता है,* 

*✿_ जो अमल एसे लग्व मक़ासिद के लिए हो उसका कुछ सवाब नहीं मिलता, जब पढ़ने वाले ही को सवाब नहीं मिला तो मुर्दे को क्या बख्शेगा? रह गए फुक़रा मसाकीन, उनको अगर ये मालूम हो जाए कि वहां जाकर सिर्फ पढ़ना पढ़ेगा मिलेगा कुछ नहीं तो हरगिज़ एक भी ना आएगा,*

*✿__ मालूम हुआ कि उनका आना भी महज़ इस तवक्को़ से है कि कुछ मिलेगा, जब उनका पढ़ना दुनियावी गर्ज़ से हो तो इसका सवाब भी नहीं मिलेगा, फिर मय्यत को क्या बख्शेगा? फ़िर कुरान ख्वानी को लोगो ने जाह व माल का ज़रिया बनाया उसका गुनाह सर पर अलग रहा, और जिस तरह कुरान ख्वानी का ऐवज़ लेना जायज़ नहीं, उसी तरह देना भी जायज़ नहीं,*

*✿__ इसाले सवाब और दुआ बहुत अच्छा काम है मगर इसके लिए इकट्ठे होना, या किसी खास दिन, तारीख या वक्त की कोई क़ैद शरियत ने नहीं लगायी है, हर शख्स जब चाहे, जहां भी चाहे किसी भी इबादत का सवाब मय्यत को पहुंचा सकता है और दुआ कर सकता है, अपनी तरफ से नित नई क़ैद, शर्तें और पबंदियां बड़ाना बिद'अत और ना- जायज़ है,*

*®_ इस्लाहे रसूम, 172,* 

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*╠☞_अहले मय्यत की तरफ से दावत, मय्यत के कपड़े खैरात करना, क़ब्र पर चिराग जलाना,*

 *☞_ अहले मय्यत के घर दावत:-*
*✿_ एक रस्म ये की जाती है कि दफन के बाद मय्यत के घर वाले बिरादरी वगेरा को दावत देते हैं, याद रखिये,! कि ये दावत और उसका क़ुबूल करना दोनो ममनू हे, हरगिज़ जायज़ नहीं, इस क़बीह रस्म से इज्तिनाब लाज़िम हे,*

*✿_ अल्लामा शामी रह. ने दावत के मुताल्लिक लिखा है कि, ”इसके हराम होने में कोई शक नहीं_,"*
*"_ और अलावा हनफ़ी मज़हब के दीगर फ़िक़्ही मज़हबों में मसलन शाफ़ई वगेरा का भी इसके ना-जायज़ होने पर इत्तेफ़ाक़ ब्यान किया है और मुसनद अहमद व सुनन इब्ने माजा से रिवायत नक़ल की जाती है कि सहाबा रज़ियाल्लाहु अन्हुम के ज़माने में भी इसको ना जायज़ समझा जाता था,*
*®_ इमदादुल अहकाम, 1/115,*

 *☞_ मय्यत के कपडे, जोड़े खैरात करना:-*
*✿_ एक रस्म ये भी है कि मय्यत के इंतकाल के बाद उसके कपड़े और जोड़े खास कर इस्तेमाल करदा कपड़े खैरात कर देते हैं, हालांकी वारिसों में अक्सर ना-बालिग वारिस भी होते हैं,*
*"_ याद रखिये! मय्यत के तमाम कपड़े और छोटी बड़ी चीज़े उसका तरका है, जिसको शरियत के मुताबिक तक़सीम करना वाजिब है, इससे पहले इन्हें खैरात न किया जाए, अलबत्ता अगर सब वारिस बालिग हों और वहां मोजूद हो और खुशदिली से सब राज़ी हो कर दे दें तो ये खैरात करना जायज़ है, लेकिन ज़रुरी या वाजिब समझना फिर भी बिद्दत है,* 
*®_ इस्लाही रसूम,171,*

 *☞_ क़ब्र पर चिराग जलाना:-*
*✿_ क़ब्रो पर चिराग जलाने की रस्म भी निहायत कसरत से की जाती है, शबे जुमा, शबे मेराज, शबे बरात और शबे कद्र में अक्सर खास तोर पर इसका अहतमाम होता है और बाका़यदा रोशनियां की जाती है, लाइट लगवाई जाती है, यह सब ना जायज़ और बिद'अत है,*
*®_ सुन्नत व बिद'अत, 83,*

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*╠☞_तीसरे दिन ज़ियारत करना, तीजा, दसवा, बीसवा और चालीसवा करना,*

*☞"_ तीसरे दिन ज़ियारत करना;-*
*✿_"_ बाज़ जगह खास अहतमाम से तीसरे दिन मय्यत के मजार पर लोग हाजाशरी देते हैं, जिसकी इब्तिदा इस तरह होती है कि सबसे पहले मय्यत के घर फातिहा, फिर महल्ले की मस्जिद में एक फातिहा, फिर क़ब्रिस्तान में जाकर मुर्दे की क़ब्र पर फ़ातिहा, फ़िर वहा से वापसी पर 40 क़दम पर फ़ातिहा, फ़िर मुर्दे के घर पर दोबारा एक फ़ातिहा, ये तमाम रस्में और पाबंदियां महज़ बिद'अत और वाजिबुल तर्क है,*

*☞"_ तीजा , दसवा , बीसवा और चालीसवा करना:-*
*✿_"_ मय्यत के इंतका़ल के बाद तीजा करना, दसवा, बीसवा और बिल खुसूस चालीसवा करने में, तीन माही और छः माही, बरसी करने का आम रिवाज है, और इन कामों को जरुरी समझा जाता है, और जो ना करें उसको तरह तरह के ताने दिए जाते हैं, ये सब भी बिद'त और नाजायज़ है,*
*®_ उल्मा का मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला,*

*☞"_ शाबान की 14 वी तारिख को ईद मनाना:-*
*✿_"_बाज़ जग लोग शाबान की 14 वी तारीख को मुर्दे की ईद मनाते हैं और क़िस्म क़िस्म के खाने, हलवे, मशरूबात, फल वगेरा बनवाते हैं और ईसाले सवाब की गर्ज़ से किसी गरीब को दे देते हैं,*
*"_ इसाले सवाब तो पसंदीदा और सवाब का काम है जिसके लिए शरीयत ने कोई दिन, तारीख और खाने की कोई पबंदी नहीं लगाई, लिहाज़ा लोगो का अपनी तरफ से ये पबंदियां बढ़ाना बिद'त है और मुर्दे की ईद मनाना बिल्कुल खिलाफे असल और ना-जायज़ है,*
*®_ उल्मा का मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ अहले मय्यत के यहां खाना भिजवाने की गलत रस्में, उर्स मनाना:-*

*☞ अहले मय्यत के यहां खाना भिजवाने की गलत रस्में:-*
*✿_"_ बाज़ जगह मय्यत के रिश्तेदारों के यहाँ से उनके लिए खाना आता है, ये बहुत अच्छी बात है, बाल्की मसनून है लेकिन बाज़ जगह लोग इसमे भी तरह तरह की खराबियों में मुब्तिला हैं, जिनकी इस्लाह ज़रूरी है,*

*✿_"_ मसलन बाज़ जगह अदला बदली का ख्याल रखा जाता है और खाना तक देखा जाता है कि जैसा हमने दिया था वेसा ही है या कम दर्जे का है? क़रीबी रिश्तेदारों की मोजुदगी में अगर दूर का रिश्तेदार भेजना चाहे तो उसे ऐब समझा जाता है और अगर करीबी रिश्तेदार चाहे तंगदस्त हों बदनामी के खौफ से पुर तकल्लुफ और बड़िया खाना भेजना ज़रुरी समझते है चाहे इसके लिए क़र्ज़ लेना पड़े,*

*✿_"_ ये सब रस्में खिलाफे शरीयत है, खाना भजने में बेतकल्लुफी और सादगी से काम लेना चाहिए, जिस अज़ीज़ को तोफ़ीक़ हो वो खाना भेज दे, ना उसमे अदले बदले का ख्याल करना चाहिए, ना इसका कि क़रीबी रिश्तेदार के होते दूर का रिश्तेदार कैसे भेज दे ? बाज़ लोग दूर के रिश्तेदार को हरगिज़ भेजने नहीं देते, ये सब उमूर का़बिले इस्लाह है,*
*®_ इस्लाही रसूम, 177,*

*☞_ बरसी मनाना:-*
*✿_"_ दौरे हाज़िर की एक रस्म यह है कि जिस रोज़ किसी का इंतका़ल हो जाए हर साल उस तारीख को इज्तिमा किया जाता है, जलसे जुलूस मुन'क़द किए जाते हैं दावते होती हैं और बड़े अहतमाम से उसको मनाया जाता है, कुरान और सुन्नत, सहाबा व ताबईन, आइम्मा मुस्लिमीन और सलफे सालेहीन किसी से भी इसका कोई सबूत नहीं, लिहाज़ा इसको तर्क करना वाजिब है_,* 

*☞_ उर्स मनाना,*
*✿_ आज कल बुज़ुर्गाने दीन के मज़ारो पर बड़ी धूम धाम से मुईन तारिखो में उर्स किए जाते हैं, बड़ी तादाद में लोग उसमें शिरकत करते हैं और अपने लिए बाइसे बरकत और सवाब समझते हैं, याद रहे कोई खास तारिख की पबंदी करते हुए हाज़री और उर्स मनाना, मेले लगाना बिदत है,*
*"_ खुसुसन आज कल गाने बजाने, बेपर्दगी और तरह तरह की हराम कारी का रिवाज़ भी बहुत हो गया है, अल्लाह तआला इन तमाम बिद'अतो और गुनाहों से बचने की तोफीक़ अता करे, (आमीन या रब्बुल आलमीन)*

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*╠☞_क़ब्र पर चादर चढ़ाना, मन्नत माँगना, चडावा चढ़ाना, तवाफ़ करना, मुजावर बनना:-*

*☞"_ क़ब्र पर चादर चढ़ाना, मन्नत मांगना:-*
*✿_"_ बुज़ुर्गो के मज़ारो पर क़सरत से चादर चढ़ाना, उनके नाम की मन्नत मांगने का आम रिवाज़ है, ये सब खिलाफ़े शरीयत है और मुतलक़न हराम है _,"*

*☞"_ क़ब्र पर चढ़ावा चडाना:-*
*✿_"_ शबे जुमा, शबे बारात और दूसरे मोको़ पर मज़ारो और कब्रों पर क़िस्म क़िस्म के खाने, मशरुबात, मेवे, मिठाइयां साहिबे मजार को खुश करने के लिए चढाए जाते हैं, या मन्नत पूरी होने पर रखी जाती है, और फ़िर क़ब्र से उठा कर मुजावर और हाज़िरीन में तक़सीम कर दी जाती है, जिसको साहिबे मजार का तबर्रुक समझा जाता है,*

*✿_"_ याद रखिये, ये चढ़ावा हराम है, क्युंकी अल्लाह तआला के सिवा किसी की इबादत जायज़ नहीं और उसे हलाल तबर्रुक समझने में कुफ्र का अंदेशा है, खुदा की पनाह!*

 *☞"_क़ब्र का तवाफ़ और सजदा करना:-*
*✿_"_ बुज़ुर्गो के मज़ारो पर लोग सजदा करने और चारो कोनों का तवाफ़ करने में भी मशगूल नज़र आते हैं, जिनका मुतलक़न हराम होना एक खुली हुई बात है, बल्की ये काम अगर इबादत समझ कर किया है तो कुफ्र है और सिर्फ ताज़ीम के लिए हो तब भी हराम है और गुनाहे कबीरा होने में कोई शक ही नहीं, अल अयाज़ल्लाह,*

*☞"_ क़ब्र का मुजावर बनना:-*
*✿_"_बाज लोग बा ज़ाहिर तर्के दुनिया करके मज़ारात पर जा पड़ते हैं और जो कुछ मजारात पर आता है उस पर ज़िंदगी बसर करते है, अक्सर उनमे से भांग, चरस और दीगर हराम में मुब्तिला रहते हैं, सो मजारात पर इस तरह मुकी़म होना बिलकुल ममनू है और इस गलत रस्म में उनकी मदद करना भी जायज़ नहीं,*

*®_ सुन्नत बनाम बिद'अत, 76-77,* 

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*╠☞_औरतों का क़ब्रिस्तान जाना और उजरत देकर क़ुरान पढ़वाना,*

*☞"_ औरतों का क़ब्रिस्तान जाना:-*
*✿_ आज कल क़ब्रिस्तान बिल ख़ुसूस बुज़ुर्गो के मज़ारो पर औरतों का आना जाना क़सरत से है, जानना चाहिए कि औरतों के वास्ते ज़ियारते क़ुबूर की ये शर्तें हैं ;:-*
*⇛1- जाने वाली औरत जवान न हो बुढ़िया हो, 2- खूब पर्दे के साथ जाए, 3- फिर वहां जा कर शिर्क ना करे, 4- बिद'अत ना करे, 5- क़ब्र पर फूल ना चढ़ाए, चादर न चढ़ाएं, 6- ना क़ब्र वाले से कुछ मांगे, ना मन्नत माने, 7- रोना, धोना और नोहा बाज़ी ना करे, 8- और किसी खिलाफे शरीयत काम का इर्तकाब ना करे,*

*✿_"_ इन शरायत की पाबंदी करने वाली औरत क़ब्रिस्तान जा सकती है और जो औरत इन शरियत की पाबंदी नहीं कर सकती उसका क़ब्रिस्तान और मज़ार पर जाना हराम है,*

*✿_"_ तजुर्बा और मुशाहिदा भी यही है कि औरतों इन शरायत की क़त'अन पाबंदी नहीं करती, बिल खुसूस उर्स वगेरा के मोके़ पर, जो आज कल सरासर गुनाह, बिद'अत और मुफासिद से भरा होता है, लिहाज़ा औरतों का क़ब्रो पर जाना बिला शुबहा हराम और ना जायज़ है, हदीस में ऐसी औरतों पर लानत आई है,*
*®_ इमदादुल अहकाम, 1/720,*

*☞"_ इसाले सवाब के लिए उजरत पर क़ुरान पढ़वाना:-*
*✿_"_ बाज लोग ऐसा भी करते हैं कि मरहूम के इसाले सवाब के लिए उजरत पर एक आदमी रख लेते हैं, जो रोज़ाना मरहूम की क़ब्र पर क़ुराने करीम की तिलावत करता है और मरहूम को सवाब पहुंचाता है,*
*"_ याद रहे उजरत पर (पैसा देकर) इसाले सवाब के लिए कुराने करीम पढ़वाना और पढ़ना हराम है,*

*✿_"_ बाज़ लोग आयाते करीमा और कलमा तैयबा का खत्म भी बराये इसाले सवाब उजरत दे कर करवाते हे, सो उनका खत्म भी उजरत देकर करवाना हराम है,*
*®_ एहसानुल फतावा ,1/375,*

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*╠☞_इसाले सवाब और सदका़ जारिया का फ़ायदा :-*

*✿"_ हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि मैंने सुना रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को, फरमाते थे- जिस घर में कोई मर जाता है और घर वाले उसकी तरफ से सदक़ा करते हैं तो उस सदके़ के सवाब को हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम नूर के तबक़ मे रख कर उसकी कब्र पर ले जाते हैं और खड़े होकर कहते हैं:- ऐ क़ब्र वालों ! यह तोहफा तुम्हारे घर वालों ने तुमको भेजा है इसको क़ुबूल करो, पस मुर्दा खुश होता है और अपने हमसाया को खुशखबरी सुनाता है और उसके हमसाया जिनको कोई तोहफा नहीं पहुंचा है गमगीन रहते हैं _,"*
 *®_ नूरुल सुदूर- 138,*

*☞"_ मां बाप की तरफ से हज करना:-*
*✿_"_ हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि फरमाया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने:- जो शख़्स अपने मां बाप के मरने के बाद उनकी तरफ़ से हज करे तो अल्लाह ताला हज करने वाले को दोज़ख से आज़ाद करता है उन दोनों को पूरे पूरे हज का सवाब मिलता है बगेर कमी के _,"*
 *®_ नूरुल सुदूर-138,*

*☞"_ औलाद के इस्तगफ़ार से मरहूम वालदेन को फ़ायदा पहुंचता है :-*
*✿_"_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नेक बंदे को अल्लाह ताला जन्नत में बहुत बड़ा दर्जा इनायत फरमाएगा, वो ताज्जुब करके कहेगा:- ऐ परवरदिगार! ये दर्जा कहां से मुझको मिला? अल्लाह तआला फरमाएगा - तेरे लड़के के इस्तगफार और दुआ की बरकत से _,"*
 *®_ नूरुल सुदूर- 140,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_ मरने के बाद सात चीजों का सवाब मिलता रहता है:-*

*✿_"_ हज़रत अबू हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि फरमाया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने - जब मोमिन इंतका़ल करता है तो उसका अमल खत्म हो जाता है, मगर सात चीजों का सवाब मरने के बाद भी पहुंचता है:-*
*"_1:- जिसने किसी को इल्मे दीन सिखाया तो उसका सवाब बराबर पहूंचता रहता है, जब तक उसका इल्म दुनिया में जारी है,*
*"_2:-उसकी नेक औलाद हो और उसके हक़ में दुआ करती रहे,*
*"_3- क़ुरान शरीफ (का कोई नुस्खा) छोड़ गया हो (लोग उसे पढ़ते हो),*
*"_4:- मस्जिद बनवाई हो,*
*"_5:- मुसाफिरों के आराम के लिए मुसाफिर खाना बनवाया हो,*
*"_6:- कुंवा या नेहर खुदवाई हो,"*
*"_7:- सदका़ अपनी जिंदगी में दिया हो,*

*✿_"_ तो जब तक ये चीज़ मोजूद रहेंगी, उन सबका सवाब पहुंचता रहेगा _,"*
 *®_ नूरुल सुदूर-140,*

          *╂───────────╂*
*╠☞_सदका जारिया की दो और सूरतें :-*

*✿_ हज़रत अबू सईद खुदरी रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि फरमाया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कि - जिसने किसी को कुछ क़ुरान शरीफ़ पढ़ाया या कोई मस'ला बताया तो अल्लाह तआला उसके सवाब को क़यामत तक ज़्यादा करता है, यहां तक कि वो मिस्ल पहाड़ के हो जाता है _," ( नूरुल सुदूर -140)*

*☞ _ मुर्दे सलाम का जवाब देते हैं:-*
*✿_"_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया - या रसूलअल्लाह ﷺ ! क्या हमारा सलाम मुर्दे सुनते हैं? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया - हां ! सुनते हैं और जवाब देते हैं, मगर तुम नहीं सुन सकते _," ( नूरुल सुदूर - 103)*

*☞_ मरहूम पर चार तरह एहसान करो:-*
*"_ हज़रत अबू सईद खुदरी रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि एक मर्द नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और अर्ज़ किया- या रसूलल्लाह ﷺ मेरे मां बाप इंतका़ल कर चुके, कोई सूरत ऐसी हो सकती है कि मैं अपने मां बाप पर एहसान करूं? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया - हां ! चार तरीक़े से तू उनके साथ एहसान कर सकता है:-*
*1_ एक तो उनके हक़ में दुआ करना,*
*2_ दूसरे जो (अच्छी) वसीयत या नसीहत तुमको की है उस पर क़ायम रहना,*
*3_ तीसरे जो दोस्त उनके हैं उनकी ताज़ीम और इज्ज़त करना,*
*4_ चोथे जो उनका खास क़राबत वाला है उसके साथ मुहब्बत और मेल जोल रखना,*
 *®_ नूरुल सुदूर -125,*

*☞_ मय्यत की ख़ूबियां बयान करो :-*
*✿_ हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि फरमाया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने - मय्यत की ख़ूबियों का ज़िक्र करो, और बुराइयों से अपनी ज़ुबान बंद करो _,"*
 *®_ नूरुल सुदूर - 134,*

 *✿_ अल्हम्दुलिल्लाह__,"*

 *_Ref✿┅╮*
    *↳📚 अहकामे मैय्यत (हजरत डॉ. मुहम्मद अब्दुल हई साहब आरिफी रह.)*
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        ║ *✍🏻तालिब ए दुआ_*
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