*बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम*
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*इस्लाम और दौर ए हाज़िर के शुबहात* .
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*☞_(1)_ अगर इंसान की तख़लीक़ का मक़सद सिर्फ़ इबादत ही है तो क्या इबादत के लिए फ़रिश्ते काफ़ी नहीं थे?*
*"·•●✿_बाज़ लोगों को खास कर नई नसल के लोगों को ये शुबहा होता है कि अगर इंसान की तख़लीक़ का मक़सद सिर्फ इबादत था तो इस काम के लिए इंसान को पैदा करने की क्या ज़रूरत थी? ये काम तो फ़रिश्ते पहले से बहुत अच्छी तरह अंजाम दे रहे थे और वो अल्लाह की इबादत तस्बीह और तक़दीस में लगे हुए थे,*
*"·•●✿_यही वजह है कि जब अल्लाह तआला ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को तख़लीक़ फ़रमाने का इरादा किया और फ़रिश्तों को बताया कि मैं इस तरह का एक इंसान पैदा करने वाला हूं तो फ़रिश्तों बेसाख्ता यह कि आप एक ऐसे इंसान को पैदा कर रहे हैं, जो ज़मीन में फ़साद मचाएगा और खूनरेज़ी करेगा, इबादत तस्बीह व तकदीस तो हम अंजाम दे रहे हैं,*
*"·•●✿_इसी तरह आज भी एतराज़ करने वाले ये एतराज़ कर रहे हैं कि अगर इंसान की तखलीक़ का मक़सद सिर्फ इबादत होता तो इसके लिए इंसान को पैदा करने की जरूरत नहीं थी ये काम तो फरिश्ते पहले ही अंजाम दे रहे थे, बेशक अल्लाह तआला के फरिश्ते अल्लाह तआला की इबादत कर रहे थे लेकिन उनकी इबादत बिल्कुल मुख्तलिफ नोइयत की थी और इंसान के सुपुर्द जो इबादत की गई वो बिल्कुल मुख्तलिफ नोइयत की थी,*
*"·•●✿_इसलिए कि फरिश्ते जो इबादत कर रहे थे उनके मिज़ाज में इसके खिलाफ करने का इमकान ही नहीं था, वो अगर चाहें कि इबादत न करें तो उनके अंदर इबादत छोड़ने की सलाहियत नहीं, अल्लाह तआला ने उनके अंदर से गुनाह करने का इमकान ही ख़त्म फरमा दिया और ना उन्हें भूख लगती है ना उनको प्यास लगती है और ना उनके अंदर शेहवानी तक़ाज़ा पैदा होता है, हत्ताकी उनके दिल में गुनाह का वसवसा भी नहीं गुज़रता, गुनाह की ख्वाहिश और गुनाह पर अक़दाम तो दूर की बात है,*
*"·•●✿_इसलिये अल्लाह ताला ने उनकी इबादत पर कोई अजरो सवाब भी नहीं रखा, क्योंकि अगर फरिश्ते गुनाह नहीं कर रहे हैं तो इसमें उनका कोई कमाल नहीं और जब कोई कमाल नहीं तो फिर जन्नत वाला अजरो सवाब भी मुरत्तब नहीं होगा ,*
*·•●✿_ मसलन एक शख़्स बीनाई से महरूम है, जिसकी वजह से सारी उम्र उसने ना कभी फिल्म देखी, ना कभी टीवी देखा और ना कभी गैर मेहरम पर निगाह डाली, बताइये कि इन गुनाहों के ना करने में उसका क्या कमाल ज़ाहिर हुआ? इसलिए कि उसके अंदर गुनाहों के करने की सलाहियत ही नहीं, लेकिन एक दूसरा शख्स जिसकी बीनाई बिल्कुल ठीक है, जो चीज़ चाहे देख सकता है, लेकिन देखने की सलाहियत मौजूद होने के बावजूद जब किसी गैर महरम की तरफ देखने का तकाज़ा दिल में पैदा होता है तो वो फोरन सिर्फ अल्लाह तआला के खौफ से निगाह नीचे कर लेता है,*
*"·•●✿अब बा ज़ाहिर दोनों गुनाहों से बच रहे हैं लेकिन दोनों मे ज़मीन व आसमान का फ़र्क है, पहला शख्स भी गुनाह से बच रहा है और दूसरा शख्स भी गुनाह से बच रहा है लेकिन पहले शख्स का गुनाह से बचना कोई कमाल नहीं और दूसरे शख्स का गुनाह से बचना कमाल है।*
*"·•●✿ लिहाज़ा अगर मलाइका सुबह से शाम तक खाना ना खायें तो ये कोई कमाल नहीं, क्योंकि उनको भूख ही नहीं लगती और उन्हें खाने की हाजत ही नहीं, लिहाज़ा उनके ना खाने पर कोई अजरो सवाब भी नहीं लेकिन इंसान इन तमाम हाजतो को ले कर पैदा हुआ है, लिहाज़ा कोई इंसान कितने ही बड़े से बड़े मुकाम पर पहुंच जाए, हत्ताकी सबसे आला मुकाम यानी नबुवत पर पहुंच जाए तब भी वो खाने पीने की हाजत रखता है,*
*"·•●✿ इसलिए अल्लाह तआला ने फरिश्तों से फरमाया कि मैं एक ऐसी मखलूक पैदा कर रहा हूं जिसको भूख भी लगेगी, प्यास भी लगेगी और उसके अंदर शहवानी तकाज़े भी पैदा होंगे और गुनाह करने के दाइये भी उनके अंदर होंगे लेकिन जब गुनाह का दाइया पैदा होगा उस वक्त वो मुझे याद कर लेगा और मुझे याद कर के अपने नफ्स को गुनाह से बचा लेगा, उसकी ये इबादत और गुनाह से बचना हमारे यहां क़द्रो क़ीमत रखता है और जिसका अजरो सवाब और बदला देने के लिए हमने ऐसी जन्नत तैय्यार कर रखी है जिसकी सिफत "अरधहा अस्समावाती वल अर्ध" है,*
*·•●✿_इंसान को इस इबादत के लिए इसलिए पैदा फरमाया ताकि ये देखें कि ये इंसान जिसके अंदर हमने मुख्तलिफ क़िस्म के दाइये और ख्वाहिशात रखी हैं, हमने उसके अंदर गुनाहों के जज़्बात और उनका शौक़ रखा है, इन तमाम चीज़ों के बावज़ूद ये इंसान हमारी तरफ आता है और हमें याद करता है या ये गुनाहों के दाइये की तरफ जाता है और उन जज़्बात को अपने ऊपर गालिब कर लेता है इस मक़सद के लिए इंसान को पैदा किया गया_,"*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात-1/65-70)*
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*☞_(2)_इंसानियत पैगम्बर और नबी की मोहताज क्यों है?*
*·•●✿"_ हमने नबी करीम ﷺ को तुम्हारे पास बेहतरीन नमूना बना कर भेजा है ताकि तुम उनकी नक़ल उतारो और उस शख़्स के लिए भेजा है जो अल्लाह पर ईमान रखता हो और यौमे आख़िरत पर ईमान रखता हो और अल्लाह को कसरत से याद करता हो_, (अल अहज़ाब-21)*
*"·•●✿_सवाल ये पैदा होता है कि नमूने की क्या ज़रूरत है? इसलिए कि अल्लाह तआला ने अपनी किताब नाजि़ल फरमा दी थी, हम उसको पढ़ कर उसके अहकाम पर अमल कर लेते? बात दर असल ये है कि नमूने की ज़रूरत इसलिए पेश आई कि इंसान की फितरत और जहालत ये है कि सिर्फ किताब उसकी इस्लाह के लिए काफी और उसको कोई फन कोई इल्म और हुनर सिखाने के लिए काफी नहीं होता, बल्की इंसान को सिखाने के लिए किसी मुरब्बी के अमली नमूने की ज़रूरत होती है, जब तक नमूना सामने नहीं होता, उस वक्त तक महज़ किताब पढ़ने से कोई इल्म और कोई फन नहीं आएगा, ये चीज अल्लाह ताला ने उसकी फितरत में दाख़िल फरमाई है,*
*"·•●✿_ एक इंसान अगर ये सोचे कि मेडिकल साइंस पर किताबे लिखी हुई है, मैं उन किताबों को पढ़ कर दूसरों का इलाज शुरू कर दूं, वो पढ़ना भी जानता है, समझदार भी है, ज़हीन भी है और उसने किताबें पढ़ कर इलाज शुरू कर दिया तो वो सिवाये कब्रिस्तान आबाद करने के कोई और खिदमत अंजाम नहीं देगा,*
*"·•●✿_चूनांचे दुनिया भर का कानून ये है कि अगर किसी शख्स ने एमबीबीएस की डिग्री हासिल कर ली, जब तक वो एक मुद्दत तक किसी माहिर डॉक्टर की निगरानी में अमली नमूना नहीं देखेगा उस वक्त तक सही डॉक्टरी नहीं कर सकता, उसको उस वक़्त तक आम प्रेक्टिस करने की इजाज़त नहीं, अब मर्ज़ (किताबी तफ़सील के साथ) उसकी अमली सूरत मरीज़ की शक्ल में देख कर उसे सही मानी में इलाज करना आएगा, उसके बाद उसको आम प्रेक्टिस की इजाज़त दे दी जाएगी,*
*"·•●✿_ मालूम हुआ कि अल्लाह ताला ने इंसान की फितरत ये रखी है कि जब तक किसी मुरब्बी का अमली नमूना उसके सामने ना हो, उस वक्त तक वो सही रास्ते पर सही तरीक़े पर नहीं आ सकता, और कोई इल्म व फन सही तौर पर नहीं सीख सकता, इस वास्ते अल्लाह तआला ने अंबिया अलैहिस्सलाम का जो सिलसिला जारी फरमाया वो दर हक़ीक़त इस मक़सद को बताने के लिए था कि हमने किताब तो भेज दी लेकिन तन्हा किताब तुम्हारी रहनुमाई के लिए काफी नहीं होगी, जब तक उस किताब पर अमल करने के लिए नमूना तुम्हारे सामने ना हो, क्योंकि कुरान करीम ये कह रहा है कि हमने हुजूर अकदस ﷺ को इस गर्ज़ के लिए भेजा है कि तुम ये देखो कि ये कुरान करीम तो हमारी तालीमात हैं और ये नबी ﷺ हमारी तालीमात पर अमल करने का नमूना है',*
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*☞_ (3)_ जब तक़दीर में सब कुछ लिख दिया गया है तो अमल का क्या फ़ायदा ?*
*"·•●✿_बाज़ लोग कहते हैं कि जब तक़दीर में लिख दिया गया है कि कौन शख़्स जन्नती है और कौन-सा शख़्स जहन्नमी है तो अब अमल करने से क्या फ़ायदा? होगा तो वही जो तक़दीर में लिखा है,*
*"·•●✿_खूब समझ लीजिए कि इसका ये मतलब नहीं है कि तुम वही अमल करोगे जो तक़दीर में लिखा है, बल्कि इसका मतलब ये है कि तक़दीर में वही बात लिखी है जो तुम लोग अपने अख्तियार से करोगे, यानी कि तक़दीर तो इल्मे इलाही का नाम है और अल्लाह ताला को पहले से पता था कि तुम अपने अख्तियार से क्या कुछ करने वाले हो, लिहाज़ा वो सब अल्लाह ताला ने लोहे महफूज़ में लिख दिया लेकिन तुम्हारा जन्नत में जाना या जहन्नम में जाना दर हक़ीक़त तुम्हारे अख्तियारी आमाल ही की बुनियाद पर होगा,*
*"·•●✿_ये बात नहीं है कि इंसान अमल वही करेगा जो तक़दीर में लिखा है, बल्की तकदीर में वही लिख दिया है जो इंसान अपने अख्तियार से अमल करेगा, अल्लाह ताला ने इंसान को अख्तियार दिया है और उस अख्तियार के मुताबिक इंसान अमल करता रहता है, अब ये सोचना कि तक़दीर में तो सब लिख दिया गया है लिहाज़ा हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाओ, ये दुरुस्त नहीं,*
*"·•●✿_चुनांचे जब हुजूर अक़दस ﷺ ने ये हदीस बयान फरमाई तो सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने पूछा लिया कि:- जब ये फैसला हो चुका है कि फलां शख़्स जन्नती और फलां शख़्स जहन्नमी तो फिर अमल करने से क्या फ़ायदा ?*
*"_ सरकारे दो आलम ﷺ ने फरमाया - अमल करते रहो, क्योंकि हर इंसान को वही काम करना होगा जिसके लिए वो पैदा किया गया था, लिहाज़ा तुम अपने अख्तियार को काम में ला कर अमल करते रहो_,"*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 8/167)*
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*☞_(4)_ जब तक़दीर में सब कुछ लिखा हुआ है तो तदबीर की क्या ज़रूरत है?*
*"·•●✿_और ये तक़दीर अजीब व ग़रीब अकी़दा है जो अल्लाह तआला ने हर साहिबे ईमान को अता फरमाया है, इस अकी़दे को सही तौर पर ना समझने की वजह से लोग तरह-तरह की गलतियां करते हैं, पहली बात ये है कि किसी वाक़िए के पेश आने से पहले तक़दीर का अकी़दा किसी इंसान को बेअमली पर आमादा ना करे,*
*"·•●✿_ मसलन एक इंसान तक़दीर का बहाना कर के हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाए और ये कहे कि जो तक़दीर में लिखा है वो हो कर रहेगा, मैं कुछ नहीं करता, ये अमल हुजूर अक़दस ﷺ की तालीम के खिलाफ है, बल्की हुक्म ये है कि जिस चीज़ को हासिल करने की जो तदबीर है उसको अख्तियार करो, उसके अख्तियार करने में कोई कसर ना छोड़ो,*
*"·•●✿_दूसरी बात ये है कि तक़दीर के अक़ीदे पर अमल किसी वाक़िए के पेश आने के बाद शुरू होता है, मसलन कोई वाक़िया पेश आ चुका, तो एक मोमिन का काम ये है कि वो ये सोचे कि मुझे जो तदबीरें अख्तियार करनी थी वो कर ली और अब जो वाक़िया हमारी तदबीर के खिलाफ पेश आया, वो अल्लाह ताला का फैसला है, हम इस पर राज़ी हैं,*
*"·•●✿_ लिहाज़ा वाक़िया पेश आ चुकने के बाद उस पर बहुत ज़्यादा परेशानी बहुत ज़्यादा हसरत और तकलीफ़ का इज़हार करना और ये कहना कि फलां तदबीर अख़्तियार कर लेता तो यूँ हो जाता, ये बात अक़ीदा ए तक़दीर के ख़िलाफ़ है,*
*"·•●✿_दो इंतेहाओं के दरमियान में अल्लाह तआला ने हमें राहे ऐतदाल ये बता दिया कि जब तक तक़दीर पेश नहीं आई, उस वक़्त तक तुम्हारा फ़र्ज़ है कि अपनी सी पूरी कोशिश कर लो, और अहतयाती तदाबीर भी अख़्तियार कर लो, इसलिए कि हमें ये मालूम नहीं कि तकदीर में क्या लिखा है?*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 7/207/*
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*☞_(5)_तकदीर का सही मफ़हूम और हकीकत?*
*"·•●✿_ हज़रत फ़ारूक़े आज़म (उमर) रज़ियल्लाहु अन्हु एक मर्तबा शाम के दोरे पर तशरीफ़ ले जा रहे थे, रास्ते में आपको इत्तेला मिली कि शाम के इलाक़े में ता'ऊन की वबा फ़ूट पड़ी है, ये इतना सख्त ता'ऊन था कि इंसान बैठे बैठे चंद घंटो में ख़त्म हो जाता था, इस ताऊन में हज़ारों सहाबा किराम शहीद हुए हैं, आज भी उर्दून में हज़रत उबैदा बिन जर्राह रज़ियल्लाहु अन्हु के मजार के पास पूरा कब्रिस्तान सहाबा किराम की कब्र से भरा हुआ है जो ताऊन में शहीद हुए,*
*"·•●✿_बहरहाल हज़रत फ़ारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु अन्हु ने सहाबा किराम से मशवरा किया कि वहां जाएं या न जाएं और वापस चले जाएं, उस वक्त हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ रज़ियल्लाहु अन्हु ने एक हदीस सुनाई कि हुज़ूर अकदस ﷺ ने ये इरशाद फरमाया है कि अगर किसी इलाक़े में ताऊन की वबा फ़ूट पड़े तो जो लोग उस इलाक़े से बाहर हैं वो उस इलाक़े के अंदर दाख़िल न हों और जो लोग उस इलाक़े में मुक़ीम हैं वो वहां से ना भागें,*
*"·•●✿_ये हदीस सुन कर हज़रत फ़ारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया कि इस हदीस में आप ﷺ का साफ साफ इरशाद है कि ऐसे इलाक़े में दाख़िल नहीं होना चाहिए, लिहाज़ा आपने वहां जाने का इरादा मुल्तवी कर दिया, उस वक़्त एक सहाबी ( गालिबन) हज़रत अबू उबैदा बिन जर्राह रज़ियल्लाहु अन्हु ने हज़रत फ़ारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया - क्या आप अल्लाह की तक़दीर से भाग रहे हैं? यानि अगर अल्लाह तआला ने इस ताऊन के ज़रिये मौत का आना लिख दिया है तो वो मौत आ कर रहेगी और अगर तकदीर में मौत नहीं लिखी तो जाना और ना जाना बराबर है,*
*"·•●✿_ जवाब में हज़रत फ़ारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया - ए अबू उबैदा! अगर आपके अलावा कोई शख़्स ये बात कहता है तो मै उसको माज़ूर समझता लेकिन आप तो पूरी हक़ीक़त से आगाह हैं आप ये कैसे कह रहे हैं कि तक़दीर से भाग रहा हूं,*
*"·•●✿_फिर फरमाया कि हां! हम अल्लाह की तक़दीर से अल्लाह की तक़दीर की तरफ भाग रहे हैं, मतलब ये था कि जब तक वाक़िया पेश नहीं आया, उस वक्त तक हमें अहतयाती तदाबीर अख्तियार करने का हुक्म है और अहतयाती तदाबीर को अख्तियार करना अकी़दा ए तक़दीर के खिलाफ नहीं, बल्की अकी़दा ए तक़दीर के अंदर दाखिल है, क्यूंकि नबी करीम ﷺ ने हुक्म फरमाया है कि अहतयाती तदाबीर अख्तियार करो, चुनांचे इस हुक्म पर अमल करते हुए वापस जा रह रहे हैं लेकिन इसके बावजूद अगर तकदीर में हमारे लिए ताऊन की बीमारी में मुब्तिला होना लिखा है तो उसको हम टाल नहीं सकते लेकिन अपनी सी तदबीर हमें पूरी करनी चाहिए,*
*"·•●✿_ये है एक मोमिन का अकी़दा कि अपनी तरफ से तदबीर पूरी की लेकिन तदबीर करने के बाद मामला अल्लाह तआला के हवाले कर दिया और ये कह दिया कि अल्लाह हमारे हाथ में जो तदबीर थी वो हमने अख्तियार कर ली, अब मामला आपके अख्तियार में है, आपका जो फैसला होगा हम उस पर राज़ी रहेंगे हमें उस पर कोई ऐतराज़ नहीं होगा, लिहाज़ा वाक़िया के पेश आने से पहले अकी़दा ए तक़दीर किसी को बेअमली पर अमादा ना करे, जैसे बाज़ लोग अकी़दा ए तकदीर को बेअमली का बहाना बना लेते हैं और ये कहते हैं कि जो तकदीर में लिखा है वो तो हो कर रहेगा, लिहाज़ा हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएं, काम क्यों करें? ये दुरुस्त नहीं, क्योंकि इस्लाम कि तालीम ये है कि अपनी तदबीर करते रहो, हाथ पांव हिलाते रहो, लेकिन सारी तदाबीर अख्तियार करने के बाद अगर वाक़िया अपनी मर्जी के खिलाफ पेश आ जाए तो उस पर राज़ी रहो_,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 7/208)*
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*☞_(6)_अल्लाह के तमाम काम क़ाबिले तारीफ क्यों कर रहे हैं?*
*"·•●✿_इस जुमले में दावा तो ये किया गया है कि तमाम तारीफें अल्लाह की है, यानी अल्लाह तबारक व ता'ला का हर काम क़ाबिले तारीफ है, तो कभी कभी इंसान के दिल में ये ख्याल पैदा होता है कि कायनात में बहुत से वाक़ियात हमें ऐसे नज़र आते हैं, जो देखने में अच्छे नहीं लगते, जिनकी बा ज़ाहिर तारीफ नहीं की जाती, जिनको देख कर सदमा होता है, जिनको देख कर तकलीफ होती है, मसलन किसी इंसान के साथ जुल्म हो रहा है, किसी इंसान के साथ ज़्यादती हो रही है, किसी का नाहक़ क़त्ल किया जा रहा है, किसी के ऊपर डाके डाले जा रहे हैं, ये सारे काम भी तो इसी कायनात में हो रहे हैं, और इनमें से कोई काम ऐसा नहीं जिसकी तारीफ की जा सके, तो फिर ये कहना कि अल्लाह के तमाम काम क़ाबिले तारीफ हैं ये कैसे दुरुस्त हुआ?*
*"·•●✿_दर हक़ीक़त "रब्बुल आलमीन" के लफ़्ज़ में इस सवाल का भी जवाब है, वो ये है कि तुम किसी वाक़िए से रंजीदा होते हो, जिससे तुम्हें तकलीफ़ होती है या गम होता है, तो तुम अपनी छोटी सी अक़ल के दायरे में रह कर सोच रहे हो और इस छोटी सी महदूद अक़ल के दायरे में रह कर तुम किसी बात के बारे में फैसला करते हो कि ये नागावार है, ये अच्छी नहीं, ये तकलीफदह है, इसमें गम है, इसमें सदमा है, ये तुम अपनी छोटी सी अक़ल में रह कर सोचते हो, लेकिन बारी ता'ला जो पूरी कायनात का खालिक़ है, जो पूरी कायनात का निजाम चला रहा है, जो सारी कायनात को पाल रहा है, उसकी निगाह में है कि किस लम्हा कौनसा काम इस कायनात की मसलिहत के मुताबिक़ है और कौनसा काम मसलिहत के मुताबिक नहीं है, तुम्हारी छोटी सी अक़ल में उसकी मसलिहत नहीं आ सकती,*
*"·•●✿_इसकी मिसाल यूं समझो कि अगर एक बच्चे के कोई फोड़ा निकल आया है और कोई डॉक्टर उसका ऑपरेशन करके उस फोड़े को निकाल रहा है और बच्चा चीख रहा है और चिल्ला रहा है, तुम उसके चीखने और पुकारने को देख कर ये समझोगे कि उसके साथ ज़्यादती हो रही है और उसके साथ ज़ुल्म हो रहा है, ये बच्चा रो रहा है और चिल्ला रहा है और डॉक्टर है कि उसके ऊपर नश्तर चला जा रहा है, लेकिन अगर ज़रा सी अक़ल से काम लोगे तो पता चलेगा कि उसके साथ जो अमल किया जा रहा है ये दर हक़ीक़त उसके लिए फ़ायदामंद है, यही उसके हक़ में मुफीद है,*
*"·•●✿_ये तो एक छोटी सी मिसाल मैंने दे दी, लेकिन जिसके सामने पूरी कायनात का निज़ाम है, वो वही जानता है कि किस लम्हा कौनसी बात इस कायनात की मसलिहत के मुताबिक़ है, वो रब्बुल आलमीन है, लिहाज़ा जो फैसला करता है उसका फैसला बर हक़ है, उसका फ़ैसला मसलिहत के ऐन मुताबिक़ है_,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 17/275)*
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*☞_(7)_ कौनसी परेशानी रहमत है और कौनसी अज़ाब ?*
*"·•●✿_जब इंसान किसी परेशानी में हो, या कोई बीमारी या तकलीफ़ में हो, या मुफ़लिसी और तंगदस्ती में हो, या क़र्ज़ की परेशानी या बेरोज़गारी की परेशानी में हो, या घर की तरफ से परेशानी में हो, इस क़िस्म की जितनी भी परेशानियां जो इंसान को दुनिया में पेश आती है ये दो क़िस्म की होती हैं:-*
*"·•●✿_(1)_ पहली क़िस्म की परेशानियाँ वो है जो अल्लाह तआला की तरफ़ से क़हर और अज़ाब होता है, गुनाहों की असल सज़ा तो इंसान को आख़िरत में मिलती है, लेकिन बाज़ औक़ात अल्लाह तआला इंसान को दुनिया में भी अजा़ब का मज़ा चखा देता है, जैसे कुरान करीम में इरशाद है:- आखिरत में जो बड़ा अजा़ब आने वाला है, हम उससे पहले दुनिया में थोड़ा सा अजा़ब चखा देते हैं ताकि ये लोग अपनी बद आमालियों से बाज़ आ जायें_,*
*"·•●_(2)_ और दूसरी क़िस्म की तकलीफ़ और परेशानियाँ वो होती हैं जिनके ज़रिये बंदे के दरजात बुलंद करने होते हैं और उसके दरजात की बुलंदी और उसको अजरो सवाब देने के लिए उसे तकलीफें दी जाती है'*
*"·•●✿_ लेकिन दोनों क़िस्म की परेशानियों और तकलीफों में फर्क किस तरह करेंगे कि ये पहली क़िस्म की परेशानी है या दूसरी क़िस्म की परेशानी है? इन दोनों क़िस्म की परेशानियों और तकलीफों की अलामात अलग-अलग है, वो ये है कि अगर इंसान तकलीफों के अंदर अल्लाह तआला की तरफ रूजू करना छोड़ दे और इस तकलीफ के नतीजे में वो अल्लाह तआला की तक़दीर का शिकवा करने लगे, मसलन ये कहने लगे कि (नाऊजु़बिल्लाह) इस तकलीफ और परेशानी के लिए मै ही रह गया था, मेरे ऊपर ये तकलीफ क्यूं आ रही है? ये परेशानी मुझे क्यूं दी जा रही है? वगैरा और अल्लाह ताला की तरफ से दिए हुए अहकाम (रोज़ा, नमाज़, ज़िक्र) छोड़ दे,*
*"·•●_ये इस बात की अलामत है कि जो तकलीफ उस पर आई है ये अल्लाह तआला की तरफ से उस इंसान पर क़हर और अज़ाब है और सज़ा है, अल्लाह तआला हर मोमिन को इससे महफ़ूज़ रखे, आमीन,*
*"·•●✿_ और अगर तकलीफें आने के बावजूद अल्लाह ताला की तरफ रूजू कर रहा है, और दुआ कर रहा है, इस्तगफार कर रहा है और दिल के अंदर तकलीफ पर शिकवा नहीं है, वो तकलीफ का अहसास तो कर रहा है, रंज और गम का इज़हार भी कर रहा है लेकिन अल्लाह तआला की तक़दीर पर शिकवा नहीं कर रहा है बल्कि उस तकलीफ में वो पहले से ज़्यादा अल्लाह की तरफ रूजू कर रहा है, तो ये इस बात की अलामत है कि ये तकलीफ अल्लाह की तरफ से से बतौर तरक्की़ दरजात है और ये तकलीफ उसके लिए अजरो सवाब का बाइस है और ये उस इंसान के साथ अल्लाह की मुहब्बत की दलील और अलामत है_,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 7/108)*
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*☞_(8)_अल्लाह के नेक बंदो पर ही आज़माइश और परेशानियाँ क्यों आती हैं?-*
*"·•●✿_ अब सवाल ये पैदा होता है कि जब किसी को दूसरे से मुहब्बत होती है तो मुहब्बत में उसको आराम पहुंचाया जाता है, राहत दी जाती है, जब अल्लाह ताला को उस बंदे से मुहब्बत हैं तो उसको आराम पहुंचाना चाहिए, फिर अल्लाह तआला उसको तकलीफ़ क्यों दे रहे हैं?*
*"·•●✿_इसका जवाब ये है कि इस दुनिया में कोई इंसान भी ऐसा नहीं जिसको कभी ना कभी कोई ना कोई तकलीफ ना पहुंचे, कोई ना कोई सदमा और परेशानी ना हो, चाहे वो बड़े से बड़ा नबी और पैगम्बर हो, वली हो और सूफी हो या बादशाह हो या सरमाया दार हो, ऐसा नहीं हो सकता कि वो दुनिया में तकलीफ़ के बगैर जिंदगी गुजा़रे,*
*"·•●✿_इसलिये कि ये आलम यानि दुनिया अल्लाह ताला ने ऐसी बनाई है कि इसमे गम और ख़ुशी, राहत और तकलीफ़ सब साथ-साथ चलते हैं, खालिस ख़ुशी और राहत का मुकाम दुनिया नहीं है, बल्कि वो आलम ए जन्नत है, जिसके बारे में फरमाया कि वहां ना कोई खौफ है और न गम है, असल खुशी और राहत का मुक़ाम तो वो है,*
*"·•●✿_दुनिया तो अल्लाह ताला ने बनाई ऐसी है कि इसमें कभी ख़ुशी होगी और कभी गम होगा, कभी सर्दी होगी कभी गर्मी होगी, कभी धूप होगी कभी छाँव होगी, कभी एक हालत होगी कभी दूसरी हालत होगी, लिहाज़ा ये मुमकिन ही नहीं कि कोई शख़्स इस दुनिया में बेगम हो कर बैठ जाए,*
*"•●✿_ इस दुनिया में कोई भी शख्स सदमे गम और तकलीफ से खाली हो ही नहीं सकता, अलबत्ता किसी को कम तकलीफ है, किसी को ज़्यादा है, किसी को कोई तकलीफ है किसी को कोई तकलीफ, अल्लाह ताला ने इस कायनात का निज़ाम ही ऐसा बनाया है कि किसी को कोई दौलत दे दी है और किसी से कोई दौलत ले ली है, किसी को सहत की दौलत दे दी है लेकिन रूपया पैसे की दौलत से महरूम है, किसी को रूपया पैसे की दौलत हासिल है तो सहत की दौलत से महरूम है, किसी के घर के हालात अछे हैं लेकिन मा'शी हलात खराब है, किसी के मा'शी हालात अच्छे हैं लेकिन घर की तरफ से परेशानी है, गर्ज़ हर शख्स का अपना हाल है और हर शख्स किसी न किसी तकलीफ और परेशानी में घिरा हुआ है,*
*"•●✿_एक हदीस शरीफ में हुजूर अक़दस ﷺ ने फ़रमाया - जब अल्लाह ताला किसी किस बंदे से मुहब्बत फ़रमाते है तो उस पर मुख़्तलिफ़ क़िस्म की आज़माइशें और तकालीफ़ भेजते है, वो आज़माइश और तकालीफ उस पर बरिश की तराह बरसती है _,*
*"•●✿_ बाज रिवायात मे आया है कि फरिश्ते पूछते हैं कि या अल्लाह! ये तो आपका महबूब बंदा है, नेक बंदा है आपसे मुहब्बत करने वाला है, फिर इस बन्दे पर इतनी आज़माइश और तकालीफ़ क्यूं भेजी जा रही है? जबाब मे अल्लाह तआला फरमाते हैं कि इस बंदे को इसी हाल में रहने दो, इसलिये कि मुझे ये बात पसंद है कि मै इसकी दुआ की और इसकी गिरिया व ज़ारी, आह व बका की आवाज़ सुनु,*
*"•●✿_ ये हदीस अगरचे सनद के ऐतबार से कमज़ोर है लेकिन इस मानी की मुतादिद हदीसे आयी हैं, बात वही है कि दुनिया में तकलीफ़ और परेशानियां तो आनी है, अल्लाह तआला फरमाते हैं कि ये मेरा महबूब बंदा है, मै इसके लिए तकलीफ को दायमी राहत का ज़रिया बनाना चाहता हूं ताकी इसका दरजा बुलंद हो जाए, और जब आखिरत में मेरे पास पहुँचे तो गुनाहों से बिलकुल पाक साफ़ हो कर पहुंचे_,*
*®_(इस्लाही खुतबात- 7/109,117)*
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*☞ _(9) _ क्या ग़रीब पर अल्लाह ताला को तरस नहीं आता?*
*"•●✿_आप जब ग़रीब और तंगदस्त फ़क़ीर को देखते हैं तो उस पर बड़ा तरस खाते हैं कि इस बेचारे का बड़ा बुरा हाल है, इसका मतलब ये नहीं है कि आपको तो तरस आ रहा है और अल्लाह ताला को इस पर तरस नहीं आ रहा है_,*
*"•●✿_अल्लाह ता'ला तुमसे ज़्यादा जानता है जिसने ये कारखाना बनाया है कि किस पुर्ज़े के साथ क्या बात मुनासिब है, तुम क्या ? तुम्हारा दिमाग क्या? तुम्हारी अक़ल क्या? तुम्हारी समझ और सोच क्या? तुम्हें क्या मालूम कि किस पुर्ज़े को किस काम में लगाया हुआ है? और उससे क्या मतलूब है? क्या इसका अंजाम होना है?*
*"•●✿_ये बातें तो वही अलीम और ख़बीर जानता है, वो आलिम भी है और हकीम भी है, इसलिए वो ही जानता है कि उसके हक़ में गरीबी और तंगदस्ती ही मुनासिब है, अल्लाह ता'ला तुमसे ज़्यादा रहीम है, रहम के नतीजे में उसको ज़्यादा माल व दौलत नहीं दी,*
*®_ (इस्लाही मजालिस-4/251)*
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*☞_(10)_ ये आरज़ू और ख्वाहिश करना कि काश हम हुज़ूर ﷺ या सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के दौर में पैदा होते -_,*
*"•●✿_कभी कभी हमारे दिलों में ऐसा ख्याल आता है कि काश हम भी हुजूर अकदस ﷺ के ज़माने में पैदा हुए होते और उस ज़माने की बरकतें हासिल करते, सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के साथ होते और सरकारे दो आलम ﷺ की ज़ियारत नसीब होती,*
*"•●✿_लेकिन हक़ीक़त ये है कि अल्लाह जल शानहु की मसलिहत है कि उन्होने हमें उस दौर में पैदा नहीं किया, अगर हम अपनी मौजूदा सलाहियतों, मोजूदा ज़र्फ़ के साथ जो आज हमारे अंदर हैं, उस दौर में होते तो शायद अबू जहल, अबू लहब की सफ़ में होते, ये तो सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम का ज़र्फ था और उनकी इस्तेताअत थी कि उन्होने सरकारे दो आलम ﷺ का ऐसे मुश्किल हालात में साथ दिया,*
*"•●✿_अल्लाह तआला जिस शख़्स को जो सआदत अता फ़रमाते हैं, उसके ज़र्फ़ के मुताबिक़ अता फ़रमाते हैं, ये तो सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम का ज़र्फ़ था कि उन्होंने नबी करीम ﷺ की सोहबत से इस्तेफ़ादा भी किया और उसका हक़ भी अदा किया, वो ज़माना बेशक बड़ी स'आदतों का ज़माना था लेकिन साथ में बड़े ख़तरे का ज़माना भी था, आज हमारे पास हुज़ूर अक़दस ﷺ के जो इरशादात हैं वो वास्ता दर वास्ता हो कर हम तक पहुंचे हैं,*
*"•●✿_इसलिए उलमा किराम ने फरमाया कि जो शख़्स ख़बरे वाहिद से साबित शुदा बात का इंकार कर दे और ये कहे कि मैं इस बात को नहीं मानता तो ऐसा शख़्स सख़्त गुनहगार होगा लेकिन काफ़िर नहीं होगा, मुनाफ़िक़ नहीं होगा,*
*"•●✿_ और उस ज़माने में अगर किसी शख़्स ने कोई कलमा हुज़ूर अक़दस ﷺ की ज़ुबान मुबारक से बराहे रास्त सुना और फिर उसका इंकार किया तो इंकार करते ही कुफ़्र में दाख़िल हो गया,*
*"·•●✿_ और हज़रात सहाबा किराम को ऐसी ऐसी आज़माइशें पेश आई हैं कि ये उन्ही का ज़र्फ था कि उन आज़माइशों को झेल गए, खुदा जाने अगर हम उनकी जगह होते तो ना जाने किस शुमार में होते,*
*"·•●✿_उस माहौल में जिस तरह हज़रत सिद्दीक़े अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु, फ़ारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु अन्हु, उस्मान गनी रज़ियल्लाहु अन्हु और अली मुर्तज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु पैदा हुए, उसी माहौल में अबू जहल और अबू लहब भी पैदा हुए, अब्दुल्लाह बिन उबई और दूसरे मुनाफ़ीक़ीन भी पैदा हुए,*
*"·•●✿_ अरे! ये तो अल्लाह तआला की हिकमत है और वही अपनी हिकमत से फैसला फरमाते हैं और अपनी हिकमत से हमें इस दौर में पैदा फरमाया, अगर हम उस दौर में पैदा हो जाते तो खुदा जाने किस असफलस साफिलीन ( हाविया, दोज़ख का सबसे नीचे का या सातवां तबका) मे होते, अल्लाह तआला हिफ़ाज़त फरमाये, आमीन, इसलिये कि वहां ईमान का मामला इतना नाज़ुक था कि ज़रा सी देर में इंसान इधर से उधर हो जाता था,*
*"·•●✿_ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने हुज़ूर ﷺ के साथ जिस जांनिसारी का मामला फरमाया वो उन्ही का ज़र्फ था और उसी के नतीजे में वो इस दर्जे तक पहुंचे, अगर हम जैसा आराम पसंद और आफियत पसंद आदमी उस दौर में होता तो खुदा जाने क्या हश्र बनता, ये अल्लाह तआला का बड़ा फ़ज़ल व करम है कि उसने हमें इस अंजाम से बचाया और इस दौर में पैदा फरमाया जिसमें हमारे लिए बहुत ही आसानियां हैं,*
*"·•●✿_इसलिए अल्लाह तआला ने जिस शख्स के हक़ में जो चीज़ मुकद्दर फरमाई है वही चीज़ उसके हक़ में बेहतर है, लिहाज़ा ये तमन्ना करना कि काश हम सहाबा किराम के ज़माने में पैदा होते ये नादानी की तमन्ना है, और माज़ल्लाह ये अल्लाह तआला की हिकमत पर ऐतराज़ है, जिस शख़्स को अल्लाह तआला जितनी नियामत अता फरमाते हैं वो उसके ज़र्फ़ के मुताबिक अता फरमाते हैं _,"*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 8/175)*
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*☞_(11)_अगर ऐसा हो जाता अगर वैसा हो जाता_,*
*"·•●✿_ लफ़्ज़ "अगर" शैतानी अमल का दरवाज़ा खोल देता है, फरमाया कि _ अगर दुनियावी जिंदगी में तुम्हें कोई मुसीबत और तकलीफ पहुंचे तो ये मत कहो कि अगर यूं कर लेता तो ऐसा ना होता, और अगर यूं कर लेता तो ऐसा हो जाता, ये अगर मगर मत कहो, बल्कि यूं कहो कि अल्लाह ताला की तक़दीर और मशियत यही थी, जो अल्लाह ने चाहा वो हो गया, इसलिए कि ये लफ़्ज़ "अगर" शैतान के अमल का दरवाज़ा खोल देता है,*
*"·•●✿_ मसलन किसी के अज़ीज़ का इंतक़ाल हो जाए तो कहता है कि अगर फलां डॉक्टर से इलाज करा लेता तो ये बच जाता, या मसलन किसी के यहां चोरी हो गई या डाका पड़ गया तो कहता है कि फलां तरीक़े से हिफ़ाज़त कर लेता तो चोरी ना होती, वगैरा ऐसी बाते मत कहो बल्की यूं कहो कि अल्लाह ताला की तक़दीर में ऐसा ही होना मुकद्दर था, इसलिए हो गया, मैं अगर हज़ार तदबीर कर लेता तब भी ऐसा ही होता,*
*"·•●✿_मक़सद ये है कि जब अल्लाह ताला किसी बात का फैसला फरमा दें, और अल्लाह ताला के फैसले के मुताबिक़ कोई वाक़िया पेश आ जाए तो अब उसके बारे में ये कहना कि ये ना होता तो अच्छा था, या ये कहना कि ऐसा हो जाता, ये कहना अल्लाह ताला की तक़दीर पर राज़ी होने के खिलाफ है, एक मोमिन से मुतालबा ये है कि वो अल्लाह ताला की तक़दीर पर और उसके फैसले पर राज़ी रहे, और इस तकदीर के फैसले पर उसके दिल में शिकायत पैदा ना हो और ना दिल में उसकी बुराई हो, बल्की दिलों जान से उस पर राज़ी रहे_,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 7/202,205)*
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*☞_(12)_ क्या ग़म और सदमे का इज़हार रज़ा बिल कज़ा के मुनाफ़ी है?*
*"·•●✿_ अब एक बात और समझ लेनी चाहिए, वो ये कि जैसा कि मैंने पहले अर्ज किया था कि अगर कोई तकलीफदेह वाक़िया पेश आए, या कोई ग़म, या सदमा पेश आए तो हमारे लिए ग़म और तकलीफ पर रोना सब्र के मुनाफी और खिलाफ नहीं और गुनाह नहीं, अब सवाल ये पैदा होता है कि एक तरफ तो आप ये कह रहे हैं कि ग़म और सदमा करना और उसका इज़हार करना जायज़ है, रोना भी जायज़ है, और दूसरी तरफ आप ये कह रहे हैं कि अल्लाह के फैसले पर राज़ी रहना चाहिए, ये दोनों चीज़ें कैसे जमा करें, एक तरफ फैसले पर राज़ी भी हों और दूसरा तरफ गम और सदमा का इज़हार भी करना जायज़ हो ?*
*"·•●✿_खूब समझ लेना चाहिए कि ग़म और सदमा का इज़हार अलग चीज है और अल्लाह के फैसले पर राज़ी होना अलग चीज़ है, इसलिए अल्लाह ता'ला के फैसले पर राज़ी होने का मतलब ये है कि अल्लाह ता'ला का फैसला ऐन हिकमत पर मुबनी है, और हमें उसकी हिकमत मालूम नहीं, और हमें उसकी हिकमत ना मालूम होने की वजह से दिल को तकलीफ पहुंच रही है, क्योंकि ग़म और सदमा भी है और उस ग़म और सदमे की वजह से हम रो भी रहे हैं, और आँखों से आँसू भी जारी हैं,*
*"·•●✿_लेकिन साथ-साथ ये जानते हैं कि अल्लाह ता'ला ने जो फैसला किया है वो बरहक है, हिकमत पर मुबनी है, लिहाज़ा रज़ा से मुराद रज़ा अक़्ली है, यानी अक़्ली तौर पर इंसान ये समझे कि ये फैसला सही है_,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 7/210)*
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*☞_ (13)_ कोई काम "इत्तेफ़ाक़ी" नहीं होता!*
*·•●✿ वैसे तो इंसान के साथ दिन रात वाक़िआत पेश आते रहते हैं लेकिन बाज़ औकात इंसान गफलत की वजह से उन वाक़िआत को इत्तेफाक का नतीजा समझता है और दूसरों से कहता है कि "इत्तेफ़ाक से ऐसा हो गया", मसलन वो कहता है कि मैं घर से बाहर निकला तो इत्तेफ़ाक से एक आदमी मिल गया और उसने कहा कि मुझे एक मुलाजिम की तलाश है, मैंने कहा कि मैं फारिग हूं, चुनांचे उसने मुझे मुलाजिम रख लिया, इसका नाम उसने "इत्तेफ़ाक" रख दिया,*
*·•●✿ हालांकि इस कायनात में कोई काम इत्तेफ़ाक से नहीं होता, बल्कि ये तो एक हाकिमे मुतलक़ का कारखाना ए हिकमत, उसकी मंसूबा बंदी के तहत सब कुछ अंजाम पा रहा है, ये कोई इत्तेफ़ाक नहीं कि तुम घर से निकले और तुम्हारी उस आदमी से मुलाक़ात हो गई, बल्की वो किसी का भेजा हुआ आया था और तुम किसी के भेजे हुए गए थे, दोनों का आपस में मिलाप हो गया और बात बन गई, ये अल्लाह तबारक वा ताला की हिकमत है,*
*·•●✿_ हजरत मौलाना मुफ्ती मुहम्मद शफी साहब कुद्दसुल्लाह फरमाया करते थे कि आज कल की दुनिया जिसको "इत्तेफ़ाक" का नाम देती है कि इत्तेफ़ाक़न ये काम इस तरह हो गया, ये सब गलत है, इसलिए कि इस कायनात में कोई काम इत्तेफ़ाक़न नहीं होता बल्की इस कायनात का हर काम अल्लाह ताला की हिकमत, मशियत और नज़म के तहत होता है, जब किसी काम की इल्लत और सबब हमारी समझ में नहीं आता कि ये काम किन असबाब की वजह से हुआ तो बस हम कहते हैं कि इत्तेफ़ाक़न काम इस तरह हो गया,*
*·•●✿_अरे ! जो इस कायनात का मालिक और ख़ालिक है वही इस पूरे निज़ाम को चला रहा है और हर काम पूरे मुस्तहकम निज़ाम के तहत हो रहा है, कोई ज़र्रा उसकी मशियत के बिना हिल नहीं सकता। अलबत्ता बाज़ औका़त जब हमें किसी काम का जा़हिरी सबब आखों से नज़र नहीं आता तो हम अपनी हिमाकत से कह देते हैं कि इत्तेफ़ाक से ऐसा हो गया, हक़ीक़त में इत्तेफ़ाक कोई चीज़ नहीं बल्कि अल्लाह ताला की बनाई हुई हिकमत है .*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 10/33)*
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*☞_(14)_ ईमान और अक़ीदा के बारे में तरह-तरह के वसवसे और ख़्यालात का आना:-*
*·•●✿_ वसवसे जो इंसान के दिल में आते हैं, 2 क़िस्म के होते हैं, एक वसवसा वो होता है जो अल्लाह बचाए ईमान वगैरह से मुताल्लिक़ आने लगता है, कोई भी इंसान ऐसा नहीं है, ख़्वाह कितना भी बड़ा मुसलमान हो, कितना बड़ा मुत्तक़ी परहेज़गार हो, कभी ना कभी उसके दिल में कोई ख़राब क़िस्म के वसवसे ना आए हों, दिल में शैतान वसवसे डालता है कि हम ईमान तो ले आएं अल्लाह के ऊपर, अल्लाह की वहदानियत पर, रसूलुल्लाह ﷺ की रिसालत पर, मरने के बाद जिंदगी पर, आख़िरत पर, जन्नत पर, जहन्नम पर, लेकिन कभी-कभी शैतान ये वसवसे डालता है कि ये बातें सही भी हैं या नहीं?*
*•●✿"_ इस क़िस्म के ख़्यालात इंसान के दिल में डालता है, ये वसवसा अगर ज़्यादा पीछे पड़ जाए तो फिर इंसान को तबाही की तरफ ले जाता है।*
*®_ (खुतबात उस्मानी 1/282)*
*·•●✿_ जिस शख़्स का दीन की तरफ़, और इस्लाह की तरफ़ ध्यान ही नहीं है, और दिन रात दुनियावी मशागिल में मुनहमिक है, फ़िस्क फ़ुज़ूर में मुब्तिला है, ऐसे शख़्स को वसवसे नहीं आते, वसवसे उस शख़्स को आते हैं जो अल्लाह ताला के रास्ते पर और दीन के रास्ते पर चल पड़ता है, उसको तरह तरह के वसवसे आते हैं। ऐसे वसवसे आते हैं कि उनकी वजह से आदमी को शुबहा होने लगता है कि मेरा ईमान भी बाक़ी रहा है या नहीं?*
*·•●✿ कभी अल्लाह ताला के बारे में मेरे वसवसे आएंगे, कभी अल्लाह के रसूल ﷺ के बारे में वसवसे आएंगे, कभी कुरान ए करीम और हदीस के बारे में वसवसे आएंगे, और कभी शरीयत के अहकाम के बारे में वसवसे आएंगे. अगर ऐसे मौके पर इंसान की सही रहनुमाई ना हो तो इंसान गुमराही के रास्ते पर पड़ जाता है। अल अयाज़ बिल्लाह.*
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*☞_ईमान और अक़ीदे के बारे में तरह-तरह के वसवसे और ख्यालात का आना-2,*
*·•●✿ इन "वसाविस" का इलाज हजरत वाला ये बयान फरमा रहे हैं कि इनका इलाज इसके सिवा कुछ नहीं कि इनकी तरफ तवज्जोह ना की जाए, वसवसे आते हैं आने दो, कोई परवाह ही ना करो, इसकी तरफ ध्यान ही ना हो कि दिल में क्या वसवसा आ रहा है और क्या जा रहा है। ये बात याद रखें कि ये "वसावीस" खुद ईमान की अलामत है,*
*·•●✿ हदीस शरीफ़ में है कि एक सहाबी रज़ियल्लाहु अन्हु ने हुज़ूर ﷺ से पूछा कि या रसूलल्लाह ! बाज़ -औका़त मेरे दिल में ऐसे वसवसे और ऐसे ख़यालत आते हैं और उन ख्यालात को ज़बान पर लाने के मुक़ाबले में जल कर कोयला हो जाना मुझे गवारा है, इसलिए मैं क्या करूँ? सुबहानल्लाह! नबी करीम ﷺ ने क्या जवाब दिया, फरमाया: "खुली ईमान की अलामत है" (सहीह मुस्लिम, किताबुल ईमान, बाब बयानुल वसवसा फिल ईमान)*
*·•●✿_ये खुली ईमान की अलामत है यानी ऐसे वसवसों का और ऐसे ख़्यालात का आना तो खुले ईमान की अलामत है, मोमिन ही के दिल में ऐसे वसवसे आ सकते हैं, और जो मोमिन ना हो या फिस्क व फ़िज़ूर में मुब्तिला हो, उसको ऐसे वसवसे नहीं आते।*
*·•●✿ हजरत हाजी इमदादुल्लाह साहब मुहाजिर मक्की रहमतुल्लाह अलैह इसी हदीस की तशरीह करते हुए फरमाते हैं कि चोर उसी घर में आता है जहां कुछ माल हो, जहां माल ही ना हो वहां चोर क्यों जाएगा, लिहाज़ा दिल में ये चोर (शैतान) इसलिए आ रहा है कि उसको मालूम है कि इस दिल में कुछ है, अगर इस दिल में अल्लाह पर और उसके रसूल ﷺ पर ईमान ना होता तो उस चोर को आने की ज़रूरत ही नहीं थी। लिहाज़ा जब वसवसे और ख्यालात आएं तो पहले इस बात पर शुक्र अदा करो कि अल्हम्दुलिल्लाह ईमान मोजूद है, वरना ये ख़्यालात आते ही नहीं।*
*·•●✿और ईमान के मौजूद होने की दलील इस तरह है कि जब आपके दिल में ये ख़्यालात आते हैं तो आपको परेशानी होती है और ख्यालात का आना आपको बुरा मालूम होता है, अगर दिल में ईमान ना होता तो परेशानी क्यों होती, अगर ईमान ना होता तो दिल में ख़्यालात के आने पर बुरा क्यों लगता, ख़्यालात से तकलीफ़ क्यों होती, मालूम हुआ कि दिल में ईमान है।*
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*☞_(15)_ आप ﷺ की बैसत और क़यामत किस तरह क़रीब है?*
*"·•●✿_1400 साल गुज़र गए अब तक तो क़यामत नहीं आई, नबी ए करीम ﷺ ने फरमाया कि मै और क़यामत इस तरह भेजे गए है जैसे शहादत की उंगली और बीच की उंगली और दोनों उंगलियां उठा कर आप ﷺ ने फरमाया कि जिस तरह इन दोनों उंगलियों के दरमियान ज्यादा फासला नहीं बल्की दोनों मिली हुई है, इसी तरह मैं और क़यामत इस तरह भेजे गए है कि दोनों के दरमियान ज्यादा फासला नहीं, वो क़यामत बहुत जल्द आने वाली है,*
*"·•●✿_ अब लोगों को इश्काल होता है कि 1400 साल तो हुजूर अक़दस ﷺ को गुज़र गए अब तक तो क़यामत आई नहीं, बात दर असल ये है कि सारी दुनिया की उम्र के लिहाज़ से अगर देखोगे, और जबसे दुनिया पैदा हुई है इसका लिहाज़ कर के अगर देखोगे तो 1000-2000 साल की कोई हैसियत नहीं होती,*
*"·•●✿_ इसीलिए आप ﷺ ने फरमाया कि मेरे और क़यामत के दरमियान कोई ज़्यादा फ़ासला नहीं है, वो क़यामत बहुत क़रीब आने वाली है और सारी दुनिया की जो मजमुई क़यामत आने वाली है वो चाहे कितनी ही दूर हो, लेकिन हर इंसान की क़यामत तो क़रीब है, क्यूँकी जो मर गया और जिसको मौत आ गई, उसकी क़यामत तो उसी दिन क़ायम हो गई, इस वास्ते जब क़यामत आने वाली है, चाहे वो मजमुई क़यामत हो या इंफिरादी, और उसके बाद ख़ुदा जाने क्या मामला होने वाला है,*
*"·•●✿_ इसलिये मैँ तुमको डरा रहा हूं कि वो वक़्त आने से पहले तैयारी कर लो, और उस वक़्त के आने से पहले होशियार हो जाओ और अपने आपको अजा़ब ए जहन्नम और अज़ाब ए कब्र से बचा लो.*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 1/213-215)*
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*☞ _ (16)_ क्या नहूसत का कोई खास दिन या खास वक्त़ होता है? माह जुलक़ादाह मनहूस नहीं?*
*"·•●✿_ बात दरसल ये है कि बहुत सी बातें हम लोगों के अंदर गैर क़ौमो से आ गई हैं और गैर क़ौमो के अंदर तोहम परस्ती बहुत है कि फलां दिन मनहूस हैं, फलां दिन बरकत वाला है, हक़ीक़त में कोई दिन मनहूस नहीं होता, साल के 365 दिन सब अल्लाह ताला के पैदा किये हुए हैं, किसी दिन के अंदर भी कोई नहूसत नहीं, कोई बेबरकती नहीं,*
*"·•●✿_हां! बाज़ दिनों को अल्लाह ताला ने अपनी तरफ निसबत दे कर उसकी फजी़लत बड़ा दी है, लिहाज़ा फजी़लत वाले दिन तो बहुत हैं, महीने भी हैं, दिन भी हैं, हफ्ते भी हैं, जिनकी अल्लाह ताला ने फजी़लत बयान फरमायी है, लेकिन किसी दिन के बारे में अल्लाह ताला ने ये नहीं फरमाया कि ये दिन मनहूस है, या इस दिन में बेबरकती है।*
*"·•●✿_हां! बेबरकती और नहूसत जो पैदा होती है, वो हमारे आमाल की वजह से होती है, जिस दिन हमें अल्लाह ताला की तरफ रूजू करने की तौफीक़ हो गई, जिस दिन अल्लाह ताला की बारगाह में हाज़री कि तौफीक़ हो गई, वो दिन हमारे लिए मुबारक दिन है, और खुदा ना करे जिस दिन हम किसी मासियत में मुब्तिला हो गए, किसी नाफरमानी का इरतिकाब हमने कर लिया, वो दिन हमारे लिए मनहूस है, वो दिन अपनी जा़त में मनहूस नहीं था, लेकिन हमने अपने आमाल से उसके अंदर नहूसत पैदा करली,*
*"·•●✿_ लिहाज़ा अल्लाह ताला के तख़लीक़ किये हुए अय्याम में कोई दिन मनहूस नहीं, मनहूस तो अल्लाह ताला की नाफ़रमानी है, गुनाह है, मासियत है, मुनकिरात है, ये सब नहूसत की चीज़ है, हाँ ! जिस दिन अल्लाह तबारक वा ताला हमें इबादत की तौफीक़ दे दे, और हम अल्लाह ताला की तरफ रूजू कर लें वो बरकत का दिन है_,*
*®_ (खुत्बाते उस्मानी- 3/162)*
*"·•●✿_हमारे मा'शरे में ज़ुलक़ा'दा के महीने को जो मनहूस समझा जाता है, और उसको "खाली" का महीना कहा जाता है, यानी ये महीना हर बरकत से ख़ाली है, चुनांचे इस माह में निकाह और शादी नहीं करते और कोई ख़ुशी की तक़रीब नहीं करते, ये सब फ़ुज़ुलियात और तोहम परस्ती है, शरीयत में इसकी कोई असल नहीं।*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात-, 14/48)*
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*☞_(17)_ मा'नी समझे बग़ैर हिफ़्ज़े क़ुरान और तिलावत का क्या फ़ायदा?*
*·•●✿_आज कल लोगो में प्रोपगंडा किया गया है कि कुरान ए करीम को तोता मैना की तरह रटने से क्या फ़ायदा? जब तक इंसान उसके मा'नी और मतलब ना समझे और जब तक उसके माफ़ूम का उसको इदराक ना हो, ये तो एक नुस्खा ए हिदायत है, उसको समझ कर इंसान पढ़े, और उस पर अमल करे तो फायदा हासिल होगा, इसी तरह बच्चों को कुरान ए करीम रटाने से क्या हासिल है? (अल अयाज़बिल्लाह),*
*•●✿_याद रखिए! ये शैतान की तरफ से बहुत बड़ा धोखा और फरेब है जो मुसलमानों के अंदर फैलाया जा रहा है, हुजूर ए अकदस ﷺ को जिन मक़ासिद के लिए भेजा गया, कुरान ए करीम ने उनको मुताद्दिद मुक़ामात पर बयान फरमाया, इन मक़ासिद में 2 चीज़ों को अलहिदा अलहिदा ज़िक्र फरमाया, एक तरफ फरमाया:-*
*(۔يتلوا عليهم آياته)*
*"उनको इसकी आयातें सुनाएं" और दूसरी तरफ फरमाया:-*
*(و يعلمهم الكتاب والحكمة)*
*और उनको किताब और हिकमत सिखाएं,*
۔
*·•●✿_ यानी आप ﷺ इसलिए तशरीफ लाए ताकि किताबुल्लाह की आयातें लोगों के सामने तिलावत करें, लिहाज़ा तिलावत करना एक मुस्तकिल मक़सद है और एक मुस्तकिल नेकी और अज्र का काम है, चाहे समझ कर तिलावत करें, या बे समझे तिलावत करें, और ये तिलावत हुजूर ए अकदस ﷺ कि बैसत के मक़सद में से एक मक़सद है जिसका सबसे पहले ज़िक्र फरमाया,*
*·•●✿_ और कुरान ए करीम की तिलावत ऐसी बेवक़'अत चीज़ नहीं की जिस तरह चाहा तिलावत कर लिया, बल्कि नबी ए करीम ﷺ ने अपने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को बाकायदा तिलावत करने का तरीक़ा सिखाया और उसकी तालीम दी कि किस लफ़्ज़ को किस तरह अदा करना है, किस तरह ज़बान से निकालना है, इसकी बुनियाद पर 2 मुस्तक़िल उलूम वजूद में आए जिनकी नज़ीर दुनिया की किसी क़ौम में नहीं है, एक इल्म-ए-तजवीद दूसरा इल्म-ए-क़िरात .*
*·•●✿_बहरहाल तिलावत बिज्ज़ात खुद एक मक़सद है और ये कहना कि बगैर समझे सिर्फ अल्फ़ाज़ों को पढ़ने से क्या हासिल? ये शैतान का धोखा है, याद रखिए! जब तक किसी शख्स को कुराने करीम समझे बगैर पढ़ना ना आया तो वो शख्स दूसरी मंजिल पर क़दम रख ही नहीं सकता, कुराने करीम समझे बिना पढ़ना पहली सीढ़ी है, इस सीढ़ी को पार करने के बाद दूसरी सीढ़ी का नंबर आता है, अगर किसी शख्स को पहली सीढ़ी पार करने की तौफीक़ ना हुई तो वो दूसरी सीढ़ी तक कैसे पहुंचेगा,*
*·•●✿_ सरकार ए दो आलम ﷺ ने बयान फरमाया कि ये कुरान ऐसा नुस्खा शिफा है कि जो शख्स इसको समझ कर इस पर अमल करे, उसके लिए तो बा'इसे शिफा है ही, लेकिन अगर कोई शख्स महज़ उसकी तिलावत किया करे बिना समझे भी तो इस पर भी अल्लाह तबारक वा ता'ला ने इतनी नेकियां लिखी है कि एक "अलिफ़ लाम मीम" के पढ़ने पर 30 नेकियों का इज़ाफ़ा हो जाता है,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 10/249),*
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*☞_(18)_ क्या सिर्फ कुरान हमारे लिए काफी है? अब हमें किसी और तरफ देखने की ज़रूरत नहीं, एक बड़ी गलत फहमी का इज़ाला _,"*
*•●✿_ यहां एक बहुत बड़ी गलत फहमी का इज़ाला फरमा दिया, जो आज भी बहुत से लोगों के दिलों में पैदा हो रहा है, वो ये कि अल्लाह ताला की किताब कुरान मजीद हमारे लिए काफी है, हमें किसी इंसान की तरफ देखने की ज़रूरत नहीं, हमारे पास किताब कुरान मजीद मौजूद है, इसके तर्जुमे छपे हुए मोजूद हैं, तर्जुमे के ज़रिये कुरान करीम पढ़ेंगे और उसके ज़रिये जो मतलब समझ में आएगा उस पर अमल करेंगे, हमें इस बात की ज़रूरत नहीं है कि नेक लोग क्या कर रहे हैं और किस तरह अमल की तलक़ीन कर रहे हैं,*
*·•●✿_कुरान ए करीम फरमाता है कि ये बात नहीं है, अगरचे पूरा कुरान ही सिराते मुस्तकी़म है लेकिन इस सिराते मुस्तकी़म को समझने के लिए ज़रूरी है कि उन लोगों का रास्ता देखो जिन पर अल्लाह ताला ने अपना इनाम किया, वो बताएंगे तुम्हें अल्लाह की नाज़िल की हुई किताब का मतलब क्या है और इस पर किस तरह अमल करेंगे, अल्लाह तबारक व ता'ला ने इब्तिदा से ही ये सिलसिला जारी रखा है,*
*•●✿_दो चीज़े साथ-साथ उतारी हैं एक तो अल्लाह ने किताब उतारी, तौरात आई, इंजील आई, ज़बूर आई और आख़िर में क़ुरान मजीद आया, दूसरे पैगम्बर भेजे, अल्लाह तबारक वा ता'ला की कोई किताब बिना पैगम्बर के नहीं आई, क्यू? इसलिए ताकि पैगम्बर ये बताएं कि इस किताब का मतलब क्या है और इस पर अमल करने का तरीक़ा क्या होता है और लोगो से कहा जाता है कि तुम इस पैगम्बर की इत्तेबा करो, पैगम्बर के पीछे चलो, पैगम्बर की ज़ात पर ईमान लाओ और उसके तरीक़े पर अमल पेरा हों, दो चीज़ साथ-साथ चलती हैं, किताबुल्लाह और रिजालुल्लाह, अल्लाह की किताब और अल्लाह के रिजाल, दोनों के इम्तिज़ाज से दीन की सही समझ पैदा होती है,*
*·•●✿_ गुमराही जो फैली है वो इस तरह फैली है कि कुछ लोगों ने किताब को तो पकड़ लिया और अल्लाह ने जो पैगम्बर भेजे थे और पैगम्बरों के ज़रिये हिदायत का और सोहबत का जो सामान दिया था उससे क़ता नज़र कर ली, हम बस अल्लाह की किताब पढ़ेंगे, हमारे पास अल्लाह की किताब मौजूद है, हमें नबियों की क्या ज़रूरत है, हमें नमूने की क्या ज़रूरत है, अल अयाज़बिल्लाह _,*
*·•●✿_अरे! अगर नमूने की ज़रूरत ना होती तो पैगम्बरों को भेजने की ज़रूरत क्या थी, मक्का के मुशरिक कहते थे क़ुरान हमारे ऊपर बराहे रास्त क्यू नाज़िल नहीं हुआ, अल्लाह ताला ने ऐसा नहीं किया, क्यूंकी इंसानो की हिदायत के लिए तन्हा किताब काफी नहीं हुआ करती, जब तक मुअल्लिम व मुरब्बी उस किताब का मौजूद ना हो, सैयदुल इंसान की फितरत है, दुनिया का कोई भी इल्म व फन आदमी सिर्फ किताब के पढ़ने से हासिल नहीं कर सकता_,*
*®_( ख़ुतबात उस्मानी- 1/205)*
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*☞_(19)_ क्या कुरान समझने के लिए सिर्फ अरबी जुबान जान लेना काफी है?*
*·•●✿_कुरान-ए-करीम की तफ़सीर एक इन्तेहाई नाज़ुक और मुश्किल काम है, जिसके लिए सिर्फ अरबी ज़बान जान लेना काफ़ी नहीं, बल्कि तमाम मुताल्लिका उलूम में महारत ज़रूरी है, चुनांचे उलमा ने लिखा है कि मुफ़स्सिरे क़ुरआन के लिए ज़रूरी है कि अरबी ज़बान के नहू व सर्फ़ और बलागट व अदब के अलावा इल्म ए हदीस, उसूल ए फ़िक़हा व तफ़सीर और अका़इद व कलाम का वसी व गहरा इल्म रखता हो, क्यूंकी जब तक इन उलूम से मुनासबत न हो, इंसान क़ुरान करीम की तफ़सीर में किसी सही नतीज़े तक नहीं पहुंच सकता।*
*·•●✿ अफ़सोस है कि कुछ अरसे से मुसलमानों में ये ख़तरनाक वबा चल पड़ी है कि बहुत से लोगों ने सिर्फ अरबी पढ़ लेने को तफ़सीर क़ुरान के लिए काफ़ी समझ रखा है, चुनांचे जो शख़्स भी मामूली अरबी ज़बान पढ़ लेता है वो क़ुरान करीम की तफ़सीर में राय ज़नी शुरू कर देता है, बल्की बाज़ औक़ात ऐसा भी देखा गया है कि अरबी ज़बान की निहायत मामूली सुध बुध रखने वाले लोग जिन्हे अरबी पर भी मुकम्मल उबूर भी नहीं होता, ना सिर्फ मनमाने तरीके़ पर क़ुरान करीम की तफ़सीर शुरू कर देते हैं, बल्कि पुराने मुफ़स्सिरीन की ग़लतियां निकालने के दरपे हो जाते हैं, यहां तक कि बाज़ सितम ज़रीफ तो सिर्फ तर्जुमे का मुता'ला कर के अपने आप को कुरान का आलिम समझते हैं और बड़े-बड़े मुफस्सिरीन पर तनक़ीद करने से नहीं चूकते।*
*·•●✿_ खूब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ये इंतेहाई ख़तरनाक तर्जे अमल है जो दीन के मामले में निहायत मुहलिके गुमराही की तरफ ले जाता है, दुनियावी उलूम व फुनून के बारे में हर शख़्स इस बात को समझ सकता है कि अगर कोई शख़्स महज़ अंग्रेजी ज़बान सीख कर मेडिकल साइंस की किताबों का मुता'ला कर ले तो दुनिया का कोई साहिबे अक़ल उसे डॉक्टर तसलीम नहीं कर सकता और ना अपनी जान उसके हवाले कर सकता है, जब तक उसने किसी मेडिकल कॉलेज में बाकायदा तालीम व तरबियत हासिल ना की हो, क्योंकि डॉक्टर बनने के लिए सिर्फ अंग्रेजी सीख लेना काफी नहीं, बल्कि बकायदा डाक्टरी की तालीम और तरबियत हासिल करना ज़रूरी है,*
*·•●✿_ तो आखिर कुरान व हदीस के मामले में सिर्फ अरबी जुबान सीख लेना काफी कैसे हो सकता है? जिंदगी के हर शोबे में हर शख्स इस उसूल को जानता है और उस पर अमल करता है कि हर इल्म व फन के सीखने का एक खास तरीका और उसकी मखसूस शरायत होती है जिन्हे पूरा किये बिना उस इल्म व फन में उसकी राय मोतबर नहीं कहीं जाती तो आखिर कुरान व सुन्नत इतने लावारिश कैसे हो सकती है कि उनकी तशरीह व तफसीर के किसी इल्म व फन के हासिल करने की ज़रूरत ना हो और इसके मामले में जो शख़्स चाहे राय ज़नी शुरू कर दे!!*
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*☞ _(20)_अल्लाह ने क़ुरान को आसान फरमाया, फिर उलमा इसे मुश्किल क्यों कहते हैं?*
*·•●✿"_अल्लाह तआला ने खुद फरमाया कि हमने कुरान करीम को आसान बनाया है, बाज़ लोग कहते हैं कि कुरान करीम ने खुद इरशाद फरमाया है - "और बिला शुबहा हमने कुरान करीम को हिदायत हासिल करने के लिए आसान कर दिया है_,"*
*"·•●✿_ और जब कुरान करीम एक आसान किताब है तो इसकी तशरीह के लिए किसी लंबे चौड़े इल्म और फन की ज़रूरत नहीं, लेकिन ये इस्तदलाल एक शदीद मुगालता है जो खुद कम फहमी और सतहियत पर मुबनी है,*
*"·•●✿_ वक़िआ ये है कि क़ुरान करीम की आयतें दो क़िस्म की है, एक तो वो आयतें हैं जिनमें आम नसीहत की बातें, सबक़ अमोज़ वक़िआत और इबरत व वाज़ नसीहत के मज़ामीन बयान किये गये है, मसलन दुनिया की नापायदारी, जन्नत व दोज़ख़ के हालात, खौफ़े ख़ुदा और फ़िक्रे आख़िरत पैदा करने वाली बातें और ज़िंदगी के दूसरे सीधे सादे हक़ाइक, इस क़िस्म की आयतें बिला शुबहा आसान हैं और जो शख़्स अरबी ज़बान से वाकिफ़ हो वो इन्हें समझ कर हिदायत हासिल कर सकता है, मज़कुरा बाला आयत में इसी क़िस्म की तालीमात के बारे में ये कहा गया है कि इनको हमने आसान कर दिया है हिदायत के वास्ते,*
*·•●✿"_इसके बर खिलाफ़ दूसरी क़िस्म की आयतें वो हैं जो अहकाम व क़वानीन, अका़इद और इल्मी मज़ामीन पर मुश्तमिल हैं, इस क़िस्म की आयतों का कमा हक़क़ा समझना और उनसे अहकाम व मसाइल मुस्तंबत करना हर शख़्स का काम नहीं, जब तक इस्लामी उलूम में बसीरत और पुख्तगी हासिल न हो, यही वजह है कि सहाबा किराम की मादरी ज़ुबान अगरचे अरबी थी और अरबी समझने के लिए उन्हें कहीं तालीम हासिल करने की ज़रूरत नहीं थी लेकिन वो आन हज़रत ﷺ से कुरान-ए-करीम की तालीम हासिल करने में सालो गुज़ारा करते थे,*
*"·•●✿_ अल्लामा सेवती रह. ने इमाम अब्दुर्रहमान सुलमी से नक़ल किया है कि जिन हज़रात ए सहाबा किराम ने सरकारे दो आलम ﷺ से क़ुरान करीम की बाका़यदा तालीम हासिल की है, मसलन हज़रत उस्मान बिन अफ्फान और अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ियल्लाहु अन्हुम वगैरा उन्होंने हमें बताया कि जब वो आन हज़रत ﷺ से कुरान करीम की दस आयातें सीखते तो उस वक्त तक आगे नहीं बढ़ते थे जब तक उन आयतों के मुतल्लिक तमाम इल्मी और इल्मी बातों का अहाता ना कर लें, वो फरमाते थे हमने क़ुरान और इल्म व अमल साथ-साथ सीखा है,*
*·•●✿ _ चुनांचे मौता इमाम मालिक में रिवायत है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रजियल्लाहु अन्हु ने सिर्फ सूरह बक़राह याद करने में पूरे आठ (8) साल सर्फ किये और मुसनद अहमद में हजरत अनस रजियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हममे से जो शख़्स सूरह बक़राह और सूरह आले इमरान पढ़ लेता हमारी निगाहों में उसका मरतबा बहुत बुलंद हो जाता था,*
*·•●✿_ गौर करने की बात ये है कि ये हज़राते सहाबा जिनकी मादरी ज़ुबान अरबी थी, जो अरबी के शैर व अदब में महारत रखते थे और जिनको लम्बे लम्बे क़सीदे मामूली तवज्जो से ज़ुबानी याद हो जाया करते थे उनको क़ुरान करीम को याद करने और उसके मा'नी के लिए इतनी तवील मुद्दत की क्या जरूरत थी कि आठ आठ साल सिर्फ एक सूरत पढ़ने में खर्च हो जाएं?*
*•●✿_इसकी वजह सिर्फ ये थी कि कुरान करीम और उसके उलूम को सीखने के लिए सिर्फ अरबी जुबान की महारत काफी नहीं थी, बल्की इसके लिए आन हजरत ﷺ की सोहबत और तालीम से फायदा उठाना ज़रूरी था, अब ज़ाहिर है कि जब सहाबा किराम को अरबी ज़बान की महारत और नुज़ूले वही का बराहे रास्त मुशाहिदा करने के लिए बावजूद आलिमे क़ुरान बनने के लिए बाक़ायदा हुज़ूर ﷺ से तालीम हासिल करने की ज़रुरत थी तो नुज़ूले क़ुरान के सैंकड़ों साल बाद अरबी की मामूली सुध बुध पैदा कर के या सिर्फ तरजुमे देख कर मुफस्सिर ए कुरान बनने का दावा कितनी हिमाकत और इल्म व दीन के साथ अफसोस नाक मज़ाक है?*
*·•●✿_ ऐसे लोगों को जो इस तरह का मज़ाक करते हैं सरकारे दो आलम ﷺ का ये इरशाद अच्छी तरह याद रखना चाहिए कि, जो शख़्स क़ुरान के मामले में इल्म के बगैर कोई बात कहे तो वो अपना ठिकाना जहन्नम मे बना ले, और जो शख़्स क़ुरान के मामले में (महज़) अपनी राय से गुफ्तगू करे और उसमें कोई सही बात भी कह दे तब भी उसने गलती की_," (अबू दाऊद व नसाई -2/179)*
*®_ (तोज़ीह अल कुरान, आसान तर्जुमा कुरान- 1/32)*
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*☞_(21)_ कुरान ए करीम में साइंस और टेक्नोलॉजी क्यों नहीं?*
*"·•●✿_इससे बाज़ उन गैर मुस्लिमों का ऐतराज़ भी दूर हो जाता है जो ये कहते हैं कि मग़रिबी मुल्कों ने जिन उलूम और फ़ुनून के ज़रिये माद्दी तरक़्क़ी की है उनके बारे में कुरान ने कुछ क्यूं नहीं बताया? और उन लोगों की गलतफहमी भी दूर हो जाती है जो एतराज़ात से मुतास्सिर हो कर इस फ़िक्र में रहते है कि क़ुरान करीम से साइंस वगैरा का कोई न कोई मसला किसी तरह साबित किया जाए, इस कोशिश की मिसाल ऐसी है जैसे कोई शख़्स क़ानून की कोई किताब पर ये एतराज़ करने लगे कि इसमे एटमबम बनाने का तरीक़ा क्यों मज़कूर नहीं?*
*"·•●✿_तो इसके जवाब में कोई दूसरा शख़्स क़ानूनी अल्फ़ाज़ को तोड़ मोड़ कर उससे एटम की थ्योरी निकालने की कोशिश करने लगे, ज़ाहिर है कि ये ऐतराज़ का जवाब नहीं, बल्कि एक मज़ाक़ होगा, इसी तरह जो शख़्स क़ुरान करीम में साइंस और इंजीनियरिंग के मसले ना होने पर ऐतराज़ करते हैं, इसका जवाब ये नहीं है कि कुरानी अल्फाज़ को तोड़ मोड़ कर उससे साइंस के मसले ज़बरदस्ती निकाले जाएं, बल्कि इसका सही जवाब ये है कि कुरान ए करीम ना साइंस या इंजीनियरिंग की किताब है और ना माद्दी तरक़्क़ी हासिल करने के तरीक़े इसका मोज़ू है,*
*"·•●✿_चूंकि ये सारी बाते इंसान अपनी अक़्ल व फिक्र और तजुर्बात व मुशाहिदों के ज़रिये मालूम कर सकता था, इसलिए अल्लाह तआला ने इनको इंसान की अपनी मेहनत और कोशिश और तहक़ीक़ व जुस्तजू पर छोड़ दिया और उन बातों को क़ुरान ए करीम का मोज़ू बनाया जो महज़ इंसानी अक़्ल से मालूम नहीं हो सकती, बल्कि उनको मालूम करने के लिए वही ए इलाही की रहनुमाई ज़रूरी है,*
*"·•●✿_यही वजह है कि इंसान साइंस और टेक्नोलॉजी के मैदान में अक़्ल व फ़िक्र और तजुर्बात व मुशाहिदों के ज़रिये मोजूदा मुक़ाम तक पहुंच गया लेकिन ईमान व यक़ीन की दौलत, क़ल्ब व रूह की पाकीज़गी, आमाल व अख़लाक़ की तामीर, अल्लाह के साथ बंदगी का ताल्लुक़ और आख़िरत की ज़िंदगी का जज़्बा जो वही ए इलाही के बेग़र हासिल नहीं हो सकता था, और जिसे क़ुरान करीम ने अपना मोज़ू बनाया है वो अक़ल और फ़िक्र से हासिल नहीं हो सकता और ना उस वक़्त तक हासिल हो सकता जब तक इस मामले में सच्चे दिल से कुरान की रहनुमाई हासिल न की जाए,*
*"·•●✿_ हमारी इस गुज़ारिश का मक़सद ये हरगिज़ नहीं है कि क़ुरान करीम से साइंस का कोई मसला साबित करना अलल इत्लाक़ जुर्म है, हमें ये तस्लीम है कि क़ुरान करीम में ज़िमनी तौर से साइंस के बहुत से हक़ाइक़ का बयान आया है, चुनांचे जहां इसकी किसी आयत से कोई वाज़े साइंटिफिक बात मालूम हो रही हो उसे बयान करने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन इस मामले में मिंदरजा ज़ेल गलतियों से बचना लाज़मी है,*
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*☞ _ (22)_ कुरान व हदीस ने चांद पर चांद और खला को फतेह करने का फार्मूला क्यों नहीं बताया?*
*"•●✿_ और यहीं से एक और रिवायत का जवाब मिल जाता है, जो आज कल बड़ी कसरत से लोगों के ज़हनों में पैदा होता है, सवाल ये पैदा होता है कि कुरान करीम ने चाँद पर जाने का कोई तरीक़ा नहीं बताया, खला को फ़तेह करने का कोई फ़ॉर्मूला मुहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ ने नहीं बताया, ये सब क़ौमे इस क़िस्म के फ़ॉर्मूले हासिल करके कहां से कहां पहुंच गईं और हम क़ुरान हाथ में रखने के बावजूद पीछे रह गए, तो कुरान और सुन्नत ने हमें ये फॉर्मूला क्यों नहीं बताया?*
*"•●✿_ जवाब इसका यही है कि इसलिए नहीं बताया गया कि वो चीज़ अक़्ल के दायरे की चीज़ थी, अपनी अक़्ल से और अपने तजुर्बे और अपनी मेहनत से जितना आगे बढ़ोगे, उसके अंदर तुम्हें इंकिशाफात होते चले जायेंगे, वो तुम्हारे अक़्ल के दायरे की चीज़ है, अक़ल इसका इद्राक कर सकती थी,*
*"•●✿_ इसी वास्ते इसके लिए नबी भेजने की ज़रूरत नहीं थी, इसके लिए रसूल भेजने की ज़रूरत नहीं थी, इसके लिए किताब नाज़िल करने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन किताब और रसूल की ज़रूरत वहां थी जहां इंसान की अक़ल आजिज़ थी कि बुनियादी हुकूक, ईमान व यक़ीन की दौलत, क़ल्ब व रूह की पाकीज़गी, अमाल व अखलाक़ की तामीर, अल्लाह के साथ बंदगी का ताल्लुक़ और आख़िरत की ज़िंदगी संवारने का जज़्बा जो अम्बिया की रहनुमाई के बैगर हासिल नहीं हो सकता था,*
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*☞ _(23)_अहदीस हम तक कैसे पहुंची ?*
*"·•●✿ _पहली बात ये है कि तालिबे इल्म ने हदीस की जो सनद पढ़ी, इस सिलसिले में उस्ताद से ले कर जनाब नबी करीम ﷺ तक जितने हज़रात उलमा किराम गुजरे हैं जिनके जरिए ये इल्मे हदीस हम तक पहुंची उन सबका नाम लिया, यहां तक कि ये सिलसिला जनाब रसूलुल्लाह ﷺ तक पहुंचा, ये चीज सिर्फ उम्मत ए मुहम्मदिया अलैहिस्सलातु वस्सलाम को हासिल है जो इस रुए ज़मीन पर किसी दूसरे मज़हब और मिल्लत वाले को हासिल नहीं,*
*"·•●✿ _ कोई भी मज़हब और मिल्लत वाला ये दावा नहीं कर सकता कि इसके मुक़्तदी या इसके पैगम्बर और नबी की बातें उन तक इस तरह पहुंची हैं और उनके बारे में एतमाद के साथ ये कहा जा सके कि ये बातें यक़ीनन हमारे नबी ने कहीं हैं, ये ऐतमाद न किसी यहूदी को हासिल है कि वो अपनी तौरात के बारे में कह दे, न किसी नसरानी को हासिल है कि वो अपनी इंजील के बारे में ये बात कह दे, जब आसमानी किताबों का दावा करने वाले अपनी आसमानी किताबों के बारे में ये बात नहीं कह सकते तो अपने पैगम्बर की बातें और उनकी सुन्नतों के बारे में ये बात किस तरह कह सकते है,*
*"·•●✿ _ लेकिन इस उम्मत ए मुहम्मदिया को अल्लाह तआला ने ये ऐज़ाज़ अता फरमाया कि आज जब हम किसी हदीस के बारे में बात करते हैं तो ये कहते हैं कि जनाबे रसूलुल्लाह ﷺ ने ये बात इरशाद फरमाई तो इत्मिनान ए क़ल्ब के साथ ये कह सकते हैं कि नबी करीम ﷺ की तरफ इसकी निस्बत दुरुस्त है और आज अगर कोई हमसे पूछे कि ये कैसे पता चला कि ये बात नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाई थी तो हम उसके जवाब में पूरी सनद पेश कर देंगे,*
*"·•●✿ _ और फिर सिर्फ इतनी बात नहीं कि हमसे ले कर जनाबे रसूलुल्लाह ﷺ तक के सिर्फ नाम महफूज हैं बल्की आप उन नामो में से किसी नाम पर उंगली रख कर पूछ लें कि ये आदमी कौन था? ये किस ज़माने में पैदा हुआ था? किन उस्तादों से इसने तालीम हासिल की थी? कैसा हाफ़िज़ा उसको अल्लाह तआला ने अता फरमाया था? उसकी ज़हानत की कैफियत क्या थी? दयानत और अमानत की कैफियत क्या थी? उसका सारा कच्चा चिठ्ठा और एक एक रावी का सारा रिकॉर्ड किताबों के अंदर महफ़ूज़ है,*
*·•●✿ _ये सही बुखारी आपके सामने मोजूद हैं, इसके कुल 1168 सफ़हात हैं, इसके हर सफ़हे पर कम से कम 10-12 हदीस मोजूद हैं, और हर हदीस के शुरू में मुख़्तलिफ़ रावियों के नाम होते हैं, आप उनमें से किसी रावी का इंतिखाब करें और फिर किसी आलिम से आप पूछ लें कि इस रावी के हालाते जिंदगी क्या हैं? किताबों के अंदर इस रावी की विलादत से ले कर वफात तक के मुतल्लिक सब हालात महफूज़ हैं। इनके हालात जिंदगी क्यों महफूज़ किये गये? इसलिए कि इन्होंने जनाबे रसूलुल्लाह ﷺ की हदीस रिवायत की थी इनके बारे में यह मालूम करना ज़रूरी है कि इनकी रिवायते हदीस पर एतमाद किया जाए या ना किया जाए ?,*
*·•●✿_ फिर रावियों के ये हालाते जिंदगी भी सिर्फ सुनी सुनाई बातों की बुनियाद पर नहीं लिखे गए बल्की एक एक रावी के हालात की जांंच पढ़ताल के लिए अल्लाह जल शानहु ने एसे अज़ीम उलमा जिरह व तादील पैदा फरमाये जो एक एक रावी की दुखती हुई रगों से वाक़िफ़ थे, हज़रात उलमा को अल्लाह ताला ने जो हाफ़िज़ा, जो इल्म, जो तक़वा, जो जद्दो जहद और कुर्बानी का जज़्बा अता फरमाया था, उसकी कोई और दलील इसके अलावा नहीं हो सकती कि अल्लाह ताला ने इसी खास मक़सद के लिए उनको पैदा फरमाया था कि वो अपने नबी ﷺ के इरशादात की हिफ़ाज़त फरमायें,*
*·•●✿_ अल्लामा खतीब बगदादी ने अपनी किताब अल-किफाया में जो उसूले हदीस की मशहूर किताब है, एक मुहद्दिस जो जिरह व तादील के इमाम थे, उनका ये क़ौल नक़ल किया है कि जब हम किसी रावी ए हदीस के हालात की तहक़ीक़ के लिए उसके गांव और उसके मौहल्ले में जाया करते थे, जाना भी इस तरह होता था कि जब ये पता चलता था कि फलां शख्स जो फलां शहर में रहता है, वो हदीस रिवायत करता है और वो शहर से सैकड़ों मील दूर होता था और उस ज़माने में ऊंटों पर घोड़े पर और पैदल सफ़र होते थे, ये सफ़र सिर्फ इस बात की तहक़ीक़ के लिए करते थे कि ये मालूम करें कि जिस रावी ने ये हदीस रिवायत की है वो किस मुका़म का है है,*
*·•●✿_तो उसके वतन में जा कर उसके हालात की छान बीन करते, अब उसके पड़ोसियो से, उसके मिलने जुलने वाले दोस्तों से और उसके आज़ा से पूछ रहे हैं कि ये आदमी कैसा है? ये शख़्स मामलात में कैसा है? अख़लाक़ में कैसा है? नमाज़ रोज़े में केसा है? यहां तक कि जब हम बहुत ज्यादा खोद कुरेद करते तो बाज़ मर्तबा लोग हमसे ये पूछते कि क्या तुम अपनी लड़की का रिश्ता यहां करना चाहते हो? इस वजह से तुम इनके हालात की इतनी छान बीन कर रहे हो?*
*·•●✿_ जवाब में हम कहते कि भाई कोई रिश्ता तो नहीं करना चाहते, लेकिन उन्होंने हुजूर अक़दस ﷺ की एक हदीस रिवायत की है, लिहाज़ा हमे ये तहक़ीक़ मंजूर है कि इनकी रिवायत करदा हदीस को मोतबर माने या ना माने ? इस तरह एक एक रावी के हालात की तहक़ीक़ कर के ये हज़राते उलमा जिरह व ता'दील फन ए अस्मा ए अर-रिजाल की किताबे लिख कर गए हैं,*
*·•●✿ आप बुखारी शरीफ बल्कि सिहाह ए सित्ता और हदीस की कोई भी किताब लीजिए और उस किताब की कोई भी हदीस लीजिए और उस हदीस की सनद में से किसी एक रावी का इंतिखाब कर लीजिए और फिर अस्मा अल रिजाल किताब में हुरूफ ए तहज्जी की तरतीब से उस रावी के हालात देख लीजिये, ये फन अस्मा ए अल रिजाल की तदवीन सिर्फ उम्मत ए मुहम्मदिया का ऐज़ाज़ है,*
*"•●✿_जब तक हदीस की ये किताबे सिहाह ए सित्ता वगैरा वजूद में नहीं आई थी, उस वक्त तक क़ायदा ये था कि जब कोई शख़्स कोई हदीस सुनाता तो उस पर ये लाज़िम और ज़रूरी था कि वो तन्हा हदीस ना सुनाए बल्कि उस हदीस की पूरी सनद भी बयान करे कि ये हदीस मुझे फलां ने सुनाई और फलां को फलां ने सुनाई और फलां को फलां ने सुनाई, पहले पूरी सनद बयान करता फिर हदीस सुनाता तब उसकी बयान करदा हदीस क़ाबिले कुबूल होती थी और सनद के बगैर कोई शख़्स हदीस सुनाता तो कोई उसकी बात सुनने को भी तैयार नहीं होता था,*
*"•●✿_अल्लाह तआला उन हज़रात ए मुहद्दिसीन के दर्जात बुलंद फरमाये, उन्होंने तमाम हदीस इन किताबों की शक्ल में जमा फरमा दी, लिहाज़ा अब किताबों के तवातर के दर्जे तक पहुंच जाने के बाद सनद की इतनी ज़्यादा तहक़ीक़ की और उसको महफ़ूज़ करने की ज़रूरत ना रही क्योंकि अब तवातर से ये बात साबित है कि ये किताब इमाम बुखारी रह. की रिवायत करदा है, लिहाज़ा अब हर हदीस के साथ पूरी सनद का बयान करना ज़रूरी नहीं, बल्कि अब हदीस बयान करने के बाद "रवाह अल बुखारी'' कह देना काफ़ी हो जाता है,*
*"•●✿_लेकिन इसके बावज़ूद हमारे बुज़ुर्गो ने ये तरीक़ा बाक़ी रखा कि अगरचे हर हदीस के बयान करते वक़्त पूरी लंबी सनद बयान ना की जाए लेकिन रिवायत और इजाज़त के तौर पर इस पूरी सनद को महफ़ूज़ ज़रूर रखा जाए, क्योंकी अगर हर हदीस से पहले ये तवील सनद बयान की जाएगी तो लोगों के लिए दुशवारी हो जाएगी, लिहाज़ा अब इतना कह देना काफी है कि इस हदीस को इमाम बुखारी ने रिवायत किया है, और हमसे ले कर इमाम बुखारी तक पूरी सनद हमारे पास महफूज़ है, अल्हम्दुलिल्लाह!*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 14/142)*
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*☞_(24)_ हदीस बयान करने मे अहतयात क्यूं ज़रूरी है ?*
*"·•●✿_ एक ताबई एक सहाबी के बारे में बयान फरमाते हैं कि जब वो सहाबी हमारे सामने हुजूर अकदस ﷺ की कोई हदीस बयान फरमाते तो उस वक्त उनका चेहरा पीला पड़ जाता था और बाज़ अवका़त उन पर कपकपी तारी हो जाती थी कि कहीं कोई बात बयान करने में गलती ना हो जाए हत्ताकी बाज़ सहाबा हदीस नक़ल करने के बाद फरमाया करते थे कि हुजूर अकदस ﷺ ने इस तरह की, या इस जेसी है, या इस क़िस्म की बात बयान फरमाई थी, हो सकता है कि मेरे से बयान करने में कुछ उलट फैर हो गया हो,*
*"·•●✿_ ये सब इसलिए करते ताकि हुजूर अकदस ﷺ की तरफ कोई बात मंसूब करने का गुनाह ना हो, इससे हमें और आपको ये सबक मिलता है कि हम लोग बसा अवका़त तहक़ीक़ और अहतियात के बैगर अहादीस बयान करना शुरू कर देते हैं, ज़रा सी कोई बात कहीं सुनी फ़ौरन हमने कह दिया कि हदीस में यूँ आया है,*
*"·•●✿_ (अल्लाह तआला हिफ़ाज़त फरमाएं आज सोशल मीडिया के दौर में हर जगह बगैर तहक़ीक़ और अहतियात के हदीसों को इस तरह बयान किया जा रहा है और शेयर किया जा रहा है, ना जाने कितना झूठ, ना जाने कितनी मन गढंत बातें हुजूर अकदस ﷺ के नाम पर मंसूब कर के फ़ैलाई जा रही है, और ज़रा भी खोफ़े ख़ुदा नहीं कि इसका वबाल और गुनाह हम पर होंगा),*
*"·•●✿_ हालांकि ये देखिये कि सहाबा किराम जिन्होने बराहे रास्त हुजूर अकदस ﷺ से बातें सुनी, वो कितनी अहतयात कर रहे हैं लेकिन हम इसमें अहतयात नहीं करते, इसलिए हदीस बयान करने में हमेशा बहुत अहतयात से काम लेना चाहिए, जब तक ठीक-ठीक अल्फ़ाज़ मालूम ना हों, उस वक़्त तक उसको हदीस के तौर पर बयान नहीं करना चाहिए,*
*®_ ( इस्लाही ख़ुतबात- 6/67)*
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*☞ _(25) _ दीन-ए-इस्लाम क्या है?*
*"·•●✿_ मशहूर है कि चंद नाबीना अफराद को ज़िंदगी में पहली बार एक हाथी से साबका़ पेश आया, आंखों की बीनाई से तो वो सब मेहरूम थे, इसलिये हर शख्स ने हाथों से टटोल कर उसका सरापा मालूम करना चाहा, चुनांचे किसी का हाथ उसकी सूंड पर गया किसी का उसके पेट पर किसी का कान पर,*
*"·•●✿_ जब लोगों ने उनसे पूछा कि हाथी कैसा होता है? तो पहले शख्स ने कहा कि वो मुडी हुई रबर की तरह होता है, दुसरे ने कहा नहीं वो लम्बा होता है, तीसरे ने कहा नहीं वो तो एक बड़े से पत्ते की तरह होता है, गर्ज़ जिस शख्स ने हाथी के जिस हिस्से को छुआ था उसको मुकम्मल हाथी समझ कर उसकी कैफियत बयान कर दी, और पूरे हाथी की हक़ीक़त किसी के हाथ ना आई,*
*"·•●✿_ कुछ अरसे से हम इस्लाम के साथ ऐसा ही सुलूक कर रहे है, जैसा उन नाबीनाओं ने हाथी के साथ किया था, इस्लाम एक मुकम्मल दीन है जिसकी हिदायात व तालीमात को 6 बडे शोबो मे तक़सीम किया जा सकता है, अक़ाइद, इबादत, मामलात, माशरत, सियासत और अख़लाक़, इन 6 शोबो में से हर एक के मुताल्लिक़ तालीमात दीन का लाज़िम हिस्सा है, जिसे ना दीन से अलग किया जा सकता है, और ना ही सिर्फ इसी को मुकम्मल दीन कहा जा सकता है,*
*"·•●✿_ लेकिन कुछ लोगों ने दीन को सिर्फ अका़इद व इबादत की हद तक महदूद कर के बाक़ी शोबो को नज़र अंदाज़ कर दिया, किसी ने मामलात से मुताल्लिक़ इसके अहकामात को देख कर समझा कि इस्लाम तो दर हक़ीक़त एक फ़लाही माशियत का निज़ाम है, किसी ने इसकी सियासी तालीमात का मुताला किया तो उसने ये समझ लिया कि दीन का असल मक़सद सियासत है और बाकी सारे शोबे इसके ताबे है, या महज़ सानवी हैसियत रखते हैं,*
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*☞_(26)_ क्या इस्लाम सिर्फ इबादत का नाम है?*
*"·•●✿_ लेकिन इस सिलसिले में सबसे ज्यादा फैली हुई गलत फहमी ये है कि दीन सिर्फ अका़इद व इबादात का नाम है और जिंदगी के दूसरे मसाइल से इसका कोई ताल्लुक़ नहीं, इस गलत फहमी को हवा देने में तीन चीजों ने बहुत बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है, एक तो आलमे इस्लाम पर गैर मुस्लिम ताक़तो का सियासी तसल्लुत था जिसने दीन के इस अमल को दफ्तरों बाजा़रो और मा'शरे के इज्तिमाई मामलात से निकाल कर इसे सिर्फ मस्जिदों और बाज़ जगह दीनी मदरसों तक महदूद कर दिया और जब जिंदगी के दूसरे शोबों में इस्लामी तालीमात का चलन न रहा तो रफ्ता रफ्ता ये ज़हन बनता चला गया कि दीन सिर्फ नमाज़ रोज़े का नाम है,*
*"·•●✿_दूसरा सबब वो सेक्युलर ज़हनियत है जिसने समाज के ज़ेरे असर तालीमी इदारों ने परवान चढ़ाया, इस ज़हनियत के नज़दीक दीन व मज़हब सिर्फ इंसान की इन्फिरादि जिंदगी का एक प्राइवेट मामला है, और इसे माशियत व सियासत और मआशरत तक वुसत देने का मतलब घड़ी की सुई को पीछे ले जाना है,*
*"·•●✿_तीसरा सबब खुद अपने तर्जे अमल से पैदा किया और वो है कि दीन से वाबस्ता बहुत से लोगों ने जितनी अहमियत अक़ा'इद व इबादत को दी, उसके मुक़ाबले में मामलात व मआशरत और अख़लाक़ को दसवा हिस्सा भी अहमियत नहीं दी,*
*"·•●✿_ बहार हाल! तीनों असबाब के मजमुए से नतीजा ये निकला कि मामलात, मा'शरत और अखलाक से मुताल्लिक़ इस्लाम की तालीमात बहुत पीछे चली गई, और उनसे ना वाक़फियत इतनी ज़्यादा हो गई कि गोया वो दीन का हिस्सा ही नहीं रही, इसमें कोई शक नहीं कि अका़इद व इबादत दीन का जुज़्व अज़ीम है, इनकी अहमियत को किसी भी तरह कम करना दीन का हुलिया बिगाड़ने के बराबर है,*
*"·•●✿_खुद आन हज़रत ﷺ ने दीन की बुनियाद जिन पांच चीज़ों पर क़रार दी है उनमें से एक का ताल्लुक़ अका़इद से और चार चीज़ों का ताल्लुक़ इबादत से है, और जो लोग अक़ाइद व इबादत से नज़र अंदाज़ कर के सिर्फ अखलाक, मआशरत और मामलात ही को सारा दीन समझते हैं, वो दीन को महज़ एक माद्दा परस्ताना निज़ाम में तबदील करके इसका वो सारा हुस्न छीन लेते हैं, जो दूसरे माद्दा परस्ताना निज़ामो के मुक़ाबले में इसका असल तरह इम्तियाज़ है, और जिसके बगैर अखलाक, मआशरत और मामलात भी एक बेरूह जिस्म और एक बेबुनियाद इमारत की हैसियत अख्तियार कर जाते हैं।*
*"·•●✿_लेकिन ये भी अपनी जगह नाकाबिले इंकार हक़ीक़त है कि दीन की तालीमात अका़इद व इबादत की हद तक महदूद नहीं है, और एक मुसलमान की ज़िम्मेदारी सिर्फ नमाज़ रोज़ा अदा करके पूरी नहीं हो जाती, खुद आन हजरत ﷺ ने इरशाद फरमाया है कि ईमान के सत्तर से ज़्यादा शोबे हैं, जिनमें आला तरीन शोबा तोहीद की शहादत है और अदना तरीन शोबा रास्ते से गंदगी दूर करना है।*
*"·•●✿_ बल्की मामलात, म'आशरत और अख़लाक़ का मामला इस लिहाज़ से ज़्यादा संगीन है कि उनका ताल्लुक़ हुकूक़ुल इबादत से है, और ये उसूल मुस्लिम है कि अल्लाह तआला अपने हक़ूक़ तौबा से माफ़ कर देता है, लेकिन हुकूक़ुल इबादत सिर्फ तौबा व इस्तग़फ़र से माफ़ नहीं होते, उनकी माफ़ी की दो ही सूरतें हैं, या तो हक़दार को उसका हक़ पहुंचाया जाए, या वो ख़ुश दिली से माफ़ी दे दे, लिहाज़ा दीन के ये शोबे ख़ुसूसी अहतमाम का तक़ाज़ा करते हैं,*
*"·•●✿_फिर मामलात, मा'अशरत और अखलाक के तीन शोबों में भी सबसे ज़्यादा लापरवाही मा'अशरत के शोबे में बरती जा रही है, मा'अशरती बुराइयों का एक सैलाब है जिसने हमें लपेट में लिया हुआ है, और अच्छे खासे पढ़े लिखे तालीम याफ्ता बल्की ऐसे दीनदार हज़रात भी जो दीन से अपनी वाबस्तगी के लिए मशहूर समझे जाते हैं इस पहलू से इतने बेखबर हैं कि माशरती खराबियों को गुनाह ही नहीं समझते।*
*®_ [ ज़िक्र व फ़िक्र -18 ]*
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*☞_(27)_ क्या इस्लामी अहकाम के मुताबिक जिंदगी गुज़ारने के लिए दुनिया को छोड़ना पड़ेगा?*
*"·•●✿_ एक जगह दुनिया को ख़ैर और फ़ज़ल बताया गया और दूसरे मुकाम पर दुनिया को मुरदार लिखा गया, दोनों बातों में बराबरी किस तरह मुमकिन है?*
*"_गलत फ़हमी ये है कि अगर कोई शख़्स आज की इस दुनिया में दीन के मुताबिक ज़िंदगी गुज़ारना चाहे और इस्लाम के अहकाम पर अमल करते हुए अपनी ज़िंदगी बसर करना चाहे तो दुनिया छोड़नी होगी, और दुनिया का ऐशो आराम, दुनिया की आसाइश छोड़नी होगी, और दुनिया के माल और असबाब को तर्क किए बिना और इससे नज़र फैरे बिना, दुनिया में इस्लाम के मुताबिक और दीन के मुताबिक जिंदगी नहीं गुज़ारी जा सकती,*
*"·•●✿_और इस गलत फहमी का मंशा दर हक़ीक़त ये है कि हमें ये बात मालूम नहीं है कि इस्लाम ने दुनिया के बारे में क्या तसव्वुर पेश किया है? ये दुनिया क्या चीज़ है? दुनिया के माल व असबाब और इसके ऐशो आराम की हक़ीक़त क्या है? किस हद तक इसे इस्तेमाल किया जा सकता है? और किस हद तक इसे इज्तिनाब जरूरी है ? ये बात ज़ेहनों में पूरी तरह वाज़े नहीं है,*
*"·•●✿_ज़हनो में थोड़ी सी उलझन इसलिये भी पैदा होती है कि ये जुमले कसरत से कानों में पड़ते रहते हैं कि कुरान और हदीस में दुनिया की मज़म्मत की गई है, एक रिवायत में है कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया: कि दुनिया एक मुरदार जानवर की तरह है और इसके पीछे लगने वाले कुत्तों की तरह है,*
*"·•●✿_इसी तरह कुरान करीम में फरमाया गया: ये दुनिया की जिंदगी धोखे का सामान है। कुरान करीम में एक और जगह फरमाया: तुम्हारा माल और तुम्हारी औलाद तुम्हारे लिए एक फितना है, एक आजमाइश है।*
*"·•●✿ _एक तरफ तो कुरान व हदीस के ये इरशादात हमारे सामने आते हैं, जिसमें दुनिया की बुराइयां बयान की गई है, इस एक तरफा सूरत ए हाल को देख कर बाज़ औकात दिल में ये ख्याल पैदा होता है कि अगर मुसलमान बनना है तो दुनिया को बिल्कुल छोड़ना होगा।*
*"·•●✿_लेकिन दूसरी तरफ़ अल्लाह ताला ने क़ुरान करीम में माल को बाज़ जगह "फ़ज़लुल्लाह" क़रार दिया, तिजारत के बारे में फरमाया गया कि तिजारत के ज़रिये अल्लाह के फ़ज़ल को तलाश करना है, चुनांचे सूरह जुमा में जहां जुमा की नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया गया है, इसके बाद आगे इरशाद फरमाया कि जब जुमा की नमाज़ खत्म हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ, और अल्लाह के फ़ज़ल को तलाश करो,*
*"·•●✿_ तो माल और तिजारत को अल्लाह का फ़ज़ल क़रार दिया, इसी तरह बाज़ जगह कुरान करीम ने माल को खैर यानी भलाई क़रार दिया, और ये दुआ तो हम और आप सब पढ़ते रहते हैं कि (रब्बाना आतिना फिददुन्या... .) ए अल्लाह हमें दुनिया में भी अच्छाई अता फरमा और आखिरत में भी अच्छाई अता फरमा।*
*"·•●✿_ तो बाज़ औकात ज़हन में ये उलझन पैदा होती है कि एक तरफ तो इतनी बुराई की जा रही है, इसको मुर्दार कहा जा रहा है, इसके तलबगारों को कुत्ता कहा जा रहा है, और दूसरी तरफ इसको अल्लाह का फ़ज़ल क़रार दिया जा रहा है, खैर कहा जा रहा है, तो इनमें से कौन सी बात सही है?*
*•●✿_ वाक़िया यूं है कि क़ुरान व हदीस को सही तरीक़े से पढ़ने और समझने के बाद जो सूरत ए हाल वाज़ेह होती है, वो ये है कि अल्लाह तबारक व तआला और अल्लाह के रसूल ﷺ हमसे ये नहीं चाहते कि हम दुनिया को छोड़ कर बैठ जाएं, ईसाई मज़हब में तो उस वक्त तक अल्लाह का कुर्ब हासिल नहीं हो सकता था, जब तक इंसान बीवी बच्चों और घर बार और कारोबार को छोड़ कर नहीं बैठ जाए,*
*•●✿_ लेकिन नबी करीम ﷺ ने जो तालीमात हमें अता फरमायी हैं, उसमें ये कहीं नहीं कहा कि तुम दुनिया को छोड़ दो, कमाई नहीं करो, तिजारत नहीं करो, माल हासिल नहीं करो, मकान नहीं बनाओ, बीवी बच्चों के साथ हंसो बोलों नहीं, खाना नहीं खाओ, इस क़िस्म का कोई हुक्म शरीयत ए मुहम्मदिया में मोजूद नहीं, हां! ये ज़रूर कहा है कि ये दुनिया तुम्हारी आखिरी मंजिल नहीं, ये तुम्हारी जिंदगी का आखिरी मक़सद नहीं,*
*•●✿_ये कहना ही गलत है कि हमारी जो कुछ कारवाई है वो सिर्फ इसी दुनिया से मुताल्लिक़ है, इसके आगे हमें कुछ नहीं सोचना है और ना ही कुछ करना है, बल्कि ये कहा गया है कि ये दुनिया दर हक़ीक़त इसलिए है ताकि तुम इसमें रह कर अपनी आने वाली अब्दी ज़िंदगी यानी आखिरत की जिंदगी के लिए कुछ तैयारी कर लो, और आखिरत को फरामोश किए बगैर इस दुनिया को इस तरह इस्तेमाल करो कि इसमे तुम्हारी दुनियावी जरूरियात भी पूरी हो, और साथ-साथ आखिरत की जो जिंदगी आने वाली है उसकी भलाई भी तुम्हारे पेशे नज़र हो,*
*•●✿_ये तो एक खुली हुई हक़ीक़त है कि जिसे कोई बुरे से बुरा आदमी भी इंकार नहीं कर सकता, हर इंसान को एक दिन मरना है, मौत आनी है, ये वो हक़ीक़त है जिसमें आज तक कोई शख्स इंकार नहीं कर सका, यहां तक कि लोगों ने खुदा का इंकार कर दिया, लेकिन मौत का मुन्किर आज तक कोई पैदा नहीं हुआ, किसी ने ये नहीं कहा कि मुझे मौत नहीं आएगी, मैं हमेशा ज़िंदा रहूंगा, और इसमें कोई इख्तिलाफ नहीं कि किसी को नहीं मालूम कि किसकी मौत कब आएगी? बड़े से बड़े वैज्ञानिक, बड़े से बड़े डॉक्टर, बड़े से बड़ा सरमायदार, बड़े से बड़ा फलसफी, वो ये नहीं बता सकता कि मेरी मौत कब आएगी?*
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*☞ _मरने के बाद क्या होना है?*
*·•●✿_और तीसरी बात ये है कि मरने के बाद क्या होना है? आज तक कोई विज्ञान, फलसफा कोई ऐसा इल्म इजाद नहीं हुआ जो इंसान को बराहे रास्त ये बता सके कि मरने के बाद क्या हालात पेश आते हैं, आज मगरिब की दुनिया ये तो तसलीम कर रही है कि कुछ ऐसे अंदाज़े मालूम होते हैं कि मरने के बाद भी कोई जिंदगी है, इस नतीजे तक वो पहूंच रहे हैं, लेकिन उसके हालात क्या हैं? उसमे इंसान का क्या हश्र बनेगा? इसकी तफ़सीलात दुनिया की कोई विज्ञान नहीं बता सकी,*
*"•●✿_हां! एक कलमा "ला इलाहा इल्लल्लाहु मुहम्मदुर रसूलुल्लाह" पर जो भी ईमान लाया हो, वो बता सकता है कि मुहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ वही के ज़रिये जो भी खबर ले कर आये हैं, वो सच्ची बात है, उसमें झूठ का कोई इमकान नहीं, और मुहम्मद ﷺ ने फरमाया कि तुम्हारी असल जिंदगी वो है जो मरने के बाद शुरू होने वाली है, और ये मौजूदा जिंदगी एक हद पर जा कर खत्म हो जाएगी, और वो जिंदगी कभी खत्म होने वाली नहीं, बल्कि अब्दी है, हमेशा हमेशा के लिए है।*
*"•●✿_ तो इस्लाम का पैगाम ये है कि दुनिया में जरूर रहो, और दुनिया की चीज़ों से ज़रूर फ़ायदा उठाओ, दुनिया से लुत्फ़ अंदोज़ भी हों लेकिन साथ-साथ इस दुनिया को आखिरी मिशन और आखिरी मंज़िल ना समझो, अगर तुम दुनिया को इसलिए इस्तेमाल कर रहे हो कि ये आख़िरत की मंजिल के लिए एक सीढ़ी है, तो ये दुनिया तुम्हारे लिए ख़ैर है, और ये अल्लाह का फ़ज़ल है जिस पर अल्लाह का शुक्र अदा करो,*
*"•●✿_ और अगर दुनिया को इस नियत से इस्तेमाल कर रहे हो कि यही तुम्हारी आखिरी मंजिल है, और बस इसकी भलाई भलाई है, और इसकी अच्छाई अच्छाई है, और इससे आगे कोई चीज़ नहीं, तो फिर ये दुनिया तुम्हारे लिए हलाकत का सामान है,*
*"•●✿_ये दोनों बाते अपनी जगह सही हैं कि ये दुनिया मुर्दार है, जबकी इसकी मोहब्बत और इसका ख्याल दिल व दिमाग पर इस तरह छा जाए कि सुबह से लेकर शाम तक दुनिया के सिवा कोई ख्याल ना आए, लेकिन अगर दुनिया को अल्लाह ता'आला के लिए इस्तेमाल कर रहे हो तो फिर ये दुनिया भी इंसान के लिए दुनिया नहीं रहती, बल्की दीन बन जाती है और अजरो सवाब का ज़रिया बन जाती है,*
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*☞ _दुनिया को दीन बनाने का तरीक़ा:-*
*"·•●✿_ और दुनिया को दीन बनाने का तरीक़ा ये है कि माल कमाने में हराम तरीक़ों से बचो, और तुम्हारी इस हासिल शुदा दौलत पर जो फ़राइज़ आ'इद किये गये हैं, ख्वाह ज़कात की शक्ल में हो, या खैरात व सदक़ात की शक्ल में हो, उनको बजा लाओ, और जिस तरह अल्लाह ताला ने तुम्हारे साथ अहसान किया है तुम दूसरों के साथ अहसान करो, अगर इंसान ये अख्तियार करले और जो नियामत इंसान को मिले उस पर अल्लाह ताला का शुक्र अदा करे, तो दुनिया की सारी नियामतें और दौलतें दीन बन जाएंगी, और वो सब अजरो सवाब बन जाएंगी,*
*"·•●✿_ फिर खाना खायेगा तो भी अजर मिलेगा, और पानी पिएगा तो भी अजर मिलेगा, तिजारत करेगा तो भी अजर मिलेगा, और दुनिया की और राहतें अख्तियार करेगा तो उस पर भी अजर मिलेगा, क्यूँकि उसने इस दुनिया को अपना मक़सद नहीं बनाया, बल्कि मक़सद के लिए एक रास्ता और एक ज़रिया क़रार दिया है और इसके ज़रिये वो अपनी आखिरत तलाश कर रहा है, हराम कामों से बचता है, और अपने फ़राईज़ और वाजिबात को अदा करता है तो सारी दुनिया दीन बन जाती है, और वो दुनिया अल्लाह ताला का फ़ज़ल बन जाती है,*
*"_अल्लाह ताला हम सबको इस बात की सही समझ भी अता फरमाये और इसके मुताबिक़ अमल करने की तोफीक अता फरमाये, आमीन।*
*®_ [इस्लाही ख़ुतबात-3- 123]*
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*☞_ (28)_क्या दीन पर चलना मुश्किल है?*
*"·•●✿ _ बाज़ औका़त इन अहादीस को पढ़ पढ़ कर हम जैसे कम हिम्मत लोगों के ज़हन में यह ख्याल पैदा होने लगता है कि दीन पर चलना हमारे बस की बात नहीं, ये हज़रत अबू हुरैरा, हज़रत अबू बकर और हज़रत उमर और असहाबे सुफफ़ा सहाबा रज़ियाल्लाहु अन्हुम ने दीन पर अमल कर के दिखाया, हमारे बस में ये नहीं है कि इतने दिनों की भूक बरदाश्त कर लें, और एक चादर ओढ़ कर अपनी ज़िन्दगी गुज़ार लें,*
*"·•●✿ _ ख़ुब समझ लीजिए कि ये वाक़ियात सुनाने का ये मक़सद नहीं है कि दिल मे मायूसी पैदा हो, बल्की ये वाक़ियात सुनाने का मंशा ये है कि हुज़ूर अक़दस ﷺ ने सहाबा किराम के अंदर ये ज़ेहनियत पैदा फ़रमाई जिसका आला तरीन मैयार वो था, लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि हर इन्सान उस आला मैयार पर पहुँचने के बाद ही निजात हासिल कर सकेगा, बल्कि हर इंसान की ताक़त और इस्तेतात अलग अलग है, और अल्लाह ताला ने कोई हुक्म इन्सान की ताक़त और इस्तेतात से ज़्यादा नहीं दिया,*
*"·•●✿ _किसी ने ख़ूब कहा है:- देते है ज़र्फ़ कदह ख़्वार, यानि जिस शख्स का जितना ज़र्फ़ होता है, अल्लाह ताला उसके ज़र्फ़ के मुताबिक़ उसके साथ मामला फरमाते है,*
*®_[इस्लाही खुतबात- 8/78]*
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*☞_(29) दीन ए इस्लाम का मुझसे किस वक़्त क्या मुतालबा है ? और इस मुतालबे पर मुझे किस तरह अमल करना है?*
*•●✿ _ हज़रत आरिफ रेह. ने एक अज़ीम बात इरशाद फ़रमाई, फ़रमाया कि देखो ! दीन नाम है वक़्त के तक़ाज़े पर अमल करने का़ कि इस वक़्त दीन का मुझसे क्या मुतालबा है? इस मुतालबे को पूरा करने का नाम दीन और इत्तेबा है, अपना शोक़ पूरा करना और अपनी तजवीज़ पर अमल करने का नाम दीन नहीं,*
*●✿ _ ये बड़ी अहम बात है, और समझने की बात है, इसको ना समझने की वजह से दीन की ताबीर में दीन की तशरीह में, और दीन पर अमल करने मे बहुत कोताही वाक़े है, वो ये कि जब दिल पर किसी ख़ास काम की अहमियत सवार हो जाती है कि ये काम करना है, तो इसका नतीजा ये होता है कि अगर वक़्त का तक़ाज़ा किसी और काम के करने का होता है, तो अब इस शख़्स को इस वक्त के तक़ाज़े की परवाह नहीं होती,*
*"•●✿ _ मसलन एक मौलाना साहब है, उनको सबक़ पढ़ाना है और इसके लिया मुताला करना है वगैरा, उनके कामों की अहमियत तो उनके दिल में है लेकिन मेरे घर वालों के भी कुछ हुक़ूक़ मेरे ज़िम्मे हैं, और मुझे कुछ वक़्त उनको भी देना चाहिये, इसकी तरफ़ मौलाना साहब को ध्यान नहीं, हालांकि वक़्त का तक़ाज़ा ये है कि इस वक़्त को आप घर वालो के लिए इस्तेमाल करें,*
*"•●✿ _ अपने तर्ज़े अमल को सही साबित करने के लिए बाज़ मर्तबा लोग सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम की कुर्बानियों का हवाला देते हैं और कहते है कि जब तक क़ुर्बानी नहीं देंगे उस वक़्त तक दीन का गलबा नहीं होता और दीन के अंदर आला मुक़ाम हासिल नहीं होता, इसके बारे मे सहाबा किराम की मिसालें मोजूद है,*
*"•●✿ _ जैसे हज़रत हंज़ला रज़ियल्लाहु अन्हु, आज ही शादी हुई और नई बीवी घर में मौजूद है और अगले दिन जिहाद में जाने का ऐलान हो गया तो अभी ये गुस्ले जनाबत भी नहीं कर पाए थे कि जिहाद में शामिल हो गए, अब वक़्त का तक़ाज़ा तो ये लगता है कि अभी घर में नई बीवी आयी है, उसके साथ कुछ वक़्त गुज़ारा जाये लेकिन ये सहाबी उस बीवी को छोड़ कर जिहाद में चले गए,*
*•●✿ _खूब समझ लीजिए! दो बात अलग अलग हैं, जिनको सहाबा किराम की मिसालों मे हमेशा मद्दे नज़र रखना चाहिये, एक ये कि बाज़ अवका़त हजरत सहाबा किराम ने अपने घर वालों को ऐसे मौक़े पर छोड़ा जबकि घर से निकलना फर्जे़ ऐन हो गया था, मसलन दुश्मन हमला आवर हो गया और नबी करीम ﷺ की तरफ से नफीर आम आ गया कि हर शख्स बाहर निकल जाए, अब हर शख्स पर फर्जे़ ऐन है कि वो हिस्सा ले, इस सूरत में ना वाल्दैन की इजाज़त की ज़रुरत है, ना बीवी की इजाज़त की ज़रुरत है, यहां तक फुक़हा किराम फरमाते है कि इसे मौक़े पर औरत अपने शौहर की इजाज़त के बगेर निकल सकती है, और गुलाम अपने आका़ की इजाज़त के बगैर निकल सकता है, ये एक ग़ैर मामूली सूरत ए हाल है, जबकि दुश्मन हमला आवर हो गया, उस वक़्त का तक़ाज़ा ही ये था,*
*"•●✿_ दूसरी तरफ़ वो मिसालें है जिनमे किसी सहाबी ने अपनी ज़ात पर मशक़क़त बर्दाश्त कर के दीन का काम किया, या तबलीग में निकलें, दावत में निकलें लेकिन दूसरे किसी साहिबे हक़ का हक़ ज़ाया ना किया, तीसरी तरफ़ बाज़ सहाबा किराम के अफ'आल ऐसे हैं जो बहुत आला दर्जे के मुक़ाम के है, हमें बेशक इस बात की कोशिश तो करनी चाहिए कि उस मुक़ाम का थोडा सा हिस्सा हमें भी अल्लाह ताला अता फरमा दे लेकिन हर आदमी पर फ़र्ज़ नहीं कि उससे मुतालबा किया जाए कि तुम ऐसा ज़रूर करो,*
*"•●✿_ लिहाज़ा चाहे दर्स हो, चाहे वाज़ व तबलीग हो, ये सब काम वक़्त के तक़ाज़ों के ताबे है, देखना ये है कि इस वक़्त अल्लाह तबारक वा ताअला की तरफ़ से क्या तक़ाज़ा है ? अल्लाह तआला की तरफ से इस वक़्त मुझसे क्या मुताल्बा है? गज़वा तबूक का मौक़ा है, हर शख्स आगे बढ़ कर हिस्सा ले रहा है, और हुज़ूर अक़दस ﷺ की तरफ़ सहाबा किराम को तरगीब दी जा रही है, ये तरगीब सुन कर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के दिल में भी जाने का शौक पैदा हो रहा है लेकिन हुज़ूर ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया कि तुम मत जाओ , बल्की औरतों और बच्चों की देखभाल के लिए मदीना मुनव्वरा मे रुक जाओ,*
*"•●✿_ अब हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु जो बहादुरी मे, शुजात में, जुर्रात मे बहुत से सहाबा किराम से ज़्यादा थे, उन्होंने हुजूर ﷺ से फरमाया कि या रसूलाल्लाह! मै यहां औरतों और बच्चों के पास रह जाऊं ? हुजूर अक़दस ﷺ ने फ़रमाया कि क्या तुम इस बात पर राज़ी नहीं हो कि तुम मेरे पीछे मदीना मुनव्वरा में इस तरह रहो जैसे हजरत हारून अलैहिस्सलाम हजरत मूसा अलैहिस्सलाम के पीछे रहे, इस तरह हुजूर अकदस ﷺ ने उनको मदीना मे रहने की तरगीब दी, उनके लिये वक़्त का तक़ाज़ा ये था कि वो मदीना मे रह कर औरतों और बच्चों की देख भाल करें,*
*•●✿ _ ग़ज़वा बदर का मौक़ा है, वो बदर जिसको क़ुरान करीम ने यौमुल फुरका़न फरमाया, जिस ग़ज़वा में शामिल होने वाला शख़्स बदरी कहालाया, जिसका नाम पढ़ कर लोग दुआएं करते हैं, हज़रत उस्मान गनी रज़ियल्लाहु अन्हु हुज़ूर अक़दस ﷺ के दामाद हैं, वो भी इस ग़ज़वा में शरीक होना चाहते हैं, लेकिन उनकी बीवी जो हुज़ूर अक़दस ﷺ की साहबज़ादी हैं, वो बीमार हैं, हुज़ूर अक़दस ﷺ ने फरमाया कि तुम उनकी तीमारदारी के लिए रुक जाओ और गज़वा में मत जाओ,*
*"•●✿_अब देखिये! हुज़ूर अक़दस ﷺ ने हज़रत उस्मान गनी रज़ियल्लाहु अन्हु की बीवी की तीमारदारी के लिए गज़वा से रोक दिया और गज़वा बदर जैसी अज़ीम फ़ज़ीलत से बा ज़ाहिर उनको मेहरूम कर दिया लेकिन हक़ीक़त में वो मेहरूम नहीं हुए, इसलिये कि नबी करीम ﷺने उनको बदरीन में शामिल किया, और माले गनीमत में उनका हिस्सा लगाया।*
*"•●✿_बहरहाल! अर्ज़ ये करना था कि ये दीन का बड़ा अहम नुक्ता और बड़ा अहम बाब है कि किस वक्त़ मुझसे क्या मुतालबा है ? और इस मुतालबे पर मुझे किस तरह अमल करना है? दीन की ये समझ आम तौर पर बुज़ुर्गो की सोहबत के बगैर पैदा नहीं होती, बल्कि आदमी अपने दिमाग से इज्तिहाद ही करता रहता है कि इस वक्त़ मुझे दीन का ये तकाज़ा मालूम हो रहा है।*
*®[ इस्लाही ख़ुतबात- 16/75 ]*
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*☞_(30)_ मुस्लिम अक़वाम की तनज़ज़ुली और ग़ैर मुस्लिम अक़वाम की तरक़्क़ी की वुजुहात क्या हैं?*
*"·•●✿_खूब समझ लीजिए कि ये दुनिया असबाब की दुनिया है, अगर ये बातें गैर मुस्लिमों ने हासिल कर के उन पर अमल करना शरू कर दिया तो अल्लाह तआला ने उनको दुनिया मे तरक़्क़ी दे दी अगरचे आखिरत में उनका कोइ हिस्सा नहीं, लेकिन माशरत के वो आदाब जो हमें जनाबे मुहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ ने सिखाए थे उन आदाब को उन्होंने अख्त्यार कर लिया, तो अल्लाह तआला ने उनको तरक़्क़ी दे दी _,*
*"·•●✿_ लिहाज़ा ये ऐतराज़ तो कर दिया कि हम मुसलमान है, कलमा पढते है, ईमान का इक़रार करते है, इसके बावजूद दुनिया में हम ज़लील व ख्वार हो रहे हैं, लेकिन ये नहीं देखा के उन गैर मुस्लिमों का ये हाल है कि तिजारत में झूठ नहीं बोलेंगे, अमानत और दयानत से काम लेंगे, जिसके नतीजे में अल्लाह तआला ने उनकी तिजारत चमका दी,*
*"·•●✿_ लेकिन मुसलमानो ने इन चीजों को छोड़ दिया और दीन को मस्जिद और मदरसे तक महदूद करके बेठ गए, ज़िंदगी की बाक़ी चीज़ों को दीन से खारिज कर दिया, जिसका नतीजा ये है कि अपने दीन से भी दूर हो गए और दुनिया में भी ज़लील व ख्वार हो गए,*
*"·•●✿_ हालांकी हुजूर अक़दस ﷺ ने ये सब तालीमात हमे अता फ़रमाई थी ताकि हम उनको अपनी ज़िन्दगी के अंदर अपनाएं और उनको दीन का हिस्सा समझें _,*
*®_[इस्लाही खुतबात- 5/183]*
*"·•●✿ _हुजूर नबी करीम ﷺ की सुन्नतों की इत्तेबा में आपकी सुन्नतों की तामील में उन हज़रात सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने दुनिया भर में अपना लोहा मनवाया और आज हम पर यह खौफ मुसल्लत है कि अगर सुन्नत पर अमल कर लिया तो लोग क्या कहेंगे ? अगर फलां सुन्नत पर अमल कर लिया तो दुनिया वाले मज़ाक उड़ाएंगे, इसका नतीजा ये है कि सारी दुनिया में आज ज़लील हो रहे हैं,*
*"·•●✿ _ आज दुनिया की एक तिहाई आबादी मुसलमानों की है, आज दुनिया में जितने मुसलमान हैं उतने मुसलमान इससे पहले कभी नहीं हुए, और आज मुसलमानों के पास जितने वसाइल हैं' उतने वसाइल इससे पहले कभी नहीं हुए लेकिन हुजूर नबी करीम ﷺ ने फरमा दिया था कि एक ज़माना ऐसा आएगा कि तुम्हारी तादाद तो बहुत होगी लेकिन तुम ऐसे होंगे जैसे सैलाब में बहते हुए तिनके होते हैं, जिनका अपना कोई अख्तियार नहीं होता,*
*"·•●✿ _आज हमारा ये हाल है कि अपने दुश्मनों को राज़ी करने के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया, अपने अखलाक़ छोड़े, अपने आमाल छोड़े, अपनी सीरतें छोड़ी, अपने किरदार छोड़े, और अपनी सूरत तक बदल डाली, सर से लेकर पांव तक उनकी नक़ल उतार कर ये दिखा दिया कि हम तुम्हारे गुलाम हैं, लेकिन वो फिर भी खुश नहीं हैं,*
*"·•●✿ _ लिहाज़ा एक मुसलमान जब हुज़ूर अक़दस ﷺ की सुन्नत छोड़ देगा तो याद रखो उसके लिए ज़िल्लत के सिवा कुछ नहीं है, एक शायर गुज़रे हैं असद मुल्तानी मरहूम, उन्होंने एक शेर कहा है कि:-*
*"_ किसी का आस्ताना ऊंचा है इतना कि सर झुक कर भी ऊंचा ही रहेगा,*
*"_ हंसे जाने से जब तक तुम डरोगे ज़माना तुम पर हंसता ही रहेगा _,*
*"·•●✿ _जब तक तुम इस बात से डरोगे कि फलां हंसेगा, फलां मज़ाक उड़ाएगा, तो ज़माना हंसता ही रहेगा और देख लो कि हंस रहा है और अगर तुमने नबी करीम सरवरे दो आलम ﷺ के क़दम मुबारक पर अपना सर रख दिया और आपकी सुन्नतों की इत्तेबा कर ली तो फिर देखो दुनिया तुम्हारी कैसे इज्ज़त करती है,*
*®_[इस्लाही ख़ुतबात- 2/168]*
*"•●✿_ एक ज़माना वो था जब मुसलमानों का ये दस्तूर था कि तिजारत बिल्कुल साफ सुथरी हो, इसमे दयानत और अमानत हो, धोखा और फरेब ना हो, आज मुसलमानों ने तो इन चीज़ों को छोड़ दिया और दूसरी अक़वाम ने इन चीज़ों को अपनी तिजारत में अख्तियार कर लिया, इसका नतीजा ये है कि उनकी तिजारत को फरोग हो रहा है, दुनिया पर छा गए है,*
*"•●✿_हजरत मुफ्ती मुहम्मद शफी उस्मानी साहब रह. फरमाया करते थे कि याद रखो ! बातिल के अंदर कभी उभरने और तरक़्क़ी करने की ताक़त नहीं, इसलिए कि क़ुरान करीम का साफ इरशाद है:- बातिल तो मिटने के लिए आया है (सूरह अल इसरा- 81) लेकिन कभी अगर तुम्हें ये नज़र आए कि कोई बातिल तरक़्क़ी कर रहा है, उभर रहा है, तो समझ लो कि कोई हक़ चीज़ उसके साथ लग गई है और उस हक़ चीज़ ने उसको उभार दिया है _,*
*"•●✿_ लिहाज़ा वो लोग जो खुदा पर ईमान नहीं रखते, आख़िरत पर ईमान नहीं रखते, मुहम्मद ﷺ पर ईमान नहीं रखते, इसका तकाज़ा तो ये था कि उनको दुनिया के अंदर भी ज़लील व रुसवा कर दिया जाता लेकिन कुछ हक़ चीज़ उनके साथ लग गयीं, वो अमानत और दयानत जो हुजूर अक़दस ﷺ ने हमें सिखाया था, वो उन्होंने अख्तियार कर ली, इसके नतीजे में अल्लाह ताला ने उनकी तिजारत को तरक़्क़ी अता फ़रमाई, आज वो पूरी दुनिया पर छा गए,*
*"•●✿_ और हमने थोड़े से नफे के खातिर अमानत और दयानत को छोड़ दिया और धोखा फरेब को अख्तियार कर लिया और ये ना सोचा कि ये धोखा फरेब आगे चल कर हमारी अपनी तिजारत को तबाह व बर्बाद कर देगा, मुसलमान का एक तरह इम्तियाज ये है के वो तिजारत में भी धोखा और फरेब नहीं देता, नाप तोल में कभी कमी नहीं करता, कभी मिलावट नहीं करता, अमानत और दयानत को कभी हाथ से नहीं जाने देता, हुजूर अक़दस ﷺ ने दुनिया के सामने ऐसा ही माशरा पेश किया और सहाबा किराम की शक्ल में ऐसे ही लोग तैय्यार किए, जिन्होंने तिजारत में बड़े से बड़े नुक़सान को गवारा कर लिया लेकिन धोखा और फरेब को गवारा नहीं किया, जिसका नतीजा ये हुआ कि अल्लाह ताला ने उनकी तिजारत भी चमकाई और उनकी सियासत भी चमकाई, उनका बोल बाला किया और उन्होंने दुनिया से अपनी ताक़त और कुव्वत का लोहा मनवाया,*
*"•●✿_आज हमारा हाल ये है कि आम मुसलमान ही नहीं बल्कि वो मुसलमान जो पांच वक्त की नमाज़ अदा करते हैं लेकिन जब वो बाज़ार में जाते हैं तो सब अहकाम भूल जाते हैं गोया कि अल्लाह ताला के अहकाम सिर्फ मस्जिद तक के लिए हैं बाज़ार के लिए नहीं, खुदा के लिए इस फ़र्क को खत्म करें और जिंदगी के तमाम शोबों में इस्लाम के तमाम अहकामात को बजा लाएं,*
*®-(इस्लाही ख़ुतबात- 6/134)*
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*☞_ (31)_ क्या इंसान की रहनुमाई के लिए तन्हा सिर्फ अक़ल काफी नहीं?*
*"•●✿_ देखिये ये कुर्सी हमारे सामने रखी है, आंख से देख कर मालूम किया कि इसके हेंडल ज़र्द रंग के हैं, हाथ से छू कर मालूम किया के ये चिकने हैं, लेकिन तीसरा सवाल ये पैदा होता है कि ये खुद बा खुद वजूद में आ गई या किसी ने इसको बनाया ?*
*"•●✿_तो वो बनाने वाला मेरी आंखों के सामने नहीं है, इस वास्ते मेरी आंख भी इस सवाल का जवाब नहीं दे सकती, मेरा हाथ भी इस सवाल का जवाब नहीं दे सकता, इस मौक़े के लिए अल्लाह ताला है ने तीसरी चीज़ अता फ़रमाई जिसका नाम अक़ल है, अक़ल से मैंने सोचा कि ये ख़ुद से वजूद में नहीं आ सकता किसी बनाने वाले ने इसको बनाया है, यहाँ अक़ल ने मेरी रहनुमाई की है,*
*"•●✿_लेकिन जब अक़ल भी नाकाम हो जाती है, उस मौक़े पर अल्लाह ताला ने एक चौथी चीज़ अता फ़रमाई और उसका नाम वही इलाही है, वो अल्लाह तबारक वा ताला की तरफ से वही होती है, वो खैर और शर का फैसला करती है, वो नफा और नुक़सान का फैसला करती है, जो बताती है कि इस चीज़ में खैर है, इस चीज में शर है, इसमें नफा है इसमे नुक़सान है, वही आती ही उस मुका़म पर है जहां इंसान की अक़ल की परवाज़ ख़तम हो जाती है,*
*"•●✿_ लिहाज़ा जब अल्लाह और उसके रसूल ﷺ का हुक्म आ जाए और वो अपनी अक़ल से भी समझ में ना आए तो इसकी वजह से उसको रद्द करना कि साहब मेरी तो अक़ल में नहीं आ रहा लिहाज़ा मैं इसको रद्द करता हूं, तो ये दर हक़ीक़त अक़ल उस अक़ल की और वही इलाही की हक़ीक़त ही से जहालत का नतीजा है, अगर समझ में आता तो वही आने की क्या ज़रूरत थी? वही तो आई ही इसलिये है कि तुम अपनी तन्हा अक़ल के ज़रीये उस मुका़म तक नहीं पहुंच सकते थे, अल्लाह ताला ने वही के ज़रिये से तुम्हारी मदद फरमाई,*
*"•●✿_ अगर अक़ल से खुद बा खुद फैसला होता तो अल्लाह ताला एक हुक्म नाजिल कर देते बस कि हमने तुम्हें अक़ल दी है, अक़ल के मुताबिक़ जो चीज़ अच्छी लगे वो करो और जो बुरी लगे उससे बच जाओ, ना किसी किताब की ज़रुरत ना किसी रसूल की ज़रुरत, ना किसी पैगम्बर की ज़रुरत, ना किसी मज़हब और दीन की ज़रुरत लेकिन जब अल्लाह ने इस अक़ल देने के बावज़ूद इस पर इकतिफ़ा नहीं फरमाया बल्की रसूल भेजे, किताबें उतारी, वही भेजी, तो इसके मानी ये है कि तन्हा अक़ल इंसान की रहनुमाई के लिए काफ़ी नहीं थी, आज कल लोग कहते हैं कि साहब! हमें चुंकी इसका फ़लसफ़ा समझ में नहीं आया, लिहाज़ा हम नहीं मानते तो वो दर हक़ीक़त दीन की हक़ीक़त से ना वाक़िफ हैं, हक़ीक़त से जाहिल है समझ में आ ही नहीं सकता,*
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*☞_(32)_ इंफिरादी इस्लाह की बिना पर क्या भलाई का हुक्म करना और बुराई से रोकना छोड दें?*
*"·•●✿_ पहले अपनी इस्लाह की फ़िक्र करनी ज़रुरी है, इस सिलसिले में क़ुराने करीम की आयत और हुज़ूर ﷺ का एक इरशाद है जो आम तौर पर हमारी नज़रो से ओझल है, आयते करीमा ये है (तर्जुमा सूरह माईदा- 105):-*
*"_ऐ ईमान वालों तुम अपनी ख़बर लो, (अपने आपको दुरुस्त करने की फ़िक्र करो) अगर तुम राहे रास्त पर आ गया तो जो लोग गुमराही के रास्ते पर चल रहे है वो तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते तुम्हे कुछ नुक़सान नहीं पहुँचा सकते, अल्लाह ही की तरफ़ तुम सबको लौट कर जाना है, वो उस वक़्त तुमको बताएगा कि तुम दुनिया में क्या अमल करते रहे _,*
*"·•●✿_ रिवायात में आता है कि जब ये आयत नाजि़ल हुई तो एक सहाबी ने नबी करीम ﷺ से सवाल किया कि या रसूलल्लाह! ये आयत तो बता रही है कि अपनी इस्लाह की फ़िक्र करो, अगर दूसरे लोग गुमराह हो रहे है तो उनकी गुमराही तुम्हे कुछ नुक़सान नहीं पहुँचाएगी, तो क्या हम दूसरों को अम्र बिल मारुफ़ नहीं अनिल मुंकर ना करें?दावत तबलीग का काम ना करें?*
*"·•●✿_ जवाब में नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया - ऐसा नहीं है तुम तबलीग व दावत का काम करते रहो, इसके बाद आप ﷺ ने ये हदीस इरशाद फ़रमाई :-*
*"_ जब तुम माशरे के अंदर 4 चीज़े फ़ैली हुई देखो, एक ये कि जब माल की मुहब्बत के ज़ज़्बे की इता'त की जा रही हो, हर इन्सान जो कुछ कर रहा हो वो माल की मुहब्बत से कर रहा हो, दूसरे ये कि ख्वाहिशात नफ्स की पैरवी की जा रही हो, तीसरे ये कि दुनिया ही को हर मामले में तरजीह दी जा रही हो, चौथे ये कि हर ज़ी राय शख्स अपनी राय पर घमंड मे मुब्तिला हो जाए, हर शख्स अपने आपको अक़ल कुल समझ कर दूसरे की बात सुनने समझने से इन्कार करे तो तुम अपनी जान की फ़िक्र करो, अपने आपको दुरुस्त करने की फ़िक्र और आम लोगों के मामले को छोड़ दो _,"*
*"·•●✿_ इस हदीस (जो पिछले पार्ट में गुज़री) का मतलब बाज़ हजरात ने तो ये बयान फरमाया कि एक वक्त ऐसा आएगा कि जब किसी इंसान पर दूसरे इंसान की नसीहत कारगर नहीं होगी, इसलिए उस वक्त अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुंकर और दावत तबलीग का फ़रीज़ा साक़ित हो जाएगा, बस उस वक़्त इंसान अपने घर में रहकर अल्लाह अल्लाह करे, और अपने हालात की इस्लाह की फ़िक्र करे और कुछ करने की ज़रूरत नहीं,*
*"·•●✿_दूसरे उलमा ने इस हदीस का दूसरा मतलब बयान किया कि इस हदीस में उस वक्त़ का बयान हो रहा है जब माशरे में चारो तरफ बिगाड़ फैल चुका हो और हर शख्श अपने आप में इतना मस्त हो कि दूसरे की बात सुनने को तैयार ना हो तो ऐसे वक्त में अपने आपकी फिक्र करो और आम लोगों के मामले को छोड़ दो,*
*"·•●✿__लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि भलाई का हुक्म करना और बुराई से रोकना बिल्कुल छोड़ दो, बल्कि इसका मतलब ये है कि उस वक्त फर्द की (इंफिरादी) इस्लाह की तरफ इज्तिमाई इस्लाह के मुकाबले में तवज्जो ज़्यादा दो, क्यूंकी इज्तिमाई दावत दर हक़ीक़त अफ़राद के मजमुए ही का नाम है, अगर अफ़राद दुरुस्त है तो इज्तिमा खुद बा खुद दुरुस्त हो जाएगा,*
*"·•●✿_ लिहाज़ा इस बिगाड़ को ख़त्म करने का तरीक़ा दर हक़ीक़त इनफिरादी इस्लाह और इन्फिरादी जद्दो जहद का रास्ता अख़्तियार करने में है, जिससे शख़्सियत की तामीर हो और जब शख्सियत की तामीर होगी तो माशरे के अंदर ख़ुद बा ख़ुद एसे अफ़राद की तादाद में इज़ाफ़ा होगा जो खुद बा अख़लाक़ और बा किरदार होंगे, जिसके नतीजे में मा'शरे का बिगाड रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म हो जाएगा,*
*"·•●✿_ लिहाज़ा ये हदीस दावत और तबलीग को मनसूख नहीं कर रही बल्की इसका एक खुद कार तरीक़ा बता रही है, बहर हाल हमारी नाकामियों का बड़ा अहम् सबब मेरी नज़र में ये है कि हमने इज्तिमा को दुरुस्त करने की फ़िक्र में फ़र्द को खो दिया और इस फिक्र में कि हम पूरे मा'शरे की इस्लाह करेंगे फर्द की इस्लाह को भूल गए हैं और फर्द को भूलने के मानी यह है कि फर्द को मुसलमान बनने के लिए जिन तक़ाज़ों की जरूरत थी जिसमें इबादत भी दाखिल है, जिसमें अल्लाह से ताल्लुक़ भी दाखिल है और जिसमें सारी तालीमात पर अमल भी दाखिल है, वो सब पीछे जा चुके हैं, लिहाज़ा जब तक हम इसकी तरफ लौट कर नहीं आएंगे, उस वक्त़ तक ये तहरीके और हमारी ये सारी कोशिशें कामयाब नहीं होंगी,*
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*☞_(33)_ हड़ताल, भूख हड़ताल और जुलूस की शरियत में क्या हसियत है?*
*"·•●✿_ हुकूमत की तब्दीली, हुकूमत से कोई जायज़ मुतालबा मनवाने या उससे अपने हुकूक हासिल करने का पुर अमन तरीक़ा क्या हो सकता है? और इन अगराज़ के लिए आज कल की सियासी तहरीक़ों में हड़ताल, भूख हड़ताल, जुलूस वगैरा के जो तरीक़े अपनाए जाते हैं, शरई ऐतबार से वो किस हद तक जायज़ है?*
*"·•●✿_सूरते हाल ये है कि आज कल हमारी जिंदगी का सारा ढांचा पिछली चंद सदियों में मग़रिबी नक़ल की बुनियाद पर तामीर हो रहा है, इसलिए बहुत सी बातें सियासी जिंदगी का लाज़मी हिस्सा समझ ली गई हैं, इन्हीं में से अहतजाज के ये तरीक़े भी दाख़िल हैं यानी हड़ताल, जुलूस, तोड़ फोड़ वगैरा जिसके ज़रिये हुकूमत को बिल आख़िर इस बात पर मजबूर किया जाता है कि वो मुतालबात को तस्लीम कर लें,*
*"·•●✿_ इस क़िस्म की सियासी तहरीक़ों की शरई हैसियत के बारे में गुज़ारिश यह है कि इनमें से बाज़ तरीक़े तो बिल्कुल हराम और ना-जा'इज़ हैं, मसलन भूख हड़ताल जो ख़ुदकुशी की हद तक पहुंच जाए, या कोई भी ऐसा तरीक़ा जिससे किसी की जान माल या आबरू पर हमला किया जाता हो, या सरकारी माल को नुक़सान पहुंचाया जाता हो,*
*"·•●✿_सरकारी माल दर हक़ीक़त हुक्मरानों की नहीं बल्कि मुल्क के तमाम बाशिंदों की इज्तिमाई मिल्कियत होती है और उन्हें नुकसान पहुंचाने से पूरी कौम का हक़ पामाल होता है, और ये ऐसा गुनाह है कि इसकी माफी बहुत मुश्किल है, क्यूंकि इसका ताल्लुक़ हुकूक़ुल इबादत से है जिनके बारे में उसूल ये है कि वो सिर्फ तौबा से माफ़ नहीं होते बल्कि साहिबे हक़ का माफ़ करना ज़रूरी है,*
*"·•●✿_और सरकारी माल में साहिबे हक़ पूरा मुल्क होता है और इंसान के लिए ये बात तक़रीबन नामुमकिन है कि वो मुल्क के हर हर इंसान से माफ़ी मांगें, इसलिए इस माल को नुक़सान पहुंचाने का मामला शख़्सी माल को नुक़सान पहुंचाने से ज़्यादा ख़तरनाक है ,*
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*☞_(33)_ हड़ताल, भूख हड़ताल और जुलूस की शरियत में क्या हसियत है?-2*
*·•●✿_जहाँ तक आम हड़ताल का ताल्लुक़ है तो फी नफ्सा इसका हुक्म ये है कि हुकूमत के किसी अमल पर नाराज़गी या अहतजाज के इज़हार के लिए अगर लोगों से ये अपील की जाए कि वो अपना कारोबार बंद रखें और इस पर अमल करने के लिए किसी शख्श पर कोई जबर ना किया जाए तो तन्हा इस अपील में या इस अपील पर खुशदिली से अमल करने में शर'अन कोई गुनाह नहीं, और ऐसी हड़ताल एक मुबाह तदबीर के दर्जे में फी नफ्सा जा'इज है,*
*·•●✿"बा शर्ते कि इसमें इस्तसना भी रखा जाए जो इंसानों के लिए ज़रूरी है, मसलन मरीजों का इलाज वगैरा, लेकिन अमलन होता ये है कि हड़ताल करने वाले लोगों को अपना करोबार बंद करने पर मजबूर करते हैं, अगर कोई गाड़ी चला रहा है तो उस पर पथराव किया जाता है, रास्ते में रुकावटें खड़ी कर दी जाती है और अगर कोई शख़्स हड़ताल में हिस्सा नहीं ले रहा तो उसको गुस्से का निशाना बनाया जाता है या ज़बरदस्ती हड़ताल में शरीक होने पर मजबूर किया जाता है, ज़ाहिर है कि ये सारे अक़दामात शर'अन बिल्कुल हराम है,*
*"·•●✿_ ऐसी हड़ताल जिसमें अपील करने वाले शराफत के साथ लोगों से अपील कर के बेठ जाएं कि जो चाहे दुकान खोले और जो चाहे ना खोले, ऐसी शरीफाना हड़ताल आज के माहौल में तक़रीबन नायाब है, और जब किसी मुबाह को ना-जा'इज़ उमूर का ज़रिया बना लिया जाए तो इसको ममनु ही कहना चाहिए अगरचे फ़ी नफ्सा जा'इज़ हो,*
*"·•●✿_ इसलिए हड़ताल की ये तदबीर जिसमें तोड़ फोड़ और अमनो अमान में ख़लल पैदा हो और लोगों के कामो में रुकावट पैदा हो शरई तदबीर के तहत नहीं आती, और जब सियासत बिज्ज़ात खुद मक़सूद नहीं, मक़सूद अल्लाह ताला की इताअत है तो इस सूरत में तदबीर भी वही अख्तियार करनी चाहिए जो शरीयत के मुताबिक हो, जिसमें शरीयत की कोई खिलाफ वर्जी लाज़िम ना आए,*
*"·•●✿_जुलूस का मसला भी ये है कि अगर इनसे लोगों को गैर मामूली तकलीफ ना पहुंचे तो वो फी नफ्सा जा'इज है, लेकिन आम तौर पर इनमें भी तोड़ फोड़ और आवाम के लिए मुश्किलात पैदा होना एक लाज़मी हिस्सा बन गया है और ज़ाहिर है कि इस पहलू को जाइज़ नहीं कहा जा सकता_,*
*®_(इस्लाम और सियासी नज़रियात- 371)*
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*☞_(34)_ इस्लाम में सियासत का क्या मुकाम है? क्या इस्लाम में सियासत का कोई पहलू नहीं या इस्लाम सियासत ही का नाम है?*
*"•●✿_पहली बात ये है कि इस्लाम और सियासत के ताल्लुक़ के बारे में आजकल दो ऐसे नज़रिये फैल गए हैं जो अफ़रा तफरी की दी इन्तेहाओं पर है, एक नज़रिया सेक्युलरिज़्म का है, जिसके नज़दीक इस्लाम भी दूसरे मज़हबों की तरह इंसान का ज़ाती और इन्फिरादि मामला है, जिसका ताल्लुक़ बस उसी की ज़ाती ज़िन्दगी से है,*
*"•●✿_ ये नुक़्ता नज़र दर हक़ीक़त इस्लाम को दूसरे मज़हबों पर क़यास करने से पेदा हुआ, हालांकि ये क़यास क़तई तौर पर ग़लत है, इस्लाम की हिदायत व तालीमात सिर्फ अका़इद व इबादात और अखलाक की हद तक मेहदूद नहीं है, बल्की वो मालियाती मामलात और सियासत व हुकूमत के बारे में भी हमें बड़े अहम अहकाम अता फरमाता है, जिनके बगैर इस्लाम का कुल्ली तसव्वुर नामुमकिन है,*
*"•●✿_दूसरी इन्तेहा पसंदी बाज़ ऐसे लोगों ने अख्तियार कर ली जिन्होंने सेकुलरिज्म की तदबीर इस शिद्दत के साथ की कि सियासत ही को इस्लाम का असल मक़सद क़रार दे दिया, यानी ये कहा कि इस्लाम का असल मक़सद ही ये है कि दुनिया में एक आदिलाना सियासी निज़ाम क़ायम किया जाए और इस्लाम के बाक़ी सब अहकाम इस असल मक़सद के ताबे हैं, लिहाज़ा जो शख़्स सियासत के मैदान में दीन की सरबुलंदी के लिए काम कर रहा है, बस वो है जिसने दीन के असल मक़सद को पा लिया और जो लोग सियासत से हट कर इस्लाहे नफ्स, तालीम, तबलीग या इस्लाहे मआशरा के कामों में लगे हुए हैं और सियासत में उनका कोई किरदार नहीं है, वो लोग या तंग नज़र और दीन के असल मक़सद से गाफिल हैं,*
*"•●✿_ ये दोनों नज़रिये अफरा तफरी के नज़रिये हैं, जो इस्लाम में सियासत के सही मुका़म से ना वाक़फियत पर मुबनी हैं, हक़ीक़त ये है कि इस्लाम की हिदायात तालीमात और अहकाम ज़िंदगी के हर शोबे से मुताल्लिक़ हैं, जिसमें सियासत भी दाखिल है लेकिन सियासत को असल मक़सद क़रार दे कर बाक़ी अहकाम को इसके ताबे कहना भी ग़लत है,*
*"•●✿_अल्लाह ताला ने इंसान की तख़लीक का मक़सद वाज़े तौर पर इस आयते करीमा में बयान फरमाया है कि:-(तर्जुमा सूरह अज़ ज़ारियात-56) और मैंने इंसान और जिन्नात को किसी और मक़सद से नहीं बल्की इसलिए पैदा किया है कि वो मेरी इबादत करे _,*
*"_इबादत के मायने हैं बंदगी और बंदगी के मफहूम में परस्तिश के तमाम मशरू तरीक़े भी दाखिल हैं और जिंदगी के हर हर मामले में अल्लाह ताला की इताअत भी,*
*"•●✿_फिर इबादात की भी दो क़िस्में हैं, एक वो इबादतें हैं जिनका मक़सूद अल्लाह ताला की परिस्तिश के सिवा कुछ नहीं, मसलन नमाज़ रोज़ा हज ज़कात कुर्बानी वगैरा, ये बराहे रास्त इबादतें हैं,*
*"●✿__ और दूसरी क़िस्म की इबादत वो है जिसमें कोई अमल किसी दुनियावी फ़ायदे के लिए किया जाता है लेकिन जब वो अमल अल्लाह ताला के अहकाम के मुताबिक़ किया जाता है और उन अहकाम की पाबंदी में नियत अल्लाह ताला की रज़ा जोई की होती है तो वो बिल वास्ता इबादत बन जाता है, मसलन तिजारत अगर अल्लाह ताला के अहकाम की पाबंदी के साथ की जाए और इस पाबंदी में अल्लाह तआला की रज़ा जोई मक़सूद हो तो वो भी इस मा'नी में इबादत बन जाती है कि इस पर सवाब मिलता है,*
*"●✿__लेकिन ये बिल वास्ता इबादत है क्योंकि अपनी जा़त में इबादत नहीं थी बल्कि वो इता'अत और हुस्ने नियत के वास्ते से इबादत बनी है, यहीं हाल सियासत व हुकूमत का भी है कि सियासत व हुकूमत की कारवाइयां अल्लाह ता'ला के अहकाम के मुताबिक़ उसकी रज़ा जोई के लिए अंजाम दी जाएं तो वो भी इबादत है लेकिन बिल वास्ता इबादत है क्योंकि ये कारवाइयां तिजारत की तरह अपनी जा़त में इबादत नहीं थी बल्कि इता'त और हुस्ने नियत के वास्ते से इबादत बनी है,*
*"●✿__लिहाज़ा जब अल्लाह ताला ने इंसान की तख़लीक़ का मक़सद इबादत को क़रार दिया तो इसमे दोनों क़िस्म की इबादतें दाखिल है और इनका मजमूआ इंसान की तख़लीक़ का मक़सद है, अब ज़ाहिर है कि जो इबादत बराहे रास्त इबादते है उनका मर्तबा बिल वास्ता इबादत के मुकाबले में ज्यादा बुलंद है, और बिल वास्ता इबादत भी बहुत सी है, उनमें से किसी एक को तन्हा इंसान की तखलीक़ का मक़सद नहीं कहा जा सकता, बल्कि उनका मजमूआ बिल वास्ता इबादतों के साथ मिल कर मक़सूद ए तख़लीक़ है,*
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*☞_(35)_ अहकाम ए शरीयत की इल्लत व हिकमत के बारे में सवाल कि शरीयत के फलां हुक्म की हिकमत (वजह) समझ में नहीं आती?*
*"•●✿_ इसी तरह आज कल लोगों में ये मर्ज़ बहुत आम है कि जब किसी अमल के बारे में बताओ कि शरीयत में ये हुक्म मौजूद है कि ये काम करो या ये हुक्म है कि फलां काम मत करो, तो लोग ये सवाल करते हैं कि फ़लां चीज़ को जो हराम क़रार दिया गया है, ये हुरमत का हुक्म क्यों दिया गया है ? इसकी क्या वजह है? और सवाल करने वाले का अंदाज़ा ये बताता है कि अगर हमारे इस सवाल का माक़ूल जवाब हमें मिल गया और हमारी अक़ल ने उस जवाब को सही तस्लीम कर लिया तब तो हम इस हुक्मे शरई को मानेंगे वर्ना नहीं मानेंगे,*
*"•●✿_ हालांकी इस हदीस में हुजूर अकदस ﷺ ने साफ साफ फरमा दिया कि जब मैंने तुमको किसी चीज़ से रोक दिया तो तुम्हारा काम ये है कि रुक जाओ और इस तहक़ीक़ में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं कि इस रोकने में क्या हिकमत है, क्या मसलिहत और क्या फ़ायदा है? अल्लाह ताला अपनी हिकमत और मसलिहत से इस कारखाना आम का निज़ाम चला रहे है, तुम ये चाहते हो कि तुम्हारा ये छोटा सा दिमाग जो तुम्हारे सर में है उसकी सारी हिकमत और मसलिहतों का अहाता कर ले,*
*"•●✿_बात दर असल ये है कि अपनी हक़ीक़त से ना वाक़फियत और दिल में अल्लाह ताला की अज़मत की कमी के नतीजे में इस क़िस्म के सवाल ज़हन में आते हैं, जब ये बात ज़हन में आ जाए कि वही इलाही शुरू ही वहां से होती है जहां अक़ल की परवाज़ ख़त्म हो जाती है, तो फिर वही इलाही के ज़रिये क़ुरान व सुन्नत में जब कोई हुक्म आ जाए उसके बाद इस बिना पर उस हुक्म को रद्द करना कि साहब इस हुक्म का कारण मेरी समझ में नहीं आता, अहमकाना काम होगा,*
*"•●✿_आज हमारे मा'शरे में जो गुमराही फैली हुई है वो ये है कि अल्लाह ताला के हर हुक्म में हिकमत तलाश करो इसकी हिकमत और मसलिहत क्या है और इसका अक़ली फ़ायदा क्या है? इसका मतलब ये है कि अगर अक़ली फ़ायदा नज़र आएगा तो करेंगे और फ़ायदा नज़र नहीं आएगा तो नहीं करेंगे, ये कोई दीन है ? क्या इसका नाम इत्तेबा है? इत्तेबा तो वो है जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने कर के दिखाया और उनके बेटे हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम ने कर के दिखाया और अल्लाह ताला को उनका ये अमल इतना पसंद आया कि कयामत तक के लिए उसको जारी कर दिया,*
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*☞_(36)_ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम हुज़ूर ﷺ से कैसे सवाल करते थे ?*
*"•●✿_अहकाम की हिकमतों के बारे में लोग बा कसरत सवालात करते हैं कि फ़लां चीज़ हराम क्यू है? फलां चीज़ मना क्यों है? दीन के मामले में ये क्यू है? हमारे मआशरे में ये सवालात बहुत फ़ैल गए हैं, हालांकि सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के हालात पढ़ोगे तो ये नज़र आएगी कि हुज़ूर ﷺ से सहाबा किराम सवालात करते थे लेकिन "क्यों" का लफ़्ज़ कहीं नहीं मिलेगा, हुज़ूर ﷺ से उन्होंने कभी ये नहीं पूछा कि आप जो बात कर रहे हैं ये क्यों कर रहे हैं?*
*"•●✿_ अब आपको एक मिसाल देता हूं, वो ये है कि अल्लाह ताला ने सूद हराम किया यानी कर्ज़ा दे कर उसके ऊपर ज़्यादा पैसा लेना सूद है, क़ुरान ने इसको हराम कहा और कहा कि जो ये ना छोड़े वो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की तरफ से एलाने जंग सुन ले, इतनी ज़बरदस्त वईद बयान फरमाई, इसके बारे में तो सहाबा किराम ये सवाल कैसे करते कि ये क्यूं हराम है?*
*"•●✿_ यहां तक कि बाद में जब हुजूर अकदस ﷺ ने इस सूद की हुरमत की तरफ ले जाने वाले कुछ मामलात को भी हराम किया, मसलन एक बात ये हराम की कि अगर कोई शख्स गंदुम (अनाज ) को गंदुम से बेच रहा है, तो चाहे एक तरफ गंदुम आला दर्जे का हो और दूसरी तरफ मामूली दर्जे का हो तब भी दोनों का बराबर होना जरूरी है, अगर आला दर्जे का गंदुम दो सैर हो और अदना दर्जे का गंदुम चार सैर हो और दोनों को एक दूसरे के ज़रिये फ़रोख़्त किया जाये तो इसको भी आप ﷺ ने हराम और नाजाइज़ फरमाया,*
*"•●✿_ या मसलन अच्छी खजूर एक सैर और खराब खजूर दो सैर, अगर आपस में बेची जाए तो फरमाया कि ये भी हराम है, अब ज़ाहिर तो अक्ल में ये बात समझ में नहीं आती कि जब एक अच्छे दर्जे का गंदुम है तो उसकी क़ीमत भी ज़्यादा है, उसका फ़ायदा भी ज़्यादा है और जो अदना दर्जे का गंदुम है उसकी क़ीमत भी कम है और उसका फ़ायदा भी कम है तो अगर अदना दर्जे के दो सैर और आला दर्जे का एक सैर मिला कर फ़रोख़्त किया जाए तो इसमें क्या ख़राबी है?*
*"•●✿_ लेकिन जब नबी करीम सरवरे दो आलम ﷺ ने फरमाया कि गंदुम का सौदा जब गंदुम से होगा तो बराबर सराबर होना चाहिए, चाहे आला दर्जे का हो या अदना दर्जे का हो, किसी एक सहाबी ने भी आप ﷺ का ये हुक्म सुन कर नहीं फरमाया कि या रसूलल्लाह ﷺ ये हुक्म क्यूं? क्या वजह है? वजह यह थी कि लफ़्ज़ "क्यों" का सवाल सहाबा किराम के यहां नहीं था इसलिए कि नबी करीम सरवरे दो आलम ﷺ पर ऐसा भरोसा था कि जो हुक्म ये दे रहे हैं वो बर हक़ है, हमारी समझ में आए तो बर हक़ है, ना आए तो बर हक़ है, हमें हिकमत के पीछे पड़ने की हाजत नहीं, जब कह दिया कि हराम है तो हराम है_,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 13/280-281)*
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*☞_(37)_ फ़िज़ूल और लायानी सवालात करना जिनका अमली ज़िंदगी से कोई ताल्लुक ना हो?*
*"·•●✿ _ ऐसी चीज़ों के बारे में सवाल करना कि जिनका इंसान के अक़ीदें या उसकी अमली ज़िंदगी से कोई ताल्लुक़ नहीं, या ऐसे ही फ़िज़ूल सवाल करना या ऐसे अक़ाइद के बारे में सवाल करना जो बुनियादी अक़ाइद नहीं है, जिनके बारे में हश्र नशर के अंदर कोई सवाल नहीं होना है, ये ठीक नहीं बल्कि इनके बारे में सवालात करने के बजाय जो तुम्हारी अमली जिंदगी के मामले हैं, हराम व हलाल के, जा'इज व ना -जा'इज के, इनके बारे में सवाल करो और इनके अंदर भी जो सवाल ज़रूरी है उनके अंदर अपने आपको महदूद रखो,*
*"·•●✿ _ हज़रात सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम हुज़ूर अकदस ﷺ की खिदमत में हाज़िर होते तो सवाल बहुत कम किया करते थे, जितनी बात नबी करीम ﷺ से सुन ली उस पर अमल करते थे, सवाल करते तो वो अमली जिंदगी से मुतल्लिक करते थे, हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुजूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फरमाया कि जब तक किसी खास मसले के बारे में कोई खास बात न बताऊं उस वक्त तक तुम मुझे छोड़े रखो और मुझसे सवाल न करो,*
*"·•●✿ _ यानी जिस काम के बारे में मैंने ये कहा कि ये करना फ़र्ज़ है या ये काम करना हराम और ना-जायज़ है, इसके बारे में बिला वजह और बिला ज़रूरत सवाल करने की ज़रूरत नहीं, इसलिए कि तुमसे पहले अंबिया की जो उम्मते हलाक हुईं उनकी हलाकत का सबब उनका कसरत से सवाल करना भी था और दूसरा सबब अपने अंबिया के बताए हुए अहकाम की खिलाफ़ वर्ज़ी थी, लिहाज़ा जब मैं तुमको किसी चीज़ से रोकू तो तुम उससे रुक जाओ, उसमें क़ील व क़ाल और चूं व चरा ना करो और जिस चीज़ का मै तुमको हुक्म दूं तो उसको अपनी इस्तेता'त के मुताबिक़ बजा लाओ,*
*"·•●✿ _इस हदीस में हुजूर अक़दस ﷺ ने सवाल की कसरत की मज़म्मत बयान फरमाई है लेकिन बाज़ दूसरी अहादीस में सवाल करने की फजी़लत भी आई है, चुनांचे एक हदीस में हुजूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फरमाया कि प्यासे की तश्फी सवाल से होती है, दोनों क़िस्म की अहादीस अपनी-अपनी जगह दुरुस्त है, दोनों में ततबीक़ ये है कि जिस मामले में खुद इंसान को हुक्मे शरई मालूम करने की ज़रूरत पेश आए कि ये मामला जो मैं कर रहा हूँ शर'अन जा'इज़ है या नहीं, ऐसे मौके पर सवाल ना सिर्फ ये कि जा'इज़ है बल्की ज़रूरी है,*
*"·•●✿ _लेकिन अगर सवाल करने का मक़सद तो महज़ वक़्त गुज़ारी है, इस सवाल का उसकी जा़त से कोई ताल्लुक़ नहीं है, इसलिए कि वो मसला उसको पेश नहीं आया या वो ऐसा मसला है जिसकी दीन में कोई अहमियत नहीं और अमली ज़िंदगी से उसका कोई ताल्लुक़ नहीं और ना क़ब्र में उसके बारे में सवाल होगा और ना आख़िरत में सवाल होगा और उसके मालूम ना होने में कोई मुज़ायक़ा भी नहीं है तो ऐसे मसाइल के बारे में सवाल करने की इस हदीस में मुमा'नत आई है,*
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*☞_(38)_ अफ़ज़ल अमल कौनसा है ? सवाल एक लेकिन जवाब मुख़्तलिफ़ क्यूँ ?*
*"•●✿_बार-बार सहाबा किराम हुजूर अकदस ﷺ से पूछते थे कि या रसूलल्लाह! सबसे अफ़ज़ल अमल कौनसा है? रिवायात में ये नज़र आता है कि आन हजरत ﷺ ने मुख़्तलिफ़ सहाबा किराम को मुख़्तलिफ़ जवाब दिए, मसलन एक हदीस में आन हजरत ﷺ ने जवाब दिया कि सबसे अफ़ज़ल अमल वक्त पर नमाज़ पढ़ना है, एक हदीस में है कि आपने इरशाद फरमाया कि सबसे अफ़ज़ल अमल ये है कि तुम्हारी जुबान अल्लाह के जिक्र से तर रहे, यानि हर वक्त तुम्हारी जुबान पर अल्लाह का जिक्र जारी हो, चलते फिरते, उठते बैठते, हर हालत में तुम्हारी ज़ुबान अल्लाह के ज़िक्र से तर रहे, ये अमल अल्लाह ताला को सबसे ज़्यादा मेहबूब है,*
*"•●✿_ एक रिवायत में आता है कि एक सहाबी ने ये सवाल किया कि या रसूलल्लाह सबसे अफ़ज़ल अमल कोनसा है? आपने फरमाया कि सबसे अफ़ज़ल अमल वाल्दैन की इताअत और उनके साथ हुस्ने सुलूक है, किसी सहाबी ने पूछा कि या रसूलल्लाह सबसे अफ़ज़ल अमल कौनसा है? आपने जवाब दिया कि अल्लाह के रास्ते में निकलना सबसे अफ़ज़ल है,*
*"•●✿_गर्ज ये है कि मुख्तलिफ सहाबा किराम को आन हजरत ﷺ ने मुख्तलिफ जवाब अता फरमाये, बा-ज़ाहिर अगरचे ये जवाब मुख्तलिफ नज़र आते हैं लेकिन हक़ीक़त में मुख्तलिफ नहीं, बात दर असल ये है कि हर आदमी के हालात के लिहाज़ से अफ़ज़ल अमल बदलता रहता है, किसी शख्स के लिए नमाज़ पढ़ना सबसे अफ़ज़ल अमल है, किसी शख्स के लिए वाल्दैन की इताअत सबसे बड़ा अफ़ज़ल अमल है, किसी शख्स के लिए जिक्र सबसे अफ़ज़ल अमल है, किसी शख्स के लिए अल्लाह के रास्ते में निकलना सबसे अफ़ज़ल अमल है, हालात के लिहाज़ से और आदमियों के लिहाज़ से फर्क पड़ जाता है,*
*"•●✿_ मसलन सहाबा किराम के बारे में आपको पहले से मालूम था कि नमाज़ की तो वैसे भी पाबंदी करते, उनके सामने नमाज़ की ज़्यादा फ़ज़ीलत बयान करने की जरुरत नहीं लेकिन वाल्दैन के हुकूक में कोताही हो रही है, तो आप हुज़ूर अक़दस ﷺ ने उनसे फरमाया कि तुम्हारे हक में सबसे अफ़ज़ल अमल जिक्र है, किसी को देखा कि वो इबादत भी कर रहे हैं लेकिन जिक्रुल्लाह की तरफ इतना इल्तिफात नहीं है, उनको फरमाया कि तुम्हारे हक़ में सबसे अफ़ज़ल अमल जिक्रुल्लाह है,*
*"•●✿_ लिहाज़ा मुख़्तलिफ़ सहाबा किराम को उनके हालात के लिहाज़ से आन हज़रत ﷺ ने मुख़्तलिफ़ जवाब दिए लेकिन ये सब फ़ज़ीलत वाले आमाल हैं अलबत्ता लोगो के हालात के लिहाज़ से फ़ज़ीलत बदलती रहती है_,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 4/56)*
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*☞_(39)_ यज़ीद फ़ासिक था या नहीं, उसकी मगफिरत होगी या नहीं?*
*●✿_हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. से किसी ने एक मर्तबा सवाल किया कि हज़रत ! यज़ीद फ़ासिक था या नहीं? हज़रत ने जवाब में फरमाया कि भाई मै क्या जवाब दूं कि फ़ासिक था या नहीं था? मुझे तो अपने बारे में फिक्र है कि पता नहीं मैं फासिक हूं या नहीं, मुझे तो अपनी फिक्र है कि पता नहीं मेरा क्या अंजाम होना है, दूसरों के बारे में मुझे क्या फिक्र जो अल्लाह ताला के पास जा चुके हैं _,*
*●✿_"कुरान ए करीम में इरशाद है:- (तर्जुमा) ये उम्मत है जो गुज़र गई, उनके आमाल उनके साथ तुम्हारे आमाल तुम्हारे साथ, उनके आमाल के बारे में तुमसे सवाल नहीं किया जाएगा,*
*"●✿_ क्यूं इस बहस के अंदर पड़ कर अपना भी वक्त ज़ाया करते हो और दूसरे का भी वक़्त ज़ाया करते हो कि किसकी मगफिरत होगी और किसकी नहीं होगी, इस क़िस्म के बेशुमार मसाइल हमारे मा'शरे के अंदर कसरत से फ़ैले हुए हैं और उस पर क़ील व क़ाल हो रही है, बहसें हो रही है, मुनाज़रे हो रहे हैं, किताबे लिखी जा रही है, वक़्त बरबाद हो रहा है, नबी करीम सरवरे दो आलम ﷺ ने ये फ़िज़ूल की बहसों से मना फरमाया है,*
*"®_(इस्लाही ख़ुतबात- 12/279)*
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*☞_(40)_ शरीयत की रूह देखनी चाहिए ज़ाहिर और अल्फ़ाज़ के पीछे नहीं पड़ना चाहिए?*
*"•●✿_आज कल लोगों की जुबान पर अक्सर ये रहता है कि शरीयत की रूह देखनी चाहिए ज़ाहिर और अल्फ़ाज़ के पीछे नहीं पड़ना चाहिए, मालूम नहीं वो लोग रूह को किस तरह देखते हैं, उनके पास कौनसी ऐसी दूरबीन है जिसमें उनको रूह नज़र आ जाती है, हालांकि शरीयत में रूह के साथ ज़ाहिर भी मतलूब और मक़सूद है,*
*"•●✿_सलाम ही को ले लें कि आप मुलाक़ात के वक़्त अस्सलामु अलैकुम के बजाए उर्दू में ये कह दें कि "सलामती हो तुम पर", देखिये मानी और मफ़हूम तो इसके वही हैं जो "अस्सलामु अलैकुम" के हैं लेकिन वो बरकत वो नूर और इत्तेबा ए सुन्नत का अजरो सवाब इसमें हासिल नहीं होगा जो अस्सलामु अलैकुम में हासिल होता है,*
*"•●✿_इससे एक और बुनियादी बात मालूम हुई जिससे आज कल लोग बड़ी गफ़लत दिखाते हैं, वो ये कि अहादीस के मा'नी मफ़हूम और रूह तो मक़सूद है लेकिन शरीयत में अल्लाह और अल्लाह के रसूल ﷺ के बताए हुए हैं अल्फ़ाज़ भी मकसूद हैं, देखिये अस्सलामु अलैकुम और वा अलैकुम अस्सलाम दोनों के मा'नी तो एक ही हैं यानी तुम पर सलामती हो,*
*"•●✿_ लेकिन हुज़ूर अक़दस ﷺ ने हज़रत जाबिर बिन सुलेम रज़ियल्लाहु अन्हु को पहली मुलाक़ात ही में इस पर तम्बीह फ़रमाई कि सलाम करने का सुन्नत तरीक़ा और सही तरीक़ा ये है कि अस्सलामु अलैकुम कहो, ऐसा क्यों किया? इसलिए कि इस ज़रिये अपनी उम्मत को ये सबक़ दे दिया कि शरीयत अपनी मर्ज़ी से रास्ता बना कर चलने का नाम नहीं है, बल्की शरीयत अल्लाह और अल्लाह के रसूल ﷺ की इत्तेबा का नाम है,*
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*☞_(41)_ 1400 साल पुराने उसूलों को मौजूदा ज़माने की ज़रूरत पर केसे लागू करें?*
*"•●✿_ एक बात ये अर्ज़ कर दूं कि लोगों के दिलों में ये इश्काल पैदा होता है कि हम 1400 साल पुरानी ज़िंदगी को कैसे लौटाएं ? 1400 साल पुराने उसूलों को आज की 21 वी सदी में कैसे लागू (अप्लाई) करें ? इसलिए कि हमारी ज़रूरतें बदलती रहती हैं,*
*"•●✿_बात दर असल ये है कि इस्लामी उलूम से उन्सियत ना होने की वजह से ये इश्काल पैदा होता है, इसलिए कि इस्लाम ने अपने अहकाम के तीन हिस्से किए हैं, एक हिस्सा वो है जिसमें कुरान व सुन्नत की वो आयतें और रिवायतें जो वाज़े और साफ़ साफ़ मौजूद हैं, जिसमें क़यामत तक आने वाले हालात की वजह से कोई तबदीली नहीं हो सकती, ये उसूल ग़ैर मुतबद्दल है, ज़माना कैसा ही बदल जाए लेकिन इसमें तब्दीली नहीं आ सकती,*
*"•●✿_दूसरा हिस्सा वो है जिसमें इज्तिहाद (फिक़हा इस्लामी की इस्तिलाह में कुरान व हदीस और इजमा पर गौर व फ़िक्र करके किसी मसले का शरई हल निकालना) और इस्तंबात (नतीजा निकालना) की गुंजाईश रखी गई है और उसमें इस दर्जा की रिवायत नहीं है जो ज़माने के हाल पर अप्लाई करें, इसमे इस्लामी अहकाम की लचक खुद मौजूद है,*
*•●✿_ और अहकाम का तीसरा हिस्सा वो है जिसके बारे में क़ुरान व सुन्नत खामोश है, जिनके बारे में कोई हिदायत और कोई रहनुमाई नहीं की गई, जिनके बारे में कुरान व सुन्नत ने कोई हुक्म नहीं दिया, हुक्म क्यों नहीं दिया? इसलिए कि उसे हमारी अक़ल पर छोड़ दिया है और इसका इतना वसी दायरा है कि हर दौर में इंसान अपनी अक़ल और तजुर्बे को इस्तेमाल करके इस खाली मैदान में तरक़्क़ी कर सकता है और हर दौर की जरूरतें पूरी कर सकता हैं,*
*"•●✿_दूसरा हिस्सा जिसमें इज्तिहाद और इस्तंबात की गुंजाईश रखी गई है उसके अंदर भी हालात के लिहाज़ से इल्लतों के बदलने की वजह से अहकाम के अंदर तगय्यूर और तबदीली हो सकती है, अलबत्ता पहला हिस्सा बेशक कभी नहीं बदल सकता, क़यामत आ जाएगी लेकिन वो नहीं बदलेगा, क्योंकि वो दर हक़ीक़त इंसान के फितरत के इदराक पर मुबनी है, इंसान के हालात बदल सकते हैं लेकिन फितरत नहीं बदल सकती और चुंकी वो फितरत के इदराक पर मुबनी हैं इसलिए उनमें भी तबदीली नहीं लायी जा सकती, बहर हाल! जहाँ तक शरीयत ने हमें गुंजा'इश दी है, गुंजा'इश के दायरों में रह कर हम अपनी ज़रूरतों को पूरे तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं,*
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*☞_(42)_इज्तिहाद कब और कहां से शुरू होता है?*
*"•●✿_इज्तिहाद का दायरा वहां से शुरू होता है जहां क़ुरान और हदीस की रिवायात मौजूद ना हों, जहां रिवायात मौजूद हों वहां अक़ल का इस्तेमाल कर के नुसूस के खिलाफ कोई बात कहना दर हक़ीक़त अपने दायरे से बाहर जाने वाली बात है और इसके नतीजे में दीन की तहरीफ का रास्ता खुलता है, जिसकी एक मिसाल आप हज़रात के सामने अर्ज करता हूं,*
*"•●✿_ कुरान करीम में खिन्जीर को हराम क़रार दिया गया है और ये हुरमत का हुक्म वही का हुक्म है, इस जगह पर अक़ल इस्तेमाल करना है कि साहब! ये क्यों हराम है? ये अक़ल को ग़लत जगह पर इस्तेमाल करना है, इस वज़ह से बाज़ लोगों ने यहां तक कह दिया कि बात दर असल ये है कि कुरान करीम ने खिन्जीर इसलिए हराम किया था कि उस ज़माने में खिन्जीर गंदे थे और ग़ैर पसन्दीदा माहौल में परवरिश पाते थे और गलाज़ते खाते थे, अब तो खिन्जीर के बड़े हाइजेनिक फार्म तैयार किए गए हैं और बड़े सहत मंदाना तरीक़े से परवरिश होती है, लिहाज़ा वो हुक्म अब ख़त्म होना चाहिए, ये उस जगह पर अक़ल का इस्तेमाल करना है जहां वो काम देने से इंकार कर रही है,*
*"•●✿_ इसी तरह रिबा और सूद को जब कुरान करीम ने हराम क़रार दे दिया बस वो हराम हो गया, अक़ल में चाहे आए या ना आए, देखिये क़ुरान करीम में मुशरिकीन अरब का क़ौल नक़ल करते हुए फरमाया गया कि बैय (सौदा) भी रिबा जेसी चीज़ है, तिजारत और बैय से भी इंसान नफा कमाता है और रिबा से भी नफा कमाता है,*
*"•●✿_ लेकिन कुरान करीम ने इसके जवाब में फर्क बयान किया कि बैय और रिबा में ये फर्क है बल्की ये जवाब दिया कि बस !अल्लाह ताला ने बैय को हलाल क़रार दिया है और रिबा को हराम क़रार दिया है, अब आगे इस हुक्म में हमारे लिए चू व चरा की कोई गुंजाईश नहीं, इसलिए कि जब अल्लाह ने बैय को हलाल कर दिया तो हलाल है और जब अल्लाह ने रिबा को हराम कर दिया इसलिए हराम है, अब इसके अंदर चू चारा करना दर हक़ीक़त अक़ल को ग़लत जगह पर इस्तेमाल करना है,*
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*☞_(43)_ इज्तिहाद और इसके मुताल्लिक़ जदीद ज़हन की ग़लत फ़हमियां, क्या अक़ल व हालात के मुताबिक़ नुसूस में इज्तिहाद करना दुरुस्त है?*
*"•●✿_पहली गलत फ़हमी जो उनके ज़हनों में पाई जाती है वो ये है कि इज्तिहाद दर हक़ीक़त नुसूस (क़ुरान व सुन्नत) के मुक़ाबले में अपनी अक़ल को इस्तेमाल करते हुए हिकमत और मसलिहतों की बुनियाद पर अहकाम में किसी तगय्यूर व तबदीली का नाम है, आम तौर पर जो लोग ये बात कहते हैं, उनके ज़हन में ये बात है कि नुसूस में एक हुक्म आया है और किसी खास पसे मंज़र में किसी खास मसलिहत के लिए आया है, आज के दौर में वो मसलिहत नहीं पाई जा रही है, लिहाज़ा हम अपनी अक़्ल से सोच कर फैसला करें कि इस दौर की मसलिहत क्या है? इस हुक्म को इस दौर पर लागू न करें, बल्की इसके बजाय उस हुक्म में कोई तबदीली कर दें,*
*"•●✿_दूसरी ग़लत फ़हमी ये है कि वो ये समझते हैं कि इज्तिहाद के नतीजे में हमेंशा कोई सहूलत या आसानी हासिल होनी चाहिए, अगर एक चीज़ पहले हराम और ना-जायज़ समझी जाती थी तो इज्तिहाद के नतीजे में जायज़ समझी जानी चाहिए, अगर कोई चीज़ शरीयत में ममनु थी तो इज्तिहाद के नतीजे में ममनू ना होनी चाहिए, चुनांचे हर ऐसी जगह पर इज्तिहाद की ज़रूरत का दावा किया जाता है जहां उनको कोई सहूलत, आसानी या जवाज़ मतलूब हो,उस मौक़े पर उनको ज़माने की तबदीली और हालात के तगय्युर का भी अहसास हो जाता है और वो इज्तिहाद की ज़रूरत पर इसरार करते हैं,*
*"•●✿_लेकिन अगर किसी जगह हालात के तगय्यूर की वजह से हिकमत और मसलिहत इसके बर अक्स हो, यानी इस सूरत में हालात के तगय्यूर की वजह से उसकी हिकमत और मसलिहत की बुनियाद पर अगर एक चीज़ पहले जायज़ थी, अब ना-जायज़ हो रही हो तो इस मौके पर इज्तिहाद की ज़रुरत का कोई दावा नहीं करता, मसलन जो लोग इज्तिहाद की ज़रुरत के मुद्दई हैं, आज तक उनसे नहीं सुना गया कि सफर में जो क़सर का हुक्म दिया गया था वो उस ज़माने के सफ़र थे, जो ऊंटों पर घोड़ों पर और पैदल हुआ करते थे, उनमें मशक्कत बहुत ज़्यादा होती थी, आज हवाई जहाज़ में एक बर्रे आज़म से दूसरे बर्रे आज़म तक चंद घंटो में आदमी पहुंच जाता है, फर्स्ट क्लास मे सफर करता है, लेटे -लेटे सोते हुए जाता है और वहां जा कर आराम से होटलों में ठहरता है, तो चुंकी हालात बदल गए हैं, लिहाज़ा अब सफर में क़सर की इजाज़त नहीं होनी चाहिए, ये आज तक किसी से नहीं सुना गया कि यहां इज्तिहाद की जरूरत है, वजह ये है कि ज़हन में ये बात है कि इज्तिहाद के नतीजे में कोई सहुलत हासिल होनी चाहिए, कोई जवाज़ हासिल होना चाहिए,*
*"•●✿_ये सारी बाते दर हक़ीक़त इसलिये है कि इज्तिहाद का सही मफ़हूम ज़हन में नहीं, हालांकि जब इज्तिहाद का लफ़्ज़ बोला जाता है तो जहां से इज्तिहाद का लफ़्ज़ निकला है उसकी तरफ देखना चाहिए कि वो किस अहकाम में आया है और इसका क्या मतलब था?*
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*☞_(44)_ लफ़्ज़ इज्तिहाद का मतलब क्या है ?*
*·•●✿_क्या आप सभी हज़रात जानते हैं कि इज्तिहाद का लफ़्ज़ सबसे पहले कौनसी हदीस में आया है, हज़रत मा'ज़ रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है,*
*"_ रसूलुल्लाह ﷺ हज़रत मा'ज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु को यमन की तरफ हाकिम, क़ाज़ी, मुअल्लिम और मुफ़्ती बना कर भेज रहे हैं, तो आप ﷺ उनसे पूछते हैं कि तुम कैसे फ़ैसला करोगे? तो उन्होंने अर्ज़ किया - अल्लाह की किताब से,*
*•●✿_आप ﷺ ने पूछा कि अगर किताबुल्लाह में ना पाओ तो कैसे फैसला करोगे? अर्ज़ किया - सुन्नते रसूलुल्लाह ﷺ से, फिर पूछा कि अगर सुन्नत में ना पाओ तो फिर क्या करोगे? अर्ज़ किया - मै अपनी राय से इज्तिहाद करूंगा और कोई कोताही नहीं करूंगा,*
*"_इस पर आप ﷺ ने ताईद फरमाई और उनके सीने पर हाथ मारा और फरमाया - अल्लाह का शुक्र है जिसने रसूलल्लाह ﷺ की रहनुमाई फरमाई जो रसूलुल्लाह ﷺ को पसंद है,*
*·•●✿_इस हदीस से मालूम हुआ कि इज्तिहाद वहां होता है जहां कोई हुक्म किताबुल्लाह और सुन्नत रसूलुल्लाह ﷺ मैं मौजूद ना हो, जैसा कि हजरत मा'ज़ रजियल्लाहु अन्हु ने फरमाया कि उस वक्त़ में इज्तिहाद करूंगा, इसमे कहीं ये नहीं फरमाया कि इज्तिहाद किसी जवाज़ की रुखसत या सहूलत को हासिल करने के लिए करुंगा, बल्कि ये फरमाया कि जो हुक्म किताबुल्लाह और सुन्नत रसूलुल्लाह से बराहे रास्त नहीं निकल रहा होगा तो (उन्ही नुसूस की रोशनी में) अपनी राय को इस्तेमाल करते हुए (क़यास के ज़रिये या उसूले कुल्लिया को मद्दे नज़र रखते हुए) उस हुक्म को हासिल करने की पूरी कोशिश करूँगा,*
*·•●✿_ अब ये भी हो सकता है कि जिस मसले या जिस चीज़ का हुक्म तलाश किया जा रहा है, इज्तिहाद के नतीजे में वो जायज़ साबित हो, ये भी हो सकता है वो ना-जायज़ साबित हो, ये हदीस खुद बता रही है कि इज्तिहाद का हल वहां होता है जहां नुसूस साकित हों,*
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*☞_(45)_तक़लीद की हक़ीक़त क्या है और तक़लीद क्यों ज़रूरी है? )*
*•●✿_इस बात से किसी मुसलमान को इंकार नहीं हो सकता कि दीन की असल दावत ये है कि सिर्फ अल्लाह ताला की इताअत की जाए यहां तक कि नबी करीम ﷺ की इताअत भी इसलिए वाजिब है कि हुजूर ﷺ ने अपने क़ौल व फ़ैल से अहकामे इलाही की तर्जुमानी फ़रमाई है, कौनसी चीज़ हलाल है और कौनसी हराम है? क्या जायज़ है क्या नाजायज़ है? इन तमाम मामलात में खालिस अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की इताअत करनी है,*
*·•●✿_ और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल के बजाय किसी और की इताअत करने का कायल हो और उसको मुस्तक़िल बिज़्जा़त समझता हो वो यक़ीनन इस्लाम के दायरे से खारिज है, लिहाज़ा हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वो क़ुरान व सुन्नत के अहकाम की इताअत करे,*
*·•●✿_लेकिन कुरान और सुन्नत में बाज़ अहकाम तो ऐसे हैं जिन्हें हर मामूली पढ़ा लिखा आदमी समझ सकता है, उनमें कोई इज्माल नहीं, उनमें कोई वहम या तारुज़ (झगड़ा) नहीं, बल्कि जो शख़्स भी इन्हें पढ़ेगा वो किसी उलझन के बैगर इनका मतलब समझ लेगा,*
*·•●✿_इस्के बर अक्स कुरान व सुन्नत के बहुत से अहकाम वो हैं जिनमें कोई वहम या इज्माल (टकराव) पाया जाता है और कुछ ऐसे भी है जो कुरान ही की किसी आयत या आन हजरत ﷺ ही की किसी दूसरी हदीस से मुता'रिज़ (एक दूसरे के ख़िलाफ) मालूम होती है, जिसकी वजह से सवाल पैदा होता है कि किस पर अमल करें,*
*·•●✿_ मसलन - एक हदीस में आन हज़रत ﷺ का इरशाद है कि जिस शख़्स का कोई इमाम हो तो इमाम की क़िरात उसके लिए भी क़िरात बन जाएगी, इससे मालूम होता है कि नमाज़ में जब इमाम क़िरात कर रहा हो तो मुक़्तदी को खामोश खड़ा रहना चाहिए, दूसरी तरफ एक हदीस में आप ﷺ का इरशाद है कि जिस शख़्स ने सूरह फातिहा ना पढ़ी उसकी नमाज़ नहीं हुई, इस हदीस से मालूम होता है कि हर शख़्स के लिए सूरह फातिहा पढ़ना ज़रूरी है, दोनों हदीसों के पेशे नज़र रखते हुए सवाल पैदा होता है कि पहली हदीस की इत्तेबा की जाए या दूसरी हदीस की,*
*•●✿_आपने मुलाहिज़ा फरमाया कि कुरान व हदीस से अहकाम के मुस्तंबत करने में इस क़िस्म की बहुत सी दुश्वारियां पेश आती है, अब एक सूरत तो ये है कि हम अपनी फ़हम व बसीरत पर एतमाद कर के इस क़िस्म के मामलात में खुद कोई फैसला कर लें और उस पर अमल कर लें, और दूसरी सूरत ये है कि इस क़िस्म के मामलात में अज़ खुद कोई फैसला करने के बजाय ये देखें कि कुरान व सुन्नत के इरशादात से हमारे ज़लीलुल काद्र असलाफ़ ने क्या समझा है, चुनांचे क़ुरून ए अवला के जिन बुज़ुर्गो को हम उलूमे क़ुरान व सुन्नत का ज़्यादा माहिर पायें, उनकी फ़हम व बसीरत पर एतमाद करें, और उन्होंने जो कुछ समझा है उसके मुताबिक अमल करें,*
*•●✿_अगर इन्साफ और हक़ीक़त पसंदी से काम लिया जाए तो हमारे ख्याल के मुताबिक़ इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि दोनों सूरतों में से पहली सूरत खासी ख़तरनाक है और दूसरी बहुत मोहतात है, ये सिर्फ तवाजो़ और कसरे नफ्सी ही नहीं बल्की एक नाकाबिले इंकार हक़ीक़त है कि इल्म व फ़हम, ज़कावत व हाफ़्ज़ा, दीन व दयानत, तक़वा व परहेज़गारी पर ऐतबार से हम इस कदर तही दस्त हैं कि क़ुरून ए अवला के उलमा से हमें कोई निस्बत नहीं, फिर जिस मुबारक माहौल में कुरान ए करीम नाज़िल हुआ था क़ुरून ए अवला के उलमा उससे भी क़रीब हैं और इस क़ुर्ब की बिना पर उनके लिए क़ुरान और सुन्नत की मुराद को समझना भी ज़्यादा आसान है,*
*•●✿_इसके बर खिलाफ़ हम अहदे रिसालत ﷺ के इतने अरसा बाद पैदा हुए हैं कि हमारे लिए क़ुरान व हदीस के मुकम्मल पशे मंज़र, उसके नुज़ूल के माहौल, उस ज़माने के तर्ज़े गुफ्तगू का हुबहु तसव्वुर बड़ा मुश्किल है, हालांकि किसी की बात को समझने के लिए इन तमाम बातों की पूरी वाक़फियत इंतेहाई ज़रूरी है,*
*"_इन तमाम बातों का लिहाज़ करते हुए अगर हम अपनी फहम पर एतमाद करने के बाद क़ुरान व सुन्नत की मुख्तलिफ ताबीर पेचीदा अहकाम में उस मतलब को अख्तियार कर लें जो हमारे असलाफ में से किसी आलिम ने समझा है, तो कहा जाएगा कि हमने फलां आलिम की तक़लीद की है,*
*•●✿_ये है तक़लीद की हक़ीक़त! अगर मैं अपने माफिउल ज़मीर को सही समझा सका हूं तो ये बात आप पर वाज़े हो गई होगी कि किसी इमाम या मुजतहिद की तक़लीद सिर्फ उस मौक़े पर की जाती है जहां क़ुरान व सुन्नत से किसी हुक्म को समझने में दुश्वारी हो, चाहे इस बिना पर कि कुरान व सुन्नत की इबारत के एक ज्यादा मानी निकल सकते हों, चाहे इस बिना पर कि उसमें कोई इज्माल हो या इस बिना पर कि उस मसलने में दलाईल एक दूसरे के खिलाफ़ हों, चुनांचे क़ुरान व सुन्नत के जो अहकाम है या जिनमें कोई इज्माल व वहम, तारुज़ या इस क़िस्म की कोई उलझन नहीं है वहां कोई इमाम व मुज्तहिद की तक़लीद की कोई ज़रूरत नहीं,*
*•●✿_ चुनांचे अल्लामा खतीब बगदादी रह. फरमाते हैं:- और शरई अहकाम की दो क़िस्में हैं, एक वो अहकाम हैं जिनका जुज़्व व दीन होना बिदहता (बगैर सोचे समझे) साबित है, मसलन- पाँच नमाज़े, ज़कात, रमज़ान के रोज़े और हज की फ़र्ज़ियत और ज़िना व शराब की हुरमत और इस जैसे दूसरे अहकाम, तो इसमे किसी क़िस्म की तकलीद जायज़ नहीं, क्योंकि इन चीज़ों का इल्म तमाम लोगो को होता ही है, लिहाज़ा इसमे तक़लीद के कोई मा'नी नहीं,*
*•●✿_ और दूसरी क़िस्म वो है जिसका इल्म फ़िक्र व नज़र और इस्तदलाल के बैगर नहीं हो सकता, जेसे इबादत व मामलात और शादी ब्याह के फ़रुई मसा'इल, इस क़िस्म में तक़लीद दुरुस्त है इसलिये कि अगर हम दीन के इन फ़रुई मसाइल में तक़लीद को ममनू कर देंगे तो इसका मतलब ये होगा कि हर शख्स बा क़ायदा उलूमे दीन की तहसील में लग जाएगा और लोगों पर इसको वाजिब करने से जिंदगी की तमाम जरूरियात बर्बाद हो जाएंगी और खेतियों और मवेशियों की तबाही लाज़िम आएगी, लिहाज़ा ऐसा हुक्म नहीं दिया जा सकता,*
*•●✿_मज़कुरा बाला गुज़ारिशात से ये बात भी वाज़े हो जाती है कि किसी इमाम या मुजतहिद की तक़लीद का मतलब ये हरगिज़ नहीं कि उसे बिज्ज़ात खुद वाजिबुल इताअत समझ कर इत्तेबा की जा रही है, या उसे शारे (शरियत बनाने वाला या क़ानून साज़) का दर्जा दे कर उसकी हर बात को वाजिबुल इत्तेबा समझा जा रहा है, बल्की इसका मतलब सिर्फ ये है कि पैरवी तो क़ुरान व सुन्नत की मकसूद है लेकिन कुरान व सुन्नत की मुराद को समझने के लिए शरह क़ानून की बयान की हुई उनकी तशरीह व ताबीर पर एतमाद किया जा रहा है,*
*•●✿_यही वजह है कि कुरान व सुन्नत के क़तई अहकाम में किसी इमाम व मुजतहिद की तक़लीद जरूरी नहीं समझी गई क्यूंकी वहां अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की इताअत असल मक़सद इसके बगैर बा असानी हासिल हो जाता है,*
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*☞_(46)_ कुरान में तो आबा व अज़दा की तक़लीद की मज़म्मत की गई है_,"*
*"·•●✿_ तक़लीद पर पहला एतराज़ ये किया जाता है कि क़ुराने करीम ने इन लफ्ज़ो में तक़लीद की मज़म्मत फरमाई है:- (तर्जुमा सूरह बक़राह-170 ) और जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो अहकाम नाज़िल फरमाये है उनकी पैरवी करो तो वो कहते हैं कि नहीं! हम तो उन बातों की परवाह करेंगे जिन पर हमने अपने बाप दादाओं को पाया है, (अल्लाह ताला फरमाते हैं) भला अगर उनके बाप दादा अक़ल व हिदायत ना रखते हों तब भी _,"*
*"·•●✿_ लेकिन जो गुज़ारिशात हमने (पिछले हिस्से में) पेश किये हैं अगर उनकी रोशनी में गौर किया जाए तो ये शुबहा खुद बा खुद दूर हो जाता है कि आ'इम्मा मुजतहिदीन की तक़लीद (मा'ज़ल्लाह) मज़कूरा आयत के ख़िलाफ़ है, पहली बात तो ये है कि क़ुरान करीम की इस आयत में दीन के बुनियादी अका़इद का ज़िक्र हो रहा है यानि मुशरिकीन तौहीद, रिसालत और आख़िरत जैसे मसाइल में हक को कुबूल करने के बजाय सिर्फ ये दलील पेश करते हैं कि हमने अपने बाप दादाओं को इन्ही अका़इद पर पाया है, गोया कि उनकी तक़लीद दीन के बुनियादी अका़इद में थी और दीन के बुनियादी अका़इद में तक़लीद हमारे नजदीक भी जायज़ नहीं है,*
*"·•●✿_ तमाम उसूले फिक़हा की किताबों में ये मसला लिखा हुआ है कि तक़लीद अका़इद और ज़रुरियात ए दीन में नहीं होती क्योंकि ये मसाइल ना इज्तिहाद का महल है ना तक़लीद का, लिहाज़ा जिस तक़लीद की मज़म्मत मज़कुरा आयत ने की है उसे आ'इम्मा मुजतहिदीन के मुक़ल्लिद हज़रात भी ना-जा'यज़ कहते हैं, चुनांचे अल्लामा खतीब बगदादी ने उसूले अक़ाइद में तक़लीद को ना-जायज़ क़रार देते हुए इस आयत से इस्तदलाल किया है,*
*"·•●✿_दूसरी बात ये है कि अल्लाह ताला ने बाप दादाओं की तक़लीद की मज़म्मत के दो सबब भी बयान फरमाए हैं, एक ये कि वो लोग अल्लाह ताला के नाज़िल किए हुए अहकाम को ऐलानिया रद्द कर के उन्हें ना मानने का एलान करते हैं और साफ कहते हैं कि इसके बजाय अपने बाप दादाओं की बात मानेंगे, दूसरे ये कि उनके बाप दादा अक़ल व हिदायत से कोरे थे,*
*"·•●✿_ लेकिन हम जिस तक़लीद की गुफ्तगू कर रहे हैं उसमें ये दोनों सबब मफक़ूद (गायब) हैं, कोई तक़लीद करने वाला खुदा और रसूल के अहकाम को रद्द कर के किसी बुज़ुर्ग की बात नहीं मानता, बल्की वो अपने इमाम व मुजाहिद को कुरान व सुन्नत का शारह क़रार दे कर उसकी तशरीह की रोशनी में कुरान व सुन्नत पर अमल करता है, इसी तरह दूसरा सबब भी यहां नहीं पाया जाता क्योंकि इससे कोई अहले हक़ भी इंकार नहीं कर सकता कि जिन आ'इम्मा मुजतहिदीन की तक़लीद की जाती है, उनसे कितना ही इख्तिलाफे राय क्यों न हो मगर हर ऐतबार से उनकी जलालत क़दर हर एक को तसलीम है, इसलिए इस तक़लीद को मुशरिकीन की तक़लीद पर मुंतबक़ करना बड़े ज़ुल्म की बात है,*
*®_(तकलीद की शरई हैसियत -115)*
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*☞_(47)_ यहूद व नसारा में अहबार (यहूदी उलमा) व रहबान (इसाई राहिब) की तक़लीद की जाती थी जिसकी क़ुरान ने मज़म्मत की है _,*
*"•●✿_ बाज़ हज़रत मुजतहिदीन की तक़लीद पर इस आयत को चस्पा फरमाते हैं:-( तर्जुमा) उन्होंने अपने उलमा और तारिकुद दुनिया ज़ाहिदो को अल्लाह के बजाए अपना परवरदिगार बना रखा है _,*
*"_लेकिन हम पीछे तफ़सील के साथ अर्ज़ कर चुके हैं कि किसी मुजतहिद की तक़लीद या इता'अत शारे या क़ानून साज़ की हैसियत से नहीं जाती, बल्की उसे शारेह क़ानून क़रार दे कर की जाती है, उसे अपनी ज़ात के ऐतबार से वाजिबुल इत्तेबा क़रार नहीं दिया जाता बल्की उसकी बयान की हुई तशरीहात पर ऐतमाद कर के कुरान व सुन्नत की पैरवी जाती है,*
*"•●✿_पीछे हम तफ़सील के साथ अर्ज़ कर चुके हैं कि उनके नज़दीक:- (1) दीन के बुनियादी अका़इद में तक़लीद नहीं होती,*
*(2)_ जो अहकाम शरीयत तवातर व हिदायत से साबित है उनमें किसी की तक़लीद नहीं की जाती,*
*(3)_कुरान व सुन्नत की जो नुसूस (रिवायतें) कत'ई दला'इल है और जिनका कोई इख्तिलाफ़ मोजूद नहीं, उनमें किसी इमाम की तक़लीद की ज़रूरत नहीं,*
*"•●✿(4)_ तक़लीद सिर्फ़ इस गर्ज़ के लिए है की जाती है कि क़ुरान व सुन्नत से अगर मुख़्तलिफ़ बातों का सबूत मुमकिन हो तो किसी एक मा'नी को मुईन करने के लिए अपने ज़हन के बजाय किसी मुजतहिद की फ़हम व अक़ल पर एतमाद किया जाए,*
*(5)_ एक आलिम अगर मुजतहिद के किसी क़ौल को सही और सरीह हदीस के ख़िलाफ पाए और उसका कोई इख्तिलाफ मोजूद ना हो तो उसके लिए शराइत के साथ जिनका ज़िक्र पहले गुज़र चुका है, मुजतहिद के क़ौल को छोड़ कर हदीस पर अमल करना ज़रूरी है,*
*"•●✿_ अगर ये तर्जे अमल भी शिर्क है और इस पर भी उलमा को अपना खुदा बनाने की वईद चस्पा हो सकती है तो फिर दुनिया में कौन सा काम ऐसे शिर्क से खाली हो सकता है, जो हज़रात तकलीद के मुखालिफ हैं अमलन वो खुद किसी ना किसी मरहले पर किसी ना किसी हैसियत से तक़लीद ज़रूर करते हैं,*
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*☞_(47)_ यहूद व नसारा में अहबार (यहूदी उलमा) व रहबान (इसाई राहिब) की तक़लीद की जाती थी जिसकी क़ुरान ने मज़म्मत की है-2 _,*
*"•●✿_ज़ाहिर है कि गैर मुक़ल्लिद हज़रात में से हर फ़र्द माँ के पेट से मुजतहिद बन कर पैदा नहीं होता और ना हर शख़्स आलिम होता है, और अगर आलिम भी हो तो हर आलिम को हर मसले में हर वक़्त किताब व सुन्नत के पूरे ज़ख़ीरे की तरफ़ रूजू करने का मौक़ा नहीं होता,*
*"•●✿_ चुनांचे उन हज़रात में से जो आलिम नहीं होते वो उलमा ए अहले हदीस से मसला पूछ कर उनकी तकलीद करते हैं, इस मक़सद के लिए गैर मुक़ल्लिद उलमा के फतावा के मजमुए छपे हुए हैं, जिनमे अव्वल तो हर जगह दलील बयान करने का इल्तिजाम नहीं और अगर हो भी तो क्या एक आम आदमी ये फैसला कर सकता है कि जो दलील उन्होंने बयान की है वो सही है या नहीं? लिहाज़ा वो तो उनके इल्म और फहम पर एतमाद कर के ही अमल करता है और इसी का नाम तक़लीद है,*
*"•●✿_रहे वो हज़रात जो बा क़ायदा कुरान व सुन्नत के आलिम होते हैं वो इन्साफ से गौर फरमाएं क्या वो हर नये पेश आने वाले मसले में तफसीर व हदीस के तमाम ज़खीरे खंगाल कर कोई मसला मुस्तंबत करते हैं (छांटते है)? अगर इन्साफ और हक़ीक़त पसंदी से काम लिया जाए तो इस सवाल का जवाब बिल्कुल नफी (इंकार) है, इसके बजाए ये हज़रात भी उलमा मुतक़दमीन (अगले ज़माने के उलमा) की किताबों की तरफ रुजू करते हैं,*
*"•●✿_ फ़र्क़ ये है कि ये हज़रात शाफ़ई मसलक की किताबो के बजाए अल्लामा इब्ने तैमिया, अल्लामा इब्ने हज़्म, अल्लामा इब्नुल कय्यिम, और क़ाज़ी शौकानी जेसे हज़रत की किताबे देखते हैं और हर मसले में उनकी बयान की हुई तहक़ीक़ को अपनी ज़ाती तहक़ीक़ से जांचने का मौक़ा नहीं पाते, बल्की इस ऐतमाद पर उनके क़ौल अख़्तियार करते हैं कि ये हज़रात क़ुरान व सुन्नत के अच्छे आलिम हैं और उनके अक़वाल उमूमन क़ुरान व सुन्नत से मुतआरिज़ ( खिलाफ़) नहीं होते,*
*︶︸︶︸︶︸︶︸︶︸︶*
*☞_(47)_ यहूद व नसारा में अहबार (यहूदी उलमा) व रहबान (इसाई राहिब) की तक़लीद की जाती थी जिसकी क़ुरान ने मज़म्मत की है-3 _,*
*•●✿_और अगर कोई बिल फ़र्ज़ किसी खास मसले में इन हज़रात को कुरान व हदीस के असल ज़खीरे की तहक़ीक़ और तफ्तीश का मौक़ा भी मिल जाए तो किसी हदीस को सही या ज़ईफ क़रार देने के लिए उनके पास अपनी जा़ती तहक़ीक़ का कोई ज़रिया इसके सिवा नहीं है कि आइम्मा के जिरह व ता'दील किये अक़वाल को तक़लीद और सिर्फ तक़लीद अख़्तियार करें, ये हज़रात रसूलल्लाह ﷺ की तरफ़ मंसूब एक हदीस को बाज़ अवका़त ज़ईफ़ कह कर रद्द फरमा देते हैं, अगर पूछा जाए कि इस हदीस के ज़ईफ़ होने की क्या दलील है?*
*●✿_तो इसका जवाब उन हज़रात के पास बजुज़ इसके और कुछ नहीं होता कि इसे फलां मुहद्दिस ने ज़ईफ़ क़रार दिया है, या इसके फलां रावी पर फलां इमाम ने जिरह की है, और जिरह व तादील की किताबों से वाक़िफ़ हर शख़्स जानता है कि इन किताबों में हमेंशा जिरह व ता'दील के तफ़सीली दला'इल मज़कूर नहीं होते, बल्की बिल आख़िर आ'इम्मा फ़न की तहक़ीक़ पर ही एतमाद करना होता है,*
*"_ बल्की बाज़ अवका़त एक सहीह हदीस के मुक़ाबिल दूसरी हदीस भी सहीह सनद से मरवी होती है लेकिन ये हज़रात दूसरी हदीस को महज़ इस बिना पर रद्द कर देते है कि फलां मुहद्दिस ने इसे मरजूह या म'आलूल क़रार दिया है, ये सारा तर्जे अमल तक़लीद नहीं तो और क्या है?*
*●✿_अगर कोई शख़्स इस पर (सूरह तौबा-31) आयत चस्पा करने लगे तो ग़ैर मुक़ल्लिद हज़रात का जवाब इसके सिवा और क्या होगा कि उन आइम्मा फ़न की इता'अत उनको मुस्तक़लन वाजिबुल इताअत समझ कर नहीं की जा रही है बल्की माहिरे फन की हैसियत से उनकी तहक़ीक़ पर एतमाद कर के की जा रही है,*
*•●✿_हकी़क़त ये है कि माहिरे फन की तक़लीद से जिंदगी का कोई गोशा खाली नहीं है और अगर इसको बिल्कुल ममनु'आ क़रार दे दिया जाए तो दीन का कोई काम नहीं चल सकता,*
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*☞ _ (48)_ क्या तक़लीद करना कोई ऐब है?*
*"●✿_ मुख्तलिफ़ रिवायत के ज़रिये ये साबित है कि तक़लीद का रिवाज़ सहाबा के ज़माने में भी था और जो सहाबा बिज़्जा़त खुद इज्तिहाद ना फरमा सकते थे, वो फ़ुक़हा ए सहाबा से रूजू फरमाते थे, इस पर बाज़ हज़रत ने ये ऐतराज फरमाया है कि तक़लीद तो एक ऐब है जो कम इलमी से पैदा होता है, लिहाज़ा सहाबा से तक़लीद साबित करना (नाउज़ुबिल्लाह) उन पर ऐब लगाना है, और ये कौनसा मुक़द्दस तोहफा है जिसे आप सहाबा के लिए साबित फरमा रहे हैं?*
*"●✿_लेकिन ये ऐतराज़ दर हकीकत महज़ जज़्बाती है, वाक़िया ये है कि किसी शख़्स का फ़क़ीह या मुजतहिद ना होना कोई ऐब नहीं और ना आदमी की बड़ाई और अफ़ज़लियत के लिए उसका फ़कीह और मुजतहिद होना ज़रूरी है, किसी शख़्स के ज़्यादा काबिले इकराम व अहतराम होने का असल मैयार तक़वा है, महज़ इल्म नहीं, लिहाज़ा अगर एक शख़्स तक़वा की शराइत पर खरा साबित होता है तो उसमें दीनी ऐतबार से ज़र्रा बराबर ऐब नहीं चाहे उसमें फकी़ह व इज्तिहाद की एक शर्त भी ना पाई जाती हो,*
*"●✿_इस तम्हीद के बाद अर्ज़ है कि सहाबा किराम के उस मुक़ाम पर जो दीनी फ़ज़ीलत का हक़ीक़ी मुक़ाम है, सबके सब बिला इस्तस्ना फ़ा'इज़ हैं और इसलिए उनको बिल्कुल बजा तौर पर ख़ैरुल ख़लाइक बाद अल-अंबिया (अंबिया के बाद तमाम मख़लूक़ात में अफ़ज़ल तरीन) क़रार दिया है, लेकिन जहां तक इल्म व फिक़हा का ताल्लुक़ है इसके बारे में ये दावा करना कि सहाबा सबके सब फुक़हा थे कुरान व हदीस के बिल्कुल खिलाफ हैं,*
*"●✿_ कुराने करीम का इरशाद है (तर्जुमा सूरह तौबा- 122):- पस क्यूं ना निकल पड़ा उनकी हर बड़ी जमात में से एक गिरोह ताकी ये लोग दीन में तफक्का़ हासिल करें और ताकि लौटने के बाद अपनी क़ौम को होशियार करें, शायद वो लोग (अल्लाह की नफ़रमानी से) बचे,*
*"●✿_ इस आयत में सहाबा को ये हुक्म दिया गया है कि उनकी एक जमात अल्लाह के रास्ते में मशगूल हो और दूसरी जमात तफक्का़ हासिल करने में, ये आयत इस बात पर दलालत कर रही है कि बाज़ सहाबा खुद अल्लाह ता'ला के हुक्म के मुताबिक़ तफ़क़्क़ा हासिल करने के बजाय अल्लाह के रास्ते में और दूसरे इस्लामी ख़िदमत में मसरूफ़ हुए, लिहाज़ा सहाबा में फ़क़ीह और ग़ैर फ़कीह की अलहैदगी तो खुद अल्लाह ताला ने फरमाई है, और मंशा ए ख़ुदावंदी के ऐन मुताबिक़ है, इसको ऐब समझने से अल्लाह ताला की पनाह मांगी जाए,*
*"●✿_इसी तरह पहले सूरह निसा की आयत -83 की तफ़सीर गुज़र चुकी है जिससे साफ़ वाज़े है कि सहाबा किराम में से कुछ हज़रात को क़ुरान करीम ने अहले इस्तम्बात क़रार दिया और कुछ को ये हुक्म दिया कि ऐसे मामलात में उन अहले इस्तम्बात की तरफ रूजू करें, सहाबा किराम में अहले इस्तम्बात और गैर अहले इस्तम्बात का फ़र्क खुद कुरान करीम ने फरमाया है,*
*"●✿_ और सरवरे दो आलम ﷺ का ये इरशाद मशहूर व मारूफ है कि:- अल्लाह ताला उस बंदे को शादाब करे जिसने मेरी बात सुनी, उसे याद किया और महफूज़ रखा और दूसरों तक उसको पहुंचाया इसलिये कि बाज़ लोग ऐसे होते हैं कि वो किसी फ़क़ीह की बात को उठाए हुए होते हैं लेकिन खुद फ़कीह नहीं होते और बाज़ लोग ऐसे होते हैं जो फ़क़ीह की बात को उठाए हुए होते हैं और अपने से ज़्यादा फ़कीह तक उसको पहुँचा देते हैं _,*
*"●✿_इस इरशाद के बिला वास्ता मुखातब सहाबा किराम ही हैं और इस इरशाद ने दो बाते वाज़े फरमा दी, एक तो ये कि ऐसा मुमकिन है कि कोई रावी हदीस फ़कीह ना हो, दूसरी ये कि फ़कीह ना होना उसके हक में (मा'ज़ल्लाह) कोई ऐब नहीं, क्यूँकि आन हज़रत ﷺ ने उसे शादाबी की दुआ दी है,*
*"●✿_चूनांचे वाक़िआ ये है कि नबी करीम ﷺ के सोहबत की नियामत ए अनमोल से मुख़्तलिफ़ क़िस्म के हज़रात सरफ़राज़ होते हैं, उनमें हज़रत अबू बकर व उमर रज़ियल्लाहु अन्हुम जेसे हज़रत भी थे, और हज़रत इक़रा बिन हाबिस और हज़रत सलमा बिन सुखरा रज़ियल्लाहु अन्हुम जेसे पाक नफ़्स और सादा अरब के सेहरा नशीन भी थे जिनका तल्लुक शर्फ़े सहाबियत तक़वा व तहारत और फ़ज़ीलत का ताल्लुक़ है, इस ऐतबार से बिला शुब्हा उन पर बाद के हज़ार अहले इल्म व फ़ज़ल क़ुर्बान है और कोई कितना बड़ा मुजतहिद हो जाए उनके बुलंद मुकाम को छू भी नहीं सकता,*
*"●✿_लेकिन जहां तक इन हज़रात को इल्म व फ़िक़्हा के ऐतबार से हज़रत अबू बकर व उमर, हज़रत अली व इब्ने मसूद और दूसरे फुक़हा ए सहाबा किराम की सफ में शामिल करने का ताल्लुक़ है ये खुली हुई हिदायत का इंकार है, यही वजह है कि एक लाख चौबीस हजार सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम में जिन हज़रात के फतावा उम्मत में महफूज़ रहे हैं, उनकी तादाद अल्लामा इब्ने कय्यिम के बयान के मुताबिक़ कुल एक सो तीस से कुछ ऊपर है और ये ख्याल तो बिल्कुल गलत और सहाबा किराम के मिज़ाज से इन्तेहाई अलग है कि उन हज़रात का किसी की तक़लीद करना या किसी से मसला पूंछना (मा'ज़ल्लाह) उनकी शान में किसी तरह ऐब है, ये तो वो हज़रात हैं जिन्होने दीन के मामले में किसी से इस्तेफादे को अदना ऐब नहीं समझा,*
*"●✿_ सहाबा किराम की बेनफ़सी और ख़ुदा के ख़ौफ़ का आलम तो ये था कि उनमें से बाज़ हज़रात तो ताबईन से इल्म हासिल करने और उनसे मसाइल पूछने में अदना ताम्मुल नहीं करते थे, मसलन हज़रत अलक़मा बिन क़ैस हज़रत इब्ने मसूद के शागिर्द हैं और ख़ुद ताबई हैं लेकिन बहुत से सहाबा किराम इल्म व फ़िक़़हा के मामलात में उनकी तरफ रूजू फरमाते थे,*
*®_ (तकलीद की शरई हैसियत -135)*
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*☞(49)_ उलमा की लग्ज़िश किसी के लिए हुज्जत नहीं, फलां आलिम भी तो ये काम करते हैं, से इस्तदाल करना:-*
*"●✿_ हज़रत अमरू बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस ﷺ ने फरमाया कि आलिम की लग्ज़िश से बचो और उससे क़ता ताल्लुक़ मत करो और उसके लौट आने का इंतज़ार करो, आलिम से मुराद वो शख़्स है जिसको अल्लाह ताला ने दीन का इल्म, कुरान करीम का इल्म, हदीस का इल्म, फिक़हा का इल्म अता फरमाया हो, आपको यक़ीन से ये मालूम है कि फलां काम गुनाह है और तुम ये देख रहे हो कि एक आलिम उस गुनाह का इर्तिकाब कर रहा है और उस गलती के अंदर मुब्तिला है, पहला काम तो तुम ये करो कि ये हरगिज़ मत सोचो कि जब इतना बड़ा आलिम ये गुनाह का काम कर रहा है तो लाओ मैं भी कर लूं, बल्की तुम उस आलिम की उस गलती और उस गुनाह से बचो और उसको देख कर तुम गुनाहों के अंदर मुब्तिला न हो जाओ,*
*"●✿_ हदीस के पहले जुमले में उन लोगों की इस्लाह फरमा दी जिन लोगों को जब किसी गुनाह से रोका जाता है और माना किया जाता है कि फलां काम ना-जा'इज और गुनाह है, ये काम मत करो, तो वो लोग बात मानने और सुनने के बजाय फ़ौरन मिसाले देना शुरू कर देते हैं कि फलां आलिम भी तो ये काम करते हैं, हुजूर अकदस ﷺ ने पहले क़दम पर ही इस इस्तदलाल की जड़ काट दी कि तुम्हें उस आलिम की गलती की परवाह नहीं करनी है बल्कि तुम्हें उसकी सिर्फ अच्छाई की पैरवी करनी है, वो अगर गुनाह का काम या कोई गलत काम कर रहा है तो तुम्हारे दिल में ये जुर्रत पैदा न हो कि जब वो आलिम ये काम कर रहा है तो हम भी करेंगे,*
*"●✿_ इस वजह से उलमा किराम ने फरमाया है कि वो आलिम जो सच्चा और सही मा'ने में आलिम हो, उसका फतवा तो मोतबर है, उसका ज़बान से बताया हुआ मसला तो मोतबर है, उसका अमल मोतबर होना जरूरी नहीं, अगर वो कोई ग़लत काम कर रहा है तो उससे पूछो कि ये काम जा'इज़ है या नहीं? वो आलिम यही जवाब देगा कि ये अमल जा'इज़ नहीं, इसलिए तो उसके बताए हुए मसले की इत्तेबा करो, उसके अमल की इत्तेबा मत करो,*
*"●✿_ लिहाज़ा ये कहना कि फलां काम जब आलिम कर रहा है तो लाओ मैं भी ये काम कर लूं, ये इस्तदालाल दुरुस्त नहीं, इसकी मिसाल तो ऐसी है जैसे कोई शख्स ये कहे कि इतने बड़े बड़े लोग आग में कूद रहे है लाओ मैं भी आग में कूद जाऊं, जैसे ये तर्जे अमल ग़लत है इसी तरह वो तर्जे अमल भी गलत है, इसलिए हुजूर अक़दस ﷺ ने फरमाया कि आलिम की लग्ज़िश से बचो यानी उसकी लग्ज़िश की इत्तेबा मत करो_,*
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*☞_(50)_ उलमा फ़रिश्ते नहीं हमारी तरह इंसान हैं:-*
*"●✿__ आलिम से बदगुमान नहीं होना चाहिए, बाज़ लोग एक गलती ये करते हैं कि जब वो किसी आलिम को किसी गलती में या गुनाह में मुब्तिला देखते हैं तो बस फ़ौरन उससे क़ता ताल्लुक़ कर लेते हैं और उससे बुदगुमान हो कर बैठ जाते हैं और बाज़ औका़त उसको बदनाम करना शुरू कर देते हैं कि अरे ये मौलवी तो ऐसे ही होते हैं और फिर तमाम उलमा किराम की तौहीन शुरू कर देते हैं कि आज कल के उलमा तो ऐसे ही होते हैं,*
*"●✿__ हदीस के (जो पिछले हिस्से में गुज़री) दूसरे जुमले में हुजूर अकदस ﷺ ने इसकी भी तरदीद फरमा दी कि अगर कोई आलिम गुनाह का काम कर रहा है तो उसकी वजह से उसने क़ता ताल्लुक़ भी मत करो, क्यू' ? इसलिए कि आलिम भी तुम्हारी तरह का इंसान है, जिस गोश्त पोस्त से तुम बने हो वो भी बना है, वो कोई आसमान से उतरा हुआ फरिश्ता नहीं है, जो जज़्बात तुम्हारे दिल में पैदा होता है, वो जज़्बात उसके दिल में भी पैदा होता है, नफ़्स तुम्हारे पास भी है उसके पास भी है, शैतान तुम्हारे पीछे भी लगा हुआ है उसके पीछे भी लगा हुआ है, ना वो गुनाहों से मासूम है ना वो पैगम्बर है और ना वो फ़रिश्ता है,*
*"●✿__बल्की वो भी इस दुनिया का बशिंदा है और जिन हालात से तुम गुज़रते हो वो भी उन हालात से गुज़रता है, लिहाज़ा ये तुमने कहा से समझ लिया कि वो गुनाहों से मासूम है और उससे कोई गुनाह सरज़द नहीं होगा और उससे कभी गलती नहीं होगी, क्योंकि जब वो इंसान है तो बशरी तकाज़े से कभी उससे गलती भी होगी, कभी वो गुनाह भी कर बैठेगा, लिहाज़ा उसके गुनाह करने की वजह से फ़ौरन उस आलिम से बदगुमान हो जाना सही नहीं, इसलिए हुजूर अक़दस ﷺ ने फरमाया कि फ़ौरन उससे क़ता ताल्लुक़ मत करो, बल्की उसके वापस आने का इंतज़ार करो, इसलिए कि उसके पास सही इल्म मौजूद है, उम्मीद है कि वो इंशा अल्लाह किसी वक़्त लौट आएगा_,*
*"●✿__ लिहाजा प्रोपेगंडा करना और उलमा को बदनाम करते फिरना कि अरे मियां आज कल के मौलवी सब ऐसे ही होते हैं, आज कल के उलमा का तो ये हाल है, ये भी मौजूदा दौर का एक फैशन बन गया है, जो लोग बे- दीन हैं, उनका तो ये तर्ज़े अमल है ही, इसलिए कि उन लोगों को मालूम है कि जब तक मौलवी और उलमा को बदनाम नहीं किया जाएगा, उस वक्त तक हम इस क़ौम को गुमराह नहीं कर सकते, जब उलमा से इनका रिश्ता तोड़ देंगे तो फिर ये लोग हमारे रहम व करम पर होंगे, हम जिस तरह चाहेंगे उनको गुमराह करते फिरेंगे,*
*"_ लेकिन जो लोग दीनदार हैं उनका भी ये फैशन बनता जा रहा है और वो भी आलिम की तौहीन और उनकी बेवक़'अती करते फिरते हैं, लोगो की मजलिसे इन बातों से भरी होती है, हालांकि इन बातों से कोई फ़ायदा नहीं सिवाए इसके कि जब लोगों को उलमा से बदनाम कर दिया तो अब तुम्हें शरीयत के अहकाम कौन बताएगा? अब तो शैतान ही तुम्हें शरीयत के बारे में बताएगा कि ये हलाल है ये हराम है, फिर तुम उसके पीछे चलोगे और गुमराह हो जाओगे,*
*"●✿__लिहाजा उलमा अगरचे बे-अमल नजर आएं, फिर भी उनकी इस तरह तौहीन मत किया करो, बल्की उसके लिए दुआ करो, जब तुम उसके हक़ में दुआ करोगे तो इल्म जो उसके पास मौजूद है, तुम्हारी दुआ की बरकत से इंशा अल्लाह एक दिन वो ज़रूर सही रास्ते पर लौट आएगा,*
*"®_ (इस्लाही खुत्बात- 349)*
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*☞_(51)_ क्या उलमा दीन के ठेकेदार हैं?*
*"●✿_आज कल लोग उलमा किराम पर नाराज़गी का इज़हार करते हुए ये कहते हैं कि ये उलमा तो दीन के ठेकेदार बने हुए हैं, जिस पर चाहा कुफ्र का फतवा लगा दिया, किसी पर फासिक होने का फतवा लगा दिया, किसी पर बिद'अती होने का फतवा लगा दिया, इनकी सारी उमर इसी काम में गुज़रती है कि दूसरो को काफिर बनाते रहें,*
*"●✿_अल्लाह ता'ला ने मुफ्ती साहेबान और फुक़हा किराम को दीन का पासबान बनाया है, उनका फ़र्ज़ है कि जो बात हक़ है वो बता दें, उलमा हज़रात दीन के ठेकेदार तो नहीं हैं अलबत्ता अल्लाह ता'ला ने उन्हें दीन का चौकीदार ज़रूर बनाया है और चौकीदार का काम ये है शिनाख्त के बगैर किसी को अंदर जाने की इजाज़त ना दे हत्ताकी अगर वजीर-ए-आजम भी आ जाएगा तो उसको भी रोक लेगा कि पहले शिनाख्त कार्ड दिखाओ और अपनी शिनाख्त कराओ कि आप वज़ीरे आजम आजम है, इसी तरह उलमा किराम भी दीन के चौकीदार हैं,*
*"●✿_ उलमा किराम आम लोगों को काफ़िर बनाते नहीं हैं, काफिर बताते हैं, जब किसी शख़्स ने कुफ़्र का इरतिकाब कर लिया तो असल में तो खुद उस शख़्स ने कुफ़्र का इरतिकाब किया, उसके बाद उलमा किराम ने ये बताया है कि तुम्हारा ये अमल कुफ्र है, जिस तरह आइना तुम्हें बताता है कि तुम्हारे चेहरे पर धब्बा लगा हुआ है, वो आइना बनाता नहीं और ना दाग धब्बा लगाता है, इसी तरह उलमा किराम भी ये बताते हैं कि तुमने जो अमल किया है वो कुफ्र का अमल है या फिस्क़ का अमल है या बिदअत का अमल है,*
*"●✿_जिस तरह आइने को बुरा भला नहीं कहा जाता और ना आइने पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि आइने ने मेरे चेहरे पर दाग लगा दिया, बिल्कुल इसी तरह उलमा पर भी ये इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए कि उन्होंने काफिर या फासिक़ बना दिया और उन पर नाराज़गी का इज़हार नहीं करना चाहिए, बल्की उनका अहसान मानना चाहिए कि उन्होंने हमारा ऐब बता दिया, अब हम उसकी इस्लाह करेंगे,*
*"●✿_ अलबत्ता बताने के तरीक़े मुख़्तलिफ़ होते हैं, किसी ने आपके ऐब और आपकी ख़राबी को अच्छे तरीक़े से बता दिया, और किसी ने बेढंगे तरीक़े से बता दिया, लेकिन अगर किसी ने आपकी बुराइयाँ ऐसे तरीक़े से आपको बताईं जो तरीक़ा मुनासिब नहीं था तब भी उसने तुम्हारी एक बीमारी पर तुम्हें मतला किया, इसलिए तुम्हें उसका अहसान मानना चाहिए, अरबी के एक शैर का माफ़ूम है कि मेरा सबसे बड़ा मोहसिन वो है जो मेरे पास मेरे ऐबों का हदिया पेश करे, जो मुझे बताए कि मेरे अंदर क्या ऐब है _,"*
*®_ इस्लाही ख़ुतबात- 8/299)*
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*☞_(52)_ उलमा और दीनी मदारिस के बारे में ऐतराजा़त -,*
*"●✿__आज की फ़िज़ा में तरह तरह के प्रोपगंडा, तरह तरह के ऐतराज़ात उलमा और दीनी मदारिस पर किये जा रहे हैं, ऐतराज़ात और तानो का एक सैलाब है जो उन मदारिस की तरफ़ बहाया जा रहा है, ये ऐतराज़ात कुछ तो उन लोगों की तरफ से हैं जो दीन के दुश्मन हैं, वो मदारिस के ख़िलाफ़ प्रोपेगेंडा करते हैं,*
*"●✿__लेकिन बाज़ अवका़त अच्छे खासे पढ़े लिखे और दीन से ताल्लुक़ रखने वाले भी इस प्रोपेगेंडा के शिकार हो जाते हैं, दानिश्ता या गैर दानिश्ता तौर पर उन दीनी मदारिस के बारे में तरह-तरह के खयालात उनके दिलो में पैदा हो जाते हैं, हज़रत मुफ्ती शफी साहब रह. बाज़ औकात हंसी में फरमाया करते थे कि ये मौलवी मलामाती फिरका है, यानि जब कहीं दुनिया में कोई खराबी होगी तो लोग उसे मौलवी की तरफ मोड़ने की कोशिश करते हैं, मौलवी कोई भी काम करे उसमे कोई ना कोई ऐतराज़ का पहलू ज़रूर निकाल लेते हैं,*
*"●✿__खूब समझ लें कि इस्लाम के दुश्मन हक़ीक़त से वाक़िफ हैं और इस रुए ज़मीन के ऊपर जो तबका़ अलहम्दुलिल्लाह इस्लाम के लिए ढाल बना हुआ है वो यही बोरिया नशीनों की जमात है, इन्हीं बोरियों पर बैठने वालों ने अल्हम्दुलिल्लाह इस्लाम के लिए ढाल का काम किया है_,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 7/89)*
*●✿_गर्ज़ मदारिस के बारे में तरह-तरह के प्रोपगंडे फेलाए जा रहे हैं कि ये 1400 साल पुराने लोग हैं, दकियानुसी लोग हैं, ये रज'अत पसंद (जिद्दी, हट धर्मी) लोग हैं, इनको दुनिया के हालात की खबर नहीं है, इनको इस दुनिया में रहने का सलीका नहीं है, इनके पास दुनियावी उलूम व फुनून नहीं है, ये उम्मते मुस्लिमा का पहिया उल्टा चलाने की कोशिश में हैं _,*
*●✿_ये ऐतराज़ भी हो रहा है कि दीनी मदारिस देहशत गर्द बन गए हैं, ये तरक़्क़ी के दुश्मन है, देहशत गर्दी का भी ताना इनके ऊपर, बुनियाद परस्ती का भी ताना इनके ऊपर, रज'अत पसंदी का भी ताना इनके ऊपर, तंग नज़री का भी ताना इनके ऊपर, तरक़्क़ी के दुश्मन होने का ताना भी इनके ऊपर, सारी दुनिया के तानों की बारिश इस बेचारे मौलवी के ऊपर है,*
*●✿_अल्लाह ताला हक़ीक़त को देखने वाली निगाह अता करे तो ये ताने एक दाई हक़ के गले का ज़ेवर है, इसके सर का ताज है, ये वो ताने हैं जो हज़राते अम्बिया अलैहिस्सलाम ने भी सुने और अंबिया अलैहिस्सलाम के वारिसों ने भी सुने और क़यामत तक ये ताने दिए जाते रहेंगे, अल्लाह ताला अपने सीधे रास्ते पर रखे, इखलास अता फरमाये, अपनी रज़ा जोई की फिक्र अता फरमाये, आमीन_,*
*●✿_आज हमारे माहौल के अंदर बार-बार ये आवाज़ उठती है कि दीनी मदारिस को बंद कर दिया जाए, इनको ख़त्म कर दिया जाए, कभी कोई ये कह देता है कि मौलवियों के खाने का कोई बंदोबस्त नहीं है, लिहाज़ा इनको कोई हुनर सिखाना चाहिए ताकि ये अपनी रोटी कमा सके,*
*●✿_हजरत मुफ्ती शफी साहब रह. फरमाया करते थे कि अल्लाह के लिए इस मौलवी की रोटी की फिक्र छोड़ दो, ये अपनी रोटी खुद खा कमा लेगा, इसकी फिक्र छोड़ दो, मुझे कुछ मिसाले ऐसी दे दो कि किसी मौलवी ने फक़रो फाका़ की वजह से खुदखुशी की हो, बहुत से पीएचडी और मास्टर डिग्री रखने वालो की मिसाले मै दे देता हूं जिन्होनें खुदकुशी की और हालात से तंग आ कर अपने आपको खत्म कर डाला और बहुत से ऐसे मिलेंगे जो इन डिग्रियों को ले कर जूतियां चटकाते फिरते हैं लेकिन नौकरी नहीं मिलती, लेकिन एक मौलवी ऐसा नहीं बता सकते जिसने हालात से तंग आ कर खुदकुशी की हो या उसके बारे में ये कहा गया हो कि वो बेकार बैठा है,*
*"●✿_अल्लाह ताला अपनी रहमत से मौलवी का भी इंतेजाम कर देते हैं, दूसरे से बहुत अच्छा इंतेजाम फरमाते हैं, फरमाया करते हैं थे कि खालिके़ कायनात कुत्तो को रोज़ी देता हैं, गधों को देता हैं, खिन्जीर को देता हैं, वो अपने दीन के हामिलो को क्यों नहीं देगा, इसलिए तुम उनकी फिक्र छोड़ दो_,"*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 7/95)*
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*☞_ (53)_ क्या देवबंदियत किसी फिरके़ का नाम है और क्या इनका अकी़दा व मसलक कुरान व हदीस और जम्हूरे उम्मत से अलग है?*
*"●✿_ उलमा ए देवबंद के मसलक की तशरीह व तोज़ीह के लिए असलन किसी अलग किताब की तालीफ़ की ज़रूरत नहीं, इसलिए कि उलमा ए देवबंद कोई ऐसा फ़िरक़ा या जमात नहीं है जिसने जम्हूरे उम्मत से हट कर फ़िक्र व अमल की कोई अलग राह निकाली हो, बल्की इस्लाम की तशरीह ताबीर के लिए 1400 साल में जम्हूरे उलमा ए उम्मत का जो मसलक रह रहा है वही उलमा ए देवबंद का मसलक है _,*
*"●✿_ दीन और इसकी तालीमात का बुनियादी सर चश्मा कुरान व सुन्नत है और सुन्नत की तमाम तालीमात अपने जा़मे शक्ल व सूरत में उलमा ए देवबंद के मसलक की बुनियाद है, अहले सुन्नत वल जमात के अका़इद की कोई भी मुस्तनद किताब उठा कर देख लीजिये उसमें जो कुछ लिखा होगा वही उलमा ए देवबंद के अका़इद हैं, हनफ़ी फ़िक़़हा और उसूले फ़िक़़हा की किसी भी मुस्तनद किताब का मुता'ला कर लीजिये उसमें जो फ़िक़ही मसा'इल व उसूल दर्ज़ होंगे वही उलमा ए देवबंद का फ़िक़ही मसलक है,*
*"●✿_ अखलाक व अहसान की भी मुस्तनद और मुस्लिम किताब की मुराज'अत कर लीजिये वही तसव्वुफ़ और तज़किया अखलाक के बाब में उलमा ए देवबंद का माख़िज़ (बुनियाद) है, अंबिया अलैहिस्सलाम और सहाबा किराम व ताब'ईन से ले कर अवलिया ए उम्मत और बुज़ुर्गाने दीन तक जिन जिन शख्सियतों की जलालत शान और इल्मी व अमली क़द्र व मंज़िलत पर जम्हुरे उम्मत का इत्तेफ़ाक़ रहा है वही शख्सियतें उलमा ए देवबंद के लिए मिसाली और क़ाबिले तक़लीद शख्सियतें हैं,*
*"●✿_ गर्ज़ दीन का कोई गोशा ऐसा नहीं है जिसमें उलमा ए देवबंद इस्लाम की मारुफ़ व मुतावारिस ताबीर और उसके ठेठ मिज़ाज व मज़ाक़ से इख्तिलाफ रखते हों, इसलिए इनके मसलक की तशरीह व तोज़ीह के लिए किसी अलग किताब की ज़रुरत नहीं, इनका मसलक मालूम करना हो तो तफसील के साथ तफसीरे कुरान की मुस्तनद किताबों, मुस्लिम शरह हदीस, फिक़हा हनफी, अका़इद व कलाम और तसव्वुफ व अखलाक की उन किताबों में दर्ज है जो जमहूरे उलमा ए उम्मत के नज़दीक मुस्तनद और मोअतबर है_,*
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*☞ _(54) _ उलमा ए देवबंद पर शख़्सियत परस्ती और असलाफ़ को मा'बूद बनाए रखने का इल्ज़ाम व प्रोपोगंडा _,*
*"●✿_मसलन उलमा ए देवबंद का ऐतदाल ये है कि वो कुरान व सुन्नत पर ईमान ए कामिल के अलावा सलफे सालेहीन पर एतमाद और उनकी पैरवी को भी साथ ले कर चलते हैं, इनके नज़दीक कुरान व सुन्नत की तशरीह व ताबीर में सलफ़े सालेहीन के बयानात और उनके ता'मुल को मरकज़ी अहमियत भी हासिल है और वो उनके साथ अक़ीदत व मुहब्बत को भी अपने मसलक और मशरब का अहम हिस्सा क़रार देते हैं, लेकिन दूसरी तरफ इस अक़ीदत व मुहब्बत को इबादत और शख़्सियत परस्ती की हद तक भी नहीं पहुंचने देते बल्की मरतबे का फ़र्क का उसूल हमेशा इनके पेशे नज़र रहता है,*
*"●✿_ अब जो हज़रात क़ुरान व सुन्नत पर ईमान और अमल के तो मुद्दई है लेकिन उनकी तशरीह व ताबीर में सल्फ़े सालेहीन को कोई मरकज़ी मुक़ाम देने के लिए तैय्यार नहीं बल्कि खुद अपनी अक़ल व फ़िक्र को क़ुरान व सुन्नत की ताबीर के लिए काफ़ी समझते हैं, वो हज़रत उलमा ए देवबंद पर शख़्सियत परस्ती का इल्ज़ाम आ'इद करते हैं और ये प्रोपोगंडा करते हैं कि इन्होंने (माज़ल्लाह) अपने असलाफ़ को मआबूद बना रखा है,*
*"●✿_ और दूसरी तरफ जो हज़रात असलाफ़ की मुहब्बत व अक़ीदत को वाक़ई शख़्सियत परस्ती तक ले गए हैं वो हज़रात उलमा ए देवबंद पर ये तोहमत लगाते रहे हैं कि इनके दिलों में असलाफ़ की मुहब्बत व अज़मत नहीं हैं, या वो इस्लाम की उन मोज़्ज़िज शख्सियतों के बारे में (माज़ल्लाह) गुस्ताख़ी करने वाले हो गए हैं,*
*"●✿_ दोनों क़िस्म के मुतज़ाद प्रोपोगंडा के नतीज़े में एक ऐसा शख़्स जो हक़ीक़ते हाल से पूरी तरह बा ख़बर ना हो, उलमा ए देवबंद के मसलक व मशरब के बारे में गलत फ़हमियो का शिकार हो सकता है,*
*"●✿_इस्लाम एतदाल का दीन है, कुरान ए करीम ने उम्मत ए मुस्लिमा को "उम्मते वसता" कह कर इस बात का एलान फरमा दिया है कि इस उम्मत की एक बुनियादी खुसुसियत तवासुत और एतदाल है, और उलमा ए देवबंद चूंकि इस दीन के हामिल है इसलिए उनके मसलक व मशरब और मिज़ाज व मज़ाक में तबई तौर पर यही ऐतदाल पूरी तरह सरायत किए हुए हैं, इनकी राह इफ़रात और तफरीत के दरमियान से इस तरह गुज़रती है कि इनका दामन दो इंतेहाई सिरों में से किसी से भी नहीं उलझता,*
*"●✿_ और ये ऐतदाल की खासियत है कि इफरात और तफ़रीत दोनों ही इससे शिकायत करते हैं, इफरात इस पर तफ़रीत का इल्ज़ाम आइद करता है और तफ़रीत इस पर इफरात की तोहमत लगाती है, इस वजह से उलमा ए देवबंद के ख़िलाफ भी इंतेहा पसंदाना नज़रियात की तरफ से मुतज़ाद क़िस्म का प्रोपोगंडा किया गया है,*
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*☞_(55)_ पीठ पीछे बुराई चाहे सही हो या गलत हर हाल में गी़बत है_,*
*"●✿__ गीबत के क्या मा'नी है? गीबत के मा'नी है दूसरे की पीठ पीछे बुराई बयान करना चाहे वो बुराई सही हो, वो उसके अंदर पाई जा रही हो, गलत ना हो फिर भी अगर बयान करोगे तो वो गीबत में शुमार होगा_,*
*"●✿__हदीस में आता है कि एक सहाबी ने हुजूर अकदस ﷺ से सवाल किया कि या रसूलल्लाह गी़बत क्या होती है? तो आप ﷺ ने जवाब में फरमाया - अपने भाई का उसके पीठ पीछे ऐसे अंदाज़ में ज़िक्र करना जिसको वो नापसंद करता हो, यानी अगर उसको पता चले कि मेरा ज़िक्र इस तरह से मजलिस में किया गया था तो उसको तकलीफ़ हो और वो उसको बुरा समझे तो ये गीबत है,*
*"●✿__ उन सहाबी ने फिर सवाल किया कि अगर मेरे भाई के अंदर वो ख़राबी वाक़ई मौजूद है जो मैं बयान कर रहा हूँ? तो आप ﷺ ने जवाब में फरमाया कि अगर वो ख़राबी वाक़ई मौजूद है तब तो ये गीबत है और अगर वो ख़राबी उसके अंदर मौजुद नहीं है और तुम उसकी तरफ झूठी निस्बत कर रहे हो तो फिर ये ग़ीबत नहीं, फिर ये बोहतान बन जाएगा और दोहरा गुनाह हो जाएगा _, (अबू दाऊद)*
*"●✿__अब ज़रा हमारी महफ़िलो और मजलिसों की तरफ नज़र डाल कर देखिये कि किस क़दर इसका रिवाज हो चुका है और दिन रात इस गुनाह के अंदर मुब्तिला है, बाज़ लोग इसको दुरुस्त बनाने के लिए ये कहते हैं कि मै गीबत नहीं कर रहा हूं, मैं तो उसे मूंह पर ये बात कह सकता हूं, कह सकता हो या ना कह सकता हो वो हर हालत में गीबत है, बस अगर तुम किसी का बुराई से जिक्र कर रहे हो तो ये गीबत के अंदर दाखिल है और ये गुनाहे कबीरा है_,*
*®_[इस्लाही ख़ुत्बात-4/82]*
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*☞_(56)_ गीबत का कफ़्फ़ारा या तलाफ़ी किस तरह हो?*
*"●✿_बाज़ रिवायात में है जो अगरचे ज़ईफ़ है लेकिन मा'नी के ऐतबार से सही है कि अगर किसी की गीबत हो गई है तो उस गीबत का कफ़्फ़ारा ये है कि उसके लिए खूब दुआएं करो, इस्तग़फ़ार करो, मसलन फ़र्ज़ करो कि आज किसी को गफ़लत से तम्बीह हुई कि वाक़ई आज तक हम बड़ी सख़्त ग़लती के अंदर मुब्तिला रहे, मालूम नहीं किन किन लोगों की गीबतें कर ली, अब आईंदा इंशा अल्लाह किसी की गीबत नहीं करेंगे लेकिन अब तक जिनकी गीबत की है, उनको कहां तक याद करें और उनसे कैसे माफ़ी मांगें? कहां कहां जाएं? इसलिए अब उनके लिए दुआ और इस्तग़फ़ार करो,*
*®_(मिश्कात)*
*"●✿_ अगर जिस शख्स की आपने गीबत की थी अब उसका इंतेकाल हो चुका है तो अब उससे कैसे माफी मांगी जाए? तो उससे माफ कराने का तरीक़ा ये है कि उसके लिए दुआ और इस्तगफार करते रहो, यहां तक कि तुम्हारा दिल गवाही दे दे कि अब वो शख़्स तुमसे राज़ी हो गया होगा,*
*"●✿_ लिहाज़ा हुकूकुल इबादत का मामला अगरचे बड़ा संगीन है जब तक साहिबे हक़ माफ ना करे उस वक्त़ तक माफ नहीं होगा और अगर साहिबे हक़ का इंतिकाल हो गया तो और ज़्यादा मुश्किल है लेकिन किसी सूरत में मायुस होने की ज़रूरत नहीं, किसी भी हालात में अल्लाह ताला ने मायूसी का रास्ता नहीं रखा, इब्तिदा में तो हुकूकुल इबादत का बहुत एहतमाम करो, और उसके ज़ाया होने को संगीन समझो और किसी अल्लाह के बंदे के हक़ को पामाल ना करो,*
*"●✿_ लेकिन अगर किसी का कोई हक़ जा़या हो जाए तो फ़ौरन माफ करा लो और अगर माफ कराने का कोई रास्ता ना हो तो मायूस ना हों बल्की उसके लिए इस्तगफार करते रहो और अल्लाह ताला से दुआ करते रहो या अल्लाह! अपने फ़ज़ल व करम से मुझसे उन बंदो को राज़ी कर दीजिए जिनके हुकूक मैंने पमाल किये और ये दुआ करते रहो कि या अल्लाह! उनके दर्जात बुलंद फरमायें, उनकी मगफिरत फरमायें, उनको रज़ा ए कामिला अता फरमायें, ये दुआ करते रहो, यहां तक कि ये गुमान गालिब हो जाए कि अब वो मुझसे राज़ी हो गए होंगे,*
*®_इस्लाही मजालिस- 1/186)*
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*☞_(57)_ क्या हज्जाज बिन यूसुफ की गी़बत करना जायज़ है?*
*"●✿_आज हज्जाज बिन युसूफ को कौन मुसलमान नहीं जानता जिसने बेशुमार ज़ुल्म किये, कितने उलमा को शहीद किया, कितने हाफिजों को क़त्ल किया हत्ताकी उसने काबा शरीफ पर हमला कर दिया, ये सारे बुरे काम किये और जो मुसलमान भी उसके इन बुरे कामों को पढ़ता है तो उसके दिल में उसकी तरफ से कराहत पैदा होती है,*
*"●✿_लेकिन एक मर्तबा एक शख़्स ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के सामने हज्जाज बिन यूसुफ़ की बुराई शुरू कर दी और उस बुराई के अंदर गीबत की, तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़ौरन टोका और फ़रमा दिया कि ये मत समझाना कि अगर हज्जाज बिन युसूफ ज़ालिम है तो अब उसकी गीबत हलाल हो गई या उस पर बोहतान बांधना हलाल हो गया, याद रखो! जब अल्लाह ताला क़यामत के दिन हज्जाज बिन युसुफ से उसके ना-हक़ क़त्ल और ज़ुल्म और खून का बदला लेंगे तो तुम उसकी जो गीबत कर रहे हो या बोहतान बांध रहे हो तो उसका बदला अल्लाह ताला तुमसे लेंगे,*
*"●✿_ ये नहीं कि जो शख़्स बदनाम हो गया तो उसकी बदनामी के नतीजे में उस पर जो चाहो इल्ज़ाम आइद करते चले जाओ, उस पर बोहतान बांधते चले जाओ और उसकी गीबत करते चले जाओ _,"*
*®_ (इस्लाही ख़ुत्बात- 1/91)*
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*☞_(58)_ क्या अपने आपको हक़ीर, फ़क़ीर नाकारा कहना तवाज़ो है ?*
*"●✿_बाज़ लोग तवाज़ो करते हुए अपने आपको नाकारा नाचीज़ कह दिया करते हैं कि हम तो नाकारा हैं, अक्सर और बेश्तर ये सब झूठ होता है, झूठ होने की दलील ये हैं कि अगर उसका नाकारा कहने के जवाब में कह दिया जाए कि बेशक आप वाकई नाकारा हैं तो उस वक्त उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? दिल में उसका ये जवाब नागवार होगा,*
*"●✿_ये नागवार होना इस बात की दलील है कि ये शख़्स जो अपने आपको नाकारा कह रहा था ये दिल से नहीं कह रहा था बल्कि अपने आपको इसलिए नाकारा कह रहा था कि लोग मुझे मुतावाज़े समझें और लोग जवाब में मुझे यह कहें कि नहीं हज़रत! आप तो बड़े आलिम व फ़ाज़िल हैं, आपके दर्जात तो बहुत बुलंद है',*
*"●✿_देखिए! इसमें कितने मर्ज़ जमा हो गए, लिहाज़ा ये अल्फ़ाज़ कहना कि मैं नाकारा हूं, ये तवाज़ो नहीं बल्की तवाज़ो का दिखावा है, चुनांचे हम लोग अपने आपको हक़ीर पुर तक़सीर, नाकारा, आवारा के जो अल्फ़ाज़ लिखते हैं ये अक्सर और बेश्तर अमराज़ का मजमूआ होता है, असल बात ये है कि इन अल्फाज़ के इस्तेमाल से कुछ नहीं होता, क्यूंकी अपने आपको कमतर कहना तवाज़ो नहीं है बल्की अपने आपको कमतर समझना तवाज़ो है,*
*"●✿_ जो शख़्स हक़ीक़ी मुतवाज़े होगा वो तकल्लुफ़ाना ये अल्फ़ाज़ इस्तेमाल नहीं करेगा और ऐसा शख़्स चाहे ज़बान से अपने आपको नाकारा और आवारा कुछ भी कहे लेकिन दिल में हर वक़्त उसको अपने ऐबो पर नज़र होती है जिसके नतीजे में वो अपने आपको सारी मख़लूक़ से कमतर समझता है,*
*®"_(इस्लाही मजालिस-5/21)*
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*☞_(59)_ बदगुमानी क्या है और क्यों हराम है?*
*"●✿_ एक शख़्स के तर्जे अमल से उसके बारे में आपको कुछ शुबहा हुआ और दिल में वसवसा आया कि मालूम होता है कि उसने फलां काम किया होगा, अगर दिल में ये बात वसवसा खुद बा खुद आया और खुद बा खुद दिल में शुबहा पैदा हुआ तो इस पर कोई गुनाह नहीं, क्योंकि इसमें आपके अख्तियार को कोई दखल नहीं,*
*"●✿_ मसलन रमज़ान के दिन में आपने एक शख़्स को होटल से निकलते देखा, आपके दिल में ख्याल आएगा कि ऐसा मालूम होता है कि उसने रोज़ा तोड़ा है, अब ये जो ख्याल दिल में खुद बा खुद पैदा हुआ ये कोई गुनाह नहीं, लेकिन दिल में जो ख्याल पैदा हुआ था, इस पर आपने पहले ऐतक़ाद और यकीन कर लिया के ये साहब होटल में रोज़ा तोड़ने के लिए दाख़िल हुए थे और खाना खा कर बाहर आये हैं, इसका यक़ीन कर लिया और दूसरे अहतमालात की तरफ़ ध्यान नहीं किया,*
*"●✿_ और फिर इससे आगे बढ़ कर ये किया कि दूसरे के सामने बयान करना शुरू कर दिया कि मैंने खुद उसको रोज़े में खाते हुए देखा है, हालांकी उसने सिर्फ ये देखा था कि वो शख़्स होटल से निकल रहा था, खाते हुए नहीं देखा था, दूसरे के सामने इस तरह बयान कर रहा है जैसे खुद उसने खाते हुए देखा था और सो फीसद यक़ीन के साथ दूसरों से कह रहा है कि ये शख़्स रोज़ा खोर है, ये बदगुमानी हराम है और ना-जायज़ है,*
*"●✿_ इसलिए हज़रत फ़रमाते हैं कि - मज़मूम (बुरी) बदगुमानी वो है जो खुद लाई जाए, बाक़ी जो वसवसा खुद आए वो मज़मूम बदगुमानी नहीं जब तक उस पर अमल न हो और अमल की सूरत ये है कि या दिल से इस पर ऐतक़ाद जाज़िम कर ले (यानी यक़ीन कर ले पहले सिर्फ बदगुमान था फिर इस गुमान को यक़ीन से तबदील कर दिया) या ज़ुबान से किसी के सामने इसका तज़किरा कर दिया, ये दूसरा दर्जा हराम है इससे बचना ज़रूरी है,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 1/221)*
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*☞_(60)_ क्या तसव्वुफ़ बिदअत है?*
*"●✿__आज इल्मे तसव्वुफ के बारे में लोग इफरात व तफरीत में मुब्तिला हो गए हैं, बाज़ लोग तो समझते हैं कि तसव्वुफ का शरीयत से कोई वास्ता नहीं और कुराने करीम और हदीस मुबारक में इसका कहीं ज़िक्र नहीं बल्कि तसव्वुफ को अख्तियार करना बिदअत है, खूब समझ लें कि कुरान करीम और हदीस मुबारक ने अखलाक़ को दुरुस्त करने का जो हुक्म दिया है, वही तसव्वुफ का मोजु़ है, इसलिए यह तसववुफ कुरान और हदीस मुबारका के खिलाफ नहीं,*
*"●✿__ जबकी दूसरे बाज़ लोगों ने तसव्वुफ़ को ग़लत मानी पहना दिए है, उनके नज़दीक तसव्वुफ़ में मानी है मुराक़बे करना, कश्फ़ हासिल होना, इल्हाम होना, ख्वाब और उसकी ताबीर और करामात का हासिल होना वगैरा, उनके नज़दीक इसका नाम तसव्वुफ़ है, इसके नतीजे में उन लोगों ने बाज़ औका़त तसव्वुफ़ के नाम पर ऐसे काम शुरू कर दिये जो शरीयत के खिलाफ़ है और इस सिलसिले में दो तसर्रुफ़ कर लिये,*
*"●✿__ एक तसर्रुफ तो ये किया कि बहुत से लोग जो अपने आपको सूफी कहते हैं लेकिन साथ में भांग भी पी रहे हैं और कहते हैं कि ये भांग मौलवियों के लिए हराम है लेकिन सूफियों के लिए हलाल है, इसलिए कि हम तो भांग पी कर अल्लाह ताला का तकर्रुब हासिल कर रहे हैं, अल्लाह हिफ़ाज़त फरमाए, खुदा जाने कहां कहां के खुराफात, गलत अक़ीदे मुश्रिकाना ख़्यालात दाखिल कर दिए और इसका नाम तसव्वुफ रख दिया,*
*"●✿__ दूसरा तसर्रुफ ये किया कि मुरीद पीर का गुलाम है, जब एक मर्तबा किसी को पीर बना लिया तो अब वो पीर चाहे शरीयत के खिलाफ अमल करे, चाहे हराम कामों का इरतिकाब करे लेकिन मुरीद के ज़िम्मे उनके क़दमों को चूमना लाज़िम है और हर चंद रोज़ के बाद उस पीर को नज़राना पेश करना लाज़िम है क्योंकि जब तक वो पीर साहब को इस तरह ख़ुश नहीं करेगा, जन्नत के दरवाज़े उसके लिए खुल नहीं सकते, अल्लाह हिफ़ाज़त फरमाये,*
*"●✿__ तसववुफ का ये तसव्वुर ना कुरान करीम में है और न हदीस में है, इस तसव्वुर का कोई ताल्लुक शरीयत और सुन्नत से नहीं है, जबकि तसववुफ का असल तसव्वुर अखलाक़ की इस्लाह और बातिनी आमाल की इस्लाह था, इसके लिए ज़रूरी था कि कोई शख़्स किसी मुत्तबा ए सुन्नत सही इल्म रखने वाले सही अक़ीदे रखने वाले शख़्स को अपना मुक़्तदा बनाए, जिसने खुद अपनी तरबियत किसी बड़े से कराई हो, जिस तरह सहाबा किराम ने हुज़ूर अकदस ﷺ को अपना मुक़तदा बनाया कि आप हमारे मुरबबी हैं, हमारी तरबियत करने वाले हैं, हमारे आमाल और अखलाक़ को दुरुस्त करने वाले हैं, इसलिए आपकी इताअत हमें करनी है, ये तसव्वुर बिल्कुल दुरुस्त था और ये पीरी मुरीदी सही थी और क़ुरान व सुन्नत के मुताबिक थी, कुरान व हदीस में जगह जगह अच्छे अखलाक़ अख्तियार करने की तलक़ीन फरमाई गई है,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 15/122)*
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*☞_(61)_ क्या तसव्वुफ़ सिर्फ पीरी मुरीदी और वज़ाइफ़ व अज़कार का नाम है?*
*●✿_आज लोगों ने तसव्वुफ के बारे में गलत फहमियां पैदा कर के इसको एक मलगुबा बना दिया है, आज तसव्वुफ नाम हो गया इस बात का कि किसी पीर साहब के पास चले गए, उनके हाथ पर हाथ रख कर बैत कर ली और उन्होंने कुछ वजी़फे बता दिए कुछ ज़िक्र सिखा दिए कि सुबह को ये पढ़ा करो, शाम को ये पढ़ा करो, और बस अल्लाह खैर सल्ला, अब न बातों की फिक्र न अखलाक के दुरुस्त करने का एहतमाम, न अखलाके फाजिला को हासिल करने का शोक, ना अखलाके रजीला को ख़त्म करने की फ़िक्र, ये सब कुछ नहीं बस बैठे हुए वज़ीफ़े पढ़ रहे हैं और बाज़ अवका़त ये वज़ीफ़े पढ़ना बीमारियों के अंदर ज़्यादा शिद्दत पैदा करता है,*
*●✿_ पहले ज़माने में सूफिया किराम के यहां मामूल था कि किसी शख्स की इस्लाह का पहला क़दम ये होता था कि उसके अखलाक की इस्लाह करने की फिक्र करते, उसके लिए मुजाहिदे करवाते जाते, रियाज़ते होती थी, रगड़ा जाता था तब जा कर अंदर की इस्लाह होती थी और उसके बाद इंसान किसी क़ाबिल होता था,*
*●✿_ हलांकी तसव्वुफ का असल मक़सद ये है कि तुम्हारे जज़्बात सही होने चाहिए, तुम्हारे अखलाक सही होने चाहिए, तुम्हारी ख्वाहिशात सही होनी चाहिए और उनको किस तरह सही किया जाए, ये आमाले तसव्वुफ के अंदर बताए जाते हैं, तसव्वुफ की हक़ीक़त बस इतनी है, इसके आगे लोगों ने जो बाते तसव्वुफ के अंदर दाखिल कर दी है, उसका तसव्वुफ से कोई ताल्लुक नहीं, जिस तरह फुक़हा जाहिरी आमाल मसलन नमाज़ रोज़ा ज़कात हज खरीद फरोख्त निकाह व तलाक़ के अहकाम बयान करते हैं, इसी तरह सूफिया किराम दिल में पैदा होने वाले जज़्बात के अहकाम बयान करते हैं,*
*●✿_इसी तरह बाज़ लोग ये समझते हैं कि तसव्वुफ़ का मक़सद ये है कि आदमी कहीं तन्हाई में बेठ कर मुराक़बा करे और चिल्ला काटे मुजाहिदा करे, हालांकी ये सब चीज़ें भी तसव्वुफ़ का असल मक़सद नहीं है बल्की असल मक़सद को हासिल करने के लिए मुख्तलिफ तरीक़े और रास्ते हैं, तसव्वुफ का असल मक़सद वो है जिसकी तरफ कुरान करीम में इरशाद फरमाया यानी तज़किया ए नफ्स जिसको अल्लाह ताला ने हुजूर अक़दस ﷺ की बैसत के मक़सद में बयान फरमाया,*
*●✿_तज़किया के लफ़्ज़ी मानी है पाक साफ करना, शरीयत की इस्तिलाह में तज़किया से मुराद ये है कि जिस तरह इंसान के ज़ाहिरी आमाल व अफ़'आल होते हैं और उनके बारे में अल्लाह ताला के अवामिर हैं मसलन कि नमाज़ पढ़ो, रोज़ा रखो, ज़कात दो, हज करो वगैरा, ये अवामिर है और झूठ न बोलो, गीबत न करो, शराब न पियो, चोरी न करो, डाका न डालो वगैरा गुनाह है इनसे बचने का शरीयत ने हुक्म दिया है,*
*"❀_इसी तरह इंसान के बातिन यानी दिल में बाज़ सिफ़ात मतलूब है वो अवामिर में दाख़िल हैं, उनको हासिल करना वाजिब है और उनको हासिल किए बगैर फ़रीज़ा अदा नहीं होता और बाज़ सिफ़ात ऐसी है 'जिनको छोड़ना वाजिब है और वो नवाही में दाखिल है, मसलन अल्लाह ताला की नियामत पर शुक्र करना वाजिब है, अगर कोई नागवर वाक़िया पेश आए तो उस पर सब्र करना वाजिब है, अल्लाह ताला पर तवक्कुल और भरोसा रखना वाजिब है, तवाज़ो अख्तियार करना यानी अपने आपको कमतर समझना वाजिब है, इखलास हासिल करना यानि जो काम भी आदमी करे वो सिर्फ अल्लाह ताला की रज़ा के लिए करे, इस इखलास को हासिल करना वाजिब है, इखलास के बगैर कोई अमल मकबूल नहीं, लिहाज़ा ये सिफ़ाते शुक्र, सब्र, तवक्कुल, तवाज़ो, इख़लास वगैरा ये सब सिफ़ात फ़ज़ा'इल और अख़लाक़ ए फ़ाज़िला कहलाती है, इनका हासिल करना वाजिब है,*
*"❀_इसी तरह दिल के अंदर बाज़ बुरी सिफ़ात है जो हराम और ना-जा'इज़ है जिनसे बचना ज़रूरी है, वो रज़ा'इल और अखलाके रज़ीला कहलाती है, यानी ये सिफ़ात कमीनी और घटिया सिफ़ात है अगर ये सिफ़ात दिल के अंदर मौजूद हों तो उनको कुचला और मिटाया जाता है ताकि ये सिफ़ात इंसान को गुनाह पर अमादा ना करें,*
*"❀_ मसलन तकब्बुर करना यानि अपने आपको बड़ा समझना, रियाकारी और दिखावा यानी इंसान अल्लाह को राज़ी करने के बजाय मखलूक़ को राज़ी करने के लिए और उनको दिखाने के लिए कोई दीनी काम करे ये रिया है, लिहाज़ा तकब्बुर हराम, हसद हराम, बुग़्ज़ हराम, रियाकारी हराम और बे सब्री यानी अल्लाह ताला के फैसले पर राज़ी न होना बल्की अल्लाह ताला की तक़दीर पर शिकवा करना हराम है, ये सब रजा़'इल हैं जो इंसान के बातिन में मौजूद होते हैं, इसी तरह गुस्से को अगर इंसान बे महल इस्तेमाल करे तो ये भी रज़ा'इल में दाख़िल है,*
*"❀_खुलासा ये है कि बातिन में बहुत से फ़ज़ा'इल है जिनको हासिल करना ज़रूरी है और बहुत से रज़ा'इल है जिनसे बचना ज़रूरी है और हज़राते सूफ़िया किराम और मशाइख़ ये काम करते हैं कि अपने मुरीदीन और शागिर्दो के दिलों में अखलाक़ फ़ाज़िला की आबयारी करते हैं और अखलाक रज़ीला को कुचलते हैं ताकि ये अखलाक़ रज़ीला कुचलते कुचलते न होने के हुक्म में हो जाएं, जिसके लिए हज़रत थानवी रह.ने फरमाया - बातिन के अंदर जो रज़ीला है उसको इतना कुचलो और उसको इतना पीटो कि उसके बाद वो रज़ीला बाक़ी तो रहेगा ख़त्म तो नहीं होगा लेकिन ना होने के हुक्म में हो जाएगा, बहर हाल! तसव्वुफ़ में रज़ा'इल को कुचलना होता है और फ़ज़ा'इल को हासिल करना होता है, इसका नाम तज़किया है और बस यही तसव्वुफ़ का असल मक़सद है,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 1/30)*
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*☞_(62)_ नफ़्स और बातिन की इस्लाह के लिए शेख़ की ज़रूरत क्यों है?*
*"●✿_ लेकिन आम तौर पर ये चीज़ किसी शेख की सोहबत हासिल किए बगैर और शेख के सामने आपको फ़ना किए बिना हासिल नहीं होती, क्यू? इसलिए हर फन को हासिल करने के लिए उसके माहिर के पास जाना ज़रूरी है, अगर फिक़हा का मसला मालूम करना हो तो किसी मुफ्ती के पास चले जाओ क्योंकि उसको ये फन आता है, वो जानता है कि किस सवाल का क्या जवाब देना चाहिए,*
*"●✿_लेकिन आमाले बातिना के बारे में महारत हासिल करना और ये पहचानना कि इस शख़्स के अंदर ये बीमारी पैदा हो रही है या नहीं? क्योंकि बातिन की बीमारियां भी मख्फ़ी और बारीक क़िस्म की होती है, एक चीज़ बड़ी अच्छी है और दूसरी चीज़ बड़ी ख़राब है, लेकिन दोनों के दरमियान फ़र्क करना बड़ा मुश्किल है, मसलन तकब्बुर करना हराम है और इससे बचना वाजिब है, इसलिए कि ये तकब्बुर बीमारियों की मां है, लेकिन दूसरी सिफत इज्ज़ते नफ्स है, इसको हासिल करना वाजिब है क्योंकि अपने नफ्स को ज़लील करना जायज़ नहीं लेकिन ये देखना कि कहां तकब्बुर है और कहां इज्ज़ते नफ्स है, जो काम मै कर रहा हूं ये तकब्बुर की वजह से कर रहा हूं या ये इज्ज़ते नफ्स की वजह से कर रहा हूं, दोनों के दरमियान इम्तियाज को पहचानना कि ये तकब्बुर है और ये इज्ज़ते नफ्स है, ये हर एक के बस की बात नहीं,*
*"●✿_ खास तोर पर इंसान का खुद अपने अंदर बीमारियों को पहचानना बड़ा मुश्किल है, मसलन एक बीमारी है अपनी बड़ाई बयान करना कि मै ऐसा हूं और वेसा हूं, मेरे अंदर ये अच्छाई है, मेरे अन्दर ये ख़ूबी है, ये हराम है और इसी को त'अल्ली (बड़ाई) कहा जाता है, दूसरी चीज़ है नियामत की नाशुक्री, अब कौन इसके दरमियान फ़र्क करे कि मै जो अपनी अच्छाई बयान कर रहा हुँ ये त'अल्ली है या नियामत की नाशुक्री कर रहा हूँ,*
*"●✿_इसी तरह तवाज़ो बड़ी उम्दा चीज़ है, आला दर्जे की सिफ़त है और मतलूब है, एक दूसरी सिफ़त होती है ज़िल्लेते नफ़्स यानी दूसरे के सामने नफ़्स को ज़लील करना, ये हराम है, अल्लाह ताला ने नफ़्स की इज़्ज़त वाजिब की है, इसको ज़लील नहीं करना चाहिए, लेकिन दोनों के दरमियान फ़र्क करना कि कौनसा अमल तवाज़ो की वजह से किया जा रहा है और कौनसे काम में ज़िल्लतें नफ़्स है, इनके दरमियान फ़र्क़ करना हर एक के बस की बात नहीं है, कभी तवाज़ो की सरहद ज़िल्लते नफ़्स के साथ मिल जाती है और कभी इसकी सरहद नाशुक्री के साथ मिल जाती है, अब किस हद तक तवाज़ो करे और किस हद तक तवाज़ो ना करे, कहाँ तवाज़ो है और कहाँ नाशुक्री है? इनके दरमियान फ़र्क को पहचानना हर एक का काम नहीं जब तक किसी शेख से तरबियत हासिल न कर ले,*
*●✿_ये चीज़ महज़ पढ़ा देने से हासिल नहीं होती कि किताब में पढ़ कर खुद ही उसके फ़ायदे और नुक़सान निकालने शुरू कर दिए, याद रखिए यह इस क़िस्म का काम नहीं है बल्कि ये काम अमली तरबियत से आता है, जब किसी शेख को मुसलसल आदमी देखता रहे और उसके तर्ज़े अमल का मुशाहिदा करता रहे और उसको अपनी हालत बता कर उससे हिदायात लेता रहे, उसके नतीजे में फिर इंसान को ये इल्म हासिल होता है कि अमल और अखलाक़ का ये दर्जा काबिले हुसूल सिफत है और ये कैफियत या दरजा क़ाबिले तर्क रज़ीला है,*
*●✿_इसी तरह इंसान के बातिन के जो फ़ज़ाइल हैं मसलन तवाज़ो है अगर इसकी लफ़्ज़ों में कोई मुकम्मल तारीफ़ बयान करना चाहे तो बहुत मुश्किल है, लेकिन जब किसी मुतवाज़े आदमी को देखोगे और उसके तर्ज़े अमल का मुशाहिदा करोगे और उसकी सोहबत में रहोगे तो उसके नतीजे में वो औसाफ तुम्हारे अंदर भी मुंतकिल होने शुरू हो जाएंगे, इसलिए तसव्वुफ और सुलूक में शेख की सोहबत और उसकी तरफ रूजू करने की ज़रूरत होती है,*
*●✿_ बहरहाल! पीर और शेख के हाथ पर बैत होना कोई फ़र्ज़ नहीं कि आदमी किसी शेख के हाथ पर हाथ रख कर ज़रूर बैत हो जाए लेकिन अपनी इस्लाह करना ज़रूरी है और जब अपनी इस्लाह के लिए कोई शख़्स अपने शेख की तरफ रूजू करता है तो इस रूजू करने का असल मक़सद यही होता है कि आदमी को फज़ाइल हासिल हो और रजा़इल से आदमी बच जाए, सुलूक व तसव्वुफ का ये असल मक़सद है,*
*●✿_ अलबत्ता इस सिलसिले में ज़िक्र व विर्द या मुख़्तलिफ़ वज़ाइफ़ मुईन व मददगार हो जाते हैं, मगर हर शख़्स के लिए अज़कार व विर्द की मिक़दार, उसका मौक़ा और वक्त़, ये शेख की रहनुमाई और मशवरे से ही मुकर्रर करने की ज़रूरत होती है और इसमें इस्लाहे हाल का फ़ायदा होता है, वर्ना आम हालात में ये अज़कार इस दर्जे में खुद मकसूद नहीं बल्कि असल काम अपने अख़लाक़ की इस्लाह है और उसका तज़किया है, जिसके लिए ज़रूरी है कि शेख को अपने हालात की इत्तेला देता रहे और उसेसे हिदायात लेता रहे और फिर उन हिदायतों पर अमल करता रहे बस सारी ज़िंदगी यही काम करता रहे, शेख की तरफ रूजू करने का असल मक़सद यही होता है,*
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*☞_(63)_ आज कल के दौर में शिबली, जुनैद बगदादी, शेख अब्दुल का़दिर जीलानी और बायजीद बस्तामी जैसे लोग कहां से तलाश करें?*
*"●✿_ अब सवाल ये पैदा होता है कि सच्चे लोग कहां से लाएं? हर शेख दावा करता है कि मैं भी सच्चा हूं, मैं भी सादिक हूं बल्कि लोग ये कहा करते हैं कि साहब! आज कल तो धोखा बाज़ी का दौर है, हर शेख लंबा कुर्ता पहन कर और अमामा सर पर लगा कर और दाढ़ी लंबी कर के कहता है कि मैं भी सादिक़ीन में दख़िल हूं, ये हालात नज़र आती है तो आप कहां से लाएं वो सादिकी़न जिनकी सोहबत इंसान को कीमिया बना देती हैं, कहां से लाएं वो अल्लाह वाले जिनकी एक नज़र से इंसान की ज़िंदगी बदल जाती है,*
*"●✿_हजरत मौलाना मुफ्ती शफी साहब रह. इसका बड़ा उम्दा जवाब दिया करते थे, फरमाते थे कि मियां! लोग ये कहते हैं कि आज कल सादिकी़न कहां से तलाश करें ? हर जगह अय्यारी मक्कारी का दौर है, तो बात है असल ये है कि ये ज़माना है मिलावट का, हर चीज में मिलावट, घी में मिलावट, चीनी में मिलावट, आटे में मिलावट, दुनिया की हर चीज में मिलावट, यहां तक कि कहते हैं ज़हर में भी मिलावट है,*
*"●✿_ लेकिन ये बताओ कि अगर खालिस नहीं मिलता तो किसी ने आटा खाना छोड़ दिया कि साहब आटा तो अब खालिस मिलता नहीं लिहाज़ा आटा नहीं खाएंगे, या घी अगर खालिस नहीं मिलता तो किसी ने घी खाना छोड़ दिया कि साहब घी तो अब खालिस मिलता नहीं लिहाजा अब मिट्टी का तेल इस्तेमाल करेंगे, किसी ने भी बावजूद इस मिलावट के दौर के ना आटा खाना छोड़ा, ना चीनी खानी छोड़ी, ना घी खाना छोड़ा, बल्कि तलाश करता है कि घी कौनसी दुकान पर अच्छा मिलता है और कौनसी बस्ती मे अच्छा मिलता है,*
*"●✿_तो फरमाया कि बेशक आटा घी चीनी कुछ खालिस नहीं मिलती लेकिन तलाश करने वाले को आज भी मिल जाता है, अगर कोई अल्लाह का बंदा तलाश करना चाहे तो उसको आज के दौर में भी सादिकी़न मिल जाएंगे, ये कहना बिल्कुल शैतान का धोखा है कि आज के दौर में सादिकी़न ख़त्म हो गए, अरे जब अल्लाह ताला फरमा रहा है के तुम सादिकी़न के साथी बन जाओ, ये हुक्म क्या सिर्फ सहाबा किराम के दौर के साथ मखसूस था कि वो सहाबा किराम इस पर अमल कर सकें, बीसवीं सदी में आने वाले इस पर अमल नहीं कर सकते? ज़ाहिर है कि कुराने करीम के हर हुक्म पर क़यामत तक जब तक मुसलमान बाक़ी है अमल करना मुमकिन रहेगा,*
*"●✿_हजरत मुफ्ती शफी साहब रह. फरमाया करते थे कि मियां! आज कल लोगों का हाल ये है कि खुद चाहे किसी हालत में हों, गुनाहों में मासियत में, कबीरा में फिस्क व फिज़ूर मे मुब्तिला हों, लेकिन अपने लिए सादिकी़न तलाश करेंगे तो मैयार सामने रखेंगे जुनेद बगदादी का, शेख अब्दुल का़दिर जीलानी का और बायजीद बस्तामी का और बड़े बड़े औलिया किराम का जिनका नाम सुन रखा है कि साहब! हमें तो ऐसा सादिक़ चाहिए जैसा कि जुनेद बगदादी या शेख अब्दुल का़दिर जीलानी थे, हालांकि उसूल ये है कि जैसी रूह वैसे फरिश्ते, जैसे तुम हो वैसे ही तुम्हारे मुसलेह होंगे, तुम जिस मैयार के हो तुम्हारे लिए यही लोग काफी हो सकते हैं, जुनेद व शिबली के मैयार के ना सही लेकिन तुम्हारे लिए ये भी काफी है,*
*"●✿__ बल्की हज़रत मुफ़्ती साहब फरमाते थे कि मैं तो क़सम खा कर कहता हूँ अगर कोई शख़्स अल्लाह ताला की तलब ले कर अपनी मस्जिद के अनपढ़ मोज़्ज़िन की सोहबत में जा कर बैठेगा तो उसकी सोहबत से भी फ़ायदा पहुंचेगा, इस वास्ते कि वो मोज़्ज़िन कम से कम 5 वक़्त अल्लाह का नाम बुलंद करता है, उसकी आवाज़ फ़िज़ाओं में फैलती है, वो अल्लाह के कलमे को बुलंद करता है, उसकी सोहबत में जा कर बैठो, तुम्हें उससे भी फ़ायदा पहुंचेगा,*
*"●✿__यही शैतान का धोखा है कि साहब हमें तो उस मैयार का बुज़ुर्ग और उस मैयार का मुसलेह चाहिए, ये इंसान को धोखा देने की बात है, हक़ीक़त में तुम्हारी अपनी इस्लाह के वास्ते तुम्हारे मैयार के और तुम्हारी सतह के मुसलेह आज भी मोजूद हैं,*
*®_ (इस्लाही ख़ुत्बात- 14/112)*
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*☞_(64)_ तसर्रुफ और उसके मुताल्लिक़ गलत फहमी - शेख ने एक नज़र डाली और दिल की दुनिया बदल गई_,*
*"●✿_ लोग समझते हैं कि जब किसी अल्लाह वाले के पास आदमी जाता है या किसी शेख की खिदमत ने हाज़री देता है और उससे इस्लाही ताल्लुक़ का़यम करता है और उससे बैत होता है तो वो अपनी नज़र से काम बना देते हैं, शेख ने एक नज़र डाल दी तो बस दिल की दुनिया बदल गई,*
*"●✿_ खूब समझ लीजिए कि इस्लाहे नफ़्स के लिए ये कोई मामूल का तरीक़ा नहीं है, लिहाज़ा ये नहीं होगा कि कोई अल्लाह वाला नज़र डालेगा तो तुम्हारी हालत बदल जाएगी और तुम्हारे हालात में खुद बा खुद इंक़लाब आ जाएगा बल्की करना तो खुद ही पड़ेगा, हिम्मत करनी होगी, कोशिश करनी होगी, मशक्कत उठानी होगी, शेख का काम सिर्फ इतना है कि वो तवज्जो दिला दे और रास्ता बता दे, ऐसी तदबीरें बता दे जिसके जरिए काम निसबतन आसान हो जाए लेकिन करना खुद ही पड़ेगा, चलना खुद ही पड़ेगा,*
*●✿"_ कोई शख़्स ये सोचे कि मुझे खुद कुछ करना ना पड़े बल्कि दूसरा आदमी मुझे मंजिल तक पहुंचा दे, तो ये बात नहीं है, अगर ऐसा होता तो फिर अंबिया अलैहिस्सलाम को दीन फैलाने के लिए मुजाहिदे और मशक़्क़ते उठाने की ज़रूरत ना होती, बस लोगो पर एक नज़र डाल देते और सब लोग मुसलमान हो जाते,*
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*☞_(65)_ पिछले ज़माने के सूफिया किराम के यहां इस क़िस्म के चंद वाक़ियात मिलते हैं कि शेख ने एक नज़र डाली और एक नज़र से ज़िन्दगी में इन्क़लाब आ गया _,*
*"●✿_इस बारे में कुछ बातें समझने की हैं, पहली बात तो ये है कि ये नज़र डालना तसर्रुफ है और ये तसर्रुफ करना हर एक को नहीं आता और तसर्रुफ ना आना कोई ऐब की बात नहीं, यानी अगर किसी शेख और वली अल्लाह की नज़र में तसर्रुफ़ की कुव्वत न हो तो उसके अंदर कोई ऐब नहीं, अगर तसर्रुफ़ की ये कुव्वत हासिल हो जाए तो अल्लाह की नियामत है और अगर हासिल न हो तो कोई ऐब नहीं,*
*"●✿_दूसरी बात ये है कि तसर्रुफ़ का हासिल सिर्फ ये है कि जिस शख़्स पर तसर्रुफ़ किया गया है, तसर्रुफ़ के नतीजे में उसकी तबियत में ज़रा सा निशात पैदा हो जाता है लेकिन ये निशात देर तक नहीं रहता बल्कि वक्त़ी होता है, आगे काम उसको खुद ही करना पड़ता है, ये नहीं हो सकता कि इस तसर्रुफ के नतीजे में सारी उमर काम करता रहे, इस तसर्रुफ की मिसाल ऐसी है जैसे गाड़ी को धक्का लगाया गया, अगर गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही है तो उसको धक्का लगा कर स्टार्ट करने की कोशिश की जाती है, इस धक्का लगाने से उस गाड़ी में चलने की थोड़ी सी सलाहियत पैदा हुई, लेकिन जब धक्के के जरिए स्टार्ट हो गई तो अब वो गाड़ी इंजन और पेट्रोल की ताक़त से चलेगी, लेकिन अगर इंजन ही खराब हो या पेट्रोल ही नहीं है तो फिर हजार धक्के लगाओ, गाड़ी नहीं चलेगी, बस धक्का लगाने से दो चार क़दम चल कर खड़ी हो जाएगी,*
*"●✿_ बिल्कुल इसी तरह अगर इंसान के अंदर सुलुक में और अल्लाह ताला के रास्ते में चलने की हिम्मत और ताक़त है तो किसी की नज़र पड़ जाने से उसके अंदर चलने की सलाहियत पैदा हो गई और तबियत के अंदर ज़रा सा निशात पैदा हो गया, अब अगर अपने अंदर ताक़त है तो वो उसके जरिए आगे चलेगा लेकिन अगर अंदर ही ताक़त नहीं है तो हजार नज़र डालते रहो, हज़ार तसर्रफ करते रहो कुछ नहीं होगा, हां! वक्त़ी तौर पर थोड़ा सा जज़्बा पैदा होगा फिर वो ठंडा पड़ जायेगा,*
*"●✿_ बहरहाल! ये नज़र ना तो देर तक रहने वाली चीज़ है ना हमेशा रहने वाली, ना ये हर एक को हासिल होती है, ना कोई ये ऐसी कोई सिफ़ात है जिसका ना होना ऐब हो, और अगर नज़र से फ़ायदा हो भी जाए तो वो वक्त़ी होगा, आखिर में काम अपनी हिम्मत ही से करना होगा, इंजन अपना मजबूत करना होगा, इसी इंजन से ही गाड़ी चलेगी, धक्के से नहीं चलेगी, लिहाज़ा असल काम ये है कि अपनी हिम्मत को ताज़ा करो,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 1/85)*_
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*☞_(66)_ सूफ़िया किराम से मनक़ूल ज़िक्र के खास तरीक़ो पर बिदअत होने का एतराज़:-*
*"●✿_ हजरात सूफिया किराम ने ज़िक्र के खास तरीक़े जो बयान फरमाये हैं, उनका मक़सद ये था कि जिक्र में इंसान का दिल लग जाए, और ये तरीके़ बतौर इलाज के बयान फरमाये हैं, इसलिए याद रखिए कि खास तरीके़ ना मकसूद है, ना मसनून है और ना इन तरीकों को मसनून समझना जायज़ है,*
*"●✿_ मसलन हमारे तमाम मशाइख के यहां 12 तस्बीह बहुत मारूफ है, ये तस्बीह ज़र्ब लगा कर की जाती है, मगर ये खास तरीका़ ना मक़सूद है और ना मसनून है, अगर कोई शख़्स इसको मसनून समझ ले तो ये तरीक़ा बिदअत हो जाएगा, बल्कि इसके जायज़ होने की शर्त यही है कि इसके बारे में ये तसव्वुर रखा जाए कि ये तरीक़ा मुब्तदी (शुरू करने वाले) को सिर्फ इलाज के तौर पर बताया जाता है, ताकि उसका दिल ज़िक्र में लग जाये और ख़यालात में यकसुई पैदा हो जाये,*
*"●✿_आज कल लोग इफरात व तफ़रीत में मुब्तिला हैं, चुनांचे बाज़ लोग ज़र्ब लगा कर ज़िक्र करने को बिदअत कहते हैं और ये कहते हैं कि हुज़ूर अकदस ﷺ से कहीं साबित नहीं है कि आप ﷺ ने इस तरह ज़र्ब लगा कर ज़िक्र फरमाया हो और ना किसी सहाबी से ज़र्ब लगा कर ज़िक्र करना साबित है और जब ऐसा ज़िक्र साबित नहीं है और तुम लोग ऐसा ज़िक्र कर रहे हो, लिहाज़ा ये ज़िक्र बिदअत है,*
*"●✿_चुना'चे एक साहब मुझसे कहने लगे कि आपके तमाम मशाइख बिद'अति है (मा'अज़ल्लाह) इसलिए कि ये मशाइख ज़र्ब लगा कर ज़िक्र करने की तलक़ीन करते हैं और इस तरह ज़िक्र करना हुज़ूर अक़दस ﷺ से साबित नहीं, मैंने उन साहब से पूछा कि जब तुम्हें नज़ला ज़ुकाम होता है तो तुम जोशांदा पीते हो? कहने लगे कि हां पीता हूं, मैंने पूछा कि क्या हुज़ूर अक़दस ﷺ से जोशांदा पीना साबित है? या हुज़ूर अकदस ﷺ ने कभी जोशांदा पिया है? या किसी सहाबी से जोशांदा पीना साबित है?*
*"●✿_कहने लगे कि जोशांदा पीना तो साबित नहीं, मैंने कहा कि जब साबित नहीं तो आपका जोशांदा पीना बिदअत हो गया इसलिए क्योंकि आपका दावा इसके बगैर साबित नहीं हो सकता कि यूं कहा जाए कि जो चीज़ हुजूर अक़दस ﷺ से साबित न हो वो बिदअत है, तो चुनाचे जोशांदा पीना भी साबित नहीं लिहाज़ा ये भी बिदअत है,*
*"●✿_दर हक़ीक़त सही बात ये है कि जिक्र करने के ये सारे तरीक़े इलाज हैं, यानी जिस शख्स का जिक्र में दिल नहीं लगता और जिक्र में उसकी तबियत नहीं होती तो उसके इलाज के लिए ये तरीका़ बता दिया गया कि तुम इस तरीक़े से ज़िक्र कर लो, ताकि ज़िक्र में तुम्हारा दिल लग जाए, गोया कि जोशांदा पिलाया जा रहा है,*
*®_ (इस्लाही मजालिस- 3/59)*
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*☞_(67)_ ज़िक्रे जहरी अफ़ज़ल है या ज़िक्रे ख़फ़ी :-*
*"●✿__याद रखिए शक व शुब्हा की गुंजाईश नहीं, ज़िक्र जितना आहिस्ता आवाज़ से होगा उतना ही अफ़ज़ल होगा, क़ुरान ए करीम का इरशाद है:-(सूरह आ'राफ-55) अपने रब को आजिजी़ से और चुपके चुपके पुकारो_,*
*"_दूसरी जगह इरशाद है -(आ'राफ़-205) अपने रब को अपने दिल में पुकारो व आजिज़ी के साथ और डरते हुए और ज़ोर की आवाज़ की निस्बत कम आवाज़ के साथ_,*
*"●✿__इससे मालूम हुआ कि ज़्यादा ज़ोर से ज़िक्र करना पसंद नहीं, पसंदीदा ज़िक्र वो है जो आहिस्ता आवाज़ के साथ हो, ये उसूल हमेशा का है, अब्दी है और क़यामत तक कभी नहीं टूट सकता कि अफ़ज़ल ज़िक्र ज़िक्रे खफी (आहिस्ता आवाज़ से) है, ज़िक्र जितना आहिस्ता किया जाएगा उतना ही ज़्यादा सवाब मिलेगा, अलबत्ता ज़िक्रे जहरी (आवाज़ से) जायज़ है ना-जायज़ नहीं, लिहाज़ा जिक्रे जहरी कभी ज़िक्रे खफी से अफ़ज़ल नहीं हो सकता,*
*"●✿__ अलबत्ता इलाज के तौर पर जिक्रे जहरी करने में कोई मुजा़यका नहीं लेकिन अगर कोई शख्स ज़िक्रे जहरी को अफ़ज़ल समझने लगे, या कोई शख़्स ज़िक्रे जहरी को मक़सूद समझ ले या मसनून समझ ले, या ज़िक्रे जहरी ना करने वाले पर नकीर करने लगे, तो फ़िर यही चीज़ बिदअत बन जाती है, इस रास्ते में इसी इफ़रात व तफ़रीत से बच कर गुज़रना है,*
*"●✿__बात दर असल ये है कि जब काम आगे बढ़ता है तो अपनी हद पर नहीं रहता, अब ज़िक्र के तरीक़े सूफिया किराम ने बतौर इलाज के बताए थे लेकिन रफ्ता रफ्ता ये तरीके खुद मक़सूद बन गए, अब हर सिलसिले वालों ने अपने लिए ज़िक्र का एक तरीक़ा मुक़र्रर कर लिया है, ये उस सिलसिले की ख़ुसूसियत बन गई है, अब इस सिलसिले से वाबस्ता लोग बाहर के लोगों को ये बावर कराते हैं कि आप जिस तरीक़े से ज़िक्र करते हैं वो तरीक़ा सही नहीं या अफ़ज़ल नहीं, सही और अफ़ज़ल तरीक़ा वो है जो हमारे शेख ने बताया है, इस तरह से जो चीज़ मक़सूद नहीं थी वो मक़सूद क़रार पा गई, इसी का नाम बिदअत है, इसकी जड़ काटनी है,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 3/61)*
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*☞_ (68)_ तावीज़ गंडे और झाड़ फूंक की शरायत:-*
*•●✿_ जहां तक अल्लाह के नाम के ज़रीये झाड़ फूंक का ताल्लुक़ है वो खुद हुजूर अक़दस ﷺ से और आपके सहाबा से साबित है, इसलिये वो ठीक है लेकिन इसके जवाज़ के चंद शरायत इंतेहाई ज़रूरी है, इनके बगैर ये अमल जायज़ नहीं,*
*"•●✿_ पहली शर्त ये है कि जो कलमात पढ़ें जाएं, उनमे कोई कलमा ऐसा न हो जिसमे अल्लाह ताला के सिवा किसी और से मदद माँगी गई हो, इसलिये कि बाज अवका़त उनमें " या फलां" के अल्फ़ाज़ होता हैं और उस जगह पर अल्लाह के अलावा किसी और का नाम होता है, ऐसा तावीज़ गंडा ऐसी झाड़ फ़ूंक हराम है जिसमे गैरुल्लाह से मदद ली गई हो,*
*"•●✿_ दूसरी शर्त ये है कि अगर झाड़ फूंक के अल्फाज़ या तावीज़ में लिखें हुए ऐसे हैं जिनके मानी मालूम नहीं कि क्या मानी है? ऐसा तावीज़ इस्तेमाल करना भी ना-जायज़ है, इसलिये कि हो सकता है कि वो कोई मुशरिकाना कलमा हो और उसमे गैरुल्लाह से मदद मांगी गई हो या उसमे शैतान से ख़िताब हो, इसलिये ऐसे तावीज़ बिल्कुल ममनु और ना-जायज़ है, ऐसे तावीज़ जिसमे ऐसी बात लिखी हुई हो जिसका मतलब ही समझ मे नही आता ऐसा तावीज़ हराम है,*
*"•●✿_ बाज़ तावीज़ एसे होते है जिसमे गैरुल्लाह से मदद माँगी जाती है, वो चाहे नबी हो, चाहे वली हो और चाहे कितना बड़ा बुज़ुर्ग हो, अल्लाह के सिवा किसी और से मुराद माँगी जाती है और वो शिर्क के क़रीब इंसान को पहुँचा देती है, एसे तावीज़ बिलकुल हराम है और इंसान को शिर्क के क़रीब पहुंचा देते है इसलिये फुक़हा किराम ने फरमाया कि तावीज़ में अगर कोई ऐसी बात लिखी हुई है जो हम और आप समझते नहीं है तो क्या पता उसमे कोई गैरुल्लाह से मदद मांग ली गई हो, कोई शिर्क का कलमा उसके अंदर मौजूद हो, इस वास्ते ऐसा तावीज़ इस्तेमाल करना बिल्कुल जायज़ नहीं है,*
*"•●✿_ लेकिन अगर कुरान करीम की आयात है उनको भी अदब के साथ इस्तेमाल किया जाए या कोई ज़िक्र है अल्लाह ताला का या कोई दुआ है जो तावीज़ में लिख दी गई थी तो वो जायज़ है लेकिन उसमे कोइ सवाब नहीं,*
*®_(इस्लाही खुतबात- 15/52)*
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*☞_(69)_ हर काम और हर ख्वाहिश तावीज़ गंडे के ज़रिये पूरा करवाने की कोशिश करना सही नहीं _,*
*"●✿__ लोगों ने सारा दीन तावीज़ गंडे में समझ लिया है और उनका ख़याल ये है कि दुनिया की कोई गर्ज़ ऐसी ना हो जिसका इलाज कोई तावीज़ ना हो, चुनांचे उनको हर काम के लिए एक तावीज़ चाहिए, फ़लां काम नहीं हो रहा, उसके लिए क्या वजी़फा पढ़ूं? फलां काम के लिए एक तावीज़ दे दें लेकिन हमारे अकाबिर ने ऐतदाल को मल्हूज़ रखा कि जिस हद तक हुजूर ﷺ ने अमल किया है उस हद तक उन पर अमल करें, ये नहीं कि दिन रात आदमी यहीं काम करता रहे और दीन व दुनिया का हर काम तावीज़ गंडे के ज़रिये करे, ये बात गलत है,*
*"●✿__ अगर ये अमल दुरुस्त होता तो फिर सरकारे दो आलम ﷺ मुशरिकीन पर कोई ऐसी झाड़ फूंक करते कि वो सब हुजूर ﷺ के क़दमों में आ कर ढ़ेर हो जाते, आप ﷺ ने इस झाड़ फूंक पर कभी कभी अमल भी किया है लेकिन इतना गुलु और इन्हिमाक भी नहीं किया कि हर काम के लिए तावीज़ गंडे को इस्तेमल फरमाते,*
*"●✿__ तावीज़ गंडे और झाड़ फूंक करना न इबादत है और न इस पर सवाब, याद रखें ! तावीज़ और झाड़ फूंक के ज़रिये इलाज जाइज़ है मगर ये इबादत नहीं, कुरान करीम की आयात को और क़ुरान करीम की सूरतों को और अल्लाह ताला के नामों को अपने किसी दुनियावी मक़सद के लिए इस्तेमाल करना ज़्यादा से ज़्यादा जायज़ है लेकिन ये काम इबादत नहीं और इसमें सवाब नहीं है,*
*"●✿__ ये झाड़ फूंक और ये तावीज़ कोई इबादत नहीं बल्कि इलाज का एक तरीक़ा है, इस पर कोई अजरो सवाब मुरत्तब नहीं होता, यही वजह है कि इसकी उजरत लेना देना भी जायज़ है, अगर ये इबादत होती तो इस पर उजरत लेना जायज़ ना होता क्यूँकि किसी की इबादत पर उजरत लेना जायज़ नहीं, मसलन कोई शख़्स तिलावत करे और उस पर उजरत ले तो ये हराम है लेकिन तावीज़ पर उजरत लेना जायज़ है,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 15/22)*
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*☞_(70)_ दुआ तावीज़ झाड़ फूँक वगेरा से बा दर्जा अफ़ज़ल और बेहतर है _,*
*"●✿_नबी करीम ﷺ दुआ ज़रूर फरमाते थे, इसलिए कि सबसे बड़ी और असल चीज़ दुआ है, अगर बराहे रास्त अल्लाह ताला से मांगो और दो रका'त सलातुल हाजत पढ़ कर अल्लाह ताला से दुआ करो कि या अल्लाह! अपनी रहमत से मेरा ये मक़सद पूरा फरमा दीजिए, या अल्लाह! मेरी मुश्किल हल फरमा दीजिए, या अल्लाह! मेरी ये परेशानी दूर फरमा दीजिए, तो इस दुआ करने में सवाब ही सवाब है,*
*"●✿_हुजूर अकदस ﷺ की सुन्नत ये है कि जब कोई हाजत पेश आए तो अल्लाह ताला की बारगाह में दुआ करो और अगर दो रका'त सलातुल हाजत पढ़ कर दुआ करो तो ज़्यादा अच्छा है, इससे ये होगा कि जो मक़सद है वो अगर मुफीद है तो इंशा अल्लाह हासिल होगा और सवाब तो हर हाल में मिलेगा,*
*"●✿_ दुआ करना चाहिए चाहे दुनिया की ग़र्ज़ से हो, वो सवाब का मोजिब है, इसलिए कि दुआ के बारे में रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया की दुआ बिज्ज़ात खुद इबादत है, लिहाज़ा अगर किसी शख़्स को सारी उमर झाड फूंक का तरीक़ा ना आये, तावीज़ गंडे का तरीक़ा ना आये लेकिन वो बराहे रास्त अल्लाह से दुआ करे तो यक़ीनन उसका ये अमल उस तावीज़ और झाड़ फूंक से बा दर्जा अफ़ज़ल और बेहतर है,*
*"●✿_लिहाजा़ हर वक्त तावीज़ गंडे में लगे रहना ये अमल सुन्नत के मुताबिक नहीं, जो बात नबी करीम ﷺ और सहाबा किराम से जिस हद तक साबित है उसको उसी हद पर रखना चाहिए, इससे आगे नहीं बढ़ना चाहिए, अगर कभी ज़रूरत पेश आए अल्लाह ताला का नाम ले कर झाड़ फूंक करने में कोई हर्ज नहीं लेकिन हर वक्त़ इसके अंदर लगे रहना और गुलु करना और इसको अपना मशगला बना लेना किसी भी तरह से दुरुस्त नहीं,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 15/58)*
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*☞_(71)_ ख्वाब और उसकी ताबीर:-*
*"●✿__ हमारे यहां ख्वाब के मामले में बड़ी इफरात व तफ़रीत पाई जाती है, बाज़ लोग तो वो हैं जो सच्चे ख्वाब के क़ायल ही नहीं, ना ख़्वाब के क़ायल है ना ख़्वाब की ताबीर के का़यल है, ये ख़्याल गलत है, इसलिए कि हदीस में आया है कि हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि सच्चे ख्वाब नबुवत का 46 वा हिस्सा हैं और आप ﷺ ने फरमाया कि ये सच्चे ख्वाब मुबश्शिरात है,*
*"●✿__ और दूसरी तरफ बाज़ लोग वो हैं जो ख्वाबों ही के पीछे पड़े रहते हैं और ख्वाब ही को मदारे निजात और फजी़लत समझते हैं, अगर किसी ने अच्छा ख्वाब देख लिया तो बस उसके मो'तक़िद हो गए और अगर किसी ने अपने बारे में अच्छा ख्वाब देखा तो वो अपना ही मो'तक़िद हो गया कि मैं अब पहुंचा हुआ बुजुर्ग हो गया हूं _,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 5/90)*
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*☞_ (72)_ ख्वाब में नबी करीम ﷺ की ज़ियारत की ख्वाहिश करना :-*
*●✿_अल्हम्दुलिल्लाह! अल्लाह ताला अपने फ़ज़ल से बहुत से लोगों को ये सआदत अता फरमा देते हैं और उनको ख्वाब में हुजूर ﷺ की ज़ियारत होती है, ये बड़ी अज़ीम निआमत और अज़ीम सआदत है लेकिन इस मामले में हमारे बुज़ुर्गो के ज़ौक़ मुख़्तलिफ़ रहे हैं, एक ज़ौक तो ये है कि इस सआदत के हुसूल की कोशिश की जाती है और एसे अमल किये जाते हैं जिससे सरकारे दो आलम ﷺ की ज़ियारत हो जाये और बुज़ुर्गो ने ऐसे खास अमल लिखे है,*
*●✿_ मसलन ये कि जुमा की शब में इतनी मर्तबा दरूद शरीफ पढ़ने के बाद फलां फलां अमल कर के सोयें तो सरकारे दो आलम ﷺ की ज़ियारत होने की तवक़्क़ो और उम्मीद होती है, इस क़िस्म के बहुत से अमल मशहूर हैं, अब अगर कोई शख़्स इस ज़ौक के पेशे नज़र ख़्वाब में ज़ियारत की कोशिश करना चाहे तो कर ले और इस सआदत से सरफ़राज़ हो जाए,*
*"●✿_लेकिन दूसरे बाज़ हज़रात का ज़ौक़ कुछ और है, मसलन हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. के पास एक साहब आया करते थे, एक मर्तबा आकर कहने लगे कि तबियत में हुज़ूर ﷺ की ज़ियारत का बहुत शौक़ हो रहा है, कोई ऐसा अमल दीजिए जिसके नतीजे में ये नियामत हासिल हो जाए और सरकारे दो आलम ﷺ की ज़ियारत ख्वाब में हो जाए,*
*"●✿_हज़रत मुफ्ती साहब ने फरमाया कि भाई! तुम बड़े हौसले वाले आदमी हो कि तुम इस बात की तमन्ना करते हो कि सरकारे दो आलम ﷺ की ज़ियारत हो जाये, हमें ये हौसला नहीं होता कि ये तमन्ना भी करें, इसलिए कि हम कहां और नबी करीम ﷺ की ज़ियारत कहां? इसलिए कभी इस क़िस्म के अमल सीखने की नौबत ही नहीं आई और ना कभी ये सोचा कि ऐसे अमल सीखे जाएं, इसलिए कि अगर ज़ियारत हो जाए तो हम उसके आदाब, उसके हुकूक, उसके तकाज़े किस तरह पूरे करेंगे? इसलिए खुद से इसके हुसूल की कोशिश नहीं की, अलबत्ता अगर अल्लाह ताला अपने फ़ज़ल से खुद ही ज़ियारत करा दे तो ये उनका इनाम है और जब खुद कराएंगे तो फिर उसके आदाब की भी तौफीक़ बख्श देंगे _,"*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 5/94)*
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*☞_ (72)_ ख्वाब में नबी करीम ﷺ का किसी बात का हुक्म देना :-*
*"●✿_ये बात समझ लेनी चाहिए कि अगर ख्वाब में हुजूर ﷺ की ज़ियारत हो गई तो इसका हुक्म ये है कि चुंकी हुजूर ﷺ का फरमान है कि जो कोई मुझे ख्वाब में देखता है तो मुझे ही देखता है इसलिये कि शैतान मेरी सूरत में नहीं आ सकता, लिहाज़ा अगर ख्वाब में हुजूर अक़दस ﷺ की ज़ियारत हो और वो कोई ऐसा काम करने को कहें जो शरीयत के दायरे में है, मसलन फ़र्ज़ है या वाजिब है या सुन्नत है या मुबाह है तो फिर उसको अहतमाम से करना चाहिए, इसलिए कि जो काम शरीयत के दायरे में है उसके करने का जब आप ﷺ हुक्म फरमा रहे हैं तो वो ख्वाब सच्चा होगा, उस काम को करना ही उसके हक़ में मुफीद है और अगर नहीं करेगा तो बाज़ अवका़त उसके हक़ में बेबरकती शदीद हो जाती है,*
*"●✿_ लेकिन अगर ख्वाब में हुजूर अकदस ﷺ ऐसी बात का हुक्म दें जो शरीयत के दायरे में नहीं है, मसलन ख्वाब में हुजूर ﷺ की ज़ियारत हुई और ऐसा महसूस हुआ कि आप ﷺ ने एक ऐसी बात का हुक्म फरमाया जो शरीयत के ज़ाहिरी अहकाम के दायरे में नहीं है तो ख़ूब समझ लीजिये, उस ख़्वाब की वजह से वो काम करना ज़रूरी नहीं होगा,*
*"●✿_इसलिए कि हमारे देखे हुए ख्वाब की बात को अल्लाह ताला ने मसाइल ए शरीयत में हुज्जत नहीं बनाया और जो इरशादात हुजूर ﷺ से क़ाबिले एतमाद वास्तों से हम तक पहुंचें हैं वो हुज्जत हैं ,उन पर अमल करना जरूरी है, ख्वाब की बात पर अमल करना जरूरी नहीं, क्योंकि ये बात तो सही है कि शैतान हुजूर ﷺ की सूरते मुबारका में नहीं आ सकता लेकिन बसा अवका़त ख्वाब देखने वाले के ज़ाती ख़्यालात उस ख्वाब के साथ मिल कर गडमड हो जाते हैं और उसकी वजह से उसको ग़लत बात याद रह जाती है या समझने में गलती हो जाती है, इसलिए हमारे ख्वाब हुज्जत नहीं,*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 5/97)*
*®-(इस्लाही ख़ुतबात- 5/101)*
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*☞_(73) _ कश्फ़ क्या होता है ?*
*"●✿__ ख्वाब तो सोने की हालत में होता है लेकिन बाज़ अवका़त अल्लाह ताला बेदारी की हालत में कुछ चीज़ें दिखाते हैं जिसे कश्फ़ कहते हैं, चुनांचे अगर किसी को कश्फ़ हो गया तो लोग उसको सब कुछ समझते बैठे कि ये बहुत बुज़ुर्ग आदमी है, अब चाहे बेदारी के अंदर उसके हालात सुन्नत के मुताबिक़ ना भी हो _,*
*"●✿__ खूब समझ लीजिए कि इंसान की फजी़लत का मैयार ख्वाब और कश्फ़ नहीं बल्की असल मैयार ये है कि उसकी बेदारी की जिंदगी सुन्नत के मुताबिक है या नहीं? बेदारी की हालत में वो गुनाहों से परहेज़ कर रहा है या नहीं? बेदारी की हालत मे वो अल्लाह ताला की इताअत कर रहा है या नहीं? अगर इताअत नहीं कर रहा है तो फिर उसको हजार ख्वाब नजर आए हो, हजार कश्फ़ हुए हो, हज़ार करामाते उसके हाथ पर सादिर हुई हों वो मैयार ए फजी़लत नहीं,*
*"●✿__आज कल इस मामले में बड़ी सख्त गुमराही फैली हुई है, पीरी मुरीदी के साथ इसको लाज़िम समझ लिया गया है, हर वक्त लोग ख्वाबों और कश्फ़ व करामात ही के पीछे पड़े रहते हैं, आज आप देखिए कि ये जितने जाहिल पीर हैं जो बिदअत में मुब्तिला है वो इन्ही ख्वाबों को सब कुछ समझते हैं, कोई ख्वाब देख लिया या कश्फ़ हो गया, इल्हाम हो गया और उसकी बुनियाद पर शरीयत के खिलाफ अमल कर लिया, ख्वाब तो ख्वाब है, अगर किसी को कश्फ़ हो जाए जो जागते और बेदारी की हालत में होता है, उसमें आवाज़ आती है और वो आवाज़ कानों को सुनाई देती है लेकिन इसके बावजूद कश्फ़ शरीअत में हुज्जत नहीं,*
*"●✿__ कोई शख़्स कितना ही पहुंचा हुआ आलिम या बुज़ुर्ग हो, उसने अगर ख़्वाब देख लिया या उसको कश्फ़ हो या इल्हाम हो गया वो भी शरई अहकाम के मुक़ाबले में हुज्जत नहीं, वो चीज़ हुज्जत है जो हुज़ूर अक़दस ﷺ से बेदारी के आलम में साबित हैं, कभी ख्वाब कश्फ़ और इल्हाम और करामात के धोखे में मत आना, हज़रत थानवी रह. फरमाते हैं कि कश्फ़ तो दीवानो बल्कि काफिरों को भी हो जाता है इसलिए कभी धोखे में मत आना कि नूर नज़र आ गया, या दिल चलने लगा या दिल धड़कने लगा वगैरा, इसलिए कि ये सब चीज़ें ऐसी हैं कि शरीयत में इन चीज़ों का कोई मदार नहीं,*
*︶︸︶︸︶︸︶︸︶︸︶*
*☞_ (74) _ ऐसे मा'शरे में कैसे चलें ? क्या करें? दुनियादारी भी करनी पड़ती है _,*
*"●✿_आज की दुनिया में जब लोगों से ये कहा जाता है कि शरीयत पर चलो, वाजिबात और फ़राइज़ बजा लाओ, गुनाहों से बचो, अल्लाह ताला ने जिन चीज़ों को हराम क़रार दिया है उनसे बचो, तो बाज़ कहने वाले ये कहते हैं कि कैसे करें ? माहौल तो सारा का सारा बिगड़ा हुआ है, बाहर निकले तो निगाहों को पनाह नहीं मिलती और दफ्तरों में जाओ तो रिशवत का बाज़ार गरम है, किसी मजमे में जाओ वहां औरतें और मर्दों का ऐसा इख्तिलात है कि निगाहों को बचाना मुश्किल है, सारा माशरा उल्टी दिशा में जा रहा है,*
*"●✿_ रिशवत का बाज़ार गर्म है, रिशवत ना लो तो चलो ठीक है, ना दो तो काम नहीं बनता, लोग मजबूर हो जाते हैं, पूरा बाज़ार सूद के करोबार से भरा हुआ है, ना-जा'इज़ मामलात दिन रात हो रहे हैं, हलाल और हराम की फ़िक्र नहीं है, माहौल पूरा गलत सिम्त में जा रहा है, मै तन्हा अकेला इस माहौल में क्या करुं, कैसे चलूं ? शरीयत के अहकाम पर कैसे अमल करुं ?*
*"_ मेरे शेख हज़रत आरिफी कुद्दुसुल्लाह सरह अल्लाह ताला उनके दर्जात बुलंद फरमाये, वो फरमाया करते थे कि ज़रा तसव्वुर करो कि मैदाने हश्र में तुम अल्लाह ताला के सामने खड़े हो और अल्लाह ताला तुमसे तुम्हारे आमाल की बाज पुर्स फ़रमा रहे हैं, पूछ रहे हैं कि तुमने ये गुनाह क्यों किया था? हमारी नाफ़रमानी क्यों की थी? आप उसके जवाब में ये कहते हैं कि या अल्लाह! मैं क्या करता ? आपने पैदा ही ऐसे ज़माने में किया था, जिसमें चारो तरफ़ मा'सियतो का गुनाहों का बाज़ार गर्म था, माहौल ख़राब था, कहीं पर भी जाता तो दीन पर चलना मुश्किल हो रहा था, तो ऐसे ज़माने में आपने पैदा किया तो मैं मजबूर हो गया और गुनाहों में मुब्तिला हो गया,*
*"●✿_ अगर अल्लाह ताला इसके जवाब में तुमसे ये कहें कि अगर तुमको मुश्किल हो रहा था, माहौल के ख़िलाफ़ चलना मुश्किल लग रहा था तो हमसे रूजू क्यों नहीं किया? हमसे क्यों नहीं मांगा? हमने तो पूरे क़ुरान में जगह जगह कहा था- बेशक अल्लाह ताला हर चीज़ पर का़दिर है, और तुम भी ईमान लाए थे इस बात पर कि अल्लाह ताला हर चीज़ पर का़दिर है और तुम हर नमाज़ के अंदर ये कहते भी थे ''इय्याका नाअबुदु वा इय्याका नस्ताईन'' तो ये बताओ जब तुम्हें मुश्किल पेश आ रही थी तो तुमने हमसे रूजू कर के क्यूं नहीं मांगा? कि या अल्लाह मेरे लिए मुश्किल हो रहा है, माहौल ख़राब है, ज़माना पलट चुका है, इस माहौल और इस ज़माने में मेरे लिए दीन पर चलना मुश्किल हो रहा है, या अल्लाह मुझे अपनी रहमत से तौफीक दे दीजिए और मेरी मदद फरमा दीजिए कि मै आपके बताए हुए तरीक़े के मुताबिक जिंदगी गुजार दूं, हमसे क्यों नहीं मांगा ?*
*"●✿_बताओ इसका क्या जवाब है? इसका कोई जवाब नहीं, अल्लाह ताला ने तो हर रोज़ हर नमाज़ में हर रकात में सूरह फातिहा तुमसे पढ़वाई थी, हर रकात में तुम ये कहते थे कि "इय्याका नाअबुदु वा इय्याका नस्तईन'' लेकिन अमल क्यों नहीं किया? मांगते अल्लाह ताला से कि या अल्लाह! मुझसे नहीं हो रहा है आप मुझे तौफीक़ दे दीजिए, अल्लाह ताला की रहमत पर कु़दरत पर ईमान रखते हुए मांगो, या अल्लाह मेरे फंस गया हूं सूद में फलां गुनाह में,या सूदी करोबार में, मुझे इससे निकाल दीजिए, या अल्लाह! मैं फस गया हूं फलां गुनाह में, या अल्लाह! मुझे इससे निकाल दीजिए, माँगते रहो मुसलसल माँगो अल्लाह ताला से,*
*®_( ख़ुत्बात ए उस्मानी -1/122)*
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*☞_(75) _ अच्छाई और 'बुराई का फैसला कौन करेगा?*
*"●✿_हजरत मौलाना मुफ्ती शफी साहब रह. बड़े काम की बात फरमाया करते थे, याद रखने की है, वो फरमाते थे कि तुम कहते हो माहौल खराब है, मआशरा खराब है, अरे तुम अपना माहौल खुद बनाओ, तुम्हारे ताल्लुकात ऐसे लोगों से होना चाहिए जो उसूलो में तुम्हारे हमनवां हों, जो लोग इन उसूलो में तुम्हारे हमनवां नहीं उनका रास्ता अलग है और तुम्हारा रास्ता अलग है, लिहाज़ा लोगों का अपना एक ऐसा हलका तैय्यार करो जो एक दूसरे के साथ उन मामलों में त'आवुन के लिए तैय्यार हों और ऐसे लोगों से ताल्लुक़ घटाओ जो ऐसे मामलों में तुम्हारे रास्ते में रुकावट हैं',*
*"●✿_ इसी तरह ये बात है कि कौन सी चीज़ अच्छी है और कौन सी चीज़ बुरी है? क्या काम अच्छा है और क्या काम बुरा है? क्या चीज़ हलाल है और क्या चीज़ हराम है? कौनसा काम जायज़ है और कौनसा काम ना-जायज़ है? यह काम अल्लाह ताला को पसंद और यह काम अल्लाह ताला को ना पसंद है, यह फैसला वही पर छोड़ा गया महज़ इंसान की अक़ल पर नहीं छोड़ा गया इसलिए कि तन्हा इंसान की अक़ल यह फैसला नहीं कर सकती थी,*
*"●✿_इस दुनिया के अंदर जितनी बड़ी से बड़ी बुराइयां फैली हैं और ग़लत से ग़लत नज़रियात इस दुनिया के अंदर आए हैं वो सब अक़ल की बुनियाद पर आए, मसलन हम और आप बा हैसियत मुसलमान के ये अकी़दा रखते हैं कि शराब पीना हराम है, शराब बुरी चीज़ है, लेकिन जो शख़्स वही ए इलाही पर ईमान नहीं रखता, वो ये कहेगा कि शराब पीने में क्या क़बाहत है, क्या बुराई है? हमें तो इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती, लाखों लोग शराब पी रहे हैं, हत्ताकी बाज़ लोगों ने यहां तक कह दिया कि मर्द और औरत के दरमियान बदकारी में क्या नुकसान है? अगर एक मर्द और एक औरत इस काम पर रज़ामंद है तो इस काम में अक़ली ख़राबी क्या है? और अगर रज़ामंदी के साथ मर्द और औरत ने ये काम कर लिया तो तीसरे आदमी को क्या अख्तियार है कि उसके अंदर रुकावट डाले ?*
*"●✿_ देखिये! इसी अक़ल के बल बूते पर बद से बद्तर बुराई को जायज़ और सही क़रार दिया गया, इसलिए कि जब अक़ल को इसके दायरा कार से आगे बढ़ाया तो ये अक़ल अपना जवाब गलत देने लगी, लिहाज़ा जब इंसान अक़ल को उस जगह पर इस्तेमाल करेगा जहां पर अल्लाह ताला की वही आ चुकी है तो वहां पर अक़ल ग़लत जवाब देने लगेगी और ग़लत रास्ते पर ले जाएगी,*
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*☞_ (76)_ ज़ालिम हुक्मरान क्यों मुसल्लत हो रहे हैं?*
*"●✿_आज हर शख्श ये शिकवा कर रहा है कि हमारे ऊपर ऐसे लोग हुक्मरान बन कर आ जाते हैं जो ज़ालिम होते हैं जो अवाम के हुकूक का ख्याल नहीं रखते जो अखलाकी़ क़दरों को पामाल करते हैं और जो बेदीन होते हैं वगैरा वगैरा, लेकिन सवाल ये है कि ऐसे हुक्मरान हमारे ऊपर क्यों मुसल्लत होते हैं? इसलिए नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया कि जो हुक्मरान तुम्हारे ऊपर आते हैं वो सब तुम्हारे आमाल का आईना होते हैं _,"*
*"●✿_ अगर तुम्हारे आमाल दुरुस्त होते, अगर तुम्हें अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के अहकाम का पास होता तो ये ज़ालिम और जाबिर हुक्मरान तुम पर हाकिम बन कर नहीं आ सकते थे लेकिन तुम्हारे आमाल की वजह से ये हुक्मरान तुम्हारे ऊपर मुसल्लत हुए, लोग हुक्मरानों को बुरा भला कहते हैं, उनको गालियां देते हैं, हालांकि हदीस में फरमाया कि हुक्मरानों को गालियां मत दो बल्कि आमाल को दुरुस्त करो, जो कुछ मसाइब आ रहे हैं तुम्हारे आमाल के सबब आ रहे हैं,*
*®_( ख़ुतबात ए उस्मानी - जिल्द -3)*
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*☞_(77) _मोहल्ले की मस्जिद छोड़ कर जामा मस्जिद में नमाज़ पढ़ना ;-*
*"●✿_ फरमाया कि मोहल्ले की मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से 25 गुना सवाब मिलता है और जामा मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से 500 गुना सवाब मिलता है, लेकिन शरीयत का हुक्म ये है कि मौहल्ले की मस्जिद में नमाज पढ़ों, क्यूंकि मौहल्ले की उस मस्जिद को आबाद करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, इसलिए तुम अहले मौहल्ला हो,*
*"●✿_अब अगर सारे मौहल्ले के लोग 500 का सवाब हासिल करने के चक्कर में जामा मस्जिद चले जाएं और मौहल्ले की मस्जिद खाली हो जाए तो वो गुनाहगार होंगे, क्योंकि अहले मोहल्ले का फ़र्ज़ है कि वो अपने मौहल्ले की मस्जिद आबाद करें, तो अगरचे जामा मस्जिद में सवाब की गिनती ज़्यादा है, इस तरह की गिनती के चक्कर में मसनून इबादत को तर्क नहीं करना चाहिए,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 2/119)*
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*☞ _ (78)_ क्या नमाज़ की नियत जुबान से करनी ज़रूरी है, नमाज़ के लिए नियत किस तरह की जाए?*
*●✿__आज कल लोगो में ये मशहूर हो गया है कि हर नमाज़ की नियत के अल्फाज़ अलहिदा अलहिदा होते हैं और जब तक वो अल्फाज़ ना कहें जाएं उस वक्त तक नमाज़ नहीं होती, यहां तक देखा गया है कि इमाम साहब रुकू में हैं मगर वो साहब अपनी नियत के तमाम अल्फाज़ अदा करने में मसरूफ हैं और इसके नतीजे में रकात भी चली जाती है, इसी वजह से लोग बार-बार ये पूछते भी रहते हैं कि फलां नमाज़ की नियत किस तरह होती है? और फलां नमाज़ की नियत किस तरह होगी ? और लोगों ने नियत के अल्फाज़ को बा क़ायदा नमाज़ का हिस्सा बना रखा है,*
*●✿__ मसलन ये अल्फ़ाज़ कि नियत करता हूँ दो रकात नमाज़ की, पीछे इस इमाम के वास्ते अल्लाह ताला के मुंह मेरा काबा शरीफ की तरफ अल्लाहु अकबर, ख़ूब समझ लीजिये कि नियत इन अल्फाज़ का नाम नहीं है बल्कि नियत तो दिल के इरादे का नाम है, जब अपने घर से निकलते वक्त दिल में ये नियत कर ली कि मैं जो़हर की नमाज़ पढ़ने जा रहा हूं तो बस नियत हो गई, मैं नमाजे़ जनाजा़ पढ़ने जा रहा तो बस नियत हो गई, मैं नमाजे़ ईद पढ़ने जा रहा हूं तो बस नियत हो गई,*
*●✿__अब ये अल्फ़ाज़ ज़ुबान से कहना ना तो वाजिब है ना ज़रूरी है, ना सुन्नत है ना मुस्तहब है, ज़्यादा से ज़्यादा जायज़ है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं, लिहाज़ा सलातुल हाजत पढ़ने का ना कोई मख़सूस तरीक़ा है और ना ही नियत के लिए अल्फ़ाज़ मख़सूस हैं, बल्कि आम नमाज़ों की तरफ दो रकातें पढ़ लो,*
*®_(इस्लाही खुतबात- 10/43)*
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*☞_(79) _नमाज़ पढ़ने के दौरान आंखे बंद कर लेना:-*
*"●✿_ हज़रत हाजी इमदादुल्लाह साहब मुहाजिर मक्की रह. ने एक वाक़िया बयान किया है जो हज़रत थानवी रह. ने अपने मुवाइज़ में बयान किया कि उनके करीब ज़माने में एक बुज़ुर्ग थे, वो जब नमाज़ पढ़ा करते थे तो आंखे बंद कर के नमाज़ पढ़ते थे, और फुक़हा किराम ने लिखा है कि नमाज़ में वेसे तो आंख बंद करना मकरूह है लेकिन अगर किसी शख्स को इसके बिना खुशु हासिल न होता हो तो उसके लिए आंख बंद कर के नमाज़ पढ़ना जाइज़ है, कोई गुनाह नहीं है,*
*"●✿_ तो वो बुज़ुर्ग बहुत अच्छी नमाज़ पढ़ते थे और लोगों में उनकी नमाज़ मशहूर थी, क्यूँकि निहायत ख़ुशु और निहायत आजिज़ी के साथ नमाज़ पढ़ते थे, वो बुज़ुर्ग साहिबे कश्फ़ भी थे, एक मरतबा उन्होंने अल्लाह ताला से दरख़्वास्त की कि या अल्लाह! मैं जो ये नमाज़ पढ़ता हूं मैं उसको देखना चाहता हूं कि आपके यहां मेरी नमाज़ क़ुबूल है या नहीं? और किस दर्जे में क़ुबूल है और उसकी सूरत क्या है ? वो मुझे दिखा दें_,*
*"●✿_अल्लाह ताला ने उनकी ये दरख्वास्त कुबूल फरमायी और एक निहायत हसीन व जमील औरत सामने लायी गई, जिसके सर से ले कर पांव तक तमाम आ'जा़ में निहायत तनासुब और तवाज़न था लेकिन उसकी आंखे नहीं थी बल्कि अंधी थी और उनसे कहा गया कि ये है तुम्हारी नमाज़, उन बुज़ुर्ग ने पूछा कि या अल्लाह! ये इतनी आला दर्जे की हुस्न व जमाल वाली खातून है मगर इसकी आंखें कहां हैं ? जवाब में फरमाया कि तुम जो नमाज़ पढ़ते हो वो आंखे बंद करके पढ़ते हो, इस वास्ते तुम्हारी नमाज़ एक अंधी औरत की शक्ल में दिखाई गई,*
*"●✿_ये वाक़िया हज़रत हाजी साहब रह. ने बयान फ़रमाया और हज़रत थानवी रह. इस वाक़िये पर तब्सिरा करते हुए फ़रमाते हैं कि बात दर असल ये थी कि अल्लाह और अल्लाह के रसूल ने नमाज़ पढ़ने का जो सुन्नत तरीक़ा बताया वो ये था कि आंखें खोल कर नमाज़ पढ़ो सजदे की जगह पर निगाह होनी चाहिए, अगरचे फुक़हा किराम ने ये फरमाया कि अगर नमाज़ में ख्यालात बहुत आते हैं और खुशु हासिल करने के लिए और खयालात को दफा करने के लिए कोई शख्स आंखे बंद कर के नमाज़ पढ़ता है तो कोई गुनाह नहीं जाइज़ है, मगर फिर भी खिलाफे सुन्नत है, क्योंकि नबी करीम ﷺ ने सारी उम्र कभी कोई नमाज़ आंखे बंद कर के नहीं पढ़ी, इसके बाद सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने कभी कोई नमाज़ आंख बंद करके नहीं पढ़ी, इसलिए फरमाया कि ऐसी नमाज़ में सुन्नत का नूर नहीं होगा,*
*"●✿_ और ये जो ख्याल हो रहा है कि चुंकी नमाज़ में ख्यालात वसवसे बहुत आते हैं, इसलिए आंख बंद कर के नमाज़ पढ़ लो, तो भाई अगर ख्यालात गैर अख्त्यारी तौर पर आते हैं तो अल्लाह ताला के यहां इस पर कोई मुवाख्ज़ा कोई पकड़ नहीं, वो नमाज़ जो आंखे खोल कर इत्तेबा ए सुन्नत में पढ़ी जा रही है वो नमाज़ फिर भी उस नमाज़ से अच्छी है जो आंखें बंद करके पढ़ी जा रही है और उसमें ख्यालात भी नहीं आ रहे हैं, इसलिए कि वो नमाज़ नबी करीम ﷺ कि इत्तेबा में अदा की जा रही है और ये दूसरी नमाज़ इत्तेबा ए रसूल नहीं है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 1/221)*
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*☞_(80) _ जाहिल पीरों का ये ख़याल है कि उन पर नमाज़ रोज़ा वगैरा माफ़ है, गुमराही है :-*
*"●✿__चुनांचे जाहिल पीरों का एक तबका़ है जो ये कहता है कि हम तो अब दरवेश और फ़कीर हो गए हैं और अब तो हम हर वक्त अल्लाह ताला की याद में गुम हैं, लिहाज़ा अब हमें ना नमाज़ की ज़रुरत है, न रोज़े की ज़रुरत है, न तिलावत की ज़रुरत है, न तस्बीहात की ज़रुरत है, इसलिए कि नमाज़ का मक़सूद अल्लाह तक पहुंच जाना था, अब जब हमारे दिल में अल्लाह ताला का ज़िक्र और अल्लाह ताला का ख़्याल जम गया तो अब हमें नमाज़ की ज़रूरत नहीं, अब हम मस्जिद जाएँ या न जाएँ, नमाज़ पढ़े या न पढ़े कोई फ़र्क नहीं पड़ता,*
*"●✿__याद रखिए! ये गुमराही है और ये गुमराही यहां से पैदा हुई कि जिक्रे क़लबी को इस दर्जे का मक़सूद क़रार दे दिया कि इसके नतीजे में जा़हिरी इबादात को बेकार समझा जाएगा, यहीं गुमराही है, हजरत शेख अब्दुल वहाब शारानी रह. ने हज़रत शेख़ अब्दुल का़दिर जीलानी रह. के बारे में एक हिकायत लिखी है, एक मर्तबा शेख अब्दुल का़दिर जीलानी तहज्जुद पढ़ रहे थे, इस दौरन उन्होंने देखा कि एक नूर चमका और पूरी फिज़ा मुनव्वर हो गई और उस नूर में से आवाज़ आई, ए अब्दुल का़दिर! तूने हमारी इबादत का हक़ अदा कर दिया, जो इबादत अब तक तुमने अदा कर लीं वो काफी है, आज के बाद तुम पर नमाज़ फ़र्ज़ नहीं, रोज़ा फ़र्ज़ नहीं, तमाम इबादात की तकलीफ तुमसे उठा ली गई,*
*"●✿__ हजरत अब्दुल का़दिर जीलानी रह. ने जब ये नूर देखा और ये आवाज़ सुनी तो फौरन जवाब में फरमाया - कमबख्त! दूर हो जा मुझे धोखा देता है, हुजूर अकदस ﷺ से तो इबादते माफ नहीं हुईं और उन पर से इबादत तकलीफ़ ख़त्म नहीं हुई, मुझसे ख़त्म हो जाएगी ? तू मुझे धोखा देना चाहता है?*
*"●✿__देखिए! शैतान ने कितना बड़ा वार किया, लेकिन शेख तो शेख थे, फौरन समझ गए कि ये बात अल्लाह ताला की तरफ से नहीं हो सकती, इसलिए हुजूर अकदस ﷺ पर से इबादत की तकलीफ़ खत्म नहीं हुई, मेरे ऊपर से कैसे ख़त्म हो जाएगी?*
*"●✿_ थोडी देर के बाद फिर एक और नूर चमका और फ़िज़ा मुनव्वर हुई और उस नूर में से आवाज़ आई -ऐ अब्दुल कादिर! आज तेरे इल्म ने तुझे बचा लिया वरना मैंने ना जाने कितने आबिदों को इस वार के ज़रीये तबाह कर दिया,*
*"❀_ हज़रत शेख अब्दुल का़दिर जीलानी रह. ने दोबारा फरमाया - कमबख्त! दोबारा मुझे धोका देता है, मेरे इल्म ने मुझे नहीं बचाया, मुझे अल्लाह के फ़ज़ल ने बचाया है _,*
*"❀_ ये दूसरा हमला पहले से ज़्यादा खतरनाक और उससे ज़्यादा संगीन था, क्यूँकी इसके ज़रिए उनके अंदर इल्म की बड़ाई और उसका नाज़ पैदा करना चाहता था, हज़रत शेख अब्दुल वहाब शारानी इस वाक़िये को नकल करने के बाद फरमाते हैं कि पहला हमला इतना संगीन नहीं था क्योंकि जिस शख्स के पास ज़रा भी शरिअत का इल्म हो वह इस बात को समझ सकता है कि जिंदगी में होश व हवास की हालत में किसी इन्सान से इबादत माफ नहीं हो सकती, लेकिन ये दूसरा हमला बड़ा संगीन था, ना जाने कितने लोग इस हमले मे बहक गए, इसलिये कि इसमें अपने इल्म पर नाज़ पैदा करना मक़सूद था और ये बारीक बात है_,*
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*☞_ (81)_ लोग क्या सोचेंगे? की वजह से नेक अमल को छोड़ देना भी तकब्बुर है_,*
*"●✿_हजरत वाला ने ये उसूल इरशाद फरमाया कि मखलूक़ के लिए किसी भी अमल इबादत को तर्क करना तकब्बुर है, जिस तरह मखलूक़ के लिए अमल करना रियाकारी और दिखावा है, यानी मखलूक़ के खा़तिर अमल करना कि मखलूक़ मुझे देख कर इबादत गुज़ार समझे, जिस तरह ये अमल रिया है बल्कि शिर्क के करीब पहुंच जाता है, इसी तरह ये मख़लूक़ के लिए अमल छोड़ देना भी जायज़ नहीं, इसलिए ये तर्के अमल या तो रिया होगा या तकब्बुर में दाखिल होगा,*
*"●✿_ मसलन नमाज़ का वक्त आ गया और आप उस वक्त ऐसी जगह पर हैं जहां नमाज़ का माहौल नहीं, अब अगर आप वहां नमाज़ पढ़ने से इसलिए शर्माएं कि लोग मुझे नमाज़ पढ़ते देख कर मालूम नहीं क्या समझेंगे, अब अगर आदमी इसस वजह से नमाज़ छोड़ दे कि अगर मैं यहां नमाज पढ़ूंगा तो ये लोग तमाशा बनाएंगे, तो ये ख़तरनाक ख्याल है, ये मखलूक़ के लिए तर्के अमल है जो जाइज़ नहीं,*
*"●✿_आज बहुत कसरत से ये सूरत पेश आती रहती है, मसलन जो लोग हवाई जहाज़ में सफर करते हैं, उन्होंने समझ लिया है कि जहाज़ में नमाज़ माफ है और नमाज़ को छोड़ने की वजह सिर्फ ये होती है कि सब लोग तो बैठे है, अब अगर मैं इनके सामने खड़ा हो कर नमाज़ पढ़ूंगा तो एक अजीब सी सूरत पैदा हो जाएगी, नमाज़ तो अल्लाह ताला के हुज़ूर आजिज़ी ज़ाहिर करने का एक तरीक़ा है, अब जो शख्स उस वक्त नमाज़ को तर्क कर रहा है वो मखलूक़ के सामने इस आजिज़ी का इज़हार नहीं करना चाह रहा है, इसलिए कि इससे मेरी बेइज्ज़ती होगी, तो ये सूरत तकब्बुर की है,*
*"●✿_फ़र्ज़ नमाज़ किसी हालात में भी माफ़ नहीं, जो इबादात फ़र्ज़ है उनमें अल्लाह ताला ने जो तख़फ़ीफ़ कर दी उस तख़फ़ीफ़ के साथ उनको अंजाम देना ही है, मसलन नमाज़ है, इंसान कितना ही बीमार हो, बिस्तर पर हो और मरने के क़रीब हो, तब भी नमाज़ साक़ित नहीं होती, अल्लाह ताला ने ये आसानी तो फरमा दी कि खड़े हो कर नमाज़ पढ़ने की ताक़त नहीं तो बैठ कर पढ़ लो, बैठ कर पढ़ने की ताक़त नहीं तो लेट कर पढ़ लो, वज़ू नहीं कर सकते तो तयम्मुम कर लो, अगर कपड़े पाक रखना बिल्कुल मुमकिन नहीं तो उसी हालत में पढ़ लो लेकिन नमाज़ किसी हालत में माफ़ नहीं, जब तक इंसान के दम में दम है _,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/182)*
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*☞_(82) _सिर्फ निफ्ली इबादात ही निजात के लिए काफी नहीं :-*
*"●✿_ हुजूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फरमाया कि तुम हराम कामों से बचो तो तुम तमाम लोगों में सबसे ज्यादा इबादत गुज़ार बन जाओगे, इस जुमले के जरिए ये हकीकत वाज़े फरमा दी कि फराइज़ व वाजिबात की तामील के बाद सबसे ज्यादा अहम चीज़ मोमिन लिए ये है कि वो अपने आपको नाजायज़ व हराम कामों से बचाए, निफ्ली इबादतों का मामला इसके बाद आता है, अगर कोई शख्स इस दुनिया में अपने आपको गुनाहों से बचा ले तो ऐसा शख्स सबसे ज्यादा इबादत गुज़ार है, चाहे वो निफ्लें ज्यादा ना पढ़ता हो,*
*"●✿_ हुजूर अक़दस ﷺ ने इस जुमले के ज़रिए एक बड़ी गलत फहमी का इजा़ला फरमाया है, वो यह कि हम लोग बसा अवक़ात निफ्ली इबादतों को तो बहुत अहमियत देते हैं, मसलन नवाफिल पढना, तस्बीह, मुनाजात, तिलावत वगैरा, हालांकि इनमे कोई एक काम भी ऐसा नहीं जो फ़र्ज़ हो, चाहे निफ्ली नमाजे़ हो, या निफ्ली रोज़े हो या निफ्ली सदक़ात हो, इनको तो हमने बड़ी अहमियत दी हुई है लेकिन गुनाहों से बचने का और उनको तर्क करने का अहतमाम नहीं ,*
*"●✿_याद रखें कि निफ्ली इबादात इन्सान को निजात नहीं दिला सकती जब तक इन्सान गुनाहों को ना छोड़े, निफ्ली नमाजे़ पढ़ ली, तिलावत ज्यादा कर ली, ज़िक्र व तस्बीह ज़्यादा कर ली, ये भी अच्छी बात है लेकिन कोई ये नहीं सोचता कि मैं निफ्ली इबादात तो कर रहा हूं साथ में गुनाह भी तो कर रह हूं, अल्लाह ताला ने जिन चीज़ों को हराम और नाजायज़ क़रार दिया है उनके अंदर मुब्तिला हो रहा हुं, दोनो में अगर बराबरी करें तो ये नज़र आयेगा कि निफ्ली इबादात से जो फ़ायदा हो रहा था वो गुनाहों के ज़रिए निकल रहा है,*
*"●✿_ इस बात को एक मिसाल से और ज़्यादा वाज़े तरीक़े पर समझ लें, फ़र्ज़ करें कि एक शख्स निफ्ली इबादत भी करता है, ज़िक्र व तिलावत में मशगुल रहता है, हर वक़्त उसकी तस्बीह चलती रहती है लेकिन साथ में वो गुनाह भी करता रहता है, दूसरा शख्स वो है जिसने ज़िंदगी भर एक निफ्ली इबादत नहीं की लेकिन ज़िन्दगी भर उसने गुनाह भी नहीं किया, बताओ उन दोनों में से अफ़ज़ल कौन है? वो शख्स अफज़ल है जिसने गुनाहों से बचते हुए ज़िंदगी गुज़ारी, अगरचे निफ्ली इबादतों मे उसका कोइ ख़ास हिस्सा नहीं है, उस शख़्स से आखिरत में ये सवाल नहीं होगा कि तुमने निफ्ली इबादत क्यूं नहीं की ? क्यूंकि निफ्ली इबादात फ़र्ज़ नहीं है, इंशा अल्लाह वो सीधा जन्नत मे जाएगा, इसके बर खिलाफ पहला शख्स जो निफ्ली इबादात में मशगूल रहा लेकिन साथ साथ गुनाह भी करता रहा, और गुनाह ऐसी चीज़ है जिसके बारे में आखिरत में सवाल होगा, नतीजा ये होगा कि ऐसा शख्स बड़े ख़सारे मे होगा _,"*
*®_(इस्लाही खुतबात- 12/90)*
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*☞_ (83) _ हमने अल्लाह को कब और कैसे भुला दिया? हम नमाज़ तो पढ़ते हैं और रोज़े भी रखते हैं_,*
*"●✿__ आम तोर पर लोगों के ज़ेहनो में ये ख्याल आता है कि हमने अल्लाह ताला को कहां भुला दिया, अल्लाह ता'ला ने हमें हुक्म दिया कि नमाज़ पढ़ो, हम नमाज़ पढ़ रहे हैं, अल्लाह ता'ला का हुक्म था कि जुमा की नमाज़ के लिए आओ, हम जुमा की नमाज़ के लिए आ रहे हैं, अल्लाह ताला का हुक्म था कि रमज़ान में रोज़े रखो तो हम रोज़े रख रहे हैं, लिहाज़ा हमने अल्लाह को नहीं भुलाया_,*
*"●✿__बात दर असल ये है कि लोगों ने सिर्फ नमाज़ पढ़ने और रोज़े रखने को दीन समझ लिया है और ज़कात देने और हज करने और उमरे करने को दीन समझ लिया है, हालांकि दीन के बेशुमार शोबे हैं, उसमें मामलात भी है, उसमें मआशरत भी है, उसमें अखलाक भी है, ये सब दीन के शोबे हैं, अब हमने नमाज़ तो पढ़ ली और रोज़े भी रख लिये, ज़कात का वक्त आया तो ज़कात भी दे दी, उमरे कर के ख़ूब सैर सपाटे भी कर लिए लेकिन जब अल्लाह ताला के हुक्म के आगे अपने मसलों को क़ुर्बान करने का मौक़ा आता है तो वहां फ़िसल जाते हैं और तावील शुरू कर देते हैं कि आज कल सब लोग ऐसा कर रहे हैं और हालात ये है वगेरा वगेरा,*
*"●✿__आज हम अल्लाह ताला के अहकाम भुलाए हुए हैं, खास तौर से अपनी मआशरत की जिंदगी में, अपनी मामलात की जिंदगी में, अखलाक़ की जिंदगी में और सियासत की जिंदगी में इस्लाम को और इस्लामी अहकाम को फरामोश किया हुआ है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 15/111)*
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*☞_(84) _ क़ज़ा नमाज़ों का हिसाब किस तरह किया जाये ?*
*●✿__ सबसे पहले मामला नमाज़ का है, बालिग होने के बाद से अब तक जितनी नमाजे़ क़ज़ा हुई है, उनका हिसाब लगाएं, बालिग होने का मतलब ये है कि लड़का उस वक़्त बालिग होता है जब उसको एहतलाम हो और लड़की उस वक्त बालिग होती है जब उसको हैज़ आना शुरू हो जाता है, लेकिन अगर किसी के अंदर ये अलामते ज़ाहिर ना हों तो इस सूरत में जिस दिन 15 साल उम्र हो जाए उस वक्त बालिग हो जाता है, चाहे लड़का हो या लड़की हो, उस दिन से उसको बालिग समझा जाए,*
*●✿__ उस दिन से उस पर नमाज़ भी फ़र्ज़ है, रोज़े भी फ़र्ज़ है, और दूसरे फ़राइज़ दीनिया भी उस पर लागू हो जाएंगे, लिहाज़ा इंसान सबसे पहले ये हिसाब लगाए कि जबसे मैं बालिग हुआ हूं उस वक्त से अब तक कितनी नमाज़े छूट गई है,*
*●✿__ बहुत से लोग तो ऐसे भी होते हैं जो दीनदार घराने में पैदा हुए और बचपन ही से मां बाप ने नमाज़ पढ़ने की आदत डाल दी, जिसकी वजह से बालिग होने के बाद से अब तक कोई नमाज़ क़जा़ ही नहीं हुई, अगर ऐसी सूरत है तो सुबहानल्लाह और एक मुसलमान घराने में ऐसा ही होना चाहिए,*
*●✿__ अगर बिल फ़र्ज़ बालिग होने के बाद गफ़लत की वजह से नमाज़े छूट गईं तो उनकी तलाफी करना फ़र्ज़ है, तलाफी का तरीक़ा ये है कि अपनी ज़िंदगी का जायज़ा ले कर याद करें कि मेरे जिम्मे कितनी नमाज़े बाक़ी है? अगर ठीक ठीक हिसाब लगाना मुमकिन ना हो तो इस सूरत में एक मोहतात अंदाज़ा कर के इस तरह हिसाब लगाएं कि उसमें नमाज़े कुछ ज़्यादा तो हो जाएं लेकिन कम ना हों और फ़िर उसको एक कॉपी में लिख लें कि "आज इस तारीख़ को मेरे ज़िम्मे इतनी नमाज़े फ़र्ज़ है और आज से मैं इनको अदा करना शुरू कर रहा हूँ और अगर मैं अपनी ज़िन्दगी में इन नमाज़ों को अदा न कर सका तो मैं वसीयत करता हूँ कि मेरे तर्के में से इन नमाज़ों का फ़िदिया अदा कर दिया जाए _,*
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*☞_(85) _ कज़ा नमाजो़ की वसीयत:-*
*"●✿_ ये वसीयत लिखना ज़रूरी है कि अगर आपने वसीयत नहीं लिखी और क़जा़ नमाज़ों को अदा करने से पहले आपका इंतेक़ाल हो गया तो इस सूरत में वारिसों के ज़िम्मे शर'अन ये ज़रूरी नहीं होगा कि आपकी नमाज़ों का फ़िदिया अदा करे, ये फ़िदिया अदा करना उनकी मर्ज़ी पर मोक़ुफ़ होगा, चाहे तो दें और चाहें तो ना दें, अगर फ़िदिया अदा करने की वसीयत कर दी तो इस सूरत में वारिस शर'अन इस बात के पाबंद होंगे कि वो कुल माल के एक तिहाई तरका की हद तक उस वसीयत को नाफ़िज़ करें और नमाज़ों का फ़िदिया अदा करें,*
*"●✿_हुज़ूर अक़दस ﷺ का इरशाद है कि हर वो शख़्स जो अल्लाह पर और आख़िरत पर ईमान रखता हो और उसके पास कोई बात वसीयत लिखने के लिए मौजूद हो तो उसके लिए दो रातें भी वसीयत लिखे बगैर गुज़ारना जाइज़ नहीं _, ( तिर्मिज़ी-2/33),*
*"_ अगर किसी के ज़िम्मे नमाज़े क़ज़ा है तो इस हदीस की रोशनी में उसको वसीयत लिखना ज़रूरी है,*
*"●✿_अब हम लोगों को ज़रा अपने गिरेबान में मुंह डाल कर देखना चाहिए कि हममें से कितने लोगों ने अपना वसीयत नामा लिख कर रखा हुआ है, हालांकि वसियत नामा ना लिखना एक मुस्तकिल गुनाह है, जब तक वसीयत नामा नहीं लिखेगा उस वक्त तक ये गुनाह होता रहेगा, इसलिए आज ही हम लोगों को अपना वसीयत नामा लिखना चाहिए, अगर ये दो काम कर लिए तो फिर अल्लाह ताला की रहमत से उम्मीद है कि अगर बिल फ़र्ज़ नमाज़े पूरी होने से पहले ही वफ़ात हो गई तो इंशा अल्लाह माफ़ी हो जाएगी,*
*"●✿_ लेकिन अगर ये दो काम ना किये, ना वसीयत की और ना ही नमाज़ों को अदा करना शुरू किया तो इसका मतलब ये है कि नमाज़ जेसे अज़ीमुश शान फ़रीज़े से ये शख़्स ग़ाफ़िल है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 6/52)*
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*☞_(86) _ क़ज़ा (उम्री) नमाज़ो को किस तरह अदा किया जाए?*
*"●✿_ क़ज़ा नमाज़ों को जल्दी से जल्दी अदा करना शुरू करें, उनको क़ज़ा उम्री भी कहते हैं, इसका तरीक़ा ये है कि एक मुस्तक़िल कॉपी बनाएं, उस कॉपी के अंदर लिखे कि मेरे ज़िम्मे इतनी नमाज़े बाक़ी है, अगर पूरी तरह याद न हों तो एक अहतयाती अंदाज़ा लगा कर उनकी तादाद लिखें और लिखे कि मैं आज फलां तारीख से नमाज़ों की अदायगी शुरू कर रहा हूं,*
*"●✿_ फिर हर वक्ती नमाज़ के साथ एक नमाज़ क़जा़ भी पढ़ ले, मसलन फजर के साथ फजर, ज़ुहर के साथ ज़ुहर, असर के साथ असर, मगरिब के साथ मगरिब और इशा के साथ इशा और अगर किसी के पास वक्त ज़्यादा हो तो एक से ज़्यादा भी पढ़ सकता है, ताकि जितनी जल्दी ये नमाज़ पूरी हो जाए, उतना ही बेहतर है, बल्कि वक़्ती नमाज़ों के साथ जो नवाफ़िल होते हैं, उनके बजाये कज़ा नमाज़ पढ़ ले और नमाज़ फ़ज़र के बाद और असर की नमाज़ के बाद निफ़्ली नमाज़ पढ़ना तो जाइज़ नहीं, लेकिन कज़ा (उम्री) नमाज़ पढ़ना जाइज़ है,*
*"●✿_ क़जा़ नमाज़ की नियत किस तरह करें? हर क़जा़ नमाज़ जितनी फजर की नमाज़े क़जा़ है, उनमें से सबसे पहली फजर की नमाज़ पढ़ रहा हूं, इसी तरह ज़ुहर की नमाज़ क़जा़ पढ़ते वक्त ये नियत करे कि मेरे ज़िम्मे ज़ुहर की जितनी नमाज़े क़ज़ा है, उनमे से सबसे पहली ज़ुहर की नमाज़ पढ़ रहा हूँ, इसी तरह असर, मगरिब और इशा में नियत करें और अगले रोज़ फिर यही नियत करे,*
*"●✿_इसमें अल्लाह ताला ने इतनी आसानी फरमा दी है, हमें चाहिए कि हम इस आसानी से फायदा उठाएं और जितनी जल्दी नमाज़े अदा करते जाएं, उस कॉपी में साथ ही साथ लिखते जाएं कि इतनी अदा कर ली इतनी बाकी है,*
*"●✿_ सुन्नतों के बजाय क़जा़ नमाज़ पढ़ना दुरुस्त नहीं, बाज़ लोग ये मसला पूछते हैं कि चुंकी हमारे ज़िम्मे क़ज़ा नमाज़े बहुत बाक़ी हैं तो क्या हम सुन्नते पढ़ने के बजाय कज़ा पढ़ सकते हैं? ताकी कज़ा नमाज़े जल्दी पूरी हो जाएं, इसका जवाब ये है कि सुन्नते मोअक़दा पढ़ना चाहिए, उनको छोड़ना दुरुस्त नहीं, अलबत्ता नवाफिल के बजाय क़जा़ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है,*
*®_{इस्लाही ख़ुतबात- 6/58)*
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*☞_(87) _ कज़ा ए उम्री नमाज़ो की अदायगी का इन्कार गलत नज़रिया है:-,*
*"●✿_आज कल ये मसला बहुत ज़ोर व शोर से फैलाया जा रहा है कि क़ज़ा उम्री कोई चीज़ नहीं, दलील इसकी ये पेश करते हैं कि हदीस शरीफ़ में आया है कि अगर कोई शख़्स नया मुसलमान हो तो इस्लाम लाने से पहले जो उसने गुनाह किये थे, इस्लाम लाने से वो सब ख़त्म हो जाते हैं, मसलन अगर कोई शख़्स सत्तर साल की उम्र में इस्लाम लाया तो अब इस्लाम लाने के बाद गुज़िश्ता सत्तर साल की नमाज़ क़ज़ा करने की ज़रूरत नहीं बल्कि जब वो आज इस्लाम लाया तो अब आज ही से नमाज़े शुरू कर दे,*
*"●✿_बाज़ लोगों ने इस्लाम लाने पर तौबा करने को भी क़यास कर लिया, वो लोग ये कहते हैं कि अगर किसी शख़्स ने सारी उम्र नमाज़ नहीं पढ़ी, अब तौबा कर ली, तो अब गुज़िश्ता ज़माने की नमाज़ क़ज़ा करने की ज़रुरत नहीं,*
*"●✿_ये बातें दुरुस्त नहीं, क्योंकि तौबा को इस्लाम पर क़यास करना दुरुस्त नहीं, वजह इसकी ये है कि जो शख़्स अभी मुसलमान हुआ है तो कुफ़्र के ज़माने में उस पर नमाज़ फ़र्ज़ नहीं थी, क्यूंकी नमाज़ उस वक़्त फ़र्ज़ होगी जब वो मुसलमान होगा, इसलिए गुज़िश्ता ज़माने की नमाज़े उस पर क़ज़ा करनी ज़रूरी नहीं,*
*"●✿_ बिल खिलाफ़ मुसलमान के, उस पर तो बालिग होते ही नमाज़ फ़र्ज़ हो गई और जब उसने वो नमाज़े नहीं पढ़ीं तो वो ज़िम्मे बाक़ी रहीं, एक अरसा दराज़ के बाद जब उसने नमाज़ छोड़ने के गुनाह से तौबा की तो तौबा का उसूल यह है कि जिस गुनाह से तौबा की है अगर उसकी तलाफ़ी मुमकिन है तो तलाफ़ी किये बिना तौबा क़ुबूल नहीं होगी, लिहाज़ा उसके ज़िम्मे उन नमाज़ों की क़ज़ा ज़रूरी होगी, इसी तरह रोज़े छोड़ें हैं तो उन रोज़ों की क़ज़ा करनी होगी क्यूंकि रोज़े उसके ज़िम्मे बाक़ी हैं,*
*"●✿_वरना इसकी कोई माक़ूल वजह नहीं कि एक शख़्स तो 80 साल तक मुसलसल नमाज़ पढ़ता रहे और दूसरा शख़्स 80 साल तक नमाज़ न पढ़े और फिर आख़िर में अल्लाह ताला से तौबा इस्तग़फ़ार कर ले और इस तौबा के नतीजे में उसकी सारी नमाज़ माफ़ हो जायें, ये तो कोई माक़ूल बात नहीं,*
*"❀_बाज़ लोग ये कहते हैं कि अगर एक दिन की नमाज़ क़ज़ा हो जाए तो उनको क़ज़ा कर लो और पढ़ लो लेकिन अगर एक दिन से ज़्यादा की नमाज़ क़ज़ा हो जाएं तो उनको क़ज़ा करने की ज़रूरत नहीं सिर्फ तौबा कर लो, ये अजीब मसला अपनी तरफ से बना लिया है, इसके ज़रिए लोगों के हाथ में बड़ा अच्छा नुस्खा आ गया कि जब नमाज़े क़जा़ हो जाएं तो उनको एक दिन से ज़्यादा कर लो और उसके बाद तौबा कर लो, ये सब फ़िज़ूल बातें हैं, क्योंकि तौबा का उसूल ये है कि जिसकी तलाफ़ी मुमकिन है उसकी तलाफ़ी किये बगैर तौबा क़ुबूल नहीं होती,*
*"❀_ मसलन एक शख़्स बहुत अरसे तक शराब पीता रहा, अब तौबा करने की तौफ़ीक़ हुई तो बस तौबा कर लेना काफ़ी है, क्योंकि इसकी तलाफ़ी की कोई सूरत नहीं, तलाफ़ी के बगैर ही अल्लाह ताला उसकी तौबा क़ुबूल फरमा लेंगे, या मसलन किसी शख्स ने कुछ पैसे चोरी किए और खा लिए, बाद में तौबा की तौफीक हुई तो उसकी तलाफी मुमकिन है, वो इस तरह कि जिसके पैसे चोरी किए उसे उसको पैसे वापस कर दे या उससे माफ कराए, इसके बिना तौबा कुबूल नहीं होगी,*
*"❀_या मसलन गुज़िश्ता सालों की ज़कात अदा नहीं, अब तौबा की तौफ़ीक़ हुई तो जब तक गुज़िश्ता सालों की ज़कात अदा नहीं करेगा, उस वक़्त तक तौबा क़ुबूल नहीं होगी, यही मामला नमाज़ों का और रोज़ो का है कि जब तक उनको अदा नहीं करेगा, सिर्फ तौबा कर लेने से माफ़ नहीं होंगे,*
*"❀_ बहर हाल! तौबा तफ़सीली ये है कि इंसान अपनी गुज़िश्ता ज़िंदगी का जायज़ा ले कर देखे कि मेरे ज़िम्मे अल्लाह ताला के या बंदों के हुकूक़ कुछ वाजिब है या नहीं? हुकूक़ुल्लाह में नमाज़ को देखे कि मेरे ज़िम्मे कितनी नमाज़े बाकी है, उनको कज़ा करने की फ़िक्र करें,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 5/231)*
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*☞_(88) _ तमाम इबादतों का फ़िदिया तर्के के एक तिहाई से अदा होगा :-*
*"❀_ अगर हमारे ज़िम्मे नमाज़ रह गई है तो उन नमाज़ों का फ़िदिया उस एक तिहाई से अदा होगा, अगर रोज़े छूट गए हैं तो उन रोज़ों का फ़िदिया भी उसी एक तिहाई से अदा होगा, अगर ज़कात बाकी रह गई है तो उसकी अदायगी भी उस एक तिहाई से होगी, अगर हज रह गया है तो वो भी उसी एक तिहाई से अदा होगा और तिहाई से बाहर की वसीयत वारिसों के ज़िम्मे लाज़िम नहीं होगी,*
*"❀_इसलिये जिंदगी में हज अदा न करना बड़ा ख़तरनाक है, क्योंकि अगर हम वसियत भी कर जायें कि हमारे माल से हज अदा कर दिया जाये लेकिन तर्का इतना न हो जिसके एक तिहाई से हज अदा हो सके तो उनके ज़िम्मे इस वसियत को पूरा करना लाज़िम नहीं होगा, अगर हज अदा करा दें तो ये उनका हम पर अहसान होगा और अगर हज न कराएँ तो उन पर आख़िरत में कोई गिरफ़्त नहीं होगी,*
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*☞_(89) _नमाज़ में मज़ा नहीं आता:-*
*"❀_ एक साहब ने हज़रत थानवी रह. को लिखा कि हज़रत नमाज़ पढ़ते हुए सारी उम्र गुज़र गई मगर नमाज़ में मज़ा ही नहीं आया, कुछ इलाज फरमा दें, हज़रत ने जवाब में लिखा कि नमाज़ में मज़ा आना कोई ज़रूरी नहीं, तुम मज़े की खातिर नमाज़ पढ़ रहे हो या अल्लाह ताला की बंदगी की खातिर नमाज़ पढ़ रहे हो, कि चुंकि अल्लाह ताला का हुक्म है इसलिए नमाज़ पढ़ रहे हो,*
*"❀_अरे! अगर मज़ा की खातिर नमाज़ पढ़ी जा रही है तो वो नमाज़ ही क्या हुई, नमाज़ तो वो है जो अल्लाह ताला की रज़ा की खातिर और उसकी बंदगी की खातिर पढ़ी जाए, चाहे उस नमाज़ में मज़ा आए या ना आए, तकलीफ़ हो या मशक्कत हो,*
*"❀_इसलिए हज़रत गंगोई रह. फरमाते हैं कि जिस शख़्स को सारी उम्र कभी नमाज़ में मज़ा न आया हो, लुत्फ़ न आया हो और उस पर कभी सरवर की कैफियत तारी न हुई हो, मै उस शख़्स को मुबारक बाद देता हूं, क्यों? अगर उसको नमाज़ के अंदर मज़ा आता या नमाज़ के अंदर उसको कोई कैफ या सरवर हासिल हो जाता तो ख़तरा ये था कि कहीं वो इसको मक़सूद समझ बैठता और उसको हासिले नमाज़ समझ लेता, इसके नतीजे में वो गुमराही में मुब्तिला हो जाता, अल्लाह ताला ने उसको अहवाले कैफियत से दूर रख कर गुमराही से बचाया,*
*"❀_ बहार हाल! इबादात की अदायगी में सरवर और कैफियत के पीछे मत पड़ो, कैफियत की वजह से या तो अजब और नाज़ पैदा हो जाता है, या उसको असल मकसूद समझ लेने से कोई वक्त उसमें कमी आ जाने पर खुद को नाकाम और मेहरूम समझ बैठता है, दोनों सूरतो में नुक़सान है,*
*"❀_इसलिए कैफ़ियात हर शख़्स के लिए मोज़ू भी नहीं, लिहाज़ा इसकी फ़िक्र ही ना की जाए, बस अल्लाह ताला का जो हुक्म है और नबी करीम ﷺ की जो सुन्नत है उस पर सीधे सीधे अमल करते चले जाओ, इस फ़िक्र मे मत पढ़ो कि रोना आया कि नहीं आया, दिल मचला कि नहीं, वजद तारी हुआ कि नहीं, मज़ा आया कि नहीं आया,*
*®_(इस्लाही मजालिस- 2/279)*
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*☞_(90) _नमाज़ के बाद इस्तग़फ़ार क्यूं ?*
*❀__हदीस में आता है कि जब नबी करीम सरवरे दो आलम ﷺ नमाज़ से फ़ारिग़ होते तो नमाज़ ख़त्म होते ही आप 3 मरतबा फ़रमाते थे - अस्तगफ़िरुल्लाह अस्तगफ़िरुल्लाह अस्तगफ़िरुल्लाह,*
*❀__अब यह उस वक्त इस्तगफार करना समझ में नहीं आता, इसलिए कि इस्तगफार तो उस वक्त होता है जब इंसान से कोई गुनाह हो जाए तो वो इस्तगफार करे कि या अल्लाह! मुझे माफ कर दे, तो बा ज़ाहिर नमाज़ के बाद इस्तगफार का मौक़ा नहीं, बल्कि नमाज़ तो अल्लाह के हुज़ूर हाज़री है, इसके बाद इस्तगफार क्यों?*
*❀__बात दर असल ये है कि नमाज़ तो हमने पढ़ ली मगर अल्लाह तबारक वा ता'ला की ज़ाते किब्रियाई का जो हक़ था वो नमाज़ में अदा ना हुआ, ए अल्लाह हम आपकी बंदगी का हक़ अदा ना कर सके, नमाज़ के बाद ये "अस्तगफिरुल्लाह" इस वास्ते है कि जो हक़ था वो तो अदा हुआ नहीं, इस वास्ते ए अल्लाह ! हम उन कोताहियों से इस्तगफार करते हैं जो नमाज़ के अंदर हुईं,*
*"❀__ तो एक बंदे का काम ये है कि जो नेक अमल भी करे, नेकी के जिस काम की जो तौफीक हो उस पर गुरुर में मुब्तिला होने के बजाए उसकी कोताहियों पर इस्तगफार करे, अल्लाह ताला का शुक्र अदा करे और उसकी कुबूलियत की दुआ मांगें,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 4/179)*
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*☞_(91)_नमाज़ और दीगर इबादतों के कुबूल होने की अलामात क्या है?*
*"❀_ हाजी इमदादुल्लाह कुद्दुसुल्लाह सरह (अल्लाह ताला उनके दरजात बुलंद फरमाये, आमीन) उनसे किसी ने सवाल किया कि हज़रत इतने दिन से नमाज पढ़ रहा हूं, मालूम नहीं अल्लाह तआला के यहां कुबूल होती है कि नहीं ?*
*"❀_हज़रत ने जवाब में फरमाया - अरे भाई! अगर ये नमाज़ कुबूल ना होती तो दूसरी बार पढ़ने की तौफीक़ ना होती, जब तुमने एक अमल कर लिया, उसके बाद अल्लाह तबारक वा ता'ला ने वही अमल दोबारा करने की तौफीक़ दे दी तो ये इस बात की अलामत है कि पहला अमल कुबूल है इंशा अल्लाह, इस वजह से नहीं कि उस अमल की कोई खुसूसियत थी, बल्कि इस वजह से कि उसने तुम्हें तौफीक़ दी, इसलिए अपनी नमाज़ और इबादतों को कभी हकी़र न समझो,*
*"❀_मौलाना रूमी रह. ने मसनवी में एक बुज़ुर्ग का क़िस्सा लिखा है कि एक बुज़ुर्ग बहुत दिनों तक नमाज़ पढ़ते रहे, रोज़े रखते रहे और तस्बीहात व अज़कार करते रहे, एक दिन दिल में ये ख्याल आया कि मै इतने अरसे से ये सब कुछ कर रहा हूं लेकिन अल्लाह ताला की तरफ से कोई जवाब वगैरा तो आता नहीं है, मालूम नहीं अल्लाह ताला को ये आमाल पसंद है या नहीं? उसकी बारगाह में मक़बूल है या नहीं ?*
*"❀_ आख़िरकार अपने शेख़ के पास जा कर अर्ज़ किया कि हज़रत इतने दिन से अमल कर रहा हूँ लेकिन अल्लाह ताला की तरफ से कोई जवाब नहीं आता, ये सुन कर शेख़ ने फरमाया, अरे बेवकूफ़! ये जो तुम्हें अल्लाह अल्लाह करने की तौफीक़ हो रही है, यहीं उनकी तरफ से जवाब है, क्योंकि अगर तुम्हारा अमल कुबूल न होता तो तुम्हें अल्लाह अल्लाह करने की तौफीक़ न होती, किसी और जवाब के इंतजार में रहने की ज़रूरत नहीं,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 5/56)*
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*☞_(92) _औरतों की फ़र्ज़ या निफ्ली नमाज़ की जमात:-*
*"❀_ एक मसला औरतों की जमात का है, मसला ये है कि औरतों की जमात पसंदीदा नहीं है, चाहे वो फ़र्ज़ नमाज़ की जमात हो या सुन्नत की हो या निफ़्ल की हो, इसलिए कि अल्लाह ताला ने औरतों को ये हुक्म फरमा दिया कि अगर तुम्हें इबादत करनी है तो तन्हाई में करो, जमाअत औरतों के लिए पसंदीदा नहीं,*
*"❀_ दीन असल में शरीयत की इत्तेबा का नाम है, अब ये मत कहो कि हमारा तो इस तरह इबादत करने को दिल चाहता है, इस दिल के चाहने को छोड़ दो, क्योंकि दिल तो बहुत सारी चीज़ों को चाहता है और सिर्फ दिल के चाहने की वजह से कोई चीज़ दीन में दाखिल नहीं हो जाती, जिस बात को रसूलुल्लाह ﷺ ने पसंद नहीं किया, उसको महज़ दिल चाहने की वजह से ना करना चाहिए,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 4/271)*
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*☞_(93) _ सलातुल हाजत का क्या तरीक़ा है?*
*"❀_ सलातुल हाजत के तरीक़े में कोई फ़र्क नहीं है, जिस तरह आम नमाज़ पढ़ी जाती है उसी तरह से ये दो रकातें पढ़ी जाएंगी, बहुत से लोग ये समझते हैं कि सलातुल हाजत पढ़ने का कोई खास तरीक़ा है, लोगों ने अपनी तरफ से इसके खास तरीके़ घड़ रखे हैं, बाज़ लोगों ने इसके लिए खास खास सूरतें भी मुतइयन कर रखी हैं कि पहली रकात में फलां सूरत पढ़े और दूसरी रकात में फलां सूरत पढ़े वगैरा वगैरा,*
*"❀_ लेकिन हुज़ूर अक़दस ﷺ ने सलातुल हाजत का जो तरीका़ बयान फरमाया है उसमें नमाज़ पढ़ने का कोई अलग तरीक़ा बयान नहीं फरमाया और न किसी सूरत की तैय्यन फरमाई, अलबत्ता बाज़ बुज़ुर्गो के तजुर्बात हैं कि अगर सलातुल हाजत में फलां फलां सूरतें पढ़ ली जाएं तो बाज़ अवक़ात इससे ज़्यादा फ़ायदा होता है, तो इसको सुन्नत समझ कर इंसान अख़्तियार ना करे, इसलिए कि अगर सुन्नत समझ कर अख़्तियार करेगा तो वो बिदअत हो जाएगा,*
*"❀_चुनांचे मेरे हजरत डॉक्टर अब्दुल हई साहब रह. फरमाया करते थे कि जब सलातुल हाजत पढ़ी जाए तो पहली रकात में सूरत अलिफ लाम मीम नशराह और दूसरी रकात में सूरत इजा़ जाआ नसरुल्लाह पढ़ लिया करो, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि ये सूरतें नमाज़े हाजत में पढ़ना सुन्नत है, बल्कि बुज़ुर्गो के तजुर्बे से ये पता चला है कि इन सूरतों के पढ़ने से ज़्यादा फायदा होता है,*
*"❀_ लिहाज़ा अगर कोई शख़्स सुन्नत समझे बगैर इन सूरतों को पढ़े तो भी ठीक है और अगर इनके अलावा कोई दूसरी सूरत पढ़ ले तो इसमें सुन्नत की ख़िलाफ वर्ज़ी लाज़िम नहीं आती, बहरहाल सलातुल हाजत पढ़ने का कोई खास तरीक़ा नहीं है बल्कि जिस तरह आम नमाज़े पढ़ी जाती है उसी तरह सलातुल हाजत की दो रकातें भी पढ़ी जाएं, बस नमाज़ शुरू करते वक्त दिल में ये नियत कर लें कि मै ये दो रकात सलातुल हाजत के तौर पर पढ़ता हूं,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 10/42)*
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*☞_(94) _इस्तेखारा की हक़ीक़त और चंद ग़लत फेहमियां:-*
*"❀_इस्तेखारा किसे कहते हैं? इस बारे में लोगों के दरमियान तरह तरह की गलत फहमियां पाई जाती है, आम तौर पर लोग ये समझते हैं कि इस्तेखारा करने का कोई खास तरीक़ा और खास अमल होता है, इसके बाद कोई ख्वाब नज़र आता है और उस ख्वाब के अंदर हिदायत दी जाती है कि फलां काम करो या फलां काम ना करो,*
*"_याद रखिये! ख्वाब आना कोई ज़रूरी नहीं, ख्वाब में कोई बात जरूर बताई जाये या ख्वाब में कोई इशारा ज़रूर दिया जाये, बाज़ मर्तबा ख्वाब में आ जाता है और बाज़ मर्तबा ख्वाब में नहीं आता,*
*"❀_ खूब समझ लीजिए कि हुजूर अक़दस ﷺ से इस्तेखारा का जो मसनून तरीक़ा साबित है उसमें इस क़िस्म की कोई बात मौजूद नहीं, इस्तेख़ारा का मसनून तरीक़ा ये है कि आदमी दो रकात निफ़्ल इस्तेख़ारा की नियत से पढ़े, दिल में ये नियत हो कि मेरे सामने दो रास्ते हैं, उनमें से जो रास्ता मेरे हक़ में बेहतर हो अल्लाह ताला उसका फैसला फरमा दें, फिर दो रकात नमाज़ पढ़े और नमाज़ के बाद इस्तेखारा की वो मसनून दुआ मांगे जो हुज़ूर अक़दस ﷺ ने तलक़ीन फ़रमाई है,*
*"❀_बाज़ लोग ये समझते हैं कि इस्तेखारा हमेशा रात को सोते वक्त ही करना चाहिए, या इशा की नमाज़ के बाद ही करना चाहिए, ऐसा कोई ज़रूरी नहीं, जब भी मौक़ा मिले उस वक्त ये इस्तेखारा कर लें, ना रात की कोई क़ैद है और ना दिन की कोई क़ैद है, ना सोने की कोई क़ैद है और ना जागने की कोई क़ैद है,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 10/160)*
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*☞_(95) _इस्तेखारा का नतीजा किस तरह मालूम होगा?*
*"❀_ बाज़ हजरात का कहना ये है कि इस्तेखारा करने के बाद खुद इंसान के दिल का रुझान एक तरफ हो जाता है, बस जिस तरफ रुझान हो जाए वो काम कर लें, और बा कसरत ऐसा रुझान हो जाता है, लेकिन बिल फ़र्ज़ अगर किसी एक तरफ रूझान ना भी हो बल्कि दिल में कशमकश मौजूद हो तो भी इस्तेखारा का मक़सद हासिल हो गया,*
*"❀_इसलिए कि बंदे के इस्तेखारा करने के बाद अल्लाह ताला वही करते हैं जो उसके हक़ में बेहतर होता है, उसके बाद हालात ऐसे पैदा हो जाते हैं, फिर वही होता है जिसमें बंदे के लिए खैर होती है और उसको पहले से मालूम भी नहीं होता,*
*"❀_ बाज़ अवक़ात इंसान एक रास्ते को बहुत अच्छा समझ रहा होता है लेकिन अचानक रुकावटें पैदा हो जाती है और अल्लाह ताला उसको उस बंदे से फैर देते हैं, लिहाज़ा अल्लाह ताला इस्तेखारा के बाद असबाब ऐसे पैदा फरमा देते हैं कि फिर वही होता है जिसमें बंदे के लिए खैर होती है, अब खैर किसमें है? इंसान को पता नहीं होता लेकिन अल्लाह ताला फैसला फरमा देते हैं,*
*"❀_अब जब वो काम हो गया तो ज़ाहिरी एतबार से बाज़ अवकात ऐसा लगता है कि जो काम हुआ वो अच्छा नज़र नहीं आ रहा है, दिल के मुताबिक़ नहीं है, तो अब बंदा अल्लाह ताला से शिकवा करता है कि या अल्लाह ! मैंने आपसे इस्तेख़ारा किया था मगर काम वो हो गया जो मेरी मर्जी और तबियत के ख़िलाफ़ है और बा ज़ाहिर ये काम अच्छा मालूम नहीं हो रहा है,*
*"❀_ हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमा रहे हैं कि अरे नादान! तू अपनी महदूद अक़ल से सोच रहा है कि ये काम तेरे हक़ में बेहतर नहीं हुआ लेकिन जिसके इल्म में सारी कायनात का निज़ाम है वो जानता है कि तेरे हक़ में क्या बेहतर था और क्या बेहतर नहीं था, उसने जो किया वही तेरे हक़ में बेहतर था, बाज़ अवक़ात दुनिया में तुझे पता चल जाएगा कि तेरे हक़ में क्या बेहतर था और बाज़ अवक़ात पूरी जिंदगी में कभी पता नहीं चलेगा, जब आखिरत मे पहुंचेगा तब वहां जा कर पता चलेगा कि वाक़ई यही मेरे हक़ में बेहतर था,*
*"_® _(इस्लाही ख़ुत्बात- 10/161)*
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*☞_(96) _नमाज़ में आने वाले वसवसे और ख्यालात:-*
*❀_नमाज़ में आने वाले वसवसे और ख्यालात अगरचे मुबाह है, क्यूंकी वो किसी गुनाह का वसवसा और ख्याल नहीं है, लेकिन वो ख्याल इंसान को किसी इबादत और ता'अत की तरफ मुतवज्जह होने से रोक रहा है मसलन जैसे ही नमाज़ की नियत बांधी, बस उस वक्त दुनिया भर के ख्यालात की चक्की चलनी शुरू हो गई, खाने पीने का ख्याल, बीवी बच्चों का ख्याल, अपनी रोज़ी का ख्याल, तिजारत का ख्याल, ये तमाम ख्यालात फि नफ्सा गुनाह के ख्यालात नहीं है, लेकिन ख़यालात की वजह से दिल नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जह नहीं हो रहा है और ख़यालात की वजह से ख़ुशू में रुकावत पैदा हो रही है,*
*"❀_ चूंकि ये ख्यालात जो गैर अख्तयारी तौर पर आ रहे हैं और इंसान के अपने अख्तियार को कोई दखल नहीं है इसलिए इंशा अल्लाह इन ख्यालात पर कोई गिरफ़्त और मुवाख्ज़ा नहीं होगा बल्कि माफ होंगे, अलबत्ता अपने अख्तियार से बा क़ायदा इरादा कर के ख़यालात नमाज़ में मत लाओ और ना उनमें दिल लगाओ, जब अल्लाहु अकबर कह कर नमाज़ शुरू करो तो ज़ेहन को नमाज़ की तरफ मुतवज्जह करो, जब सना पढ़ो तो उसकी तरफ ध्यान लगाओ और जब सूरह फातिहा पढ़नी शुरू करो तो उसकी तरफ़ ध्यान लगाओ,*
*"❀_ फिर ध्यान लगाने के बावज़ूद ग़ैर अख्त्यारी तौर पर ज़ेहन दूसरी तरफ भटक गया और ख़यालात कहीं और चले गए तो इंशा अल्लाह उन पर गिरफ़्त नहीं होगी लेकिन ख़बरदार हो जाएं कि मैं तो भटक गया, तो फ़िर दोबारा नमाज़ की तरफ लौट आओ और नमाज़ के अल्फ़ाज़ और अज़कार की तरफ लौट आओ, बार-बार ये करते रहो तो इंशा अल्लाह ये ख्यालात आने कम हो जायेंगे और इस काम के ज़रिये अल्लाह तआला ख़ुशू अता फरमा देंगे,*
*"❀_ और ख़यालत और वसाविस का इलाज़ ही है कि उन ख़यालात की तरफ़ इल्तिफ़ात और तवज्जो नहीं करोगे तो इंशा अल्लाह ये ख़यालत ख़ुद बा ख़ुद दूर हो जायेंगे, बस अपना काम किये जाओ और जब नमाज़ की नियत बांधों तो अपना ज़ेहन नमाज़ की तरफ़ लगाओ,*
*"_®(इस्लाही ख़ुतबात- 9/161)*
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*☞_(97) _नमाज़ में वसवसे और ख़यालात के आने की वजह:-*
*❀_ (1)_ नमाज़ में ख़यालात आने की एक वजह नमाज़ का सुन्नत के मुताबिक़ अदा ना करना है, आज हमें अक़सर व बेश्तर ये शिकवा रहता है कि नमाज़ में ख़यालात मुंतशिर रहते हैं, कभी कोई ख़याल आ रहा है, कभी कोई ख़याल आ रहा है और नमाज़ में दिल नहीं लगता, इसकी एक बड़ी वजह ये है कि हमने नमाज़ को ज़ाहिरी तरीके के मुताबिक नहीं बनाया और ना ही इसका एहतमाम किया, बस जिस तरह बचपन में नमाज़ पढ़ना सीखा उसी तरह पढ़ते चले आ रहे है, ये फ़िक्र नहीं कि वाक़ई ये नमाज़ सुन्नत के मुताबिक़ है या नहीं?*
*❀_ये नमाज़ इतना अहम फ़रीज़ा है कि फ़िक़्हा की किताबो में इस पर सैंकड़ों सफ़ाहात लिखे हुए हैं जिनमे नमाज़ के एक एक रुक्न को तफ़सील से बयान किया गया है कि तकबीर ए तहरीमा के लिए हाथ केसे उठाएं, क़याम किस तरह करें, रुकू किस तरह किया जाए, सजदा किस तरह किया जाए, कायदा किस तरह किया जाए, सबकी तफसीलात किताबों में मौजूद है लेकिन इन तरीकों के सीखने की तरफ ध्यान नहीं, बस जिस तरह क़याम करते चले आ रहे है उसी तरह क़याम कर लिया, जिस तरह अब तक रुकु सजदा करते चले आ रहे हैं, उसी तरह रुकु सजदा कर लिया, लेकिन उनको ठीक ठीक सुन्नत के मुताबिक़ अंजाम देने की फिक्र नहीं,*
*"❀_(2) _नमाज़ में ख़यालात आने की दूसरी वजह वजू का सही तौर पर ना करना है, हम वजू सुन्नत के मुताबिक़ नहीं करते, इधर उधर की बातें करते हुए वजू कर लिया, हालांकी वजू के आदाब में से ये है कि वजू के दौरन बाते ना की जाए, बल्कि वजू के दौरान वो दुआएं पढ़ी जाएं जो रसूलुल्लाह ﷺ से साबित हैं और आदमी इत्मिनान से वजू कर के ऐसे वक्त में मस्जिद में आए जबकि नमाज़ खड़ी होने में कुछ वक्त हो और मस्जिद में आ कर पहले सुन्नत और निफ़्ल अदा कर ले,*
*"❀_क्यूंकि सुन्नत और निफ्ल जो नमाज़ से पहले रखी गई हैं ये दर हक़ीक़त फर्ज नमाज़ की तमहीद हैं ताकि फ़र्ज़ नमाज़ से पहले ही उसका ध्यान अल्लाह ताला की तरफ हो जाए और इधर उधर के ख़यालात आना बंद हो जाएं, इन सब आदाब का लिहाज़ कर के जब आदमी नमाज़ पढ़ेगा तो फिर दूसरे ख़्याल नहीं आएंगे,"*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 14/247)*
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*☞_(98) _ क्या नेक काम सिर्फ रमज़ान के साथ खास है?*
*"❀_हज़रत ए वाला ने इस मलफ़ूज़ में ज़कात से मुताल्लिक़ एक उसूल बयान फरमाया लेकिन ये बात सिर्फ ज़कात के साथ खास नहीं है बल्कि उसूल तमाम आमाल के अंदर ज़ारी है, हम लोग रमज़ान में तो आमाल के अंदर थोड़ा बहुत अहतमम करते हैं,*
*"❀_चुनांचे होता ये है कि जितने नेक काम हैं सब रमज़ान के लिए उठा कर रख देते हैं, निफ्लें पढ़ेंगे तो रमज़ान में तिलावत करेंगे तो रमज़ान में करेंगे, रात को उठेंगे तो रमज़ान में उठेंगे और इशराक और चाश्त के नवाफ़िल पढ़ेंगे तो रमज़ान में पढ़ेंगे, इस तरह हमने सारे काम उठा कर रमज़ान के लिए रख दिए और इधर जैसे ही रमज़ान ख़त्म हुआ, उधर सारे आमाल ख़त्म,*
*"❀_अब ना तो तिलावत है, ना ज़िक्र है, ना नवाफिल है, ना अल्लाह ताला की याद है और ना गुनाहों से बचने का वो अहतमाम है, रमज़ान में गुनाह करते हुए ज़रा शर्म आ जाती है कि भाई! रमज़ान का महीना है, ज़रा आंख की हिफ़ाज़त कर लें, ज़रा कान की हिफ़ाज़त कर लें, ज़रा ज़ुबान की हिफ़ाज़त कर लें, लेकिन रमज़ान के गुज़रते ही गुनाहों की छुट्टी मिल गई, अब न गुनाहों से बचने का अहतमाम है और जो नेक काम रमज़ान में शुरू किये थे ना उनको बाक़ी रखने का अहतमाम है,*
*"❀_ अल्लाह ताला ने रमज़ानुल मुबारक को एक तरबियती कोर्स बनाया है, जब तुम उस तरबियती कोर्स से गुज़र गए और उसके अंदर अल्लाह ताला ने रोज़े से, तरावीह से, एतकाफ़ से, ज़िक्र से तसबीह और तिलावत से तुम्हारे अंदर जो रोशनी पैदा फरमा दी, उसको अब बरक़रार रखना तुम्हारा काम है, लिहाज़ा रमज़ान के बाद जब तुम आम जिंदगी के अंदर दाखिल हो तो उस जज़्बे को बरक़रार रखना तुम्हारा काम है,*
*©_(इस्लाही ख़ुतबात- 2/122)*
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*☞_(99) क्या रमज़ान के इंतज़ार में नेक आमाल को टाला जा सकता है?*
*"❀_ बहुत से लोगों को देखा है कि उन पर ज़कात फ़र्ज़ हो गई है मगर इस इंतज़ार में रुके हैं कि जब रमज़ान आएगा तो उस वक़्त ज़कात निकालेंगे, या मसलन कुछ सदका़ करने की नियत है लेकिन रोके बैठे हैं कि रमज़ान आएगा उस वक़्त सदक़ा करेंगे, इसलिए कि हदीस में है कि रमज़ान में निफ़्ल काम का सवाब फ़र्ज़ के बराबर मिलेगा और फ़र्ज़ अदा करने पर सत्तर गुना सवाब मिलेगा,*
*"❀_इस हदीस की वजह से लोग ज़कात और सदका़ की अदायगी को रमज़ान के लिए टाल देते हैं कि जब रमज़ान आएगा तो उस वक़्त अदा करेंगे, हज़रत ए वाला ने दो लफ़्ज़ो में इस हदीस की तशरीह फरमा दी कि इस हदीस का मतलब ये है कि जब तुम्हारे दिल में किसी नेकी के करने का ख्याल आ रहा है तो नेकी को अभी फौरन कर लो और उसको इस तरह मत टालो के रमज़ान में नेक काम करने का सवाब ज़्यादा है,*
*"❀_ इस हदीस का ये मतलब नहीं है कि अगर रमज़ान से पहले किसी नेकी का ख़याल आया है तो उस ख़्याल को टाल दो कि ये नेकी रमज़ान में करेंगे ताकि उस वक़्त सवाब ज़्यादा मिले, लिहाज़ा जिस वक़्त जिस नेकी के करने का ख़याल आए चाहे वो निफ़्ली काम हो या फ़राइज़ की अदायगी हो, उसी वक़्त उसको कर लो,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 2/112)*
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*☞_(100) _ अपनी उम्र में इज़ाफ़े की दुआ करना :-*
*"❀_ जब नबी करीम ﷺ रज्जब का चांद देखते तो ये दुआ फरमाया करते (तर्जुमा) -ए अल्लाह हमारे लिए रज्जब और शाबान के महीनों में बरकत अता फरमा और हमें रमज़ान के महीने तक पहुंचा दीजिए, यानी हमारी उम्र इतनी दराज़ कर दीजिए कि हमें अपनी उम्र में रमज़ान का महीना नसीब हो जाए,*
*"❀_इस हदीस से ये पता चला कि अगर कोई शख़्स इस नियत से अपनी उम्र में इज़ाफ़े की दुआ करे कि मेरी उम्र में इज़ाफ़ा हो जाए ताकि इस उम्र को मै अल्लाह ताला की मर्ज़ी के मुताबिक़ सही इस्तेमाल कर सकूं और फ़िर वो आख़िरत में काम आये तो उम्र में इज़ाफ़े की दुआ करना इस हदीस से साबित है,*
*"❀_ लिहाज़ा ये दुआ मांगनी चाहिए कि या अल्लाह मेरी उम्र में इतना इज़ाफ़ा फरमा दे कि मै इसमे आपकी रज़ा के मुताबिक़ काम कर सकूं और जिस वक़्त मै आपकी बारगाह में पहुंचू तो उस वक़्त आपकी रज़ा के लायक बन जाऊं लेकिन जो लोग इस क़िस्म की दुआ माँगते हैं कि या अल्लाह! अब तो इस दुनिया से उठा ही ले, हुज़ूर अकदस ﷺ ने ऐसी दुआ करने से मना फरमाया है और मौत की तमन्ना करने से भी मना फरमाया है,*
*"❀_तुम तो ये सोच कर मौत की दुआ कर रहे हो कि यहां दुनिया में हालात खराब है और जब वहां चले जाएंगे तो अल्लाह ताला के पास सुकून मिल जाएगा, अरे ये तो जायज़ा लो कि तुमने वहां के लिए क्या तैय्यारी कर रखी है? क्या मालूम कि अगर इस वक्त मौत आ जाए तो खुदा जाने क्या हालात पेश आएं? इसलिए हमेशा ये दुआ करनी चाहिए कि अल्लाह ताला आफियत अता फरमाये और जब तक अल्लाह ताला ने उम्र मुक़र्रर कर रखी है उस वक्त तक अल्लाह ताला अपनी रज़ा के मुताबिक़ जिंदगी गुज़ारने की तौफीक़ अता फरमाये,*
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*☞_ (101)_ ख़ुदकुशी क्यों हराम है ?*
*"❀_ खुदकुशी करना हराम है क्योंकि वो फैसला जो अल्लाह ताला को करना है कि तुम्हें इस दुनिया से कब जाना चाहिए, ये फैसला तुम अपने हाथ में ले रहे हो, ये जान तुम्हारी मिल्कियत नहीं है कि उसके साथ जैसा चाहो सुलूक करो, बल्की अल्लाह ताला की मिलकियत है जो उसने अता की है, लिहाज़ा इस जान की हिफ़ाज़त तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, यहाँ तक कि मौत की तमन्ना करना भी ना-जाइज़ है,*
*"❀_ये हमारी जिंदगी जो हमारे पास है, उसी तरह हमारा पूरा जिस्म सर से ले कर पांव तक ये अमानत है, हम जिस्म के मालिक नहीं, अल्लाह ताला ने ये जिस्म जो हमें अता फरमाया है और ये आज़ा जो हमें अता फरमाये हैं, ये आंखे कान नाक मूंह जुबान हाथ पांव, ये सब अल्लाह ताला की अमानत हैं, बताओ क्या तुम ये आज़ा कहीं बाज़ार से खरीद कर लाये थे ?*
*"❀_ बल्कि अल्लाह ताला ने बगैर किसी मुआवज़े के और बगैर किसी मेहनत और मशक्कत के पैदा होने के वक्त से हमें दे दिए हैं और हमें ये फरमा दिया कि इन आज़ा से और इन कुव्वतों से लुत्फ़ उठाओ, इन आज़ा को इस्तेमाल करने की तुम्हे खुली इजाज़त है, अलबत्ता इन आज़ा को हमारी मा'सियत और गुनाहों में इस्तेमाल मत करना, चुंकी ये जिंदगी, ये जिस्म और ये आज़ा अमानत है, इसी वजह से इंसान के लिए ख़ुदकुशी करना हराम है और अपने आपको क़त्ल कर देना हराम है, क्यों हराम है?*
*"❀_ इसलिये कि ये जान और ये जिस्म हमारी अपनी मिल्कियत होती तो हम जो चाहते करते, चाहे इसको तबाह करते या बरबाद करते या आग में जलाते लेकिन चूंकी ये जान और ये जिस्म अल्लाह की अमानत है इसलिये ये अमानत अल्लाह के सुपुर्द करनी है, लिहाज़ा जब अल्लाह ताला हमें अपने पास बुलाएंगे, उस वक्त हम जाएंगे, पहले से खुदकुशी कर के अपनी जान को खत्म करना अमानत में खयानत है_,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 15/231)*
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*☞_(102) छोटे गुनाह पर भी अल्लाह की तरफ़ से पकड़ हो सकती है,*
*"❀_जिस तरह ये बात है कि अल्लाह तबारक व ताला किसी छोटे अमल पर बाज़ अवक़ात अपनी रहमत से मगफिरत फरमा देते हैं, उसी तरह ये बात भी है कि बाज़ अवक़ात कोई गुस्ताखी का अमल ऐसा होता है कि उस पर पकड़ हो जाती है, लिहाज़ा अगर इंसान से गलती हो जाए तो बजाय सीना ज़ोरी करने के अल्लाह ताला से तौबा कर के इस्तग़फ़र करे, अल्लाह ताला के सामने इक़रारी मुजरिम बन कर हाज़िर हो जाए, किसी गुनाह को चाहे वो छोटे से छोटा नज़र आ रहा है, छोटा समझ कर अख्तियार ना करे, कि ये तो छोटा सा गुनाह है चलो कर लो, क्यूंकी गुनाह की खासियत ये है के आदमी एक गुनाह कर के बसा अवक़ात दूसरे गुनाह की तरफ माइल हो जाता है यानी एक गुनाह दूसरे गुनाह को खींचता है,*
*"❀_बाज़ अवकात शैतान ये धोखा भी पैदा करता है कि ये गुनाह कबीरा है कि सगीरा है, ये मसला बहुत लोग पूछते हैं और अगर ये कहें कि भाई ना-जायज़ है तो कहते हैं कि ना-जायज़ है या हराम है? मतलब ये है कि हराम हो तो बचे, ना-जायज़ हो तो चले कोई बात नहीं, और अगर गुनाह कबीरा हो तो थोड़ी बहुत रियात कर लें और अगर सगीरा हो तो कोई बात नहीं चलो कर गुज़रे, ये तहकी़क़ अक्सर लोगो को मैंने करते हुए देखा है,*
*"❀_ हमारे हज़रत हकीमुल उम्मत कुद्दुसुल्लाह सराह फ़रमाया करते थे कि सगीरा और कबीरा की मिसाल ऐसी है जैसे एक बड़ा सा शोला और एक छोटी सी चिंगारी दोनों आग है लेकिन वो बड़ा शोला है, वो छोटी चिंगारी है, कोई आदमी आपने ऐसा देखा कि बड़ा अंगारा तो अपनी अलमारी में ना रखे और छोटी चिंगारी हो तो बोले कि चलो छोटी चिंगारी ही तो है, तो कोई भी ऐसा नहीं करेगा*
*"❀_ इसी वास्ते कि जानता है कि ये है तो छोटी चिंगारी लेकिन यही चिंगारी बढ़ कर शोला बन सकती है, पूरे घर को बर्बाद कर सकती है, इसी तरह गुनाहे कबीरा और सगीरा है, सगीरा अगरचे देखने में छोटा नज़र आ रहा है लेकिन अगर बेपरवाही के साथ इंसान इसका इर्तिकाब करेगा तो वो बढ़ते बढ़ते कबीरा बन जाएगा,*
*"❀_इसी वास्ते बुज़ुर्गो ने फरमाया कि किसी सगीरा गुनाह को मामूली समझ कर कर गुज़रना खुद कबीरा गुनाह है, क्योंकि नाफरमानी तो दोनों हैं, नाफरमानी कबीरा में भी है, सगीरा में भी है, अल्लाह ताला ने कहा है कि सगीरा से भी बचो और कबीरा से भी बचो, जब अल्लाह ताला किसी से बचने का फरमा रहे हैं तो वो काम नाफ़रमानी का है,"*
*®_(खुत्बात ए उस्मानी - 3/264)*
*
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*☞_(103) बाज़ फ़ज़ाइल की हदीसों में आता है कि फलां अमल करने से एक साल गुज़िश्ता और आइन्दा के गुनाह माफ़ हो जायेंगे तो इसका क्या मतलब है?*
*"❀_ यहाँ ये बात भी अर्ज़ कर दूं कि बाज़ लोग जो दीन का कमा हक़्क़ा इल्म नहीं रखते तो इस क़िस्म की जो हदीसें आती है कि एक साल पहले के गुनाह माफ़ हो गए और एक साल आइंदा के गुनाह माफ़ हो गए, इससे उन लोगों के दिलों में ये ख्याल आता है कि जब अल्लाह ताला ने एक साल पहले के गुनाह तो माफ कर ही दिए और एक साल आइंदा के भी गुनाह माफ कर दिए, इसका मतलब ये है कि साल भर के लिए छूट्टी हो गई, जो चाहे करें, सब गुनाह माफ हैं,*
*"❀_ खूब समझ लीजिए! जिन जिन अ'आमाल के बारे में नबी करीम ﷺ ने ये फरमाया कि ये गुनाहों को माफ करने वाले आमाल हैं, मसलन वज़ू करने में हर उज़्व को धोते वक्त उस उज़्व के गुनाह माफ़ हो जाते हैं, नमाज़ पढ़ने के लिए जब इंसान मस्जिद की तरफ चलता है तो एक क़दम पर एक गुनाह माफ होता है और एक दर्जा बुलंद होता है, रमज़ान के रोजो़ के बारे में फरमाया कि जिस शख्स ने रमज़ान के रोज़े रखे उसके तमाम पिछले गुनाह माफ हो जाते हैं, याद रखिए! इस क़िस्म की तमाम हदीसों में गुनाहों से मुराद सगीरा गुनाह होते हैं और जहां तक कबीरा गुनाहों का ताल्लुक़ है उसके बारे में क़ानून ये है कि बगैर तौबा के माफ़ नहीं होते,*
*"❀_वेसे अल्लाह ताला अपनी रहमत से किसी के कबीरा गुनाह बगैर तौबा के बख्श दे वो अलग बात है, लेकिन कानून ये है कि जब तक तौबा नहीं कर ले माफ नहीं होंगे, और फिर तौबा से भी वो गुनाहे कबीरा माफ़ होते हैं जिनका ताल्लुक़ हुक़्क़ुल्लाह से है और अगर उ, गुनाह का ताल्लुक़ हुक़ुक़ुल इबाद से है, मसलन किसी का हक़ दबा लिया, किसी का हक़ मार लिया, किसी की हक़ तल्फ़ी कर ली है, इसके बारे में क़ानून ये है कि जब तक साहिबे हक़ को उसका हक़ अदा ना कर दे या उससे माफ ना करा ले उस वक्त तक माफ नहीं होंगे,*
*"❀_लिहाजा़ ये तमाम फजी़लत वाली हदीसें जिनमें गुनाहों की माफी का जिक्र है, वो सगीरा गुनाहों की माफी से मुताल्लिक़ हैं _,"*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 2/127)*
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*☞_(104) _ गुनाहों से तौबा के वक्त दिल में ये शुबहा आना कि गुनाह छोड़ने का इरादा पक्का भी है या नहीं?*
*"❀_ गुनाहों से तौबा की एक शर्त ये है कि आइंदा के लिए दिल में ये इरादा कर ले कि मैं आइंदा ये गुनाह नहीं करूंगा, इस शर्त के पूरे होने में अक्सर शुबहा रहता है कि मालूम नहीं पक्का इरादा हुआ या नहीं? क्योंकि तौबा करते वक्त दिल में ये धड़का लगा हुआ है कि तौबा तो कर रहा हूं लेकिन कितना इस तौबा पर क़ायम रहूंगा और कितना मैं अपने आपको इस गुनाह से बचा सकुंगा, इस बारे में दिल शुबहा रहता है,*
*"❀_बाज़ अवकात ये ख्याल आता है कि हम तौबा करते हैं लेकिन वो गुनाह फिर सरज़द हो जाता है और तौबा टूट जाती है, फिर तौबा करते हैं फिर टूट जाती है, बार बार ऐसा होता रहता है, इससे तबियत मे मायूसी होने लगती है कि मेरी इस्लाह की कोई तवक्को नहीं क्यूंकि अल्लाह के बंदे तौबा कर के उस पर साबित क़दम रहते हैं लेकिन मैं जो तौबा करता हूं वो तौबा टूट जाती है,*
*"❀_ खूब अच्छी तरह समझ लीजिये, ये भी कोई मायूसी की बात नहीं, इतनी बात तो ज़रूर है कि अपनी तरफ से तौबा पर क़ायम रहने की पूरी कोशिश करो और करते रहो और गुनाह पर जुर्रत पैदा ना करो, फिर भी अगर गलती हो जाए तो फिर तौबा कर लो, कुरान करीम में अल्लाह ताला ने इरशाद फरमाया:-(अल बक़राह- 222) बेशक़ अल्लाह पसंद करता है तौबा करने वालों को और पसंद करता है पाकी हासिल करने वालो को_,"*
*"_इस आयत में कसरत से तौबा करने वालो का ज़िक्र है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 5/298)*
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*☞_(105) फ़ाहिशा औरत की मगफिरत आम क़ानून नहीं, एक ग़लत फ़हमी का इज़ाला:-*
*"❀_ बुखारी शरीफ में एक वाक़िया लिखा है कि एक तवायफ और फाहिशा औरत थी, सारी जिंदगी तवायफी का काम किया था, एक मर्तबा वो कहीं से गुज़र रही थी, रास्ते में उसने देखा था कि एक कुत्ता प्यास की शिद्दत की वजह से ज़मीन की मिट्टी चाट रहा था, क़रीब में एक कुंवा था, उस औरत ने अपने पैरों से चमड़े का मोज़ा उतारा और उस मोज़े में कुंवे से पानी निकाला और उस कुत्ते को पिला दिया, अल्लाह ताला को ये अमल इतना पसंद आया कि उसकी मगफिरत फरमा दी कि मेरी मखलूक के साथ तुमने मुहब्बत और रहम का मामला किया तो हम तुम्हारे साथ रहम का मामला करने के ज़्यादा हक़दार हैं,*
*"❀_ लेकिन एक बात याद रखिए कि ये ऊपर का मामला ये रहमत का मामला है, ये कोई क़ानून नहीं है, लिहाज़ा कोई शख्स ये ना सोचे कि ये अच्छा नुस्खा हाथ आ गया कि ना नमाज पढ़ो, ना रोज़ा रखो, ना ज़कात दो, ना दूसरे फ़राईज़ अंजाम दो, ना गुनाहों से बचो, बस मैं भी इसी तरह जानवरों के साथ रहम दिली का मामला किया करूंगा तो क़यामत के रोज़ मेरी भी माफ़ी हो जाएगी, ये दुरुस्त नहीं, इसलिए कि ये मामला रहमत का है और अल्लाह की रहमत किसी क़ायदे कानून की पाबंद नहीं होती, वो जिसको चाहे अपनी रहमत से बख्श दें,*
*"❀_लेकिन क़ानून ये है कि फ़राइज़ की अदायगी ज़रूर करनी है, गुनाहों से बचना ज़रूरी है, अगर कोई शख़्स फ़राइज़ की अदायगी नहीं करता या गुनाहों से नहीं बचता तो महज़ किसी एक अमल की बुनियाद पर भरोसा कर के बैठ जाए कि बस इस अमल के जरिए मेरी छुट्टी हो जाएगी, ये बात दुरुस्त नहीं, इसलिए कि ये अल्लाह ताला का क़ानून नहीं है,*
*"❀_फिर भी इस वाक़िये से ये नतीज़ा तो ज़रूर निकलता है कि कोई नेकी का काम हक़ीर नहीं होता, क्या पता अल्लाह ताला किसी नेक काम को कुबूल फरमा ले और उससे बेड़ा पार हो जाए, इसलिए किसी नेकी के काम को हक़ीर नहीं समझा जाना चाहिए लेकिन ये नतीजा निकालना दुरुस्त नहीं है कि अल्लाह ताला ने फलां नेक काम पर बख्श दिया, लिहाज़ा अब ना तो नमाज़ पढ़ने की ज़रूरत है और ना फ़राइज़ अदा करने की ज़रूरत है, बस आदमी अल्लाह की रहमत पर भरोसा कर के बैठ जाएं,*
*"❀_चुनांंचे ये हदीस आपने सुनी है कि हुजूर अक़दस ﷺ ने फरमाया कि आजिज़ शख्स वो है जो अपने नफ्स को ख्वाहिशात के पीछे छोड़ दे, और जो दिल में आ रहा है वो काम कर रहा है, ये नहीं देख रहा है कि ये काम हलाल है या हराम है? जाइज़ है या ना-जा'इज़ ? लेकिन अल्लाह ताला पर तमन्ना और आरज़ू लगाए बैठा है कि अल्लाह ता'ला तो गफूरूर रहीम है सब माफ फरमा देंगे, बहर हाल! इन जैसे वक़ियात से ये नतीजा निकालना दुरुस्त नहीं,*
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*☞_(106) बिदअत किसे कहते हैं?*
*"❀_ बिदअत के दो मा'नी होते हैं, एक लुगवी और एक इस्तेलाही, अगर आप लुगत और डिक्शनरी में बिदअत के मा'नी देखते हैं तो आपको नज़र आएगा कि लुगत में इसके मा'नी नई चीज़ के हैं, लिहाज़ा जो भी नई चीज़ है उसको लुगवी ऐतबार से बिद'अत कह सकते हैं', मसलन ये पंखा, ये बिजली, ये ट्रेन और हवाई जहाज वगैरा लुगत और डिक्शनरी के एतबार से सब बिद'अत है क्यूँकि ये चीज़ हमारे दौर की ही पैदावार है, मुसलमानों के अव्वल दौर में इनका वजूद ना था ये सब नई चीज़ें है,*
*"❀_लेकिन शरीयत की इस्तिलाह में हर नई चीज़ को बिदअत नहीं कहते, बल्कि बिदअत के मानी ये है कि दीन में कोई नया तरीक़ा निकालना और उस तरीक़े को ख़ुद मुस्तहब या लाज़िम या मसनून क़रार देना जिसको नबी करीम ﷺ और खुल्फ़ा ए राशिदीन ने मसनून क़रार नहीं दिया, उसको बिदअत कहेंगे, इस्तिलाही मानी के लिहाज़ से जिन चीज़ों को बिदअत कहा गया है उनमें से कोई बिदअत अच्छी नहीं होती और ऐसी कोई बिद'अत हसना नहीं है बल्कि हर बिदअत बुरी ही है,*
*"❀_खूब समझ लीजिए! कि लोगों ने जो बिदअत की किस्में निकाल ली हैं कि एक बिदअत हसना होती है और एक बिदअत सीआ होती है, एक अच्छी होती है और एक बुरी होती है, याद रखो! बिदअत कोई हसना नहीं, कोई बिदअत अच्छी नहीं, जो तरीक़ा नबी करीम सरवरे दो आलम ﷺ ने और हज़रात खुल्फ़ा ए राशिदीन और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने ज़रूरी क़रार नहीं दिया और सुन्नत क़रार नहीं दिया, मुस्तहब क़रार नहीं दिया, दुनिया की कोई ताक़त उसको वाजिब, सुन्नत और मुस्तहब क़रार नहीं दे सकती, अगर ऐसा कोई करेगा तो वो ज़लालत और गुमराही होगी, इसका मतलब ये होगा कि सहाबा किराम दीन को इतना नहीं समझते थे जितना हम समझते हैं,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/227, 235)*
*︶︸︶︸︶︸︶︸︶︸︶*
*☞_(107) बिदअत चाहे अच्छी हो या बुरी हो, बिदअत गुमराही है, क्यूं?*
*"❀_ बाज़ हज़रात ये कहते हैं कि बिदअत की दो क़िस्में होती हैं, एक बिदअत हसना और एक बिदअत सिआ, यानी बाज़ काम बिदअत तो होते हैं लेकिन अच्छे होते हैं और बाज़ काम बिदअत भी है और बुरे भी है, अगर कोई अच्छा काम शुरू किया जाए तो उसको बिदअत हसना कहा जाएगा और उसमें कोई ख़राबी नहीं है,*
*"❀_ खूब समझ लीजिए कि बिदअत कोई अच्छी नहीं होती, जितनी बिदअते हैं वो सब बुरी है, जो चीज़ दीन में दाखिल की जाती है बा ज़ाहिर देखने में वो सवाब का काम मालूम होती है, इबादत लगती है लेकिन चुंकी वो इबादत अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के बताए हुए तरीके़ के मुताबिक़ नहीं होती इसलिए वो इबादत बिदअत है और बिदअत गुमराही है,*
*"❀_जितनी बिद'आत होती है उनमें बराहे रास्त गुनाह का काम नहीं होता लेकिन चुंकी इस अमल को किसी अथॉरिटी के बैगर दीन के अंदर शामिल कर दिया गया, उस अमल के बारे में हमारे पास कुरान की और सुन्नत की कोई अथॉरिटी नहीं थी, बल्की हमने अपनी तरफ से उसको दीन में दाखिल कर दिया, इसलिए वो बिदअत बन गई,*
*"❀_ बिदअत की सबसे बड़ी ख़राबी यही है कि आदमी खुद दीन का मोजिद बन जाता है, हालांकि दीन का मोजिद कौन है? सिर्फ अल्लाह ताला, अल्लाह ताला ने हमारे लिए जो दीन बनाया वो हमारे लिए का़बिले इत्तेबा है लेकिन बिदअत करने वाला खुद दीन का ईजाद करने वाला बन जाता है और ये समझता है कि दीन का रास्ता मैं बना रहा हूं और दरे पर्दा वो इस बात का दावा करता है कि जो मै कहूं वो दीन है, और अल्लाह और अल्लाह के रसूल ﷺ ने दीन का जो रास्ता बताया और जिस पर सहाबा किराम ने अमल किया, मै उससे बढ़ कर दीनदार हूं, मै दीन को उनसे ज़्यादा जानता हूं, तो ये शरीयत की इत्तेबा नहीं बल्कि अपनी ख्वाहिशें नफ़्स की इत्तेबा है,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/217)*
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*☞_(108) तीजा, दसवां और चालीसवां क्यूँ गलत है ?*
*"❀_ एक बात और अर्ज़ कर दूं जिसके बारे में लोग बा कसरत पूछते हैं, वो ये है कि जब हर नई बात गुमराही है तो ये पंखा भी गुमराही है, ये ट्यूबलाइट भी गुमराही है, ये बस भी ये मोटर भी गुमराही है, इसलिए कि ये चीज़ें तो हुज़ूर ﷺ के ज़माने में नहीं थी बाद में पैदा हुई हैं, इनके इस्तेमाल को बिदअत क्यूं नहीं कहते ?*
*"❀_खूब समझ लीजिए! अल्लाह ताला ने बिदअत को जो ना-जायज़ और हराम क़रार दिया ये वो बिदअत है जो दीन के अंदर कोई नई बात निकाली जाए, दीन का जुज्व और दीन का हिस्सा बना लिया जाए कि ये भी दीन का हिस्सा है, मसलन लोगों का ये कहना कि इसाले सवाब इस तरह होगा कि तीसरे दिन तीजा, फिर दसवां होगा, फिर चेहल्लुम होगा और जो इस तरीके से इसाले सवाब ना करे वो मरदूद है,*
*"❀_ हुज़ूर अक़दस ﷺ की तालीम ये है कि अगर किसी के घर में सदमा हो तो दूसरे लोगों को चाहिए कि उसके घर में खाना तैय्यार कर के भेजें, हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु गज़वा मौता के मौक़े पर शहीद हुए तो आन हज़रत ﷺ ने अपने घर वालों से फ़रमाया कि (अबू दाऊद) जाफ़र के घर वालों के लिए खाना बना कर भेजो इसलिये कि वो बेचारे मशगूल हैं और सदमे के अंदर हैं,*
*"❀_तो हुजूर ﷺ की तालीम ये है कि उसके लिए खाना बनाओ जिसके घर सदमा हो गया ताकि वो खाना पकाने में मशगूल न हों, उनको सदमा है, आज कल उल्टी गंगा ये बहती है कि जिसके घर सदमा है, वो खाना तैयार करे और ना सिर्फ ये कि खाना तैय्यार करे बल्कि दावत करे, शामियाने लगाए, देगे चढ़ाए और अगर दावत नहीं देगा तो बिरादरी में नाक कट जाएगी, यहां तक सुनने में आया है कि जो बेचारा मर गया है उसको भी नहीं बख्शते, उसको भी बुरा भला कहना शुरू कर देते हैं, मसलन ये कहा जाता है कि मर गया मरदूद ना फातिहा ना दरूद,*
*"❀_ और फिर वो दावत भी मरने वाले के तर्के से होगी, जिसमें अब सारे वारिसों का हक़ हो गया, उनमें नबालिग भी होते हैं और नबालिग के माल को ज़र्रा बराबर छूना शर'अन हराम है, नबी करीम ﷺ की तालीमात के सरासर खिलाफ़ है, फिर भी ये सब कुछ हो रहा है और जो शख़्स ये सब ना करे वो मरदूद है, लिहाज़ा दीन का हिस्सा बना कर लाज़िम और ज़रूरी क़रार दे कर दीन में कोई चीज़ इजाद की जाए वो बिदअत है, हां ! अगर कोई चीज़ दीन का हिस्सा नहीं है बल्कि किसी ने अपने इस्तेमाल और आराम के लिए कोई चीज़ अख्तियार कर ली, मसलन पंखा, बिजली, कार वगैरा इस्तेमाल कर ली, ये कोई बिदअत नहीं, क्योंकि दुनिया के कामों में अल्लाह ताला ने छूट दे रखी है कि मुबाहात के दायरे में रहते हुए जो चाहो करो लेकिन दीन का हिस्सा बना कर या किसी गैर सुन्नत को सुन्नत कह कर या किसी गैर वाजिब को वाजिब कह कर जब कोई चीज़ इजाद की जाएगी तो वो बिदअत होगी और हराम होगी_,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/223)*
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*☞_(109) तीजा, दसवां या चेहल्लुम कर लिया तो कौनसा गुनाह किया?*
*"❀_ लेकिन लोगों ने ये तरीक़ा अपनी तरफ से मुक़र्रर कर लिया कि मरने के तीसरे दिन सबका जमा होना ज़रूरी है, तीजा होगा और खाने की दावत भी होगी, अगर वैसे ही पहले दिन या दूसरे दिन या तीसरे दिन क़ुरान शरीफ अकेले पढ़ लेते, लोगों के आने की वजह से जमा हो कर पढ़ लेते तो ये तरीक़ा जाइज़ था लेकिन ये तख़सीस करना कि तीसरे दिन ही क़ुरान ख्वानी होगी और उसमें दावत ज़रूर होगी और जो ऐसा ना करे वो वहाबी है,*
*"❀_जब लोगों से ये कहा जाता है कि तीजा करना बिदअत है, चालीसवां करना बिदअत है तो जवाब में आम तौर पर लोग यही कहते हैं कि हम तो कोई गुनाह का काम नहीं कर रहे, बल्कि हम तो कुरान शरीफ पढ़ रहे हैं और लोगों की दावत कर रहे हैं और ना कुरान शरीफ पढ़ना गुनाह है और ना लोगों की दावत करना गुनाह है, बेशक ये दोनों गुनाह नहीं, बाशर्ते कि इनको लाज़िम मत समझो और अगर कोई शख़्स इसमे शरीक़ न हो तो उसको ताना मत दो और इस अमल को दीन का हिस्सा मत समझो, तो फ़िर ये अमल बेशक जाइज़ है,*
*"❀_अल्लाह और अल्लाह के रसूल से आगे बढ़ने की कोशिश मत करो, इस मफ़हूम में ये सब बिदअतें भी दाखिल है और अपनी तरफ से कोई तरीक़ा गढ़ कर उसको लाज़िम क़रार दे दिया जाए और जो शख़्स वो तरीक़ा अख़्तियार ना करे उसको ताना दिया जाए,*
*"❀_क़ुरान शरीफ पढ़ना उस वक्त बाईसे अजरो सवाब है जब वो अल्लाह और अल्लाह के रसूल के बताए हुए तरीके़ के मुताबिक़ हो, अगर इसके खिलाफ हो तो उसमें कोई अजरो सवाब नहीं, इसकी मिसाल यूं समझें कि मगरिब कि तीन रकअत पढ़ना फ़र्ज़ है, अब एक शख़्स कहे कि (माज़ल्लाह) ये तीन का अदद बेतुका सा है, चार रक़अत पूरी क्यों ना पढ़ें ? अब वो तीन रकअत के बजाए चार रकअत पढ़ता है, बताइए उसने क्या गुनाह किया? क्या उसने शराब पी ली? क्या चोरी कर ली? या डाका डाला? सिर्फ इतना ही तो किया कि एक रक़अत ज्यादा पढ़ ली, जिसमें कुरान करीम ज़्यादा पढ़ा, एक रुकू दो सजदे ज़्यादा किए और अल्लाह का नाम लिया, अब इसमें क्या गुनाह कर लिया ?*
*"❀_लेकिन होगा ये कि चौथी रकअत जो उसने ज़्यादा पढ़ी ना सिर्फ ये कि ज़्यादा अजरो सवाब का मोजिब नहीं होगी बल्कि उन पहली तीन रक़अतों को भी ले डूबेगी और उनको भी खराब कर देगी, क्यू? इसलिए कि अल्लाह ता'ला और अल्लाह के रसूल के बताए हुए तरीके़ के मुताबिक़ नहीं है, सुन्नत और बिदअत में यही फ़र्क है कि जो तरीका़ बताया हुआ है वो सुन्नत है और जो बताया हुआ तरीक़ा नहीं है, बल्कि अपनी तरफ से गढ़ा हुआ है और देखने में बहुत अच्छा मालूम होता है लेकिन इसका कोई फ़ायदा कोई अजरो सवाब नहीं,*
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*☞_(110) ईसाले सवाब का सही तरीक़ा क्या है?*
*"❀_ किसी मुर्दा को ईसाले सवाब करना बड़ी फजी़लत की चीज है, जो शख्स किसी मरने वाले को ईसाले सवाब करे तो उसको दोगुना सवाब मिलता है, एक उस अमल के करने का सवाब और दूसरे एक मुसलमान के साथ हमदर्दी करने का सवाब, लेकिन शरीयत ने ईसाले सवाब के लिए कोई तरीक़ा मुकर्रर नहीं किया, शरीयत ने इस बात की इजाज़त दी है कि अगर किसी शख़्स का इंतेक़ाल हो जाए तो उसके अज़ीज़ो अक़ारिब उसके लिए ईसाले सवाब करें, कोई भी नेक अमल कर के उसका सवाब उसको पहुंचाएं, इतनी बात नबी करीम ﷺ की हदीस से साबित है, ईसाले सवाब सिर्फ कुरान शरीफ पढ़ कर ही करो या सदका कर के करो या नमाज़ पढ़ कर करो बल्की जिस वक्त जिस नेक काम की तौफीक़ हो जाए उस नेक काम का ईसाले सवाब जायज़ है,*
*"❀_तिलावत कुरान करीम के ज़रिए, निफ्लें पढ़ कर, तस्बीहात पढ़ कर, हज कर के, रोज़ा रख कर, तवाफ कर के, उमरा कर के सवाब पहुंचायें, ये सब जाइज़ है, और नबी करीम ﷺ से इस तरह ईसाले सवाब करना साबित है लेकिन इस ईसाले सवाब के लिए शरीयत ने कोई खास तरीक़ा मुक़र्रर नहीं किया कि बस इसी तरीक़े से करना होगा, बल्कि सहुलत के साथ आदमी को जिस इबादत का मौक़ा हो उस इबादत के ज़रिये ईसाले सवाब कर दे, बस इखलास के साथ ईसाले सवाब कर दे, शर'अन ईसाले सवाब के लिए ना तो दिन मुक़र्रर है, ना वक्त मुक़र्रर है, ना इसके लिए कोई तरीक़ा मुकर्रर है, ना तक़रीब (कार्यक्रम) मुक़र्रर है,*
*"❀_बाज़ लोग ये समझते हैं कि ईसाले सवाब सिर्फ मुर्दों को हो सकता है जो दुनिया से जा चुके, जिंदा को नहीं हो सकता, ये ख्याल गलत है, ईसाले सवाब तो जिंदा आदमी को भी किया जा सकता है, लिहाज़ा इबादत कर के, तिलावत कर के उसका सवाब ऐसे लोगों को पहुंचा दो जिनको आपकी जा़त से कभी कोई तकलीफ पहुंची हो, उसके नतीजे में तुमने उसके साथ जो ज्यादती की है इंशा अल्लाह उसकी तलाफी हो जाएगी,*
*®_इस्लाही ख़ुत्बात- 1/233)*
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*☞_(111) क्या तबलीगी निसाब (फ़ज़ाइल ए आमाल) पढ़ना बिदअत है?*
*"❀_ एक साहब मुझसे पूछने लगे कि ये तबलीगी जमात वाले तबलीगी निसाब पढ़ते हैं और लोग इस पर ऐतराज़ करते हैं कि हुजूर अकदस ﷺ के ज़माने में और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के ज़माने में तबलीगी निसाब कौन पढ़ता था ? और खुल्फ़ा ए रशीदीन के ज़माने में कौन पढ़ता था ? लिहाज़ा ये तबलीगी निसाब पढ़ना बिदअत हो गया,*
*"❀_ये बात वाज़े है कि इल्म और दीन की बात कहना और इसकी तबलीग करना हर वक़्त और हर आन जाइज़ है, मसलन हम और आप जुमा के रोज़ या किसी और वक़्त में जमा होते हैं और दीन की बात सुनते हैं और सुनाते हैं, अब अगर कोई शख़्स ये कहे कि हुज़ूर अक़दस ﷺ के ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था कि लोग खास तौर पर जुमा के रोज़ या फलां वक़्त में जमा होते हों और फिर उनके सामने दीन की बात की जाती हो, लिहाज़ा ये हमारा जमा होना भी बिदअत है,*
*"❀_ ख़ूब समझ लीजिये! कि ये इसलिए बिदअत नहीं कि दीन की तालीम व तबलीग हर वक़्त और हर आन जा'इज़ है लेकिन अगर हममें से कोई शख़्स ये कहने लगे कि जुमा के दिन या फलां दिन मस्जिद में ये इज्तिमा मसनून है और अगर कोई शख़्स इस इज्तिमा में शरीक़ न हो तो उसको तो दीन का शौक़ नहीं है, उसके दिल में दीन की अज़मत और मुहब्बत नहीं है, क्योंकि वो इज्तिमा के दिन नहीं आता, तो इस सूरत में यही इज्तिमा का अमल है जो हम और आप कर रहे हैं बिदअत बन जाएगा, अल्लाह ताला महफ़ूज़ रखे,*
*"❀_इसी तरह लोग तबलीगी निसाब पढ़ते हैं और दीनी आमाल की फजी़लतें सुनाते हैं, ये बड़े सवाब का काम है, अब अगर कोई इसको मुतइयन करे कि तबलीगी निसाब (फजा़ईल ए आमाल) ही पढ़ना ज़रूरी है और यहीं सुन्नत है और इसके अलावा अगर कोई दूसरी किताब पढ़ी जाएगी तो वो मकबूल नहीं, तो इस सूरत में ये तबलीगी निसाब पढ़ना भी बिदअत बन जाएगा, लिहाज़ा किसी भी अमले मुबाह को या अजरो सवाब वाले अमल को खास वक्त और खास हालात के साथ मरबूत कर के लाज़िम क़रार दे दिया तो वही बिदअत बना देता है,*
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*☞_(112) खास जुमा के दिन रोज़ा रखना क्यों मना है?*
*"❀_हुजूर अक़दस ﷺ ने जुमा के दिन की कितनी फजी़लतें बयान फरमाईं है और हजरत अबू हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि- बहुत कम ऐसा होता था कि जुमा के रोज़ आपने रोज़ा न रखा हो, बल्कि अक्सर जुमा के दिन रोज़ा रखा करते थे इसलिए कि ये फजी़लत वाला दिन रोज़े के साथ गुज़रे तो अच्छा है _, (तिर्मिज़ी),*
*"❀_ लेकिन आप ﷺ को देख कर रफ्ता रफ्ता लोगों ने भी जुमा के दिन को रोज़ा रखना शुरू कर दिया और जुमा के दिन को रोज़े के साथ इस तरह मखसूस कर दिया जिस तरह यहूदी लोग हफ्ता के दिन को मखसूस करते हैं, इसलिए यहुदियों के यहां हफ्ता के दिन रोज़ा रखा जाता था और उनके ज़ेहनो में हफ्ता के दिन रोज़ा रखने की खास फजी़लत और अहमियत थी,*
*"❀_चुनांचे जब हुजूर ﷺ ने ये देखा तो आपने जुमा के दिन रोज़ा रखने से सहाबा किराम को मना फरमा दिया और बा क़ायदा हदीस में आता है कि आपने फरमाया कि जुमा के रोज कोई शख्स रोज़ा न रखे, ये आप ﷺ ने इसलिए फरमाया कि कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन को अल्लाह ताला ने रोज़े के लिए मुतइयन नहीं किया, लोग उसको अपनी तरफ से मुतइयन कर दें और वो अमल दूसरों की नज़र में ज़रूरी न समझा जाने लगे, इसलिए आपने रोज़े के लिए जुमा को मुतइयन कर लेने से मना फरमा दिया क्यूंकी खुद आन हज़रत ﷺ इसको ज़रूरी और लाज़मी नहीं समझते थे, ना दूसरों के लिए इस तरह का कोई अहतमम व इल्तिज़ाम ज़ारी करना चाहते थे,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/230)*
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*☞_(114) सीरत की मजलिस कब और क्यों बिदअत बन जाती है ?*
*"❀_हुजूर अकदस ﷺ की सीरत बयान करना कितने अजर व फजी़लत का काम है, वो लम्हात जिसमें हुजूर अक़दस ﷺ का जिक्र किसी भी हैसियत से हो वो हासिले जिंदगी है, हक़ीक़त में का़बिले कद्र अवक़ात तो वही हैं जो आप ﷺ के ज़िक्र मुबारक में सर्फ़ हो जायें,*
*"❀_लेकिन अगर कोई शख़्स इसके लिए कोई खास तरीक़ा मुतय्यन कर दे, खास दिन मुतय्यन कर दे या खास मजलिस मुतय्यन कर ले और ये कहे कि इसी खास दिन और सूरत ही में अजरो सवाब मुंहसिर है तो यही कुयूदात इस जाइज़ और मुबारक अमल को बिदअत बना देगी,*
*"❀_इसकी आसान सी मिसाल समझिए कि हमें नमाज में अत्तहियात पढ़ने के बाद दरूदे इब्राहीम पढ़ने की तलक़ीन की गई है, ये दरूद शरीफ पढ़ना हुजूर अक़दस ﷺ ने हमें सिखाया, इसको पढ़ना जाइज़ और मसनून है, अब अगर कोई शख़्स दूसरा दरूद शरीफ पढ़े जिसके अल्फाज़ इससे मुख्तलिफ हो, पढ़े तो ये भी जाइज़ है कोई गुनाह नहीं और दरूद शरीफ पढ़ने की सुन्नत अदा हो जाएगी लेकिन अगर कोई शख्स ये कहे कि वो दरूद शरीफ ना पढ़ो बल्की ये दूसरा वाला दरूद शरीफ पढ़ो और यहीं पढ़ना सुन्नत है, तो इस सूरत में ये दूसरा दरूद शरीफ पढ़ना जो बड़ा फजी़लत वाला अमल था बिदअत बन जाएगा _,"*
*®_ (इस्लाही ख़ुत्बात- 1/234)*
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*☞_(114) अंगुठे चूमना क्यूं बिदअत है?*
*"❀_ आपने मस्जिद से अज़ान की आवाज़ सुनी और अज़ान के अंदर जब "अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह" सुना, आपके दिल में हुज़ूर अक़दस ﷺ की मुहब्बत का दाइया पैदा हुआ और मुहब्बत से बे अख़्तियार हो कर आपने अंगुठे चूम कर आँखो से लगा लिये तो बिज्ज़ात खुद ये अमल कोई गुनाह और बिदअत नहीं, क्योंकि उसने ये अमल बे अख्तियार सरकारे दो आलम ﷺ की मुहब्बत और अज़मत में किया, और सरकारे दो आलम ﷺ की मुहब्बत और अज़मत एक काबिले तारीफ़ चीज़ है और ईमान की अलामत है, और इंशा अल्लाह इसी मुहब्बत पर अजरो सवाब मिलेगा,*
*"❀_ लेकिन अगर कोई शख़्स सारी दुनिया के लोगों से ये कहना शुरू कर दे कि जब कभी अज़ान में "अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह" पढ़ा जाए तो तुम सब उस वक़्त अपने अंगूठों को चूमा करो इसलिए कि इस वक़्त अंगूठों को चूमना मुस्तहब या सुन्नत है और जो शख़्स अंगुठों को ना चूमे वो हुज़ूर अक़दस ﷺ से मुहब्बत करने वाला नहीं है, तो वही अमल जो मुहब्बत के जज़्बे से बिल्कुल जाइज़ था अब बिदअत बन गया,*
*"❀_ इसमे बारीक फर्क है कि अगर ये जाइज अमल सही जज़्बे से किया जा रहा है और इसमें खुद साख्ता कोई क़ैद नहीं है तो वो बिदअत नहीं है और जब उस अमल को अपने ऊपर लाज़िम कर लिया या उसको सुन्नत समझ लिया और अगर कोई दूसरा शख़्स वो अमल न करे तो उसको लान तान करना शुरू कर दिया तो अब वही अमल बिदअत बन जाएगा,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/231)*
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*☞_(115) या रसूलल्लाह कहना कब और क्यों बिदअत है?*
*"❀_मैं तो यहां तक कहता हूं कि एक शख्स के सामने किसी मजलिस में हुजूर अकदस ﷺ का नाम ए गिरामी आया और उसको बे अख्तियार ये तसव्वुर आया कि हुजूर अकदस ﷺ सामने मौजूद हैं और उसने ये तसव्वुर कर के कह दिया कि "अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह" और हाज़िर नाजिर का अकी़दा उसके दिल में नहीं था बल्कि जिस तरह एक आदमी गायब चीज़ का तसव्वुर कर लेता है कि ये चीज़ मेरे सामने मौजूद है तो उस तसव्वुर करने में और ये अल्फ़ाज़ कहने में भी कोई हर्ज नहीं,*
*"❀_ लेकिन अगर कोई शख़्स ये अल्फ़ाज़ इस अक़ीदे के साथ कहे कि हुज़ूर अक़दस ﷺ यहां पर इस तरह हाज़िर व नाज़िर है जिस तरह अल्लाह तआला हाज़िर व नाज़िर है तो ये शिर्क हो जाएगा मा'ज़ल्लाह, और अगर इस अकी़दे के साथ तो नहीं कहा लेकिन ये सोचा कि अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह कहना सुन्नत है और इस तरह दरूद पढ़ना ज़रूरी है और जो शख्स इस तरह ये अल्फ़ाज़ ना कहे गोया उसके दिल में हुज़ूर अक़दस ﷺ की मुहब्बत नहीं है तो फ़िर यही अमल बिदअत, ज़लालत और गुमराही है,*
*"❀_ लिहाज़ा अक़ीदे और अमल के ज़रा से फ़र्क़ से एक जा'इज़ चीज़ ना-जा'इज़ और बिदअत बन जाती है, आप जितनी भी बिदअते देखेंगे उनमें से अक्सर ऐसी है जो बिज़्ज़ात खुद मुबाह थी और जा'इज़ थी लेकिन जब फ़र्ज़ या वाजिब की तरह लाज़िम कर लिया गया तो उससे वो बिदअत बन गईं,*
*®_ (इस्लाही ख़ुत्बात- 1/232)*
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*☞_(116) परेशानियों में दरूद शरीफ पढ़ने की कसरत में क्या हिकमत है ?*
*"❀_एक मर्तबा हमारे हज़रत डॉक्टर अब्दुल हई साहब रहमतुल्लाहि अलैहि ने इरशाद फरमाया कि जब तुम किसी मुश्किल पेशानी में हों तो उस वक्त दरूद शरीफ़ कसरत से पढ़ा करो, फ़िर इसकी वजह बयान करते हुए फरमाया कि मेरे ज़ौक में एक बात आती है वो ये कि हदीस शरीफ में आता है कि हुजूर अक़दस ﷺ का उम्मती जब भी हुजूर अक़दस ﷺ पर दरूद भेजता है तो वो दरूद शरीफ हुजूर अक़दस ﷺ की खिदमत में फरिश्ते पहुंचाते हैं, और जा कर अर्ज़ करते हैं कि आपके फलां उम्मती ने आपकी खिदमत में दरूद शरीफ का ये हदिया भेजा है,*
*"❀_ और दूसरी तरफ ज़िंदगी में हुजूर अक़दस ﷺ की सुन्नत ये थी कि जब कभी कोई शख्स आपकी खिदमत में कोई हदिया पेश करता तो आप उसकी मुकाफात (बदला) ज़रूर फरमाते थे, उसके बदले में उसके साथ कोई नेकी ज़रूर फरमाते थे,*
*"❀_ दोनों बातों को मिलाने से ये समझ में आता है कि जब तुम हुजूर अक़दस ﷺ की खिदमत में दरूद भेजो, मुमकिन नहीं है कि सरकारे दो आलम ﷺ उसका बदला ना दे, बल्की ज़रूर बदला देंगे और वो बदला ये होगा कि आप उसके हक़ में दुआ करेंगे कि ए अल्लाह! ये मेरा उम्मती जो मुझ पर दरूद भेज रहा है, वो फलां मुश्किल और परेशानी में मुब्तिला है, ए अल्लाह! उसकी मुश्किल दूर फरमा दीजिए, तो इस दुआ की बरकत से इंशा अल्लाह, अल्लाह ताला तुम्हें उस मुश्किल से निजात अता फरमाएंगे, इसलिए जब कभी कोई परेशानी आए तो उस वक्त हुजूर अक़दस ﷺ पर दरूद शरीफ की कसरत करें,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 10/179)*
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*☞_(117) दरूद शरीफ़ के अल्फ़ाज़ क्या हों? मन गढ़त दरूद शरीफ़ ना पढ़े:-*
*"❀_ एक बात और समझ लीजिए, दरूद शरीफ पढ़ना एक इबादत भी है और एक दुआ भी है जो अल्लाह ताला के हुक्म पर की जा रही है, इसलिए दरूद शरीफ के लिए वही अल्फ़ाज़ अख़्तियार करना चाहिए जो अल्लाह ने और अल्लाह के रसूल ﷺ ने बताएं है और उलमा किराम ने इस पर मुस्तक़िल किताबे लिख दी हैं कि हुज़ूर अक़दस ﷺ से कौनसे कौनसे दरूद साबित और मनक़ूल हैं,*
*❀"_ लेकिन हुज़ूर अक़दस ﷺ से इतने कसरत से दरूद शरीफ मनक़ूल होने के बावज़ूद लोगों को ये शौक़ हो गया है कि हम अपनी तरफ से दरूद बना कर पढ़ेंगे, चुनांचे किसी ने दरूदे ताज़ ग़द लिया किसी ने दरूदे लक्खी गढ़ लिया, वगैरा वगैरा और उनके फजा़इल भी अपनी तरफ से बना कर पेश कर दिए कि इसको पढ़ोगे तो ये हो जाएगा, हालांकि ना तो ये अल्फाज़ हुजूर अकदस ﷺ से मनक़ूल हैं और ना इनके ये फजा़इल मनक़ूल हैं, बल्कि बाज़ के तो अल्फ़ाज़ भी खिलाफ़े शर'आ है, हत्ताकि बाज़ में शिर्किया कलमात भी दर्ज हैं,*
*"❀_इसलिए सिर्फ वो दरूद शरीफ पढ़ना चाहिए जो हुजूर अक़दस ﷺ से मनक़ूल हैं, दूसरे दरूद नहीं पढ़ना चाहिए, लिहाज़ा हज़रत थानवी रह. की किताब "ज़ाद अल-सईद" हर शख़्स को अपने घर में रखनी चाहिए और उसमें बयान किए हुए दरूद शरीफ पढ़ना चाहिए, इसी तरह शेखुल हदीस ज़करिया साहब रह. का एक रिसाला है "फजा़ईल ए दरूद शरीफ" वो भी अपने घर में रखें और पढ़े और दरूद शरीफ को अपने लिए बड़ी नियामत समझ कर उसको वज़ीफ़ा बनायें,*
*®_ ( इस्लाही ख़ुतबात- ६/९४)*
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*☞_(118) दरूद शरीफ़ में नये तरीक़े अख़्तियार करना:-*
*"❀_आजकल दरूद व सलाम भेजने का मतलब ये हो गया कि दरूद व सलाम की नुमाइश करो, चुनांचे बहुत से आदमी मिल कर खड़े हो कर लाउड स्पीकर पर ज़ोर ज़ोर से तरन्नुम के साथ पढ़ते हैं और ये समझते हैं कि दरूद व सलाम के भेजने का यही तरीक़ा है, चुनांचे अगर कोई शख़्स गोशा तन्हाई में बैठ कर दरूद व सलाम पढ़ता है तो उसको दुरुस्त नहीं समझते और उसकी इतनी क़दर व मंजिलत नहीं करते,*
*"❀_ हालांकि पूरी सीरते तैय्यबा में और सहाबा किराम की जिंदगी में कहीं ये मरूजा तरीक़ा नहीं मिलता, सहाबा किराम में हर शख़्स मुजस्सम ए दरूद था और सुबह से ले कर शाम तक नबी करीम ﷺ पर दरूद शरीफ़ भेजता था,*
*"❀_इससे भी बड़ी बात ये है कि अगर कोई शख़्स इस तरीक़े में शामिल न हो तो उसको ये ताना दिया जाता है कि उसको हुज़ूर अक़दस ﷺ से मुहब्बत नहीं, ये दरूद व सलाम का मुनक़िर है वगैरा वगैरा, ये ताना देना और ज़्यादा बुरी बात है,*
*"❀_खूब समझ लीजिए! दरूद भेजने का कोई तरीक़ा इससे बेहतर नहीं हो सकता जो तरीक़ा नबी करीम ﷺ ने खुद बताया हो, वो तरीक़ा ये है कि एक सहाबी ने सवाल किया या रसूलल्लाह! आप पर दरूद भेजने का क्या तरीक़ा है? हुज़ूर अकदस ﷺ ने जवाब में दरूदे इब्राहीमी पढ़ा और फरमाया इस तरीक़े से दरूद शरीफ पढ़ा करो _,"*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 6/107)
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*☞_(119) क्या दरूद व सलाम के वक़्त हुज़ूर ﷺ तशरीफ़ लाते हैं?*
*"❀_ और ये तरीक़ा उस वक़्त और ज़्यादा गलत हो गया जब उसके साथ एक ग़लत अक़ीदा भी लग गया, वो ये है कि जब हम दरूद शरीफ़ पढ़ते हैं तो उस वक़्त हुज़ूर अक़दस ﷺ तशरीफ़ लाते है या आपकी रूह मुबारक तशरीफ़ लाती है और जब आप तशरीफ़ ला रहे हैं तो ज़ाहिर है कि आपकी ताजी़म और तकरीम में खड़े होना चाहिए, इसलिए हम खड़े हो जाते हैं,*
*"❀_बताइये ये बात कि हुजूर अक़दस ﷺ तशरीफ लाते हैं ये कहां से साबित है? क्या कुरान ए करीम की आयत से ? या हुजूर अक़दस ﷺ की किसी हदीस से? या किसी सहाबी के क़ौल से साबित है ? कहीं कोई सबूत नहीं,*
*"_ हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया कि अल्लाह ताला के कुछ फरिश्ते ऐसे हैं जो सारी ज़मीन का चक्कर लगाते रहते हैं और उनका काम ये है कि जो शख़्स मेरी उम्मत में से मुझ पर दरूद व सलाम भेजता है वो मुझ तक पहुंचाते हैं,*
*"❀_ देखिये ! इस हदीस में ये तो बयान फरमाया है कि फरिश्ते मुझ तक दरूद शरीफ पहुंचाते हैं लेकिन किसी हदीस में ये नहीं आया कि जहां कहीं दरूद पढ़ा जा रहा होता है तो मै वहां पहुंच जाता हूं, फिर ज़रा गौर तो करो कि ये दरूद शरीफ क्या चीज़ है? ये दरूद शरीफ एक हदिया और तोहफा है जो नबी करीम ﷺ की खिदमत में पेश किया जा रहा है और जब किसी बड़े को कोई हदिया दिया जाता है तो क्या उसको ये कहा जाता है कि आप हमारे घर तशरीफ लायें हम आपकी खिदमत में तोहफा पेश करेंगे? या उसके घर भेजा जाता है?*
*"❀_ ज़ाहिर है कि जिस शख़्स के दिल में अपने बड़े की इज़्ज़त और अहतराम होगा, वो कभी इस बात को गवारा नहीं करेगा कि वो बड़े से ये कहे कि आप हदिया कुबूल करने के लिए मेरे घर आये, वहाँ आ कर हादिया ले ले, बल्कि वो शख़्स हमेशा ये चाहेगा कि या तो मैं खुद जा कर उसको हदिया पेश करुं या कोई अपने नुमाइंदे को भेजेगा कि वो अदब व अहतराम के साथ उसकी खिदमत में ये हादिया पहुंचा दे,*
*"❀_चुना'चे अल्लाह ताला ने तो अपने नबी करीम ﷺ की खिदमत में दरूद व सलाम पहुंचाने के लिए ये तरीक़ा मुक़र्रर फरमाया कि आपका उम्मती जहां कहीं भी है उसको ये हक़ हासिल है कि वो सरकारे दो आलम ﷺ की खिदमत में हदिया पेश करे, और फिर इस दरूद शरीफ को वसूल कर के आप तक पहुंचाने के लिए अल्लाह ताला ने अपने फरिश्ते मुक़र्रर कर रखे हैं जो नाम ले कर पहुंचाते हैं कि आपके फलां उम्मती ने जो फलां जगह रहता है आपकी खिदमत में ये हदिया भेजा है,*
*"❀_ आज कल फिरका़ बंदिया हो गई और इसकी वजह से सूरते हाल ये हो गई कि अगर कोई सही बात कहे तो भी उसे सुनने के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि इस हक़ीक़त को समझने की ज़रूरत है महज़ ताना दे देना कि फला' फिरका़ तो दरूद शरीफ का मुनकिर है उनके दिल में हुजूर ﷺ की मुहब्बत नहीं, अगर ज़रा बात को समझने की कोशिश की जाए और ये देखा जाए कि हुजूर अक़दस ﷺ की मुहब्बत का तकाज़ा क्या है? तब जा कर हक़ीक़त ए हाल वाज़े होगी_,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 6/108)*
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*☞_(120) हुज़ूर अक़दस ﷺ पर दरूद व सलाम का सही तरीक़ा और हाज़िर व नाज़िर के अक़ीदे से पुकारना:-*
*"❀_ हमें ये हुक्म दिया गया कि जब तुम हुजूर अक़दस ﷺ के रोज़ा ए अक़दस पर जाओ तो वहां जा कर कहो :- "अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह," यानि हुजूर अक़दस ﷺ को खिताब कर के सलाम पेश करो लेकिन जब तुम रोज़ा ए अक़दस से दूर हो तो फिर यूं कहो:- "अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मद वा अला आलि मुहम्मद,"*
*"❀_ लिहाज़ा इस हुक्म की रु से रोज़ा ए अकदस से दूर होने की सूरत में "अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह" कहना दुरुस्त नहीं क्यूँकी हुज़ूर अक़दस ﷺ को दूर से पुकारना बेअदबी की बात है और ये आप ﷺ की ताज़ीम के ख़िलाफ़ हैं,*
*"❀_ खास तौर पर "अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह" के अल्फ़ाज़ से इस अक़ीदे से पुकारना कि हुज़ूर ﷺ हर जगह मौजूद हैं और आप ﷺ हाज़िर व नाज़िर हैं, अल्लाह हिफ़ाज़त फ़रमाये ये अक़ीदा इंसान को बाज़ अवक़ात शिर्क तक पहुँचा देता है,*
*"❀_सही तरीक़ा वो है जो हुज़ूर अक़दस ﷺ ने खुद बयान फरमा दिया, वो ये कि आप ﷺ ने फरमाया कि जो शख़्स मेरी क़ब्र पर आ कर मुझे सलाम करेगा, मैं उसका जवाब दूंगा और जो शख़्स दूर से मुझ पर दरूद भेजेगा तो वो दरूद मुझ तक फरिश्तों के ज़रिये पहुंचाया जाता है कि आपके फलां उम्मती ने दरूद शरीफ का ये तोहफा पेश किया है, ये हुज़ूर अक़दस ﷺ का इरशाद है जो हदीस में मनक़ूल है,*
*"❀_लिहाजा़ आप ﷺ की ज़ाहिरी जिंदगी में जिस तरह ये हुक्म था कि जो शख्स भी आपसे खिताब करे वो क़रीब जा कर करे, दूर से ना करे, इसी तरह आपकी वफात के बाद जबकी आपको क़ब्र मुबारक में दूसरी हयाते तैय्यबा हासिल है, वहां भी यही हुक्म है कि क़रीब जा कर अल्फाज़ से सलाम करो कि:- "अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह," लेकिन दूर से कहना है तो दरूद शरीफ पढ़ो, इन अल्फाज़ से सलाम कहना आपकी ताज़ीम और अदब के ख़िलाफ़ है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 16/257)*
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*☞_(121) नबी करीम ﷺ के इसमे गिरामी के साथ "स.अ" या सिर्फ "स." लिखना दुरुस्त नहीं_,*
*"❀_ हुज़ूर अक़दस ﷺ के इसमे गिरामी लिखने के साथ दरूद यानी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (ﷺ) लिखना चाहिए, बहुत से हज़रात को सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम भी तवील लगता है, मालूम नहीं हुज़ूर अक़दस ﷺ का इस्मे गिरामी लिखने के बाद सल्लल्लाहु अलैहि वासल्लम (ﷺ) लिखने में उनको क्यूँ घबराहट होती है या वक़्त ज़्यादा लगता है या रोशनाई (स्याही) ज़्यादा ख़र्च होती है,*
*"❀_चुनांचे सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लिखने के बजाये "स. अ" लिख देते हैं या बाज़ लोग सिर्फ "स" लिख देते हैं, दुनिया के दूसरे कामो में इख्तसार की फिक्र नहीं होती, सारा इख्तसार हुजूर अकदस ﷺ के नाम के साथ दरूद शरीफ लिखने में आता है, ये कितनी बड़ी महरूमी और बुख़्ल की बात है, इसलिए हमेंशा हुज़ूर अकदस ﷺ के इसमें गिरामी लिखने के साथ दरूद शरीफ यानी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरा लिखना चाहिए,*
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*☞_(122) क्या इस्लाम ने औरत की मज़म्मत या बुराई की है?*
*"❀_ औरत की पैदाइश टेढ़ी पसली से होने का मतलब बाज़ लोगों ने इसकी तशरीह यह की है कि अल्लाह ताला ने सबसे पहले हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को पैदा फरमाया, उसके बाद हज़रत हव्वा अलैहिस्सलाम को उन्हीं की पसली से पैदा किया गया, और बाज़ उलमा ने इसकी दूसरी तशरीह ये भी की है कि रसूलुल्लाह ﷺ औरत को तस्बीहा देते हुए फरमा रहे हैं कि औरत की मिसाल पसली की सी है जिस तरह पसली देखने में टेढ़ी मालूम होती है लेकिन पसली का हुस्न और उसका सहत उसका टेढ़ा होने में ही है, चुनांचे कोई शख्स अगर ये चाहे कि पसली टेढ़ी है इसको सीधा कर दूं तो जब उसे सीधा करना चाहेगा तो वो सीधी तो नहीं होगी अलबत्ता टूट जाएगी,*
*"❀_बाज़ लोग इस तशबीहा को औरत की मज़म्मत में इस्तेमाल करते हैं कि औरत टेढ़ी पसली से पैदा की गई है लिहाज़ा उसकी असल टेढ़ी है, गोया कि उसको मज़म्मत और बुराई के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, हलांकी खुद नबी करीम ﷺ के इरशाद का ये मंशा नहीं है,*
*"❀_बात ये है कि अल्लाह ताला ने मर्द को कुछ और औसाफ दे कर पैदा फरमाया है और औरत को कुछ और औसाफ दे कर पैदा फरमाया है, दोनों की फितरत और मिजाज में फ़र्क है, इस वजह से मर्द औरत के बारे में ये मेहसूस करता है कि ये मेरी तबियत और फितरत का खिलाफ है, हालांकि औरत का तुम्हारी तबियत के खिलाफ होना ये कोई ऐब नहीं है, क्यूंकि ये उनकी फितरत का तकाज़ा है कि वो टेढ़ी हो,*
*"❀_ दर हक़ीक़त इस हदीस के जरिए यह बताना मक़सूद है कि चुंकी तुम्हारी तबियत औरत की तबियत से मुख्तलिफ है, लिहाज़ा तुम्हारे लिहाज़ से वो टेढ़ी है लेकिन हक़ीक़त में वो टेड़ापन उसकी फितरत का हिस्सा है, जिस तरह पसली की फितरत का हिस्सा ये है कि वो टेढ़ी हो, अगर पसली सीधी हो जाए तो उसको ऐब कहा जाएगा और डॉक्टर उसको दोबारा टेढ़ी करने की कोशिश करेगा, इसलिए उसकी फितरत के अंदर टेढ़ापन मौजूद है,*
*"❀_ लिहाज़ा हदीस के ज़रिये औरत की बुराइ बयान नहीं कि जा रही है बल्कि ये कहा जा रहा है कि चुंकी औरत की तबियत तुम्हारी तबियत के लिहाज़ से मुख्तलिफ़ है, इसलिए तुम्हें टेढ़ी मालूम होती है, इसलिए हुज़ूर अकदस ﷺ ने फरमाया इसको सीधा करने की फिक्र मत करना, क्योंकि इसको सीधा करना ऐसा ही होगा जैसे पसली को सीधा करना और अगर तुम इसको सीधा करने की कोशिश करोगे तो उसको तोड़ डालोगे, और अगर तुम उसको उसकी हालत पर छोड़ दोगे तो उसके टेढ़ा होने के बावजूद तुम उससे फ़ायदा उठाओगे,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 11/230)*
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*☞_(123) क्या औरत महकूम और मर्द हाकिम है?*
*"❀_आज की दुनिया में जहां मर्द और औरत की बराबरी और आज़ादी का बड़ा ज़ोर व शोर है, ऐसी दुनिया में लोग ये बात करते हुए शरमाते हैं कि शरीयत ने मर्द को हाकिम बनाया है और औरत को महकूम बनाया है, इसलिए आज की दुनिया में ये प्रोपेगेंडा किया जा रहा है कि मर्द को औरत पर हाकिम बना दिया गया है और औरत को महकूम बना कर उसके हाथ में क़ैद कर दिया गया है और उसको छोटा क़रार दे दिया गया है,*
*"❀_ लेकिन हक़ीक़ते हाल ये है कि मर्द और औरत जिंदगी की गाड़ी के दो पहिए हैं, जिंदगी का सफर दोनों को एक साथ तय करना है, अब जिंदगी के सफर के तय करने के लिए इंतज़ाम की खातिर ये लाज़मी बात है के दोनों में से कोई एक शख़्स सफ़र का ज़िम्मेदार हो, हदीस में नबी करीम ﷺ ने ये हुक्म दिया कि जब भी दो आदमी कोई सफ़र कर रहे हों, चाहे वो सफ़र छोटा सा क्यों न हो, उस सफ़र में अपने से एक को अमीर बना लो, अमीर बनाएं बगैर सफर नहीं करना चाहिए, ताकि सफर के जुमले इंतेजामात उस अमीर के फैसले के ताबे हों, अगर अमीर नहीं बनाएंगे तो एक बद नज़मी हो जाएगी,*
*"❀_जब एक छोटे से सफर में अमीर बनाने की ताकीद की गई है तो जिंदगी का ये तवील सफर जो एक साथ गुज़ारना है उसमें ये ताकीद क्यों नहीं होगी कि अपने में से एक को अमीर बना लो, ताकि बाद नज़मी पैदा ना हो, बल्कि इंतेज़ाम क़ायम रहे, इस इंतेज़ाम को क़ायम करने के लिए किसी एक को अमीर बनाना ज़रूरी है,*
*"❀_ अब दो रास्ते हैं, या तो मर्द को इस जिंदगी के सफर का अमीर बना दिया जाए या औरत को अमीर बना दिया जाए, तीसरा कोई रास्ता नहीं है, अब इंसानी ख़लक़त, फितरत, कुव्वत और सलाहियतों के लिहाज़ से भी और अक़ल के ज़रिये इंसान गौर करे तो यही नज़र आयेगा कि अल्लाह ताला ने जो कुव्वत मर्द को अता की है, बड़े-बड़े काम करने की जो सलाहियत मर्द को अता फरमाई है वो औरत को अता नहीं की,*
*"❀_ लिहाज़ा अमारत और इस सर बराही का काम सही तौर पर मर्द ही अंज़ाम दे सकता है और अल्लाह ताला ने ये फैसला फरमा दिया कि इस जिंदगी के सफर को तय करने के लिए मर्द क़वाम, हाकिम और मुंतज़िम है, अगर तुम इस फैसले को सही जानते हो और मानते हो तो इसमें तुम्हारी स'आदत और कामयाबी है और अगर नहीं मानते हो बल्कि इस फैसले की खिला वरजी़ करते हो और उसके साथ बगावत करते हो तो फिर तुम जानो और तुम्हारी ज़िंदगी जाने,*
*"❀_ हज़रत थानवी रह. फरमाते हैं कि बेशक मर्द औरत के लिए क़वाम है लेकिन साथ में दोस्ती का ताल्लुक़ भी है, इंतेज़ामी तौर पर तो क़वाम है लेकिन आपसी ताल्लुक़ दोस्ती जैसा है, ऐसा ताल्लुक़ नहीं है जैसा आका़ और कनीज़ के दरमियान होता है, इसकी मिसाल ऐसी है जैसे दो दोस्त कहीं सफ़र पर जा रहे हों और एक दोस्त ने दूसरे दोस्त को अमीर बना लिया हो, लिहाज़ा शौहर इस लिहाज़ से तो अमीर है कि सारी जिंदगी का फैसला करने का वो ज़िम्मेदार है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो उसके साथ ऐसा मामला करे जैसे नौकरों और गुलामों के साथ किया जाता है, बल्कि दोस्ती के ताल्लुक़ के कुछ आदाब और कुछ तकाज़े हैं, उन आदाब और तकाज़ो में ऐसी बातें भी होती हैं जिनको हाकिम होने के ख़िलाफ़ नहीं कहा जा सकता,*
*"_®(इस्लाही ख़ुत्बात- 2/79)*
*"❀_अगर अल्लाह ताला की तरफ से ये हुक्म आ जाता कि औरत बाहर का इंतेज़ाम करेगी और मर्द घर का इंतज़ाम करेगा तो भी कोई चू चरा की मजाल नहीं थी लेकिन अगर अक़ल के ज़रिये इंसान की फितरी तख़लीक़ का जायज़ा लें तो भी इसके सिवा और कोई इंतेज़ाम नहीं हो सकता कि मर्द घर के बाहर का काम करे और औरत घर के अंदर का काम करे और घर के बाहर का काम कु़व्वत का तका़ज़ा करते हैं, मेहनत का तका़ज़ा करते हैं, लिहाज़ा फ़ितरी तख़लीक का भी तकाज़ा यही था कि घर के बाहर का काम मर्द अंजाम दे और घर के अंदर का काम औरत के सुपुर्द हो,*
*"❀_अल्लाह ताला ने आन हज़रत ﷺ की अज़वाज मुतहारात को बराहे रास्त खिताब फरमाया और उनके वास्ते से सारी मुसलमान ख़्वातीन से खिताब फरमाया, वो ये है कि तुम अपने घरो में क़रार से रहो, इसमें सिर्फ इतनी बात नहीं कि औरत को ज़रुरत के बैगर घर से बाहर नहीं जाना चाहिए बल्कि इस आयत में एक बुनियादी हक़ीक़त की तरफ इशारा फरमाया गया है, वो ये है कि हमने औरत को इस तरह पैदा किया है कि वो घर में क़रार से रह कर घर के इंतेज़ाम को संभाले,*
*"❀_लेकिन आज मर्द और औरत में मुसावात का नारा लगाया जाता है कि जो काम मर्द करे वो औरत भी करे, ये मुसावात का नारा दर हक़ीक़त फितरत से बगावत है, अल्लाह तबारक व ता'ला ने जो फितरी निज़ाम बनाया था उस पर हज़ारों सालों से अमल होता चला आ रहा था, बिला क़ैद मज़हब व मिल्लत, दुनिया की हर क़ौम हर मज़हब और हर मिल्लत में यही तरीक़ा राइज़ था कि मर्द घर के बाहर की ज़िम्मेदारियां पूरी करेगा और औरत घर के अंदर का इंतज़ाम करेगी,*
*"❀_हुजूर ﷺ ने जब अपनी साहबजा़दी हजरत फातिमा रजियल्लाहु अन्हा का निकाह हजरत अली रजियल्लाहु अन्हु से किया तो उनके दरमियान भी यहीं तक़सीम कार फरमाई कि हजरत अली से आप ﷺ ने फरमाया कि तुम्हारा काम कमाना है, जाओ बाहर जा कर कमाओ और हजरत फातिमा से फरमाया कि तुम घर के अंदर रह कर घर की जिम्मेदारी संभालो, चुनांचे हजरत अली रजियल्लाहु अन्हु घर के बाहर के काम अंजाम देते और हजरत फातिमा रजियल्लाहु अन्हा घर के अंदर का इंतजाम संभालती, घर की झाड़ू देती, चक्की चला कर आटा पीसती, पानी भरती, खाना पकाती, ये फितरी तक़सीम हजारो सालों से चली आ रही है,*
*"®_(इस्लाही ख़ुतबात- 15/190)*
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*☞_(124) औरत के साथ फ्रॉड और धोखा किया गया _,"*
*"❀_ लिहाज़ा अब यूरोप में तो क़दम क़दम पर औरत मौजूद है, दफ़्तरो में बाज़ारो में रेलों में जहाजों में हर जगह औरत मौजूद है और साथ में ये क़ानून भी बना दिया गया है कि अगर दो मर्द और औरत आपस में रज़ामंदी से जिंसी तस्कीन करना चाहें तो उन पर कोई रुकावट नहीं है, ना क़ानून की रुकावट है ना अख़लाक़ी रुकावट है, अब औरत हर जगह मौजूद है और उससे फ़ायदा उठाने के रास्ते चौपट खुले हुए हैं और मर्द के सर पर औरत की कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं है, बल्कि औरत से ये कह दिया गया कि तुम कमाओ भी और क़दम क़दम पर हमारे लिए लज्ज़त हासिल करने के असबाब भी मुहय्या करो,*
*"❀_ नामो निहाद औरत की आज़ादी के नतीजे में औरत के साथ ये फ्रॉड खेला गया और उसको धोखा दिया गया और इसका नाम तहरीक ए आज़ादी नसवां रखा गया यानि औरतों की आज़ादी की तहरीक, इस फ्रॉड के जरिए औरत को घर से बाहर निकाल दिया, तो इसका नतीजा ये हुआ कि सुबह उठ कर शौहर साहब अपने काम पर चले गए और बीवी साहिबा अपने काम पर चली गई और घर में ताला डाल दिया और अगर बच्चा पैदा हुआ तो उसको किसी चाइल्ड केयर के सुपुर्द कर दिया गया, जहां पर उसको अना तरबियत देती रही, बाप की शफकत और मां की ममता से महरूम वो बच्चा चाइल्ड केयर में परवरिश पा रहा है, जो बच्चा मां बाप की शफकत और मुहब्बत से महरूम हो कर दूसरों के हाथों में पलेगा उसके दिल में बाप की क्या अज़मत होगी और माँ की मुहब्बत क्या होगी,*
*"❀_आज मगरिब का ये हाल है कि वहां खानदानी निज़ाम तबाह हो चुका है, माँ बाप के रिश्तों की जो मिठास थी वो फ़ना हो चुकी, भाई बहन के ताल्लुक़ात मलियामेट हो चुके, एक तरफ तो खानदानी निज़ाम तबाह हो चुका और दूसरी तरफ वो औरत एक खिलौना बन गई, चारों तरफ उसकी तस्वीर दिखा कर उसके एक एक उज़्व को सरे बाज़ार बरहना कर के उसके ज़रिये तिजारत चमकाई जा रही है, उसके ज़रिये पैसे कमाने का इंतज़ाम किया जा रहा है,*
*"❀_इस औरत से ये कहा गया कि तुम्हें घर के अंदर क़ैद कर दिया गया है तुम्हें बाहर इसलिए निकाला जा रहा है ताकि तुम तरक्की करो, तुम सर बराहे मुमलकत बन जाना तुम वज़ीर बन जाना तुम फ़लां फ़लां बड़े ओहदों पर पहुंच जाना और लाखों औरतों को सड़को पर घसीट लिया गया, आज वहां जा कर देख लीजिए, दुनिया का ज़लील तरीन काम औरत के सुपुर्द है, वो औरत जो अपने घर में अपने शोहर को अपने बच्चों को और अपने माँ बाप को खाना परोस कर रही थी, वो उसके लिए दकियानूसी थी, वो औरत के लिए क़ैद थी और अब वही औरत बाज़ारो के अंदर, रेलों के अंदर, हवाई जहाज़ों के अंदर गैर इंसानों को खाना परोसती है और उनकी हवस नाक निगाहों का निशाना बनती है तो ये इज़्ज़त है और ये आज़ादी है,*
*"❀_ वो लोग जो औरत की आज़ादी के अलंबरदार कहलाते हैं, उन्होंने औरत पर जो ज़ुल्म किया है तारीखे इंसानियत में इससे बड़ा ज़ुल्म नहीं हुआ, आज उसके एक एक उज़्व को बेचा जा रहा है और उसकी इज़्ज़त और तकरीम की धज्जिया बिखेरी जा रही है और फिर भी ये कहते हैं कि हम औरत के वफ़ादार हैं और औरत की आज़ादी के अलंबरदार हैं, और जिसने औरत के सर पर इज़्ज़त और अस्मत का ताज रखा था और उसके गले में अहतराम के हार डाले, उसके बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने औरत को क़ैद कर दिया और ये औरत ऐसी मख़लूक़ अल्लाह ताला ने बनाई है कि जो चाहे इनको बहका दे और अपना उल्लू सीधा कर ले, चुनांचे आज हमारी मुसलमान ख़्वातीन ने भी इन्हीं की लय मे लय मिलानी शुरू कर दी,*
*"❀_ अब देखिये कि अगर एक आदमी ये कहता है कि आपको अपनी रोज़ी रोटी की फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं है, दूसरे लोगे आपके लिए ये ख़िदमत अंजाम देने को तैय्यार है, इस पर औरतों को खुश होना चाहिए, मगर झूठ का ये प्रोपोगंडा सारी दुनिया में आलमी तौर पर फैलाया गया है, इसलिये ख़ुश होने के बजाए ये कहा जा रहा है कि ये साहब ख़्वातीन के हुक़ूक़ तल्फ करना चाहते है और जुलूस निकाले जाते है,*
*"❀_ ये वो औरते है जिन्होंने ख़्वातीन के हक़ीक़ी मसाइल समझने की ज़हमत ही गवारा नहीं की, इन ख़्वातीन ने एयर कंडीशनर इमारतों मे परवरिश पाई है, औरतों के क्या मसाइल है, उनको किन मसाइल का सामना करना पडता है इस पर कोई गौर नहीं किया, कभी उनके मसाइल को जानने की कोशिश नहीं की, उनके नज़दीक सिर्फ़ मसला ये है कि हमें मगरिब के लोग यूरोप और अमेरिका के लोग ये कह दें कि हां तुम लोग रोशन ख़याल हो और तुम लोग इक्कीसवी सदी के साथ चलने वाले हो, बस ये मसला है, उनके नज़दीक कोई और मसला नहीं है,*
*"❀_बहरहाल आज ये प्रोपोगंडा सारी दुनिया मे फैला हुआ है कि ये मुसलमान ये मौलवी लोग औरतों को घरों मे बंद करना चाहते है, जबकि हक़ीक़त ये है कि अल्लाह ताला ने ज़िंदगी के दो मुख़ालिफ़ दायरा कार तजवीज़ किए हैं, मर्द के लिए अलग औरत के लिए अलग, इसलिये मर्द की जिस्मानी साख्त और है और औरत की जिस्मानी साख्त और है, मर्द की सलाहियतें और है, औरत की सलाहियतें और है, लिहाज़ा मुसावात (बराबरी) का ये नारा लगाना कि औरत भी वोही सब काम करे जो काम मर्द करता है तो ये फितरत से बगावत है और इसके नतीजे मे खानदानी निज़ाम तबाह हो चुका है,*
*"❀_ अगर हम अपने माशरे मे खानदानी निज़ाम को बचाना चाहते है तो इसके लिए ख़्वातीन को पर्दे मे रहना होगा और मगरिब के प्रोपोगंडा के असरात को अपने घर से निकालना होगा, अल्लाह ताला हमारे माशरे को मग़रिबी आफ़ात से महफूज़ फ़रमाए और चैन सुकून की ज़िन्दगी हम सबको अता फ़रमाए,*
*®_(इस्लाही खुतबात- 15/192- 198)*
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*☞_ (125) ख़्वातीन की आज़ादी की हक़ीक़त और औरत को किस लालच पर घर से बाहर निकाला गया?*
*"❀_ जिस माहौल में मआशरे की पाकीज़गी कोई क़ीमत ही न रखती हो और जहां इफ़्फ़त व अस्मत के अख़लाक़ी पस्तगी और बेशर्मी को ज़िंदगी का मक़सद समझा जाता हो, ज़ाहिर है कि वहाँ इस तक़सीम कार और पर्दा और हया को ना सिर्फ गैर ज़रूरी बल्कि रास्ते की रुकावट समझा जाएगा, चुनांचे जब मगरिब में तमाम अख़लाकी इक्तिदार से आज़ादी की हवा चली तो मर्द ने औरत के घर में रहने को अपने लिए दोहरी मुसीबत समझा, एक तरफ तो उसकी हवसनाक तबियत औरत की कोई ज़िम्मेदारी क़ुबूल किए बिना क़दम क़दम पर उससे लुत्फ़ अंदोज होना चाहती थी और दूसरी तरफ़ वो अपनी क़ानूनी बीवी की मा'शी किफ़ालत को भी एक बोझ तसव्वुर करता था, चुनांचे उसने दोनों मुश्किलों का ये हल निकाला और इसका खूबसूरत और मासूम नाम तहरीके आज़ादी नसवां (औरत की आज़ादी) है,*
*"❀_औरत को ये पढ़ाया गया कि तुम अब तक घर की चार दीवारी में क़ैद रही हो, अब आज़ादी का दौर है और तुम्हें इस क़ैद से बाहर आ कर मर्दों के साथ कंधो से कंधा मिला कर ज़िंदगी के हर काम में हिस्सा लेना चाहिए, अब तक तुम्हें हुकूमत और सियासत के ओहदों से भी महरूम रखा गया है, अब तुम बराबर आ कर जिंदगी की जद्दो जहद में बराबर का हिस्सा लो तो दुनिया भर की शौहरत और ऊंचे ऊंचे मनसब तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं _, "*
*"❀_औरत बेचारी इन दिल फ़रेब नारो से मुतास्सिर हो कर घर से बाहर आ गई और प्रोपोगंडा के तमाम वसाईल के ज़रिए शोर मचा मचा कर उसे ये अहसास करा दिया गया कि उसे सदियों की गुलामी के बाद आज आज़ादी मिली है और अब उसके रंजो गम का खात्मा हो गया है, इन दिल फ़रेब नारों की आड़ में औरत को घसीट कर सड़को पर लाया गया, दफ्तरों में क्लर्की अता की गई, अजनबी मर्दों की प्राइवेट सेक्रेटरी का मनसब बख्शा गया, स्टेनो टाइपिस्ट बनने का ऐज़ाज़ दिया गया, तिजारत चमकाने के लिए सेल्स गर्ल और मॉडल गर्ल बनने का शर्फ बख्शा गया और उसके एक-एक उज्व को सरे बाज़ार नंगा कर के ग्राहकों को दावत दी गई कि आओ और हमसे माल ख़रीदो,*
*"❀_ यहां तक कि वो औरत जिसके सर पर दीनी फितरत ने इज़्ज़त और आबरू के हार डाले वो तिजारती इदारो के लिए एक शो पीस और मर्द की थकन दूर करने के लिए एक तफरीह का सामान बन कर रह गई, नाम ये लिया गया कि औरत को आज़ादी दे कर सियासत और हुकूमत के दरवाज़े उसके लिए खोले जा रहे हैं,*
*"❀_फिर सितम ज़रीफी की इंतेहा ये है कि औरत पैसा कमाने की आठ आठ घंटे की सख्त और ज़िल्लत आमेज़ ड्यूटी अदा करने के बावजूद अपने घर के काम धंधों से अब भी फारिग़ नहीं हुई, घर की तमाम खिदमतें आज भी पहले की तरह उसके ज़िम्मे है और अक्सरियत उन औरतों की है जिनको आठ घंटे की ड्यूटी देने के बाद अपने घर पहुंच कर खाना पकाना, बर्तन धोना और घर की साफ सफ़ाई के काम भी करना पड़ता है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 1/144)*
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*☞_(126) क्या औरत ज़रुरत के वक़्त भी घर से बाहर नहीं जा सकती?*
*"❀__ एक सवाल यह पैदा होता है कि आखिर औरत भी एक इंसान है उसको भी घर से बाहर जाने की ज़रूरत पेश आ सकती है, उसके दिल में भी घर से बाहर निकलने की ख्वाहिश होती है ताकि वो अपने अज़ीज़ो और रिश्तेदारों से मुलाक़ात करे और बाज़ अवक़ात अपनी ज़ाती ज़रुरतें पूरी करने के लिए भी बाहर निकलने की ज़रुरत होती है और बाज़ अवक़ात उसको जाइज़ तफ़रीह की भी ज़रूरत होती है, इसलिये उसको इन कामों के लिये घर से बाहर जाने की इजाज़त होनी चाहिये,*
*"❀__खूब समझ लिजिये कि ये जो हुक्म है कि घर में क़रार से रहो, इसका ये मतलब नहीं है कि घर मे ताला लगा कर औरत को अंदर बंद कर दिया जाए, बल्कि मतलब ये है कि औरत बिला ज़रूरत घर से ना निकले, अलबत्ता ज़रूत के वक़्त वो घर से बाहर भी जा सकती है,*
*"❀__ वेसे तो अल्लाह ताला ने औरत पर किसी ज़माने मे भी रोज़ी कमाने की ज़िम्मेदरी नहीं डाली, शादी से पहले उसकी मुकम्मल किफ़ालत बाप के ज़िम्मे है और शादी के बाद उसकी तमाम किफ़ालत शौहर के ज़िम्मे है, लेकिन जिस औरत का ना बाप हो न शौहर हो और न मा'शी किफ़ालत का कोई ज़रिया मौजूद हो तो ज़ाहिर है कि उसको मा'शी ज़रूरत के लिए घर से बाहर जाना पड़ेगा, इस ज़रुरत में बाहर जाने की इजाज़त है,*
*"❀__ बल्कि जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि जाइज़ तफ़रीह के लिए घर से बाहर जाने की इज़ाज़त है, आन हज़रत ﷺ बाज़ अवक़ात हज़रत आयशा रज़ियाल्लाहु अन्हा को अपने साथ घर से बाहर भी ले कर गए, आन हज़रत ﷺ ने हज़रत आयशा रज़ियाल्लाहु अन्हा के साथ दौड़ भी लगाई, इस जाइज़ तफ़रीह का भी आन हज़रत ﷺ ने अहतमाम फरमाया, क्यूँकी एक खातून को जाइज़ तफ़रीह की भी ज़रूरत होती है और इस क़िस्म की तफरीह की इजाज़त है बशर्ते कि जाइज हुदूद में हो, बेपर्दगी के साथ न हो और गैर मेहरमों के साथ न हो,*
*"❀__बा वक़्ते ज़रुरत औरतों को घर से बाहर निकलने की भी शरीयत ने इज़ाज़त दी है, मगर बाहर निकलने के लिए ये शर्त लागा दी कि पर्दे की पाबंदी होनी चाहिए और अपने जिस्म की नुमाइश नहीं होनी चाहिए, इसलिये कुराने करीम में अल्लाह ताला ने इरशाद फरमाया कि अगर कभी निकलने की ज़रूत हो तो इस तरह ज़ेबो ज़ीनत के साथ नुमाइश करती हुई न निकलें जैसा कि जाहिलत की औरतें निकला करती थी और ऐसी आराइश और ज़ेबो ज़ीनत के साथ न निकलो जिससे लोगों की तवज्जो उनकी तरफ माईल हो, बल्कि हिजाब की पाबन्दी के साथ पर्दा कर के निकलो और जिस्म ढीले ढाले लिबास में छुपा हुआ हो,*
*"®_(इस्लाही खुतबात- 1/166)*
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*☞_(127) बाहर निकलते वक़्त औरत की हैयत कैसी हो ?*
*❀"_दूसरा हुक्म ये दिया गया कि जब औरत घर से बाहर निकले या ना मेहरम मर्दों के सामने आए तो उस वक्त उसके पूरे जिस्म पर कोई चीज़ होनी चाहिए, चाहे वो चादर हो या बुर्का हो जो उसके पूरे जिस्म को ढांप रहा हो, ताकि वो लोगों के लिए फ़ितने का बाइस ना बने और उसके ज़रीये मआशरे के अंदर फ़ितना ना फ़ैले,*
*"❀_ और एक हुक्म ये भी दिया है कि कोई खातून ऐसा ज़ेवर पहन कर घर से बाहर ना निकले जो बजने वाले हो, क्योंकि उसकी आवाज़ से लोगों की तवज्जो उसकी तरफ होगी और एक हुक्म ये भी दिया है कि कोई ख़ातून ख़ुशबू लगा कर घर से बाहर ना निकले, क्योंकि ख़ुशबू के ज़रिए लोगों की तवज्जो उसकी तरफ होगी,*
*"❀_ हदीस शरीफ में हुजूर अकदस ﷺ ने फरमाया कि जब कोई खातून खुशबू लगा कर घर से बाहर निकलती है तो शैतान उसकी ताक झांक में लग जाता है_,"*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 15/207)*
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*☞_(128) क्या पर्दे (हिजाब) का हुक्म सिर्फ अज़वाज मुताहरात के लिए खास था?*
*"❀_बाज़ हज़रात ये कहते हैं कि पर्दे का हुक्म सिर्फ अज़वाज मुताहरात के लिए था और ये हुक्म उनके अलावा दूसरी औरतों के लिए नहीं है और इसी आयत से इस्तदलाल करते हैं कि इस आयत में खिताब सिर्फ अज़वाज मुताहरात को किया जा रहा है,*
*"❀_याद रखिए! ये बात नक़ली और अक़ली हर ऐतबार से ग़लत है, इसलिए कि एक तरफ तो इस आयत में शरीयत के बहुत से अहकाम दिए गए हैं, मसलन एक हुक्म तो यही है कि जाहिलियत की औरतों की तरह खूब ज़ेबो ज़ीनत और आराइश कर के बाहर न निकलो, तो क्या ये हुक्म सिर्फ़ अज़वाज मुतूहरात को है? और दूसरी औरतों को इसकी इजाज़त है कि जाहिलियत की औरतों तरह ज़ेबो ज़ीनत कर के बाहर निकला करें ? ज़ाहिर है कि दूसरी औरतों को भी इज़ाज़त नहीं,*
*"❀_ और आगे एक हुक्म ये दिया कि "और नमाज़ कायम करो' तो क्या नमाज कायम करने का हुक्म अज़वाज मुताहरात के लिए है? और दूसरी औरतों को नमाज़ का हुक्म नहीं? और इसके बाद एक हुक्म ये दिया गया कि "और ज़कात अदा करो," तो क्या ज़कात का हुक्म सिर्फ अज़वाज मुताहरात को है? दूसरी औरतों को नहीं? और आगे फरमाया कि "और अल्लाह और उसके रसूल की इतात करो, तो क्या अल्लाह और उसके रसूल की इतात का हुक्म सिर्फ़ अज़वाज़ मुताहरात को है? दूसरी औरतों को नहीं है? पूरी आयत के अहकाम और सबक़ ये बता रहा है कि इस आयत में जितने अहकाम हैं वो सबके लिए आम हैं, अगरचे बराहे रास्त खिताब अज़वाज मुताहरात को है लेकिन उनके वास्ते से पूरी उम्मत की औरतों को खिताब है,*
*"❀_दूसरी बात ये है कि हिजाब और पर्दे का मक़सद ये था कि मआशरे के अंदर बेपर्दगी के नतीजे में जो फितना पैदा हो सकता है उसको रोका जाए, अब सवाल ये पैदा हो सकता है कि क्या फितना सिर्फ अज़वाज मुताहरात के बाहर निकलने से पैदा होगा? मा'ज़ल्लाह! वो अज़वाज मुतहरात कि उन जैसी पाकीज़ा खवातीन इस रुए ज़मीन पर पैदा नहीं हुईं, क्या उनसे फ़ितने का ख़तरा था? क्या दूसरी औरतों के निकलने से फ़ितने का अंदेशा नहीं है? तो जब अज़वाज मुताहरात को ये हुक्म दिया जा रहा है कि तुम पर्दे के साथ निकलो तो दूसरी औरतों को ये हुक्म बातरीक़ अवला दिया जाएगा, इसलिये कि उनसे फितने का अंदेशा ज़्यादा है,*
*"❀_ इसके अलावा दूसरी आयत में पूरी उम्मते मुस्लिमा से ख़िताब है, फ़रमाया कि "ए नबी (ﷺ) ! अपनी बीवीयों से भी कह दो और अपनी बेटियों से भी कह दो और तमाम मोमिनों की औरतों से भी कह दो कि वो अपने चेहरों पर अपनी चादरें लटका लिया करे_," इससे ज़्यादा साफ और वाज़े हुक्म कोई और नहीं हो सकता और फिर क़ुरान करीम ने सिर्फ चादर पहनने का हुक्म नहीं दिया बल्कि चादर आगे ढलका लें ताकि चेहरा भी नुमाया ना हो और उस चादर में छुप जाए, अब इससे ज़्यादा वाज़े और क्या हुक्म हो सकता है,*
*®_(इस्लाही ख़ुत्बात- 1/180)*
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*☞_(129) चेहरा परदे में दाखिल है या नहीं?*
*"❀_बाज़ लोग ये कहते हैं कि बाक़ी जिस्म का पर्दा तो है लेकिन चेहरे का पर्दा नहीं है, खूब अच्छी तरह समझ लीजिये कि अव्वल तो चेहरे का पर्दा है, कुरान ए करीम ने औरतों से ख़िताब करते हुए फरमाया-*
*"_ (سورۃ الأحزاب آیت نمبر 59) يٰۤـاَيُّهَا النَّبِىُّ قُلْ لِّاَزۡوَاجِكَ وَبَنٰتِكَ وَنِسَآءِ الۡمُؤۡمِنِيۡنَ يُدۡنِيۡنَ عَلَيۡهِنَّ مِنۡ جَلَابِيۡبِهِنَّ ؕ*
*"❀_ क्या आयत में "जलाबेब" का लफ़्ज़ अख़्तियार फरमाया है, ये जमा है "जलबाब" की और जलबाब उस चादर को कहा जाता है जो सर से ले कर पांव तक पूरे जिस्म को ढांप ले, इसमें और बुर्के में फर्क सिर्फ इतना है कि बुर्का सिला हुआ होता है और जलबाब सिली हुई नहीं होती और हुजूर ﷺ के ज़माने में खवातीन जलबाब ही इस्तेमाल किया करती थीं,*
*"❀_ इस आयत में फरमाया कि ऐ नबी ﷺ अपनी बीवियों और बेटियों और अहले ईमान की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी जलबाब (चादरों को) झुका लें, इस आयत में झुकाने का हुक्म दिया है, ताकि औरत के चेहरे को इस तरह मंज़रे आम पर ना लाया जाए जो फ़ितने का सबब बने, लिहाज़ा अव्वल तो चेहरे का पर्दा है और क़ुरान करीम के हुक्म के मुताबिक है,*
*"❀_ जो लोग ये कहते हैं कि चेहरे का पर्दा नहीं है, वो लोग दर हक़ीक़त पर्दे ही से अपने को आज़ाद करना चाहते हैं, क्योंकि जो लोग चेहरे के पर्दे का इंकार करते हैं उन्होंने आज तक कभी उन औरतों पर ऐतराज़ नहीं किया जो बाहर निकलती है तो उनका चेहरा तो दार किनार बल्कि उनका सीना खुला हुआ होता है, उनका गला खुला हुआ होता है, उनके बाजु खुले हुए होते हैं, उनकी पिंडलियां खुली हुई होती हैं और उन ख्वातीन ने ऐसा चुस्त और तंग लिबास पहना हुआ होता है जो फितने का सबब है लेकिन यही लोग ऐसी ख़्वातीन पर एतराज़ नहीं करते, मगर इस मसले पर बहस करने के लिए तैयार हैं कि चेहरे का पर्दा है या नहीं !*
*"_ ®_(इस्लाही खुतबात- 15/209)*
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*☞_(130) हिजाब और पर्दे की क्या हद है?*
*"❀_ हिजाब के बारे में इतनी बात जरूर अर्ज़ कर दूं कि हिजाब में असल बात यह है कि सर से ले कर पांव तक पूरा जिस्म चादर से या बुर्के से या किसी ढीले ढाले गाउन से ढंका हुआ हो और बाल भी ढंके हुए हो और चेहरे का हुक्म ये कि असलन चेहरे का भी पर्दा है, इसलिये चेहरे पर भी नक़ाब होना चाहिये,*
*"❀_ और ये जो आयत पहले गुज़री (पिछले पार्ट में) उस आयत की तफ़सीर में हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ियाल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि उस ज़माने मे ख़्वातीन ये करती थी कि चादर अपने ऊपर डाल कर उसका एक पल्ला चेहरे पर डाल लेती थीं और सिर्फ आंखे खुली रहती थी और बाक़ी चेहरा चादर के अंदर ढंका होता था, तो हिजाब का असल तरीक़ा ये है,*
*"❀_अल्बत्ता चुंकी ज़रुरियात भी पेश आती हैं इसलिये अल्लाह ताला ने चेहरे की हद तक ये गुंजाईश दी है कि जहां चेहरा खोलने की शदीद ज़रुरत पेश आ जाए उस वक़्त सिर्फ़ चेहरा खोलने और हाथों को गट्टो तक खोलने की इजाज़त है, वर्ना असल हुक्म यही है कि चेहरा समत पूरा जिस्म ढंका होना चाहिये,*
*"❀_ और ख़्वातीन ये न समझें कि ये पर्दा हमारे लिए दुशवारी है, बल्कि औरत की फ़ितरत में पर्दा दाखिल है औरत के मानी ही छुपाने वाली चीज़ के है और पर्दा औरत की फ़ितरत में दाखिल है, अगर फितरत मस्ख हो जाए तो इसका तो कोई इलाज नहीं लेकिन जो तसकीन और राहत पर्दे की हालत में होगी वो तसकीन बेपर्दगी और खुल्लम खुल्ला और ऐलानिया रहने की हालत में नहीं होगी, लिहाज़ा पर्दे की हिफाज़त हया का एक लाज़मी हिस्सा है,*
*®_ (इस्लाही खुतबात- १/१८६)*
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*☞_(130) मर्द हिजाब के रास्ते में रुकावट बन जाते हैं:-*
*"❀_ ऐसा मालूम होता है कि हुज़ूर अक़दस •ﷺ• की निगाहें आज के हालात देख रही थीं, आप ﷺ ने फरमाया कि, "कयामत के क़रीब ऐसी औरतें होंगी कि उनके सर के बाल लागर ऊंट की कोहान की तरह होंगे, ऊंट के कोहान की तरह बाल बनाने का हुजूर अक़दस •ﷺ• के ज़माने में तसव्वुर भी नहीं आ सकता था, आज देख लें कि औरतें ऊंटों के कोहान की तरह बाल बना रही हैं,*
*"❀_ और फरमाया कि औरतें बा-ज़ाहिर तो लिबास पहनी हुई होंगी लेकिन वो लिबास ऐसे होंगे कि जिनसे सतर का मक़सद हासिल नहीं होगा, इसलिए कि वो लिबास इतना बारीक़ होगा या वो लिबास इतना चुस्त होगा कि उसकी वजह से जिस्म के तमाम नशीबो फ़राज़ (उतार चढ़ाव) अयां हो जायेंगे और ये सब हया के ख़त्म होने का नतीज़ा होगा,*
*"❀_आजसे पहले इसका तसव्वुर और ख्याल भी नहीं आ सकता था कि औरत ऐसा लिबास पहनेंगी, इसलिए कि उसके दिल में हया थी और उसकी तबियत ऐसी थी कि वो ऐसा लिबास पहनना पसंद नहीं करती थी लेकिन आज सीना खुला हुआ है, गला खुला हुआ है, बाजु खुले हैं, ये कैसा लिबास है ? लिबास तो सतर पोशी के लिए था जो औरत को उसकी असल फितरत की तरफ लौटाने के लिए था, वो लिबास सतर पोशी का काम देने के बजाय जिस्म को और ज़्यादा नुमाया करने का काम अंजाम दे रहा है,*
*"❀_• वाक़िआ ये है कि एक औरत की पाकीज़ा और पारसा ज़िंदगी के लिए हिजाब एक बुनियादी अहमियत रखता है लिहाज़ा मर्दों का फ़र्ज़ है कि वो ख्वातीन को इस पर आमादा करें और ख्वातीन का फ़र्ज़ है की वो इसकी पाबंदी करें, उस वक्त बहुत ज़्यादा अफ़सोस होता है जब बाज़ अवक़ात ख़्वातीन हिजाब करना चाहती हैं लेकिन मर्द रास्ते में रुकावट बन जाते हैं, अकबर अलाहाबादी मरहूम ने बड़ा अच्छा क़ता कहा है कि :-*
*"बे-पर्दा कल जो नज़र आईं चंद बीबियां, अकबर ज़मीन में ग़ैरते क़ौमी से गढ़ गया,*
*"_पूछा जो उनसे पर्दा तुम्हारा वो क्या हुआ, कहने लगीं अक़ल पर मर्दों के पड़ गया"*
*"❀_आज हक़ीक़त में पर्दा मर्दों की अक़लों पर पड़ गया है, वो पर्दे के रास्ते में रुकावट बन रहे हैं, अल्लाह ताला अपनी रहमत से हम सबको ग़लत ख्यालात से निजात अता फरमाये और अल्लाह और अल्लाह के रसूल • ﷺ• के अहकाम के मुताबिक जिंदगी गुज़ारने की तौफीक़ अता फरमाये, आमीन।*
*®_ (इस्लाही ख़ुतबात- 1/177)*
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*☞_(131) ख़वातीन हालाते अहराम में किस तरह पर्दा करे?*
*"❀_ आपको मालूम है कि हज के मौक़े पर अहराम की हालत में औरत के लिए कपड़े को चेहरे पर लगाना जायज़ नहीं, मर्द सर नहीं ढंक सकते और औरतें चेहरा नहीं ढांक सकती,*
*"❀_ तो जब हज का मौसम आया और रसूल ए करीम ﷺ अज़वाज मुताहरात को हज कराने के लिए तशरीफ ले गए, उस वक्त ये मसला पेश आया कि एक तरफ तो पर्दा का हुक्म है और दूसरा तरफ ये हुक्म है कि हालते अहराम में कपड़ा मुंह पर न लगना चाहिए,*
*"❀_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती हैं कि जब हम हज के सफ़र पर ऊंट पर बैठ कर जा रही थीं तो हमने अपने अपने माथे पर एक लड़की लगाई हुई थी तो रास्ते में जब सामने कोई अजनबी न होता तो हम अपना नकाब उल्टा रहने देती और जब कोई का़फिला या अजनबी मर्द सामने आता दिखता है तो हम अपना नक़ाब उस लड़की पर डाल देती ताकि वो नकाब चेहरे पर ना लगे और पर्दा भी हो जाए,*
*"❀_इस रिवायत से मालूम होता है कि अहराम की हालत में भी अज़वाज मुताहरात ने पर्दे को तर्क नहीं किया,*
*®_[अबू दाऊद, किताबुल हज ]*
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*☞_एक खातून का वाक़िया:-*
*"❀_ अबू दाऊद की रिवायत है कि एक खातून का बेटा रसूले करीम ﷺ के साथ एक गज़वा में गया हुआ था, जंग के बाद तमाम मुसलमान वापस आए लेकिन उसका बेटा वापस नहीं आया, अब ज़ाहिर है कि उस वक्त मां की बेताबी की क्या कैफियत होगी और उस बेताबी के आलम में रसूले करीम ﷺ की खिदमत में ये पूछने के लिए दौड़ी कि मेरे बेटे का क्या बना? और जा कर रसूल ए करीम ﷺ से पूछा कि या रसूलुल्लाह ﷺ! मेरे बेटे का क्या हुआ?*
*"❀_ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने जवाब दिया कि तुम्हारा बेटा तो अल्लाह ताला के रास्ते में शहीद हो गया, अब बेटे के मरने की इत्तेला उस पर बिजली बन कर गिरी, इस इत्तेला पर उसने जिस सब्र व ज़ब्त से काम लिया वो अपनी जगह है, लेकिन इसी आलम में किसी शख़्स ने उस खातून से पूछा कि ऐ खातून! तुम इतने परेशानी के आलम में अपने घर से निकल कर रसूले करीम ﷺ की खिदमत में आईं इस हालात में भी तुमने अपने चेहरे पर नकाब डाला हुआ है? और इस वक़्त भी नकाब डालना नहीं भूली?*
*"❀_जवाब में उस ख़ातून ने कहा: मेरा बेटा तो फ़ौत हुआ है लेकिन मेरी हया तो फ़ौत नहीं हुई।" यानि मेरे बेटे का जनाज़ा निकला है लेकिन मेरी हया का जनाज़ा तो नहीं निकला।*
*"❀_ तो सहाबियात ने इस हालात में भी परदे का इतना अहतमाम फरमाया।*
*®_[अबू दाऊद, इस्लाही ख़ुतबात]*
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*☞_ (131) शादी ब्याह की तक़रीबात (प्रोग्राम) और दावतें, क्या इस्लाम में ख़ुशी मनाने पर पाबंदी है?*
*"❀_खुशी के मौक़े पर ऐतदाल के साथ मनाने पर शरीयत ने कोइ पाबंदी नहीं लगाई लेकिन ख़ुशी मनाने के नाम पर हमने अपने आपको जिन बेशुमार रस्मों को जकड़ लिया है, उनका नतीजा ये है कि ख़ुशी जो दिल की फरहत का नाम था, वो तो पीछे चली गई है और रस्मों के लगे बंधे क़वाइद आगे आगे हैं, जिनकी ज़रा खिलाफ वर्जी़ हो तो शिकवे शिकायतों और तान व तशनी का तूफान खड़ा हो जाता है,*
*"❀_लिहाज़ा शादी की तक़रीबात रस्मों की खाना पूर्ति की नज़र हो जाती है, जिसमें पैसा तो पानी की तरह बहता ही है, दिलों दिमाग हर वक्त रस्मी क़वाइद के बोझ तले दबे रहते हैं, शादी के इंतेजा़मात करने वाले थक कर चूर हो जाते हैं, फिर भी कहीं न कहीं कोई न कोई शिकायत का सामान पैदा हो ही जाता है, जिसके नतीजे मे बाज़ औकात लड़ाई झगड़ों तक भी नोबत पहुंच जती है.*
*"❀_ ज़बान से इस सूरत ए हाल को हम सब क़ाबिले इसलाह समझते हैं लेकिन जब अमल की नौबत आती है तो उमूमन एक कर के रस्मों के आगे हथियार डालते चले जाते हैं, इस सूरते हाल का कोई हल इसके सिवा नहीं है कि अव्वल तो बा असर और ख़ुशहाल लोग भी अपनी शादियों की तक़रीबात में हत्तल इमकान सादगी अख्त्यार करें और हिम्मत कर के उन रस्मों को तोड़ें जिन्होंने शादी को एक अज़ाब बना कर रख दिया है,*
*"❀_दूसरे अगर दौलतमंद अफ़राद इस तरीक़े को नहीं छोड़ते तो कम से कम महदूद आमदनी वाले हज़रात ये तैय कर लें कि वो दौलतमंदों की हिर्स में अपना पैसा और तावानाइयां ज़ाया करने के बजाय अपनी चादर के मुताबिक पांव फैलायेंगे और अपनी इस्तेताअत की हुदूद से आगे नहीं बडेंगे, खासकर निकाह और वलीमा की तक़रीबात के अलावा जो तक़रीबात मंगनी, मेहंदी, उबटन और चौथी वगैरा के नाम से रिवाज़ पा गई हैं, उनको ख़त्म किया जाए और ये तैय कर लें कि हमारी शादियों में ये तक़रीबात नहीं होंगी, फरीक़ीन अगर वाक़ई मोहब्बत और ख़ुशदिली से एक दूसरे को कोइ तोहफा देना या भेजना चाहते हैं वो किसी बाक़ायदा तक़रीब और लाव लश्कर के बगैर सादगी से पेश कर देगे.*
*"❀_ इज़हारे मसर्रत के किसी भी मख़सूस तरीक़े को लाज़मी और ज़रूरी ना समझा जाये बल्कि हर शख्स अपने हालात और वसाइल के मुताबिक बेतकल्लुफ़ी से जो तर्ज़े अमल अख़्तियार करना चाहें करलें, ना वो खुद किसी की हिर्स का शिकार या रस्मों का पाबन्द हो, ना दूसरे को इसका पाबंद करें। निकाह और वलीमा की तक़रीबात भी हत्तल इमकान सादगी से अपने वसाइल की हद में रहते हुए मुन'अक़्द की जायें और साहिबे तक़रीब का ये हक़ तसलीम किया जाए कि वो अपने हालात के मुताबिक़ जिसको चाहे दावत दे, और जिसको चाहे दावत ना दें, इस मामले में भी किसी को कोई संजीदा शिकायत नहीं होनी चाहिये।*
*"❀_ नबी करीम ﷺ का ये इरशाद हमेशा सामने रहे कि सबसे ज़्यादा बरकत वाला निकाह वो है जिसमे खर्च कम से कम हो, यानि जिसमे इंसान ना माली तौर पर क़र्ज़ में मुब्तिला हो और न बेजा मशक़क़त व मेहनत के किसी बोझ में मुब्तिला हो.*
*®_ [ ज़िक्र व फ़िक्र-269]*
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*☞_(132) मर्दो और औरतों की मख़लूत बेपर्दा तकरीबात:-*
*"❀ _शादी ब्याह की तक़रीबात में बेहयाई के मनाज़िर उन घरानों में भी नज़र आने लगे हैं जो अपने आपको दीनदार कहते हैं, जिनके मर्द मस्जिद में सफे अव्वल में नमाज पढ़ते हैं, उनके घरानों की शादी ब्याह की तक़रीबात में जा कर देखो क्या हो रहा है?*
*"❀ _एक ज़माना वो था जिसमें इस बात का ख्याल और तसव्वुर नहीं आ सका था कि शादी ब्याह की तक़रीबात में मर्दों और औरतों का मखलूत इज्तिमा होगा लेकिन अब तो मर्द और औरत की मखलूत दावतों का एक सैलाब है और औरतें बन संवर कर सिंघार कर के, ज़ैब व ज़ीनत से आरास्ता हो कर उन मखलूत दावतों में शरीक़ होती हैं, न पर्दे का कोई तसव्वुर है, न हया का कोई ख्याल है,*
*"❀ _और फिर तक़रीबात की वीडियो फिल्में बन रही हैं ताकि जो कोई इस तक़रीब में शरीक न हो सका और इस नज़ारे से लुत्फ़ अंदोज़ नहीं हो सका उसके लिए उस नज़ारे से लुत्फ़ अंदोज़ होने के लिए वीडियो फिल्म तैयार है, इसके ज़रिए वो इसका नज़ारा कर सकता है, ये सब कुछ हो रहा है लेकिन कान पर जूँ नहीं रेंगती और माथे पर शिकन नहीं आती और दिल में इसको ख़त्म करने का दाइया पैदा नहीं होता,*
*"❀_बताएं! क्या फिर भी ये फितने ना आएं? क्या फिर भी बद अमनी और बे सुकूनी पैदा नहीं हो? और आज कल हर एक की जान व माल व इज़्ज़त आबरू खतरे में है, ये सब क्यों ना हो? ये तो अल्लाह ताला की तरफ से गनीमत है और हुजूर ﷺ की बरकत है कि ऐसा क़हर हम पर नाज़िल नहीं होता कि हम सब हलाक हो जाएं वरना हमारे आमाल तो सारे ऐसे हैं कि एक क़हर और एक अज़ाब के ज़रिये सबको हलाक कर दिया जाता,*
*"❀ _और ये सब घर के बड़ो की गफ़लत और बेतवज्जोही का नतीज़ा है कि उनके दिल से अहसास ख़त्म हो गया, कोई कहने वाला और कोई टोकने वाला नहीं रहा, बच्चे जहन्नम की तरफ दौड़े जा रहे हैं, कोई उनका हाथ पकड़ कर रोकने वाला नहीं है, किसी बाप के दिल में ये ख्याल नहीं आता कि हम अपनी औलाद को किस गढ़े में ढकेल रहे हैं और दिन रात सब कुछ अपनी आंखों से देख रहे हैं, अब भी वक्त हाथ से नहीं गया, अब भी अगर घर के सरबराह और घर के ज़िम्मेदार इस बात का फैसला कर लें कि ये चंद काम नहीं करने देंगे, हमारे घर में मर्द और औरत का मखलूत इज्तिमा नहीं होगा, हमारे घर में कोई तकरीब औरतों की बेपर्दगी के साथ नहीं होगी, वीडियो फिल्म नहीं बनेगी, अगर घर के बड़े इन बातों का तहिया कर लें तो अब भी इस सैलाब पर बंद बांधा जा सकता है*
*︶︸︶︸︶︸︶︸︶︸︶*
*☞_(133) अगर हम मख़लूत तक़रीबात में शिरकत ना करें तो दुनिया वाले क्या कहेंगे?*
*"❀ _हमारे बुज़ुर्गों ने बायकॉट करने के तरीके नहीं सिखाए लेकिन याद रखो! एक मरहला ऐसा आता है जहां इंसान को ये फैसला लेना पड़ता है कि या तो हमारी ये बात मानी जाएगी, वर्ना तक़रीब (प्रोग्राम) में हमारी शिरकत नहीं होगी, अगर शादी की तक़रीबात हो रही है और मखलूत इज्ज़ेमात हो रहे हैं और आप सोच रहे हैं कि अगर इस दावत में नहीं जाते तो खानदान वालों को शिकायत हो जाएगी कि आप शरीक क्यों नहीं हुए ?*
*"❀ _अरे ! ये तो सोचो कि उनकी शिकायत की तो आपको परवाह है लेकिन उनको आपकी शिकायत की परवाह नहीं, अगर तुम पर्दा नशीन खातून हो और वो तुमको दावत में बुलाना चाहते हो तो उन्होंने तुम्हारे लिए पर्दे का इंतज़ाम क्यों नहीं किया? जब उन्होंने तुम्हारा इतना ख्याल नहीं किया तो फिर तुम पर भी उनका ख्याल करना वाजिब नहीं है, उन्हें साफ साफ कह दो कि हम ऐसी तक़रीब में शरीक़ नहीं होंगे, जब तक कुछ ख़्वातीन डट कर ये फैसला नहीं करेंगी यक़ीन रखो कि उस वक्त तक ये सेलाब बंद नहीं होगा, कब तक हथियार डालते जाओगे? ये सैलाब कहां तक पहुंचेगा?*
*"❀ _अगर पर्दे का इंतज़ाम नहीं होने के बावजूद तुम सिर्फ इसलिए जाती हो ताकि वो बुरा ना माने, कहीं उनको बुरा ना लग जाए, अरे! कभी तुम भी तो बुरा माना करो कि हम इस बात को बुरा मानते हैं कि हमें ऐसी दावत में क्यों बुलाया जा रहा है? हमारे लिए ऐसी दावतें क्यों की जाती है जिसमें पर्दे का इंतेज़ाम नहीं है, याद रखो! जब तक ये नहीं करेंगे ये सैलाब नहीं रुकेगा,*
*"❀ _जहाँ तक़रीबात में बा-ज़ाहिर ख़्वातीन का इंतेज़ाम अलहिदा भी है, मर्दों के लिए अलहिदा शामियाने हैं और औरतों के लिए अलहिदा लेकिन इसमें भी ये होता है कि औरतों वाले हिस्से में भी मर्दो का एक तूफ़ान होता है, मर्द आ रहे हैं, जा रहे हैं, हंसी मज़ाक हो रहा है, दिल्लगी हो रही है, फ़िल्में बन रही हैं, ये सब कुछ हो रहा है और बा-ज़ाहिर देखने में अलग इंतेज़ाम है, ऐसे मौक़े पर ख़वातीन खड़े हो कर क्यूं ये नहीं कहतीं कि मर्द यहाँ क्यूं आ रहे हैं? हम पर्दा नशीन ख़्वातीन हैं लिहाज़ा उन मर्दो को बाहर निकाला जाये।*
*"❀ _शादी ब्याह में बहुत से मामलात पर लड़ाई झगड़े हो जाते हैं और इस बात पर नाराज़गी हो जाती हैं लेकिन जब तुम्हारे दीन पर डाका डाला जाए तो वहां तुम्हारे लिए खामोश रहना जायज़ नहीं, खड़े हो कर भरी तक़रीब में कह दो कि ये चीज़ हमारे लिए ना का़बिले बर्दाश्त है, जब तक कुछ मर्द और ख़्वातीन इस बात का तहिया नहीं कर लेंगे उस वक्त तक याद रखो! हया का तहफ्फुज़ नहीं हो पाएगा और ये सैलाब बढ़ता चला जाएगा।*
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*☞_(134) मेहर की हक़ीक़त और शरियत में इसकी हक़ीक़त:-*
*"❀_ पिछले दिनों एक निकाह नामा मेरी नज़र से गुज़रा जिसमें मेहर के खाने में ये इबारत लिखी हुई थी मुबल्लिग बत्तीस रुपया मेहर शरई, इससे पहले भी कई मर्तबा लोगों से बातचीत के दौरन ये अंदाजा हुआ कि वो खुदा जाने किस वजह से बत्तीस रुपये को मेहर शरई समझते है और ये तास्सुर तो बहुत ज़्यादा फैला हुआ है कि मेहर जितना कम से कम रखा जाए शरीयत की निगाह में उतना ही मुस्तहसन है, इसके अलावा भी मेहर के बारे में तरह तरह की गलत फहमियां लोगों में पाई जाती है जिनका इज़ाला ज़रूरी है,*
*"❀ _ जिन लोगों ने आज के दौर में बत्तीस रुपया मेहर बांध कर उसे मेहर शरई क़रार दिया, उन्होंने दो ग़लतियाँ की, एक गलती तो ये कि दस दिरहम की क़ीमत किसी ज़माने में बत्तीस रही होगी, उन्होंने उसे हमेशा के लिए बत्तीस रुपया ही समझ लिया, दूसरी गलती ये की कि शरीयत ने मेहर की जो कम से कम मिक़दार मुक़र्रर की थी, उसका मतलब ये समझ लिया के शर'अन पसंदीदा ही ये है कि इससे ज़्यादा मेहर मुक़र्रर ना किया जाये, हालांकी ये तसव्वुर क़तई तौर पर बे बुनियाद है,*
*"❀ _मेहर दर असल एक एज़ाज़ है जो एक शौहर अपनी बीवी को पेश करता है, और इसका मक़सद औरत का एज़ाज़ व इकराम है, ना तो ये औरत की क़ीमत है जिसे अदा कर के ये समझा जाए के वो शोहर के हाथों बिक गई और अब उसकी हैसियत एक कनीज़ की है, और ना ये महज़ एक फ़र्ज़ी कार्यवाही है जिसके बारे में मे ये समझा जाए कि उसे अमलन अदा करने की ज़रूरत नहीं, शौहर के ज़िम्मे बीवी का मेहर लाज़िम करने से शरीयत का इरादा ये है कि जब कोई शख़्स बीवी को अपने घर में लाए तो उसका मुनासिब इकराम करें, और उसे एक ऐसा हदिया पेश केरे जो उसके एज़ाज़ व इकराम के मुनासिब हो,*
*"❀_लिहाजा शरीयत का तकाज़ा ये है कि मेहर की रक़म ना तो इतनी कम रखी जाए जिसमें एज़ाज़ व इकराम का ये पहलू बिल्कुल गायब हो, और ना इतनी ज़्यादा रखी जाए कि शौहर उसे अदा करने पर का़दिर ना हो, और बिल आख़िर या तो मेहर अदा किये बगैर दुनिया से रुखसत हो जाये या आख़िर में बीवी से माफ़ कराने पर मजबूर हो,*
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*☞_(135) मेहर मिस्ल और शरियत में मेहर की कम से हद क्या है?*
*"❀ _शरई नुक्ता नज़र से हर औरत का असल हक़ ये है कि मेहर मिस्ल अदा किया जाए, मेहर मिस्ल का मतलब मेहर की वो मिक़दार है जो उस औरत के खानदान में आम तौर से उस जैसी ख़्वातीन के निकाह के वक्त मुकर्रर की जाती रही हो, और अगर उस औरत के खानदान में दूसरी औरतें न हों तो खानदान से बाहर उसकी हम पल्ला खवातीन का जो मेहर आम तौर से मुकर्रर किया जाता हो वो उस औरत का मेहर मिस्ल है, और शरई ऐतबार से बीवी मेहर मिस्ल वसूल करने की हक़दार है,*
*"❀ _यही वजह है कि अगर निकाह के वक्त आपसी रजा़मंदी से मेहर का तैय ना किया गया हो, या मेहर का ज़िक्र किए बिना निकाह कर लिया गया हो तो मेहर मिस्ल खुद बा खुद लाज़िम समझा जाता है, अलबत्ता अगर बीवी खुद मेहर मिस्ल से कम पर खुश दिली से राज़ी हो जाए या शौहर खुश दिली से मेहर मिस्ल से ज़्यादा मेहर मुकर्रर कर ले तो आपस की रज़ामंदी से मेहर मिस्ल से कम या ज़्यादा मुकर्रर कर लेना भी शर'अन जा'इज है लेकिन यहां भी शरियत ने ज़्यादा से ज़्यादा मेहर की तो कोई हद मुक़र्रर नहीं की,*
*"❀ _अलबत्ता शरियत ने कम से कम मेहर की हद मुकर्रर कर दी है, और वो हद (हनफ़ी मुवक्किफ़ के मुताबिक़) 10 दिरहम है, 10 दिरहम का मतलब 2 तोला साढ़े सात माशा चाँदी है (मौजूदा क़ीमत बाज़ार से मालूम कर ली जाए ) इस कम से कम मिकदार का मतलब ये नहीं है कि इतना मेहर रखना शर'अन पसंदीदा है, बल्कि मतलब ये है कि इससे कम मेहर पर अगर खुद औरत भी राज़ी हो जाए तो शरियत राज़ी नहीं है,*
*"❀ _क्यूंकि इससे मेहर का मक़सद, यानि औरत का एज़ाज़ व इकराम पूरा नहीं होता, ये कम से कम हद भी उन लोगों का ख्याल करके रखी गई है जो माली ऐतबार से कमज़ोर है, और ज़्यादा रक़म खर्च करने के लिए मुतहम्मिल नहीं, उनके लिए ये गुंजाइश पैदा कर दी गई है, अगर औरत राज़ी हो तो कम अज़ कम इस मिक़दार पर निकाह हो सकता है लेकिन इसका ये मतलब लेना किसी तरह दुरुस्त नहीं है कि शरीयत को मंजूर ही यही है कि मेहर की मिक़दार यही रखी जाए और उसे इस मानी में मेहर शरई क़रार दिया जाए,*
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*☞_(136) मेहर-ए-फ़ातिमी किसे कहते हैं?*
*"❀_ आनहज़रत ﷺ ने अपनी साहबज़ादी हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा का मेहर 500 दिरहम मुक़र्रर फ़रमाया था, जो 131 तोला तीन माशा चांदी के बराबर होता है (मोजूदा क़ीमत बाज़ार से मालूम कर ली जाए), ख़ुद आप ﷺ ने अपनी मुताददिद अज़वाज़ मुताहरात का मेहर भी इसके क़रीब क़रीब ही मुक़र्रर फरमाया, जो औसत दर्जे के लिहाज़ से एक का़बिले लिहाज़ मिक़दार है,*
*"❀ _बाज़ हज़रात मेहर फातिमी ही को मेहर शरई के अल्फ़ाज़ से ताबीर करते हैं और ग़ालिबन उनका मतलब ये होता है कि शरई एतबार से इससे कम या ज़्यादा मेहर मुकर्रर करना पसंदीदा नहीं, ये तसव्वुर भी सही नहीं है, इसमे कोई शक नहीं कि अगर फरिक़ीन मेहरे फातिमी के बराबर मेहर मुकर्रर करें और नियत ये हो कि आन हज़रत ﷺ कि मुकर्रर की हुई मिक़दार बा बरकत और मुवाफिक होगी, और ये कि इससे इत्तेबा ए सुन्नत का अज्र मिलने की तवक्को है, तो यक़ीनन ये जज़्बा बहुत मुबारक और मुस्तहसन है,*
*"❀ _लेकिन ये समझना दुरुस्त नहीं है कि ये मिक़दार इस माने में मेहरे शरई है कि इससे कम या ज़्यादा मुकर्रर करना शरीयत में नापसंदीदा है, बल्कि ये है कि इससे कम या ज़्यादा मेहर मुकर्रर करने में शर'अन कोई क़बाहत नहीं है, हां! ये उसूल मद्दे नज़र रखना ज़रूरी है कि मेहर इतना हो जिससे बीवी का ऐजाज़ और इकराम भी हो और वो शौहर की इस्तेता'त से बाहर भी न हो।*
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*☞_(137) मेहर ए मुअज्जल और मोज्जल किसे कहते हैं?*
*"❀_ अब मेहर के मुताल्लिक़ एक और नुक्ते की वजाहत भी हो जाए, मेहर की दो क़िस्मे मशहूर हैं, मेहर मुअज्जल और मेहर मोज्जल, ये अल्फ़ाज़ चुंकी सिर्फ निकाह की मजलिस ही में सुनाई देते हैं इसलिये बहुत से लोगों को इनका मतलब मालूम नहीं होता,*
*"❀_ शरई ऐतबार से मेहर ए मुअज्जल उस मेहर को कहते हैं जो निकाह होते ही शौहर के ज़िम्मे लाज़िम हो जाता है और ये उसका फ़रीज़ा है कि या तो निकाह के वक़्त ही बीवी को अदा कर दे, या उसके बाद जितनी जल्दी मुमकिन हो, औरत को भी हर वक्त ये हक़ हासिल है कि वो जब चाहे उसका मुतालबा कर ले,*
*"❀_ चूंकी हमारे म'आशरे में ख्वातीन आम तौर से मुतालबा नहीं करती, इसलिए इसे ये ना समझना चाहिए कि इसकी अदायगी हमारे लिए ज़रूरी नहीं, बल्कि शौहर का ये फ़र्ज़ है कि वो औरत के मुतालबे का इंतजार किए बगैर भी जिस क़दर ज़ल्दी मुमकिन हो इस फ़र्ज़ से फ़ारिग हो जाए,*
*"❀_ मेहर मोज्जल उस मेहर को कहा जाता है जिसकी अदायगी के लिए फरीक़ीन ने आइंदा की कोई तारीख़ मुतैयन कर ली हो, जो तारीख़ इस तरह मुतैयन कर ली जाए उससे पहले उसकी अदायगी शौहर के ज़िम्मे लाज़िम नहीं होती, ना बीवी उससे पहले मुतालबा कर सकती है,*
*"❀_ लेकिन हमारे मा'शरे में आम तौर पर कोई तारीख मुक़र्रर किए बिना सिर्फ ये कह दिया जाता है कि इतना मेहर मौज्जल है और हमारे मा'आशरे के रिवाज के मुताबिक इसका मतलब ये समझा जाता है कि मेहर की ये मिक़दार उस वक्त अदा करना वाजिब होगी जब निकाह ख़त्म हो जाएगा, चुनांचे अगर तलाक हो जाए तब मेहर मोज्जल की अदायगी लाज़िम होगी, या मियां बीवी में से किसी का इंतक़ाल हो जाए तब इसकी अदायगी लाज़िम समझी जाती है,*
*®_( ज़िक्र बनाम फ़िक्र- 276-281)*
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*☞_(138) जहेज़ की हकीकत और हैसियत:-*
*"❀_ हमारे मा'शरे में जहेज़ को जिस तरह बेटी की शादी का एक नागुज़ेर हिस्सा क़रार दे दिया गया है, शरई ऐतबार से भी जहेज़ की हक़ीक़त सिर्फ इतनी है कि अगर कोई बाप अपनी बेटी को रुखसत करते वक्त उसे कोई तोहफा अपनी इस्तेता'त के मुताबिक देना चाहे तो दे दे और ज़ाहिर है कि तोहफा देते वक्त लड़की की आइंदा ज़रूरीयात को मद्दे नज़र रखा जाए तो ज़्यादा बेहतर है, लेकिन वो ना शादी के लिए कोई लाज़मी शर्त है ना ससुराल वालों को कोई हक़ पहुंचता है कि वो इसका मुतालबा करे,*
*"❀_ और अगर किसी लड़की को जहेज़ ना दिया जाए या कम दिया जाए तो ना उस पर बुरा मानें ना लड़की को मलामत करें, और ना यह कोई दिखावे की चीज़ है कि शादी के मौक़े पर उसकी नुमाइश कर के अपनी शानो शौकत का इज़हार किया जाये,*
*®_(ज़िक्र व फ़िक्र)*
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*☞_(139) जहेज़ के बारे में गलत तसव्वुरात:-*
*"❀_इस सिलसिले में हमारे मा'शरे में जो गलत तसव्वुरात फैले हुए हैं वो मुख्तसर दर्जे ज़ेल हैं:-*
*❀_ (1)_ जहेज़ को लड़की की शादी के लिए एक लाज़मी शर्त समझा जाता है, चुनांचे जब तक जहेज़ देने के लिए पैसा ना हो लड़की की शादी नहीं की जाती, हमारे मा'शरे में न जाने कितनी लड़कियाँ इसी वजह से बिन ब्याही रहती है कि बाप के पास उन्हें देने के लिए जहेज़ नहीं होती और जब शादी सर पर ही आ जाए तो जहेज़ की शर्त पूरी करने के लिए बाप को बाज़ अवक़ात रुपया हासिल करने के लिए ना-जा'इज़ ज़राए अख्तियार करने पड़ते हैं और वो रिश्वत, जालसाजी, धोखा, फरेब और खयानत जैसे ज़रायम के इरतिकाब पर आमादा हो जाता है, या कम से कम अपने आपको क़र्ज़ उधार के शिकंजे में जकड़ने पर मजबूर होता है,*
*"❀_(2) जहेज़ की मिक़दार और उसके लाज़मी सामान की लिस्ट में भी रोज़ बा रोज़ इज़ाफ़ा होता जा रहा है, अब जहेज़ महज़ एक बेटी के लिए बाप का तोहफा नहीं है जो वो अपनी खुशदिली से अपनी इस्तितात की हद में रह कर दे, बल्कि माशरे का एक जब्र है, चुनांचे इसमें सिर्फ बेटी की ज़रूरीयात ही दाखिल नहीं, बल्कि उसके शौहर की ज़रूरीयात पूरी करना और उसके घर को मुजय्यन करना भी एक लाज़मी हिस्सा है, ख्वाह लड़की के बाप का दिल चाहे या ना चाहे, उसे ये तमाम शर्ते पूरी करनी पड़ती है,*
*"❀_(3) बात सिर्फ इतनी नहीं है कि लड़की की ज़रूरते पूरी कर के उसका दिल खुश किया जाए बल्कि जहेज़ की नुमाइश की रस्म ने ये भी ज़रूरी क़रार दे दिया है कि जहेज़ ऐसा हो जो हर देखने वाले को खुश कर सके और उनकी तारीफ हासिल कर सके,*
*"❀_(4) जहेज़ के सिलसिले में सबसे घटिया बात ये है कि लड़की का शौहर या उसकी ससुराल के लोग जहेज़ पर नज़र रखते हैं, बाज़ जगह तो शानदार जहेज़ की डिमांड पूरी ढिटाई से की जाती है और बाज़ जगह अगर डिमांड ना भी की जाए तो ये तवक्को रखी जाती है कि दुल्हन अच्छा खासा जहेज़ ले कर आएगी और अगर ये तवक्को़ पूरी ना हो तो लड़की को ताने दे दे कर उसकी नाक में दम कर दिया जाता है,*
*"❀_ जहेज़ के साथ इस क़िस्म की जो रस्में और तसव्वुरात जोड़ दिए गए हैं और उनकी वजह से जो मा'शरे में खराबियां जनम लेती रही हैं, उनका एहसास हमारे माशरे के अहले फ़िक्र लोगों में बाक़ी नहीं,*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र)*
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*☞_(140) क्या जहेज़ देने के बाद विरासत से बेटी का हिस्सा ख़त्म हो जाता है?*
*❀"_ ये अर्ज़ किया जा चुका है कि जहेज़ हरगिज़ निकाह का कोई जरूरी हिस्सा नहीं है और इसकी इस्तेतात न होने की सूरत में लड़की को निकाह के बगैर बिठाये रखना हरगिज़ जाइज़ नहीं, कोई बाप अपनी बेटी को रुखसत करते वक्त अपनी इस्तेता'त की हुदूद में रहते हुए ख़ुशी से बेटी को कोई तोहफा देना चाहे तो वो बेशक दे सकता है, लेकिन ना इसको निकाह की लाज़िम शर्त समझने की गुंजाइश है, ना इसमें नामो नमूद का कोई पहलू होना चाहिए और ना शौहर या उसके घर वालों के लिए जाइज़ है कि वो जहेज़ का मुतालबा करें या उसकी तवक्को़ बांधे,*
*"❀_ अब सवाल ये है कि "क्या जहेज़ देने के बाद मां बाप को अपनी विरासत से हिस्सा देना ज़रूरी नहीं रहता? वाक़ई ये ग़लत फ़हमी बाज़ हल्कों में खास आम है, इस सिलसिले में अर्ज़ ये है कि जहेज़ का विरासत से क़त'अन कोई ताल्लुक़ नहीं है, अगर किसी बाप ने अपनी बेटी पर जहेज़ की सूरत में अपनी सारी कायनात भी लुटा दी हो तब भी लड़की का हक़ विरासत में ख़त्म नहीं होता,*
*"❀_ बाप के इंतिकाल के बाद वो अपने बाप के तर्के में ज़रूर हिस्सेदार होगी और उसके भाइयों के लिए हरगिज़ जाइज़ नहीं है कि वो सारा तर्का खुद ले बैठे, और अपनी बहन को इस बुनियाद पर मेहरूम कर दें कि उसे जहेज़ में बहुत कुछ माल मिल चुका है,*
*"❀_लड़का हो या लड़की, उसके बाप ने अपनी जिंदगी में उसे जो कुछ दिया हो, उसे उसकी विरासत के हिस्से में कोई कमी नहीं आती, अलबत्ता बाप को इस बात का हत्तल इमकान ख्याल रखना चाहिए कि अपनी जिंदगी में वो अपनी औलाद को जो कुछ दे, वो क़रीब क़रीब बराबर हो और किसी एक लड़के या लड़की पर दौलत की बारिश बरसा कर दूसरे को मेहरूम ना करे, बहर हाल! ये तय शुदा बात है और इसमे शरई ऐतबार से कोई अदना शुब'हा नहीं कि लड़की को जहेज़ देने से उसका हक़ विरासत ख़त्म नहीं होता, बल्कि जहेज़ में दी हुई मालियत को उसके विरासत के हिसाब से कम भी नहीं किया जा सकता, उसे हर सूरत में तर्के से अपना पूरा हिस्सा मिलना ज़रूरी है,*
*®_ ( ज़िक्र व फ़िक्र -288)*
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*☞_(141) रुखसती और बारात के खाने की शरई हैसियत क्या है ?*
*"❀_एक सवाल ये है कि लड़की के वालदैन बारात को जो खाना खिलाते हैं उसकी शरई हैसियत क्या है? इस मामले मे भी हमारे मआशरे में इफरात व तफरीत पर मुबनी तसव्वुरात फैले हुए हैं, बाज़ लोग ये समझते हैं कि जिस तरह लड़के के लिए निकाह के बाद वलीमा करना सुन्नत है, उसी तरह लड़की के बाप के लिए भी निकाह के वक्त दावत करना सुन्नत है या कम से कम शरई तौर पर पसंदीदा है,*
*"❀_ हालांकि ये ख़याल बिल्कुल बे बुनियाद है, लड़की वालो की तरफ़ से किसी दावत का एहतमाम न सुन्नत है, न मुस्तहब है, बल्की अगर दूसरी ख़राबिया न हो तो सिर्फ़ जाइज़ है, यही मामला बारात का है, निकाह के वक्त दूल्हे की तरफ से बारात ले जाना कोई सुन्नत नहीं, ना निकाह को शरीयत ने इस पर मोक़ूफ़ किया है, लेकिन अगर दूसरी ख़राबियां ना हो तो बारात ले जाना कोई गुनाह भी नहीं,*
*"❀_ लिहाज़ा बाज़ हज़रात जो बारात ले जाने और लड़की वालों की तरफ से उनकी दावत को ऐसा गुनाह समझते हैं जैसे कुरान व सुन्नत ने इससे खास तौर पर मना किया हो, उनका ये तशद्दुद भी मुनासिब नहीं, हक़ीक़त ये है कि अगर एतदाल के साथ कुछ लोग निकाह के मौक़े पर लड़की के घर चले जाएं (जिसमे लड़की के बाप पर कोई बोझ ना हो) और लड़की के वालदैन अपनी बच्ची के निकाह के फरीज़े से सुबुकदोश होने की खुशी में अपनी दिली ख्वाहिश से उनकी और अपने दूसरे अज़ीज़ो दोस्तों की दावत कर दे तो इसमें बिज्ज़ात खुद कोई गुनाह नहीं है,*
*"❀_लेकिन तमाम चीज़ों में ख़राबी यहाँ से पैदा होती है कि इन तक़रीबात को निकाह का लाज़मी हिस्सा समझ लिया जाता है और जो शख़्स इन्हें अंजाम देने की इस्तेता'त न रखता हो, वो भी चाहे न चाहे इन पर मजबूर हो जाता है और इस ग़रज़ के लिए बाज़ अवक़ात ना-जा'इज़ तरीक़े अख़्तियार करता है या क़र्ज़ उधार का बोझ अपने सर लेता है और अगर कोई शख़्स अपने माली हालात की वजह से ये काम ना करे तो म'आशरे में मतऊन किया जाता है,*
*"❀_ किसी शख़्स को कोई हदिया तोहफा देना उसकी दावत करना अगर दिल के तकाज़े और मुहब्बत से हो तो सिर्फ ये गुनाह नहीं, बल्की बाइसे बरकत है, बिल ख़ुसूस जब नये रिश्ते क़ायम हो रहे हैं, तो ऐसा करने से आपसी मुहब्बत में इज़ाफ़ा होता है, बाशर्तें ये सब कुछ खुलूस से हो, और अपनी इस्तेतात की हुदूद में रह कर हो लेकिन जब ये चीज़ नामो नमूद और दिखावे का ज़रिया बन जाए या उसमे बदले की तलब शामिल हो जाए या ये काम खुश दिली के बजाए मआशरे और माहौल के जबर के तहत अंजाम दिए जाएं, यानी अंदर से दिल ना चाह रहा हो लेकिन नाक कटने के खौफ से जूबरदस्ती तोहफे दिए जाएं या दावत की जाएं तो यही काम जो बाइसे बरकत हो सकती है उल्टे गुनाह, बे बरकती और नहुसत का सबा्ब बन जाते है और उनकी वजह से मआशरा तरह तरह की अख़लाकी बुराइयों में मुब्तिला हो जाता है,*
*"❀_ हमारी शामते आमाल ये है कि हमने अपने आपको खुद साख्ता रस्मो में जकड़ कर अच्छे कामों को भी अपने लिए एक अज़ाब बना लिया है, अगर यही काम सादगी और बे तकल्लुफी से किया जाए तो इनमें कोई खराबी नहीं, लेकिन अगर रस्मो की पाबन्दी, नाम व नमूद और मा'शरती जब्र के तहत अंजाम दिये जायें तो ये बड़ी ख़राबी है,*
*"❀_ लिहाज़ा असल बात ये है कि अगर किसी लड़की का बाप अपनी बेटी के निकाह के वक्त अपनी खुशदिली से उसके ससुराल के लोगों को, या अपने अजी़जो़ और अहबाब को जमा कर के उनकी दावत कर देता है और उसे निकाह का लाज़मी हिस्सा या सुन्नत नहीं समझता है तो इसमें कोई हरज की बात नहीं है, और अगर कोई शख़्स ऐसा नहीं करता तो उसमें भी ऐसी कोई बात नहीं है जिसकी शिक़ायत की जाए या जिसका वज़ह से उसे मत'ऊन किया जाए, बल्कि उसका अमल सादगी की सुन्नत से ज़्यादा क़रीब है, इसलिए उसकी तारीफ़ करनी चाहिए,*
*"❀_इसकी मिसाल यूं समझिए कि बाज़ लोग अपनी औलाद के इम्तिहान में कामयाब होने पर या उन्हें अच्छी मुलाज़मत मिलने पर ख़ुशी के इज़हार के लिए अपने खास खास मिलने वालों की दावत कर देते हैं, इस दावत में हरगिज़ कोई हर्ज नहीं, दूसरी तरफ बहुत से लोगों के बच्चे इम्तिहान में कामयाब होते रहते हैं या उन्हें अच्छी मुलाज़मते मिलती रहती है लेकिन वो इस खुशी में कोई दावत नहीं करते, उन लोगों के लिए भी मआशरे की तरफ से कोई ऐतराज़ नहीं किया जाता ना उनको इस बात पर मत'ऊन किया जाता है कि उन्होंने दावत क्यों नहीं की ?*
*"❀_ अगर यहीं तर्ज़े अमल निकाह की दावत में भी अख्तियार कर लिया जाए तो क्या मुजा़यका है? यानि जिसका दिल चाहे दावत करे और जिसका दिल चाहे ना करे लेकिन खराबी यहां से पैदा होती है कि निकाह में अगर कोई दावत ना करे तो यूं समझा जाता है कि शादी हुई ही नहीं, जिन बुज़ुर्गो ने बारात ले जाने और उसके अहतमाम से रोका, दर हक़ीक़त उनके पेशे नज़र यहीं ख़राबियां थी, उन्होंने इस बात की तरगीब दी कि कम से कम कुछ बा असर बा रुसूख इन बारात और दावतों के बगैर निकाह करेंगे तो उन लोगों को हौसला होगा जो इसकी उम्मीद नहीं रखते और सिर्फ माशरे की मजबूरी से उन्हें ये काम करने पड़ते हैं,*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -289)*
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*☞_(142) तक़रीबात (प्रोग्राम) में रस्म के तौर पर या बदले (न्योता) की ग़र्ज़ से तोहफा देना:-*
*"❀_अगर कोई शख़्स किसी दूसरे के साथ अच्छा बरताव करे या कोई नेकी करे तो उसको चाहिए कि जिसने उसके साथ नेकी की है, उसको उसका कुछ न कुछ बदला दे, दूसरी हदीस में इसी बदले को मुकाफ़ात से ताबीर फरमाया है, ये बदला जिसका ज़िक्र हुज़ूर अक़दस ﷺ फरमा रहे हैं, इसका मतलब ये है कि आदमी इस अहसास के साथ दूसरे से अच्छा बरताव करे कि उसने मेरे साथ नेकी की है तो मैं भी उसके साथ कोई नेक सुलुक करुं,*
*"❀_ये बदला देना तो हुज़ूर अक़दस ﷺ की सुन्नत है, इसलिए कि हुज़ूर अक़दस ﷺ की आदत ये थी कि जब कोई शख़्स आपके साथ अच्छा मामला करता या कोई हदिया पेश करता तो आप उसको बदला दिया करते थे और उसके साथ भी अच्छा मामला किया करते हैं, इसलिए ये बदला तो बाईसे अजर व सवाब है,*
*"❀_ एक बदला वो है जो आज हमारे मा'शरे में फैल गया है वो ये कि किसी को बदला देने को दिल तो नहीं चाह रहा है लेकिन इस ग़र्ज से दे रहा है कि अगर मैं नहीं दूँगा तो मा'शरे में मेरी नाक कट जाएगी या इस नियत से दे रहा है कि इस वक्त दे रहा हूं तो मेरे यहां शादी बियाह के मौक़े पर ये देगा, जिसको न्योता कहा जाता है, हत्ताकी बाज़ इलाक़ों खानदानों में ये रिवाज है कि शादी बियाह के मौके़ पर किसी को देता है तो बा क़ायदा उसकी लिस्ट बनती है कि फलां शख्स ने इतने दिए फलां शख्स ने इतने दिए, फिर उस लिस्ट को महफूज़ रखा जाता है और फिर जब उस शख़्स के यहां शादी बियाह का मौक़ा आता है जिसने दिया था तो उसको पूरी तवक्को़ होती है कि मैंने उसको जितना दिया था ये कम से कम उतना ही मुझे वापस देगा और अगर उससे कम दे तो फिर गिले शिकवे लड़ाइयां शुरू हो जाती है,*
*"❀_ ये बदला बहुत खराब है और इसी को कुराने करीम में सूरह रोम में सूद से ताबीर फरमाया है, (तर्जुमा - सूरह रोम 39) यानी तुम लोग जो सूद देते हो ताकि लोगो के मालों के साथ मिल उसमें इज़ाफा हो जाए तो याद रखो अल्लाह ताला के नज़दीक उसमें इज़ाफ़ा नहीं होता और जो तुम अल्लाह ताला की खातिर ज़कात देते हो तो यही लोग अपने मालों में इज़ाफ़ा कराने वाले हैं,*
*"❀_इस आयत में इस न्यौते को सूद से ताबीर किया है, अगर कोई शख़्स दूसरे को इस नियत से दे के चुंकी उसने मुझे शादी के मौक़े पर दिया था, अब मेरे ज़िम्मे फ़र्ज़ है कि मैं भी उसको ज़रूर दूं अगर मैं नहीं दूंगा तो मा'शरे में मेरी नाक कट जाएगी और ये मुझे मक़रूज़ समझेगा, ये देना गुनाह में दाख़िल है, इसमें कभी मुब्तिला नहीं होना चाहिए, इसमें ना दुनिया का कोई फ़ायदा है और ना ही आख़िरत का कोई फ़ायदा है,*
*"❀_लेकिन एक वो बदला जिसकी तलक़ीन हुज़ूर अक़दस ﷺ फरमा रहे हैं यानी देने वाले के दिल में ये ख़याल पैदा न हो कि जो मैं दे रहा हूँ उसका बदला मुझे मिलेगा, बल्कि उसने महज़ मुहब्बत की खातिर अल्लाह को राज़ी करने के लिए अपनी बहन या भाई को कुछ दिया हो, जैसा कि हुजूर अकदस ﷺ का इरशाद है कि आपस में एक दूसरे को हदिया दिया करो, इससे आपस में मुहब्बत पैदा होगी, लिहाज़ा अगर एक आदमी हुजूर अकदस ﷺ के इस इरशाद पर अमल करने के लिए अपने दिल के तकाज़े से दे रहा है और उसके दिल में दूर-दूर तक ये ख्याल नहीं है कि इसका बदला मुझे मिलेगा, तो ये देना बड़ी बरकत की चीज़ है,*
*"❀_ और जिस शख्स को वो हदिया दिया गया वो भी ये समझ कर ना ले कि ये न्योता है और इसका बदला मुझे अदा करना है, बल्कि वो सोचे कि ये मेरा भाई है इसने मेरे साथ एक अच्छाई की है, तो मेरा दिल चाहता है कि मैं भी उसके साथ अच्छाई करू और मैं भी अपनी ताक़त के मुताबिक़ उसको हदिया दे कर उसका दिल ख़ुश करू, तो इसका नाम मुक़ाफ़ात है जिसकी हुज़ूर अक़दस ﷺ ने तलक़ीन फ़रमाई है, ये महदूद है और इसकी कोशिश करनी चाहिए,*
*"❀_ इस मुकाफ़ात का नतीजा ये होता है कि जब दूसरा शख़्स तुम्हारे हदिये का बदला देगा तो इस बदले में इसका लिहाज़ नहीं होगा कि जितना क़ीमती बदला उसने दिया था उतना ही क़ीमती बदला मैं भी दूँगा, बल्कि मुकाफ़ात करने वाला ये सोचे कि उसने अपनी इस्तेतात के मुताबिक़ बदला दिया था, मैं अपनी इस्तेता'त के मुताबिक़ बदला दूं, मसलन किसी ने आपको बहुत क़ीमती तोहफा दे दिया था, अब आपकी इस्तेता'त तोहफ़ा देने की नहीं है तो आप छोटा और मामूली तोहफा देते वक्त शर्माएं नहीं, क्योंकि उसका मक़सद भी आपका दिल खुश करना था और आपका मक़सद भी उसका दिल खुश करना है और दिल छोटी चीज़ से भी खुश हो जाता है, ये ना सोचें की जितना कीमती तोहफा उसने मुझे दिया था मैं भी उतना ही क़ीमती तोहफा उसको दुं, चाहे इस मक़सद के लिए मुझे क़र्ज़ लेना पड़े,*
*"❀_हर्गिज नहीं! बल्कि जितनी इस्तेतात हो उसके मुताबिक तोहफा दो, बल्कि हदीस में यहां तक फरमा दिया कि अगर तुम्हारे पास हदिये का बदला देने के लिए कुछ नहीं है तो फिर मुकाफात का एक तरीक़ा ये भी है कि तुम उसकी तारीफ करो और लोगों को बताओ कि मेरे भाई ने मेरे साथ अच्छा सुलूक किया और मुझे हदिये में ज़रूरत की चीज दे दी, ये कह कर उसका दिल खुश कर देना भी एक तरह का बदला है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 1/174)*
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*☞_(143) लड़की के वालिद का दूल्हे से रक़म और पैसे का मुतालबा करना :-*
*❀_"बाज़ इलाक़ो में लड़की का बाप दूल्हे से निकाह के अख़राजात के अलावा मज़ीद रक़म का भी मुतालबा करता है और इसके बगैर उसे अपनी लड़की का रिश्ता देने पर तैयार नहीं होता, ये बेबुनियाद रस्म भी हमारे मा'शरे के बाज़ हिस्सों में खासी राइज है और ये शरई ऐतबार से बिल्कुल ना-जायज़ रस्म है,*
*"❀_ अपनी लड़की का रिश्ता देने के लिए दूल्हे से रकम लेने को हमारे फुक़हा किराम ने रिश्वत क़रार दिया है और इसका गुनाह रिश्वत लेने के गुनाह के बराबर है, बल्कि इसमे एक पहलू बे गैरती का भी है और ये अमल अपनी लड़की को फरोख्त करने के मुशाबे है,*
*"❀_ और बाज़ जगह जहां ये रस्म पाई जाती है, इसी वजह से शौहर उसके साथ ज़र ख़रीद कनीज़ जेसा सुलूक करता है, लिहाज़ा ये रस्म शरई और अख़लाक़ी लिहाज़ से इन्तेहाई गलत रस्म है और वाजिबुल तर्क है,*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -292)*
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*☞_(144) _ वलीमा की दावत किस अंदाज़ की हो ?*
*❀★_ शादी की तक़रीबात (कार्यक्रम) में वलीमा एक ऐसी तकरीब है जो बा क़ायदा सुन्नत है और आन हज़रत ﷺ ने सराहतन इसकी तरगीब दी है लेकिन अव्वल तो ये याद रखना चाहिए कि ये दावत कोई फ़र्ज़ या वाजिब नहीं है जिसके छोड़ने से निकाह पर कोई असर पड़ता हो, हाँ ये सुन्नत है और हत्तल इम्कान इस पर ज़रूर अमल करना चाहिए,*
*❀★_ दूसरी बात ये है कि इस सुन्नत की अदायगी के लिए शर'अन ना मेहमानों की तादाद मुक़र्रर है और ना खाने का कोई मैयार बल्कि हर शख़्स अपनी इस्तेतात की हद में रहते हुए जिस पैमाने पर चाहे वलीमा कर सकता है, सहीह बुखारी में है कि आन हज़रत ﷺ ने एक वलीमा ऐसा किया जिसमें सिर्फ़ दो सैर जौ खर्च हुए, हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा के निकाह के मौक़े पर वलीमा सफ़र में हुआ और इस तरह हुआ कि दस्तार ख़्वान बिछा दिया गया और उस पर कुछ खजूर, कुछ पनीर और कुछ घी रख दिया गया, बस वलीमा हो गया,*
*❀★_ अलबत्ता हज़रत ज़ेनब रज़ियल्लाहु अन्हा के निकाह के मौक़े पर रोटी और बकरी के गोश्त से दावत की गई, लिहाज़ा वलीमा के बारे में यह समझना दुरुस्त नहीं है कि इसमें मेहमानो की कोई बड़ी तादाद ज़रूरी है, या कोई आला दर्जे का खाना ज़रूर होना चाहिए और अगर किसी शख्स के पास खुद गुंजाइश न हो तो वो क़र्ज़ उधार करके इन चीज़ो का अहतमाम करे, बल्की शरई ऐतबार से मतलूब यही है कि जिस शख्स के पास खुद अपने वसाइल कम हों वो अपनी इस्तेतात के मुताबिक काम कर ले, हां अगर इस्तेतात हो तो ज्यादा मेहमान बुलाने और अच्छे खाने का अहतमाम करने में भी कुछ हर्ज नहीं, बशर्ते कि मक़सद नामो नमूद और दिखावा न हो,*
*❀★_इन हुदूद में रहते हुए वलीमा बेशक मसनून है और इस वलीमा को तरह तरह के गुनाहों से मजरूह करना इसकी ना क़दरी बल्कि तोहीन है, महज शान शौकत का इज़हार और नामो नमूद के अकदामात, तक़रीब की मसरूफियत में नमाजो़ का ज़ाया करना, सजे बने मर्दो औरतों का बेहिजाब मेल जोल, उनकी फिल्म बंदी और इस क़िस्म के दूसरे मुंकिरात इस क़िस्म की तक़रीब पर पानी फ़ैर देते हैं, जिनसे इस बा बरकत तक़रीब को बचाना चाहिए,*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -93)*
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*☞_(145) क्या मसनून वलीमा के लिए दूल्हे दुल्हन के दरमियान ताल्लुक़ात क़ायम होना ज़रूरी है?*
*❀★_ वलीमा के बारे में एक और ग़लत फ़हमी ख़ासी फ़ैली हुई है, जिसकी वजह से बहुत से लोग अपनी परेशानियों का ज़िक्र करते हुए इस नुक्ते की वज़ाहह चाहते हैं कि ग़लत फ़हमी ये है कि अगर दूल्हा दुल्हन के दरमियान ताल्लुक़ात क़ायम न हो पाए तो वलीमा सही नहीं होता,*
*❀★_ वाक़िआ ये है कि वलीमा निकाह के वक़्त से लेकर रुख़सती के बाद तक किसी भी वक़्त हो सकता है, अलबत्ता मुस्तहब ये है कि रुख़सती के बाद हो और रुखसती का मतलब रुखसती ही है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं, यानी ये कि दुल्हन दुल्हा के घर आ जाए और दोनो की तन्हाई में मुलाक़ात हो जाए और बस, लिहाज़ा अगर किसी वजह से दोनो के दरमियान ताल्लुक़ात ज़न व शू क़ायम न हुआ हो तो इससे वलीमा की सहत पर कोई असर नहीं पड़ता,*
*❀★_ न वलीमा ना- जाइज़ होता है और न ये समझना चाहिए कि इस तरह वलीमा की सुन्नत अदा नहीं होती, बल्कि वलीमा अगर रुखसती ही से पहले मुन'क़द कर लिया जाए तब भी वलीमा अदा हो जाता है, सिर्फ़ इसका मुस्तहब वक़्त हासिल नहीं होता, (यहाँ दलाइल की तफ़सील में जाने का मौक़ा नहीं है, जो हज़रात दलाइल से दिलचस्पी रखते हों अल्लामा इब्ने हजर की फ़तहुल बारी में सफ़ा 231 जिल्द 9 पर बाबुल वलीमा के तहत हदीस नंबर 5166 की तशरीहात मुलाहिज़ा फ़रमा लें),*
*®_ (ज़िक्र व फ़िक्र -295)*
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*☞_(146) क्या दुल्हन का ज़बान से "क़ुबूल है" कहना ज़रूरी है या निकाह के नाम पर दस्तख़त कर देना ही काफ़ी है?*
*"❀★__ एक सवाल ये है कि निकाह के वक़्त जब लड़की के घर वाले लड़की से इजाज़त लेते हैं तो क्या लड़की का अपनी ज़ुबान से मंज़ूरी का कहना ज़रूरी है या निकाह नामे पर दस्तख़त कर देना काफ़ी है? इस सिलसिले में अर्ज़ है कि हमारे यहाँ शादियाँ अमूमन इस तरह होती है कि दुल्हन खुद निकाह की महफ़िल में मौज़ूद नहीं होती, बल्की दुल्हन के घर वालों में से कोई निकाह से पहले उससे इजाज़त लेता है जो दुल्हन की तरफ़ से वकील की हैसियत रखता है और निकाह नामे में भी उसका नाम वकील के कॉलम में दर्ज होता है,*
*"❀★__ जब ये वकील लड़की से इजाज़त लेने जाता है तो ये निकाह का इजाब और कुबूल नहीं होता बल्की महज़ लड़की से निकाह की इजाज़त ली जाती है, इसमें इजाज़त लेने वाले को लड़की से ये कहना चाहिए कि मैं तुम्हारा निकाह फलां वल्द फलां से इतने मेहर पर करना चाहता हूं, क्या तुम्हें ये मंजूर है? अगर लड़की कुंवारी है तो ज़बान से उसका मंजूर है कहना ज़रूरी नहीं है लेकिन इतना भी काफ़ी है कि वो इंकार न करे, अलबत्ता ज़बान से मंजूरी का इज़हार कर दे तो और अच्छा है और अगर सिर्फ़ निकाह नामे पर दस्तख़त कर दे तो भी इजाज़त हो जाती है,*
*"❀★__ अलबत्ता अगर कोई औरत पहले शादी शुदा रह चुकी है और अब ये उसकी दूसरी शादी है तो उसका ज़बान से मंजूरी का इज़हार ज़रूरी है, इस सूरत के बगेर उसे मंजूरी नहीं समझा जायेगा,*
*"❀★__ जब लड़की से इस तरह इजाज़त ले ली जाती है तो जिस शख़्स ने इजाज़त ली है वो बा हैसियत वकील निकाह करने का अख़्तियार क़ाज़ी को दे देता है और फ़िर क़ाज़ी जो अलफ़ाज़ दुल्हा से कहता है वो निकाह का इजाब है और दुल्हा जो जवाब देता है कुबूल है और इन दोनो कलमात से निकाह की तकमील हो जाती है,*
*®_ (ज़िक्र व फ़िक्र -295)*
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*☞_(147) निकाह में लड़के-लड़की और दोनों के खानदान में बराबरी और कफ़ू का क्या मैयार है-1?*
*"❀★_ ये बात अक्सर देखने में आती है कि लोग बिरादरी में निकाह करने के बारे में तरह-तरह की गलत फहमियों का शिकार है, ये दुरुस्त है कि शरीयत ने निकाह के मामले में एक हद तक कफ़ू की रियायत रखी है लेकिन इसका मक़सद ये है कि निकाह चुंकी जिंदगी भर का साथ होता है इसलिए मियाँ बीवी और दोनों खानदानों के दरमियान बराबरी हो, उनके रहन सहन, उनके तर्जे फिक्र और उनके मिज़ाज में इतनी दूरी न हो कि एक दूसरे के साथ निबाह करने में मुश्किल पेश आए,*
*"❀★_ लेकिन अव्वल तो कफ़ू की इस रियायत का ये मतलब हरगिज़ नहीं है के अगर कफ़ू में कोई रिश्ता न मिले तो ये क़सम खाली जाए कि अब ज़िन्दगी भर शादी ही नहीं हो सकेगी, दूसरे कफ़ू का ये मतलब नहीं है कि ख़ास अपनी बिरादरी के बाहर से जो भी रिश्ते आए उन्हें गैर कफ़ू क़रार दिया जाए, इस सिलसिले में कुछ बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए, जिन्हें नज़र अंदाज़ करने से हमारे मा'शरे में बड़ी ग़लत फ़हमियाँ फ़ैली हुई हैं:-*
*"❀★_(1) हर वो शख़्स किसी लड़की का कफ़ू है जो अपनी ख़ानदानी हसब नसब, दीनदारी और पेशे के लिहाज़ से लड़की और उसके खानदान का हम पल्ला हों, यानी कफ़ू में होने के लिए अपनी बिरादरी का फ़र्द होना ज़रूरी नहीं, बल्की अगर कोई शख्स किसी और बिरादरी का है लेकिन उसकी बिरादरी भी लड़की की बिरादरी के हम पल्ला समझी जाती है तो वो भी लड़की का कफ़ू है, कफ़ू से बाहर नहीं है,*
*"❀★_ मसलन सैय्यद सिद्दीकी फ़ारूक़ी उस्मानी अल्वी बल्कि तमाम कुरैशी बिरादरियां आपस में एक दूसरे के लिए कफ़ू हैं, इसी तरह जो मुख़्तलिफ़ मोअज़्ज़िज़ बिरादरियां हमारे मुल्क में पाई जाती है मसलन खान पठान, (मुस्लिम) राजपूत वगैरा वो भी अक्सर एक दूसरे के हम पल्ला समझी जाती है और एक दूसरे के लिए कफू है,*
*"❀_(2) बाज़ अहादीस और रिवायात में ये तरगीब ज़रूर दी गई है कि निकाह कफ़ू में करने की कोशिश की जाए, ताकि दोनो खानदानो के मिज़ाज आपस में मिल सके लेकिन ये समझना गलत है कि कफ़ू से बाहर निकाह शर'अन बिलकुल नाजाइज़ है, या ये कि कफ़ू से बाहर निकाह शर'अन दुरुस्त नहीं होता, हक़ीक़त ये है कि अगर लड़की और उसके वाल्डेन कफ़ू से बाहर निकाह करने पर राज़ी हो तो कफ़ू से बाहर किया हुआ निकाह भी शर'अन मुनअक़द हो जाता है और उसमें ना कोई गुनाह है ना कोई ना-जा'इज़ बात है,*
*★_ लिहाज़ा अगर किसी लड़की का रिश्ता कफ़ू में मयस्सर ना आ रहा हो और कफ़ू से बाहर कोई मुनासिब रिश्ता मिल जाए तो वहाँ शादी कर देने में कोई हर्ज नहीं है, कफ़ू में रिश्ता ना मिलने की वजह से लड़की को उम्र भर बगैर शादी के बिठाए रखना किसी तरह जा'इज़ नहीं,*
*★_ (3) शरीयत ने यह हिदायत ज़रूर दी है कि लड़की को निकाह बगैर वली के नहीं करना चाहिए (ख़ास तौर से अगर कफ़ू से बाहर निकाह करना हो तो ऐसा निकाह अक्सर फ़ुक़्हा किराम के नज़दीक बगैर वली के दुरुस्त नहीं होता) लेकिन वली को भी ये चाहिए कि वो कफ़ू की शर्त पर इतना ज़ोर न दे जिसके नतीजे में लड़की उम्र भर शादी से महरूम हो जाए और बिरादरी की शर्त पर इतना ज़ोर देना और भी ज़्यादा बे-बुनियाद और बेकार हरकत है, जिसका कोई जवाज़ नहीं है,*
*★_ एक हदीस में हुज़ूर अक़दस ﷺ का इरशाद है - जब तुम्हारे पास कोई ऐसा रिश्ता लेकर आए जिसकी दीनदारी और अख़लाक़ तुम्हें पसंद हों तो उससे (अपनी लड़की का) निकाह कर दो, अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो ज़मीन में बड़ा फ़ितना और फ़साद बरपा होगा _,*
*®_ ( ज़िक्र व फिक्र -316)*
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*☞_(148) क्या बीवी से मेहर माफ़ कराना या खर्च में कमी करना सही है?*
*"❀_ सारी ज़िंदगी में बेचारी औरत का एक ही माली हक़ शोहर के ज़िम्मे वाजिब है, वो है मेहर, वो भी शोहर अदा नहीं करता, होता ये है कि सारी ज़िंदगी तो मेहर अदा नहीं किया, जब मरने का वक़्त करीब आया तो बिस्तर पर पड़े हैं, दुनिया से जाने वाले हैं, रुखसती का मंज़र है, उस वक़्त बीवी से कहते हैं कि मेहर माफ़ कर दो, अब इस मौक़े पर बीवी क्या करे?*
*"❀_ क्या रुखसत होने वाले शोहर से ये कह कर कि मै माफ़ नहीं करती, चुनांचे उसको मेहर माफ़ करना पड़ता है, सारी उम्र उससे फ़ायदा उठाया, सारी उम्र तो उससे हुकूक तलब किए लेकिन उसका हक़ देने का वक़्त आया तो उसमें डंडी मार गए,*
*"❀_ ये तो मेहर की बात थी, नफ़्क़ा (ख़र्चा) के अंदर शरीयत का ये हुक्म है कि उसको इतना नफ़्क़ा दिया जाए कि वो आज़ादी और इत्मीनान के साथ गुज़ारा कर सके, अगर उसमें कमी करेगा तो ये भी कम नापने और कम तोलने के अंदर दाख़िल है और हराम है,*
*"❀_ ख़ुलासा ये है कि जिस किसी का कोई हक़ दूसरे के ज़िम्मे वाजिब हो वो उसको पूरा पूरा अदा करे, उसमें कमी ना करे,*
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*☞_(149) क्या घरेलु काम काज बीवी की ज़िम्मेदारी नहीं है?*
*"❀_ मियाँ बीवी का ताल्लुक़ अहसान पर क़ायम है, ये जो कहा जाता है कि औरत के ज़िम्मे खाना पकाने की और सास ससुर की ख़िदमत की ज़िम्मेदारी नहीं है ये एक क़ानून की बात है, लेकिन ज़िंदगी क़ानून के ख़ुश्क़ ताल्लुक़ से नहीं चला करती,*
*"❀_ जिस तरह से क़ानूनन औरत के ज़िम्मे खाना पकाना नहीं है उसी तरह से अगर औरत बीमार हो जाए तो क़ानूनन शोहर के ज़िम्मे उसका इलाज कराना या इलाज के लिए खर्चा देना भी ज़रूरी नहीं है और क़ानूनन शोहर के ज़िम्मे ये भी नहीं है कि वो औरत को उसके वाल्देन के घर मुलाक़ात के लिए ले जाए और ना ये ज़रूरी है कि जब औरत के माँ बाप अपनी बेटी से मुलाक़ात के लिए आएं तो उनको अपने घर में बिठाए, बल्की फ़ुक़हा किराम ने यहाँ तक लिखा है कि हफ़्ते में सिर्फ़ एक दिन बीवी के माँ बाप आएं और दूर से मुलाक़ात और ज़ियारत करके चले जाएँ, घर में बैठ कर मुलाक़ात कराना शोहर के ज़िम्मे ज़रूरी नहीं,*
*"❀_ अगर क़ानून के ख़ुश्क़ ताल्लुक़ की बुनियाद पर अगर ज़िंदगी बसर की जाए तो दोनो का घर बर्बाद हो जाए, बात जब चलती है कि जब दोनो मियाँ बीवी क़ानून की बात से आगे बढ़कर सुन्नते रसूलल्लाह ﷺ की इत्तेबा करें और बीवी अज़वाज मुताहरात की सुन्नत की इत्तेबा करें, अगर बीवी खुशदिली से अपनी स'आदत मंदी समझ कर अपने शोहर के वाल्देन की जितनी खिदमत करेगी, इंशा अल्लाह उसके अजर में बहुत इज़ाफ़ा होगा और बहू को ऐसा करना भी चाहिए ताकि घर की फ़िज़ा खुशगवार रहे,*
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*☞_(150) तलाक देने का सही तरीक़ा क्या है?-*
*"❀_ ये देख कर दुख होता है कि हमारे मा'शरे में इस्लामी तालीमात से ना-वक़फियत इतनी बढ़ गई है कि जो सामने की बातें पहले बच्चे बच्चे को मालूम होती थी, अब बड़े बड़ों को भी मालूम नहीं होती, तलाक़ के बिलकुल इब्तिदाई अहकाम से भी आम लोग वाकिफ़ नहीं हैं और इस बारे में तरह तरह की ग़लत फेहमियां आम हो चुकी हैं,*
*"❀_ सबसे पहली ग़लती तो ये है कि बहुत से लोगों ने तलाक़ को गुस्सा निकालने का एक ज़रिया समझा हुआ है, जहाँ मियाँ बीवी में कोई इख़्तिलाफ़ पेश आया और नोबत गुस्से और इस्त'आल तक पहुँची, शोहर ने फौरन तलाक़ के अल्फाज़ जुबान से निकाल दिए, हालांकि तलाक़ कोई गाली नहीं है जो गुस्सा ठंडा करने के लिए दे दी जाए, ये निकाह का रिश्ता खत्म करने का वो इंतेहाई अक़दाम है जिसके नतीजे बड़े संगीन हैं,*
*"❀_ इससे सिर्फ निकाह का रिश्ता ही खत्म नहीं होता बल्की खानदानी ज़िंदगी के बहुत से मसाइल खड़े हो जाते हैं, मियाँ बीवी एक दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं, बच्चों की परवरिश का निजाम दरहम बरहम हो जाता है, अमलाक की तक़सीम में पेचीदगी पैदा होती है, महर, नफ़्क़ा और इद्दत के मामले पर इसका असर पड़ता है, ग़र्ज़ ना सिर्फ़ मियाँ बीवी की औलाद बल्की पूरे खानदान पर इसका असर पड़ता है,*
*"❀_ यही वजह है कि इस्लाम ने जहाँ तलाक़ की इजाज़त दी है, वही ये वो चीज़ है जो अल्लाह ताला को सबसे ज़्यादा मबगूज़ और ना-पसंदीदा है, ईसाई मज़हब का असल तसव्वुर यह था कि मियाँ बीवी जब एक मर्तबा निकाह के रिश्ते में बंध जाएँ तो अब तलाक़ देने या लेने का कोई रास्ता नहीं है, बाइबिल में तो तलाक़ को बदकारी के बराबर क़रार दिया गया है, इस्लाम चुंकी दीने फ़ितरत है इसलिए इसने तलाक़ के बारे में यह सख्त रवैय्या तो अख्तर नहीं किया, इसलिए कि मियाँ बीवी की ज़िंदगी में बाज़ औक़ात ऐसे मरहले पेश आ जाते हैं जब दोनो के लिए इसके सिवा कोई चारा नहीं रहता कि वो शराफ़त के साथ एक दूसरे से अलग हो जाएं, ऐसे मौके पर निकाह के रिश्ते को उन पर ज़बरदस्ती थोपे रखना दोनो की ज़िंदगी को अज़ाब बना सकता है,*
*❀_इसलिए इस्लाम ने तलाक को ना- जायज़ या हराम तो क़रार नहीं दिया और ना इसके असबाब मुतय्यन किये जो अलहैदगी के मामले में मियाँ बीवी के हाथ पांव बाँध कर डाल दे लेकिन अव्वल तो आन हज़रत ﷺ ने साफ-साफ फरमाया कि मुबाह (जायज़) की चीज़ो में अल्लाह ताला को सबसे ज्यादा ना-पसंद तलाक़ है, दूसरे मियाँ बीवी को ऐसी हिदायत दी है कि उन पर अमल किया जाए तो तलाक की नौबत कम से कम आये, तीसरे अगर तलाक़ की नौबत आ ही जाये तो इसका ऐसा तरीक़ा बताया है जिसमे ख़राबियाँ कम से कम हो, आज अगर लोग इन हिदायतों व अहकाम को अच्छी तरह से समझ लें और इन पर अमल करें तो न जाने कितने घरेलु तनाज़े और खानदानी मसले खुद बा खुद हल हो जाएँ,*
*"❀_जहाँ तक उन हिदायतों का ताल्लुक़ है जो तलाक़ को रोकने के लिए दी गई है उनमें सबसे पहली हिदायत तो आन हज़रत ﷺ ने ये दी है कि अगर किसी शोहर को अपनी बीवी की कोई बात नापसंद है तो उसकी अच्छी बातों पर भी गौर करना चाहिए, मक़सद ये है कि दुनिया में कोई शख्स बे ऐब नहीं होता, अगर किसी में एक ख़राबी है तो दस अच्छाइयाँ भी हो सकती हैं, एक ख़राबी को ले बैठना और दस अच्छाइयों से आँखे बंद कर लेना इंसाफ के भी खिलाफ़ है और इससे कोई मसला हल भी नहीं हो सकता,*
*"❀_ बल्की कुरआन ए करीम ने यहाँ तक फरमाया है कि अगर तुम्हें अपनी बीवी की कोई बात नापसंद है तो (ये सोचो) शायद तुम जिस चीज़ को बुरा समझ रहे हो, अल्लाह ताला ने उसमें तुम्हारे लिए कोई बड़ी भलाई रखी हो_, (सूरह निसा-19)*
*"❀_ दूसरी हिदायत क़ुरान ए करीम ने ये दी है कि जब मियाँ बीवी आपस में अपने इख्तिलाफ़ तय न कर सके और नरम गरम हर तरीक़े आज़माने के बाद भी तनाज़े बरक़रार रहें तो फौरन अलहैदगी का फैसला करने के बजाए दोनो के खानदान वाले एक एक शख्स को सालिस (बिचोलिया) बनाएं और दोनों तरफ के नुमाइंदे आपस में ठंडे दिल से हालात का जायज़ा ले कर मियाँ बीवी के दरमियान तनाज़े खत्म करने की कोशिश करें,*
*"❀_ साथ ही अल्लाह ताला ने ये भी फरमाया है कि अगर दोनो नेक नियति से इसलाह की कोशिश करेंगे तो अल्लाह ताला उनके दरमियान मुवाफ़क़त पैदा फरमा देगा_, (सूरह निसा-35)*
*"❀_ लेकिन अगर ये तमाम कोशिशें बिलकुल नाकाम हो जाएँ और तलाक़ ही का फैसला कर लिया जाए तो अल्लाह ताला ने कुरान ए करीम में ये हुक्म दिया है कि शोहर इसके लिए मुनासिब वक्त का इंतज़ार करे, मुनासिब वक्त की तशरीह आन हज़रत ﷺ ने ये फ़रमाई है कि तलाक़ उस वक्त दिया जाए जब बीवी पाकी की हालत में हो यानी अपनी माहवारी के दौर से फ़ारिग़ हो चुकी हो और फ़रागत के बाद दोनों के दरमियान वज़ीफ़ा ज़ौज़ियत (सोहबत) अदा करने की नौबत ना आई हो, अगर औरत पाकी की हालत में ना हो तो उस वक्त तलाक़ देना शर'अन गुनाह है, और अगर पाकी ऐसी हो कि उसमें मिया बीवी के दरमियान अज़्दवाजी क़ुरबत हो चुकी हो तब भी तलाक़ देना शर'अन जायज़ नहीं, ऐसी सूरत में तलाक देने के लिए शोहर को अगले महीने तक इंतज़ार करना चाहिए,*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -319)*
*"❀_ इस तरीक़े में यूं तो बहुत मसलिहतें हैं लेकिन एक मसलिहत ये भी है कि तलाक़ किसी वक्ती मुनाफ़रत या झगड़ें की नतीज़ा न हो, शोहर को मुनासिब वक्त के इंतज़ार का हुक्म इसलिए भी दिया गया है कि इस तरह से वो तमाम हालात पर अच्छी तरह गौर कर लें,और जिस तरह से निकाह सोच समझ कर हुआ था उसी तरह से तलाक़ भी सोच समझ कर ही दी जाए, चुनांचे ऐन मुमकिन है कि इंतज़ार के नतीज़े में दोनों की राय बदल जाए, हालात बेहतर हो जाए और तलाक की नोबत ही ना आए,*
*"❀_ फिर अगर मुनासिब वक्त आ जाने पर भी तलाक का इरादा बरक़रार रहे तो शरियत ने तलाक देने का सही तरीक़ा यह बतलाया है कि शोहर सिर्फ एक तलाक देकर खामोश हो जाए, इस तरह एक रजई तलाक हो जाएगी, जिसका हुक्म यह है कि इद्दत गुज़र जाने पर निकाह का रिश्ता शराफत के साथ खुद ब खुद खत्म हो जाएगा और दोनों अपने अपने मुस्तक़बिल के लिए कोई फैसला करने में आज़ाद होंगे,*
*"❀_ इस तरीक़े में फायदा यह है कि तलाक देने के बाद अगर मर्द को अपनी गलती का अहसास हो और वो समझे कि हालात अब बेहतर हो सकते हैं तो वो इद्दत के दौरन अपनी दी हुई तलाक से रुजू कर सकता है, जिसके लिए जुबान से इतना कह देना काफी है कि मैंने तलाक से रुजू कर लिया, इस तरह निकाह का रिश्ता खुद ब खुद ताज़ा हो जाएगा,*
*"❀_ और अगर इद्दत भी गुज़र गई हो और दोनो मियाँ बीवी ये समझे कि अब उन्होंने सबक सीख लिया है और आइंदा वो मुनासिब तरीके से जिंदगी गुज़ार सकते हैं, तो उनके लिए ये रास्ता खुला हुआ है कि वो आपसी रजामंदी से दोबारा अज़ सरे नो निकाह कर लें (जिसके लिए नया इजाब और कुबूल, गवाह और मेहर सब जरूरी है)*
*"❀_ अगर मज़कूरा सहूलियत से फ़ायदा उठाते हुए मियाँ बीवी ने फिर से निकाह का रिश्ता ताज़ा कर लिया हो और फिर किसी वजह से दोनों के दरमियान तनाज़ा खड़ा हो जाए, तब भी दूसरा तलाक देने में जल्दी न करनी चाहिए, बल्कि उन तमाम हिदायतों पर अमल करना चाहिए जो पहले बयान हुई है, उन तमाम हिदायतों पर अमल के बावजूद अगर शोहर फिर तलाक़ का फैसला करे तो इस मर्तबा भी एक ही तलाक देना चाहिए, अब मज़मूई तौर पर दो तलाक़ हो जाएंगी लेकिन मामला इसके बावजूद मियाँ बीवी के हाथ में रहेगा, यानी इद्दत के दौरान शोहर फिर रुजू कर सकता है और इद्दत गुज़रने के बाद दोनो आपसी रजा़मन्दी से फिर तीसरी बार निकाह कर सकते हैं,*
*"❀_ ये है तलाक का वो तरीका जो कुरान व हदीस में बयान हुआ है और इससे अंदाज़ा हो सकता है कि कुरान व सुन्नत ने निकाह के रिश्ते को बरकरार रखने और टूटने से बचाने के लिए दर्जा बा दर्जा कितने रास्ते रखे हैं, हाँ अगर कोई शख्स इन तमाम दर्जों को फलांग जाए तो फिर निकाह व तलाक आँख मिचोली का कोई खेल नहीं है जो गैर महदूद ज़माने तक जारी रखा जाए, लिहाज़ा जब तीसरा तलाक भी दे दिया जाए तो शरियत का हुक्म ये है कि अब निकाह को ताज़ा करने का कोई रास्ता नहीं, अब ना शोहर रुजू कर सकता है ना मियाँ बीवी आपस में रजामन्दी से नया निकाह कर सकते हैं, अब दोनो को अलहैदा होना ही पड़ेगा,"*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -322)*
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*☞_(151) क्या अल्हैदगी के लिए तीन तलाक देना ज़़रूरी है या एक तलाक ही काफ़ी है?*
*"❀_ हमारे मा'शरे में तीन तलाक के बारे में इंतेहाई संगीन ग़लत फेहमी ये फैल गई है कि तीन से कम तलाक को तलाक ही नहीं समझा जाता, लोग ये समझते हैं कि अगर तलाक का लफ़्ज़ एक या दो मर्तबा बोला जाए तो उससे तलाक ही नहीं होती, चुनांचे जब कभी तलाक की नोबत आती है तो लोग तीन तलाक से कम पर बस नहीं करते और कम से कम तीन मर्तबा तलाक का लफ़्ज़ इस्तेमाल करना ज़रूरी समझते हैं,*
*"❀_ हालांकि जैसा कि पहले अर्ज़ किया गया कि तलाक़ सिर्फ़ एक मर्तबा कहने से भी हो जाती है, बल्की शरीयत के मुताबिक तलाक़ का सही और अहसन तरीक़ा यही है कि सिर्फ़ एक मर्तबा तलाक़ का लफ़्ज़ कहा या लिखा जाए, इस तरह तलाक़ तो हो जाती है लेकिन अगर बाद में सोच समझ कर निकाह का रिश्ता ताज़ा करना हो तो उसके दरवाज़े किसी के नज़दीक मुकम्मल तौर पर बंद नहीं होते,"*
*"❀_ बल्की एक साथ तीन मर्तबा तलाक़ का लफ़्ज़ इस्तेमाल करना शर'अन गुनाह है और हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हंबली चारो फ़िक़ही मकातिबे फ़िक्र के नज़दीक इस गुनाह की एक सज़ा ये है के उसके बाद रुजू या नये निकाह का कोई रास्ता नहीं रहता और जो लोग इन फिकही मकातिबे फिक्र से ताल्लुक़ रखते हैं उन्हें अक्सर तीन तलाक एक साथ देने के बाद शहीद मुश्किलात का सामना करना पड़ता है,*
*"❀_ लिहाज़ा तलाक के मामले में सबसे पहले तो ये गलत फहमी दूर करने की ज़रूरत है कि एक मर्तबा तलाक का लफ्ज इस्तेमाल करने से तलाक नहीं होती और ये बात अच्छी तरह से लोगों में आम करनी ज़रुरी है कि तलाक का सही और अहसन तरीका यही है कि सिर्फ एक मर्तबा तलाक़ का लफ्ज इस्तेमाल किया जाए, इससे ज़्यादा नहीं,*
*"❀_ अगर इद्दत के दौरान शोहर के रुजू का हक़ खत्म करना मकसूद हो तो एक तलाक बा'इन दे दी जाए, यानी तलाक के साथ बा'इन का लफ्ज़ भी मिला लिया जाए तो शोहर को एक तरफा तोर पर रुजू का हक नहीं रहेगा, अलबत्ता आपस में रजा़मन्दी से दोनो मियाँ बीवी जब चाहे नया निकाह कर सकेंगे,*
*❀"_ ये बात कि तलाक का अहसन तरीका यही है कि सिर्फ एक तलाक दी जाए, पूरी उम्मते मुस्लिमा में किसी मकतबे फिक्र का इख्तिलाफ नहीं है, उलमा किराम अपने खुतबो में इस मसले को अवाम के सामने वाज़े करें और ज़राए अबलाग के जरिए भी तलाक के ये अहकाम लोगों तक पहुंचाये जाएं,*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -322)*
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*☞_(152) क्या लिबास का ताल्लुक़ कौम और मुल्क के हालात से है?*
*"❀_ आज कल हमारे दौर में ये प्रोपोगंडा बड़ी कसरत से किया गया है कि लिबास तो ऐसी चीज है जिसका हर क़ौम और हर वतन के हालात से ताल्लुक़ होता है, इसलिए अगर आदमी अपनी मर्ज़ी और माहौल के मुताबिक़ कोई लिबास अख़्त्यार कर ले तो इसके बारे में शरियत के बीच में लाना और शरीयत के अहकाम सुनाना तंग नज़री की बात है और ये जुमला तो लोगों से बा कसरत सुनने में आता है कि इन मोलवियों ने अपनी तरफ से क़ैद और शर्तें लगा दी है, वर्ना दीन में तो बड़ी आसानी है,*
*"❀_ खूब समझ लीजिए कि लिबास का मामला इतना सादा और इतना आसान नहीं है कि आदमी जो चाहे लिबास पहनता रहे और इस लिबास की वजह से उसके दीन पर और उसके अखलाक़ पर, उसकी जिंदगी पर, उसके तर्ज़े अमल पर कोई असर ना पड़ता हो, ये एक सच्ची हक़ीक़त है जिसको शरियत ने तो हमेशा बयान फरमाया और अब नफ्सियात और साइंस के माहिरीन भी इस हक़ीक़त को तस्लीम करने लगे हैं कि इंसान के लिबास का उसकी जिंदगी पर, उसके अखलाक़ पर, उसके किरदार पर बड़ा असर पड़ता है,*
*"❀_ लिबास महज़ एक कपड़ा नहीं है, जो इंसान ने उठा कर पहन लिया, बल्कि ये लिबास इंसान के तर्ज़े फ़िक्र पर, उसकी सोच पर, उसकी ज़ेहनियत पर असर अंदाज़ होता है, इसलिए इस लिबास को मामूली नहीं समझना चाहिए,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 5/260)*
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*☞__(153) लोग कहते हैं कि ज़ाहिरी लिबास में क्या रखा है? दिल साफ होना चाहिए?*
*"❀_ आज कल ये जुमला भी बहुत कसरत से सुनने में आता है कि साहब! इस ज़ाहिरी लिबास में क्या रखा है, दिल साफ़ होना चाहिए और हमारा दिल साफ़ है, हमारी नियत अच्छी है, अल्लाह ताला के साथ हमारा ताल्लुक़ क़ायम है, अब अगर ज़रा सा लिबास बदल दिया तो इसमें क्या हर्ज़ है?*
*"❀_ खूब याद रखिए! दीन के अहकाम रूह पर भी हैं, जिस्म पर भी हैं, बातिन पर भी हैं और ज़ाहिर पर भी हैं, क़ुरान करीम का इरशाद है (सूरह अनआम-120):- ज़ाहिर के गुनाह भी छोड़ो और बातिन के गुनाह भी छोड़ो_,*
*"❀_ सिर्फ़ ये नहीं कहा कि बातिन के गुनाह छोड़ो, खूब याद रखिए! जब तक ज़ाहिर ख़राब है तो फिर शैतान का धोखा है कि बातिन ठीक हैं, इसलिए कि ज़ाहिर उसी वक़्त ख़राब होता है जब अंदर से बातिन ख़राब होती हैं, अगर बातिन ख़राब न हों तो ज़ाहिर भी ख़राब नहीं होगा,*
*"❀_ हमारे एक बुज़ुर्ग एक मिसाल देते हैं कि जब कोई फल अंदर से सड़ जाता है तो उसके सड़ने के आसार छिलके पर दाग़ की शक्ल में नज़र आने लगते है और अगर अंदर से वो फल सड़ा हुआ नहीं है तो छिलके पर ख़राबी नज़र नहीं आएगी, छिलके पर उसी वक़्त ख़राबी ज़ाहिर होती है जब अंदर से ख़राब हो,*
*"❀_ इसी तरह जिस शख़्स का ज़ाहिर ख़राब होता है तो ये इस बात की अलामत है कि बातिन में भी कुछ न कुछ ख़राबी ज़रूर है, वर्ना ज़ाहिर ख़राब होता ही नहीं, लिहाज़ा ये कहना कि हमारा ज़ाहिर ख़राब है तो क्या हुआ ? बातिन तो ठीक हैं, याद रखिए! खूब याद रखिये! दीन के अहकाम रूह पर भी हैं, जिस्म पर भी हैं, बातिन पर भी हैं और ज़ाहिर पर भी हैं,*
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*☞_(154) क्या लिबास के बारे में उलमा तंग नज़र हैं?*
*❀_"_ लोग ये कहते हैं कि उलमा जो इस क़िस्म का लिबास पहनने से मना करते हैं, ये तंग नज़री की बात है और ऐसी बात के कहने वालों को भी तंग नज़र कहा जाता है,*
*"❀__ खूब समझ लीजिए कि तुम कितना ही यहूद और नसारा का लिबास पहन लो और कितना ही उनका तरीक़ा अख़्तियार कर लो, मगर तुम फिर भी उनकी निगाह में इज्जत नहीं पा सकते, क़ुरान करीम ने साफ़ साफ़ कह दिया है (सूरह अल बक़रा- 120):-*
*"_ ये यहूद और नसारा तुमसे कभी राज़ी नहीं होंगे, जब तक कि तुम उनकी मिल्लत को अख़्तियार नहीं कर लोगे, उनकी नज़रियात, उनके ईमान, उनके दीन को अख़्तियार नहीं कर लोगे, लिहाज़ा अब तुम अपना लिबास बदल लो, पोशाक बदल लो, सरापा बदल लो, जिस्म बदल लो, जो चाहो बदल लो लेकिन वो तुमसे राज़ी होने को तैयार नहीं _,*
*"❀__ चुनांचे तुमने तजुर्बा कर लिया और सब कुछ कर के देख लिया, सब कुछ उनकी नक़्क़ाली पर फ़ना कर के देख लिया, सर से ले कर पांव तक तुमने अपने आपको बदल लिया, क्या तुमसे वो लोग खुश हो गए? क्या तुमसे राज़ी हो गए? क्या तुम्हारे साथ उन्होंने हमदर्दी का बर्ताव शुरू कर दिया? बल्की आज भी इस लिबास की वजह से उनके दिल में तुम्हारी इज़्ज़त कभी पैदा नहीं हो सकती,*
*®_ (इस्लाही खुतबात- 294)*
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*☞_(155) क्या शरीयत ने कोई लिबास मखसूस नहीं किया ? (1) लिबास के 4 बुनियादी उसूल व मक़सद कुरान व हदीस की रोशनी में:-*
*"❀_ शरीयत ने लिबास के बारे में मोअतदिल (दरमियानी) तालीमात अता फ़रमाई है, चुनांचे शरीयत ने कोई खास लिबास मुक़र्रर करके यह नहीं कहा कि हर आदमी के लिए यह लिबास पहनना ज़रूरी है, ऐसा इसलिए किया कि इस्लाम दीन ए फितरत है और हालात के लिहाज से, मुख्तलिफ मुमालिक के मौसमों के लिहाज से, वहां की जरूरतों के लिहाज़ से, कहीं बारीक, कहीं मोटा, कहीं किसी वज़ा का किसी हैयत का लिबास अख़्तियार किया जा सकता है,*
*"❀_ लेकिन इस्लाम ने लिबास के बारे में कुछ बुनियादी उसूल अता फरमा दिए, उन उसूलों की हर हालत में रिवायत रखना ज़रूरी है, इनको समझ लेना चाहिए_,"*
*"❀_ लिबास के 4 बुनियादी उसूल व मक़सद क़ुरान व हदीस की रोशनी में:-*
*"_ इस आयत में अल्लाह ताला ने लिबास के बुनियादी उसूल बताए हैं, फ़रमाया है (सूरह अल आराफ़-26):-*
*"_ ऐ बनी आदम! हमने तुम्हारे लिए ऐसा लिबास उतारा है जो तुम्हारी पोशीदा और शर्म की चीजों को छुपाता है और जो तुम्हारे लिए ज़ीनत का सबब बनता है और तक़वा का लिबास तुम्हारे लिए सबसे बेहतर है, ये 3 जुमले इरशाद फरमाए और 3 जुमलो में अल्लाह ताला ने मा'नी की कायनात भर दी है,*
*☞_(1) लिबास का पहला बुनियादी उसूल सतर ए औरत:-*
*"❀_ इस आयत में लिबास का पहला मक़सद ये बयान फरमाया है कि वो तुम्हारी पोशीदा और शर्म की चीजों को छिपा सके, लिबास का सबसे बुनियादी मकसद सतर ए औरत है, अल्लाह ताला ने मर्द और औरत के जिस्म के कुछ हिस्सों को औरत क़रार दिया है यानी वो छिपाने की चीज़ है, मर्दो में सतर का हिस्सा जिसको छिपाना हर हाल में ज़रूरी है वो नाफ से ले कर घुटनों तक का हिस्सा है,*
*"❀_ औरत का सारा जिस्म, सिवाय चेहरे और गट्टो तक हाथ के सब का सब औरत है और सतर है जिसका छिपाना ज़रूरी है और खोलना ज़ायज़ नहीं, लिहाज़ा लिबास का बुनियादी मक़सद ये है कि वो शरीयत के मुक़र्रर किये हुए सतर के हिस्सों को छिपा ले, जो लिबास इस मक़सद को पूरा न करे शरीयत की निगाह में वो लिबास ही नहीं,*
*☞_ (लिबास के तीन ऐब):-*
*❀_ लिबास के बुनियादी मक़सद को पूरा न करने की तीन सूरतें होती हैं: एक सूरत तो ये है कि वो लिबास इतना छोटा है कि लिबास पहनने के बाद सतर का कुछ हिस्सा खुला रह गया, इस लिबास के बारे में ये कहा जाएगा कि इस लिबास से उसका बुनियादी मक़सद हासिल न हुआ और सतर के खिलाफ हो गया,*
*"❀_ दूसरी सूरत ये है कि उस लिबास से सतर को छिपा तो लिया लेकिन वो लिबास इतना बारीक है कि उससे अंदर का बदन झलकता है,*
*"_ तीसरी सूरत ये है कि लिबास इतना चुस्त है कि लिबास पहनने के बावजूद जिस्म की बनावट और जिस्म का उभार नज़र आ रहा है, ये भी सतर के खिलाफ़ है,*
*"❀_ इसलिए मर्द के लिए नाफ़ से ले कर घुटनो तक का हिस्सा ऐसे कपड़े से छिपाना ज़रूरी है जो इतना मोटा हो कि अंदर से जिस्म ना झलके और वो इतना ढीला ढाला हो कि अंदर के आज़ा को नुमाया ना करे और इतना मुकम्मल हो कि जिस्म का कोई हिस्सा खुला ना रहे और यही तीन चीज़ें औरत के लिबास में भी ज़रूरी है _,"*
*®_( इस्लाही खुतबात- 5/265)*
*☞_-(2) जीनत और खूब सूरती (3) तशबीहा से बचना :-*
*"❀_ लिबास का दूसरा मक़सद अल्लाह ताला ने ये बयान फरमाया है कि हमने इस लिबास को तुम्हारे लिए ज़ीनत की चीज़ और खूबसूरती की चीज़ बनाई है, एक इंसान की खूब सूरती लिबास में है, लिहाज़ा लिबास ऐसा होना चाहिए कि जिसे देख कर इंसान को फरहत हो, बुरी हैयत और बेढंगा ना हो जिसको देख कर दूसरे को नफ़रत और कराहत हो, बल्की ऐसा होना चाहिए जिसको देख कर ज़ीनत का फ़ायदा हासिल हो सके,*
*"❀_ लेकिन अगर लिबास पहनने से ना तो आसाइश मकसद है और ना आराईश मकसूद है बल्की नुमाइश और दिखावा मकसूद है ताकि लोग देखें कि हमने इतना शानदार कपड़ा पहना है और इतना आला दर्जे का लिबास पहना है और ये दिखाना मकसद है कि हम बड़ी दौलत वाले बड़े पैसे वाले हैं और दूसरे पर बड़ाई जताना और रौब जमाना मकसद है, तो ये सब बाते नुमाइश में दाखिल हैं और हराम हैं, इसलिए नुमाइश की खातिर जो भी लिबास पहना जाए वो हराम है,*
*"❀_ लिबास के बारे में शरीयत ने जो तीसरा उसूल बयान फरमाया वो है तशबीहा से बचना यानी ऐसे लिबास को पहनना जिसको पहन कर इंसान किसी क़ौम का फ़र्द नज़र आए और इस मक़सद से वो लिबास पहने ताकि मैं उन जैसा हो जाऊँ, इसको शरीयत में तशबीहा कहते हैं,*
*"❀_ दूसरे लफ़्ज़ों में यूँ कहा जाए कि किसी ग़ैर मुस्लिम क़ौम की नक़्क़ाली की नीयत से कोई लिबास पहनना, इससे क़ता नज़र की वो चीज़ हमें पसंद है या नहीं ? वो अच्छी है या बुरी है ? लेकिन चुंकी फ़लां क़ौम की नक़्क़ाली करनी है, बस उनकी नक़ल के पेशे नज़र उस लिबास को अख़्तियार किया जा रहा है, इसको तशबीहा कहा जाता है, इस नक़ल पर हुज़ूर अक़दस ﷺ ने बड़ी सख़्त वईद इरशाद फ़रमाई है, चुनांचे इरशाद फ़रमाया कि (अबू दाऊद) जो शख़्स किसी क़ौम के साथ तशबीहा अख़्तियार करे, उसकी नक़्क़ाली करे और उन जैसा बनने की कोशिश करे तो वो उन्ही में से है, गोया कि वो मुसलमानों में से नहीं है उसी क़ौम का एक फ़र्द है,*
*"❀_ इसलिए कि ये शख़्स उन्ही को पसंद कर रहा है, उन्हीं से मुहब्बत रखता है, उन्हीं जैसा बनना चाहता है, तो अब तेरा हश्र भी उनके साथ होगा, अल्लाह ताला महफूज़ फरमाए, आमीन,*
*☞_(4) तकब्बुर और बड़ाई से इज्तिनाब:-*
*"❀_ लिबास के बारे में चौथा उसूल ये है कि ऐसे लिबास को पहनना हराम है जिसको पहन कर दिल में तकब्बुर और बड़ाई पैदा हो जाए, चाहे वो लिबास टाट का क्यों न हो, मसलन अगर कोई एक शख्स टाट का लिबास पहने और मकसद ये हो कि ये पहन कर मै लोगों की नजरों में बड़ा दरवेश और सूफी नज़र आऊं और बड़ा मुत्तकी और परहेजगर बन जाऊं और फिर उसकी वजह से दूसरों पर अपनी बड़ाई का ख्याल दिल में आ जाए और दूसरे की तहकी़र पैदा हो जाए तो ऐसी सूरत में वो टाट का लिबास भी तकब्बुर का ज़रिया और सबब है, इसलिए हराम है,*
*"❀_ हज़रत सूफ़ियान सूरी रह. फ़रमाते हैं कि तकब्बुर कपड़े पहनने से नहीं होता बल्की दूसरों की हिकारत दिल में लाने से होता है, इसलिए बाज़ औक़ात एक शख़्स ये समझता है कि मैं बड़ा तवाज़ो वाला लिबास पहन रहा हूँ, हक़ीक़त में उसके अंदर तकब्बुर भरा होता है,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 5/298)*
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*☞_(158) मर्दों के लिए टखने ढांपना जायज़ नहीं :-*
*"❀_ हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुज़ूर अकदस ﷺ ने फ़रमाया है कि जो शख़्स अपने कपड़े को तकब्बुर के साथ नीचे घसीटे तो अल्लाह ताला क़यामत के रोज़ उसको रहमत की निगाह से भी नहीं देखेंगे _,*
*®_( सही बुखारी)*
*"❀_ दूसरी हदीस में हुज़ूर अकदस ﷺ ने फ़रमाया कि मर्द के ज़ेर जामा का जितना हिस्सा टखनों से नीचे होगा वो हिस्सा जहन्नम में जाएगा_,*
*(बुखारी शरीफ़)*
*"❀_ इससे मालूम हुआ कि मर्दों के लिए टखनों से नीचे पायजामा सलवार, पतलून, लुंगी वगेरा पेनहना जायज़ नहीं और इस पर हुज़ूर अकदस ﷺ ने दो वईदे बयान फ़रमाई, एक ये कि टख़नो से नीचे जितना हिस्सा होगा वो जहन्नम में जाएगा और दूसरे ये कि क़यामत के दिन अल्लाह ताला ऐसे शख़्स की तरफ़ रहमत की निगाह से देखेगा भी नहीं,*
*"❀_ अब देखिये के टख़नो से ऊपर ज़ेर जामा पेहनना एक मामूली बात है, अगर एक इंच ऊपर शलवार पहन ली तो इससे क्या आफ़त और मुसीबत आ जाएगी? कौनसा आसमान टूट जाएगा? लेकिन क्या अल्लाह ताला की नाराज़गी से बच जाओगे और अल्लाह ताला की नज़रे रहमत हासिल होगी और ये ऐसा गुनाह है कि जिसमें पूरी क़ौम मुब्तिला है किसी को फिक्र ही नहीं,*
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*☞_(159) अगर दिल में तकब्बुर न हो तो क्या टखने छुपाना जायज़ है?*
*"❀_ बाज़ लोग ये प्रोपोगंडा करते हैं कि हुज़ूर अकदस ﷺ ने तक़ब्बुर की वजह से टखने से नीचे इज़ार पहनने को मना फ़रमाया था, लिहाज़ा अगर तक़ब्बुर न हो तो फिर टखने से नीचे इज़ार पहनने में कोई हर्ज नहीं और दलील में यह हदीस पेश करते हैं कि एक मर्तबा हज़रत सिद्दीक़े अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु ने हुज़ूर अकदस ﷺ से फरमाया कि या रसूलल्लाह ! आपने तो फरमाया कि इज़ार को टखने से नीचे न करो लेकिन मेरा इज़ार बार-बार टखनों से नीचे ढलक जाता है, मेरे लिए ऊपर रखना मुश्किल होता है, मैं क्या करुँ? हुजूर अक्दस ﷺ ने फ़रमाया कि तुम्हारा इज़ार जो नीचे ढलक जाता है ये तकब्बुर की वजह से नहीं है बल्कि तुम्हारे उज़्र और मज़बूरी की वजह से ये ढलक जाता है, इसलिए तुम उनमें दाखिल नहीं, (अबू दाऊद)*
*❀"_ अब लोग इस्तदलाल में इस वाक़िए को पेश करके कहते हैं कि हम भी तकब्बुर की वजह से नहीं करते, लिहाज़ा हमारे लिए जायज़ होना चाहिए, बात दर असल में ये है कि ये फैसला कौन करे कि तुम तकब्बुर की वजह से करते हो या तकब्बुर की वजह से नहीं करते? अरे भाई! ये तो देखो कि हुजूर ﷺ से ज़्यादा तकब्बुर से पाक कौन हो सकता है, लेकिन हुजूर अक़दस ﷺ ने कभी ज़िंदगी भर टखने से नीचे इज़ार नहीं पहना,*
*❀"_ इससे मालूम हुआ कि हज़रत सिद्दीक़े अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु को जो इजाज़त दी गई थी वो एक मज़बूरी की वजह से इजाज़त दी गई थी, वो मज़बूरी ये थी कि उनके जिस्म की बनावट ऐसी थी कि बार-बार उनका इज़ार खुद बा खुद नीचे ढलक जाता था, लेकिन तुम्हारे साथ क्या मज़बूरी है? और आज तक आपने कोई ऐसा मुतकब्बिर देखा है जो ये कहे कि मैं तकब्बुर करता हूँ, मैं मुतकब्बिर हुं, इसलिए कि किसी मुतकब्बिर को भी खुद से अपने मुतकब्बिर होने का ख्याल नहीं आता,*
*"❀_ इसलिए शरीयत ने अलामतों की बुनियाद पर अहकाम जारी किए है, ये नहीं कहा कि तकब्बुर हो तो इज़ार ऊंचा रखो, वरना नीचा कर लिया करो, बल्की शरीयत ने बता दिया कि जब इज़ार को नीचे लटका रहे हो बावजूद ये कि हुजूर अक़दस ﷺ ने इससे मना फरमाया है, इसका साफ मतलब ये है कि तुम्हारे अंदर तकब्बुर है, इसलिए हर हालत में इज़ार नीचे लटकाना ना-जायज़ है,*
*"❀_ अगरचे बाज़ फुकहा ने ये लिख दिया है कि अगर तकब्बुर की वजह से नीचे करे तो मकरूह तहरीमी है और तकब्बुर के बगैर नीचे करे तो मकरूह तंजीही है, लेकिन आम मुहक्क़ीन का सही क़ौल ये है और जिस पर उनका अमल भी रहा है कि हर हालत में नीचे करना मकरूह तहरीमी है, इसलिए कि तकब्बुर का पता लगाना आसान नहीं है कि तकब्बुर कहाँ है और कहाँ नहीं? इसलिए इससे बचने का रास्ता यह है कि आदमी टखनों से ऊंचा इजार पहने और तकब्बुर की जड़ ही खत्म कर दी जाए, अल्लाह ताला अपने फ़ज़ल और रहमत से इन उसूलो पर अमल की तौफीक़ अता फरमाए, आमीन,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 5/302)*
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*☞_(160) झूठा मेडिकल सर्टिफिकेट:-*
*"❀_ अफ़सोस कि अब झूठ में आम इब्तिला है, यहाँ तक कि जो लोग हराम व हलाल और जाइज़ व ना-जाइज़ का और शरीयत पर चलने का अहतमाम करते हैं, उनमें भी ये बात नज़र आती है कि उन्होंने भी झूठ की बहुत सी किस्मों को झूठ से ख़ारिज समझ रखा है और ये समझते हैं कि ये झूठ ही नहीं है, हालांकि झूठा काम कर रहे हैं, ग़लत बयानी कर रहे हैं और इसमें दोहरा जुर्म है, एक झूठ बोलने का जुर्म और दूसरे उस गुनाह को गुनाह न समझने का जुर्म,*
*"❀_ चुनांचे एक साहब जो बड़े नेक थे, नमाज़ रोज़ा के पाबंद, अज़कार व अशगाल के पाबंद, बुज़ुर्गों से ताल्लुक़ रखने वाले, एक मर्तबा जब मेरे पास मुलाक़ात के लिए आए, मैंने उनसे पूछा कि अब वापस कब तशरीफ़ ले जा रहे हैं? उन्होंने जवाब दिया कि मैं अभी 8-10 रोज़ और ठहरूँगा, मेरी छुट्टियाँ तो खत्म हो गई अलबत्ता कल ही मैंने मजी़द छुट्टी के लिए एक मेडिकल सर्टिफ़िकेट भिजवा दिया,*
*"❀_ उन्होंने मेडिकल सर्टिफ़िकेट भीजवाने का ज़िक्र इस अंदाज़ से किया कि जिस तरह ये एक मामूल की बात है, उसमें कोई परेशानी की बात ही नहीं, मैंने उनसे पूछा कि मेडिकल सर्टिफिकेट कैसा ? उन्होंने जवाब दिया कि मजी़द छुट्टी लेने के लिए भेज दिया है, वैसे अगर छुट्टी लेता तो छुट्टी नहीं मिलती, इसके जरिए छुट्टी मिल जाएगी, मैंने फिर सवाल किया कि आपने उस मेडिकल सर्टिफिकेट में क्या लिखा था? उन्होंने जवाब दिया कि उसमें ये लिखा था कि ये इतने बीमार हैं और सफ़र के लायक़ नहीं,*
*❀"_ मैंने कहा क्या दीन सिर्फ़ नमाज़ रोज़े का नाम है? ज़िक्र शगल का नाम है? आपके बुज़ुर्गों से ताल्लुक़ है, फिर ये मेडिकल सर्टिफिकेट कैसे जा रहा है? चुंकी नेक आदमी थे इसलिए उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि मैंने आज पहली मर्तबा आपके मुंह से ये बात सुनी कि ये भी कोई गलत काम है, मैंने कहा कि झूठ बोलना और किसको कहते हैं? उन्होंने पूछा कि मज़ीद छुट्टी किस तरह लें? मैंने कहा कि जितनी छुट्टी का हक़ है उतनी छुट्टी लो, मज़ीद छुट्टी लेनी ज़रूरी हो तो बगैर तनख्वाह के ले लो लेकिन ये झूठा सर्टिफिकेट भेजने का जवाज़ तो पैदा नहीं होता,*
*"❀_ आज कल लोग ये समझते हैं कि झूठा मेडिकल सर्टिफिकेट बनवाना झूठ में दाखिल नहीं है और दीन सिर्फ जिक्र व शगल का नाम रख दिया, बाक़ी जिंदगी के मैदान में जाकर झूठ बोल रहा हो तो इसका कोई ख्याल नहीं,*
*®_ (इस्लाही खुतबात- 3/140)*
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*☞_( 161) मुल्क के कानून की पाबंदी करना जरूरी है क्या?*
*"❀_ जिसकी तरफ से आम लोगों को तवज्जो नहीं है और इसको दीन का मामला नहीं समझते, हजरत मुफ्ती शफी साहब रह. फरमाया करते थे कि वादा सिर्फ जुबानी नहीं होता, बल्की वादा अमली भी होता है, मसलन एक शख्स एक मुल्क में बतौर बाशिंदा के रहता है तो वो शख्स अमलन उस हुकूमत से वादा करता है कि मैं आपके मुल्क के क़ानून की पाबंदी करूंगा, लिहाज़ा अब उस शख़्स पर वादे की पाबंदी करना वाजिब है, जब तक उस मुल्क का कानून उसको किसी गुनाह पर मजबूर न करे,*
*"❀_ इसलिए कि अगर कोई कानून उसको गुनाह पर मजबूर कर रहा है तो फिर उस कानून पर अमल करना जायज़ नहीं है, इसलिए कि उसके बारे में हुजूर अक़दस ﷺ का साफ इरशाद है कि ख़ालिक़ की नाफरमानी में किसी मखलूक की इता'अत नहीं,*
*"❀_ लेकिन अगर कोई ऐसा कानून है जो आपको गुनाह और मासियत पर मजबूर नहीं कर रहा है, उस कानून की पाबंदी इसलिए वाजिब है कि आपने अमलन इस बात का वादा किया है कि मैं इस मुल्क के कानून की पाबंदी करूंगा, इसकी मिसाल ये है कि अगर आप किसी मुल्क की शहरीत (नागरिकता) हासिल करना चाहते हैं और दरख़ास्त (आवेदन) देते हुए ये कह रहे हैं कि मैं आपके मुल्क की शहरियत तो चाहता हूं लेकिन आपके मुल्क के कानून पर अमल नहीं करूंगा, तो क्या दुनिया का कोई ऐसा मुल्क है जो आपको शहरियत देने पर तैयार हो जाए ?*
*"❀_ लिहाज़ा जब कोई इंसान किसी मुल्क की शहरियत अख़्तियार करता है तो वो या तो ज़ुबान से या अमलन ये मुआहिदा करता है कि मैं इस मुल्क के क़ानून की पाबंदी करूँगा, जैसे हम इस मुल्क के अंदर पैदा हुए हैं, शहरियत हासिल करने के लिए हमें ज़ुबानी दरख़ास्त देने की ज़रूरत तो पेश नहीं आई लेकिन अमलन ये मुआहिदा कर लिया कि हम इस मुल्क के क़व्वानीन की पाबंदी करेंगे, लिहाज़ा शहरी होने के नाते हम इस मुल्क के क़ानून की पाबंदी करने का अहद कर चुके हैं,*
*®_ इस्लाही ख़ुतबात- 15/272)*
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*☞_(162) अगर किसी मुल्क की हुकूमत ज़ालिम है तो क्या फिर भी क़व्वानीन की पाबन्दी लाज़िम है?*
*"❀_खूब समझ लीजिए कि हुज़ूर अकदस ﷺ ने तो अबू जहल से किये हुए मुआहिदे का भी अहतराम किया, हज़रत हुज़ेफ़ा बिन यमान रज़ियल्लाहु अन्हु मशहूर सहाबी हैं और हुज़ूर ﷺ के राज़दार हैं, जब ये और इनके वाल्देन रज़ियल्लाहु अन्हुम मुसलमान होने के बाद हुज़ूर अकदस ﷺ की खिदमत में मदीना तय्यबा आ रहे थे, रास्ते में उनकी मुलाक़ात अबू जहल से हो गई, उस वक़्त अबू जहल अपने लश्कर के साथ हुज़ूर अकदस ﷺ से लड़ने के लिए बदर जा रहा था,*
*"❀_ अबू जहल ने उन्हें पकड़ लिया और पूछा कि कहां जा रहे हो ? उन्होंने बताया कि हम हुजूर अक्दस ﷺ की खिदमत में मदीना तैय्यबा जा रहे हैं, अबू जहल ने कहा कि फिर तो हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे इसलिए कि तुम मदीना जाकर हमारे खिलाफ जंग में हिस्सा लोगे, उन्होंने कहा कि हमारा मक़सद तो सिर्फ हुजूर ﷺ से मुलाक़ात और जियारत है, हम जंग में हिस्सा नहीं लेंगे, अबू जहल ने कहा कि अच्छा हमसे वादा करो कि वहां जाकर सिर्फ मुलाक़ात करोगे लेकिन जंग में हिस्सा नहीं लोगे, उन्होंने वादा कर लिया, चुनांचे अबू जहल ने उन्हें छोड़ दिया,*
*"❀_ आप हुजूर अकदस ﷺ की खिदमत में पहुंचे, उस वक्त हुजूर अकदस ﷺ अपने सहाबा किराम के साथ गज़वा ए बदर के लिए मदीना मुनव्वरा से रवाना हो चुके थे और रास्ते में मुलाक़ात हो गई, हजरत हुजे़फा ने सारा किस्सा सुना दिया और फिर दरख्वास्त की कि हमारी बड़ी ख्वाहिश है कि हम भी जंग में शरीक हो जाएं और जहां तक उस वादे का ताल्लुक़ है, वो उन्होंने हमारी गर्दन पर तलवार रख कर हमसे वादा लिया था कि हम जंग में हिस्सा नहीं लेंगे और अगर हम वादा नहीं करते तो वो हमें ना छोड़ते, इसलिए हमने वादा कर लिया लेकिन आप हमें इजाज़त दे दें हम इस जंग में हिस्सा ले लें,*
*"❀_ लेकिन सरकारे दो आलम ﷺ ने जवाब में फरमाया नहीं! तुम वादा करके आए हो और जुबान देकर आए हो और इसी शर्त पर तुम्हें रिहा किया गया है कि तुम वहा जाकर मुहम्मद ﷺ की जियारत करोगे लेकिन उनके साथ जंग में हिस्सा नहीं लोगे, इसलिए मैं तुमको जंग में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं देता,*
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*☞_(162) क्या ज़ालिम से किया गया वादा पूरा करना लाज़िम है?-
*"❀_खूब समझ लीजिए कि हुज़ूर अकदस ﷺ ने तो अबू जहल से किये हुए मुआहिदे का भी अहतराम किया, हज़रत हुज़ेफ़ा बिन यमान रज़ियल्लाहु अन्हु मशहूर सहाबी हैं और हुज़ूर ﷺ के राज़दार हैं, जब ये और इनके वाल्देन रज़ियल्लाहु अन्हुम मुसलमान होने के बाद हुज़ूर अकदस ﷺ की खिदमत में मदीना तय्यबा आ रहे थे, रास्ते में उनकी मुलाक़ात अबू जहल से हो गई, उस वक़्त अबू जहल अपने लश्कर के साथ हुज़ूर अकदस ﷺ से लड़ने के लिए बदर जा रहा था,*
*"❀_ अबू जहल ने उन्हें पकड़ लिया और पूछा कि कहां जा रहे हो ? उन्होंने बताया कि हम हुजूर अक्दस ﷺ की खिदमत में मदीना तैय्यबा जा रहे हैं, अबू जहल ने कहा कि फिर तो हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे इसलिए कि तुम मदीना जाकर हमारे खिलाफ जंग में हिस्सा लोगे, उन्होंने कहा कि हमारा मक़सद तो सिर्फ हुजूर ﷺ से मुलाक़ात और जियारत है, हम जंग में हिस्सा नहीं लेंगे, अबू जहल ने कहा कि अच्छा हमसे वादा करो कि वहां जाकर सिर्फ मुलाक़ात करोगे लेकिन जंग में हिस्सा नहीं लोगे, उन्होंने वादा कर लिया, चुनांचे अबू जहल ने उन्हें छोड़ दिया,*
*"❀_ आप हुजूर अकदस ﷺ की खिदमत में पहुंचे, उस वक्त हुजूर अकदस ﷺ अपने सहाबा किराम के साथ गज़वा ए बदर के लिए मदीना मुनव्वरा से रवाना हो चुके थे और रास्ते में मुलाक़ात हो गई, हजरत हुजे़फा ने सारा किस्सा सुना दिया और फिर दरख्वास्त की कि हमारी बड़ी ख्वाहिश है कि हम भी जंग में शरीक हो जाएं और जहां तक उस वादे का ताल्लुक़ है, वो उन्होंने हमारी गर्दन पर तलवार रख कर हमसे वादा लिया था कि हम जंग में हिस्सा नहीं लेंगे और अगर हम वादा नहीं करते तो वो हमें ना छोड़ते, इसलिए हमने वादा कर लिया लेकिन आप हमें इजाज़त दे दें हम इस जंग में हिस्सा ले लें,*
*"❀_ लेकिन सरकारे दो आलम ﷺ ने जवाब में फरमाया नहीं! तुम वादा करके आए हो और जुबान देकर आए हो और इसी शर्त पर तुम्हें रिहा किया गया है कि तुम वहा जाकर मुहम्मद ﷺ की जियारत करोगे लेकिन उनके साथ जंग में हिस्सा नहीं लोगे, इसलिए मैं तुमको जंग में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं देता,*
*"❀_ ये वो मौक़े है जहाँ इंसान का इम्तिहान होता है कि वो अपनी ज़ुबान और अपने वादे का कितना पास करता है, अगर हम जैसा आदमी होता तो हज़ारों तावीलें कर लेता, मसलन वादा सच्चे दिल से तो नहीं किया था या ये तावील करते कि हालाते उज़्र है, हमारे दिलो दिमाग पर हर वक़्त हज़ारों तावीलें मुसल्लत रहती है, चुनांचे कहा जाता है कि इस वक़्त मसलिहत का ये तकाज़ा है चलो शरीयत के इस हुक्म को नज़र अंदाज़ कर दो और ये कहा जाता है कि इस वक़्त मसलिहत इस काम के करने में है, चलो ये काम कर लो,*
*"❀_ क्या अबू जहल से ज़्यादा गुमराह कोई होगा ? अबू जहल से बड़ा कुफ्र करने वाला कोई होगा? लेकिन वो वादा जो हज़रत हुज़ेफ़ा बिन यमान रज़ियल्लाहु अन्हु और उनके वालिद ने अबू जहल से किया था और अबू जहल ने ज़बरदस्ती उनसे वादा लिया था, रसूले करीम ﷺ ने फ़रमाया कि तुम चुंकी अबू जहल से वादा कर चुके हो लिहाज़ा उस वादे की ख़िलाफ़ वर्जी नहीं होगी,*
*"❀_ मालूम हुआ कि जिस शख़्स से आप अहद कर रहे हैं वो चाहे कुफ़्र करने वाला ही क्यों न हो, चाहे वो फ़ासिक़ हो, बद उनवान हो, रिश्वत खोर हो लेकिन जब आपने उससे वादा कर लिया है तो अब उस वादे की पाबंदी आपके ज़िम्मे लाज़िम होगी, उनके ज़ुल्म और उनके फ़िस्क़ व फ़िजूर का गुनाह उनके सर है, उनकी बद उनवानियों का बदला अल्लाह ताला उनको आखिरत में देंगे, वो जाने उनका अल्लाह जाने, हमारा काम ये है कि हमने जो मुआहिदा किया है, हम उसकी पाबंदी करें,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 15/278)*
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*☞ (163)_ ख़यानत की वो सूरतें जिन्हे उमूमन चोरी नहीं समझा जाता :-,*
*"❀_ आन हज़रत ﷺ के इरशादत को मद्देनजर रखते हुए हम अपने हालात का जायज़ा लें तो नज़र आएगा किना जाने कितने शोबो में हम शऊरी या ग़ैर शऊरी तौर पर उन अहकामात की ख़िलाफ़ वर्जी कर रहे हैं,*
*"❀_ हम चोरी और ग़सब यही समझते हैं कि बस कोई शख्स किसी के घर में छुपकर दाखिल हों और उसका सामान चुराए या ताकत का इस्तेमाल करके उसका माल छीने, हालांकि किसी की मर्जी के ख़िलाफ़ उसकी मिल्कियत का इस्तेमाल किसी भी सूरत में हो वो चोरी या ग़सब के गुनाह में दाखिल है,*
*"❀_ इस क़िस्म की चोरी या ग़सब की जो मुख़्तलिफ़ सूरतें हमारे मा'शरे में आम हो गई है और अच्छे ख़ासे पढ़े लिखे लोग भी इनमें मुब्तिला है, उनका शुमार मुश्किल है, फिर भी मिसाल के तौर पर दर्जे ज़ैल है;-*
*"_(1) एक सूरत तो वही है जिसकी तरफ़ हज़रत थानवी रह. के मज़कूरा वाक़िए में इशारा किया गया है, आज ये बात बड़े फ़ख़र से बयान की जाती है कि हम अपना माल रेल या जहाज़ में किराया दिए बगैर निकाल लाए, हालांकि अगर ये काम अफ़सरो की आँख बचा कर किया गया तो इसमें और चोरी में कोई फ़र्क़ नहीं और अगर उनकी रज़ामंदी से किया गया जबकी वो इजाज़त देने का हक़ न रखते थे तो उनका भी इस गुनाह में शरीक होना लाज़िम आया,*
*"❀_(2) बिजली के सरकारी समझने से कनेक्शन ले कर या बगेर कनेक्शन मुफ़्त बिजली का इस्तेमाल चोरी की एक और क़िस्म है जिसका रिवाज़ भी आम हो रहा है और ये गुनाह भी डंके की चोट किया जाता है,*
*"❀_(3) अगर हम किसी शख़्स से उसकी कोई चीज़ माँगते हैं, जबकी हमें ग़ालिब गुमान ये है कि वो ज़ुबान से तो इंकार नहीं कर पाएगा लेकिन देने पर दिल से राज़ी भी न होगा और देगा तो शर्म शर्मी से देगा तो ये भी ग़सब में दाखिल है और ऐसी चीज़ का इस्तेमाल हलाल नहीं, क्यूँकि देने वाले ने खुश दिली के बजाए वो चीज़ दबाव में आकर दी है,*
*"❀_(4)_ अगर किसी शख़्स से कोई चीज़ आरजी इस्तेमाल के लिए ली गई और वादा कर लिया गया कि फलां वक़्त लोटा दी जाएगी लेकिन वक़्त पर लोटाने के बजाए उसे अपने इस्तेमाल में बाक़ी रखा तो इसमे वादा ख़िलाफ़ी का भी गुनाह है और अगर वो मुकर्रर वक्त के बाद उसके इस्तेमाल पर दिल से राज़ी ना तो गसब का गुनाह भी है, यही हाल क़र्ज़ का है कि मुकर्रर तारीख के बाद क़र्ज़ वापस न करना (जबकी कोई शदीद उज्र ना हो) वादा ख़िलाफ़ी और गसब दोनों गुनाहों का मजमुआ है,*
*"❀_(5) अगर किसी शख्स से कोई मकान जमीन या दुकान एक खास वक्त के लिए किराये पर ली गई तो वक्त गुज़रने के बाद मालिक की इजाज़त के बिना अपने इस्तेमाल में रखना भी उसी वादा खिलाफी और गसब दोनों गुनाहों का मजमुआ है,*
*"❀_(6) अगर उधार ली हुई चीज़ को ऐसी बेदर्दी से इस्तेमाल किया जाए जिस पर मालिक राज़ी ना हो तो ये भी गसब की मज़कूरा सूरत में दाख़िल है, मसलन किसी भले मानस ने अपनी गाड़ी दूसरे को इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी तो इसका ये मतलब नहीं है कि इसका ना-जा'इज़ फ़ायदा उठाया जाए, यक़ीनन गसब में दाख़िल और हराम है,*
*"❀_(8) बुक स्टालो में किताबे, रिसाले और अखबार इसलिए रखे जाते हैं कि उनमें से जो पसंद हो लोग उन्हें ख़रीद सके, पसंद करने की ग़र्ज़ से उनको मामूली तोर से देखने की भी आम तोर से इजाज़त होती है लेकिन अगर बुक स्टॉल पर खड़े हो कर किताबो, अख़बारों या रिसालों को बा क़ायदा पढ़ना शुरू कर दिया जाए, जबकि ख़रीदने की नियत ना हो तो ये भी उनका गसिबाना इस्तेमाल है जिसकी शर'अन इजाज़त नहीं है,*
*❀"_ ये चंद सरसरी मिसालें है जो बे साख्ता लिख दी गई, मक़सद ये है कि हम सब मिल कर सोचें कि हम कहां कहां चोरी और गसब के घटिया जुर्म के मुर्तकीब हो रहे हैं?*
*®_( ज़िक्र व फ़िक्र -123)*
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*☞_(164) सूद किसको कहते हैं?*
*"❀_ समझने की बात है कि सूद किसको कहते हैं? सूद क्या चीज़ है? इसकी तारीफ क्या है? जिस वक्त कुरान ए करीम ने सूद को हराम क़रार दिया उस वक्त अहले अरब में सूद का लेन देन मशहूर था और उस वक्त सूद उसे कहा जाता था कि किसी शख़्स को दिए हुए क़र्ज़ पर तय करके किसी भी क़िस्म की ज़्यादा रकम का मुतालबा किया जाए, इसे सूद कहा जाता था,*
*"❀_ मसलन मैंने आज एक शख्स को 100 रुपए बतौर क़र्ज़ दिए और मैं उससे कहूं कि मैं एक महीने के बाद ये रकम वापस लुंगा और तुम मुझे 102 रुपए वापस करना तो यह सूद है,*
*"❀_ पहले से तय करने की शर्त इसलिए लगाई कि अगर पहले से कुछ तय नहीं किया है, मसलन मैंने किसी को 100 रुपए क़र्ज़ दे दिए और मैंने उससे ये मुतालबा नहीं किया कि तुम मुझे 102 रुपए वापस करोगे लेकिन वापसी के वक्त उसने अपनी ख़ुशी से मुझे 102 रुपए दिए और हमारे दरमियान ये 102 रुपए वापस करने की बात तय शुदा नहीं थी, तो ये सूद नहीं है और हराम नहीं है बल्कि जाइज़ है,*
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*☞_(165) कुरान ए करीम ने किस सूद को हराम क़रार दिया है?*
*"❀_ एक ऐतराज़ ये उठाया जाता है कि ये करोबारी (वाणिज्यिक ब्याज) और ये तिजारती क़र्ज़ (वाणिज्यिक ऋण) हुज़ूर अकदस ﷺ के ज़माने में नहीं थे, उस ज़माने में निजी ख़र्च और निजी इस्तेमाल के लिए क़र्ज़ के लिए जाते थे, लिहाज़ा कुरान ए करीम इसको किस तरह हराम क़रार दे सकता है जिसका उस ज़माने में वजूद ही नहीं था, इसलिए बाज़ लोग ये कहते हैं कि कुरान ए करीम ने जिस सूद को हराम क़रार दिया है वो ग़रीबो और फ़क़ीरो वाला सूद था और ये करोबारी सूद हराम नहीं है,*
*"❀_ पहली बात तो ये है कि किसी चीज़ के हराम होने के लिए ये बात ज़रूरी नहीं है कि वो इस ख़ास सूरत में हुज़ूर अकदस ﷺ के ज़माने में भी पाई जाए और हुज़ूर ﷺ के ज़माने में इसी अंदाज़ से उसका वजूद भी हो, क़ुरान ए करीम जब किसी चीज़ को हराम क़रार देता है तो उसकी एक हक़ीक़त उसके सामने होती है और उस हक़ीक़त को वो हराम करार देता है, चाहे उसकी कोई ख़ास सूरत हुज़ूर अकदस ﷺ के ज़माने में मोजूद हो या ना हो,*
*"❀_ इसकी मिसाल यूं समझें कि क़ुरान ए करीम ने शराब को हराम क़रार दिया है और शराब की हक़ीक़त ये है कि ऐसा मशरूब जिसमें नशा हो, अब अगर कोई शख़्स ये कहने लगे कि साहब! आज कल ये व्हिस्की, बीयर और ब्रांडी हुजूर अकदस ﷺ के ज़माने में तो नहीं पाई जाती थी लिहाज़ा ये हराम नहीं है, तो ये बात सही नहीं है,*
*"❀_ इसलिए कि हुजूर अकदस ﷺ ने इसको हराम क़रार दे दिया था, लिहाज़ा अब वो हमेशा के लिए हराम हो गई, अब चाहे शराब की नई शक्ल आ जाए और उसका नाम चाहे व्हिस्की रख दिया जाए या ब्रांडी रख लो या बीयर रख लो या कोक रख लो, नशा आवर मशरूब हर शक्ल और हर नाम के साथ हराम है,*
*"❀_ इसलिए ये कहना है कि कमर्शियल लोन चुंकी उस ज़माने में नहीं थे बल्की आज पैदा हुए हैं, इसलिये हराम नहीं है, ये ख़याल दुरुस्त नहीं,*
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*☞_(166) क्या ज़माना ए नबूवत में तिजारती क़र्ज़ (कमर्शियल लोन) का रिवाज़ नहीं था?-*
*"❀_ फिर ये कहना भी दुरुस्त नहीं है कि आन हज़रत ﷺ के ज़माने में तिजारती क़र्ज़ का रिवाज़ नहीं था और सारे क़र्ज़ सिर्फ़ ज़ाती ज़रूरत के लिए लिए जाते थे, सरकारे दो आलम ﷺ के ज़माने में भी तिजारती क़र्ज़ का लेन देन होता था,*
*"❀_ अरब का वो मा'शरा जिसमें हुज़ूर अकदस ﷺ तशरीफ़ लाए, उसमें भी आज की जदीद तिजारत की तक़रीबन सारी बुनियादे मोजूद थी, मसलन आज कल ज्वाइंट स्टॉक कंपनियाँ हैं, इनके बारे में कहा जाता है कि ये चौधवी सदी की पैदावार है, इससे पहले ज्वाइंट स्टॉक कंपनियों का तसव्वुर नहीं था लेकिन जब हम अरब की तारीख पढ़ते हैं तो ये नज़र आता है कि अरब का हर क़बीला एक मुस्तकिल ज्वाइंट स्टॉक कंपनी होता था, इसलिए हर कबीले में तिजारत का तरीक़ा यह था कि कबीले के तमाम आदमी एक रुपया, दो रुपया लाकर एक जगह जमा करते और वो रकम शाम भेजकर वहाँ से सामान मंगवाते,*
*"❀_ आपने तिजारती काफिले का नाम सुना होगा, वो कारवां यहीं होते कि सारे कबीलों ने रुपया जमा करके दूसरी जगह भेजा और वहाँ से सामाने तिजारत मंगवा कर फ़रोख़्त कर दिया, अरब के लोग सर्दियों में यमन की तरफ़ सफ़र करते और गर्मियों में शाम की तरफ सफ़र करते थे और गर्मियों सर्दियों के ये सफ़र महज़ तिजारत के लिए होते थे, यहाँ से सामान ले जा कर वहाँ बेच दिया, वहाँ से सामान ला कर यहाँ बेच दिया,*
*"❀_ और बाज़ औक़ात एक एक आदमी अपने कबीले से 10 लाख दीनार क़र्ज़ लेता था, अब सवाल ये है कि क्या वो इसलिए क़र्ज़ लेता था कि उसके घर में खाने को नहीं था ? या उसके पास मैयत को कफ़न देने के लिए कपड़ा नहीं था ? ज़ाहिर है कि जब वो इतना बड़ा क़र्ज़ लेता था तो वो किसी कमर्शियल मक़सद के लिए लेता था,*
*"❀_ जब हुजूर अक्दस ﷺ ने हज्जतुल विदा के मौक़े पर सूद की हुरमत का एलान फ़रमाया तो आपने इरशाद फ़रमाया (आज के दिन) जाहिलियत का सूद छोड़ दिया गया और सबसे पहला सूद जो मैं छोड़ता हूँ वो हमारे चाचा हज़रत अब्बास का सूद है, वो सबका सब ख़त्म कर दिया गया,*
*"❀_ चुंकी हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु लोगों को सूद पर क़र्ज़ दिया करते थे और रिवायत में आता है वो 10 हज़ार मिश्काल सोना था और तक़रीबन 4 माशे का एक मिश्काल होता है और ये दस हज़ार मिश्काल कोई सरमाया (मूल) नहीं था बल्कि सूद था लोगो के असल रक़म पर वाजिब हुआ था, इससे अंदाज़ा लगायें कि वो क़र्ज़ जिस पर 10 हज़ार मिशक़ाल का सूद लग गया हो, क्या वो क़र्ज़ सिर्फ़ खाने की ज़रूरत के लिए लिया गया था? ज़ाहिर है कि वो क़र्ज़ तिजारत के लिए लिया गया होगा,*
*"❀_ लिहाज़ा ये कहना कि उस ज़माने में तिजारती क़र्ज़ नहीं होते, ये बिलकुल खिलाफ़े वाक़िया बात है और हक़ीक़त ये है कि तिजारती क़र्ज़ भी होते थे और उस पर सूद का लेन देन भी होता था और क़ुरान ए करीम ने हर क़र्ज़ पर जो भी ज़्यादा वसूल की जाए उसको हराम क़रार दिया है, लिहाज़ा ये कहना कि कमर्शियल लोन पर ब्याज पर लेना जाइज़ है बिलकुल ग़लत है,*
*"❀_ बल्कि सूद कम हो या ज़्यादा सब हराम है और क़र्ज़ लेने वाला गरीब हो तब भी हराम है और क़र्ज़ लेने वाला अमीर और मालदार हो तो भी हराम है, अगर कोई शख़्स ज़ाती ज़रूरत के लिए क़र्ज़ ले रहा हो तो भी हराम है और अगर तिजारत के लिए क़र्ज़ ले रहा हो तो भी हराम है, उसके हराम होने में कोई शुबहा नहीं,*
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*☞_(167) बैंक और बीमा (इंश्योरेंस ) का मुलाज़िम (कर्मचारी) क्या करें?*
*"❀_ बहुत से लोग बैंक की मुलाजमत के अंदर मुब्तिला हैं और बैंक के अंदर बहुत सारा कारोबार सूद पर होता है, अब जो शख्स वहाँ मुलाजिम हैं अगर वो सूद के करोबार में उनके साथ मददगार बन रहा है तो ये मुलाज़मत ना-जा'इज़ और हराम है, इसी तरह इस वक्त बीमा की जितनी सूरतें मोजूद है, उनमें किसी में सूद है, किसी में जुवां है, इसलिए वो सब हराम हैं और इस वजह से बीमा कंपनी में मुलाज़मत भी जा'इज़ नहीं,*
*"❀_ चुनांचे उलमा किराम फरमाते हैं कि अगर कोई शख्स बैंक में या बीमा कंपनी में मुलाज़िम है तो उसको चाहिए कि वो अपने लिए दूसरा हलाल और जायज़ ज़रिया ए मा'श तलाश करे और अहतमाम और कोशिश के साथ इस तरह तलाश करे जैसे एक बेरोज़गार तलाश करता है और जब उसको दूसरा हलाल ज़रिया आमदनी मिल जाए तो उस वक़्त इस हराम ज़रिया को छोड़ दे,*
*"❀_ ये बात हमारे बुज़ुर्ग इस लिए फ़रमाते हैं कि कुछ पता नहीं कि किसके हालात कैसे है, अब अगर कोई शख़्स फ़ोरन इसको छोड़ दे तो कहीं ऐसा न हो कि किसी परेशानी में मुब्तिला हो जाए, फिर शैतान अगर उसको ये बहका दे कि देखो तुम दीन पर अमल करने चले थे तो उसके नतीज़े में तुम पर ये मुसीबत आ गई,*
*"❀_ इसलिए हमारे बुज़ुर्ग फरमाते हैं कि इस हराम मुलाज़मत को फ़ौरन मत छोड़ो, बल्कि दूसरी जगह मुलाज़मत तलाश करो, जब हलाल रोज़गार मिल जाए उसको अख़्तियार कर लो चाहे उसमें आमदनी कम हो, तो उस वक़्त इसको छोड़ देना_,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 1/233)*
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*☞__(168) मेहनत की हर कमाई हलाल नहीं होती :-*
*"❀_ रिज़्क तलब करना फ़रीज़ा उस वक़्त है जब तलब हलाल की हो, रोटी कपड़ा और पैसा बिज़्ज़ात खुद मक़सूद नहीं है, ये नियत ना हो कि बस पैसा हासिल करना है चाहे जिस तरह भी हासिल हो, बाज़ लोगों ने वो ज़रिया ए मा'श अख़्तियार कर रखा है जो हराम है और शरीयत ने उसकी इजाज़त नहीं दी,*
*"❀_ मसलन सूद का करोबार अख़्तियार किया हुआ है, अब अगर उनसे कहा जाए कि ये ना-जा'इज़ और हराम है, इस तरह से पैसा कमाना नहीं चाहिए तो जवाब ये दिया जाता है कि हम तो अपनी मेहनत का खा रहे हैं, अपनी मेहनत लगा रहे हैं, अपना वक्त खर्च कर रहे हैं, अब अगर वो काम हराम और ना-जाईज है तो हमारा इससे क्या ताल्लुक़ ?*
*"❀_ खूब समझ लीजिए कि अल्लाह ताला के यहां हर मेहनत जायज़ नहीं होती, बल्की वो मेहनत जायज़ होती है जो अल्लाह ताला के बताए हुए तरीक़े के मुताबिक हो, अगर उस तरीक़े के खिलाफ इंसान हजार मेहनत कर ले लेकिन उसके ज़रिए जो पैसे कमाएगा वो पैसे हलाल के नहीं होंगे बल्की हराम होंगे, अब कहने को तो एक तवायफ भी मेहनत करती है, वो भी कह सकती है कि मैं अपनी मेहनत के जरिए पैसे कमा रही हूँ, लिहाज़ा मेरी आमदनी हलाल होनी चाहिए,*
*"❀_ इस तरह आमदनी के जो ज़रिए हराम है, उनको ये कह कर हलाल करने की कोशिश करना कि यह हमारी मेहनत की आमदनी है शर'अन इसकी गुंजाइश नहीं है,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 10/199)*
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*☞_(169) रिज़्क की तलब में फ़राइज़ छोड़ना जायज़ नहीं:-*
*"❀_ जिस जगह पर मआसियत में और अल्लाह ताला के आइद कर्दा फ़राइज़ के दरमियान टकराव हो जाए वहाँ पर अल्लाह ताला के आइद किये हुए फ़राइज़ को तरजीह होगी,*
*"❀_ बाज़ लोग इफ़रात के अंदर मुब्तिला हो जाते हैं (यानी हद से बढ़ जाते हैं) जब उन्होंने सुना कि तलबे हलाल भी दीन का एक हिस्सा है तो इसको इतना आगे बढ़ाया कि इस तलबे हलाल के नतीजे में अगर नमाज़ ज़ाया हो रही है तो उनको इसकी परवाह नहीं, रोज़े छूट रहे हैं तो उनको इसकी परवाह नहीं, हलाल और हराम एक हो रहा है तो उनको इसकी परवाह नहीं, अगर उनसे कहा जाए कि नमाज़ पढ़ो तो जवाब देते हैं कि ये काम जो हम कर रहे हैं ये भी दीन का एक हिस्सा है,*
*"❀_ हालांकि हुज़ूर अक़दस ﷺ ये फ़रमा रहे हैं कि ये फ़रीज़ा तो है लेकिन फ़राइज़ के बाद है, लिहाज़ा अगर रोज़ी कमाने के फ़रीज़े में और अव्वलीन दीनी फ़राइज़ (रोज़ा नमाज़ वगैरा) के दरमियान टकराव हो जाए तो उस वक़्त दीनी फ़रीज़ा ग़ालिब रहेगा,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 1/210)*
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*☞_(171) अम्र बिल मा'रूफ और नहीं अनिल मुंकर क्या है ?*
*"❀_ يَأْمُرُونَ بِٱلْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ ٱلْمُنكَرِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤْتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَيُطِيعُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ*
*"❀_इस आयत (सूरह तौबा-71) का ताल्लुक़ अम्र बिल मा'रूफ और नहीं अनिल मुंकर से है, नेक बंदो की सिफ़ात बयान करते हुए अल्लाह ताला ने फरमाया है कि वो लोग दूसरों को नेकी का हुक्म देते हैं और बुराईयों से रोकते हैं, "अम्र" का मतलब है हुक्म देना और "मा'रूफ" का मतलब है नेकी "नहीं" का मतलब है रोकना और "मुंकर" का मतलब है बुराई,*
*❀"_फुक़हा किराम ने लिखा है कि जिस तरह हर मुसलमान पर नमाज़ रोज़ा फ़र्ज़ ए ऐन है, इसी तरह ये भी फ़र्ज़ ए ऐन है अगर वो दूसरे को किसी बुराई में मुब्तिला देखे तो अपनी इस्तेतात के मुतबिक़ उसको रोके और मना करे कि ये काम गुनाह है इसको ना करो,*
*❀"_ अम्र बिल मा'रूफ़ और नही अनिल मुंकर फ़र्ज़ ए ऐन है, बहुत से लोग तो इस फ़रीज़े से बिलकुल ग़ाफ़िल हैं, वो लोग अपनी आँखों से अपनी बीवी बच्चों को अपने दोस्तों को देख रहे हैं कि वो हराम के कामों में मुब्तिला है लेकिन इसके बावजूद उनको रोकने की तोफ़ीक नहीं होती, उनको देख रहे हैं कि वो फ़रा'इज़ की अदायगी में कोताही कर रहे हैं लेकिन उनको कहने की तोफीक नहीं होती,*
*"❀_ और बाज़ लोग इस हुक्म को इतना आम समझते हैं कि सुबह से लेकर शाम उन्होंने दूसरे लोगों को रोकने टोकने को अपना मशगला बना रखा है, वजह इसकी ये है कि इस आयत का सही मतलब मालूम नहीं, इसलिए इसकी तफसील समझना ज़रूरी है,*
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*☞_(172) अम्र बिल मा'रूफ और नहीं अनिल मुनकर के दो तरीक़े - इंफिरादी और इज्तिमाई:-*
*"❀_ पहली बात ये समझ लें कि दावत व तबलीग करने और दीन की बात दूसरों तक पहुंचाने के दो तरीक़े हैं, इज्तिमाई दावत व तबलीग और इंफिरादी दावत व तबलीग, इंफिरादी दावत व तबलीग का मतलब ये है कि एक शख़्स अपनी आँखों से दूसरे शख़्स को देख रहा है कि फ़लां गुनाह और फ़लां बुराई के अंदर मुब्तिला है, या वो शख़्स फ़लां फ़र्ज़ या वाजिब की अदायगी में कोताही कर रहा है, अब इंफिरादी तोर पर उस शख़्स को इस तरफ़ मुतवज्जह करना कि वह बुराई को छोड़ दे और नेकी पर अमल करे, इसको इन्फिरादी दावत व तबलीग कहते हैं,*
*❀"_ दूसरी इज्तिमाई दावत व तबलीग होती है, जैसे माशा अल्लाह हमारे तबलीगी जमात के हज़रात करते हैं, कि लोगों के पास उनके घरो पर, उनकी दुकानों पर जाकर उनको दीन की बात पहुंचाते हैं, ये इज्तिमाई दावत व तबलीग है,*
*"❀_ इन्फिरादी दावत व तबलीग ये है कि हम अपनी आँखों से एक बुराई होती देख रहे हैं या ये देख रहे हैं कि कोई शख़्स किसी फ़र्ज़ को छोड़ रहा है तो उस वक़्त अपनी इस्तेता'त की हद तक उस बुराई को रोकना फ़र्ज़-ए-किफ़ाया नहीं, बल्की फ़र्ज़-ए-ऐन है और फ़र्ज़-ए-ऐन होने का मतलब ये है कि आदमी ये सोच कर ना बैठ जाए कि ये काम दूसरे लोग कर लेंगे, या ये तो मोलवियों का काम है, या ये तब्लीगी जमात वालों के करने का काम है, ये दुरुस्त नहीं, आयात की रु से ये काम हर हर मुसलमान के ज़िम्मे फ़र्ज़-ए-ऐन है,*
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*☞_(173) किस वक्त नहीं अनिल मुनकर (गुनाह से रोकना) फ़र्ज़ नहीं?*
*"❀_ अम्र बिल मा'रूफ और नहीं अनिल मुनकर उस वक्त फ़र्ज़ होता है जब उसको बताने या रोकने के नतीजे में उसके मान लेने का अहतमाल हो और उसको बताने के नतीजे में बताने वाले को कोई तकलीफ़ पहुँँचने का अंदेशा न हो,*
*"❀_ लिहाज़ा अगर कोई शख़्स गुनाहों के अंदर मुब्तिला है और आपको ये ख़याल है कि अगर मैं उसको गुनाहों से रोकूँगा तो यक़ीन है कि यह शख़्स मानेगा नहीं बल्कि उल्टे शरीयत के हुक्म का मज़ाक उड़ाएगा और उसकी तोहीन करेगा और उस तोहीन के नतीजे में ये अंदेशा है कि कहीं कुफ्र में मुब्तिला न हो जाए, इसलिए कि शरीयत के किसी हुक्म की तोहीन करना सिर्फ गुनाह नहीं है, बल्कि ये अमल इंसान को इस्लाम से खारिज कर देता है और काफिर बना देता है, लिहाज़ा अगर इस बात का ग़ालिब गुमान हो तो ऐसी सूरत में उस वक़्त नहीं अनिल मुंकर का फ़रीज़ा साक़ित हो जाता है,*
*"❀_ इसलिए ऐसे मौक़े पर उसको गुनाह से नहीं रोकना चाहिए, बल्कि अपने आपको उस गुनाह के काम से अलग कर लेना चाहिए और उस शख्स के हक़ में दुआ करना चाहिए कि या अल्लाह! आपका ये बंदा एक बीमारी में मुब्तिला है, अपने फ़ज़ल व करम से उसको इस बीमारी से निकाल दीजिए,*
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*☞_(174) अम्र बिल मारूफ़ करो और दिल भी मत तोड़ो :-*
*"❀_बाज़ लोगों के दिल में ये सवाल पैदा होता है कि एक तरफ तो ये कहा जा रहा है कि अम्र बिल मारूफ करो और नहीं अनिल मुंकर करो, यानि लोगों को अच्छाई की दावत दो और अगर कोई ग़लत काम में मुब्तिला हो तो उसको बता दो और उसको रोक दो, और दूसरी तरफ ये कहा जा रहा है कि दूसरे मुसलमान का दिल मत तोड़ो, अब दोनों के दरमियान तत्बीक़ किस तरह की जाएगी?*
*"❀_इसका जवाब ये है कि दोनों के दरमियां तत्बीक इस तरह होगी कि जब दूसरे शख्स से कोई बात कहो तो खैर ख्वाही से कहो, तन्हाई में कहो, नर्मी से कहो, मुहब्बत से कहो और इस अंदाज़ में कहो कि जिससे उसका दिल कम से कम टूटे, मसलन तन्हाई में उससे कहो कि भाई तुम्हारे अंदर ये बात का़बिले इस्लाह है, तुम इसकी इस्लाह कर लो, लेकिन ताने के अंदाज में कहना या लोगों के सामने सरे बाज़ार उसको रुसवा करना, ये चीज़ इंसान के दिल में घाव डाल देती है, इसलिए हराम है और गुनाह है,*
*"❀_हदीस में गलती बताने वाले को आईना से तश्बीह दी है और आईने का काम ये होता है कि जब कोई शख़्स उसके सामने खड़ा होता है तो वो ये बता देता है कि तुम्हारे चेहरे पर इतना दाग लगा हुआ है और इस बताने में ना तो वो ज़्यादती करता है और ना उस शख़्स पर लानत मलामत करता है कि ये दाग कहां से लगा लिया बल्कि सिर्फ दाग बता देता है,*
*"❀_ इसी तरह गलती बताने वाला मोमिन भी आईने की तरह सिर्फ इतनी गलती और ऐब बताए जितना उसके अंदर वाकई मोजूद है, उसको बढ़ा चढ़ा कर ना बताए और इस तरह सिर्फ उसे बता दे कि तुम्हारे अंदर ये ऐब है लेकिन उसके ऐब पर लानत और मलामत शुरू कर दे और लोगों के सामने उसको ज़लील करना शुरू कर दे, ये मोमिन का काम नहीं है, इसलिए कि मोमिन तो आईने की तरह है,*
*®_(इस्लाही ख़ुतबात- 8/302)*
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*☞_(175) एक का ऐब दूसरे को न बताया जाए :-*
*"❀_ हज़रत हकीमुल उम्मत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी रह. ने एक नुक्ता बयान फरमाया है कि आईने का काम ये है कि जो शख्स उसके सामने आएगा और उसके ऊपर कोई ऐब होगा कोई तो वो आइने सिर्फ उसी शख्स को बताएगा कि तुम्हारे अंदर ये ऐब है, वो आइने दूसरों से नहीं कहेगा कि फलां शख्स में ये ऐब है और ना उस ऐब का दूसरे शख्स के सामने तज़किरा और चर्चा करेगा,*
*❀"_ इसी तरह मोमिन भी एक आईना है, जब वो दूसरे के अंदर कोई ऐब देखे तो सिर्फ उसी को तन्हाई में खामोशी से बता दे कि तुम्हारे अंदर ये ऐब है और उस गलती का दूसरे शख्स के सामने चर्चा करना, ये मोमिन का काम नहीं बल्कि यह तो नफ़सानियत का काम है,*
*"❀_ अगर दिल में ये ख़याल है कि मै अल्लाह को राज़ी करने के लिए उसका ये ऐब बता रहा हूँ तो कभी भी वो शख़्स दूसरों के सामने उसका तज़किरा नहीं करेगा, अलबत्ता अगर दिल में नफ़सानियत होगी तो वहाँ ये ख़याल आएगा कि मै इस ऐब की वजह से उसको ज़लील और रुसवा करूँ, जबकी मुसलमान को ज़लील और रुसवा करना हराम है,*
*"❀_ आज हम अपने मा'शरे में ज़रा जाइज़ा ले कर देखें तो ऐसे लोग बहुत कम नज़र आएंगे जो दूसरों की ग़लती देख कर उसको खैर ख़्वाही से बता दें कि तुम्हारी ये बात मुझे पसंद नहीं आई या ये बात शरीयत के खिलाफ है लेकिन उसकी गलती का तज़किरा मजलिसों में करने वाले बेशुमार नजर आएंगे, जिसके नतीजे में गीबत के गुनाह में मुब्तिला हो रहे हैं, इफरात और बोहतान के गुनाह में मुब्तिला हो रहे हैं, मुबालगा और झूठ का गुनाह हो रहा है और एक मुसलमान को बदनाम करने का गुनाह हो रहा है,*
*"❀_ इसके बजाए बेहतर तरीक़ा ये था कि तन्हाई में उसको समझा देते कि तुम्हारे अंदर ये खराबी है, इसको दूर कर लो, लिहाज़ा जब किसी मुसलमान भाई के अंदर कोई ऐब देखो तो दूसरों से मत कहो सिर्फ उससे कहो,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 8/305)*
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*☞_(176) अम्र बिल मा'रूफ और नहीं अनिल मुनकर में तासीर कैसे पैदा हो ?*
*"❀__ हक़ बात हक़ तरीक़ा, हक़ नीयत- शेखुल इस्लाम हजरत अल्लामा शब्बीर उस्मानी रह. एक जुमला फरमाया करते थे जो हजरत मौलाना शफी साहब रह. से कई बार हमने सुना, वो यह था कि हक़ नीयत हक़ तरीक़े से हक़ बात जब भी कहीं जाएगी वो कभी नुक़सानदह नहीं होगी, लिहाज़ा जब भी तुम यह देखो कि हक़ बात कहने के नतीजे में कहीं लड़ाई झगड़ा हो गया या नुक़सान हो गया या फसाद हो गया तो समझ लो कि इन तीन बातों में से ज़रूर कोई बात होगी,*
*"❀__ या तो बात हक़ नहीं थी और ख्वाह मख्वाह उसको हक़ समझा गया था, या बात तो हक़ थी लेकिन नीयत दुरुस्त नहीं थी और बात कहने का मक़सद दूसरे की इसलाह नहीं थी बल्कि अपनी बड़ाई जताना मक़सूद थी, या दूसरे को ज़लील करना मक़सूद था, जिसकी वजह से बात के अंदर असर नहीं था, या यह कि बात भी हक़ थी, नीयत भी दुरुस्त थी लेकिन तरीक़ा हक़ नहीं था और बात ऐसे तरीके से कही जैसे दूसरे को लठ मार दिया, कलमा हक़ कोई लठ नहीं है कि जो उठाकर किसी को मार दो, बल्की हक़ कलमा कहना मुहब्बत और खैर ख़्वाही वाला काम है जो हक़ तरीके से अंजाम पायेगा, जब खैर ख़्वाही में कमी हो जाती है तो फिर हक़ बात से भी नुक़सान पहुंच जाता है,*
*"❀__ लिहाज़ा जब कोई अल्लाह का बंदा अपनी नफ़्सनियत को फ़ना करके अपने आपको मिटा कर अल्लाह के लिए बात करता है और उस वक़्त दुनिया वालों को ये बात मालूम होती है कि इसके सामने इसका अपना कोई फ़ायदा नहीं है और ये जो कुछ कह रहा है अल्लाह के लिए कह रहा है तो फिर उसकी बात में असर होता है, चुनांचे हज़रत शाह इस्माइल शहीद रह. के एक एक वाज़ में हज़ारों अफ़राद उनके हाथ पर तौबा करते थे,*
*"❀__ आज हम लोगों ने तबलीग़ व दावत छोड़ दी और अगर कोई करता भी है तो इसे तरीके से करता है जो लोगों को बुरा मालूम होता है, जिससे सही मा'नी में फ़ायदा नहीं मिलता, इसलिए ये तीन बातें याद रखनी चाहिए: 1- बात हक़ हो, 2- नीयत हक़ हो, 3- तरीक़ा हक़ हो, लिहाज़ा हक़ बात हक़ तरीके से हक़ नीयत से कहीं जाएगी तो वो कभी नुक़सानदह नहीं होगी बल्कि उसका फ़ायदा ही नहीं पहुंचेगा,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 8/37)*
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*☞_(177) अम्बिया अलैहिस्सलाम का अंदाज़े दावत तबलीग़ और हमारा तर्ज़े अमल-,*
*"❀_ मुफ्ती शफी साहब उस्मानी रह. फरमाया करते थे कि अल्लाह ताला ने हज़रत मूसा और हजरत हारून अलैहिस्सलाम को फिरओन की इसलाह के लिए भेजा और फिरओन कौन था ? खुदाई का दावेदार था, जो कहता था कि मैं तुम्हारा बड़ा परवरदिगार हूं, गोया कि वो फिरओन बदतरीन कुफ्र करने वाला था लेकिन जब ये दोनो पैगम्बर फिरओन के पास जाने लगे तो अल्लाह ताला ने फरमाया - तुम दोनों फिरओन के पास जाकर नरम बात कहना, शायद वो नसीहत मान ले या डर जाए,*
*"❀_ ये वाक़िया सुनाने के बाद हज़रत ने फ़रमाया कि आज तुम हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से बड़े मुसलेह नहीं हो सकते और तुम्हारा मुक़ाबिल फिरऔन से बड़ा गुमराह नहीं हो सकता, चाहे वो कितना ही बड़ा फासिक़ व फाजिर और मुशरिक हो, इसलिए कि वो तो ख़ुदाई का दावेदार था, इसके बावजूद हज़रत मूसा और हज़रत हारून अलैहिस्सलाम से फ़रमाया जा रहा है कि जब फ़िरऔन के पास जाओ तो ज़रा नरमी से बात करना सख़्ती से बात मत करना,*
*"❀_ इसके ज़रिए हमारे लिए क़यामत तक पैग़म्बराना तरीक़ा कार मुक़र्रर फ़रमा दिया कि जब भी किसी से दीन की बात कहें तो नरमी से कहें, सख़्ती से ना कहें,*
*"❀_ एक मर्तबा हुजूर अक़दस ﷺ मस्जिदे नबवी में तशरीफ फरमा थे और सहाबा किराम भी मौजूद थे, इतने में एक देहाती शख्श मस्जिदे नबवी मे दाखिल हुआ और आकर जल्दी जल्दी उसने नमाज़ पढ़ी और नमाज़ के बाद अजीब व गरीब दुआ की, ऐ अल्लाह मुझ पर रहम फरमा और मुहम्मद ﷺ पर रहम फरमा और हमारे अलावा किसी पर रहम ना फरमा,*
*"❀_ जब हुजूर अक्दस ﷺ ने उसकी ये दुआ सुनी तो फरमाया कि तुमने अल्लाह की रहमत को बहुत तंग और महदूद कर दिया कि सिर्फ दो आदमी पर रहम फरमा और किसी पर रहम ना फरमा, हालाँकि अल्लाह ताला की रहमत बहुत वसी है,*
*"❀__थोड़ी देर के बाद उस देहाती ने मस्जिद के सहन में बैठकर पेशाब कर दिया, सहाबा किराम ने जब ये देखा कि वो मस्जिद में पेशाब कर रहा है तो जल्दी से उसकी तरफ दौड़ें और करीब था कि उस पर डांट डपट शुरू कर देते, इतने में हुजूर अकदस ﷺ ने फरमाया कि इसका पेशबा बंद मत करो और पूरा पेशबा करने दो इसको मत डांटो और फरमाया तुम्हें लोगों की खैर ख्वाही करने वाला और आसानी करने वाला बना कर भेजा गया है, दुश्वारी करने वाला बना कर नहीं भेजा गया,*
*"❀_ लिहाज़ा अब जा कर मस्जिद को पानी के जरिए साफ कर दो, फिर आपने उसको बुला कर समझाया कि ये मस्जिद अल्लाह का घर है, इस क़िस्म के कामों के लिए नहीं है, लिहाज़ा तुम्हारा ये अमल दुरुस्त नहीं, आइंदा ऐसा मत करना,*
*"❀_ अगर हमारे सामने कोई शख्स इस तरह मस्जिद में पेशाब कर दे तो शायद हम लोग उसकी टिक्का बोटी कर दें लेकिन हुज़ूर अकदस ﷺ ने देखा कि ये शख्स देहाती है और नावाक़िफ़ है, ला इल्मी और ना वाक्फ़ियत की वजह से उसने ये हरकत की है, लिहाज़ा उसको डांटने का यह मौक़ा नहीं है बल्की नरमी से समझाने का मौक़ा है, चुनांचे आपने नरमी से उसको समझा दिया,*
*"❀_ अम्बिया अलैहिस्सलाम की यही तालीम है, अगर कोई मुखालिफ गाली भी देता है तो अम्बिया अलैहिस्सलाम उसके जवाब में गाली नहीं देते, कुरान करीम में मुशरिकों का ये कौ़ल नकल किया गया है कि उन्होंने अम्बिया अलैहिस्सलाम से मुखातिब होकर कहा कि हम आपको देख रहे हैं कि आप बेवकूफ हैं और हमारे ख्याल में आप झूठे हैं, आज अगर कोई शख़्स किसी आलिम या मुकर्रिर या खतीब को ये कह दे कि तुम बेवकूफ और झूठे हो, तो जवाब में उसको ये कह देगा कि तू बेवकूफ तेरा बाप बेवकूफ लेकिन पैगम्बर ने जवाब में फरमाया- ए मेरी कौम! मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ मैं तो रब्बुल आलमीन का पैगम्बर हूँ,*
*"❀_ देखिए ! गाली का जवाब गाली से नहीं दिया जा रहा है बल्की मुहब्बत और प्यार का बर्ताव किया जा रहा है, एक और क़ौम ने पैगम्बर से कहा कि तुम तो खुले गुमराह नज़र आ रहे हो, जवाब में वो पैगम्बर फरमाते हैं, ऐ मेरी कौम मैं गुमराह नहीं हूँ, बल्की मैं तो अल्लाह का रसूल हूँ,*
*"❀_ ये पैगम्बर की इसलाह और दावत का तरीक़ा है, लिहाज़ा हमारी बाते जो बेअसर हो रही हैं, इसकी वजह ये है कि या तो बात हक़ नहीं है, या तरीक़ा हक़ नहीं है, या नीयत हक़ नहीं है और इसकी वजह से सारी ख़राबियाँ पैदा हो रही हैं,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 8/40)*
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*☞_ (178) इज्तिमाई तबलीग का हक़ किसको है_,*
*"❀_ इज्तिमाई तबलीग यानी लोगों को जमा करके कोई वाज़ करना, तक़रीर करना या उनको नसीहत करना, इसको इज्तिमाई दावत तबलीग कहते हैं, ये इज्तिमाई दावत तबलीग फर्ज़े ऐन नहीं है, बल्की फर्ज़े किफाया है, अगर कुछ लोग इस फरीजा़ की अदायगी के लिए काम करें तो बाक़ी लोगों से ये फरीजा़ साक़ित हो जाता है,*
*"❀_ लेकिन ये इज्तिमाई तबलीग करना हर आदमी का काम नहीं है कि जिसका दिल चाहे खड़ा हो जाए और वाज़ करना शुरू कर दे, बल्की इसके लिए मतलूब इल्म की ज़रूरत है, अगर इतना इल्म नहीं है तो इस सूरत में इज्तिमाई तबलीग का इंसान मुक़ल्लिफ़ नहीं है और कम से कम इतना इल्म होना ज़रूरी है जिसके नतीज़े में वाज़ के दौरन ग़लत बात कहने का अंदेशा न हो, तब वाज़ कहने की इजाज़त है वरना इजाज़त नहीं,*
*"❀_ ये वाज़ तबलीग का मामला बड़ा नाज़ुक है, जब आदमी ये देखता है कि इतने सारे लोग बैठकर मेरी बातें सुन रहे हैं तो खुद उसके दिमाग़ में बड़ाई आ जाती है कि इतने सारे लोग मुझे आलिम कह रहे हैं, वाज़ और तक़रीर की नतीज़े में आदमी इस फ़ित्ने में मुब्तिला हो जाता है,*
*"❀_ इसलिए हर शख़्स को तकरीर और वाज़ नहीं करना चाहिए, हाँ अगर वाज़ कहने के लिए कोई बड़ा किसी जगह बिठा दे तो उस वक़्त बड़ों की सरपरस्ती में अगर काम करे और अल्लाह ताला की मदद भी माँगता रहे तो फिर अल्लाह ताला इस फ़ितने से महफ़ूज़ रखते हैं,*
*" ❀_ वाज़ और तकरीर फिर भी ज़रा हल्की बात है लेकिन अब तो दर्से क़ुरान और दर्से हदीस देने तक नौबत पहुंच गई है, जिसके दिल में भी दर्से क़ुरान देने का ख़याल आया, बस उसने दर्से क़ुरान देना शुरू कर दिया, हालांकी क़ुरान करीम वो चीज़ है जिसके बारे में हुज़ूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फरमाया कि जो शख़्स क़ुरान करीम की तफ़सीर में इल्म के बग़ैर कोई बात कहे तो वो शख़्स अपना ठिकाना जहन्नम में बना ले,*
*"❀_ इतनी संगीन वईद हुज़ूर अक़दस ﷺ ने बयान फरमाई है, इसके बावजूद आज ये हाल है कि अगर किसी शख़्स को दीन की कुछ बातें मालूम हो गईं तो अब वो आलिम बन गया और उसने दर्से क़ुरान शुरू कर दिया, हालांकी ये दर्से क़ुरान और दर्से हदीस ऐसा अमल है कि बड़े बड़े उलमा इससे डरते हैं,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 8/41)*
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*☞_(179) क्या बे अमल शख्स वाज़ व नसीहत करने का हक़ नहीं रखता?*
*"❀_ एक ये बात मशहूर है कि अगर कोई शख्स खुद किसी गलती के अंदर मुब्तिला है तो उसको ये हक नहीं है कि वो दूसरों को उस गलती से रोके, मसलन एक शख्स नमाजे़ बा जमात का पूरी तरा पाबंद नहीं है तो यह कहा जाता है कि ऐसा शख्स दूसरों को भी नमाजे बा जमात की तलक़ीन ना करे, जब तक कि खुद नमाज़े बा जमात का पाबंद ना हो जाए,*
*"❀_ ये बात दुरस्त नहीं, बल्की हक़ीक़त में बात उल्टी है, वो ये है कि जो शख़्स दूसरों को नमाज़े बा जमात की तलक़ीन करता है उसको चाहिये कि वो खुद भी नमाज़े बा जमात की पाबन्दी करे, ना ये कि जो शख़्स नमाज़े बा जमात का पाबंद नहीं है कि वो दूसरों को तलक़ीन ना करे, आम तोर पर लोगों मे यह आयत मशहूर है कि ( सूरह-सफ,२)-*
*"_ ऐ ईमान वालो और बात क्यूं कहते हो जो करते नहीं हो_,*
*"❀_ बाज लोग इस आयत का मतलब ये समझते है कि अगर कोइ शख्स कोई काम नहीं करता तो वो शख्स दूसरों को भी उस काम की तलक़ीन ना करे, मसलन एक शख्स सदक़ा नहीं देता तो वो दूसरों को भी सदक़ें की तलक़ीन ना करे, या मसलन एक शख्स सच नहीं बोलता तो वो दूसरों को भी सच बोलने की तलक़ीन ना करे, आयत का ये मतलाब लेना दुरस्त नहीं,*
*"❀_ बल्कि इस का मतलब ये है कि जो बात और जो चीज़ तुम्हारे अन्दर मौजूद नहीं है तो उसका दावा मत करो कि यह बात मेरे अन्दर मौजूद है, मसलन अगर तुम नमाजे बा जमात के पाबंद नहीं हो तो दूसरों से ये मत कहो कि मै नमाजे बा जमात का पाबंद हूं, या तुम अगर नेक और मुत्तक़ी नहीं हो तो दूसरों के सामने ये दावा मत करो के मै नेक और मुत्तक़ी हूं, इस आयत का ये मानी है, यानि जो काम तुम करते नहीं हो दूसरों के सामने उसका दावा क्यों करते हो ?*
*"❀_आयत के ये मानी नहीं है कि जो काम तुम नहीं करते तो दूसरों से उसकी तलक़ीन भी मत करो, इसलिए कि बाज़ औक़ात दूसरों को कहने से इंसान को खुद फ़ायदा हो जाता है, जब इंसान दूसरों को कहता है और खुद अमल नहीं करता तो इंसान को शर्म आती है और इस शर्म की वजह से इंसान खुद भी अमल करने पर मजबूर हो जाता है,*
*"❀_अलबत्ता ये बात ज़रूर है कि एक शख्स वो है जो खुद अमल नहीं करता लेकिन दूसरों को नसीहत करता है और एक वो आदमी है जो खुद भी अमल करता है और दूसरे को भी उसकी नसीहत करता है है, दोनो की नसीहत की तासीर में फर्क है, जो शख्श अमल करके नसीहत करता है अल्लाह ताला उसकी बात में असर पैदा फरमा देते हैं, वो बात दिलो में उतर जाती है, उससे इंसानों की जिंदगियों में इंक़लाब आता है,*
*®_ इस्लाही खुतबात- 8/45)*
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*☞ _(180) मुस्तहब के तर्क पर नकीर दुरुस्त नहीं :-*
*"❀_ शरीयत के बाज़ अहकाम ऐसे हैं जो फ़र्ज़ और वाजिब नहीं हैं, बल्की मुस्तहब हैं, मुस्तहब का मतलब ये है कि अगर कोई उसको करेगा तो सवाब मिलेगा नहीं करेगा तो कोई गुनाह नहीं, या शरीयत के आदाब हैं जो उल्मा किराम बताते हैं, मुस्तहबत और आदाब के बारे में हुक्म ये है कि लोगों को उनकी तरगीब तो दी जाएगी कि इस तरह कर लो तो अच्छी बात है लेकिन इसके ना करने पर नकीर नहीं की जाएगी,*
*"❀_ अगर कोई शख़्स उस मुस्तहब को अंजाम नहीं दे रहा है तो आपके लिए उसको ताना देने का या मलामत करने का कोई जवाज़ नहीं कि तुमने ये काम क्यों नहीं किया ? हाँ अगर कोई तुम्हारा शागिर्द है या बेटा है या तुम्हारी ज़ेरे तरबियत है तो बेशक उसको कहना चाहिए कि फ़लाँ वक़्त में तुमने फ़लाँ मुस्तहब अमल या फ़लाँ आदाब का लिहाज़ नहीं किया था, उसको करना चाहिए,*
*"❀_ लेकिन अगर एक आम आदमी कोई मुस्तहब अमल छोड़ रहा है तो इस सूरत में आपको उस पर ऐतराज़ करने का कोई हक़ नहीं, बाज़ लोग तो मुस्तहबात को वाजिबात का दर्जा दे कर लोगों पर ऐतराज शुरू कर देते हैं कि तुमने ये काम क्यों छोड़ा ? हालाँकी क़यामत के रोज़ अल्लाह ताला ये नहीं पूछेंगे कि तुमने फ़लाँ मुस्तहब काम क्यों नहीं किया था ? ना फरिश्ते सवाल करेंगे, लेकिन तुम खुदाई फौजदार बनकर ऐतराज़ कर देते हो कि ये मुस्तहब काम तुमने क्यों छोड़ दिया? ये अमल किसी तरह भी दुरुस्त नहीं,*
*"❀_ मसलन अज़ान के बाद दुआ पढ़ना मुस्तहब है, हुज़ूर अकदस ﷺ की तरफ़ से इस दुआ की तरगीब है कि हर मुसलमान को अज़ान के बाद ये दुआ पढ़नी चाहिए, ये बड़ी बरकत की दुआ है, इसलिए अपने बच्चों को और अपने घर वालों को इसकी तालीम देनी चाहिए कि ये दुआ पढ़ें, लेकिन अगर एक शख़्स ने अज़ान के बाद ये दुआ नहीं पढ़ी, अब आप उस पर ऐतराज़ शुरू करके दें कि तुमने ये दुआ क्यों नहीं पढ़ी? ये दुरुस्त नहीं, इसलिए कि नकीर हमेशा फ़र्ज़ के छोड़ने पर या गुनाहों के इर्तक़ाब पर की जाती है, मुस्तहब काम के तर्क पर कोई नकीर नहीं हो सकती,*
*"❀_ बाज़ आमाल ऐसे हैं जो शरई ऐतबार से मुस्तहब भी नहीं हैं और क़ुरान व हदीस में उनको मुस्तहब भी क़रार नहीं दिया गया, अलबत्ता बाज़ उल्मा ने उनको आदाब में शुमार किया है, मसलन बाज़ उल्मा ने ये अदब बताया है कि जब खाना खाने के लिए हाथ धोने के लिए जाएं तो उनको तोलिया या रूमाल वगैरा से पोंछा ना जाए, इसी तरह ये अदब बताया कि दस्तर ख़्वान पर पहले तुम बैठ जाओ खाना बाद में रखा जाए, क़ुरान व हदीस में ये आदाब कहीं भी मौजूद नहीं है लेकिन उल्मा किराम ने खाने के आदाब बताए, उनको मुस्तहब कहना भी मुश्किल है, अब अगर एक शख़्स ने आदाब का लिहाज़ न किया, मसलन उसने खाने के लिए हाथ धोकर तोलिये से पोंछ लिए, या दस्तर ख़्वान पर खाना पहले लगा दिया गया और वो शख़्स बाद में जाकर बैठा तो अब उस शख़्स पर ऐतराज़ करना और उसको ये कहना कि तुमने शरीयत के ख़िलाफ़ या सुन्नत के ख़िलाफ़ काम किया, ये बात दुरुस्त नहीं, इसलिए कि ये आदाब न तो शर'अन सुन्नत है और ना मुस्तहब है,*
*"❀_ इस मामले में हमारे म'आशरे में बहुत इफरात और तफ़रीत पाई जाती है और बाज़ औक़ात छोटी छोटी बात पर बड़ी नकीर की जाती है जो किसी तरह भी दुरुस्त नहीं,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 8/49)*
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*☞ _(181) क्या उँगलियों को चाट लेना शाइस्तगी (तहज़ीब व अखलाक) के खिलाफ़ है?*
*"❀_ आज फैशन परस्ती का ज़माना है, लोगों ने अपने लिए नए तरीके बना रखे हैं, चूनांचे अगर दस्तर ख़्वान पर सबके साथ खाना खा रहे हैं, उस वक़्त अगर उँगलियों पर लगे हुए सालन को चाट लें तो ये तहज़ीब के खिलाफ़ समझा जाने लगा है, इसलिए इस काम को करते हुए शर्म आती है, अगर लोगों के सामने करेंगे तो लोग हँसी मज़ाक उड़ाएँगे और कहेंगे कि ये शख़्स बद अखलाक और बद तमीज़ है,*
*"❀_ लेकिन याद रखो! सारी तहज़ीब और सारी शाइस्तगी हुज़ूर अकदस ﷺ की सुन्नतो में मुन्हसिर है, जिस चीज़ को आपने या फ़ैशन ने शाइस्तगी क़रार दे दिया वो शाइस्तगी या तहज़ीब नहीं है, इसलिए कि ये फ़ैशन तो रोज़ बदलते हैं, कल तक जो चीज़ ना शाइस्तगी थी, तहज़ीब के ख़िलाफ़ थी, आज वो चीज़ शाइस्ता बन गई, तहज़ीब बन गई,*
*❀"_ मसलन खड़े होकर खाना आज कल फ़ैशन बन गया है, एक हाथ में प्लेट पकड़ी है, दूसरे से खाना खा रहे हैं और जिस वक़्त दावत में खाना शुरू होता है उस वक़्त छीना चपटी होती है, इसमें किसी को भी ना शाइस्तगी नज़र नहीं आती ? इसलिए कि फैशन ने आंखें अंधी कर दी हैं, चुनांचे जब तक खड़े होकर खाने का फैशन और रिवाज़ नहीं चला था, उस वक्त अगर कोई शख्स खड़े होकर खाना खाता तो सारी दुनिया उसको कहती थी कि यह गैर महज़ब और बड़ा ना शाइस्ता तरीका है, सही तरीका तो यह है कि आदमी आराम से बैठ कर खाए,*
*"❀_ लिहाज़ा फैशन की बुनियाद पर तहज़ीब और शाइस्तगी रोज़ बदलती है और बदलने वाली चीज़ का कोई भरोसा और कोई ऐतबार नहीं, ऐतबार उस चीज़ का है जिसको मुहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ ने सुन्नत क़रार दे दिया और जिसके बारे में आप ﷺ ने बता दिया कि बरकत इसमें है, अब अगर हुजूर अक्दस ﷺ की इत्तेबा की नीयत से ये काम कर लोगे तो आखिरत में भी अजरो सवाब और दुनिया में भी बरकत हासिल होगी और अगर (मा'ज़ल्लाह) ना शाइस्ता समझ कर इसको छोड़ दोगे तो फिर तुम इसकी बरकत से भी महरूम हो जाओगे _,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 5/197)*
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*☞ _(182) ज़मज़म का पानी किस तरह पिया जाता है?*
*"❀_ हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि मैंने हुज़ूर अकदस ﷺ को ज़मज़म का पानी पिलाया तो आपने खड़े होकर वो ज़मज़म पिया _,(सहीह बुखारी)*
*"❀_ इस हदीस की वजह से बाज़ उलमा का ख़याल ये है कि ज़मज़म का पानी बैठकर पीने के बजाए खड़े होकर पीना अफ़ज़ल और बेहतर है, चुनांचे ये बात मशहूर है कि दो पानी ऐसे हैं जो खड़े होकर पीने चाहिए, एक ज़मज़म का पानी और एक वज़ू का बचा हुआ पानी, इसलिए कि वज़ू से बचा हुआ पानी पीना भी मुस्तहब है,*
*"❀_ जहाँ तक हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु की इस हदीस का ताल्लुक है कि इसमे हुज़ूर अक्दस ﷺ ने ज़मज़म का पानी खड़े होकर पिया, इसकी वजह यह थी कि एक तरफ़ तो ज़मज़म का कुआं और दूसरे उस पर लोगों का हुजूम और फिर कुआं के चारो तरफ़ कीचड, क़रीब में कहीं बैठने की जगह भी नहीं थी, इसलिए आप ﷺ ने पानी खड़े होकर पी लिया, लिहाज़ा इस हदीस से यह लाज़िम नहीं आता कि ज़मज़म का पानी खड़े होकर पीना अफ़ज़ल है,*
*"❀_ हज़रत मौलाना मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. की तहकी़क़ यही थी कि ज़मज़म का पानी बैठ कर पीना ही अफ़ज़ल है, इसी तरह वज़ू का बचा हुआ पानी भी बैठ कर पीना अफ़ज़ल है, अलबत्ता उज़्र के मौक़े पर जिस तरह आम पानी खड़े होकर पीना जाइज़ है उसी तरह ज़मज़म और वज़ू का बचा हुआ पानी भी खड़े होकर पीना जाइज़ है,*
*"❀_ आम तौर पर लोग ये करते हैं कि अच्छे ख़ासे बैठे हुए थे लेकिन जब ज़मज़म का पानी दिया गया तो एक दम से खड़े हो गए और खड़े होकर उसको पिया, इतना अहतमाम करके खड़े होकर पीने की ज़रूरत नहीं है बल्कि बैठ कर पीना चाहिए वही अफ़ज़ल है,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 5/237)
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*☞ _(183) फ़ितना की मानी और माफ़ूम क्या है?-*
*"❀_ फ़ितना क्या चीज़ है? किसको फ़ितना कहते हैं? और इस फितने के दौर में हमारे और आपके लिए हुजूर अक़दस ﷺ की तालीम क्या है? और हमें क्या करना चाहिए? अब ये लफ़्ज़ तो हम सुबह शाम इस्तेमाल करते हैं कि ये बड़े फ़ितने का दौर है, क़ुरान ए करीम में भी फ़ितने का लफ़्ज़ कई बार आया है, एक जगह फ़रमाया कि अल्लाह के नज़दीक फ़ितना क़त्ल से भी ज़्यादा शदीद चीज़ है, फ़ितना अरबी ज़ुबान का लफ़्ज़ है, लुगत में इसके मानी है सोने या चाँदनी वगेरा को आग पर पिघला कर उसका खरा खोटा मालूम करना, आग में तप कर उसकी हकीकत सामने आ जाती है कि ये ख़ालिस है या नहीं ?*
*"❀_ इस वजह से इस लफ़्ज़ को आज़माइश और इम्तेहान में भी इस्तेमाल किया जाने लगा, चुनांचे फ़ितने के दौर से मानी हुए आज़माइश, लिहाज़ा जब इंसान पर कोई तक़लीफ या मुसीबत या परेशानी आए और उसके नतीजे में इंसान की अंदरूनी कैफियत की आज़माइश हो जाए कि वो इंसान ऐसी हालत में क्या तर्जे अमल अख्तियार करता है ? वो उस वक्त सब्र करता है या वावेला करता है, फ़रमाबरदार रहता है या नाफरमान हो जाता है, इस आज़माइश को भी फ़ितना कहा जाता है,*
*"❀_ हदीस शरीफ़ में फ़ितना का लफ़्ज़ जिस चीज़ के लिए इस्तेमाल हुआ है वो ये है कि किसी भी वक़्त ऐसी सूरते हाल पैदा हो जाए जिसमें हक़ मुश्तबा हो जाए और हक़ व बातिल में इम्तियाज़ करना मुश्किल हो जाए, सही और ग़लत में इम्तियाज़ बाक़ी ना रहे, ये पता ना चले कि सच क्या है और झूठ क्या है? जब ये सूरते हाल पैदा हो जाए तो ये कहा जाएगा कि ये फितने का दौर है,*
*"❀_ इसी तरह मा'शरे के अंदर गुनाह फिस्क व फिजूर, नाफरमानी आम हो जाए तो इसको भी फितना कहा जाता है, इसी तरह जो चीज़ हक़ न हो उसको हक़ समझना और जो चीज़ दलीले सबूत न हो उसको दलीले सबूत समझ लेना भी एक फितना है, जिस तरह आज सूरते हाल है कि अगर किसी से दीन की बात कहो कि फलां काम गुनाह है या ना-जाइज़ है, बिद'अत है, जवाब में वो शख्स कहता है कि अरे ये काम तो सब कर रहे हैं, अगर ये काम गुनाह और ना-जा'इज़ है तो फिर सारी दुनिया ये काम क्यों कर रही है? ये काम तो सऊदी अरब में भी हो रहा है, आज के दौर में ये एक नई मुस्तक़िल दलील इजाद हो चुकी है कि हमने ये सऊदी अरब में होते देखा है, इसका मतलब ये है कि जो काम सऊदी अरब में होता है वो यक़ीनी तोर पर हक़ और दुरुस्त है, ये भी एक फ़ितना है कि जो चीज़ हक़ की दलील नहीं थी उसको दलील समझ लिया गया है,*
*"❀_ इसी तरह शहर के अंदर बहुत सारी जमाते खड़ी हो गई हैं, और ये पता नहीं चल रहा है कि कौन हक़ पर है और कौन बातिल पर है? कौन सही कह रहा है और कौन गलत कह रहा है? और हक व बातिल के दरमियान इम्तियाज़ करना मुश्किल हो गया, ये भी फ़ितना है, इसी तरह जब दो मुसलमान या मुसलमानो की दो जमाते आपस में लड़ पड़े और एक दूसरे के खिलाफ़ खून के प्यासे हो जाएं और ये पता चलाना मुश्किल हो जाए कि हक़ पर कौन है और बातिल पर कौन है? तो ये भी एक फ़ितना है,*
*❀"_एक हदीस शरीफ़ में हुज़ूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फ़रमाया - जब दो मुसलमान तलवार लेकर आपस में लड़ने लगें तो क़ातिल और मक़तूल दोनो जहन्नम में जायेंगे _, (सहीह बुख़ारी - किताबुल फ़ितन-10)*
*"❀_ एक और हदीस में हुज़ूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि लोगो पर एक ऐसा ज़माना आएगा जिसमें हरज बहुत ज़्यादा हो जाएगा, सहाबा किराम ने पूछा कि हरज क्या चीज़ है? आप ﷺ ने फरमाया कि क़त्ल और ग़ारतगिरी यानि उस ज़माने में क़त्ल व ग़ारतगिरी बेहद हो जाएगी और इंसान की जान मच्छर मक्खी से ज़्यादा बेहकी़क़त हो जाएगी,*
*"_ एक और हदीस में हुज़ूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि लोगों पर एक ऐसा ज़माना आएगा कि जिसमें क़तिल को ये मालूम नहीं होगा कि मैंने क़त्ल क्यों किया और मक़तूल को ये पता नहीं होगा कि मैंने क्यूँ क़त्ल किया?*
*"❀_ आज के इस पुरफ़ितन दौर में मौज़ूदा हालात पर नज़र डालो और हुज़ूर अकदस ﷺ के इन इरशादत गिरामी को देख कर ऐसा लगता है कि हुज़ूर अकदस ﷺ ने इस ज़माने को देख कर ये इरशाद फ़रमाये थे, ये सारी बातें हुज़ूर अकदस ﷺ साफ़ साफ़ बता गए,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 7/232)*
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*☞ _(184) फ़ितनो के दौर में क्या करना चाहिए :-*
*"❀_ (पहला हुक्म) फ़ितनो के दौर में एक मुसलमान को क्या तर्जे अमल अख़्तियार करना चाहिए? इसके बारे में हुजूर अकदस ﷺ ने पहला हुक्म यह दिया कि पहला काम यह करो कि जम्हूर मुसलमान और उनके इमाम के साथ हो जाओ और जो लोग बग़ावत कर रहे हैं उनसे किनारा कशी अख्तियार कर लो और उनको छोड़ दो,*
*"❀_ एक सहाबी ने सवाल किया कि या रसूलल्लाह ﷺ अगर मुसलमान की अक्सरियत वाली जमात और इमाम न हो तो फिर आदमी क्या करे? यानी आपने जो हुक्म दिया वो उस वक्त है जब मुसलमानों की मुतफक्का़ जमात मौजूद हो, उनका एक सरबराह हो जिस पर सब मुत्तफिक़ हों और उस इमाम की दयानत और तक़वा पर ऐतमाद हो, तब तो उसके साथ चलेंगे लेकिन अगर ना जमात हो और न मुतफ़क्का इमाम हो तो इस सूरत में हम क्या करें? जवाब में हुज़ूर अकदस ﷺ ने फरमाया कि ऐसी सूरत में हर जमात और हर पार्टी से अलग होकर ज़िंदगी गुज़ारों और अपने घरों के टाट बन जाओ_,*
*❀"_ टाट जिससे बोरियां बनती है, पहले ज़माने में इसको बतौर फर्श के बिछाया जाता था, आज कल इसकी जगह क़ालीन बिछाए जाते हैं, मक़सद ये है कि जिस तरह घर का क़ालीन और फर्श होता है, जब एक मर्तबा उसको बिछा दिया तो अब बार-बार उसको उसकी जगह से नहीं उठाते, इसी तरह तुम अपने घरों के टाट और फर्श बन जाओ और बिला ज़रूरत घर से बाहर ना निकलो और उन जमातो के साथ शमुलियत (मेल जोल) अख्तियार मत करो, बल्कि उनसे किनारा कश हो जाओ और अलग हो जाओ, किसी का साथ मत दो, इससे ज़्यादा वाज़े बात और क्या हो सकती है _,"*
*❀_ ( दूसरा हुक्म ) एक हदीस में फरमाया कि जिस वक्त तुम लोगों से किनारा कश हो कर जिंदगी गुजार रहे हो, उस वक्त अगर मुसलमान आपस में लड़ रहे हों और उनके दरमियान क़त्ल व ग़ारतगिरी हो रही हो तो उनको तमाशा के तौर पर भी मत देखो, इसलिए कि जो शख्स तमाशा के तौर पर फितनो की तरफ झांक कर देखेगा वो फितना उसको भी अपनी तरफ खींचेगा और उचक लेगा, इसलिए ऐसे वक्त में तमाशा देखने के लिए भी घर से बाहर न निकलो और अपने घर में बैठे रहो_,"*
*❀"_(तीसरा हुक्म) एक और हदीस में हुजूर अक्दस ﷺ ने फरमाया कि वो फितने ऐसे होंगे कि उसमें खड़ा होने वाला चलने वाले से बेहतर होगा और बैठने वाला खड़े होने वाले से बेहतर होगा, मतलब ये है कि उस फितने के अंदर किसी क़िस्म का हिस्सा मत लो, उस फितने की तरफ़ चलना भी ख़तरनाक है, इससे बेहतर ये है कि बैठ जाओ और बैठना भी ख़तरनाक है, उससे बेहतर ये है कि लेट जाओ, गोया कि अपने घर में बैठ कर अपनी ज़िंदगी को दुरुस्त करने की फ़िक्र करो और घर से बाहर निकल कर इज्तिमाई मसीयत और इज्तिमाई फितने को दावत मत दो,*
*❀"_ (चौथा हुक्म) एक और हदीस में हुजूर अकदस ﷺ ने इरशाद फरमाया कि एक ज़माना ऐसा आएगा कि उसमें आदमी का सबसे बेहतर माल उसकी बकरियां होंगी जिसको वो ले कर पहाड़ की चोटी पर चला जाए और शहरों की ज़िंदगी छोड़ दे और उन बकरियों पर इक्तिफ़ा करके अपनी ज़िंदगी बसर करे, ऐसा शख़्स सबसे ज़्यादा महफ़ूज़ होगा क्योंकि शहरो में उसको ज़ाहिरी और बातिनी फ़ितने उचकने के लिए तैयार होंगे_,"*
*"❀_ इन तमाम अहादीस के ज़रिए हुजूर अकदस ﷺ ये बताना चाहते हैं कि वो वक़्त इज्तिमाई और जमाती काम का नहीं होगा, क्योंकि जमाते सबकी सब गैर मौतबर होंगी, किसी भी जमात पर भरोसा करना मुश्किल होगा, हक़ और बातिल का पता नहीं चलेगा, इसलिए ऐसे वक्त में अपनी ज़ात को उन फ़ितनो से बचा कर और अल्लाह ताला की इता'त में लगा कर किसी तरह अपने ईमान को क़ब्र तक ले जाओ, उन फ़ितनो से बचाव का सिर्फ़ यही एक रास्ता है,*
*®_ ( इस्लाही ख़ुतबात- 7/353)*
*📘 इस्लाम और दौरे हाज़िर के शुबहात व मुगालते (हज़रत मौलाना मुफ्ती तक़ी उस्मानी साहब मद्दज़िल्लहु)*
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*☞ _(185) भाइयों में हिसाब किताब की क्या ज़रूरत है?*
*"❀_ आज कल ये वबा भी आम है कि चंद भाइयों का शामिल कारोबार है लेकिन हिसाब किताब कोई नहीं, कहते हैं कि हम सब भाई है, हिसाब किताब की क्या ज़रूरत है? हिसाब किताब तो गैरो में होता है, अपनो में हिसाब किताब कहाँ? अब इसका कोई हिसाब किताब, कोई लिखत पढ़त नहीं है कि किस भाई की कितनी मिल्कियत और कितना हिस्सा है? माहाना किसको कितना मुनाफ़ा दिया जाएगा?*
*"❀_ जिसका नतीज़ा ये होता है कि कुछ दिनों तक मुहब्बत और प्यार से हिसाब चलता रहता है लेकिन बाद में दिलों में शिकवे शिकायते पैदा होनी शुरू हो जाती है कि फ़लां की औलाद तो इतनी है, वो ज़्यादा रक़म लेता है, फलां की शादी पर इतना खर्च किया गया, हमारे बेटे की शादी पर कम खर्च हुआ, फलां ने कारोबार से इतना फायदा उठा लिया, हमने नहीं उठाया वगैरा वगैरा, भाइयों के दरमियान मामलात के अंदर जो मुहब्बत और प्यार होता है वो कुछ दिन चलता है, बाद में वो लड़ाई झगड़ों में तब्दील हो जाता है,*
*"❀_ ये सब कुछ इसीलिए हुआ कि हम नबी करीम ﷺ के बताए हुए तरीक़े से दूर चले गए, याद रखिए हर मुसलमान पर वाजिब है कि अगर कोई मुश्तरक चीज़ है तो उस मुश्तरक चीज़ का हिसाब किताब रखा जाए, अगर हिसाब किताब नहीं रखा जा रहा है तो तुम खुद भी गुनाहों में मुब्तिला हो रहे हो और दूसरों को भी गुनाहों में मुब्तिला कर रहे हो,*
*"❀_ मिल्कियत में इम्तियाज होना ज़रूरी है, यहां तक कि बेटे की मिल्कियत में और शौहर बीवी की मिल्कियत में इम्तियाज़ होना जरूरी है, हकीमुल उम्मत हजरत थानवी रह. की दो बीवियां थीं, दोनों के घर अलग अलग थे, हज़रत फरमाते हैं कि मेरी मिल्कियत और मेरी दोनों बीवियों की मिल्कियत बिल्कुल अलग अलग करके बिल्कुल इम्तियाज कर रखा है, वो इस तरह है कि जो कुछ सामान बड़ी अहलिया के घर में है वो उनकी मिल्कियत है और जो सामान छोटी अहलिया के घर में है वो उनकी मिल्कियत है और जो सामान खानका़ह में है वो मेरी मिल्कियत है,आज अगर दुनिया से चला जाऊं तो कुछ कहने सुनने की ज़रूरत नहीं, अल्हम्दुलिल्लाह सब इम्तियाज़ मौजूद है,*
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*☞ _(186) दिल ना चाहते हुए भी ताल्लुक किस तरह निभाया जा सकता है?*
*"❀_ मोमिन का काम ये है कि जब उसका किसी के साथ ताल्लुक कायम हो तो अब हत्तल इमकान अपनी तरफ से उस ताल्लुक को ना तोड़े बल्की उसको निभाता रहे, चाहे तबियत पर निभाने की वजह से गिरानी भी हो लेकिन फिर भी उसको निभाता रहे, और उस ताल्लुक को रंजिश पर खत्म न करे, ज़्यादा से ज़्यादा ये करें कि अगर किसी के साथ तुम्हारी मुनासबत नहीं है तो उसके साथ उठना बैठना ज़्यादा ना करे,*
*"❀_ लेकिन ऐसा ताल्लुक खत्म करना कि अब बोल चाल भी बंद और दुआ सलाम भी ख़त्म, मिलना जुलना भी ख़त्म, एक मोमिन के लिए ये बात मुनासिब नहीं लेकिन निबाह करने के मा'नी समझ लेना चाहिए, निबाह करने के मा'नी ये है कि उसके हुकूक अदा करते रहो और उससे ताल्लुक ख़त्म ना करो लेकिन निबाह करने के लिए दिल में ताल्लुक का पैदा होना और उसके साथ दिल का लगना और तबीयत में किसी क़िस्म की उलझन का बाक़ी ना रहना ज़रूरी नहीं,*
*"❀_ और ना ये ज़रूरी है कि दिन रात उनके साथ उठना बैठना बाक़ी रहे और उनके साथ हँसना बोलना और मिलना जुलना बाक़ी रहे, निबाह के लिए इन चीज़ो का बाक़ी रखना ज़रूरी नहीं बल्कि ताल्लुकात को बाक़ी रखने के लिए हुकूक ए शरई की अदायगी काफ़ी है,*
*"❀_ लिहाज़ा आपको इस बात पर कोई मजबूर नहीं करता कि आपका दिल फ़लां के साथ नहीं लगता लेकिन आप ज़बरदस्ती उसके साथ मुलाक़ात करें या आपकी उनके साथ मुनासबत नहीं है तो अब कोई इस पर मजबूर नहीं करता कि आप ताबियत के ख़िलाफ़ उनके पास जाकर बैठें, बस सिर्फ़ उनके हुकूक अदा करते रहें और क़ता ताल्लुक ना करें, हदीस में आता है कि किसी के साथ अच्छी तरह से निबाह करना भी ईमान का एक हिस्सा है _,"*
*®_( इस्लाही खुतबात- 10/104)*
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*☞_(187) जाइज़ तफ़रीह की इजाज़त है _,*
*❀"_ ये जो फ़िज़ूल क़िस्म की मजलिस आराई होती है, जिसको आज कल गपशप कहा जाता है, कोई दोस्त मिल गया तो फ़ोरन उससे कहा कि आओ ज़रा बैठ कर गपशप करें, ये गपशप लाज़मन इंसान को गुनाह की तरफ़ ले जाती है,*
*"❀_ हाँ शरीयत ने हमें थोड़ी बहुत तफ़रीह की भी इजाज़त दी है, बल्की नबी करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया कि दिलो को थोड़े थोड़े वक़्फ़े से आराम भी दिया करो _," ( कंज़ुल उम्माल-5354)*
*"❀_ नबी करीम ﷺ की तालीमात पर क़ुर्बान जायें कि हमारे मिज़ाज हमारी नफ़सियात और हमारी ज़रूरत को उनसे ज़्यादा पहचानने वाला और कौन होगा, वो जानते हैं कि अगर उनसे कहा जाए कि अल्लाह के ज़िक्र के अलावा कुछ न करो, हर वक़्त ज़िकरुल्लाह में मशगूल रहो, तो ये ऐसा नहीं कर पाएंगे, इसलिए कि ये फ़रिश्ते नहीं हैं ये तो इंसान है, इनको थोड़े से आराम की भी ज़रूरत है, थोड़ी सी तफ़रीह की भी ज़रूरत है, इसलिए तफ़रीह के लिए कोई बात करना, खुश तबई के साथ बोल लेना, ना सिर्फ़ ये कि ज़ायज़ है बल्की पसंदीदा है और नबी करीम ﷺ की सुन्नत है,*
*"❀_ लेकिन इसमें इतना ज़्यादा मुनहमिक हो जाना कि इसमें कई कई घंटे बर्बाद हो रहे हैं, की़मती औक़ात ज़ाया हो रहे हैं, तो ये चीज़ इंसान को लाज़मी तोर पर गुनाहों की तरफ़ ले जाने वाली है, इसलिए फ़रमाया जा रहा है कि तुम बाते काम करने की आदत डालो और ये भी मुजाहिदा है,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 2/167)*
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*☞_(188) क्या मज़ाक और खुश तबई के लिए झूठ बोलना जायज़ है?*
*"❀_ बहुत से लोग ये समझते हैं कि झूठ उसी वक्त ना-जायज़ और हराम है जब वो संजीदगी से बोला जाए और मज़ाक में झूठ बोलना जायज़ है, चुनांचे अगर किसी से कहा जाए कि तुमने फलां मौक़े पर ये बात कही थी वो तो सच्ची नहीं थी, तो जवाब में वो कहता है कि मैं तो मज़ाक में ये बात कह रहा था, गोया मज़ाक में झूठ बोलना कोई बुरी बात ही नहीं,*
*"❀_ हुज़ूर अकदस ﷺ ने फ़रमाया कि मोमिन ऐसा होना चाहिए कि उसकी ज़ुबान से खिलाफ़े वाक़िया बात निकले ही नहीं, हत्ताकी मज़ाक में भी न निकले, अगर मज़ाक और खुश तबई के अंदर हो तो उसमें कोई हर्ज नहीं, शरीयत ने खुश तबई और मज़ाक को ज़ायज़ क़रार दिया है लेकिन इसकी थोड़ी सी तरगीब भी दी है, हर वक़्त खुश्क और संजीदा बन कर बैठा रहे कि उसके मुंह पर भी तबस्सुम और मुस्कुराहट ही न आए ये बात पसंदीदा नहीं,*
*"❀_ ख़ुद हुज़ूर अक़दस ﷺ का मज़ाक करना साबित है लेकिन ऐसा लतीफ़ मज़ाक और ऐसी खुश तबई की बातें आपसे मंक़ूल हैं जो लतीफ़ भी हैं और उनमें कोई बात खिलाफ़े वाक़िया भी नहीं है,*
*"❀_ एक हदीस में इरशाद फ़रमाया कि कोई बंदा उस वक़्त तक कामिल मोमिन नहीं हो सकता जब तक वो मज़ाक में भी झूठ बोलना न छोड़े और बहस व मुबाहसा न छोड़े चाहे वो हक़ पर हो_," (मुसनद अहमद, तिबरानी)*
*"_ एक और हदीस में इरशाद फ़रमाया है कि अफ़सोस है उस शख़्स पर, या सख़्त अलफ़ाज़ में इसका सही तर्जुमा ये कर सकते हैं कि उस शख़्स के लिए दर्दनाक अज़ाब है जो महज़ लोगों को हंसाने के लिए झूठ बोलता है_," (अबु दाऊद, तिरमिज़ी, नसाई)*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 10/121-122)*
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*☞__(189) मुंह बोले बेटे को हकी़की बाप की तरफ मंसूब करना जरूरी है _,*
*"❀_ एक मसला ये भी है जिस पर कुरान करीम ने आधा रुकू नाज़िल किया है वो ये कि बाज़ औक़ात कोई शख़्स दूसरे के बच्चे को अपना मुंह बोला बेटा बना लेता है, मसलन किसी शख़्स की कोई औलाद नहीं है, उसने दूसरे का बच्चा गोद ले लिया और उसकी परवरिश की और उसको अपना बेटा बना लिया, तो शर'अन मुंह बोला बेटा बनाना और किसी बच्चे की परवरिश करना और अपने बेटे की तरह उसको पालना तो जायज़ है लेकिन शरई ऐतबार से वो किसी भी हालत में हकी़की बेटा नहीं बन सकता,*
*❀"_ लिहाज़ा जब उस बच्चे को मंसूब करना हो तो उसको असल बाप ही की तरफ़ मंसूब करना चाहिए कि फलां का बेटा है, परवरिश करने वाले की तरफ़ निस्बत करना जायज़ नहीं और रिश्तों के जितने अहकाम हैं वो सब असल बाप की तरफ़ मंसूब होंगे, यहाँ तक कि जिस शख़्स ने उसको अपना मुंह बोला बेटा बनाया है और जो औरत मुंह बोली माँ बनी है अगर वो ना-मेहरम है तो उस बच्चे के बड़े होने के बाद उससे उसी तरह पर्दा करना होगा जिस तरह एक ना-मेहरम से पर्दा होता है,*
*"❀_ हुज़ूर अक़दस ﷺ ने हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु को अपना बेटा बना लिया था, उसके बाद से हुज़ूर अक़दस ﷺ उनके साथ बेटे जैसा ही सुलूक फरमाते तो लोगों ने भी उनको ज़ैद बिन मुहम्मद (ﷺ) कहकर पुकारना शुरू कर दिया, जिस पर अल्लाह ताला की तरफ़ से बा-क़ायदा आयत नाज़िल हुई (अल अहज़ाब- 5),*
*"❀_ यानी तुम लोगों ने मुंह बोले बेटे का जो नसब बयान करना शुरू कर दिया है, ये दुरुस्त नहीं, बल्की जो बेटा जिस बाप का हो उसी हक़ीक़ी बाप की तरफ़ मंसूब करो, किसी और की तरफ़ मंसूब करना जायज़ नहीं,*
*"_ और दूसरी जगह ये आयत (अल -अहज़ाब-40) नाज़िल फ़रमाई :-*
*"❀_ यानी मुहम्मद ﷺ तुममें से किसी मर्द के हक़ीक़ी बाप नहीं है, लेकिन वो अल्लाह के रसूल है और ख़ातिमुन नबीययीन है, इसलिए उनकी तरफ़ किसी बेटे को मंसूब मत करो, और आइंदा के लिए ये उसूल मुक़र्रर फ़रमाया कि कोई मुंह बोले बाप की तरफ़ मंसूब नहीं होगा, बल्की हक़ीक़ी बाप की तरफ़ मंसूब होगा,*
*"❀_ ये सब अहकाम इसीलिए दिए गए कि शरीयत ने नसब के तहफ़्फ़ुज़ का बड़ा अहतमाम फ़रमाया है कि किसी की निस्बत ग़लत न हो जाए, उसकी वजह से मुगालता पैदा न हो जाए, इसलिए जो शख़्स अपना नसब गलत बयान करे वो हदीस की वईद के अंदर दाखिल है और वो झूठ के दो कपडे पहनने वाले की तरह है,*
*®_( इस्लाही खुतबात- 10/265)*
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*☞_(190) सुन्नत का मज़ाक उड़ाने वालों की परवाह ना करें:-*
*"❀_ बसा औक़ात जब आदमी इत्तेबा ए सुन्नत की तरफ़ क़दम बढ़ाता है तो उसको ताने भी दिए जाते हैं, उस पर फ़िक़रे भी किए जाते हैं, बाज़ औक़ात उसका मज़ाक भी उड़ा जाता है, इन फ़िक़रों और तानों की वजह से बाज़ लोग कमज़ोर पड़ जाते हैं, हालांकि क़ुरान करीम ने ऐसे लोगों की तारीफ़ की है,*
*"❀_ यानी ये लोग अल्लाह के रास्ते में मेहनत करते हैं और किसी मलामत करने वाले की मलामत की परवाह नहीं करते, दुनिया वाले लोग जो चाहे कहे, चाहे वो हमें "दक़ियानुसी" कहें या हमें रज'त पसंद (हठधर्मी) कहें, या जाहिलाना इस्लाम वाले कहें, अरे ये ताने अल्लाह के रास्ते पर चलने वाले का हार है, ये ताने तो अम्बिया अलैहिस्सलाम को दिए गए, उनको बेवकूफ़ कहा गया और उन अम्बिया के मानने वालों से कहा गया कि क्या हम भी उसी तरह ईमान ले आए जिस तरह ये बेवकूफ़ ईमान लाए, ये सारे ताने अम्बिया अलैहिस्सलाम को भी मिले और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को भी मिले हैं,*
*"❀_ उनको पागल कहा गया, उनको गुमराह कहा गया लेकिन दर हक़ीक़त अल्लाह ताला के रास्ते में ये ताने पड़ते हैं तो एक मोमिन के लिए तमगा है, कहां तक दुनिया वालों की जुबां रोकोगे ? कब तक उनकी परवाह करोगे,*
*"❀_ लिहाज़ा जब नबी करीम ﷺ की इत्तेबा के रास्ते पर चलो तो तानो से बेनियाज़ हो जाओ, कमर कस कर तैयार हो जाओ और ये सोचो कि जो ताने हमें इस रास्ते में मिलेंगे वो हमारे लिए अल्लाह ताला की तरफ़ से बाइसे ऐज़ाज़ है, अल्लाह ताला अपने फ़ज़ल व करम से और अपनी रहमत से हम सबको इसकी तोफ़ीक़ और फ़रमाये, आमीन,*
*®_( इस्लाही मजालिस- 6/183)*
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*☞_(191) क्या औलाद की नाफरमानी पर हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के बेटे की दलील देना सही है?*
*"❀_ अल्लाह ताला ने फ़रमाया कि अपने आपको और अपने घर वालों को आग से बचाओ, दर हक़ीक़त इसमें एक शुबहा के जवाब की तरफ़ इशारा फ़रमाया है जो शुबहा आम तौर पर हमारे दिलो में पैदा होता है, वो यह है कि आज जब लोगों से ये कहा जाता है कि अपनी औलाद को भी दीन की तालीम दो, कुछ दीन की बातें उनको सिखाओ उनको दीन की तरफ़ लाओ, गुनाहों से बचाने की फ़िक्र करो, तो इसके जवाब में बा क़सरत लोग ये कहते हैं कि हमने औलाद को दीन की तरफ़ लाने की बड़ी कोशिश की मगर क्या करें माहौल और मा'शरा इतना ख़राब है कि बीवी बच्चो को बहुत समझाया मगर वो मानते नहीं है और ज़माने की ख़राबी से मुतास्सिर होकर उन्होंने दूसरा रास्ता अख़्तियार कर लिया है और उस रास्ते पर जा रहे हैं और रास्ता बदलने के लिए तैयार नहीं है, अब उनका अमल उनके साथ है, हमारा अमल हमारे साथ है, अब हम क्या करें?*
*"❀_ और दलील में ये पेश करते हैं कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम का बेटा भी तो आख़िर नाफ़रमान रहा और हज़रत नूह अलैहिस्सलाम उनको तूफ़ान से ना बचा सके, इसी तरह हमने बहुत कोशिश कर ली है वो नहीं मानते तो हम क्या करें? चुनांचे क़ुरान करीम ने आयत में आग का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके इस इश्काल और शुब'हा का जवाब दिया वो यह कि माँ बाप को अपनी औलाद को गुनाहों से इस तरह बचाना चाहिए जिस तरह उनको आग से बचाते हैं,*
*"❀_ अल्लाह ताला ये फरमा रहे हैं कि जब तुम अपने बच्चों को दुनिया की मामूली सी आग से बचाने के लिए सिर्फ़ ज़ुबानी जमा खर्च पर इक्तिफ़ा नहीं करते तो जहन्नम की वो आग जिसकी हुदूद निहायत नहीं और जिसका दुनिया में तसव्वुर नहीं किया जा सकता, उस आग से बच्चों को बचाने के लिए जमा खर्च को काफ़ी क्यों समझते हो? हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के बेटे की जो मिसाल दी जाती है कि उनका बेटा नाफ़रमान रहा, वो उनको नहीं बचा सके, ये बात दुरुस्त नहीं, इसलिए कि ये भी तो देखो कि उनको राहे रास्त पर लाने की 900 साल तक लगातार कोशिश की, इसके बावजूद जब राहे रास्त पर नहीं आया तो अब उनके ऊपर कोई मुतालबा और कोई मुवाख़्ज़ा नहीं,*
*"❀_ लेकिन हमारा हाल ये है कि एक दो मर्तबा कहा और फिर फ़ारिग़ होकर बैठ गए कि हमने तो कह दिया, हालांकि होना ये चाहिए कि उनको गुनाहों से उसी तरह बचाओ जिस तरह उनको हक़ीक़ी आग से बचाते हो, अगर इस तरह नहीं बचा रहे हो तो इसका मतलब ये है कि फ़रीज़ा अदा नहीं हो रहा है,*
*"❀_ आज तो ये नज़र आ रहा है कि औलाद के बारे में हर चीज़ की फ़िक्र है, मसलन ये तो फ़िक्र है कि बच्चे की तालीम अच्छी हो, उसका कैरियर अच्छा हो, ये फ़िक्र है कि मा'शरे में उसका मुक़ाम अच्छा हो, ये फ़िक्र तो है कि उसके खाने पीने और पहनने का इंतेज़ाम अच्छा हो जाए लेकिन औलाद के दीन की फ़िक्र नहीं,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 4/27)*
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*☞_(192) वाल्देन की वफ़ात के बाद उनकी खिदमत की तलाफ़ी की सूरत क्या हो?*
*"❀_ अक्सर व बेश्तर ये होता है कि वाल्देन के मरने के बाद औलाद को इस बात का अहसास होता है कि हमने कितनी बड़ी नियामत खो दी और हमने उसका हक़ अदा न किया, इसके लिए भी अल्लाह ताला ने एक रास्ता रखा है, अगर किसी ने वाल्देन के हुकूक में कोताही की हो और उसका फ़ायदा न उठाया तो इसकी तलाफ़ी के दो रास्ते हैं_,*
*"❀_ एक उनके लिए ईसाले सवाब की कसरत करना, जितना हो सके उनको सवाब पहुंचाए, सदक़ा दे कर हो या नवाफ़िल पढ़ कर हो या क़ुरान की तिलावत के जरिए हो, इसके ज़रिए उसकी तलाफ़ी हो जाती है,*
*"❀_ दूसरे यह कि वल्देन के अज़ीज़ो अकारिब या दोस्त अहबाब हैं, उनके साथ हुस्ने सुलूक करें और उनके साथ भी ऐसा ही सुलूक करें जैसा कि बाप के साथ करना चाहिए, इसके नतिजे में अल्लाह ताला उस कोताही की तलाफ़ी फ़रमा देते हैं, अल्लाह ताला मुझे और आप सबको इसकी तोफ़ीक़ अता फ़रमाए आमीन,*
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 4/73)*
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*☞__(193) कहा सुना माफ़ कर देना :-*
*"❀_ ये जुमला कि कहा सुना माफ़ कर देना ये हमारे बुज़ुर्गों का चलाया हुआ कितना हकीमाना जुमला है, जबसे हमने होश संभाला है उस वक़्त से बड़ो से ये सुनते चले आ रहे हैं कि जब दो चार आदमी कुछ दिन या कुछ देर साथ रहने के बाद जुदा होने लगते हैं तो उस वक़्त एक दूसरे से ये जुमला कहते हैं कि भाई हमारा कहा सुना माफ़ कर देना _,"*
*❀"_ इसलिए कि जब सफ़र या हज़र में दो चार आदमी साथ रहते हैं तो कुछ ना कुछ एक दूसरे की हक़ तलफी होने का अहतमाल होता है, लिहाज़ा जुदा होने से पहले उन हुकूक को माफ़ करा लो, अगर ये माफ़ न कराया और बाद में कुछ अरसा के ख़याल आया कि हमने तो फ़लां की हक़ तलफ़ी की थी, उस वक़्त कहाँ ढूँढ़ते फिरेंगे ? बाद में मालूम नहीं कि मुलाक़ात हो या ना हो, माफ़ी मांगने का मौक़ा मिले या ना मिले, लिहाज़ा जुदा होते वक़्त ही ये काम कर लेना चाहिए,*
*"❀_ इस जुमले में ग़ीबत भी खुद बा खुद दाख़िल हो जाएगी और ग़ीबत से भी माफ़ी हो जाएगी,*
*®_ ( इस्लाही मजालिस - 1/177)*
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*☞_(194) अल्लाह की मुहब्बत गैर अख़्तियारी होने के बावजूद इसका हुक्म क्यों दिया गया?*
*"❀_ एक इश्काल ये पैदा होता है कि आपने तो ये उसूल बयान फ़रमाया कि अख़्तियारी अम्र मामूर बा है और गैर अख़्तियारी का इंसान मुक़ल्लिफ़ नहीं, और अल्लाह ताला की मुहब्बत का दिल में पैदा करना जो मामूर बा है, इसी तरह हुज़ूर अकदस ﷺ की मुहब्बत मामूर बा है, यहाँ तक कि आप ﷺ ने ये इरशाद फ़रमाया कि तुममें से कोई शख्स उस वक़्त तक मोमिन नहीं होगा जब तक कि मैं उसके नज़दीक उसके वाल्दैन से और उसकी औलाद से और तमाम लोगों से ज़्यादा महबूब न हो जाऊं _, (सही बुखारी किताबुल ईमान)*
*"❀_ लिहाज़ा ख़्याल ये पैदा होता है कि जब मुहब्बत ग़ैर अख़्तियारी चीज़ है तो इसको ज़बरदस्ती कैसे अपने दिल में पैदा करें ? इसका जवाब हज़रत वाला ने इस मलफ़ूज़ में दे दिया कि जो मुहब्बत मामूर बा है वो मुहब्बत तबई नहीं, बल्की मुहब्बत अक़ली है, यानी जब अक़ल से वो सोचेगा कि इस कायनात में सबसे ज़्यादा मुहब्बत के लायक़ कौन होना चाहिए? तो उसकी अक़ल उसको इस नतीजे पर पहुंचाएगी कि इस कायनात में सबसे ज़्यादा मुहब्बत अल्लाह और उसके रसूल ﷺ से होनी चाहिए,*
*"❀_ चाहे दिल में तबई तौर पर मुहब्बत के जज़्बात उस तरह उमड़ते हुए होना मेहसूस ना हो जिस तरह वाल्दैन और औलाद के लिए मुहब्बत के जज़्बात दिल में उभरते हुए मेहसूस होते हैं, अगर बिल फ़र्ज़ किसी का ये हाल हो तो वो ये ना समझे कि मैं काफ़िर हो गया बल्की वो सोचे कि अल्हम्दुलिल्लाह मुझे अल्लाह और उसके रसूल ﷺ से मुहब्बत अक़ली हासिल है, अगरचे मुहब्बत तबई उस दर्जे की नहीं है,*
*®_( इस्लाही मजालिस - 2/285)*
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*☞_ (195) साल गिरह की हकीकत:-*
*❀"_ किसी ने खूब कहा कि - हो रही है उम्र मिस्ले बर्फ कम, चुपके चुपके रफ्ता रफ्ता दम बा दम, जिस तरह बर्फ हर लम्हे पिघलती रहती है, उसी तरह इंसान की उम्र हर लम्हे पिघलती रहती है और जा रही है,*
*"❀_ जब उम्र का एक साल गुज़र जाता है तो लोग साल गिरह मनाते हैं और उसमें इस बात की बड़ी ख़ुशी मनाते हैं कि हमारी उम्र का एक साल पूरा हो गया है और उसमें मोम बत्तियाँ जलाते हैं और केक काटते हैं और खुदा जाने क्या-क्या खुराफाते करते हैं,*
*"❀_ अब ये रोने की बात है या खुश होने की बात है ? ये तो अफ़सोस का मौक़ा है कि तेरी जिंदगी का एक साल और कम हो गया, आम तौर पर लोगों के मरने के बाद उनका मर्सिया कहा जाता है लेकिन हजरत मुफ्ती शफी साहब रह. अपना मर्सिया खुद कहते थे और उसका नाम रखते थे "मर्सिया उम्र रफ्ता" यानी उम्र का मर्सिया, अगर अल्लाह ताला हमें फहम अता फरमाए तब ये बात समझ में आएगी कि वक्त जो गुज़र गया वो अब वापस आने वाला नहीं, इसलिए इस पर खुशी मनाने का मौक़ा नहीं है बल्कि आइंदा की फिक्र करने का मौक़ा है कि बाक़ी ज़िंदगी का वक्त किस तरह से काम में लग जाए,*
*"❀_ ख़ुलासा ये है कि अपनी ज़िंदगी के एक एक लम्हे को नियामत समझो और उसको अल्लाह के ज़िक्र और उसकी इताअत में गुज़रने की कोशिश करो, ग़फ़लत बेपरवाही और वक़्त की फ़िज़ूल ख़र्ची से बचो,*
*"❀_ किसी ने ख़ूब कहा है कि- ये कहाँ का फ़साना सोद व ज़ियां, जो गया सो गया, जो मिला सो मिला, कहो दिल से कि फ़ुरसते उम्र है कम, जो दिला तो खुदा ही की याद दिला_,*..
*®_( इस्लाही ख़ुतबात- 3/215)*
*📘 इस्लाम और दौरे हाज़िर के शुबहात व मुगालते (हज़रत मौलाना मुफ्ती तक़ी उस्मानी साहब मद्दज़िल्लहु)*
*"❀__ अल्हम्दुलिल्लाह पोस्ट मुकम्मल हुई _,*
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