Mohsin E Insaniyat ﷺ (Hindi)

 


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     ✮┣ l ﺑِﺴْـــﻢِﷲِﺍﻟـﺮَّﺣـْﻤـَﻦِﺍلرَّﺣـِﻴﻢ ┫✮
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       *■ मोहसिन ए इंसानियत ﷺ ■* ⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙ ★ *क़िस्त–01_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥ एक झलक :- "ये चेहरा एक झूठे आदमी का चेहरा नहीं हो सकता _," (अब्दुल्ला बिन सलाम रजि.)*

*❀__ दुनिया में अज़ीम कारनामे अंजाम देने वाली हस्तियां (खुसूसन अंबिया अलैहिस्सलाम) हमेशा गैर मामूली दर्जे की शख्सियत से आरास्ता होती हैं, सीरते पाक के मुताले की एक गर्ज़ ये भी है कि मोहसिने इंसानियत को समझा जाये, किसी भी शख्सियत को समझने में उसकी वजाहत बहुत बड़ी मदद देती है, आदमी का सरापा उसके बदन की साख्त उसके आजा़ का तनासुब खास उसके ज़हन और अखलाकी़ और जज़्बाती मर्तबे का आईना दार होता है, खुसूसन चेहरा एक ऐसा क़िरतास ( काग़ज़) होता है जिस पर इंसानी किरदार और करनामो की सारी दास्तान लिखी होती है और हम पर एक नज़र डालते ही हम किसी के मुक़ाम का तस्व्वुर कर सकते हैं _,"*

*❀__ हम बाद के लोगो की ये कोताही ए किस्मत है कि दुनिया की सबसे बड़ी शख्सियत का रूए जे़बा हमारे सामने नहीं है और ना हम आलमे वका़ में सर की आंखो से ज़ियारत का शर्फ हासिल कर सकते हैं, हम हुज़ूर ﷺ के हुस्न व जमाल की जो कुछ भी झलक पा सकते हैं वो हुज़ूर ﷺ के पैगाम और कारनामे के आईने ही में पा सकते हैं _,"*

*❀__ हुज़ूर ﷺ की कोई हकीक़ी शबिया या तस्वीर मोजूद नहीं है, खुद ही हुज़ूर ﷺ ने उम्मत को इससे बाज़ रखा, क्यूंकी तस्वीर का फ़ितना शिर्क से दूर नहीं रह सकता, हुज़ूर ﷺ की अगर कोई तस्वीर मोजूद होती तो ना जाने उसके साथ क्या क्या करामात और ऐजाज़ मनसूब हो जाते, और उसके ऐजाज़ के लिए केसी केसी रस्में और तक़रीबे नमुदार हो चुकी होती बल्की बईद ना था कि उसकी परिसतिश होने लगती _,"*

*"_ जारी अगले पार्ट में_,"*           

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 75 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–02_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ लेकिन हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम ने कम से कम अल्फाज़ में हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शबिया को मुरत्तब कर दिया है और उसे मेहफूज़ हालत में असहाब ए रिवायत ने हम तक पहुंचा दिया है, यहां हम उस लफ्ज़ ए शबिया को पेश करते हैं ताकी क़ारईन हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के किरदार का मुता'ला करने से पहले उस अज़ीम शख्सियत की एक झलक देख लें, ये गोया एक नो'अ की मुलाक़ात है .. एक तार्रुफ़!*

*❀__ हुज़ूर ﷺ के चेहरा अक़दस, क़द व क़ामत, खद व ख़ाल, चाल ढाल और वजाहत का जो अक्स सदियों के पर्दों से छन कर हम तक पहूँचा है वो बहरहाल एक ऐसी शख़्सियत का तस्व्वुर दिलाता है जो ज़हानत, शुजा'त, सब्र व इस्तेक़ामत, रास्ती व दयानत, आली ज़र्फी सखावत, फ़र्ज़ शनासी वकार व इंकसार और फ़साहत व बलागत जैसे औसाफ़ ए हमीदा का जामा था, बल्की कहना चाहिए कि हुज़ूर ﷺ के जिस्मानी नक़्शे में रूह ए नबूवूत का पुर तो देखा जा सकता है, और आपकी वजाहत खुद आपके मुकद्दस मर्तबे की एक दलील थी _,"*

*❀_ इज मोके़ पर आपका एक इरशाद याद आया, फरमाया - खुदा का तक़वा ही चेहरों को रोशन करता है, नबुवत तो ईमान व तक़वा की मैराज है, नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का चेहरा मुबारक तो नूर अफशां होना ही चाहिए, सो ये उस आफताब ए हक़ की एक झलक है!*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -75,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–03_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥--- वजाहत:-*
 *❀_ मैने जोंही हुज़ूर ﷺ को देखा तो फौरन समझ लिया कि आपका चेहरा एक झूठे आदमी का नहीं हो सकता है _," (अब्दुल्ला बिन सलाम रज़) मैं अपने बेटे को साथ लेकर हाज़िर हुआ तो लोगो ने दिखाया कि ये हैं खुदा के रसूल! देखते ही मैंने कहा - वाक़़ई ये अल्लाह के नबी है _," (शमाइल ए तिर्मिज़ी)*

*❀__ अब्दुल्ला बिन सलाम रजियल्लाहु अन्हु यहूद के एक बड़े आलिम थे, जिनका नाम हुसैन था, सरवरे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मदीना आने पर ये देखने को गए, देखते ही उनको जो तास्सूर हुआ, बाद में उसे इन अल्फाज़ में बयान किया है, ईमान लाए और अब्दुल्लाह नाम तजवीज़ हुआ_," (सीरत ए मुस्तफा, मौलाना मुहम्मद इदरीस कांधलवी मरहूम - 1/339-350)*

*❀__ मुतमइन रहो मैंने उस शख्स का चेहरा देखा था जो चौदहवीं रात के चांद की तरह रोशन था, वो कभी तुम्हारे साथ बद मामलगी करने वाला शख्स नहीं हो सकता, अगर ऐसा आदमी (ऊंट की रक़म) अदा ना करे तो मैं अपने पास से अदा कर दूंगी _," (एक मो'अज़ीज़ खातून)*

*❀__ मदीना में एक तिजारती क़ाफ़िला वारिद हुआ और शहर से बाहर ठहरा, हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इत्तेफ़ाक़न उस तरफ़ से गुज़र हुआ, एक ऊंट का सौदा कर लिया और ये कह कर ऊंट साथ ले आए कि क़ीमत भिजवा देता हूं, बाद में क़ाफ़िले वालो को तशवीश हुई कि बगेर जान पहचान के मामला कर लिया, इस पर सरदारे क़ाफ़िले की खातून ने मज़कूरा फ़िक़रा कहा, ये वाक़िया तारिक़ बिन अब्दुल्लाह ने बयान किया जो ख़ुद शरीके क़फ़िला थे, बाद में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तैयशुदा क़ीमत से ज्यादा मिक़दार में खजूरें भिजवा दी_," (सीरतुन नबी ﷺ, मौलाना शिबली मरहूम - जिल्द -2 सफा 380)*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -76,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–04_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥-- हमने ऐसा ख़ूब रु शख्स और नहीं देखा ... हमने उसके मुंह से रोशनी सी निकलती देखी है _," (अबू क़ुरसाफ़ा की वाल्दा और ख़ाला)*

*❀__ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ज़्यादा ख़ूब रु किसी को नहीं देखा, ऐसा लगता गोया आफ़ताब चमक रहा है _," (अबू हुरैरा रज़.)*
*"_ अगर तुम हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखते तो समझते कि सूरज तुलु हो गया है _," (रबि'आ बिनते माउज़)*
*"_ देखने वाला पहली नज़र में मर'ऊब हो जाता_" (हज़रत अली रज़.)*

*❀__ मैं एक मरतब चांदनी रात में हुज़ूर ﷺ को देख रहा था आप उस वक़्त सुर्ख जोड़ा ज़ैब तन किए हुए थे, मैं कभी चांद को देखता था और कभी आपको, बिल आखिर मैं इस फैसले पर पहुंचा कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम चाँद से कहीं ज़्यादा हसीन हैं _," (हज़रत जाबिर बिन समरा रज़.)*

*❀__ "खुशी में हुज़ूर ﷺ का चेहरा ऐसा चमकता गोया चांद का टुकड़ा है, उसी चमक को देख कर हम आपकी खुशी को पहचान जाते थे _," (का'ब बिन मालिक रज़.)*
*"_ चेहरे पर चाँद की सी चमक थी _," (हिंद बिन अबी हाला)*

*❀__ चेहरा मुबारक :-*
 *"_ बद्र की तरह गोलाई लिए हुए _," (बरा बिन आज़िब रज़.)*
*"_ चेहरा बिलकुल गोल नहीं था, बल्की गोलाई लिए हुए _," (हज़रत अली रज़.)*
*"_ पेशानी कुशादा, अब्रू खमदार, बारीक और गुंजान (दोनो जुदा जुदा, दोनो के दर्मियान में एक रग का उभार जो गुस्सा आने पर नुमाया हो जाता) _," (हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ मसर्रत पेशानी से झलकती थी _," (का'ब बिन मालिक रज़.)*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -77 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–05_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥---रंगत मुबारक:-*
 *❀__ ना चूने की तरह सफेदी ना साँवलापन_," (हज़रत अनस रज़.)*
*"_ सफ़ेद सुर्खी माईल_," (हज़रत अली रज़.)*
*"_ सफ़ेद मगर मलहत दार_," (अबुल तुफेल रज़)*
*"_ गोया की चाँदी से बदन धूला हुआ था_" (हज़रत अबू हुरैरा रज़.)*
*"_ सफ़ेद..... चमकदार_" (हिन्द बिन अबी हाला)*

*❀__आंखे मुबारक:-*
 *"_आंखे सियाह... पलके दराज़_,"(हज़रत अली रज़)*
 *"_ पुतलियां सियाह..नज़रें नीची.. गोशा चश्म से देखने का हयादार अंदाज़ _," (हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ सफेद हिस्से में सुर्ख डोरे ..आंखो का खाना लंबा.. कुदरती सुरमगी_,"(जाबिर बिन समराह रज.)*

*❀__ नाक मुबारक :-*
 *"_ बुलंदी माईल ... उस पर नूरानी चमक .. जिसकी वजह से इब्तदाई नज़र बड़ी मालूम होती _," (हिंद बिन अबी हाला)*

*❀__ रुखसार मुबारक:-*
 *"_ हमवार और हल्के... नीचे को ज़रा सा गोश्त ढ़लका हुआ _," (हिंद बिन अबी हाला)*

*❀__ दहन (मुंह) मुबारक:-*
*"_ फराख...! (जाबिर बिन समराह रज.)*
*"_ बा ऐतदल फराख_," (हिंद बिन अबी हाला)*         

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -77 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–06_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥--- दंदाने मुबारक:-*
*❀_"_ बारीक.. आबदार.. सामने के दांतो में खुशनुमा रेखें _," (हज़रत इब्ने अब्बास रज़)*
*"_ तकल्लुम फरमाते तो दांतो से चमक सी निकलती हुई _," (हजरत अनस रज.)*

*❀__ रेश (ढाड़ी मुबारक):-*
*"_ भरपुर और गुंजान बाल_" (हिंद बिन अबी हाला)*

*❀__ गर्दन मुबारक:-*
*"_ पतली लंबी... जेसे मूर्ति की तरह खूबसूरती से तराशी गई हो... गर्दन की रंगत चांदी जैसी उजली ​​और खुशनुमा _," (हिंद बिन अबी हाला)*

*❀__ सर मुबारक ____,*
 *"_
*"_ बड़ा... मगर ऐतदाल और मुनासबत के साथ_," (हिंद बिन अबी हाला)*

*❀_"_ बाल मुबारक:-*
*"_ क़दरे खमदार_," (हज़रत अबू हुरैरा रज़.)*
*"_ न बिलकुल सीधे तने हुए... न ज़्यादा पेचदार _," (क़तादा रज़.)*
*"_ बिलकुल खम लिए हुए _," (हज़रत अनस रज़.)*
*"_ गुंजान ... कभी कभी कानों की लो तक लंबे, कभी शानो तक _," (बरा बिन आज़ीब रज़.)*
*"_दर्मियान से निकली हुई मांग_" (हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ बदन पर बाल ज़्यादा न थे .. सीने से नाफ तक बालों की बारीक लकीर_," (हजरत अली रज., हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ कंधो बाज़ुओं और सीने के बालाई हिस्से पर थोड़े से बाल थे _," (हिंद बिन अबी हाला)*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -78 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–07_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥--- मजमुई ढांचा __,"*
*❀__"_ बदन गठा हुआ..आजा़ के जोड़ों की हड्डियां बड़ी और मजबूत_," (हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ क़द... ना ज़्यादा लम्बा था ना पस्त ! म्याना_," (हज़रत अनस रज़.)*
*"_ क़ामत माईल बा दराज़ी !... मज़्मे में हों तो दूसरों से क़द निकलता हुआ मालूम हो _," (बरा बिन आज़ीब रज़.)*

*❀___ पेट बाहर को निकला हुआ ना था _," (उम्मे मा'बद)*
*"_ दुनियावी नियामतों से बेहराह अंदोज़ होने वालों से हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जिस्म (बावजूद फ़क़रो फ़ाक़ा के) ज़्यादा तरो ताज़ा और तावाना था _," (अल मुका़हिब - 1/310)*
*"_ मशहूर वक़िया है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उमरा किया तो 100 ऊंट बा नफ़्स नफ़ीस हांके और उनमे से 63 (ऊंट) को बा-दस्ते मुबारक खुद नहार किया और बक़िया को हज़रत अली के सुपुर्द किया _,"*

*❀___ मैंने रसूलुल्लाह ﷺ से बढ़ कर कोई बहादुर और ज़ोर आवर नहीं देखा _," (इब्ने उमर रज़.)*
*"_ मक्का में रुकाना नामी एक पहलवान था जो अखाड़ो में कुस्तियां लड़ता, एक दिन हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किसी मुल्हका़ वादी में उससे मिले और अपनी दावत दी, उसने दावत के लिए कोई मैयारे सिद्क़ तलब किया, इसके ज़ोक़ के पेशे नज़र हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कुश्ती करना पसंद कर लिया, तीन बार कुश्ती हुई और तीनों बार आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उसे पछाड़ दिया, उसी रुकाना पहलवान के बेटे अबू जाफर मुहम्मद की ये रिवायत हाकिम ने मुस्तदरक में ली है, और अबू दाऊद और तिर्मिज़ी ने इसे पेश किया और बहीकी़ ने सईद बिन जुबेर की दूसरी रिवायत की है जिसमे आता है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बाज़ दूसरे लोगों को भी कुश्ती में पछाड़ा है जिनमे एक अबुल असवद जमी भी है _," (अल मुकाहिब -1/302)*        

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -78 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–08_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥--- कांधा और सीना मुबारक:-*
*"❀___ सीना चौड़ा .. सीना और पेट हमवार_," (हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ सीना चौडा_," (बरा बिन आज़ीब रज़.)*
 *"_ मोंढों का दरमियानी फासला आम पैमाने से ज़्यादा _," (हिंद बिन अबी हाला, बरा बिन आज़ीब रज़.)*
*"_ कंधो का दरमियानी हिस्सा पुर गोश्त_," (हज़रत अली रज़.)*

*❀___ बाज़ू और हाथ मुबारक:-*
*"_ कलाइयां दराज़ ... हथेलियां फराख ... उंगलियां मोजो़ तक दराज़_," (हिंद बिन अबी हाला)*
*"_ रेशम का दबीज़ या बारीक कोई कपड़ा या कोई और चीज़ ऐसी नहीं जिसे मैंने छूआ हो और वो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हथेलियों से ज़्यादा नरम व गुदाज़ हो _," (हज़रत अनस रज़.)*

*❀___ कदम मुबारक:-*
*"_ पिंडलियां पुर गोश्त थी ... हल्की हल्की सुती हुई ..," (जाबिर बिन समराह)*
*"_ हथेलियां और पांव पुर गोश्त, तलवे क़दरे गेहरे ... क़दम चिकने कि पानी ना ठहरे_," (हिंद बिन अबी हाला)*
 *"_ ऐड़ियों पर गोश्त बहुत कम _," (जाबिर बिन समरा)*         

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 80 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–09_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ एक जामा लफ्ज़ी तसवीर:-*
 *❀_ यूं तो हुजूर ﷺ के मुताद्दिद रफ्का़ ने हुजूर ﷺ की शख्सियत को लफ़्ज़ों में पेश किया है लेकिन उम्मे मा'बद ने जो तस्वीर मुरत्तब की है उसका जवाब नहीं,*

*❀__ वादी हिजरत का सफर तय करते हुए मुसाफिरे हक़ जब अपनी मंजिले अव्वल (गारे सोर) से चला तो पहले ही रोज़ कौम खुजा की उस नेक निहाद बुढ़िया का खेमा राह में पड़ा, हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके हमराही प्यासे थे, फैज़ान ए खास था कि मरियल सी भूखी बकरी ने उस लम्हा वफ़र मिक़दार में दूध दिया, हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी पिया हमराही ने भी और कुछ बचा रहा _,"*

*❀__ उम्मे मा'बद के शोहर ने घर आ कर दूध देखा तो अचंभे से पूछा कि ये कहां से आया, उम्मे मा'बद ने सारा हाल बयान किया, वो पूछने लगा कि अच्छा उस कुरेश नोजवान का नक्शा तो बयान करो, ये वही तो नहीं जिसकी तमन्ना है, इस पर उम्मे मा'बद ने हसीन तरीन अल्फाज़ में तस्वीर खींची, उम्मे मा'बद को ना तो कोई तार्रुफ़ था, न किसी तरह का तास्सुब बल्की जो कुछ देखा मन व अन कह दिया, असल अरबी में देखने की चीज़ है (जादुल मा'द -1/307) इसका जो तर्जुमा मोल्लिफ "रहमतुल्लिल आलमीन ﷺ" ने ​​किया है उसे हम यहां ले रहे हैं _,"*

*❀_"_जवाब में उम्मे मा'बद रज़ियल्लाहु अन्हा ने कहा :-*
*"_ उनका चेहरा नूरानी था उनकी आंखें उनकी लंबी पलकों के नीचे चमकती थी वह गहरी सियाह थी उनकी आवाज में नरमी थी वह दरमियानी क़द के थे (यानी छोटे कद के नहीं थे ) ना बहुत ज्यादा लंबे थे उनका कलाम ऐसा था जैसे किसी लड़ी में मोती पिरो दिए गए हों बात करने के बाद जब खामोश होते थे तो उन पर बा वका़र संजीदगी होती थी अपने साथियों को किसी बात का हुक्म देते थे तो वह जल्द से जल्द उसको पूरा करते थे वह उन्हें किसी बात से रोकते थे तो फौरन रुक जाते थे वह इंतेहाई खुश अखलाक़ थे उनकी गर्दन से नूर की किरणें फूटती थी उनके दोनों अब्रो मिले हुए थे बाल निहायत सियाह थे वह दूर से देखने पर निहायत शानदार और क़रीब से देखने पर निहायत हसीन व जमील लगते थे उनकी तरफ नज़र पड़ती तो फिर दूसरी तरफ हट नहीं सकती थी अपने साथियों में वह सबसे ज्यादा हसीन व जमील और बा रौब थे सबसे ज्यादा बुलंद मर्तबा थे _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -80 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–10_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ लिबास :-*
 *"❀_ आदमी की शख्सियत का वाज़े इज़हार उसके लिबास से भी होता है, उसकी वज़ा क़ता, क़स्र व तोल रंगे मैयार, सफ़ाई और ऐसे ही मुख्तालिफ पहलू बता देते है कि किसी लिबास में मबलूस शख़्सियत किस ज़हन व किरदार से आरास्ता है, नबी अकरम ﷺ के लिबास के बारे में हुजूर ﷺ के रफ्का़ ने जो मालूमात दी हैं वो बड़ी हद तक हुजूर ﷺ के जो़क़ को नुमाया कर देती है _,"*

*❀_ हुज़ूर ﷺ ने लिबास के मामले में दर हक़ीक़त इस आयत की अमली शरह पेश फरमाई है :- (तर्जुमा) ए आदम की औलाद ! हमने तुम्हारे सतर ढ़ांकने वाला और तुम्हें ज़ीनत देने वाला लिबास तुम्हारे लिए मुकर्रर किया है, और लिबास ए तक़वा बेहतरीन लिबास है _," (आराफ - 26)*

*❀_ सो हुजूर ﷺ का लिबास सातिर था, जीऊनत बख्श था और तक़वा वाला था, इसमे ज़रूरत का भी लिहाज़ था, अख्लाकी उसूलों की पाबंदी का मज़हर भी था, और जो़के़ सलीम का तरजुमान भी, किब्र व रिया से दूर था और हुज़ूर ﷺ को ठाट बाट से रहना पसंद ना था,*

*❀_ फरमाया - मैं तो बस खुदा का एक बंदा हूं और बंदो की तरह लिबास पहनता हूं _," रेशम देबा और हरीर को मर्दों के लिए आपने हराम करार दिया, एक बार तोहफे में आई हुई रेशमी क़बा पेहनी और फ़िर फ़ौरन इज़्तराब के साथ उतार दी _," (मिश्कात)*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -81 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–11_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ तहबंद कमीज़ और अमामा की लंबाई चुंकी अलामते किब्र थी और ये तरीक़ा ए लिबास मुतकब्बिरीन में राइज़ था, इसलिए इससे सख्त तनफुर (नफरत) था, (बहुत सी रिवायात है, मसलन- सालिम की रिवायत अपने वालिद से, मिंदरजा अबू दाऊद, नसाई, इब्ने माजा, लिबासे शोहरत पर बईद अज़ इब्ने उमर, मिंदर्जा तिर्मिज़ी, अहमद)_,"*

*❀_ दूसरी क़ौम ख़ुसुसन मज़हबी तबको़ के मख़सूस फ़ैशनो की तक़लीद और नक्काली को भी हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मना ठहराया _," (मसलन- रिवायत इब्ने उमर मिन्दर्जा अहमद व अबू दाऊद) ताकी उम्मत में अपनी खुदी और इज्ज़ते नफ्स बरक़रार रहे, नीज़ फैशन और लिबास की तक़लीद नजरियात व किरदार की तक़लीद पैदा करने का सबब ना बन सके _,"*

*❀_ चुनांचे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस्लामी तमद्दुन के तहत फ़ैशन, आदाब और सक़फ़त का एक नया ज़ोक पैदा कर दिया, लिबास में मौसम से सतर की हिफ़ाज़त, सादगी नज़ाफ़त व नफ़ासत और वक़ार का हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को खास लिहाज़ था, अब हम हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लीबास पर एक निगाह डालें :-*

*❀_ कुर्ता (कमीज़) बहुत पसंद था, कुर्ते की आस्तीन ना तंग रखते थे ना ज़्यादा खुली, दरमियानी साख्त पसंद थी, आस्तीन कलाई और हाथ के जोड़ तक पहुंचती, सफर के लिए जो कुर्ता पहनते उसके दामन और आस्तीन का तोल ज़रा कम होता, कमीज़ का गिरेबान सीने पर होता जिसे कभी कभी (मौसम के तकाज़े से) खुला भी रखते और इसी हालत में नमाज़ पढते _,"*

 *❀_ कुर्ता पहनते हुए पहले सीधा हाथ डालते फिर उल्टा, रफीको़ को इसकी तालीम देते, दाहिने हाथ की फ़ोकियत और अच्छे कामों के लिए दहिने हाथ का इस्तेमाल हुज़ूर की सिखाई हुई इस्लामी सक़ाफत की एक अहम बुनियाद है _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 82,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–12_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ उम्र भर तहबंद (लुंगी) इस्तेमाल फरमाया, जिसे नाफ से ज़रा नीचे बांधते और निस्फ साक़ तक (टखनो से ज़रा ऊंचा ) सामने का हिस्सा क़द्रे ज़्यादा झुका रहता_,"*

*★"_ पायजामा (सलवार) देखा तो पसंद किया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबी पहनते थे, एक बार खुद खरीद फरमाया (इख्तिलाफ है कि पहना या नहीं) और वो आपके तर्के में मोजूद था, इसकी खरीदारी का किस्सा दिलचस्प है, हज़रत अबु हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु को साथ लिए हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बाज़ार गए और चार दिरहम पर पाजामा ख़रीदा, बाज़ार में जिन्स को तोलने के लिए एक खास विज़ान मुकर्रर था, वज़न कराने गए तो उससे कहा कि इसे झुकता हुआ तोलो, विज़ान कहने लगा कि ये अल्फाज़ मैंने किसी और से कभी नहीं सुने _,"*

*★_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने तवज्जो दिलाई, तुम अपने नबी पाक को पहचानते नहीं? वो हाथ चूमने को बड़ा तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रोका कि ये अजमियो का (यानी गैर इस्लामी) तरीक़ा है, बहरहाल वज़न कराया और पाजामा खरीद कर ले चले, हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने बड़े ताज्जुब से पुछा कि आप इसे पहनेंगे? ताज्जुब गालिबन इस बिना पर हुआ होगा कि एक तो मामूल मे ऐसी नुमाया तब्दीली अजीब लगी, दूसरे पाजामा अहले फारस का पहनावा था और तशबीहा से हुजूर ﷺ को इज्तिनाब था (हालांकी दूसरे तमद्दुनों के अच्छे अजजा़ को हुजूर ﷺ क़ुबूल फ़रमाते थे ),*
*"_ आपने जवाब दिया- हां पहनुंगा, सफर में भी, हजर में भी, दिन को भी रात को भी, क्यूंकि मुझे हिफ्जे़ सतर का हुक्म दिया है और इससे ज़्यादा सतर पोश लिबास कोई नहीं _,"*
 *®_ अल मुवाहिब -1/336)"*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 82,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–13_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥ - सर पर अमामा बांधना खास पसंद था, ना बहुत भारी होता था, ना छोटा, एक रिवायत के लिहाज़ से, गज़ लंबाई होती थी, अमामा का शमला बालिश्त भर ज़रूर छोडते जो पीछे की जानिब दोनों शानो के दरमियान उड़स लेते, सूरज की तपिश से बचने के लिए शमला को फैला कर सर पर ड़ाल लेते, इसी तरह मौसमी हालात तकाज़ा करते तो आखिरी पल्लू ठोड़ी के नीचे से ले कर गर्दन के गिर्द लपेट भी लेते, कभी अमामा ना होता तो कपड़े की एक धज्जी (रुमाल) पट्टी की तरह सर से बांध लेते, (एक राय ये है कि ऐसा बीमारी खुसुसन सर दर्द की हालत में हुआ)*

*❀__ अमामा को तेल की चिकनाई से बचाने के लिए एक खास कपड़ा (अरबी नाम क़न'आ) बालो पर इस्तेमाल करते, सफेद के अलावा ज़र्द (गलिबान मटेला, खाकस्तर माईल या सतरी) रंग का अमामा भी बांधा और फतेह मक्का के मोके़ पर स्याह भी इस्तेमाल फरमाया _,"*

*❀__ अमामा के नीचे कपड़े की टोपी भी इस्तेमाल में रही, और इसे पसंद फरमाया, नीज़ रिवायत में है कि अमामा के साथ टोपी का इस्तेमाल गोया इस्लामी सक़ाफत का मखसूस तर्ज था और इसे आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुशरिकीन के मुक़बले पर इम्तियाज़ी फैशन क़रार दिया _,"*

*❀__ अमामा के अलावा कभी खाली सफेद टोपी भी ओढ़ते, घर में ओढ़ने की टोपी सर से चिपटी हुई होती, सफर पर निकलते तो उठी हुई बाढ़ वाली टोपी इस्तेमाल फरमाते, सोज़नी नुमा सिले हुए कपड़ों की दबीज टोपी भी पेहनी है _"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -83 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–14_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥- ओढ़ने की चादर 4 गज़ लंबी सवा 2 गज़ चौड़ी होती थी, कभी लपेट लेटे कभी एक पल्लू सीधे बगल से निकाल कर उलटे कांधे पर डाल लेते, यही चादर कभी कभार बैठे हुए टांगों के गिर्द लपेट लेते और बाज़ मौकों पर इसे तह कर के तकिया भी बना लेते, मो'ज़िज़ मुलाक़ातियों की तवाज़ो के लिए चादर उतार कर बिछा भी देते थे, यमन की चादर जिसे जबराह कहा जाता था बहुत पसंद थी, एक मर्तबा हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए स्याह चादर (गालिबन बालों की ) भी बनवाई गई उसे ओढ़ा तो पसीने की वजह से बु देने लगी, चुनांचे नजा़फत की वजह से फिर उसे नहीं ओढ़ा_,"*

*❀_ नया कपड़ा खुदा की हम्द और शुक्र के साथ बिल उमूम जुमा के रोज़ पहनते, फाज़िल जोड़े बनवा कर नहीं रखते थे, कपड़ो में पेवंद लगाते थे, उनकी मरम्मत करते, अहतयातन घर में देख लेते कि मजमे मे बैठने की वजह से (मजलिस और नमाजो मे मेले कुचेले लोग भी आते थे और सफाई का आम मैयार भी आप ﷺ ही ने मुसलसल तरबियत कर कर के बरसो में बुलंद किया ) कोई जुं वगेरा ना आ घुसी हो,*

*❀_ जहां एक तरफ़ फ़क़र व सादगी की वो शान थी, वहां दूसरी तरफ आपको रेहबानियत को मना भी करना था और इस उसूल का मुज़ाहिरा भी मतलूब था कि अल्लाह ता'ला को ये बात पसंद है कि उसकी अता करदा नियामत (रिज़्क़) का असर उसके बंदो से ज़ाहिर हो _," मुख्तसर ये कि मामूल आम सादगी था, सो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कभी कभी अच्छा लिबास भी ज़ैब बदन फरमाया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मसलक ऐतदाल था और इंतहा पसंदी से उम्मत को बचाना मतलूब था _,"*

*❀_ कपड़ो के लिए सबसे बढ़ कर सफेद रंग मरगूब खातिर था, फरमाया - हक़ ये है कि तुम्हारे लिए मस्जिदों में भी अल्लाह के सामने जाने का बेहतरीन लिबास सफेद लिबास हो _," (अबू दाऊद, इब्ने माजा)*
*"_ फरमाया - सफेद कपड़े पहना करो और सफेद ही कपड़े से अपने मुर्दों को कफन दो क्यूंकी ये ज़्यादा पाकीज़ा और पसंदीदा है _," (अहमद, तिर्मिज़ी, नसाई, इब्ने माजा)*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -83 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–15_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥ _सफ़ेद के बाद सब्ज़ रंग पसंदीदा था, लेकिन बिल उमूम इस शक्ल में कि हल्की सब्ज़ धारियां हों, इस तरह ख़ालिस सुर्ख रंग बहुत ही नापसंद था (लिबास के अलावा भी इसके इस्तेमाल को बाज़ सूरतों में मना फरमाया ) लेकिन हल्के सुर्ख रंग की धारियों वाले कपड़े आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पहनें, हलका ज़र्द (मटियाला या शतरी) रंग भी लिबास में देखा गया _,"*

*❀__ हुज़ूर ﷺ का जूता मरुजा अरबी तमद्दुन के मुताबिक़ चप्पल या खड़ा'ऊ की सी शक्ल का था, जिसके दो तशमे थे, एक अंगुठे और साथ वाली उंगली के दरमियान रहता, दूसरा छुंगलियां और उसके साथ वाली उंगली के बीच में, जूते पर बाल ना होते थे, ये एक बालिश्त 2 उंगल लंबा था, तलवे के पास से सात उंगल चौड़ा और दोनो तस्मो के दरमियान पहुंचे पर से दो उंगल का फासला था,*

*❀__ कभी खड़े हो कर पहनते, कभी बैठ कर भी, पहनते हुए पहले दायां पांव डालते फिर बायां और उतारते हुए पहले बायां पांव निकालते फिर दायां,*

*❀__ जुराबें और मोज़े भी इस्तेमाल में रहे, सादा और मामूली भी और आला क़िस्म के भी, शाह नजाशी ने स्याह रंग के सादा मोज़े बतौर तोहफा भेजे थे, उन्हे पहना और उन पर मसाह फरमाया, दहिया कलबी ने भी मोज़े तोहफे में पेश किये थे, उनको आपने घुटनों तक इस्तेमाल फरमाया,*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -83 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–16_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ चांदी की अंगूठी भी इस्तेमाल फरमाई, जिसमे कभी चांदी का नगीना होता था कभी हब्शी पत्थर का, बाज़ रिवायात में आता है कि लोहे की अंगूठी पर चांदी का पत्थर या पोलिश चढ़ा हुआ था, दूसरी तरफ ये वाज़े है कि लोहे की अंगूठी (और ज़ेवर) से आपने कराहत फरमाई है _,"*

*❀__ अंगूठी बिल उमुम दाहिने हाथ में पेहनी, कभी कभार बनायें में भी, दरमियानी और शहादत की उंगली मे ना पहनते, कुंडलियों में पहनना पसंद था, नगीना ऊपर की तरफ रखने की बजाय हथेली की तरफ रखते, अंगूठी पर "मोहम्मद रसूलुल्लाह" के अल्फ़ाज़ तरतीब वार नीचे से ऊपर को तीन सतरो में कुंधे थे, इससे हुज़ूर ﷺ खुतूत पर मुहर लगाते थे_,"*

*❀__ मुहक़क़िक़ीन की ये राय क़रीने सहत है कि अंगूठी मुहर की ज़रुरत से बनवाई थी, और सियासी मनसब की वजह से इसका इस्तेमाल ज़रूरी था,*         

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -85 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–17_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_वज़ा क़ता और आराइश :-*

*❀__ हुजूर ﷺ अपने बाल बहुत सलीके़ से रखते, उनमे कसरत से तेल का इस्तेमाल फरमाते, कंघा करते, मांग निकलते, लबो के जा़इद बाल तरासने का अहतमाम था, इस मामले में रफका़ को तरबियत देते, मसलन एक सहाबी को परागंदा देखा तो गिरफ्त फरमाई, एक सहाबी की ढ़ाडी के बेढ़प बाल देख कर फरमाया कि इन्हें सवांर कर रखो_,"*

*❀__ फरमाया कि जो शख्स सर या ढाड़ी के बाल रखता हो उसे चाहिये कि इनको सलीके़ और शाइस्तगी से रखे, मसलन-अबू क़तादा को खिताब करते हुए फरमाया- इन्हें संवार के रखो _," (रिवायत अबू हुरैरा- अबू दाउद)*

*❀__ ये ताकीदें हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसलिये फ़रमाई थी कि बसा औक़ात मज़हबी लोग सफाई और शाइस्तगी के तकाज़ो से गाफ़िल हो जाते हैं, ख़ुसुसन रंगे तसव्वुफ जब बड़ता है और रहबानियत उभरती है तो गलीज़ रहना उलू मुरत्तब की दलील बन जाता है, इस खतरे का सदबाब फरमाया,*

*❀__ सफर व हज़र में सात चीज़ें हमेशा साथ रहती और बिस्तर के क़रीब - (1) तेल की शीशी (2) कंघा (हाथी दांत का भी) (3) सुरमादानी (स्याह रंग की) (4) कैची (5 ) मिस्वाक (6) आईना (7) लकड़ी की एक पतली खपच्ची _,"*

*❀__ सुरमा रात को सोते हुए ( ताकी ज़्यादा नुमाया ना हो) तीन तीन सलाई दोनो आंखो में लगाते हैं, आखिरी शब में हाजात से फारिग हो कर वज़ू करते लिबास तलब फरमाते और खुशबू लगाते हैं, रैहान की खुशबू पसंद थी, मेहंदी के फूल भी भीनी खुशबू की वजह से मरगूब थे, मुश्क़ और ओद की खुशबू सबसे बढ़ कर पसंदीदा रही, घर में खुशबुदार धूनी लिया करते, एक अतरदान था जिस्म बेहतरीन खुशबू इस्तेमाल में आती _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -85 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–18_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ कभी हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा अपने दस्ते मुबारक से ख़ुशबू लगाती, मशहूर बात है कि आप जिस कूचे से गुज़रते थे, देर तक उसमें महक रहती थी और फ़िज़ाएं बताती थी कि "गुज़र गया है इधर से कारवांने बहार _",*

*❀_ खुशबू हदिया की जाती तो जरूर क़ुबूल फरमाते और कोई अगर खुशबू हदिया लेने में ताम्मुल करता तो नापसंद फरमाते, इस्लामी शक़ाफत के मखसूस ज़ोक के मातहत आपने मर्दों के लिए ऐसी ख़ुशबू पसंद फरमाई जिसका रंग मखफी हो और महक फैले और औरतों के लिए वो जिसका रंग नुमाया हो महक मखफी रहे,*

*❀_ हुज़ूर ﷺ की चाल अज़मत व वकार, शराफत और अहसासे ज़िम्मेदारी की तर्जुमान थी, चलते तो मज़बूती से क़दम जमा कर चलते, ढीले ढाले तरीक़े से क़दम घसीट कर नहीं, बदन सिमता हुआ रहता, दाएं बाएं देखे बगैर चलते, क़ुव्वत से आगे को क़दम उठाते, क़ामत में आगे की तरफ़ क़दरे झुकाव होता, ऐसा मालूम होता कि उंचाई से नीचे को उतर रहे हैं, हिंद बिन हाला के अल्फाज़ में है गोया ज़मीन आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रफ्तार के साथ लिपटी जा रही है _,"*

*❀_ रफ़्तार तेज़ होती, क़दम खुले खुले रखते, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मामूली रफ़्तार से चलते मगर बा क़ौल हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु, "हम मुश्किल से साथ दे पाते, हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रफ़्तार ये पैगाम भी देती जाती थी कि ज़मीन पर घमंड की चाल न चलो, (सूरह लुकमान-18, और ना ज़मीन में अकड़ कर चल)*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -86,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–19_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_तकलुम:-*
 *❀_ तकल्लुम इंसान के ईमान किरदार और मर्तबे को पूरी तरह बेनका़ब कर देता है, मोजुआत और अल्फाज़ का इंतिखाब, फिक़रो की साख्त, आवाज़ का उतार चढ़ाव लेहजे का उसलूब और बयान का ज़ोर ये सारी चीजें वाज़े करती है कि मुतकल्लिम किस पाये की शख्सियत का अलमबरदार है,*

*❀_ हुजूर ﷺ के मनसब और जिम्मेदारियों की नोइयत ऐसी थी कि उनका भारी बोझ अगर किसी दूसरी शख्सियत पर डाला गया होता तो वो तफक्कुरात में डूब कर रह जाता और उसे खिलवत महबूब हो जाती, लेकिन हुजूर ﷺ के कमालात ए खास में ये बात भी शामिल है कि एक तरफ आप तफक्कुरात और मसाईल का पहाड़ उठाये हुए थे और तरह की परेशानियों से गुज़रते, लेकिन दूसरी तरफ लोगों में खूब घुलना मिलना भी रहता और दिन रात गुफ्तगु का दौर चलता, मिज़ाज की संजीदगी अपनी जगह थी और तबस्सुम व मज़ा अपनी जगह,*

 *❀_ इज़दाद में अजीब तवाज़न था जिसकी मज़हर हुज़ूर ﷺ की ज़ात थी, एक आलमी तहरीक की ज़िम्मेदारी एक सल्तनत के मसा'इल एक जमात और म'आशरे के मामलात और फिर अपने खासे बड़े कुन्बे की ज़िम्मेदारियां अच्छा खासा पहाड़ थीं, जिन्हे हुजूर ﷺ के कंधे उठाये हुए थे,*

*❀_ चुनाचे हसन रज़ियल्लाहु अन्हु अपने मामू हिन्द बिन अबी हाला के हवाले से बताते हैं कि _ अल्लाह के रसूल ﷺ मुतावातर परेशानियों में रहते, हमेशा मसाईल पर गोर करते, कभी आप ﷺ को बेफिक्री का कोई लम्हा न मिला, देर देर तक खामोश रहते और बिला ज़रुरत फ़िज़ूल बातचीत न करते _," (शमाईल तिर्मिज़ी)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -87 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–20_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ लेकिन आप एक दाई थे, और एक तहरीक के सरबराह, इसलिए तबलीग व तालीम और तज़किया और सियासी इंतज़ाम के लिए लोगों से राब्ता ज़रूरी था जिसके लिए सबसे अहम ज़रिया तकल्लुम है, लिहाज़ा दूसरी सूरते हाल हजरत ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु के अल्फाज़ में यूँ रहते कि, जब हम दुनियावी मामलात का ज़िक्र कर रहे होते तो हुज़ूर ﷺ भी उस ज़िक्र में हिस्सा लेते, जब हम आखिरत पर गुफ्तगू करते तो हुज़ूर ﷺ भी हमारे साथ इस मोजू़ पर तकल्लुम फरमाते, और जब हम लोग खाने पीने की कोई बात छेड़ते तो हुजूर ﷺ भी उसमे शामिल रहे _," (शमाईल तिर्मिज़ी)*

*❀_ इसके बावजूद आप ﷺ ने खुदा की क़सम खाकर ये उसूली हक़ीक़त बयान फरमाई कि मेरी ज़ुबान से हक़ के मा सिवा कोई बात अदा नहीं होती, क़ुरान ने भी इस बात की गवाही दी, यानी आन हजरत ﷺ अपनी ख्वाहिश ए नफ़्स से शरई अहकाम नहीं देते थे_,"*

*❀_ गुफ्तगु में अल्फाज़ इतने ठहर कर अदा करते कि सुनने वाला असानी से याद कर लेता बल्कि अल्फाज़ साथ में गिने जा सकते थे, उम्मे मा'बद ने क्या खूब तारीफ बयान की कि गुफ्तगू जैसे मोतीयों की लड़ी पिरोई हुई, अल्फाज़ ना जरूरत से कम ना ज़्यादा ...ना कोताहे सुखन न तवील गो, ताकीद, तफहीम और तसलसुले हिफ्ज़ के लिए खास अल्फाज़ और कलमात को तीन बार दोहराते,*

*❀_ बाज़ उमूर में तसरीह से बात करना मुनासिब ना समझते तो कनाया (इशारे) में फरमाते, मकरूह और फहश और गैर हयादाराना कलमात से तनफ्फुज़ (नफरत) था, गुफ्तगु में बिल उमूम एक मुस्कुराहट शामिल रहती, अब्दुल्लाह बिन हारिस का बयान है कि, मैंने हुजूर ﷺ से ज़्यादा किसी को मुस्कुराते नहीं देखा _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -87,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–21_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ बात करते हुए बार बार आसमान की तरफ देखते, गुफ्तगू के दौरान में किसी बात पर ज़ोर देने के लिए टेक से उठ कर सीधा बेठते और खास जुमलो को बार बार दोहराते, हाज़िरीन को किसी बात से डराते तो तकल्लुम के साथ साथ ज़मीन पर हाथ मारते, बात की वजा़हत के लिए हाथों और उंगलियों के इशारात से मदद लेते, मसलन- दो चीज़ का इकट्ठा होना वाज़े करने के लिए शहादत की उंगली और बीच की उंगली को मिला कर दिखाते,*

*❀_ कभी दोनों हाथों की उंगलियों को बाहम दीगर आर पार कर के मज़बूती या जमियत का मफहूम नुमाया करते, किसी चीज़ में इशारा करना होता तो पूरा हाथ हरकत में लाते, कभी टेक लगाये हुए अहम मामलात पर बात करते तो सीधे हाथ को उलटे हाथ की पुश्त पर रख कर उंगलियों में उंगलियां डाल लेते,*

*❀_ ताज्जुब के मोको़ पर हथेली को उलट देते, कभी सीधे हाथ की हथेली उलटे हाथ के अंगुठे के अंदरुनी हिस्से पर मारते, कभी सर हिलाते और होंठों को दांतों से दबाते, कभी हाथ को रान पर मारते,*

*❀_ हुजूर ﷺ के कलाम का जहां अदबी मैयार बहुत बुलंद था, वहां आम फहम सादगी भी थी और फिर कमाल ये कि कभी कोई घटिया और बाजा़रू लफ्ज़ इस्तेमाल में नहीं लिया और न कभी मस्नुई तर्ज़ की ज़ुबान पसंद फरमाई, कहना चाहिए कि हुज़ूर ﷺ ने अपनी दावत और मिशन की ज़रुरियात से ख़ुद अपनी एक जुबान पैदा फरमाई थी, एक उसलूब बयान था,*

*❀_ एक मर्तबा बनू फहद के लोग आए तो गुफ्तगु होती रही, जिसके दौरान में आने वालों ने ताज्जुब से कहा- ए अल्लाह के नबी! हम आप एक ही मां बाप की औलाद हैं, एक ही मुका़म में परवरिश पाते हैं, फिर ये क्या बात है कि आप ऐसी अरबी में बात करते हैं कि जिस (कि लताफतों) को हममें से अक्सर नहीं समझ सकते हैं? फरमाया और खूब फरमाया, "मेरी लिसानी तरबियत खुद अल्लाह अज़ व जल ने फरमाई है, और मेरे ज़ोक ए अदब को खुश्तर बना दिया, नीज़ मैंने क़बिला सा'द की फसाहत आमूज़ फ़िज़ा में परवरिश पाई है _,"*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -88 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–22_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ एक मोके़ पर किसी मुलाक़ाती से बात हुई, हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ताज्जुब से सुन रहे थे, पूछा उस शख्स ने आपसे क्या कहा और आपने क्या फरमाया ? हुजूर ﷺ ने वजाहत की, इस पर जनाब सिद्दीक कहने लगे - मैं अरब में घूमा फिरा हूं और फुसहा ए अरब का कलाम सुना है, लेकिन आपसे बड़ कर कलाम फसीह किसी और से नहीं सुना _,"*

*❀_ इसी तरह हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु एक बार कहने लगे- ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ ! क्या बात है कि आप फसाहत में हम सबसे ज़्यादा तर हैं, हालांकी आप हमसे कभी अलग नहीं हुए" फरमाया- मेरी ज़ुबान इसमाईल अलैहिस्सलाम की ज़ुबान है जिसे मैंने ख़ास तौर पर सीखा है, इसे जिब्राईल मुझ तक लाए और मेरे ज़हन नशीन कर दी_,"*

*❀_ मतलब ये है कि हुजूर ﷺ की जुबान मामूली अरबी ना थी, बल्की खास पैगंबराना ज़ुबान थी जिसका जोड़ इस्माइली ज़ुबान से मिलता था और जिब्राईल अलैहिस्सलाम जिस जुबान में क़ुरान लाते थे वो भी वही पैगंबराना जुबान थी,*

*❀_ हुज़ूर ﷺ की इम्तियाज़ी शान ये थी कि आपको "जवाम'उल कलाम" अता किए गए थे, यानि हुज़ूर ﷺ के वो मुख्तसर कलमे जो मा'नी के लिहाज़ से बड़ी वुस'अत रखते हैं, कम से कम लफ़्ज़ो मे ज़्यादा से ज़्यादा मा'नी पेश करने में सरवरे आलम ﷺ अपनी मिसाल आप थे और इसे खुशुसी अतायाते रब में शुमार किया_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 89,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–23_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
                  *❥❥_खिताबत :-*
*❀__ वाज़ व तकल्लुम ही का एक अहम जुज़ ख़िताबत है, मोहसिने इंसानियत ﷺ एक अज़ीम पैगाम के हामिल थे, और इसके लिए ख़िताबत नागुज़ेर ज़रुरत थी, ख़िताबत यूं भी अरबो की दौलत थी, फ़िर कुरेश तो इस सिफ्त से खास तोर पर मालामाल थे, अरब और कुरेश के खतीबाना माहोल से हुजूर ﷺ बहुत बुलंद रहे, फरीजा़ क़यादत ने जब भी तक़ाजा़ किया आपकी जुबान कभी नसीमे सहर की तरह कभी आब जु की तरह और कभी तैग बरके़ दम की तरह मुतहरिक हो जाती,*

*❀__ वाज़ व तक़रीर की क़सरत से आपने परहेज़ किया, और मा'शरे की ज़रुरत और उसके ज़र्फ़ को देख कर ऐतदाल से क़ुव्वते ख़िताबत का इस्तेमल किया, मस्जिद में ख़िताब फ़रमाते तो अपनी छड़ी पर सहारा लेते और मैदाने जंग में तक़रीर फ़रमाना होती तो कमान पर टेक लगाते, कभी कभी सवारी पर से ख़िताब किया है,*

*❀__ तक़रीर में जिस्म दांए बांए झूम जाता, हाथो को हस्बे ज़रुरत हरकत देते, तक़रीर में बाज़ मोको़ पर "क़सम है उस ज़ात की जिसके कब्ज़े में मेरी जान है या मुहम्मद की जान है" कह कर क़सम खाते, लेहजे में भी और चेहरे पर भी दिल के हकीक़ी जज़्बात झलकते और सामईन पर असर अंदाज होते, दिलों को हिला देते थे,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -93 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–24_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ हुनैन व ताईफ के मोर्के के बाद हुजूर ﷺ ने माले गनीमत तक़सीम किया, तो मक्का के नव मुस्लिमों को उसमें बहुत सा हिस्सा दिया ताकी उनके दिल मजी़द नरम हों और वो अहसान के रिश्ते से इस्लामी रियासत के साथ मरबूत तर हो जाएं, अंसार में कुछ लोगो ने अजीब से अहसास की रु दौड़ा दी कहा गया कि- रसूलुल्लाह ﷺ ने कुरेश को खूब इनाम दिए और हमें मेहरूम रखा, मुश्किल में हम याद आते हैं और हासिले गनीमत दूसरे लोग ले जाते हैं _,"*

*❀_ ये चर्चा हुजूर ﷺ के कान तक पहुंची, एक चर्मी खैमा नसब किया गया, और उसमे अंसार का इज्तिमा बुलाया गया, हुजूर ﷺ ने दरियाफ्त फरमाया कि तुम लोगों ने ऐसी बात कही है ? जवाब मिला कि - आपने जो सुना वो सही है मगर ये बातें हममें से ज़िम्मेदार लोगो ने नहीं कहीं, कुछ नोजवानो ने ऐसे फ़िक़रे कहे हैं _,"*

*❀_ वाक़िए की तहक़ीक़ के बाद आप ﷺ ने ये तक़रीर की :- क्या ये सच नहीं है कि तुम लोग पहले गुमराह थे, खुदा ने मेरे ज़रिए से तुमको हिदायत दी? तुम मुंतशिर और परागंदा थे खुदा ने मेरे ज़रिए से तुमको मुत्तहिद किया और मुत्तफिक़ किया? तुम मुफलिस थे खुदा ने मेरे ज़रिए से तुमको आसूदा हाल किया? (हर सवाल पर अंसार कहते जाते थे कि बिला शुबहा अल्लाह और रसूल का बहुत बड़ा अहसान हम पर है)*

*❀_ नहीं तुम ये जवाब दो कि ऐ मुहम्मद! तुमको जब लोगों ने झुठलाया तो हमने तुम्हारी तसदीक़ की, तुमको जब लोगों ने छोड़ दिया तो हमने पनाह दी, तुम जब मुफलिस हो कर आए थे तो हमने हर तरह की मदद की, तुम जवाब में ये कहते जाओ और मैं ये कहता जाउंगा कि हां तुम सच कहते हो, लेकिन ऐ गिरोह अंसार! क्या तुमको ये पसंद नहीं कि लोग ऊंट और बकरियां ले जाएं और तुम मुहम्मद को ले कर अपने घरों को जाओ_,"*

*❀_ कलाम का उतार चढ़ाव देखिये, खंजरे खिताबत की इस धार को देखिए जो नाज़ुक जज़्बात से सैक़ल की गई थी, फिर उसकी रवानी देखिये, मतालिब के मोड़ देखिए फिर ये गौर कीजिये कि किस तरह खतीब ने बिल आखिर मतलूबा कैफियत सामईन मे पूरी तरह उभार दी, अंसार बे अख्त्यार चीख उठे के "हमको सिर्फ मुहम्मद ﷺ दरकार हैं _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 94,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–25_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_इब्तिदाई दौरे दावत में कोहे सफा के खुतबे के अलावा कई बार आपने कुरेश के सामने तक़रीरे फरमाईं हैं, उस दौर के एक खुतबे का ये इक़्तबास मुलाहिजा हो :-*
*"_ क़फ़िले का दीदबान अपने साथियो को कभी गलत इत्तेला नहीं दिया करता, खुदा की क़सम अगर (बिल फ़र्ज़ मुहाल) मै और सब लोगों से झूठ कहने पर तैयार भी हो जाता तब भी तुमसे गलत बात हरगिज़ ना कहता, अगर ( बिल फर्ज मुहाल) में दूसरे तमाम लोगों को हलाकत व खतरों से दो चार कर देता तो भी तुमको कभी खतरे में मुब्तिला न करता _,"*

*❀_ उस खुदा की क़सम जिसके सिवा और कोई इला नहीं, मैं तुम्हारी तरफ खुसूसियत से और तमाम इंसानों की तरफ जामा तौर से खुदा का मुक़र्रर करदा रसूल हूं, बा खुदा तुमको लाज़मन मरना है जेसे कि तुम सो जाते हो और फिर मरने के बाद तुमको जी उठाना है, जैसे के तुम नींद से बेदार हो जाते हो, तुमसे लाज़मन तुम्हारे कामों का हिसाब लिया जाना है और तुम्हें भले का बदला भला और बुरे का बदला बुरा ज़रूर मिलता है, फिर या तो हमेशा के लिए जन्नत होगी या हमेशा के लिए दोज़ख _,"*

*❀_ क्या ही सादा अंदाज़े बयान है, कितनी अक़ली और जज़्बाती अपील है, दाई की ख़ैर ख्वाही एक एक लफ़्ज़ से टपकती पड़ती है, फिर यक़ीन कूट कूट कर भरा हुआ है, छोटे से इस खुतबे में मिसालों से भी काम लिया गया है, तोहीद, रिसालत और आखिरत की बुनियादी दावत पूरी तरह समोई हुई है _,"*

*❀_ इसी तरह हुजूर ﷺ के दो और खुतबे हैं जिनमे से एक फतेह मक्का पर और दूसरा खुत्बा हज्जतुल विदा के मोके़ पर दिया गया, उन खुत्बों का मिज़ाज इंतेहाई इंक़लाबी है और उनमें ईमान अखलाक और इक़तेदार तीनों की गूंज सुनाई देती है, हज्जतुल विदा का खुत्बा तो गोया एक दौर ए नव के इफ्तेताह (शुरू होने) का एलान है_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 94,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–26_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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          *❥❥_ आम समाजी राब्ता :-*

*❀_ बड़े बड़े काम करने वाले लोग बिल उमूम राब्ता आम के लिए वक्त़ नहीं निकाल सकते और न हर तरफ तवज्जो दे सकते हैं, बाज़ बड़े लोगो में खिलवत पसंदी और खुश्क मिजा़जी पैदा हो जाती है और कुछ किब्र का शिकार हो कर अपने लिए एक आलमे बाला बना लेते हैं, मगर हुजूर ﷺ इंतेहाई अज़मत के मुक़ाम पर फ़ाइज़ हो कर और तारीख का रुख बदलने वाले कारनामे अंजाम दे कर अवामी हलको़ से पूरी तरह मरबूत थे, और जमात और मा'शरे के अफराद शख्सी और निजी ताल्लुक़ रखते थे,*

*❀_ अलहैदगी पसंदी या किब्र या पेवस्त का शायबा तक ना था, आप ﷺ का मामूल था कि रास्ते में मिलने वालों से सलाम कहते और सलाम कहने में पहल करते, किसी को पैगाम भिजवते तो साथ सलाम ज़रूर कहलवाते, किसी का सलाम पहुंचाया जाता तो भेजने वाले को भी और लाने वाले को भी जुदा जुदा सलाम कहते, एक बार लड़कों की टोली के पास से गुज़रे तो उनको सलाम किया, औरतों की जमात के क़रीब से होकर गुज़रे तो उनको सलाम किया, घर मे दाखिल होते हुए और घर से निकलते हुए घर के लोगों को भी सलाम कहते,*

*❀_ अहबाब से मुआनका़ भी फरमाते और मुसाफा भी, मुसाफा से हाथ उस वक्त तक न खींचते जब तक दूसरा खुद ही अपना हाथ अलग न करता, मजलिस में जाते तो इस अम्र को नापसंद करते कि सहाबा ताज़ीम के लिए खड़े हों, मजलिस के किनारे ही बैठ जाते, कंधो पर से फांद कर बीच में घुसने से अहतराज़ फरमाते, फरमाया - इसी तरह बैठता हूं जिस तरह खुदा का एक बंदा बैठता है_,"*

*❀_ अपने ज़ानू साथियों से बढ़ा कर न बैठते, कोई आता तो ऐज़ाज़ के लिए अपनी चादर बिछा देते, आने वाला जब तक खुद ना उठता आप मजलिस से अलग न होते,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 94,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–27_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ अहले मजलिस की गुफ्तगू में गैर मुताल्लिक़ मोजु़ ना छेड़ते बल्की जो सिलसिला कलाम चल रहा होता उसी में शामिल हो जाते, चुनांचे नमाजे़ सुबह के बाद मजलिस रहती और उसमें सहाबा से खूब बातें होती, जाहिलियत के क़िस्से छिड़ जाते और उन पर खूब हंसी भी होती_,*

*❀_ सहाबा शेर भी पढ़ते, जिस मोजू़ से अहले मजलिस के चेहरों से उकताने का असर मेहसूस होता उसे बदल देते, एक एक फर्दे मजलिस पर तवज्जो़ फरमाते ताकी कोई ये ना मेहसूस करे कि किसी को उस पर आपने फोक़ियत दी है, दौराने तकल्लुम कोई शख्स गैर मुताल्लिक़ सवाल छेड़ देता तो उसे नज़र अंदाज कर के गुफ्तगू ज़ारी रखते और सिलसिला पूरा करके फिर उसकी तरफ मुतवज्जह हो जाते,*

*❀__ खिताब करने वाले की जानिब से उस वक्त तक रुख न फैरते जब तक वो खुद मुंह ना हटा लेता, कान में कोई सरगोशी करता तो जब तक वो बात पूरी कर के मुंह ना हटा लेता आप बराबर अपना सर उसी की तरफ झुकाए रखते, किसी की बात को कभी न काटते, इला ये कि हक़ के खिलाफ हो, इस सूरत में या तो टोक देते या चेहरे पर नागवारी आ जाती या उठ कर चले जाते _,"*

*❀_ नपासंद था कि खड़े खड़े कोई अहम बहस छेद दी जाये, नापसन्दीदा बातों से या तो ऐराज़ फरमाते वरना गिरफ्त करने का आम तरीक़ा ये था कि बराहे रास्त नाम ले कर ज़िक्र न करते, बल्की उमूमी अंदाज़ में इशारा करते या जामा तोर पर नसीहत कर देते,*

*❀_ इंतेहाई तक़द्दुर की सूरत में जो फ़क़त दीनी उमूर में होता था अहबाब को अहसास दिलाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा ये तरीक़े इज़हार था कि या तो शख़्स मुताल्लिक़ के आने पर सलाम क़ुबूल ना करते या अद्मे इल्तफ़ात दिखाते,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -95,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–28_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ नापसन्दीदा आदमी के आने पर भी खंदा पेशानी से पेश आते, चुनांचे एक बार कोई आया जिसे आप ﷺ अपने गिरोह का बुरा आदमी समझते थे, मगर आपने बे तकल्लुफ़ी से बातचीत की, हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ियल्लाहु अन्हा को ताज्जुब हुआ तो आप ﷺ ने फरमाया:-*
*"_ क़सम है कि क़यामत के दिन ख़ुदा के हुज़ूर वो शख़्स बदतरीन आदमी का मुक़ाम पाएगा जिससे लोग उसकी बद सुलूकी के डर से मिलना जुलना ही छोड़ दें_,"(अल मुवाहिब -1/291)*

*❀__ किसी की मुलाक़ात को जाते तो दरवाज़े के दाएं बाएं खड़े हो कर इत्तेला देने और इजाज़त लेने के लिए तीन मर्तबा सलाम करते, जवाब ना मिलता तो बगैर किसी अहसासे तकद्दूर के वापस चले आते, रात को किसी से मिलने जाते तो इतनी आवाज़ में सलाम कहते कि अगर वो जागता हो तो सुन ले और सो रहा हो तो नींद में खलल ना आए,*

*❀_"_बदन या लिबास से कोई शख्स तिनका या मिट्टी वगेरा हटाता तो शुक्रिया अदा करते हुए फरमाते खुदा तुमसे हर उस चीज़ को दूर करे जो तुम्हें बुरी लगे_,"*

*❀_"हदिया क़ुबूल करते और जवाबन हदिया देने का ख़याल रखते, किसी शख़्स को इत्तेफ़ाक़न कोई तकलीफ़ पहुँच जाती तो उसे बदला लेने का हक़ देते और कभी एवज़ में कोई हदिया देते, कोई शख्स नया लिबास पहन कर सामने आता तो फरमाते- खूब से खूब देर तक पहनो बोसीदा करो, बदसुलूकी का बदला बूरे सुलूक से ना देते बल्कि अफु व दरगुज़र से काम लेते,*

*❀_"_ दूसरे के कुसूर माफ़ कर देते तो इत्तेला के लिए अपना अमामा अलमत के तोर पर भेज देते_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -96,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–29_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ कोई पुकारता तो ख्वाह वो घर का आदमी हो या रफ्का़ में से हमेशा "लब्बेक" (हाज़िर हूं) कहते, बीमारों की अयादत को अहतमाम से जाते, सरहाने बेठ कर पूंछ्ते- तुम्हारी तबीयत केसी है? बीमार की पेशानी और नब्ज़ पर हाथ रखते, कभी सीने और पेट पर दस्ते शफ़क़त फैरते और कभी चेहरे पर _,"*

*❀_खाने को पूंछते, बीमार किसी चीज़ की ख़्वाहिश करता तो अगर मुज़िर ना होती तो मंगवा देते, तसल्ली देते और फरमाते- "फिक्र की कोई बात नहीं, खुदा ने चाहा तो जल्द सहतयाब होंगे, शिफा के लिए दुआ फरमाते_,*

*❀_ हज़रत सा'द के लिए तीन बार दुआ की, मुशरिक चाचाओं की बीमार पुरसी भी की, एक यहूदी बच्चे की अयादत भी फरमाई (जो ईमान ले आया) इस काम के लिए कोई दिन और वक़्त मुक़र्रर ना था, जब भी इत्तेला मिलती और वक्त़ मिलता तशरीफ ले जाते_,"*

*❀_ एक बार हजरत जाबिर बीमार पड़े, रसूलुल्लाह ﷺ अपने रफीक़े खास हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु को अपने साथ लिए हुए पैदल खास दूरी तक चल कर गए, हजरत जाबिर बेहोश पड़े थे, आपने देखा, फिर वज़ू किया, पानी के छींटें दिए, दुआ की और मरीज़ की हालत संभलने लगी, चुनाचे हज़रत जाबिर ने बातचीत की और अपने तरका के मुताल्लिक मसाईल पूछे_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -96,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–30_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ तवाज़ो की इंतेहा ये थी कि मुनाफ़िक़ीन के सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई तक की अयादत फरमाई, जब किसी शख़्स की वफ़ात हो जाती तो तशरीफ़ ले जाते, आलमे नज़ा में बुलाया जाता या ख़ुद इत्तेला पा कर पहुंचते तो तोहीद और तवज्जो इल्लल्लाह की तलक़ीन करते, मय्यत के घर वालों से हमदर्दी का इज़हार फरमाते, सब्र की नसीहत करते और चिल्लाने पुकारने से रोकते_,"*

*❀_ सफेद कपडे में अच्छा कफन देने की ताकीद करते और तजहीज़ व तकफीन में जल्दी कराते, जनाजा़ उठता तो साथ साथ चलते, मुसलमानों के जनाज़े खुद पढ़ाते और मगफिरत के लिए दुआ करते, कोई जनाजा़ गुज़रता.. तो चाहे वो गैर मुस्लिम का हो, खड़े हो जाते (बेठे रहने की रिवायत भी है और बाज़ लोग कहते हैं कि क़याम का तरीक़ा मनसूख हो गया था.. मुलहिज़ा हो - ज़ादुल म'आद -1/1345)*

*❀_ तलक़ीन फरमाते कि मय्यत के घर वालों के लिए लोग खाना पकवा कर भिजवाएं (आज ये उल्टी रस्मियत मुसल्लत है कि मय्यत वाले घर में दूसरों की ज़ियाफत होती है) नापसंद था कि बा क़ायदा मजलिसे ताज़ियत का सिलसिला एक रस्मी जा़ब्ते के तौर पर कई कई रोज़ जारी रहे_,"*

*❀_ कोई मुसाफिर सफर से वापस आता और हाज़री देता तो उससे मुआनक़ा करते, बाज़ औक़ात पेशानी चूम लेते, किसी को सफर के लिए रुखसत फरमाते तो कहते कि भाई हमें अपनी दुआओं में याद रखना, मुहब्बत आमेज़ बे तकल्लुफी में कभी कभी अहबाब के नामों को मुख्तसर करके भी पुकारते, जैसे या अबा हुरैरा की बजाये "अबा हर" हजरत आयशा को कभी कभी "आइश" कह कर पुकारते*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -97 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–31_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥ -बच्चों से बहुत दिलचस्पी थी, बच्चों के सर पर हाथ फैरते प्यार करते दुआ फरमाते, नन्हे बच्चे लाये जाते तो उनको गोद में ले लेते, उनको बहलाने के लिए अजीब से कलमे फरमाते, एक मासूम बच्चे को बोसा देते हुए फरमाया- ये बच्चे तो खुदा के बाग के फूल हैं _,"*

*❀_ बच्चों के नाम तजवीज़ करते, बच्चों को कतार में जमा करके इनामी दौड़ लगवाते कि देखें कौन हमें पहले छू लेता है, बच्चे दौड़ते हुए आते तो कोई सीने पर गिरता कोई पेट पर, बच्चों से दिल्लगी भी करते, मसलन -हज़रत अनस को कभी कभी प्यार से कहा - या ज़ुल्ज़नैन (ओ दो कानों वाले)_,"*

*❀_ अब्दुल्लाह बिन बशीर के हाथ उनकी वालिदा ने हदिये के तोर पर अंगूर हुजूर ﷺ की खिदमत में भेजे, साहबजादे मियां रास्ते में खा गए, बाद में मामला खुला तो आप प्यार से अब्दुल्ला के कान पकड़ कर कहते हैं, "या गदर या गदर" (ओ धोकेबाज़, ओ धोकेबाज़)*

*❀_ सफर से आ रहे होते तो जो बच्चा रास्ते में मिलता उसे सवारी पर बिठा लेते, छोटा होता तो आगे बड़ा होता तो पीछे, फसल का मेवा पहली बार आता तो बरकत की दुआ मांग कर कम उमर बच्चे को दे देते, आपके पेशे नज़र था कि यही नई पौद आईंदा तहरीके़ इस्लाम की अलम बरदार होगी _,"*

*❀_ बुढ़ों का अहतराम फरमाते, फतेह मक्का के मोके़ पर हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु अपने ज़ईफुल उमर वालिद को (जो बीनाई से भी महरूम थे) बैत ए इस्लाम के लिए आपकी खिदमत में लाए, फरमाया- इन्हें क्यों तकलीफ दी, मै खुद इनके पास चला जाता_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -98,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–32_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥-- मेल जोल की जिंदगी में आपके हुस्नो किरदार की तस्वीर हजरत अनस रजियल्लाहु अन्हु ने खूब खींची है, वो फरमाते हैं:- मैं दस बरस तक हुजूर ﷺ की खिदमत में रहा और आपने मुझे कभी उफ तक ना कही, कोई काम जेसा भी नहीं कहा कि ये क्यों किया, और कोई काम ना किया तो नहीं कहा क्युं नहीं किया _,"*

*❀_ यही मामला आपका खादिमों और कनीज़ों के साथ रहा, आपने उनमें से किसी को कभी नहीं मारा, इसकी तसदीक़ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती हैं कि अज़वाज या खादिमों में से ना कभी किसी को मारा ना किसी से कोई इंतेका़म लिया _,"*

*❀_ खालिस निजी ज़िंदगी:- अक्सर बड़े लोग वो कहलाते हैं जो पब्लिक लाइफ के लिए एक मस्नुई किरदार का चोगा पहने रखते है जो निजी जिंदगी में उतर जाता है, बाहर देखें तो बड़ी आन बान है घर पहुंचे तो इंतेहाई पसती में जा गिरे, बाहर सादगी और तवाजो़ दिखाई, घर को पलटे तो ऐश व इशरत में डूब गए,*

*❀_ हुज़ूर ﷺ को देखिए तो एक ही रंग घर में भी है और घर से बाहर भी, हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से किसी ने दरियाफ्त किया कि रसूले खुदा अपने घर में क्या क्या करते थे ? उन्होंने जवाब में फरमाया :-*

*❀"_ आप आदमियों में से एक आदमी थे, अपने कपड़ों की देखभाल खुद ही कर लेते, बकरी का दूध खुद दोहते और अपनी ज़रूरत खुद ही पूरी कर लेते, नीज़ अपने कपड़ों को खुद ही पेवंद लगा लेते, अपने जूतों की मरम्मत कर लेते और ये कि अपने डोल को टांके लगा लेते, बोझ उठाते, जानवरों को चारा डालते, कोई खादिम होता तो उसके साथ मिल कर काम कराते (मसलन) उसे आटा पिसवा देते, कभी अकेले ही मशक्कत कर लेते, बाज़ार जाने में आर ना थी, खुद ही सौदा सलफ लाते और ज़रूरत की चीज़ एक कपड़े में बांध कर उठा लाते _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -98,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–33_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_लोगों ने ये भी दरियाफ्त किया कि रसूलुल्लाह ﷺ जब घर में होते तो क्या रंग रहता ? हजरत आयशा सिद्दीका़ रजियल्लाहु अन्हा बताती है- (सबसे ज्यादा नरम मिज़ाज, मुस्कुराने वाले, खंदा जबी) और कभी किसी खादिम को झिड़का नहीं _," हक़ ये है कि रसूले खुदा ﷺ से बढ़ कर कोई भी अपने अहलो अयाल के लिए शफीक़ ना था _," (मुस्लिम)*

*❀"_ एक बार हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु के पूछने पर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया कि रसूलुल्लाह ﷺ घर में आते तो अपना वक़्त तीन तरह की मसरूफ़ियतों में सर्फ़ करते, कुछ वक़्त ख़ुदा की इबादत में सर्फ़ होता, कुछ वक्त़ अहलो अयाल के लिए था और कुछ वक़्त अपने आराम के लिए, फिर इन्हीं औक़ात में से एक हिस्सा मुलाक़ातियों के लिए निकालते जिनमे मस्जिद की आम मजलिस के अलावा ख़ुसूसी गुफ्तगु करने वाले अहबाब या मेहमान आ आकर मिलते या कुछ लोग ज़रुरियात व हाजात ले कर आते _," (शमाइल तिर्मिज़ी), देखा जाए तो आराम के लिए बहुत ही कम वक्त़ रह जाता था _,"*

*❀_ अज़वाज मुताहरात के नान नफ्का़ और मुख्तलिफ ज़रुरियात का इंतेजाम भी आपको करना होता है फिर उनकी तालीम व तरबियत भी आपके जिम्मे थी, फिर उन्हीं के ज़रिये तबका़ ख्वातीन की इस्लाह का काम जारी रहता, औरतें अपने मसाईल ले कर आतीं और अज़वाज मुताहरात की मार्फत दरियाफ्त करतीं _,"*

*❀_ इसके बावजूद घर की फिज़ा को आपने कभी खुश्क और बोझिल ना बनने दिया, और ना उसमें कोई मसनूई अंदाज़ पैदा होने दिया, घर एक इंसानी घर की तरह था जिसकी फिज़ा में फितरी जज़्बात का रस घुला रहता, हुजूर ﷺ आते तो नसीम के झोंकों की तरह आते और एक अजीब शगुफ्तगी फैल जाती, बातचीत होती, कभी कभी क़िस्सा गोई भी होती और दिलचस्प लताइफ भी वकु में आते_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -99 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–34_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_ घरेलु ज़िंदगी के इस फितरी उतार चढ़ाव को बाज़ लोग इस्लामियत के तसव्वुर से देखते हैं और खुशुसन नबी करीम ﷺ के घर का नक्शा कुछ ऐसा ज़हन में रखते हैं कि इसमे कोई गैर इंसानी पलते रहते थे जिनमे कोई जज़्बा था ना ख़्वाहिश.... हालांकी वो घर इंसानों का घर था, और उसमे सारे इंसानी जज़्बात काम करते थे, मगर उस घर में मासियत (गुनाह का कोई काम) ना थी, इस लिहाज़ से वो घर एक नमूना था ,*

*❀_ रातों को जब हुजूर ﷺ बिस्तर पर होते तो अहलो अयाल से आम बात होती, कभी घरेलु उमूर कभी आम मुसलमानो के मसाइल पर, यहां तक ​​कि कभी किस्सा कहानी भी सुनाते, एक बार आपने हजरत आयशा रजियल्लाहु अन्हा से उम्मे ज़रा की कहानी बयान की, इस कहानी में 11 औरतें अपने अपने खाविंदों का किरदार आपस में बयान करती हैं, उनके से एक औरत उम्मे ज़रा अपने खाविंद अबु ज़रा का मन मोहना किरदार पेश करती है, ये कहानी अदबी लिहाज़ से बड़ी दिलचस्प है, खात्मे पर हुज़ूर ﷺ ने हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से कहा कि मैं भी तुम्हारे हक़ में वेसा ही हूँ जेसा कि अबू ज़रा उम्मे ज़रा के लिए था_,*

*❀_ इसी तरह किसी दूसरे मोक़े पर कोई क़िस्सा सुनाया तो सुनने वालियों में से एक ने कहा कि ये तो खुराफा के किस्सो जेसा है (अरब में खुराफा की एक रिवायती शख्सियत थी जिससे बहुत से हैरतनाक किस्से मंसूब थे) हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा कि जानती भी हो कि खुराफा की क्या हक़ीक़त थी, फिर आपने खुराफा की रिवायती शख्सियत का क़िस्सा भी बयान किया कि बनू उज़रा के इस आदमी को जिन पकड़ कर ले गए थे और कुछ अरसे के बाद वापस छोड़ गए _," (शमाइल तिर्मिज़ी)*

*❀_ उम्र भर मामूल रहा कि रात के दूसरे निस्फ हिस्से के अव्वल में बेदार हो कर मिस्वाक और वज़ू के बाद तहज्जुद अदा फरमाते, (जा़दुल मा'द)*
*"_ क़ुरान ठहर ठहर कर पढ़ते हुए बाज़ औक़ात इतना लंबा क़याम फ़रमाते कि क़दम मुबारक पर वरम आ जाता _," (शमाईल तिर्मिज़ी)*
*"_ सहाबा किराम ने इस मशक़्कत पर अर्ज किया कि अल्लाह ताला ने तो आपको गुफराने खास से नवाजा़ है, फिर इस क़दर हुजूर ﷺ जान क्यूं खपाते हैं, फरमाया - क्या मैं खुदा का अहसान शनास और शुक्र गुज़ार बंदा न बनूं _,"(शमाईल तिर्मिज़ी)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -100,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━
                  ★ *क़िस्त–35_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ घर और उसके साजो़ सामान के मुताल्लिक आपका नुक्ता नज़र ये था कि ज़िंदगी इस तरह गुज़ारी जाए जैसे मुसाफ़िर गुज़ारता है, फरमाया कि मेरी मिसाल उस मुसाफ़िर की सी है जो थोड़ी देर के लिए साये में आराम करे और फिर अपनी राह ले, मुराद ये है कि जो लोग आखिरत को मुंतहा बनाये और दुनियावी जिंदगी को अदा ए फ़र्ज़ या इम्तिहान के तोर पर गुजा़रे, और जिन्हे यहां किसी बड़े नस्बुल ऐन के लिए जद्दो जहद करनी हो उनके लिए क्या मौका है कि आला दर्जे के मस्कन बनाएं और उनको साजो़ सामान से आरस्ता करें और फिर उनमें मगन रह कर लुत्फ उठाएं _,"*

*❀"_ चुनांचे आप और आपके साथियों ने ना आला दर्जे की इमारतें बनाई और ना उनमें असबाब जमा किए और न उनकी ज़ीनत आराइश की, उनके घर बस "बेहतरीन मुसाफिराना क़याम गाहें थी" उनमे गरमी सर्दी से बचने का अहतमाम था, जानवरो की मुदाखलत से बचाव का इंतजाम था, पर्दादारी का बंदोबस्त था और हिफजा़ने सहत के ज़रूरी पहलू मलहूज़ थे_,"*

*❀"_ हुज़ूर ﷺ ने मस्जिद के साथ अज़वाज मुताहरात के लिए हुजरात (छोटे छोटे कमरे) बनवाये थे, बजुज़ सफाई के और किसी तरह की आराइश ना थी, सफाई में ज़ोके नबुवत यहाँ तक था कि सहाबा को ताकीद फरमाई, घरों के आंगन साफ ​​रखो_," (तिर्मिज़ी)*

*❀"_ साज़ो सामान में चंद बरतन निहायत सादा क़िस्म के थे, मसलन एक लकड़ी का प्याला (बादिया) था, जिस पर लोहे के पत्तर लगे थे और खाने पीने में इसका बा कसरत इस्तमाल होता था, खुराक का सामान जमा तो क्या होता रोज़ का रोज़ भी काफी मिक़दार में मयस्सर न हुआ _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -101,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–36_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥- बिस्तर चमड़े के गद्दे पर मुश्तमिल था, जिसमे खजूर की छाल भरी हुई थी, बान की बनी हुई चारपाई रखते, टाट का बिस्तर भी इस्तेमाल में रहा, जो दोहरा कर के बिछाया जाता, एक बार चोहरा कर के बिछाया गया तो सुबह दरियाफ्त फरमाया कि आज क्या खुसूसियत थी कि मुझे गहरी नींद आई और तहज्जुद छूट गई, मलूम होने पर हुकम दिया के बिस्तर को पहले ही हाल पर रहने दिया जाए,*

 *❀"_ ज़मीन पर चटाई बिछा कर भी लेटने का मामूल था, बाज़ औक़ात चारपाई के निशानात बदन पर देख कर रफका़ खास ( मसलन हजरत उमर व अब्दुल्लाह बिन मसूद रजियाल्लाहु अन्हुम) रो पड़े, ज़रा हजरत उमर रजियाल्लाहु अन्हु का चश्मादीदा नक्शा सामने लाएं, उन्होंने हुजूर ﷺ को इस आलम में देखा कि आप ﷺ खुरी चारपाई पर लेटे हैं और जिस्म पर निशान पड़ गए हैं, इधर उधर देखा तो एक तरफ मुट्ठी भर जौ रखे हैं, एक कोने में किसी जानवर की खाल कीली से लटक रही है, ये मंज़र देख कर मेरी आंखों से आंसू ज़ारी हो गए _,"*

*❀"_ हुज़ूर ﷺ ने रोने का सबब पूछा तो अर्ज़ किया कि कै़सर व किसरा तो ऐश करें और आपका ये हाल रहे, फरमाया - उमर क्या तुम इस पर खुश नहीं कि वो दुनिया ले जाएं और हमें आखिरत मिले _," (अल मुवाहिब, सही मुस्लिम)*

*❀"_ खाने पीने का ज़ोक बहुत नफीस था, गोश्त से खास रगबत थी, ज़्यादातर तर्जीह दस्त, गर्दन और पीठ के गोश्त को देते, नीज़ पहलू की हड्डी पसंद थी, शरीद (गोश्त के शोरबे में रोटी के टुकड़े भिगो कर ये मखसूस अरबी खाना तैयार किया जाता था) तनावुल फरमाना मरगूब था, पसंदीदा चीज़ों में शहद, सिरका, खरबुजा, ककड़ी, लोकी, खिचड़ी, मक्खन, वगेरा शामिल थी, दूध के साथ खजूर (बेहतरीन मुकम्मल गिज़ा बनती है) का इस्तेमाल भी अच्छा लगता और मक्खन लगा कर खजूर खाना भी ज़ोक में शामिल था,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -102,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–37_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥--मरीज़ो की परहेज़ी गिज़ा के तौर पर हरीरा को अच्छा समझते और तजवीज़ भी फ़रमाते, मीठा पकवान भी मरगूब खास था, अक्सर जो के सत्तू भी इस्तेमाल फ़रमाते, एक मर्तबा बादाम का सत्तू पेश किए गया तो ये कह कर इंकार कर दिया कि ये अमीरों की गिज़ा है, घर में शोरबा पकता तो कहते कि हमसाया के लिए ज़रा ज़्यादा बनाया जाए,*

*❀"_ पीने की चीज़ में नंबर एक पर मीठा पानी था, और बतौर खास दूर दराज की मुसाफत से मंगवाया जाता, दूध पानी मिला दूध (जिसे कच्ची लस्सी कहा जाता है) और शहद का शरबत भी रगबत से नोश फरमाते,*

*❀_"मशकीज़े या पत्थर के बरतन में पानी डाल कर खजूर भिगो दी जाती और उसे मुतावातर दिन भर इस्तेमाल करते लेकिन वक्त ज़्यादा होने पर चुंकी नशा होने का अंदेशा हो जाता लिहाज़ा फिकवा देते, बा रिवायत अबु मालिक अश'अरी ये फरमाया भी कि मेरी उम्मत में बाज़ लोग शराब पियेंगे और उसका नाम बदल कर कुछ और रख देंगे,*

*❀"_ अफराद का अलग अलग बैठ कर खाना नपासंद था, इकट्ठे हो कर खाने की तलकीन फरमाई, मेज कुर्सी पर बैठ कर खाने को अपनी शान ए फक्र के खिलफ समझते, इसी तरह दस्तर ख्वान पर छोटी छोटी प्यालियों और तश्तरीयो में खाना रखा जाना भी खिलाफे मिज़ाज था, सोने चांदी के बर्तन को बिल्कुल हराम फरमा दिया था, कांच मिट्टी तांबे और लकडी के बर्तनों को इस्तेमाल में लेते रहे, दस्तर ख्वान पर हाथ धोने के बाद जूता उतार कर बैठते_,"*

*❀"_ सीधे हाथ से खाना लेते और अपने सामने की तरफ से लेते, बर्तन के दरमियांऊ में हाथ ना डालते, टेक लगा कर खाना पीना भी खिलाफे मामूल था, दो जा़नू या उकडू बेठते, हर लुकमा लेने पर बिस्मिल्लाह पढ़ते, नापसंदीदा खाना बगैर ऐब निकाले खामोशी से छोड़ देते, ज़्यादा गरम खाना ना खाते, खाना हमेशा तीन उंगलियों से लेते और उनको लिथडने ना देते, कभी कभार मेवा या फल खड़े हो कर या चलते हुए भी खा लिया, दो फल इकट्ठे भी खाए, मसलन एक हाथ में खरबुजा लिया और दूसरे में खजूर, खजूर की गुठली उलटे हाथ से फैंकते,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -103,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–38_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ दावत जरूर कुबूल फरमाते और अगर इत्तेफाक़न कोई दूसरा आदमी (बात चीत करते हुए या किसी और सबब से) साथ होता तो उसे ले तो जाते मगर साहिबे खाना से उसके लिए इजाज़त लेते, मेहमान को खाना खिलाते तो बार बार इसरार से कहते कि अच्छी तरह बेतकल्लुफी से खाओ _,"*

*❀"_ खाने की मजलिस से बा तकाज़ा मुरव्वत सबसे आखिर में उठते, दूसरे लोग अगर पहले फरिग हो जाते तो उनके साथ ही आप भी उठ जाते, फारिग हो कर हाथ जरूर धोते, दुआ करते जिसमे खुदा की निआमतों में लिए अदा ए शुक्र के कलमात होते, नीज़ तलबे रिज़्क फरमाते और साहिबे खाना के लिए बरकत चाहते,*

*❀"_ खाने की कोई चीज़ आती तो हाज़िर दोस्तों को बा इसरार शरीक करते और गैर हाज़िर दोस्तों का हिस्सा रखते, फल वगेरा खाने की मजलिस में एक एक दाना निकालने की तरबियत आपने दी,*

*❀"_ पानी गट गट की आवाज़ निकाले बैगर और बिल उमूम तीन बार मूंह से अलग कर के सांस ​​लेते और हर बार आगाज़ "बिस्मिल्लाह" से और अख्ताम "अल्हम्दुलिल्लाह" पर करते, आम तरीक़ा बेठ कर पानी पीने का था, मगर कभी कभी खड़े हो कर भी पिया है, पीने की चीज़ मजलिस में आती तो बिल उमूम दाहिनें जानिब से दौर चलाते और जहां एक दौर खत्म होता दूसरा दौर वहीं से शुरू करते।*

*❀"_ बड़ी उम्र के लोगों को तर्जीह देते मगर दाहिने हाथ वालों के मुकर्ररा इस्तेहक़ाक़ की बिना पर उनसे इजाज़त ले कर ही तरतीब तोड़ते, अहबाब को कोई चीज़ पिलाते तो खुद सबसे आखिरी में पीते, खाने पीने की चीजो में फूंक मारना या उनको सूंघना नापसंद था, सांस में बू का होना चुंकी खिलाफे मिज़ाज था इसलिए कच्ची प्याज़ और लहसुन का इस्तेमाल हमेशा नापसंद रहा,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -104,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–39_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥- खाने पीने की चीज़ को ढांकने का हुक्म दिया है, कोई नया खाना सामने आता तो खाने से पहले उसका नाम मालूम फरमाते, ज़हर खुरानी के वाक़िए के बाद मामूल हो गया था कि अगर कोई अज़नबी शख्स खाना खिलाता तो पहले एक आध लुक़मा खुद उसे खिलाते*

*❀"_ ज़ोक की इस नफ़ासत के साथ दूसरी तरफ़ अक्सर औक़ात फ़क़र व फ़ाक़ा का आलम दरपेश रहा, जिसकी तफ़सील हम दूसरी जगह देंगे, फरमाया - मेरा खाना पीना ऐसा है जैसे (खुदा के) किसी बंदे का होना चाहिए,*

*❀"_ नशिस्त व बरखास्त :- कभी उकडू बेठते, कभी दोनों हाथ जानूओं के गिर्द हल्का कर लेते, कभी हाथों के बजाये कपड़ा ( चादर वगेरा) लपेट लेते, बेठे हुए टेक लगाते तो बिल उमूम उलटे हाथ पर, फिक्र या सोच के वक़्त बेठे हुए ज़मीन को लकडी से कुरेदते,*

*❀"_ सोने के लिए सीधी करवट सोते और दाएं हाथ की हथेली पर अपना दाहिना रुखसार रख लेते, कभी चित भी लेटते और पांव पर पांव भी रख लेते, मगर सतर का अहतमाम रखते, पेट के बल ओंधा लेटना सख़्त नापसंद था और इससे मना फ़रमाते थे, ऐसे तारिक घर में सोना पसंद न था जिसमे चराग न जलाया गया हो, खुली छत पर जिसकी पर्दे की दीवार ना हो सोना अच्छा न समझते,*

*❀"_ वजू कर के सोने की आदत थी और सोते वक्त मुख्तलिफ दुआएं पढ़ने के अलावा आखिरी तीन सूरतें पढ़ कर बदन पर दम कर लेते, रात में कजा़ ए हाजत के लिए उठते तो फारिग होने के बाद मुंह जरूर धो लेते, सोने के लिए एक तहबंद अलहिदा था, कुर्ता उतार कर लटकाते,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -104,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–40_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_बशरी हाजात :-*
*❀_"_ ज़रुरत के लिए चुंकी उस दौर में घरो में बैतुल ख़ला ना थे इसलिये हुज़ूर ﷺ जंगल जाते, उमूमन इतनी दूर तक जाते कि नज़रों से ओझल हो जाते, ऐसी नरम ज़मीन तलाश करते कि छींटे ना उड़े,*

*❀_"_ मोका़ हाजत पर पहले बायां क़दम रखते फिर दांया, बेठते हुए ज़मीन के बिल्कुल क़रीब हो कर मुका़मे सतर से कपड़ा खोलते, किसी टीले वगेरा की आड़ ज़रूर लेते,*

*❀_"_ ज़रुरत के लिए हमेशा जूता पहन कर और सर ढक कर निकलते, क़िबला की तरफ मुंह या पुश्त करने से इज्तिनाब था, रफा हाजत के वक़्त अंगुठी अलग कर देते, ( वाज़े रहे कि उस पर खुदा और रसूल के अस्मा कुंधे थे) आबदस्त बिला इल्तिज़ाम बांये हाथ से करते, जाय ज़रुरत से अलग होते हुए पहले दांया पांव उठाते फिर बांया,*

*❀_"_ गुस्ल के लिए पर्दा ज़रूरी क़रार दिया था, घर में नहाते तो कपड़े का पर्दा ताना जाता, कभी बारिश में नहाते तो तहबंद बांध लेते, छींक पस्त आवाज़ से लेते और हाथ या कपडा मुंह पर रख लेते _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -105,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
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       *■ मोहसिन ए इंसानियत ﷺ ■* ⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙                           
                  ★ *क़िस्त–41_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥-"_सफर :- सफर के लिए जुमेरात को रवानगी ज़्यादा पसंद थी, सवारी को तेज़ चलाते, पड़ाव से सुबह के वक्त कूच करना मामूल रहा, सफर में जो इज्तिमाई काम दरपेश होते उनमे ज़रूर हिस्सा लेते,*

*❀_"_ चुनांचे एक बार खाना तैयार करने की मुहिम थी, सारे साथियों ने काम तक़सीम किए, आपने भी लकड़िया चुनना अपने जिम्मे लिया, कहा गया कि आप तक़लीफ न करें हम सब इस काम के लिए काफी हैं, फरमाया कि मुझे इम्तियाज़ पसंद नहीं*

*❀_"_ सफर में सवारी पर बारी बारी किसी न किसी पैदल साथी को शरीक़ करते, सफर से रात में वापस आना पसंद न था, आते तो सीधे मस्जिद में जा कर निफ्ल अदा करते, घर में इत्तेला हो जाने के बाद इत्मिनान से जाते,*

*❀_"_जज़्बात:- इंसानियत का कोई तसव्वुर हम जज़्बात को अलग रख कर नहीं कर सकते, हुजूर ﷺ में भी इंसानी जज़्बात बेहतीन उस्लूब पर कार फरमा थे, आप बहुत ही साहिबे अहसास हस्ती थे और खुशी में खुशी और गम में गम से मुतास्सिर होते_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -106,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–42_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_हुजूर ﷺ उन नामो निहाद बड़े लोगों में से ना थे जो दुनिया जहां के गम में घुले जाते हैं लेकिन घर के लिए संगदिल और तगाफुल कैश (बेपरवाह) साबित होते हैं, बाहर की जिंदगी पुर हंगामा होती है घर की फीकी और बद मज़ा, आपको अज़वाज के साथ सच्ची मुहब्बत थी, हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के साथ एक ही प्याले में पानी पीते और जहां वो मुंह लगातीं वहीं मुंह लगाते_,*

*❀_"_ अंसार की बच्चियों को बुलवाते तकी वो उनके (हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के) साथ खेलें, हब्शियों के वार्ज़िशी कर्तब इस अंदाज़ से दिखाये कि हज़रत आयशा की ठोड़ी आपके कंधे पर थी, बार बार पूछते कि क्या तुम सैर हो गई हो? वो कहतीं- अभी नहीं! देर तक ये सिलसिला जारी रहा _,"*
 
*❀_"_ हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा को ऊंट पर सवार करने के लिए आप ﷺ अपना घुटना बड़ा देते और उस पर आप अपना पैर रख कर सवार हो जातीं, एक मर्तबा सफर में नाका़ (ऊंटनी) का पांव फ़िसला और हुज़ूर ﷺ और हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा दोनों गिर पड़े, अबु तल्हा साथ थे, दौड़े हुए आपके पास आए, आपने फरमाया पहले ख़ातून की तरफ़ तवज्जो करो,*

*❀_"_ इसी मुहब्बत की वजह से एक बार शहद ना खाने की क़सम खा ली थी, जिस पर इताब आया कि - "हलाल चीज़ को हराम न करो_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 106,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–43_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_अपने बच्चों के लिए भी हुज़ूर ﷺ के जज़्बात बड़े गहरे थे, हज़रत इब्राहिम को रज़ा'त के लिए एक लोहार के घर में मदीना के बालाई हिस्से में रखा गया था, उनको देखने के लिए खास फासला चल कर तशरीफ ले जाते, घर में धुवां भरा होता मगर वहां बेठते और बच्चे को गोद में ले कर प्यार करते,*

*❀_"_ हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा आतीं तो उठ कर इस्तक़लाल करते, ख़ुद तशरीफ़ ले जाते, अपनी कहते उनकी सुनते, उनके साहबजा़दों हसन और हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुम से बहुत ही प्यार था, उनको गोद में लेते, उनको कांधो पर सवार करते, उनके लिए घोड़ा बनते, हालते नमाज़ में भी उनको कंधो पर बैठने देते*

*❀_"_ एक बार इक़रा बिन हाबिस ने आपको जनाब हसन का बोसा लेते देखा तो ताज्जुब से कहा कि मेरे तो दस बेटे हैं, मैंने कभी किसी को प्यार नहीं किया मगर आप बोसा लेते हैं, फरमाया- जो रहम नहीं करता उस पर रहम नहीं किया जाता _,"*

*❀_"_ हज़रार इब्राहिम साहबज़ादे की वफ़ात हुई तो सदमे से आँखे डबडबा आयीं, इसी तरह एक साहबज़ादी की वफ़ात आपकी मौजूदगी में हुई, उम्मे ऐमन चिल्ला चिल्ला कर रोने लगीं, हुज़ूर ﷺ ने मना फरमाया, तो वो कहने लगीं कि आप खुद भी तो रो रहे हैं, आपने फरमाया कि ऐसा रोना मना नहीं है, ये रोना जिस रक़त की वजह से है वो अल्लाह की एक रहमत है,*

*❀_"_ अपनी साहबजा़दी उम्मे कुलसुम की क़ब्र पर खड़े हुए तो उस वक़्त भी आप ﷺ की आँखो से आँसु जारी थे, उस्मान बिन मज़ऊन की मय्यत के सामने भी आप ﷺ की आँखें अश्क बार थीं और आपने उनकी पेशानी पर बोसा दिया, अपने रोने की कैफियत को खुद बयान फरमाया, _"आंखे अश्क आलूद हैं, दिल गमज़दा है, मगर हम अपनी जुबान से इसके मा सिवा कुछ नहीं कहते जो हमारे रब को पसंद है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -106,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–44_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_गम की हालत में अक्सर जुबान से ये अल्फाज़ अदा होते:"हस्बियल्लु निआमल वकील", रोने में ऊंची आवाज़ ना निकलती, बल्की ठंडा सांस लेते और हांडी के उबलने जैसी आवाज सीने से निकलती,*

*❀_"_ एक बार अब्दुल्लाह इब्ने मसूद रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाईश करके क़ुरआन सुना, वो जब सूरह निसा की इस आयत पर पहुँचे (तर्जुमा) उस वक़्त क्या हाल होगा जबकी हम हर उम्मत में से एक गवाह को खड़ा करेंगे और उन लोगों पर तुम्हें गवाह बना के लाएंगे _," तो आंखों से सील अश्क रवां हो गया _,"*

*❀_"_ ये रक़त सर चश्मा है उन जज़्बाते हमदर्दी व शफ़क़त का जो हुज़ूर ﷺ को सारी इंसानियत से थी, और ख़ुशूसन इस्लामी जमात के अफराद से, हैरत ​​है कि नज़ाकते एहसास के साथ साथ हुज़ूर ﷺ ने मुश्किल व मसाईब के मुक़ाबले में किस दर्जा के सब्र व इस्तक़लाल का मुज़ाहिरा किया,*

*"❀__ ज़ौक़ ए मज़ाह:- हम पहले भी ज़िक्र कर चुके हैं कि रसूले ख़ुदा ﷺ खंदा रुई की सिफत से मुतसिफ थे, बल्की फरमाया - तेरा अपने भाई के सामने मुस्कुराते हुए आना भी एक कारे खैर है_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -107 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–45_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ आप ﷺ की ये शान भी बयान हो चुकी है कि अज़ीम कारनामे अंजाम देने वाली शाख्सियत के लिए लाज़मी सिफ्त है कि वो फ़राइज़े हयात के बोझ को अपने तबस्सुम से गवारा बना दे और साथियों के दिलों में घर कर ले, आपका हाल ये था कि आप अपने तकल्लुफाना अंदाजे मज़ा से पेश आते थे कि रफ्का़ के दिलों में आपकी मुहब्बत रच बस गई थी,*

*❀"_ आप ﷺ हंसी दिल्लगी की बातें करते और मजलिस में शगुफ्तगी की फिज़ा पैदा कर देते, मगर तवाज़न व ऐतदाल हमेशा मलहूज़ रहता, मज़ा का रंग आटे में नमक की तरह हल्का रहता और इसमें भी ना तो खिलाफे हक़ कभी कोई बात शामिल होती न किसी की दिल आज़ारी की जाती और न ठठ्ठा लगा कर हंसना मामूल था, गुंचो का सा तबस्सुम होता जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा दांतो के कीले दिखायी देते हलक़ नज़र न आता,*

*❀"_ एक बार ताज्जुब से हजरत अबू हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु ने कहा कि, आप हमसे मज़ाक़ भी फरमा लेते हैं? इरशाद फरमाया - हां मगर मैं खिलाफे हक़ कोई बात नहीं कहता_,"*
*"_ एक बार किसी सा'इल ने सवारी का ऊंट मांगा, फरमाया हम तुम्हे ऊंटनी का एक बच्चा देंगे, सा'इल ने हैरत ​​से कहा कि मैं उसे ले कर क्या करूंगा, फरमाया - हर एक ऊंट किसी ऊंटनी का बच्चा ही होता है _,"*

*❀"_ एक बुढ़िया ने आकर अर्ज़ किया कि मेरे लिए दुआ कीजिये कि खुदा मुझे जन्नत अता फरमाये, हुजूर ﷺ ने मजा़हन कहा - ऐ उम्मे फलां! जन्नत में कोई बूढ़ी औरत नहीं जा सकती_," वो रोती हुई उठ कर जाने लगी, हाज़ीरीन से फरमाया - उससे कहो कि ख़ुदा ताला उसे इस बुढ़ापे के साथ जन्नत में नहीं ले जाएगा बल्की उसका इरशाद है कि जन्नत में जाने वालियों को अल्लाह तआला जवानी से सरफ़राज़ फ़रमायेगा_,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -108,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵ ★ *क़िस्त–46_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ज़ाहिर (या ज़ुहैर) नामी एक बद्दू थे, उनसे बे तकल्लुफी थी, आप ﷺ अपने उस बद्दू दोस्त को शहर से मुताल्लिक़ कामों में इमदाद देते और वो देहात से मुताल्लिक़ हुजूर ﷺ के काम कर लाता, नीज़ मुखलिसाना जज़्बे से हदिये देता ( जिनकी क़ीमत हुज़ूर ﷺ बा इसरार अदा फ़रमाते) चुनांचे फ़रमाते हैं कि ज़ाहिर देहात में हमारा गुमाश्ता (मुनीम) है और हम शहर में उसके गुमाश्ता हैं _,"*

*❀_"_ यहीं ज़ाहिर एक दिन बाजार में अपना कुछ सौदा बेच रहे थे, हुजूर ﷺ ने पीछे से जा कर चुपके से आंखो पर हाथ रख दिए और पूछा बताओ मैं कोन हूं, वो पहले तो कुछ ना समझे, फिर जब मालूम हुआ तो फर्ते इश्तियाक में हुजूर ﷺ के सीने से अपने कंधे मलते रहे, फिर हुजूर ﷺ ने मज़ाकन कहा कि कौन इस गुलाम को ख़रीदता है, ज़ाहिर कहने लगे, या रसूलल्लाह! मुझ जैसे नाकारा गुलाम को जो खरीदेगा, घाटे में रहेगा, फरमाया - तुम खुदा की निगाह में नाकारा नहीं हो_,"*

*❀_"_ एक मोके़ पर मजलिस में खजूर खाई गई, आप मज़ा के तोर पर गुठलियां निकाल निकाल कर हज़रत अली के आगे डालते रहे, आखिर में गुठलियों के ढेर की तरफ इशारा कर के उनसे कहा कि तुमने तो बहुत खजूर खाई, उन्होंने कहा कि मैंने गुठलियों समेत नहीं खाईं _,"*

*❀_"_ बाद के लोगो को इस रंग ए मज़ा का हाल सुन कर ताज्जुब होता था क्योंकि एक तो मज़हब के साथ तकश्शुफ (सख्त जिंदगी गुजारने) का तसव्वुर हमेशा मोजूद रहा है और खुदा परस्तों और मुत्तकियों की हमेशा रोनी सूरते और खुश्क तबीयतें लोगो के सामने रही हैं', दूसरे हुजूर ﷺ की इबादत ए रब, हुजूर ﷺ की खशियत, हुजूर ﷺ की भारी जिम्मेदारियों और हुजूर ﷺ के तफक्कुरात का ख्याल करते हुए ये समझना मुश्किल हो जाता है कि इस नमूना ए इंसानियत ने मुस्कुराहटों के लिए जिंदगी के नक्शे में कैसे जगह पैदा की _,"*

*❀_"_ चुनांचे इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से पूछा गया कि क्या रसूलल्लाह ﷺ के रक़्फा भी हंसा करते थे? उन्होंने फरमाया- हां हंसते थे और उनके दिलों में पहाड़ से ज्यादा बड़ा था (यानी हंसी दिल्लगी ईमान व तक़वा की नकीज़ (मुखालिफ) नहीं है) _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -109,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–47_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ तफ़रीहात:- मुतवाज़न ज़िंदगी का एक लाज़मी जुज़ तफ़रीहात (जाइज़ हुदूद में) भी है, मज़ा की तरह ये जुज़ साक़ित हो जाए तो ज़िन्दगी बोझ बन जाती है और जिस निज़ामे हयात में तफ़रीहात की गुंजाईश न रखी गई हो उसे कोई माशरा देर तक उठा नहीं सकता, हुजूर ﷺ को भी बाज़ तफरीहात पसंद थी और जाइज़ हुदूद में उनके लिए रास्ते निकले _,"*

*❀"_ शख्शी तोर पर आप ﷺ को बागों की सैर का शौक़ था, कभी तन्हा और कभी रफ्का़ के साथ बागों में चले जाते और वही मजलिस भी हो जाती_,"*

*❀"_ तैरने का मशगला भी था, और अहबाब के साथ कभी कभार तालाब में तैरा करते, दो दो साथियो के जोड़ बनाए जाते और फिर हर जोड़ के साथी दूर से तैर कर एक दूसरे की तरफ आते, एक मोके़ पर अपना साथी हुजूर ﷺ ने हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को पसंद किया_,"*

*❀"_ वक़्फ़े के बाद बारिस पड़ती तो तहबंद बाँध कर फ़ुहार में नहाया करते, कभी तफ़रीहन किसी कुँवे में पाँव लटका कर उसके दहाने पर बेठते, दौड़ों और तीरंदाज़ी के मुक़ाबले कराते और अखाड़े में ख़ुद पूरी दिलचस्पी से शरीक रहते, ऐसे मोको़ पर हंसी दिल्लगी भी होती _,"*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -110,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–48_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_मसर्रत के मोकों पर पसंद था कि दफ बजाई जाए या बच्चियां गीत गा लें, चुनांचे ईद की तक़रीब पर हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के पास दो लड़कियां गीत गा रही थी, हुज़ूर ﷺ क़रीब ही लेटे थे, अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आए तो गुस्से में डांटा कि ख़ुदा के रसूल के घर में ये क्या शैतानी हंगामा मचा रखा है, इस पर हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि इन्हें गाने दो_,"*
 *®_रिवायत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा: मुस्लिम बाब ईद मुलहिज़ा हो)*

*❀"_ एसे ही एक बज़्म ए उरुसी में बच्चियां गा रही थी, हजरत आमिर बिन साद ने बाज़ हाज़ीरीन से बतौर एतराज़न कहा कि ऐ सहाबियान ए रसूल! ए शुरका ए बदर! तुम्हारे सामने ये कुछ हो रहा है? जवाब मिला- जी चाहे तो बेठ कर सुनो वर्ना चले जाओ, हमें रसूलुल्लाह ﷺ ने इसकी इजाज़त दी है _," (मिश्कात बाब एलान निकाह)*

*❀"_ तफ़रीहात में एक दरवाज़ा गुनाह और ऐशो इशरत की तरफ़ खुलता है, इसका हुज़ूर ﷺ ने सद बाब किया (यानी कत़न रोक दिया) यहां गाने का ज़िक्र है, अरब में रुबाब बा कसरत राइज था मगर इसका नाम नहीं लिया, सिर्फ दफ का नाम लिया, गाने का मज़मून देखें तो कोई शोखी नहीं, कोई जिंसियत नहीं, गुनाह की बात नहीं, सिर्फ मुहब्बत के सादा कलमे हैं, फिर ये नहीं फरमाया कि किसी क़ीना (गाने वाली) या गवैये को या कोई ताइफा बुला लेते, नहीं सिर्फ छोटी बच्चियों में से कहा कि किसी मुनासिब बच्ची को बुलवा लेते_,"*

*❀"_वो लोग ज्यादती करते हैं जो इस्तगना (बे परवाही) को फैला कर कुल्ली उसूल बना लेते हैं और इंतेहा पसंदाना बातें करते हैं, ऐसे इज्तिहादात की गुंजाईश हुजूर ﷺ ने नहीं छोड़ी_,"*

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -110 ,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–49_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_हुज़ूर ﷺ ने शेर से भी दिलचस्पी ली है, अरब में जो शेर परस्ती राइज़ थी, उससे आपको बुअद था, आपको नगमा इल्हाम की जाज्बियते इतना मोका़ ही ना देती थीं कि शेर व सुखन की तरफ ज़्यादा तवज्जो हो, मगर दूसरी तरफ ज़ोके शेर से कुदरत ने महरूम नहीं रखा, अच्छे शेर (बा लिहाज़ मक़सद) की क़दर फ़रमाते थे बल्की कहना चाहिये कि हुज़ूर ﷺ ने एक नया ज़ोके माशरे को दिया, और एक नया मैयार नक़द मुक़र्र फ़रमाया,*

*❀"_ जाबिर बिन समरा रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि हुजूर ﷺ की खिदमत में एक सौ ज़्यादा मजलिसों में शरीक़ हुआ हूं, जिनमे जाहिलियत के किस्से भी होते थे और सहाबा शेर भी सुनाया करते, शाराने अरब के कलाम में से एक बार लबीद का ये मिसरा पसंदीदगी से पढ़ा- (तर्जुमा) आगाह हो जाओ कि अल्लाह के सिवा हर चीज़ फानी है, दुनिया की सारी नियामतें खत्म हो जाने वाली है,*

*❀"_ हज़रत शरीद रज़ियल्लाहु अन्हु से एक सफर में एक के बाद एक दिगर फरमाइश कर के उमय्या बिन अबी मिल्लत के सौ शेर सुने, आख़िर में फरमाया कि ये शख़्स इस्लाम लाने के क़रीब पहुँच गया था,*

*❀"_ बाज़ औका़त खुद भी (खुसूसन मैदान ए जंग में) बिला इरादा शेर के अंदाज पर कलमात फरमाए हैं, हजरत हसन और काब बिन मालिक रजियल्लाहु अन्हुम से दुश्मनाने इस्लाम के अशआर के जवाब में शेर कहलवाते और कभी कभी हजरत हस्सान रज़ियल्लाहु अन्हु को अपने मिंबर पर बेठा कर उनसे पढ़वाते और कहते कि ये अशआर दुश्मनों के हक़ में तीर से ज़्यादा सख़्त है, ये भी फरमाया कि- मोमिन तलवार से भी जिहाद करता है और ज़ुबान से भी_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ - 110,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵ ★ *क़िस्त–50_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥- चंद मुतफर्रिक ज़ोकियात:- आख़िर में हम बाज़ ऐसे खास ज़ोकियात व अतवार का ज़िक्र करते हैं जिन्हें किसी दूसरे उनवान के तहत नहीं लिया जा सका, किसी से चीज़ लेते तो सीधे हाथ से लेते और कोई चीज़ देते तो सीधे हाथ से देते, खुतूत लिखवाते तो सबसे पहले बिस्मिल्लाह लिखवाते, फिर मुरसिल (भेजने वाले का नाम) और उसके नीचे जिसे लिखा जा रहा उसका नाम होता, इसके बाद असल मजमून लिखा जाता, खात्मे पर मुहर लगवाते,*

*❀"_ हुजूर ﷺ वहम परस्ती से पाक थे और शगुन ना लेते थे, अलबत्ता अश्खाश और मका़मात के अच्छे नाम पसंद आते, बुरे नाम पसंद ना करते, सफर में अका़मत के लिए ऐसा ही मुका़म इंतखाब फरमाते जिसके नाम में खुशी या बरकत या कामयाबी का मफहूम होता, इसी तरह जिस शख्स के नाम में लड़ाई झगड़े या नुक़सान का मा'नी शामिल होता उसे काम ना सोंपते, ऐसे आदमियों को नामज़द करते जिनके नामो में खुशी या कामयाबी का मफहूम पाया जाए, बहुत से नामों को तब्दील भी फरमाया,*

*❀"_ सवारीयों में घोड़ा बहुत पसंद था, फरमाते घोड़े के अयाल में क़यामत तक के लिए ख़ैर व बरकत है, घोड़े की आंख मुंह नाक को अहतमाम से अपने हाथों से साफ करते,*

*❀"_ शोर हंगामा और हुडदंग अच्छी ना लगती, हर काम में सुकून व वकार और नज़्म व तरतीब चाहते, नमाज़ तक के बारे में फरमाया कि तुम्हारे लिए सुकून व वका़र लाज़िम है, योमे अरफा को हुजूम था, बड़ा शोर व हंगामा था, लोगों को अपने ताज़ियाना से इशारा करते हुए नज़्म व सुकून का हुक्म दिया और फरमाया - जल्दी मचाने का नाम नेकी नहीं है _," (बुखारी व मुस्लिम)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -111,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
              ★ *क़िस्त–51_* ★
      *⚂ तार्रुफ शख्सियत एक नज़र ⚂*   
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*❥❥_अख़लाक़:- हुज़ूर पाक ﷺ के अख़लाक़ का बयान यहां किसी ज़िमनी उनवान के तहत नहीं जा सकता, वहां तो पूरी ज़िंदगी हुस्ने अख़लाक़ ही की तफ़सीर है, जिसके मुताल्लिक हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने फरमाया था, अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु का ये क़ौल बहुत ही जामे है कि "अहसानुन नास होने की कैफियत ये थी कि किसी को उमर भर तकलीफ नहीं पहुंचाई, मा सिवा उन बातों के जो हुक्मे इलाही के तहत थी और दूसरों की ज़्यादतियों पर कभी इंतेक़ाम नहीं लिया, हर किसी से अफू (माफ) फरमाया, यहां तक ​​कि मक्का और ताइफ के बेदाद गिरो ​​को माफ किया और मुनाफिकी़न व अशरार से दरगुज़र किया_,"*

 *❀"_ जूदुन नास होने का आलम ये था कि हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ से जो कुछ भी किसी ने माँगा आपने कभी ना नहीं की, मोजूद हुआ तो दे दिया, कभी क़र्ज़ ले कर दिया, नहीं मोजूद हुआ तो दूसरे वक्त़ आने को कहा या सुकूत अख्त्यार किया _,"*

*❀"_अशजुन नास होने के लिए फिल् जुमला ये अमर काफ़ी है कि नज़रिया हक को ले कर तने तन्हा उठे और ज़माने भर की मुखालफतों और मज़ालिम के मुक़ाबले में जमे खड़े रहे, कभी किसी ख़तरनाक तरीन मोक़े पर भी खोफ़ या कमज़ोरी का इज़हार ना किया, गारे सोर या उहद व हुनैन के मोरके हर मोके पर यकी़ने मुहक्कम का मुजा़हिरा फरमाया _,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -112,
* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
⚂⚂⚂.
        ▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁
     ✮┣ l ﺑِﺴْـــﻢِﷲِﺍﻟـﺮَّﺣـْﻤـَﻦِﺍلرَّﺣـِﻴﻢ ┫✮
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       *■ मोहसिन ए इंसानियत ﷺ ■* ⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙                                     ★ *क़िस्त–52_* ★
         *⚂ मक्की दौर -- वो नौजवान ⚂*   
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*❥❥_अरब के एक मुमताज़ मज़हब और आला रिवायात रखने वाले ख़ानदान में, सलीमुल फ़ितरत वालदेन के क़िरानुल सा'आदेन (दो मुबारक सितारो के मिलन) से एक अनोखा सा बच्चा यतीमी के साये के पैदा होता है, एक गरीब मगर शरीफ़ जा़त की दाया का दूध पी कर देहात के सेहत बख्श महोल के अंदर फितरत की गोद में पलता है, वो खास इंतजाम से सेहरा में दौड़ धूप करते करते जिंदगी के मैदान में मशक्कतों का मुक़ाबला करने की तैयारियां करता है और बकरियां चरा कर तरबियत पाता है,*

*❀"_ बचपन की पूरी मुसाफत तैय करने से पहले ये अनोखा बच्चा मां के सफक़्क़त भरे साए से भी मेहरूम हो जाता है, दादा की जा़त किसी हद तक वाल्देन के इस खला को पुर करने वाली थी लेकिन ये सहारा भी छीन लिया जाता है, बिल आखिर चाचा कफील बनते हैं, ये गोया माददी सहारो से बेनियाज़ हो कर एक आक़ा ए हक़ीक़ी के सहारे की तैयारी कराई जा रही है,*

*❀"_ जवानी के दायरे में क़दम रखने तक ये अनोखा बच्चा आम बच्चों की तरह खेल कूद में मशगूल और शरीर बन कर सामने नहीं आता, बल्की बुढ़ों की सी संजीदगी से आरास्ता नज़र आता है, ज़वान होता है तो इंतेहाई फासिद महोल में पलने के बावजूद अपनी जवानी को बेदाग रखता है, इश्क़ और नज़र बाज़ी और बदकारी जहां नोजवानों के लिए सरमाया इफ्तिखार बने हुए हैं, वहां वो अपने दामाने नज़र तक को एक आन भी मेला नहीं होने देता_,"*

*❀"_ जहां गली गली शराब कशीद करने की भट्ठियां लगी हों, घर घर में शराब खाने खुले हों, जहां मजलिस मजलिस शराब के क़दमो में ईमान व अखलाक़ निछावर किए जाते हों, और फिर जहां शराब के चर्चे फखरिया कसीदों और शैरो शायरी में किए जाते हैं, वहां ये जुदागाना फितरत का नोजवान कभी क़सम खाने को भी शराब का एक क़तरा तक अपनी ज़ुबान पर नहीं रखता,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -114,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–53_* ★
         *⚂ मक्की दौर -- वो नौजवान ⚂*   
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*❥❥"_ जहां क़िमार (जुवां खेलना) क़ौमी मशगला बनता चला आ रहा था वहां ये नौजवान एक मुजस्समा पाकीज़गी था कि जिसने कभी मोहरों को हाथ से न छूआ, जहाँ दास्तान गोई और मौसिक़ी कलचर का लाज़मा बने हुए थे वहां किसी और ही आलम का ये नौजवान लहू व लहब से बिलकुल अलग थलग रहा, और दो मर्तबा ऐसे मोके़ पैदा हुए भी कि ये नोजवान ऐसी मजालिस तफरीह में जा पहुंचा लेकिन जाते ही ऐसी नींद तारी हुई कि समा व बसर का दामन पाक रहा,*

*❀_"_ जहां बुतों के सामने सज्दा पाशी ऐन दीन व मज़हब क़रार पा चुकी थी वहाँ ख़ानदाने इब्राहीमी के इस पाकीज़ा मिज़ाज नोजवान ने ना गैरुल्लाह के सामने कभी अपना सर झुकाया ना कोई मुशरीकाना एतक़ाद का तसव्वुर अपने अंदर जज़्ब किया बल्कि एक मर्तबा बुतों के चढ़ावे का जानवर पका कर लाया गया तो उसने वो खाना खाने से इंकार कर दिया,*

*❀_"_ जहां कुरेश ने ज़माना हज में अपने आपको अरफात जाने से मुतसना (अलग) कर लिया था, वहां इस मुमताज़ मर्तबे के कुरैशी ने कभी इस मंगढत इस्तस्ना से फायदा ना उठाया, जहां औलदे इब्राहिमी ने मसलके इब्राहिमी को बिगाड़ कर दूसरी खराबियों के साथ काबा का तवाफ हालते उरयानी (नंगा हो कर) करने की एक गंदी बिदअत पैदा कर ली थी, वहां इस हयादार नोजवान ने कभी इस बिदअत को अख्त्यार ना किया,*

*❀_"_जहाँ जंग एक ख़ैल थी और इंसानी ख़ून बहाना एक तमाशा था, वहाँ अहतरामे इंसानियत का अलमबरदार ये नोजवान ऐसा था कि जिसके दामन पर ख़ून की एक छींट ना पड़ी थी,*

*❀_"_ फिर इस पाकबाज़ व अफीफ नोजवान की दिलचस्पी देखिये कि ऐन बहक जाने वाली उमर में वो अपनी खिदमात अपने हम ख्याल नोजवानों की एक इस्लाह पसंद अंजुमन के हवाले करता है जो हिलफुल फुजू़ल के नाम से गरीबों और मज़लूमो की मदद और जा़लिमो के जुल्म को खत्म करने के लिए क़ायम हुई थी, उसके शुरका ने इस मक़सद के लिए हलफिया अहद बांधा, आप ﷺ दौरे नबुवत में इसकी याद ताज़ा करते हुए फरमाया करते कि -उस मुआहिदे के मुक़ाबले में अगर मुझको सुर्ख रंग के ऊंट भी दिए जाते तो मैं उससे ना फिरता और आज भी ऐसे मुआहिदे के लिए कोई बुलाए तो मैं हाजिर हूं _,"*        

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -115,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–54_* ★
         *⚂ मक्की दौर -- वो नौजवान ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_फ़िर उस नौजवान की सिफ़ात और सलाहियतों का अंदाज़ इससे कीजिये कि तामीरे काबा के मोक़े पर हजरे असवद नसब करने के मामले में कु़रेश में कशमकश पैदा होती है और तलवारे मियानों से बाहर निकल आती है, लेकिन तक़दीर के इशारे से इस झगड़े को निपटाने का सर्फ इसी नोजवान के हिस्से में आता है, इंतेहाई जज्बाती तनाव की इस फिज़ा में ये जज और सुलह का अलमबरदार एक चादर बिछाता है और उस पर पत्थर को उठा कर रखता है और फिर दावत देता है कि तमाम क़बीले के लोग मिल कर इस चादर को उठाओ, चादर पत्थर समेत मुताहरिक हो जाती है और जब मोके़ पर जा पहुंचते हैं तो वो नोजवान उस पत्थर को उठा कर उसकी जगह पर नसब कर देता है, झगड़े का सारा गुबार छट जाता है और चेहरे खुशी और इत्मिनान से चमक उठते हैं,*

*❀"_ ये नौजवान मैदान ए माश में क़दम रखता है तो तिजारत जेसा पाकीज़ा और मोअज्जि़ज़ मशगला अपने लिए पसंद करता है, कोई बात तो इस नौजवान में थी कि अच्छे अच्छे अहले सरमाया ने ये पसंद किया कि ये नौजवान उनका सरमाया अपने हाथ में ले और करोबार करे, फ़िर सा'इब, क़ैस बिन सा'इब मखज़ुमी, हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा और जिन दूसरे लोगो को इस नौजवान के हुस्ने मामलात का इल्मी तजुर्बा हुआ, उन्होंने उसे "ताजिर ए अमीन" का लक़ब दिया _,"*

*❀"_ अब्दुल्ला बिन अबी अलमुम्सा की गवाही आज भी महफूज़ है कि बैसत से पहले खरीद फारोख्त के मामले में उस ताजिर ए अमीन से तय हुआ कि आप ठहरें मैं अभी फिर आउंगा, लेकिन बात आई गई हो गई, तीसरे रोज़ इत्तेफाक़न अब्दुल्लाह का गुज़र उसी मुक़ाम से हुआ तो देखा कि वो ताजिर ए अमीन वादे की डोरी से बंधा उसी जगह खड़ा है और कहता है कि "तुमने मुझे ज़हमत दी, मैं इसी मुक़ाम पर तीन दिन से मोजूद हूँ _," (अबू दाऊद)*

*❀"_ फिर देखें कि ये नोजवान रफीका़ ए हयात का इंतेखाब करता है तो मक्का की नव उमर शोख व शंग लडकियों को एक ज़रा सा खराज निगाह तक दिये बैगर एक ऐसी खातून से रिश्ता मुनाकहत उस्तवार करता है जिसकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि वो खानदान और ज़ाती सीरत व किरदार के लिहाज़ से निहायत असरफ़ खातून है, उसका ये ज़ोके इंतेख़ाब उसके ज़हन, उसकी रूह, उसके मिज़ाज और उसकी सीरत की गहराइयों को पूरी तरह नुमाया कर देता है, पैगाम ख़ुद वही ख़ातून हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा भेजती है, जो उस यकता रोज़गार नौजवान के किरदार से मुतास्सिर होती हैं और ये नोजवान उस पैगाम को शरह सदर के साथ क़ुबूल करता है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -115,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–55_* ★
         *⚂ मक्की दौर -- वो नौजवान ⚂*   
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*❥❥-_ फिर किसी शख्स के ज़हन व सीरत को अगर उसके हलका ए अहबाब का जायजा़ लेने से जाँचा जा सकता है तो आईये देखिये के उस अरबी नोजवान के दोस्त केसे लोग थे, गालीबन सबसे गेहरी दोस्ती और सबसे ज़्यादा बेतकल्लुफ़ाना राब्ता हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु से था, एक हम उमरी ऊपर से हम मिज़ाजी!*

*"❀_ उस नोजवान के दोस्तों में एक शख्सियत हकीम बिन हिजा़म रजियल्लाहु अन्हु की थी, जो हजरत खदीजा रजियल्लाहु अन्हु के भतीजे थे और हरम के मनसबे रफादा पर फाइज़ थे, हिजरत के आठवे बरस तक ये ईमान नहीं लाए, लेकिन फिर भी आन हज़रत ﷺ से ग़हरी मुहब्बत रखते थे और इस मुहब्बत के तहत एक मर्तबा पचास अशर्फियों का एक क़ीमती हुल्ला (जुब्बा या चादर) ख़रीद कर मदीना में आ कर पेश किया, मगर आन हज़रत ﷺ ने बा इसरार क़ीमत अदा कर दी,*

*"❀_ फिर हलका ए अहबाब के एक रुक्न ज़माद बिन सालबा अज़दी थे जो हिकमत व जराही ( इलाज) का काम करते थे, उस नोजवान के हलका ए अहबाब में क्या कोई एक भी फितरत पस्त ज़ोक और कमीना मिज़ाज आदमी दिखाई देता है? मक्का के अशरार ( बदमाशों) में से किसी का नाम इस फेहरिस्त में मिलता है? ज़ालिमों और फासिक़ों में से कोई इस दायरे में सामने आता है?*

*"❀_ फ़िर देखिए कि ये यकता ए ज़माना नौजवान घर बार की देख भाल, तिजारत और दुनियावी मामलात की गोना गो मसरूफ़ियतों से फारिग हो कर जब कभी कोई फुर्सत का वक़्त निकालता है, तो तफ़रीहात व तैशात (ऐशो इशरत) में खर्च नहीं करता, यूज कूचा गर्दी में और मजलिस अराई और गप्पो में नहीं खपाता, उसे सो सो कर और गफलत में बेकार पड़े रह कर नहीं गुज़ारा, बल्की सारे हंगामों से किनारा कर के और सारे मशगलों को छोड़ कर गारे हिरा की खिलवतों में खुदा ए वाहिद की इबादत और उसका ज़िक्र अपनी फितरत मुताहरा की राहनुमाई के मुताबिक करता है,*

*❀_"कायनात की गेहरी हक़ीक़तों को अख्ज़ करने के लिए और इंसानी ज़िंदगी के गैबी राज़ो को पा लेने के लिए आलम उनफस व आफाक़ में गौर व फिक्र करता है और अपनी कौ़म और अपने अबना ए नो को अखलाकी़ पस्तियों से निकाल कर फ़रिश्तो जैसे मर्तबा पर लाने की तदबीरें सोचता है, जिस नौजवान की जवानी की फुर्सत इस तरह सर्फ हो रही हो क्या उसकी फितरत के बारे में इंसानी बसीरत कोई राय क़ायम नहीं कर सकती?*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -116,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–56_* ★
         *⚂ मक्की दौर -- वो नौजवान ⚂*   
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*❥❥- होने वाला आखिरी नबी ﷺ इस नक्शा ए जिंदगी के साथ कुरेश की आंखों के सामने और उनके अपने ही मक्की माशरे की गोद में पलता है, जवान होता है और पुख्तगी के मरतबे को पहुंचता है, क्या ये नक्शा ए जिंदगी बोल बोल कर नहीं बता रहा था कि ये एक निहायत ही गैर मामूली अज़मत रखने वाला इंसान है? क्या इस उठान से उठने वाली शख्सियत के बारे में यह राय क़ायम करने की कुछ भी गुंजाइश किसी पहलू से मिलती है कि नाउज़ुबिल्लाह ये किसी झूठे और फरेबी आदमी का नक़्शा होगा?*

*❀"_ हरगिज नहीं! हरगिज नहीं! खुद कुरेश ने सादिक़ व अमीन, दाना व हकीम और पाक नफ्स व बुलंद किरदार तस्लीम किया, और बार बार तस्लीम किया, उसके दुश्मनों ने उसकी ज़हनी व अख़लाक़ी अज़मत की गवाही और सख़्त तरीन कश्मकश करते हुए दी ! दाई बर हक़ के नक्शा ए जिंदगी को खुद कुरान ने दलील बना कर पेश किया, "आखिर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे दरमियान गुज़ार चुका हूं, क्या तुम अक़ल से काम नहीं लेते_ ,"(यूनुस- 16)*

*❀"_ लेकिन अपनी क़ौम का ये चमका हुआ हीरा जब नबुवत के मनसब से कलमा हक़ पुकारता है तो ज़माने की आंखों का रंग बदल जाता है और उसकी सदाक़त व दयानत और उसकी शराफत व नजाबत की क़दर व कीमत बाजा़रे वक्त में यकायक गिरा दी जाती है, कल तक जो शख्स क़ौम का माया नाज़ फरज़ंद था आज वो उसका दुश्मन और मुखालिफ बन जाता है,*

*❀"_ कल तक जिसका अहतराम बच्चा बच्चा करता था, आज वो एक एक कदरदान की निगाहों में मबगूज़ ठहरता है, वो शख्स जिसने चालीस साल तक अपने आपको सारी कसौटियों पर खरा साबित कर के दिखाया था, तोहीद, नेकी और सच्चाई का पैगम सुनाते ही कुरेश की निगाहों में खोटा सिक्का बन जाता है, खोटा वो ना था बल्कि उनकी अपनी निगाहों में खोट था और उनके अपने मैयार गलत थे,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -117,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–57_* ★
*⚂ मक्की दौर- क़ुरेश के मुखालफत की वजह ⚂*   
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*❥❥_क्या कुरेश की आंखें इतनी अंधी थी कि वो माहोल की तारीकियों में जगमगाते हुए एक चांद की शान नहीं देख सकती थी? क्या उनकी महफिल में वो ऊंचे अखलाकी़ क़दो क़ामत रखने वाले एक सरदार को नहीं पहचान सकती थी? क्या खार व खस के हुजूम में एक गुलदस्ता ए शराफत व अज़मत उनसे अपनी क़द्रो क़ीमत नहीं मनवा सका था?*

*❀"_ नहीं नहीं! कुरेश खूब पहचानते थे कि मुहम्मद ﷺ क्या है ? मगर उन्होन जान बूझकर आंखो पर पट्टी रख ली, मुफाद और तास्सुबात ने उनको मजबूर किया कि वो आंखे रखते हुए अंधे बन जाएं, जब कोई आंखे रखते हुए अंधा बन जाता है तो उससे बड़ी बड़ी मुसीबतें और तबाहियां रुनुमा होती है, "_और उनके पास आंखें हैं मगर वो उनसे देखते नहीं _," (अल आ'राफ -179)*

*❀"_ आज अगर किसी तरह हम मुशरिकीने मक्का से बात कर सकते तो उनसे पूछते कि तुम्हारे खानदान के उस चश्म व चराग ने जो दावत दी थी वो फी नफ्सा क्या बुराई की दावत थी? क्या उसे तुमको चोरी और डाके के लिए बुलाया था ? क्या उसने तुमने जुल्म और क़त्ल के लिए पुकारा था? क्या उसने तुम्हें बेवाओं और कमज़ोरों पर जफाएं ढाने की कोई स्कीम पेश की थी? क्या उसने तुमको आपस में लड़ाने और कबीले कबीले में फसाद डालने की तहरीक चलाई थी? क्या उसने माल समेटने और जायदाद बनाने के लिए एक जमात खड़ी की थी? आखिर तुमने उसके पैगाम में क्या कमी देखी? उसके प्रोग्राम में कोनसा फसाद महसूस किया? क्यों तुम परे बांध कर उसके खिलाफ उठ खड़े हुए?*

*❀"_ कुरेश को जिस चीज़ ने जाहिलियत के फासिद निज़ाम के तहफ्फुज़ और तबदीली की रो की मजा़हमत पर अंधे जूनून के साथ उठा खड़ा किया वो यह हरगिज ना थी कि मुहम्मद ﷺ के फिक्र व किरदार में कोई रुखना (लालच) था या आप ﷺ की दावत में कोई खतरानक खराबी थी, बल्कि वो चीज़ सिर्फ क़ुरेश की मुफाद परस्ती थी!*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -117,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–58_* ★
*⚂ मक्की दौर- क़ुरेश के मुखालफत की वजह ⚂*   
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*❥❥-- कुरेश सालहा साल के जमे हुए अरबी मा'शरे के सांचे में अपने लिए एक ऊंचा मक़ामे क़यादत हासिल कर चुके थे, तमाम सियासी और मज़हबी मनासिब उनके हाथ में थे, इक्त्सादी (माली) और कारोबारी लिहाज़ से सयादत ( सरदारी) का सिक्का रवां था, पूरी कौम की चौधराहट उन्हें हासिल थी, उनकी ये चौधराहट उसी मज़हबी व तमद्दुनी व माशरती सांचे में चल सकती थी जो जाहिली दौर में उस्तवार था, अगर वो शऊरी और गैर शऊरी तोर पर मजबूर थे कि अपनी चौधराहट का तहफ्फुज ( हिफाज़त) करें तो फिर वो इस पर भी मजबूर थे कि जाहिली निज़ाम को भी हर हमले और हर तंज़ील (कमी) से बचायें _,*

*"❀_ क़ुरेश जहाँ सियासी व मा'शराती लिहाज़ से चौधरी वे वहां वो अरब के मुशरीकाना मज़हब के पुरोहित, मज़हबी स्थानो के मुजाविर और तमाम मज़हबी उमूर के ठेकेदार भी थे, ये मज़हबी ठेकेदारी, सियासी व मा'शराती चौधराहट की भी पुश्तेबान (मददगार) थी और बजाये खुद एक बड़ा करोबार भी थी, इसके ज़रीए सारे अरब से नज़रे और नियाजे़ और चढ़ावे खिंचे आते थे, इसकी वजह से उनकी दामन बोसियां होती थी, इसकी वजह से उनके क़दमों को छुआ जाता था,*

*❀"_ मज़हब जब एक तबक़े का कारोबार बन जाता है तो उसकी असल रूह और मकसदियत को छोड़ दिया जाता है और गोनागोई रसमियत का एक नुमाइशी तिलस्म क़ायम हो जाता है, उसूली तक़ाज़े फ़रामोश हो जाते हैं और मज़हबी कारोबार की अपनी बनाई हुई एक शरीअत आहिस्ता आहिस्ता जगह पा जाती है,*

*❀"_ मा'अकुलियत (इंसानियत) खत्म हो जाती है, अंधी अकी़दते और फिजूल वहम परस्ती हर तरफ छा जाती है, इस्तदलाल गायब हो जाता है और जज़्बाती हैजानात अक़ल का गला घोंट लेते हैं, मज़हब का अवामी व जम्हूरी मिज़ाज काफूर हो जाता है और ठेकेदार तबके का तहक्कुम माशरे के सीने पर सवार हो जाता है, हक़ीक़ी इल्म मिट जाता है, हवाई बाते मक़बूल आम हो जाती हैं, ऐतका़द व अहकाम की सादगी हवा हो जाती है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -118,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–59_* ★
*⚂ मक्की दौर- क़ुरेश के मुखालफत की वजह ⚂*   
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*❥❥_ जब कभी मजाहिब में बिगाड़ पैदा हुआ है तो हमेशा इस नहज पर हुआ है, जाहिली अरब में ये बिगाड़ बिल्कुल अपनी इंतेहाई शक्ल पर पहुंचा हुआ था, इसी बिगाड पर कुरेश की मन्नत गर्दी और मुजावरी की सारी गद्दियां' क़ायम थी, ये ज़र ख़ैज़ गद्दियां अपनी बक़ा के लिए इस बात की मोहताज थी कि फ़ासिद मज़हबियत के ढांचे को जों का त्यों क़ायम रखा जाए और इसके ख़िलाफ़ न कोई सदा ए अहतजाज व इख़्तिलाफ़ उठने दी जाए और न किसी दावत तगय्युर व इस्लाह को बरपा होने दिया जाए, पस कुरेश अगर दावत ए मुहम्मदी ﷺ के खिलाफ तिलमिला कर न उठ खड़े होते तो और क्या करते?*

*❀"_ और फिर हाल ये था कि कुरेश का कल्चर निहायत फासीकाना कल्चर था, शराब और बदकारी, जुवां और सूदखोरी, औरतों की तहकी़र और बेटियों का जिंदा दफन करना, आजा़द को गुलाम बनाना और कमज़ोरों पर ज़ुल्म ढाना, ये सब उस कल्चर के लवाजिम थे, कुरेश के लिए आसान न था कि वो अपने हाथो बनाए हुए इस अपनी तहजीबी क़फस को तोड़ कर एक नई फिज़ा में परवाज़ करने के लिए तैयार हो जाएं, उन्हें फोरन मेहसूस हो गया कि दावत ए मुहम्मद ﷺ उनकी आदात उनकी ख्वाहिशात उनके फुनून लतीफा और उनके महबूब कल्चर की दुश्मन है, चुनाचे वो जज़्बाती हैजान के साथ उसकी दुश्मनी के लिए उठे खड़े हुए*

*❀"_ दर हक़ीक़त यही वजह और असबाब हमेशा दावत हक़ के खिलाफ किसी बिगडे हुए समाज के बड़े लोगों और मजहबी ठेकदारों और ख्वाहिश परस्तो को मुत्तहिद मुहाज़ बना कर उठ खड़े होने पर मजबूर कर देते हैं,*

*❀"_ बैसत ए नबवी ﷺ से पहले ज़हीन लोगों में इस मज़हब इस मा'शरे और इस माहोल के बारे में इज़्तराब (बेचैनी) पैदा हो चुका था और फितरते इंसानी इसके खिलाफ जज़्बा ए अहतजाज के साथ अंगड़ाई ले रही थी, हम अभी ऊपर जिन हस्सास अफराद का ज़िक्र कर चुके हैं उनकी रूहों के साज़ से तबदीली का धीमा नगमा बुलंद होने लगा था _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -119,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
             ★ *क़िस्त–60_* ★
*⚂ मक्की दौर- तारीक माहौल में चंद शरारे ⚂*   
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*❥❥-- तारीक महोल में चंद शरारे :-*
*❀_"_कुरेश अपने एक बुत के गिर्द जमा हो कर ईद का प्रोग्राम मना रहे थे, उस पत्थर के खुदा की तारीफ व ताजी़म हो रही थी, उस पर चढ़ावे चढ़ाए जा रहे थे, उसका तवाफ हो रहा था और इस आलम में चार आदमी यानि वर्का़ बिन नोफिल, अब्दुल्लाह बिन जहश, उस्मान बिन अल्हुवेर्स और ज़ैद बिन अमरू बिन नुफेल उस लायानी हंगामे से बेज़ार अलग थलग बेठे एक ख़ुफिया मीटिंग कर रहे थे,*

*❀_"_ इन लोगों में के ख्यालात ये थे कि हमारी क़ौम एक बेबुनियाद मसलक पर चल रही है, अपने दादा इब्राहीम के दीन को उन्होंन गंवा दिया है, ये जिस पत्थर के मुजस्समे का तवाफ किया जा रहा है ये ना देखता है, ना सुनता है न नुक़सान पहुंचा सकता है, ना ज़िला दे सकता है, साथियो! अपने दिलों को टटोलो तो ख़ुदा की क़सम तुम मेहसूस करोगे कि तुम्हारी कोई बुनियाद नहीं है, मुल्क मुल्क घूमों और ख़ोज लगाओ दीने इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सच्चे पेरूओं (माने वालो) का _," (सीरत इब्ने हिशाम- 242)*

*❀_"_ बाद में इनमे से वरका़ बिन नोफिल ईसाई हो गया, अब्दुल्लाह बिन जहश जेसा था वेसा ही रहा मगर उसके ज़हन में उलझन रही, कुछ अरसे बाद इस्लाम लाया, फिर मुहाजिरीने हब्शा के साथ हब्श में हिजरत की और उसके साथ उसकी अहलिया उम्मे हबीबा बिंते अबू सूफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हा भी हिजरत में गई, वहां जाने के बाद अब्दुल्ला दोबारा नसरानी हो गया और इसी हाल में मौत वाक़े हुई*

*❀_"_ ज़ैद बिन अमरु ने ना यहूदियत क़ुबूल की ना नसरानियत, लेकिन अपनी क़ौम का दीन तर्क कर दिया, बुतपरस्ती छोड़ दी, मुर्दार और ख़ून और अस्थानो के ज़बीहों से परहेज़ शुरू कर दिया, बेटियों के क़त्ल से लोगों को बाज रहने की तलकीन करता रहा और कहा करता कि मैं तो इब्राहीम के रब का परस्तार हूं _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -120,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–61_* ★
*⚂ मक्की दौर- तारीक माहौल में चंद शरारे ⚂*   
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*❥❥_ अस्मा बिन्ते अबु बकर रज़ियल्लाहु अन्हा का बयान है कि मैंने बुढे सरदार ज़ैद बिन अमरु को काबे के साथ टेक लगाये हुए देखा और वो कह रहा था- ऐ क़ुरैश के लोगों! क़सम उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़े में ज़ैद बिन अमरू की जान है, मेरे सिवा तुममें से कोई भी इब्राहिम के दीन पर क़ायम नहीं रहा, फिर कहने लगा- ऐ खुदा! अगर मैं जानता कि तुझे कौनसे तरीक़े पसंद है तो मैं उन्हीं तरीक़ो से तेरी इबादत करता लेकिन मैं नहीं जानता, फिर हथेलियां टेक कर सजदा करता _," (सीरत इब्ने हिशाम-242)*

*❀"_ अपने मिलने वालों के सामने वो अक्सर ये अशआर पढ़ता :- (तर्जुमा) रब एक होना चाहिए या सैंकड़ों रब बना लिए जाएं? मैं उस मज़हब पर कैसे चलूं जबकि मसाइले हयात कई मा'बूदो में बांट दिए गए हों, मैंने लात व उज्जा़ सबको तर्क कर दिया है और मजबूती और सब्र कैश शख्सियतें ऐसा ही करती हैं, मगर हां! अब मैं अपने रब रहमान का इबादत गुज़ार हुं ताकी वो बख़्शीश फ़रमाने वाला आक़ा मेरे गुनाहों को माफ़ कर दे, सो तुम अल्लाह ही के तक़वे की हिफ़ाज़त करो, जब तक इस सिफ़त को क़ाम रखोगे कभी घाटे में न पड़ोगे _," (सीरत इब्ने हिशाम- 244) )*

*❀"_ बेचारे ज़ैद की बीवी सफिया बिन्ते अलहुजरमी हमेशा उसके पीछे पड़ी रहती, बसा औक़ात वो खालिस इब्राहिमी दीन की जुस्तजू के लिए मक्का से निकल खड़े होने का इरादा करता लेकिन उसकी बीवी खत्ताब बिन नुफेल को आगाह कर देती और वो दीने आबाई के छोड़ने पर सख़्त बात कहता, ज़ैद की इबादत का आलम ये था कि सज्दा गाह काबा में दाख़िल होता तो पुकार उठता- लब्बैक ए ख़ुदावंद ! बरहक़ मैं तेरे हुज़ूर इखलास मंदाना इबादत गुज़ाराना और गुलामाना अंदाज़ से हाज़िर हूं, फिर कहता- मैं काबा की तरफ मुंह कर के उसी जा़त की पनाह तलब करता हूं जिसकी पनाह इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने ढूंढी थी _," (इजा-248)*

*❀"_ खत्ताब बिन नुफेल ज़ैद को तकलीफे देता रहा, यहां तक कि मक्का के बालाई जानिब शहर बदर कर दिया और ज़ैद ने मक्का के सामने हीरा के पास जा अपनी इबादत शुरू कर दी, फिर खत्ताब ने कुरेश के चंद नोजवानों और कुछ कमीना खसलत अफराद को उसकी निगरानी पर मामूर कर दिया और उनको ताकीद की कि खबरदार इसे मक्का में दाखिल ना होने दो_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -120,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–62_* ★
*⚂ मक्की दौर- तारीक माहौल में चंद शरारे ⚂*   
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*❥❥_ चुनांचे तंग आ कर ज़ैद बिन अमरू ने वतन छोड़ा और मोसिल जज़ीरा और शाम वगेरा में इब्राहिमी दीन की जुस्तजू में मारा मारा फिरता रहा, आख़िर कार वो दमिश्क के इलाक़े में एक साहिबे इल्म राहिब के पास पहुँचा और उससे गुम गुश्ता मसलके इब्राहिमी का सुराग पुछा,*

*❀"_ राहिब ने कहा - आज तुझे इस मसलक पर चलने वाला कोई एक शख्स भी ना मिलेगा, अलबत्ता एक नबी के ज़हूर का वक्त आ गया है जो उसी जगह से उठेगा जहां से निकल कर तू आया है, वो दीन इब्राहिमी का अलमबरदार बन कर उठेगा, जाकर उससे मिल, इन दिनों उसकी बैसत हो चुकी है _,"*

*❀"_ ज़ैद ने यहूदियत व नसरानियत को ख़ूब देख भाल लिया और उनकी कोई चीज़ उसके दिल को ना लगी, वो राहिब की हिदायत के मुताबिक़ मक्का की तरफ लपका, बिलाद लखुम में लोगों ने उसे क़त्ल कर दिया_," (सीरत इब्ने हिशाम-50, 249)*

*❀"_इस तरह के हस्सास अफ़राद के ज़हनी हालात को देखें तो अंदाज़ा होता है कि माहौल एक ज़िन्दगी बख्श पैगाम के लिए मज़बूत हो रहा था, तारीख जिस इंक़िलाबी कुव्वत को माँंग रही थी वो अपने ठीक वक़्त में मुहम्मद ﷺ की शख्सियत की सूरत में कोंपल निकालती है,*

*❀"_ आप ﷺ एक मनफी सदा ए अहतजाज बन कर और अपने इनफिरदी ज़हन व किरदार की फिक्र ले कर नमूदार नहीं हुए, बल्की एक जामा मुसब्बत नज़रिया व मसलक के साथ सारी क़ौम और सारे माहौल की इज्तिमाई तबदीली के लिए मैदान में उतरे_, "*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -121,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–63_* ★
   *⚂ मक्की दौर- दावत का खुफिया दौर ⚂*   
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*❥❥_दावत का पहला ख़ुफ़िया दौर :-*

*❀"मुकदमा और नबुवत के तोर पर आन हजरत ﷺ रूया ए सादिका़ (सच्चे ख्वाबों) से नवाजे़ गए, कभी गैबी आवाज़ें सुनाई देती, कभी फरिश्ता दिखाई देता, यहां तक कि अर्शे इलाही से पहला पैगाम आ पहुंचा, जिब्राईल आते हैं और पुकारते हैं कि "इक़रा बिस्मिकल्लाज़ी खलक़" (पढ़ो ऐ नबी! अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया जमे हुए ख़ून के लोथड़े से इंसान की तख़लीक़ की, पढ़ो और तुम्हारा रब बड़ा करीम है जिसने क़लम के ज़रीये इल्म सिखाया और इंसान को वो इल्म दिया जिसे वो ना जानता था_,"(अल अलक़)*

*❀"_ वही ए इलाही के अव्वलीन तजुर्बे में हैबत व जलाल का बहुत सख़्त बोझ आप ﷺ ने महसूस किया, फ़िर हज़रत जिब्राईल ने आन हज़रत ﷺ को सीने से लगा कर भींचा और फिर कहा पढ़ो, गर्ज़ ये कि आख़िरकार आप सेहमे सेहमे जिब्राईल के कहे हुए एक एक लफ़्ज़ को दोहराते रहे, यहाँ तक कि पहला कलाम ए वही याद हो गया,*

*❀"_ घर आ कर अपनी रफ़ीक़ ए राज़दां से वाक़िया बयान किया, उन्होंने तसल्ली दी कि आपका ख़ुदा आपका साथ ना छोड़ेगा, वरक़ा बिन नोफ़िल ने तसदीक की कि ये तो वही नामूस फरिश्ता है जो मूसा अलैहिस्सलाम पर उतरा था, बल्की मजी़द ये कहा कि यक़ीनन लोग आपकी तकजी़ब करेंगे, आपको तंग करेंगे आपको वतन से निकालेंगे और आपसे लड़ेंगे, अगर मैं उस वक्त़ तक जिंदा रहा तो मैं खुदा के काम में आपकी हिमायत करूंगा _,"*

*❀"_ अब गोया आप खुदा की तरफ से दावत ए हक़ पर बा क़ायदा मामूर हो गए, और आप पर एक भारी जिम्मेदरी डाल दी गई, ये दावत सबसे पहले हज़रत खदीजा रजियल्लाहु अन्हा ही के सामने आई और वही इस पर ईमान लाने वालों में सबसे पहली हस्ती क़रार पाई _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -122,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–64_* ★
   *⚂ मक्की दौर- दावत का खुफिया दौर ⚂*   
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*❥❥ फिर यह काम ख़ुफ़िया तोर पर धीमी धीमी रफ्तार से चलने लगा, आपके बचपन के साथी और पूरी तरह मज़ाह व हम मिज़ाज हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु थे, हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु जो आपके चाचाजाद भाई थे, इनके सामने जब पैगामे हक़ आया तो बगैर किसी ताम्मुल व तवक़क़ुफ़ के इस तरह लब्बेक कही जैसे पहले से रूह इसी चीज़ की प्यासी थी, इनके अलावा ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु रफ़ीक़ ए मसलक बने जो आपके परवरदा गुलाम थे और आपकी ज़िंदगी और किरदार से मुतास्सिर थे,*

*❀"_ आप पर करीब तरीन लोगों का ईमान लाना आपके इखलास और आपकी सदाक़त का बजाए खुद एक सबूत है, ये वो हस्तियां थीं जो कई बरस से आपकी प्राइवेट और पब्लिक लाइफ से और आपके ज़ाहिर व बातिन से पूरी तरह वाक़िफ़ थीं, इनसे बढ़ कर आपकी ज़िंदगी और किरदार और आपके ज़हन व फ़िक्र को जानने वाला कोई और नहीं हो सकता था, इन क़रीबतरीन हस्तियों ने बिलकुल आगाज़ में आपके बुलावे पर लबबेक कह कर गोया एक शहादत पहुंचा दी, दावत की सदाक़त और दाई के इखलास की,*

*❀"_ हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने तहरीके मुहम्मदी ﷺ का सिपाही बनते ही अपने हलका़ ए असर में ज़ोर शोर से काम शुरू कर दिया और मुताद्दिद अहम शख्सियतों मसलन - हज़रत उस्मान, हज़रत ज़ुबेर, हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़, हज़रत साद' बिन वका़स, हज़रत तलहा रिजवानुल्लाहि अलैहिम अज़मईन को इस इंक़लाबी हलके़ का रुक्न बना दिया,*

*❀"_ हज़रत अम्मार, हज़रत ख़ब्बाब, हज़रत अरक़म, हज़रत सा'द बिन ज़ैद (उन्ही ज़ैद बिन अमरू के बेटे जिनका तज़किरा पहले गुज़र चुका है, ये वालिद की ज़िंदगी से मुतास्सिर थे) हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद, हज़रत उस्मान बिन मज़'ऊन, हज़रत उबैदा, हज़रत सुहैब रूमी रिज़वानुल्लाहि अलैहिम अज़मईन भी इस्लामी तहरीक के इब्तिदाई ख़ुफ़िया दौर में साबिक़ीन अव्वलीन की सफ़ में आ चुके थे!*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -122,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–65_* ★
   *⚂ मक्की दौर- दावत का खुफिया दौर ⚂*   
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*❥❥_नमाज का वक्त आता तो आन हजरत ﷺ किसी पहाड़ की खाई में चले जाते और अपने रफका़ के साथ छुप छूपा कर सजदा अबुदियत बजा लाते, सिर्फ चाश्त की नमाज़ हरम में पढ़ते क्यूंकि ये नमाज़ खुद कुरेश के यहां भी मरूज थी, एक मर्तबा आन हज़रत ﷺ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ किसी दर्रे में नमाज़ अदा फ़रमा रहे थे कि आपके चाचा अबु तालिब ने देख लिया, इस नए अंदाज़ की इबादत को देख कर वो सोच में पड़ गए और बड़े गोर से देखते रहे, नमाज़ के बाद आपसे पूछा के ये क्या दीन है जिसे तुमने अख्त्यार किया है, आप ने फरमाया- हमारे दादा इब्राहिम अलैहिस्सलाम का यही दीन था, ये सुनकर अबू तालिब ने कहा कि मैं इसे अख्त्यार तो नहीं कर सकता लेकिन तुमको इजाज़त है और कोई शख्स तुम्हारा मुज़ाहम ना हो सकेगा (कोई रोक ना सकेगा) _," (सीरतुन नबी अल्लामा शिब्ली -1/193)*

*❀"_ हज़रत अबुज़र रज़ियल्लाहु अन्हु भी तहरीके इस्लामी में इसी ख़ुफिया दौर में ईमान लाए, ये भी उन्हीं मुज़्तरब लोगों में से थे जो बुत परस्ती छोड़ कर महज़ फ़ितरते सलीम की रहनुमाई में ख़ुदा का ज़िक्र करते और उसकी इबादत बजा लाते, उन तक किसी ज़रिये से आन हजरत ﷺ की दावत का नूर पहुंच गया, उन्होंने अपने भाई को भेजा कि जा कर सही मालूमात लाए''*

*❀"_ उन्होंने आन हज़रत ﷺ से मुलाक़ात की, क़ुरआन सुना और भाई को बताया कि मैंने उस शख्स को देखा है, लोग उसे मुर्तद कहते हैं लेकिन वो मकारिमे अख़लाक़ की तालीम देता है और एक अजीब कलाम सुनाता है जो शैरो शायरी से बिल्कुल मुख्तलिफ है, उसका तरीक़ा तुम्हारे तरीक़े से मिलता जुलता है_,"*

*❀"_इस इत्तेला पर खुद आए और आपके हाथ पर इस्लाम कुबूल किया, इससे मालूम होता है कि बावजूद इखफा के मुश्के हक की खुश्बू को हवा की लहरे ले उड़ी थी और खुदा के रसूल ﷺ के लिए बदनाम कुन अलका़ब तजवीज़ करने का सिलसिला शुरू हो गया था लेकिन फिर भी माहौल अभी पुर सुकून था, अभी वो खतरों का पूरा अंदाजा नहीं कर पाया था,*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -124,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–66_* ★
   *⚂ मक्की दौर- दावत का खुफिया दौर ⚂*   
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*❥❥-- देखिए, एक और अहम तारीखी हक़ीक़त कि तहरीक के इन अव्वलीन अलंबरदारों में कोई एक भी ऐसा ना था जो आला दर्जे के मज़हबी व कौ़मी मनासिब पर मामूर हो, ये हजरात अगराज़ के बोझ तले दबे हुए और मुफाद की डोरियों से बंधे हुए ना थे, हमेशा ऐसे ही आज़ाद फितरत नोजवान तारीख में बड़ी बड़ी तब्दीलियां पैदा करने के लिए अगली सफो में आया करते हैं _,"*

*❀"_ तहरीक अपने ख़ुफ़िया दौर में कुरेश की निगाहों में तवज्जो के क़ाबिल ना थी, वो समझते थे कि ये चंद नोजवानों का सरफिरापन है, उलटी सीधी बातें करते हैं, चार दिनों में दिमाग से ये हवा निकल जाएगी, हमारे सामने कोई दम मार सकता है?*

*❀"_ मगर सरे इक़्तदार तबक़ा तख्ते क़यादत पर बेठा अपने ज़ाम में मगन रहा और सच्चाई और नेकी की कोंपल तख्त के साये में आहिस्ता आहिस्ता जड़े छोड़ती रही और नई पत्तियां निकालती रहीं, यहाँ तक कि तारीख की ज़मीन में उसे अपना मुका़म बना लिया _,"*

*❀"_ कुरेश का ऐतक़ाद ये भी था कि लात मनात और उज्जा़ जिनके आगे हम पेशानियां रगड़ते हैं और चढ़ावे पेश करते हैं और जिनके हम खुद्दामे बारगाह हैं, अपने अहतराम और मज़हब बुत परस्ती की ख़ुद हिफ़ाज़त करेंगे और उनकी रूहानी मार हंगामा को खत्म कर देगी _,"*    
*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -126,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–67_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥ दावत ए आम :- तीन बरस इसी तरह गुज़र गए, लेकिन मशीयते इलाही हालात के समंदर को भला जमा हुआ कहां रहने देती हैं? उसकी सुन्नत तो हमेशा से ये रही है कि वो बातिल के खिलाफ हक़ को उठा खड़ा करती है और फिर टकराव पैदा करती है, "_मगर हम तो बातिल पर हक़ की चोट लगाते हैं_," (अल अंबिया -18)*

*❀"_इस सुन्नत के तहत यकायक दूसरे दौर के इफ्तेताह के लिए हुक्म होता है,"_ पस ऐ नबी ! जिस चीज़ का तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है, उसे हांके पुकारे कह दो और शिर्क करने वालों की ज़रा परवाह न करो _," (अल हिज्र- 94)*

*❀"_ आन हज़रत ﷺ अपनी सारी हिम्मत व अज़मियत को समेट कर नए मरहले के मुतावाक़े हालात के लिए अपने आपको तैयार कर के कोहे सफ़ा पर आ खड़े होते हैं, और क़ुरैश को अरब के उस ख़ास उस्लूब से पुकारते हैं जिससे वहां किसी खतरे के नाज़ुक लम्हे क़ौम को बुलाया जाता था, लोग दौड़ते आते हैं, जमा हो जाते हैं और कान मुंतज़िर हैं के क्या ख़बर सुनाई जाने वाली है,*

*❀"_ अब बाआवाज़ बुलंद पूछा - अगर मैं ये कहूं कि इस पहाड़ के पीछे से एक हमला आवर फौज चली आ रही है तो क्या तुम मेरा ऐतबार करोगे? हां क्यों नहीं? हमने तुमको हमेशा सच बोलते पाया है, ये जवाब था जो बिल इत्तेफ़ाक मजमे की तरफ से दिया गया _,"*
*"_ तो फिर मैं ये कहता हूं कि खुदा पर ईमान लाओ...ऐ बनू अब्दुल मुत्तलिब! ऐ बनू अब्दे मुनाफ! ऐ बनू ज़ोहरा! ऐ बनू तमीम! ऐ बनू मख़ज़ूम ! ऐ बनू असद ! वरना तुम पर सख़्त अज़ाब नाज़िल होगा _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -127,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–68_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_इन मुख्तसर अल्फाज़ में आप ﷺ ने अपनी दावत बर सरे आम पेश कर दी, आपके चाचा अबु लहब ने सुना तो जल भुन कर कहा कि "गारत हो जाओ तुम आज ही के दिन! ..क्या यही बात थी जिसके लिए तुमने हम सबको यहां इकट्ठा किया था? अबू लहब और दूसरे लोग बहुत गुस्सा हो कर चले गए,*

*❀"_ देखिए ! अबु लहब के अल्फाज़ में दावते नबवी ﷺ के सिर्फ ना का़बिले गोर होने का तास्सूर झलक रहा है, अभी कोई दूसरा रु अमल पैदा नहीं हुआ, शिकायत सिर्फ ये थी कि तुमने हमें बेजा तकलीफ दी और हमारा वक्त ज़ाया किया?*

*❀"_ दावते आम की मुहिम का दूसरा क़दम ये उठाया गया कि आन हजरत ﷺ ने तमाम खानदाने अब्दुल मुत्तलिब को खाने पर बुलाया, इस मजलिसे ज़ियाफत में हमजा़, अबू तालिब और अब्बास जेसे अहम लोग भी शरीक़ थे, खाने के बाद आप ﷺ ने मुख्तसर सी तकरीर की और फरमाया कि मैं जिस पैगाम को ले कर आया हूं ये दीन और दुनिया दोनों का कफील है, इस मुहिम में कौन मेरा साथ देता है?*

*"❀_बिल्कुल इब्तिदाई दावत में आन हज़रत ﷺ इस हक़ीक़त का शऊर रखते थे कि वो दुनिया से कटा हुआ मज़हब ले कर नहीं आए बल्कि दुनिया को संवारने वाला दीन ले कर आए हैं, आप ﷺ की दावत पर सुकूत छा गया, इस सुकूत के अंदर तेरह बरस का एक लड़का उठता है और कहता है कि, अगरचे मैं आशूबे चश्म में मुब्तिला हूं, अगरचे मेरी टांगें पतली हैं, अगरचे मैं एक बच्चा हूं, लेकिन मैं इस मुहिम में आपका साथ दूंगा, ये हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु थे जो आगे चल कर असातीन ए तहरीक में शुमार हुए,*

*❀"_ ये मंज़र देख कर हाज़िरीन में ख़ूब कहकहा पड़ा! इस क़हक़हे के ज़रिये गोया खानदाने अब्दुल मुत्तलिब ये कह रहा था कि ये दावत और ये लब्बेक कहने वाला कौनसा कारनामा अंजाम दे लेंगे, ये सब कुछ एक मज़ाक है एक जूनून है और बस ! इसका जवाब तो सिर्फ खंदा इस्तेहजा़ (मज़ाक) से दिया जा सकता है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -127,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–69_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥- इस दूसरे वाक़िए पर माहोल का सुकून नहीं टूटा, ज़िंदगी के समंदर के घड़ियालों ने कोई अंगड़ाई नहीं ली, लेकिन इसके बाद ये तीसरा क़दम उठा तो उससे माशरे को हिस्ट्रिया के इस दौर में मुब्तिला कर दिया जो आहिस्ता आहिस्ता शुरू हो कर रोज़ बरोज तंद व तेज़ होता गया!*

*❀"_ इस तीसरे क़दम के बारे में गुफ्तगु करने से पहले एक और वाक़िए का तज़किरा ज़रूरी होता है, जैसा कि हम बयान कर चुके हैं कि मुखालिफ़ माहौल की ख़तरनाक संगीनी की वजह से नमाज़ चोरी छुपे पढ़ी जाती थी, आन हजरत ﷺ और रफक़ा ए तहरीक शहर से बाहर वादीयों और घाटियों में जा जा कर नमाज़ अदा करते*

*❀"_ एक दिन एक घाटी में सा'द बिन अबी वक़ास रज़ियल्लाहु अन्हु दूसरे रफ़क़ा ए नबवी ﷺ के साथ नमाज़ में थे कि मुशरिकीन ने देख लिया, ऐन हालते नमाज़ में उन मुशरिकीन ने फ़िक़रे कसने शुरू किए, बुरा भला कहा और नमाज़ की एक एक हरकत पर फब्तियां चुस्त करते रहे, जब इन लायानी बातों का कोई जवाब ना मिला तो लड़ने पर उतर आए,*

*❀"_ इस दंगे के एक मुशरिक की तलवार ने सा'द बिन अबी वक़ास रज़ियल्लाहु अन्हु को ज़ख्मी कर डाला, ये थी खून की सबसे पहली धार जो मक्का की खाक पर ख़ुदा की राह में बही! ये जा़हिली माशरे का सबसे पहला जूनून आमेज़ ख़ूनी रद्दे अमल था और इस रद्दे अमल के तेवर बताते रहे थे कि मुख़ालफ़त अब तशद्दुद के मरहले में दाखिल होने वाली है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -127,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–70_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ तहरीक की ज़ेरे सतह रु ने आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ते हुए 40 मोती इकट्ठे कर लिए थे, अब गोया इस्लामी जमात एक महसूस ताक़त बन चुकी थी, खुल्लम खुल्ला कलमा हक़ को पुकारने का हुक्म आ ही चुका था, इसकी तामील में आन हज़रत ﷺ ने एक दिन हरम ए काबा में खड़े हो कर तोहीद का एलान किया*

*❀"_ लेकिन मज़हबियत जब बिगड़ती है तो उसकी इक़्तदार इस तरह तह व बाला हो जाती हैं कि वो घर जो पैगामे तोहीद के मरकज़ की हैसियत से उस्तवार किया गया था आज उसकी चार दीवारी के अंदर खुदा ए वाहिद की वहदत की पुकार बुलंद करना इस मरकज़े तोहीद की तोहीन का मोजिब हो चुका था, बुतों के वजूद से काबे की तोहीन नहीं होती थी, बुतों के आगे पेशानियां रगड़ने से भी नहीं, नंगे हो कर तवाफ़ करने, सीटियां और तालियां बजाने से भी नहीं, गैरुल्लाह के नाम पर ज़बीहे पेश करने से भी नहीं, मुजावरी की फीस और चढ़ावे वसूल करने से भी नहीं... लेकिन उस घर के असल मालिक का नाम लेते ही उसकी तोहीन हो गई थी!*

*❀"_ काबे की तोहीन हरम की बेहुरमती ! तौबा तौबा कैसी खून खोला देने वाली बात है, केसी जज़्बात के शोले भड़काने वाली हरकत है ! चुनांचे खोलते हुए ख़ून भड़कते हुए जज़्बात के साथ चारो तरफ से कलमा तोहीद को सुनने वाले मुशरिकीन उठ आते हैं, हंगामा बरपा हो जाता है, नबी ﷺ घेरे में आ जाते हैं,*

*❀"_ हारिस बिन अबी उम्मे हाला के घर में थे, शोर व शगफ सुन कर आन हजरत ﷺ को बचाने के लिए दौड़े लेकिन हर तरफ से तलवारें उन पर टूट पड़ी और वो शहीद हो गए, अरब के अंदर इस्लाम और जाहिलियत की कश्मकश में ये पहली जान थी जो हक़ की हिमायत में कु़र्बान हुई,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -127,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–71_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_देखा आपने! एक दावत जो मा'कू़ल और पुर सुकून अंदाज से दी जा रही थी, उस पर गौर करके राय क़ायम करने और इस्तदलाल का जवाब दला'इल से देने के बजाए अंधे भड़कते जज़्बात से दिया जाता है,*

*❀"_सय्यदना मुहम्मद ﷺ कलमा हक़ अपनी तलवार से मनवाने नहीं उठते, लेकिन मुख्तलिफ ताक़त तलवार सोंत कर आ जाती है, यही एक फासिद निज़ाम के मुफाद परस्त मुखालिफीन की अलामत है कि माकू़लियत के जवाब में गुस्से में आग बबूला और दलील के जवाब में तलवार लिए मैदान में उतरे हैं, मुखालिफीन में इतना ज़र्फ नहीं था कि वो कम से कम चंद हफ़्ते चंद दिन चंद लम्हे हरम से उठने वाली सदा पर पुर सुकून तरीक़े से गौर व फ़िक्र कर सकते,*

*❀"_ ये तस्लीम करते कि मुहम्मद ﷺ को भी उनकी तरह किसी नज़रिए फलसफे अकी़दे पर ईमान रखने, किसी मज़हब पर चलने और उनकी क़ायम करदा सूरते मज़हब से इख्तिलाफ करने का हक़ है, कम से कम इमकान की हद तक ये मानते कि हो सकता है कि हमारे अंदर गलती मोजूद हो और मुहम्मद ﷺ ही की दावत से हक़ीक़त का सुराग मिल सकता हो, किसी फासिद निज़ाम के सरबराह कारो में इतना ज़र्फ बाक़ी नहीं रहता, उनमें इख़्तिलाफ़ के लिए बर्दाश्त की कुव्वत बिलकुल खत्म हो जाती है, उनकी गौर व फ़िक्र की सलाहियत ज़ंग आलूद हो जाती है*

*❀"_ ज़रा अंदाज़ किजिए कि केसी थी वो फिज़ा जिसमें हम सबकी दुनियावी व आखिरवी फलाह व बहुदी के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देने वाला हक़ का दाई बेसरो सामान के आलम में अपना फ़र्ज़ अदा कर रहा था?*

*❀"_ इब्राहिम व इस्माईल अलैहिमुस्सलाम के पाकीज़ा जज़्बात और पाकीज़ा हसरतों और तमन्नाओं के मसाले से बने हुए हरम ए पाक के अंदर मक्का वालों की इस हरकत ने आने वाले दौरे मुस्तक़बिल का एक तसव्वुर तो ज़रूर दिला दिया और एक बेगुनाह के खून से आइन्दा अबवाबे तारीख की सुर्खी तो जमा दी, लेकिन ये असल ज़ोर तशद्दुद (ज़्यादती) का इफ़्तेताह (शुरुआत) नहीं था,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -128,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                        
                  ★ *क़िस्त–72_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_नबी ﷺ की दावत को पाया ऐतबार से गिराने के लिए गाली देने के कमीने जज़्बे के साथ प्रचार के माहिर उस्तादों ने गोना गो इंकलाब खड़े करने शुरू कर दिए, मसलन ये कहा जाने लगा के इस शख्स की बात क्यों सुनते हो ये तो ( ना'उज़ुबिल्लाह) मुर्तद है, दीने असलाफ कि जिसके हम इजारादार (ठेकेदार) हैं, ये उसके दायरे से बाहर निकल गया है और अब अपने पास से एक अनोखा दीन घढ़ लाया है,*

*❀"_ कोई इस्तदलाल नहीं बस अपनी गद्दियों पर बेठे बेठे कुफ्र का फतवा सादिर कर दिया जाता है, ये भी कहा जाता है के ये तो "साबी" हो गया है, "साबियत" चुंकी उस वक्त की मुशरीकाना सोसाइटी में एक बदनाम और नापसंदीदा मसलक था, इसलिए किसी का नाम साबी धर देना वेसी ही गाली था जैसे आज किसी मुसलमान को यहूदी या खारजी या नेचरी कह दिया जाए,*

*❀"_ हक़ के खिलाफ दलाइल के लिहाज़ से झूठे लोग जब मनफी हंगामा उठाते हैं तो उनके प्रचार की मुहीम का एक हथियार हमेशा इसी तरह के बदनाम करने वाले अलका़ब, नामों और इस्तलाहो का चस्पा करना होता है, गली गली मजलिस मजलिस मक्का के मुशरिकीन ये ढिंढोरा पीटते फिरते कि देखो जी! यह लोग साबी हो गए हैं, बेदीन हो गए हैं, बाप दादा का दीन धरम इन्होंने छोड़ दिया है, नये नये अक़ीदे और नये नये ढंग घढ़ कर ला रहे हैं*

*❀"_ ये आँधी जब उठ रही होगी तो तसव्वुर कीजिये कि उसमें रास्ता देखना और सांस लेना आम लोगों पर कितना दूबर हो गया होगा, और दाईयाने हक़ के मुख्तसर से क़ाफिले को किस आफत का सामना करना पड़ा रहा होगा? मगर आंधियां अरबाबे अज़मत के रास्ते कभी नहीं रोक सकती!*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -129,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                          
                  ★ *क़िस्त–73_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥ _दला'इल के मुक़ाबले में जब गालियाँ लाई जा रही हों तो हमेशा ऐसा होता है कि दला'इल तो अपनी जगह जमे रहते हैं लेकिन जो गाली मुक़ाबले पर लाई जाती है वो जज़्बाती हद तक दो चार दिन काम दे कर बिलकुल बेअसर हो जाती है और इंसानी फितरत इससे नफूर होने लगती है, चुनांचे आन हजरत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए एक गाली और वजा़ की गई, आपको "इब्ने अबी कबशा" कहा जाता था,*

*"❀_ अबी कबशा एक मारूफ मगर बदनाम शख्सियत थी, ये शख्स तमाम अरब के दीनी रूझानात के खिलाफ "शारा" नामी सितारे की पारिस्तिश करता था, इब्ने अबी कबशा के मानी हुए अबी कबशा का बेटा या अबी कबशा का पेरू (नाउज़ुबिल्लाह), दिल का बुखार निकालने के लिए मक्का के जज़्बात के मरीज़ो ने क्या क्या इजादे नहीं कीं!*

*"❀_ किसी साहिबे दावत या किसी नकी़ब ए तहरीक की ज़ात पर जब इस तरह के वार किए जाते हैं तो असल मतलूब उस शख़्सियत को कुर्ब ( तकलीफ़) देना ही नहीं होता बल्की दर हक़ीक़त गाली दी जाती है उस नज़रिया व मसलक को और उस काम और तंजीम को जिसकी रोज़ अफजु़ यलगार से साबका़ पड़ा होता है, मगर क्या एक उठते हुए सैलाब के आगे गोबर के पशते बांध कर उसे रोका जा सकता है?*

*"❀_ मुशरिकीन मक्का देख रहे थे कि वो गंदगी के जो बंद भी बांधते हैं उनको ये दावत बहाएं ले जा रही है और हर सुबह और हर शाम कुछ ना कुछ आगे ही बढ़ती जाती है, तो उन्होंने प्रोपोगंडे के दूसरे पहलू अख्त्यार किए, एक नया लक़ब ये तराशा के ये शख़्स (नाऊज़ुबिल्लाह) दर हक़ीक़त पागल हो गया है_,"*

*❀"_ बुतो की मार पड़ने से इसका सर फिर गया है, ये जो बातें करता है वो होश व हवास और अक़ल व हिकमत की बातें नहीं है बल्की ये एक जूनून है कि जिसके दोरे पड़ने पर कभी उसे फरिश्ते नज़र आते हैं, कभी जन्नत और दोज़ख के ख्वाब दिखाई देते हैं, कभी वही उतरती है और कभी कोई अनोखी बात मुंकाशिफ हो जाती है, ये एक सरफिरा आदमी है, इसकी बातों पर आम लोगो को ध्यान नहीं देना चाहिए और अपना दीन ईमान बचाना चाहिए,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -129,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                      
                  ★ *क़िस्त–74_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_हमेशा से यह हुआ है कि दाइयाने हक का ज़ोरे इस्तदलाल तोड़ने के लिए या तो उनको पागल कहा गया है या सफ़िहा व अहमक, होशमंद तो बस वही लोग होते हैं जो अपनी दुनिया बनाने और ज़माने की हां में हां मिलाने और अपनी ख्वाहिशों का सामाने तस्कीन करने में मुन्हामिक रहें, बाक़ी वो लोग जो तजदीद व इस्लाह की मुहिम उठा कर जान जोखिमों में डालें, उनको दुनिया परस्त अगर अहमक और पागल न कहें तो आखिर उनकी डिक्शनरी में और कोनसा लफ्ज़ मोजू़ हो सकता है,*

*❀"_ मुशरिकीन मक्का ने एक और तंज घड़ी, कहने लगे कि ये मुद्दई नबूवत दर हकीकत जादू के फन में भी समझ रखता है, ये उसका फन कमाल है कि दो चार बातों में हर मिलने वाले पर अपना जादू कर देता है, नज़र बंदी की हालत में मुब्तिला कर देता है और ज़रा कोई उसकी बातो में आया नहीं कि जादू के जाल में फंसा नहीं, यही वजह है कि अच्छे भले सूझ बूझ रखने वाले लोग उसका शिकार होते चले जा रहे हैं!*

*❀"_ हां ! मगर एक सवाल ये भी तो पैदा होता था कि कभी अहमको, पागलों और जादुगरों ने भी आज तक मज़हबी व तमद्दुनी तहरीके चलाई है और कभी काहिनों ने खुदा परस्ती और तोहीद और मकारमे अखलाक़ का दर्स देने के लिए जादू के फन को इस्तेमाल किया है?*

*❀"_ लेकिन ये सिक्का बंद इल्ज़ाम है ऐसा कि हर दौर में हर साहिबे दावत पर लगाया गया है, यक़ीन दिलाने की कोशिश की गई है कि ख़ुद दावत में सदाक़त नहीं कि उसकी फितरी कशिश काम करे, दाई के इस्तदलाल में कोई वज़न नहीं कि जिससे कु़लूब मुसक्खर हो रहे हैं बल्की सारा खेल किसी पुर इसरार क़िस्म की फ़रेबकारी और जादुगरी पर मुबनी है और ये उसका असर है की भले चंगे लोग तवाज़न खो बेठते हैं,*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -131,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                        
                  ★ *क़िस्त–75_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ लोग अकाबिरे कुरेश के सामने आन हज़रत ﷺ की इल्हामी तकरीरे और ख़ुसुसन क़ुरआन की आयतें भी तो पेश करते होंगे कि ये और ये बातें कही गई है, कलाम के ज़ौहर शनास आख़िर ये तो मेहसूस कर लेते होंगे कि खुद ये कलाम मोअस्सिर ताक़त है, इस पर बहसे भी होती होंगी और राय भी क़ायम होती होंगी,*

*"❀_ इस कलाम के एजाज़ की तवज्जो करने के लिए उन्होंने कहना शुरू किया कि - अजी क्या है, बस शायरी है, अल्फाज़ का एक आर्ट है, अदीबाना ज़ोर है, मुहम्मद ﷺ दर्जा अव्वल के आर्टिस्ट और लिसाने खतीब है, उनकी शायरी की वजह से कच्चे ज़हन के नौजवान बहक रहे हैं,*

*❀"_ ए कुरेश मक्का! शायर तो दुनिया में हमेशा होते रहे हैं, क्या कोई ऐसा अनोखा शायर कभी पैदा हुआ है जो इस बेदाग सीरत और अज़ीम किरदार का हामिल हो जिसका मुज़ाहिरा मुहम्मद ﷺ और उनके रफ़्क़ा कर रहे थे, क्या शायरी के तिलस्म बांधने वालों ने कभी ऐसी दीनी मुहीमात भी बरपा की है जेसी तुम्हारे सामने हो रही थी?*

*❀"_ कुरेश के सामने भी ये सवाल था, इसका जवाब देने के लिए उन्होंने आन हजरत ﷺ पर कहानत का एक और इल्ज़ाम बांधा, काहिन लोग कुछ मज़हबी अंदाज़ व अतवार रखते थे, एक अजीब पुर इसरारी फ़िज़ा बनाते थे, चिललो और ऐतकाफो और वजी़फो और मंतरो में उनकी जिंदगी गुज़रती थी, काहिन कहने से कुरेश का मुद्दआ यह था कि आन हजरत ﷺ ने भी बस इसी तरह का एक ढकोसला बना रखा है, ताकी लोग आएं, मुरीद बनें, उन पर कहानत का सिक्का भी चले और पेट का मसाला भी हल हो जाए (माज़ल्लाह)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -131,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                           
                  ★ *क़िस्त–76_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥_ और क़ुरान इस सारे प्रोगंडे की धुंवा धारियों को मुहीत हो कर आसमानी बुलंदियों से पुकार कर कह रहा था - "ये किसी शायर का कौ़ल नहीं है, तुम लोग कम ही ईमान लाते हो, और ना किसी काहिन का कौ़ल है, तुम लोग कम ही गौर करते हो _,"(अल-हाक्का़ -41)*

*❀"_ देखो ये लोग केसे केसे मुहावरे और फ़िक़रे चुस्त करते हैं, केसे केसे नाम धरते हैं, क्या क्या तशबीहे घड़ते हैं और कहाँ कहाँ से इस्तलाहे ढूंढ के लाते हैं, मगर ये सब कुछ कर के फिर यकायक कैसा पलटा खाते हैं? (अल-फुरकान - 9)*

*❀"_ देखिए ! अब एक और शोशा तराशा जाता है, दीने इब्राहिमी के नाम लेवा फरमाते हैं कि ये कोई जिन है जो मुहम्मद (ﷺ) पर आता है और वो आ कर अजीब बातें बताता है या ये कि वो सिखा पढ़ा जाता है, कभी मक्का के एक रूमी व नसरानी गुलाम (जाबिर या जबरा या जबर) का नाम लिया जाता है, जो आन हजरत ﷺ की खिदमत में हाज़िर हो कर दीन की बातें सुनाने के लिए जाता है और तन्हाई में मुहम्मद ﷺ को ये वाज़ और लेक्चर नोट कराता है,*

*❀"_ एक मोके़ पर कुरेश के अकाबिर के एक वफद ने आन हजरत ﷺ से कहा कि, हमें मालूम हुआ है कि यमामा में कोई शख्स "अर -रहमान" नामी है जो तुम्हें ये सब कुछ सिखाता है, खुदा की क़सम हम "अर -रहमान" पर ईमान नहीं लाएंगे _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -132,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                     
                  ★ *क़िस्त–77_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥ -इन हवाई शोशो से ये ज़ाहिर करना मतलूब था कि किसी बाहरी ताक़त और किसी गैर शख़्स की शरारत है जो हमारे मज़हब और माशरे को तबाह करने के दरपे है और मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह तो महज़ आला कार है, ये किसी तरह की साज़िश है, दूसरी तरफ़ इसमे ये तास्सुर भी शमिल था कि कलाम का ये हुस्न व जमाल ना मुहम्मद का कमाल है ना खुदा की अता व बख़्शीश है, ये तो कोई और ही ताक़त गुल खिला रही है, तीसरी तरफ इसके ज़रिये हक़ के दाई पर इल्ज़ाम भी चस्पा किया जा रहा था,*

*❀_"_ इसके जवाब में क़ुरआन ने तफ़सीली इस्तदलाल किया है, मगर उसका चेलेंज क़तई तोर पर मस्कत साबित हुआ कि इंसानों और जिन्नों की मुश्तरका मदद से तुम इस तरह की कोई सूरत या ऐसी चंद आयतें ही बना कर ले आओ_ ,"*

*❀_"_ और एक दावा ये भी सामने आया कि ये कोई नई बात नहीं है, कोई खास करनामा नहीं है, असल में पुराने किस्से कहानियां हैं जिनको कहीं से जमा कर के ज़ोरदार जुबान में ढाला जा रहा है, ये एक तरह की अफसाना तरानी है और दास्तान गोई है,*

*❀_"_ दावते हक़ पर "असातीर अव्वलीन" की फबती कसने में ये तंज भी शामिल था कि अगले वक्तो की इन कहानियों में आज के मसलों की अक़दाह कुशाई कहां हो सकती है, ज़माना कहीं से कहां आ चुका है,*  

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -132,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                        
                  ★ *क़िस्त–78_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥ -वाज़े रहे कि ये सारी मुहिम किसी गलत फ़हमी की वजह से नहीं बल्की सोची समझी हुई शरारत के तोर पर चलाई जा रही थी, उन्होंने मिल कर ये क़रार दाद तय की थी कि,"दाई की बात सुनो ही नहीं, उस पर गोर करो ही नहीं, कहीं खयालात में तज़लजु़ल न आ जाए, कहीं ईमान खराब न हो जाए, बस हाव हो का खूब शोर मचा कर उसमें रुखना अंदाजी करो, उसमें गडबड डालो और उसे मज़ाक पर ढ़ाल लो, इस तरीक़े से कुरान का ज़ोर टूट जाएगा और आखिर फतेह तुम्हारी होगी,*

*❀"_ आस बिन वाइल ने आन हज़रत ﷺ की दावत व तहरीक की तहकी़र करते हुए ज़हरीले कलमात कहे, ताना दिया गया था आन हज़रत ﷺ की औलाद नरीना न होने पर और अरब में फ़िल वाक़े ये ताना कुछ माने रखता था ,*
 .
*❀"_ मगर आस जेसो की निगाहें ये नहीं समझ सकती कि अम्बिया जैसी तारीख साज़ हस्तियों की असल औलाद उनके अज़ीमुश्शान कारनामे होते हैं, उनके दिमाग से नई तहज़ीब के दौर जनम लेते हैं और उनकी दावत व तालीम की विरासत संभालने और उनकी याद ताज़ा रखने के लिए उनके रफका़ और पेरुकार गिरोह दर गिरोह मौजूद होते हैं, वो जिस खैरे कसीर को ले कर आते हैं उसकी ताक़त और उसकी क़दर व क़ीमत किसी की नरीना औलाद के बड़े से बड़े शुक्र से कहीं ज्यादा होती है,*

*❀"_ चुनांचे इस ताने के जवाब में सूरह कौसर नाजिल हुई जिसमें आस और उसके हम केशो को बताया गया कि हमने अपने नबी ﷺ को "कौसर" अता किया है उसे खैरे कसीर का सर चश्मा बनाया है, उसे कुरान की निआमते अज़मी दी है, उस पर ईमान लाने वालों और इता'त करने वालों, उसके काम को फैलाने और जारी रखने वालों की एक बड़ी जमात है और उसके लिए आलमे आखिरत में हौज़े कौसर का तोहफा मखसूस कर रखा है,*

*❀"_ जिसको एक बार अगर किसी को अज़न नोश मिल गया तो वो अब्द तक प्यास ना महसूस करेगा, फिर फरमाया कि ऐ नबी ﷺ अबतर तो है तुम्हारे दुश्मन कि जिनका बा एतबार हक़ीक़त कोई नाम लेवा और पानी देवा नहीं है और जिनको मर जाने के बाद कोई भूल के याद भी ना करेगा कि फलां कौन था और जिनके लिए तारीखे इंसान के मकान में कोई जगह नहीं*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -133,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                         
                  ★ *क़िस्त–79_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ जो लोग आंखों देखते एक अमरे हक़ को नहीं मानना चाहते वो अपने और दाई के दरमियान तरह तरह के नुकते और लतीफे और बातों में से बात निकाल कर लाते हैं, असलाफ की सिक्का बंद मज़हबियत के ये मुखालिफीन आन हज़रत ﷺ से एक तो बार बार ये पूछते थे कि तुम अगर नबी हो तो आखिर क्यों नहीं ऐसा होता कि तुम्हारे नबी होने की कोई वाज़े निशानी तुम्हारे साथ हो, कोई ऐसा मोजजा़ हो जिसे देखने वालों के लिए नबूवत माने बगैर चारा ही ना रहे।*

*❀"_ क्यू न फरिश्ते हमारे पास भेजे जाएं,? या फिर हम अपने रब को देखें_," (अल फुरका़न -20) सीधी तरह आसमान से फरिश्तो के झुंड उतरे, हमारे सामने चलते फिरते दिखायी दें और खुदा तुम्हारे ज़रिए पैगाम भेज कर अपने आपके मनवाने के बजाए खुद ही क्यों ना हमारे सामने आ जाए और हम देख लें कि ये है हमारा रब, झगड़ा खत्म हो जाए,*

*❀"_ फिर वो ये कहते कि जो कुछ तुम पेश कर रहे हो ये अगर वाक़ई खुदा की तरफ से होता तो चाहिए ये था कि एक लिखी हुई किताब हमारे देखते देखते आसमान से उतरती बल्की तुम खुद सीढ़ी के ज़रिए किताब लिए हुए उतरते और हम सरे तस्लीम खम कर देते कि तुम सच्चे नबी हो*

*❀"_ इसी सिलसिले में एक सवाल ये भी उठाया जाता था कि कुरान खुत्बा बा खुतबा और क़ता बा क़ता क्यों नाजि़ल होता है, सीधी तरह एक ही बार में पूरी की पूरी किताब क्यों नहीं नाजि़ल हो जाती?*

*❀"_ दर असल उनको ये सूरत बड़ी खलती थी कि जितने सवाल वो उठाते थे, जो जो शरारतें करते थे, जिस जिस पहलू से मीन मेख निकालते थे उस पर वही के ज़रीए हस्बे मोक़ा तबसिरा होता उसका तजुर्बा किया जाता और पूरे ज़ोरे इस्तदलाल से उनकी मुखालिफाना काविशों की जड़ें खोद दी जातीं _,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -134,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                          
                  ★ *क़िस्त–80_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ फिर वो ये फबती कसते कि तुम जो गोश्त पोस्त के बने हुए हमारी तरह के आदमी हो, तुम्हें भूख लगती है, मा'श के दरपे हो, रोटी खाते हो, गलियों और बाजा़रों में चलते फिरते हो, फटे हाल रहते हो, तुम्हारे ऊपर तरह तरह की ज़्यादतियां हो रही हैं, केसे ये बात अक़ल में आए कि तुम अल्लाह के प्यारे और उसके ऐतमाद के क़बिल नुमाइंदे और दुनिया की इस्लाह के ज़िम्मेदार बना कर भेजे गए हो,*

*"❀_ तुम वाक़ई अगर ऐसे चुनिंदा रोज़गार होते तो फरिश्ते तुम्हारे आगे आगे हटो बचो की सदा लगाते बॉडीगार्ड बन कर साथ चलते, जो कोई गुस्ताखी करता लठ से उसका सर फोड देते, तुम्हारी ये शान और ये ठाठ देख कर हर आदमी बे चू चरा मान लेता कि अल्लाह का प्यारा है और नबी है, इतना ही नहीं तुम्हारे लिए आसमान से ख़ज़ाना उतरता और उस ख़ज़ाने के बल पर तुम शाहाना शान व शोकत के साथ ऐश की ज़िंदगी गुजा़रते होते, तुम्हारे बसने के लिए सोने का एक महल होता, तुम्हारे लिए कोई चश्मा जारी होता कोई नहर बहाई जाती, तुम्हारे पास फलों का कोई आला दर्जे का बाग होता, आराम से बेठे उसकी कमाई खाते, इस नक्शे के साथ तुम नबुवत का दावा ले के उठते तो हम सब बा सरो चश्मा मानते के वाक़ई ये कोई मुंतखब ज़माना और मक़बूल रब्बानी हस्ती है,*

*❀"_ बर खिलाफ इसके हाल ये हैं कि हम लोग क्या माल के लिहाज़ से क्या औलाद के लिहाज़ से तुमसे मंजिलों आगे हैं, और तुम्हारा हाल जो कुछ है वो सामने है, एक तुम ही नहीं, तुम्हारे इर्द गिर्द जो हस्तियां जमा हुई हैं वो सब ऐसे लोग हैं जो हमारी सोसाइटी के सबसे निचले तबके से ताल्लुक़ रखते हैं, कोताहे नज़र और कम इल्म है, तुम लोगों को हमारे मुक़ाबले में कोई भी फ़ज़ीलत हासिल नहीं,*

*❀"_ बताओ ए मुहम्मद! कि ऐसी सूरत में कोई माक़ूल आदमी केसे तुम्हें नबी मान ले, चुनांचे हाल ये था कि जिधर से नबी ﷺ का गुज़र होता, फबतियां कसी जातीं, उंगलियां उठा उठा कर और इशारा कर कर के कहते- कि ज़रा देखना इन साहब को ये है जिनको अल्लाह ने रसूल मुक़र्रर फरमाया है, खुदा को किसी आदम जाद से रिसालत का काम लेना ही था तो क्या ले दे के यही शख्स रह गया था, क्या हुस्ने इंतिखाब है, इसी तरह इस्लामी तहरीक के अलंबरदारो पर बा हैसियत मजमुई ये फिकरा चुस्त किया जाता था कि - (तर्जुमा सूरह अल अनआम -53) क्या यही हैं वो मुमताज़ हस्तियां जिन्हें अल्लाह ने मुरातिब खास से नवाज़ने के लिए हमारे अंदर से छांट लिया है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -136,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                       
                  ★ *क़िस्त–81_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_फिर कहा जाता कि ए मुहम्मद (ﷺ) वो जिस अज़ाब की रोज़ रोज़ तुम धमकियाँ देते हो और जिसके ज़रीये अपना असर जमाना चाहते हो, उसे ले क्यों नहीं आते? उसे आख़िर किस चीज़ ने रोक रखा है? चेलेंज करके कहते - "क्यों नहीं तुम आसमान का कोई टुकड़ा गिराते हम जैसे नाफरमान काफिरो पर? अगर तुम सच्चे हो हमारा खात्मा कर डालो _," (सूरह अश शूअरा -187)*

*❀"_ फिर ये दीने असलाफ के ठेकेदार ये नुक्ता छांटते कि ऐ मुहम्मद (ﷺ) ! जब तुम बताते हो कि खुदा का़दिर व साहिबे अख्त्यार और क़ाहिर व जाबिर है तो क्यों नहीं वो हमको अपनी ताक़त के ज़ोर से उस हिदायत के रास्ते पर चलाता कि जिस पर चलने के लिए तुम हमें कहते हो, वो हमें मोहिद और नेक देखना चाहता है तो फिर हमें मोहिद बना दे और नेकी पर चला दे, उसको किसने रोक रखा है,*

*❀"_ इसी तरह वो क़यामत का मज़ाक उड़ाते, बड़े ड्रामाई अंदाज़ में दरियाफ्त करते कि ज़रा ये तो फरमाइए कि ये हादसा कब वाके़ होने वाला है? कुछ अता पता दिजिए कि उस एलान को कब पूरा होना है? क़यामत कब तक आ पहुंचने वाली है ? क्या कोई तारीख और कोई घड़ी मुईन नहीं हुई? इन चंद मिसालो से जिनकी तफ़सील क़ुरान व हदीस और सीरत की किताबो में मिलती है, अंदाज़ा कीजिए कि दुनिया के सबसे बड़े मोहसिन और इंसानियत के अज़ीम तरीन खैर ख्वाह को केसी फिज़ा से साबका़ आ पड़ा था,*

*❀"_आलमे बाला की तरफ से यक़ीन दहानी की जाती है, अल्लाह तआला अपने कलमात से खुद सामाने तस्कीन फरमाता है और साथ साथ इस मरहले से गुज़रने के लिए बार बार हिदायात दी जाती हैं, मसलन एक जामा हिदायत ये आई कि" ए नबी ﷺ नर्मी व दरगुज़र का तरीका अख्त्यार करो, मारूफ की तलकीन किए जाओ और जाहिलों से न उलझो_," (सूरह अल आ'राफ -144)*

*❀"_ यानी आसाब को झंझोड़ देने वाले और दिल व जिगर को छेद डालने वाले इस दौर के लिए आन हज़रत ﷺ को तीन तक़ाज़ो का पाबंद कर दिया गया, एक ये कि बद जु़बानियों से बेनियाज़ी का तरीक़ा अख्त्यार किया जाए, दूसरे ये कि हक़ बात कहने की ज़िम्मेदारी हर हाल में पूरी की जाएगी, तीसरे ये कि कमीने और बद अख़लाक़ और जहालत ज़दा शख़्सो के पीछे पड़ने की ज़रूरत नहीं! और क़ुरान और तारीख दोनों गवाह हैं कि आन हज़रत ﷺ ने इन हिदायात की हुदूद से बाल बराबर तजावुज़ किए बगेर ये पूरा दौर गुज़ार दिया,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -137,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                         
                  ★ *क़िस्त–82_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥ कभी कभी कुरेश को सोच बिचार से कोई अक़ली क़िस्म की दलील भी हाथ आ जाती थी, एक बात वो ये कहते थे कि हम कब बुतों को खुदावंद ताला के मुका़म पर रखते हैं, हम तो सिर्फ ये कहते हैं कि ये जिन बुज़ुर्गो की अरवाह के मज़हर हैं वो अल्लाह के दरबार में हमारे लिए शिफ़ारिश करने वाले हैं और इन बुतों के आगे सजदा व क़ुर्बानी कर के हम सिर्फ़ अल्लाह के हुज़ूर तक़र्रूब हासिल करना चाहते हैं,*

*❀"_ इसी तरह एक बात वो ये कहते थे कि हमारे नज़दीक जिंदगी सिर्फ इसी दुनिया की जिंदगी है, कोई और आलम पेश आने वाला नहीं है और ना हमें दोबारा जिंदा किया जाने वाला है, फिर आखिर हम एक ऐसे दीन को क्यों तस्लीम करें जो किसी दूसरी दुनिया का तसव्वुर दिला कर इस दुनिया के मुफाद और इसकी दिलचस्पियों से हमें मेहरूम करना चाहता है,*

*❀"_ इसी तरह एक बात वो ये कहते थे कि अगर हम दावते मुहम्मद (ﷺ) को मान लें और मौजूदा मज़हबी व माशरती निज़ाम को टूट जाने दें और अपने का़यम शुदा तसल्लुत को उठा लें तो फिर तो हममें से एक एक शख्स को दिन दहाड़े चुन चुन कर उचक लिया जाएगा, "_वो कहते हैं अगर हम तुम्हारे साथ इस हिदायत की पेरवी अख्त्यार कर लें तो अपनी ज़मीन से उचक लिए जाएंगे _," (सूरह अल क़सस - 57)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -138,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                      
                  ★ *क़िस्त–83_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_गालम गलोज की ये मुहिम कुरेश के जूनून व मुखालिफत के तेज़ होने के साथ गुंडागर्दी का रंग अख्त्यार करती चली जा रही थी, मनफी शरारत के अलंबरदार जब रुसवाई और गाली गलोज को नाकाम होते देखते हैं तो फिर उनका अगला क़दम हमेशा गुंडागरदी होता है, मक्का वालों ने आन हजरत ﷺ को तकलीफ देने के लिए वो कमीनी हरकतें की हैं कि साहिबे रिसालत ﷺ के अलावा कोई और दाई होता तो बड़ी से बड़ी उलुल अज़मी के बावजूद उसकी हिम्मत टूट जाती और वो क़ौम से मायूस हो कर बेठ जाता,*

*❀"_ लेकिन रसूले खुदा ﷺ की शराफत और संजीदगी गुंडा गरदी के चढ़े हुए दरिया में से भी पाक दामन को कमल की तरह सही सलामत लिए आगे ही आगे बढ़ती जा रही थी, वो हरकतें जो रोज़ मर्रा का मामूल बन गई, ये थीं कि आपके मोहल्लेदार जो बड़े बड़े सरदार थे बड़े अहतमाम से आपके रास्ते में काँटे बिछाते थे, नमाज़ पढ़ते वक्त शोर मचाते और हंसी उड़ाते, सजदे की हालत में ओझड़ियां ला कर डालते, चादर को लपेट कर गला घोंटते, मोहल्ले के लड़कों को पीछे लगा देते कि तालियां पीटे और शोर करे, कुरान पढ़ने की हालत में आपको कुरान को और खुदा ताला को गालियां देते,*

*❀"_ इस मामले में अबु लहब के साथ उसकी बीवी बहुत पेश पेश थी, वो बिला नागा कई साल तक आपके रास्ते में गलाज़त और कूड़ा करकट और कांटे जमा करके डाला करती थी और आन हजरत ﷺ रोजना बड़ी मेहनत से रास्ता साफ करते, आपको उस कंबख्त ने इस दर्जा परेशान रखा कि अल्लाह तआला ने आपकी तस्कीन के लिए ये खुश खबरी सुनाई कि मुखालिफ मुहाज़ की इस लीडर के शोहर नामुराद के इजा़ रसां हाथ टूट जाने वाले हैं और खुद ये बेगम साहिबा भी दोज़ख के हवाले होने वाली है,*

*❀"_ एक मर्तबा हरम में आन हजरत ﷺ नमाज़ में मसरूफ थे कि उक़बा बिन अबी मुहीत ने चादर आपके गले में डाली और उसे खूब मरोड़ कर गला घोंटा, यहां तक कि आप घुटनों के बल गिर पड़े, इसी शख्स ने एक मर्तबा नमाज़ की हालत में आप पर ओझडी़ भी डाली थी,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -139,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                      
                  ★ *क़िस्त–84_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_एक मरतबा आप ﷺ रास्ते चलते जा रहे थे कि किसी शकी़ ने सर पर मिट्टी डाल दी, इसी हालत में आप ﷺ सब्र व इस्तेक़ामत के साथ चुप चाप घर पहुँचे, मासूम बच्ची फातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने देखा तो आपका सर धोती जाती थीं और साथ साथ मारे गम के रोती जाती थी, आपने उस नन्ही सी जान को तसल्ली दी कि बेटी! रोओ नहीं खुदा तेरे बाप को बचायेगा_,"*

*"❀_ एक और मरतबा आप ﷺ हरम ने नमाज़ में मसरूफ थे कि अबु जहल और चंद और कुरेश को तवज्जो हुई, अबु जहल कहने लगा - काश इस वक्त कोई जाता और ऊंट की ओझ नजासत समेत उठा लाता ताकी जब मुहम्मद (ﷺ) ) सजदे में जाता तो उसकी गर्दन पर डाल देता, उक़बा ने कहा कि ये खिदमत अंजाम देने के लिए बंदा हाजिर है, ओझ लाई गई और आप ﷺ के ऊपर सजदे की हालत में डाल दी गई,*

*"❀_ क़ुरेश ठाठे मार कर हंसी उड़ा रहे थे, हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा को इत्तेला हुई तो आप दौड़ी आई और पाक बाज़ बाप की मासूम बच्ची ने वो सारा गलाज़त का बोझ आपके ऊपर से हटाया साथ साथ उक़बा को बद दुआएं भी देती जाती थीं,*

*"❀_कांटे बिछा कर चाहा गया कि तहरीक हक़ का रास्ता रुक जाए, गंदगी फैंक कर कोशिश की गई कि तोहीद और हुस्ने अखलाक़ के पैगाम की पाकीज़गी को खत्म कर दिया जाए, आन हजरत ﷺ को बोझ तले दबा कर ये तवक्को़ की गई कि बस अब सच्चाई सर न उठा सकेगी, आपका गला घोंट कर ये ख्याल किया गया कि बस अब वही ए इलाही की आवाज़ बंद हो जाएगी,*

*"❀काँटों से जिसकी तवाजो़ की गई वो बराबर फूल बरसाता रहा, गंदगी जिसके ऊपर उछाली गई वो मा'शरे पर मुसलसल मुश्क व अंबर छिड़कता रहा, जिस पर बोझ डाले गए वो इंसानियत के कंधे से बातिल के बोझ मुतावातर उतारता रहा, जिसकी गर्दन घोंटी गई वो तहज़ीब की गर्दन को रस्मियत के फंदों से निजात दिलाने में मसरूफ रहा, गुंडा गर्दी एक सानहा के लिए भी शराफत का रास्ता न रोक सकी,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -140,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                   
                  ★ *क़िस्त–85_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_हिमायतियों को तोड़ने की कोशिश:-*
*"❀_ दावते हक़ के मुखालिफीन जब पानी सर से गुज़रता देखते है तो एक मुहीम ये शुरू करते हैं कि तहरीक या उसके क़ाइद और अलंबरदारों को सोसाइटी में हर क़िस्म की मोअस्सिर हिमायत व हमदर्दी से मेहरूम करा दिया जाए, बराहे रास्त असर न डाला जा सके तो बिल वास्ता तरीक़े से दबाव डाल कर तब्दीली के सिपाहियों को बेबस कर दिया जाए,*

*"❀_ इधर दाई हक़ आन हजरत ﷺ अपने चाचा अबु तालिब की सरपरस्ती में थे और ये सरपरस्ती जब तक क़ायम थी गोया पूरे हाशमी क़बीले की असबियत आन हजरत ﷺ के साथ थी, मुखालिफीन ने अब पूरा ज़ोर इस बात पर सर्फ कर दिया कि किसी तरह अबु तालिब पर दबाब डाल कर आन हजरत ﷺ को उनकी सरपरस्ती से मेहरूम कर दिया जाए,*

*"❀_ दबाव डालने का ये सिलसिला देर तक ज़ारी रहा, मगर मुखालिफीन को हर बार नाकामी हुई, एक रोज़ कुरेश का वफद आन हजरत ﷺ के चाचा के पास पहुंचता है, ये लोग अपना मुद्दा यूं बयान करते हैं:-*
*"_ अबु तालिब! तेरा भतीजा हमारे खुदावंदो और ठाकुरो को गालियां देता है, हमारे मज़हब में ऐब छाँटता है, हमारे बुज़ुर्गो को अहमक कहता है और हमारे असलाफ को गुमराह शुमार करता है, अब या तो तुम उसे हमारे खिलाफ ऐसी ज़्यादतियां करने से रोको या हमारे और उसके दर्मियान से तुम निकल जाओ, क्योंकि तुम भी (अकी़दा व मसलक के लिहाज़ से) हमारी तरह उसके खिलाफ हो, उसकी जगह हम तुम्हारे लिए काफी होंगे _,"*

*❀"_ अबू तालिब ने सारी गुफ्तगु ठंडे दिल से सुनी और नरमी से समझा बुझा कर मामला टाल दिया और वफद को रुखसत कर दिया, आन हजरत ﷺ बा दस्तूर अपने मिशन की खिदमत में लगे रहे और कुरेश पेच व ताब खाते रहे,*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -141,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
     
                  ★ *क़िस्त–86_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ मुखालिफ़ीन फिर आते हैं - "ऐ अबू तालिब! तुम हमारे दरमियान उमर शर्फ और क़द्रो क़ीमत के लिहाज़ से एक बड़ा दरजा रखते हो, हमने मुतालबा किया था कि अपने भतीजे से हमें बचाओ लेकिन तुमने ये नहीं किया, और ख़ुदा की क़सम जिस तरह हमारे बाप दादा को गालियाँ दी जा रही है, जिस तरह हमारे बुज़ुर्गो को अहमक क़रार दिया जा रहा है और जिस तरह हमारे मआबूदों पर हर्फ़ गीरी की जा रही है, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते, इला ये कि तुम उसे बाज़ रखो या फिर हम उससे भी और तुमसे भी लड़ेंगे, यहां तक कि एक फरीक़ का खात्मा हो जाए,*

*"❀_ अबू तालिब ने आन हजरत ﷺ को बुलाया और सारा माजरा बयान किया, फिर लजाजत से कहा कि भतीजे! मुझ पर ऐसा बोझ न डालो जिसका उठाना मेरे बस से बाहर हो_,"*

*❀"_ अब ऐसी सूरत आ गई थी कि पांव जमाने के लिए सहारे का जो एक पत्थर हासिल था वो भी मुत्ज़लज़ल हुआ जाता था, बा ज़ाहिर तहरीक के लिए इंतेहाई ख़तरनाक लम्हा आ गया था, लेकिन दूसरी तरफ़ देखिए उस जज़्बा सादिका़ और उस अज़मियत मुजाहिदाना को कि जिससे सरशार हो कर आन हज़रत ﷺ ये जवाब देते हैं:- चाचा जान! खुदा की क़सम यह लोग अगर मेरे दाएं हाथ पर सूरज और बाएं हाथ पर चांद रखकर चाहें कि इस मिशन को छोड़ दूं तो मैं इससे बाज़ नहीं आ सकता, यहां तक कि या तो अल्लाह ताला इस मिशन को गालिब कर दे या मैं इसी जद्दो जहद में खत्म हो जाऊं।*

*❀"_ यहां वो असली ताक़त बोल रही है जो तारीख़ को उलट पलट के रख देती है और मज़ाहमतों और शरारतों को कुचलती हुई अपने नस्बुल ऐन तक जा पहुंचती है, अफसोस कि कुरेश इसी ताक़त का राज़ ना पा सके, अबू तालिब इसी ताकत की सहर आफरीन से मुतास्सिर हो कर कहते हैं के, भतीजे! जाओ जो कुछ तुम्हें पसंद है उसकी दावत दो, मैं किसी चीज़ की वजह से तुमको नहीं छोडूंगा _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -143,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                         
                  ★ *क़िस्त–87_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_एक और वफद अमरह बिन वलीद को साथ ले कर फिर आया, अब के ये लोग एक और ही मनसूबे के साथ आते हैं, अबू तालिब से कहते हैं कि देखिए ये अमरह बिन वलीद है जो कुरेश में से एक मज़बूत और खूबसूरत तरीन जवान है, इसे ले लीजिए, इसकी अक़ल और इसकी ताक़त आपके काम आएगी, इसे अपना बेटा बना लीजिए और इसके एवज़ में मुहम्मद (ﷺ) को हमारे हवाले कर दीजिए, जिसने आपके और आपके आबाओ अज़दाद के दीन की मुखालफत शुरू कर रखी है और आपकी क़ौम का शीराजा़ दरहम बरहम कर दिया है, और उनके बुर्जुगों को अहमक ठहराया है, उसे हम क़त्ल कर देना चाहते हैं, सीधा सीधा एक आदमी के बदले में हम एक आदमी आपको देते हैं,*

*"❀__ वफ़द की गुफ्तगू सुन कर यक़ीनन अबु तालिब के जज़्बात पर बड़ी चोट लगी और कहा कि तुम लोग ये चाहते हो कि तुम्हारे बेटे को तो मैं ले कर पालू पोसु और मेरे बेटे को तुम ले जा कर तलवार के नीचे से गुज़ार दो, अब्द तक ऐसा नहीं हो सकता,*

*"❀__ मामला बढ़ गया, कश्मकश की फिज़ा गरम हो गई और खुद वफद के इत्तेफाक़े राय का रिश्ता टूट गया, अब कुरेश ने आन हजरत ﷺ के रफ़क़ा पर साख्तियां करने के लिए उन तमाम क़बीलों को उकसाना शूरू किया जिनमे तहरीके इस्लामी का कोई फर्द पाया जाता था, ज़ुल्म ढाये जाने लगे, इस्लाम से हटाने के लिए ज़ुल्म व ज़ोर से काम लिया जाने लगा,*

*❀_"_ लेकिन अल्लाह ने अपने रसूल को अबु तालिब की आड़ खड़ी कर के बचा रख था, अबु तालिब ने कुरेश के बिगड़े तेवर देख कर बनू हाशिम और बनू मुत्तलिब के सामने आन हजरत ﷺ की हिफाज़त के लिए अपील की, लोग जमा हुए और आप ﷺ की हिमायत के लिए तैयार हो गए, मगर अबू लहब ने सख़्त मुख़ालफ़त की और बात तय न हो सकी,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -144,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                        
                  ★ *क़िस्त–88_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥- आगे चल कर जब तहरीके हक़ ने मुखालिफीन की सफो में से हमज़ा और उमर रज़ियल्लाहु अन्हुम जेसी दो हस्तियां चुन ली तो पेच व ताब की नई लहर उठी, मेहसूस किया गया कि मुहम्मद ﷺ की चली हुई हवा तो अब घर घर में महक रही है, कुछ करना चाहिए, अबू तालिब की बीमारी की हालत में ये लोग फिर पहुंचे, अब की स्कीम ये थी कि मुआहिदा (समझौता) हो जाए, वफद ने कहा कि जो कुछ सूरते हाल है उसे आप जानते हैं, अपने भतीजे को बुलवाइए, उसके बारे में हमसे अहद लीजिए और हमारे बारे में उसका अहद दिलवाइए, वो हमसे बाज़ रहे हम उससे बाज़ रहे, वो हमसे और हमारे मज़हब से वास्ता ना रखे, हम उससे और उसके मज़हब से वास्ता नहीं रखते हैं,*

*"❀__ रसूले पाक ﷺ बुलवाए जाते हैं, बात होती है और आप सारा मुतालबा सुनने के बाद जवाब देते हैं, ऐ अशरफे कुरेश! मेरे इस एक कलमे को मान लो तो फिर अरब व अजम सब तुम्हारे जे़रे नगीं ( मातहत) होंगे,*

*❀_"_ अबू जहल ने तंग आ कर कहा - हां! तेरे बाप की क़सम! एक क्यों दस कलमे चलेंगे _," कोई दूसरा बोला- ये शख्स तो खुदा की क़सम तुम्हारी मर्जी की कोई बात मानने को तैयार नहीं, इसके बाद ये लोग मायूस हो कर चले गए,*

*❀_"_ लेकिन उस वफद की गुफ्तगू ने चंद हक़ीक़तों को नुमाया कर दिया, एक ये कि अब तहरीके इस्लामी को वो एक ऐसी ताक़त मानने पर मजबूर हो गए थे जिसको उखेड़ने की कोशिश करने से ज़्यादा बेहतर समझौते की कोई राह निकालना था, दूसरे ये कि कुरेश सारी शरारतों और ज़्यादतियों को आज़माने के बाद अब अपनी बेबसी को महसूस कर रहे थे,*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -144,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                   
                  ★ *क़िस्त–89_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ इंसाने आज़म ﷺ औलादे आदम की जिस सबसे बड़ी खिदमत में मसरूफ थे उसको नाकाम बनाने के लिए मुखालिफीन जिन मुख्तलिफ तदबीरो से काम ले रहे उन सबके बवजूद दावत का काम ज़ारी था और कलमा हक़ कोंपले निकाल रहा था,*

*❀"_ मक्का मरकज़े अरब था और हर तरफ़ से क़ाफ़िले आते जाते थे और दाई हक़ के लिए काम का नित नया मैदान फ़राहम करते, सरदारे मक्का की जो धोंस ख़ुद मक्का के बासिंदों पर चलती थी वो बाहर से आने वालों पर नहीं चल सकती थी, तशवीशनाक मोक़ा इस पेहलू के लिहाज़ से हज का था, क़बाइल अरब ज़ोक दर ज़ोक मय अपने सरदारों के मक्का में इकट्ठे होते और नबी अकरम ﷺ अपना पैगाम फेलाने के लिए खैमा बा खैमा गर्दिश में मसरूफ़ हो जाते,*

*"❀_चुनांचे एक साल मौसम हज की आमद थी कि वलीद बिन मुगीरा के यहां कुरेश जमा हुए और सर जोड़ कर सोच विचार में मसरूफ हो गए, झूठे प्रचार के लिए साजिश की जाती है, दिल जिस बात को नहीं मानते उसी को ले कर मुखालिफाना हंगामा जारी रखने की स्कीम बनती है, चुनांचे इस मजलिस में तय हो गया कि मुख्तलिफ पार्टियां मक्का को आने वाले रास्ते पर चौकियां लगा दे, और आने वाले हर वफ़द को मुहम्मद (ﷺ) और आपकी दावत के बारे में चोकन्ना कर दें,*

*❀"_चुनांचे इस मनसूबे पर अमल किया गया, लेकिन नतीजा उल्टा हुआ, आन हजरत ﷺ का चर्चा अरब के कोने तक फेल गया और जिनको कुछ नहीं मालूम था उनको भी मालूम हो गया कि एक नई दावत ऐसी उठी है और उसकी अलंबरदार शख्सियत मुहम्मद ﷺ की है _,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -147,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                   
                  ★ *क़िस्त–90_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥- रबी'आ बिन उबादा का बयान है कि मैं मीना में अपने बाप के साथ मौजूद था, जब मैं एक नोखेज़ लडका था और देखा कि रसूलुल्लाह ﷺ अरबी क़बीलों की अक़ामत गाहो में जा जा कर रुकते और फरमाते - " ए बनी फलां! मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का रसूल हूं, तुमसे कहता हूं कि अल्लाह की इबादत करो, और उसके साथ किसी को शरीक न करो और उसके अलावा उन बुतों में से जिसकी भी इबादत कर रहे हो उससे अलग हो जाओ और मुझ पर ईमान लाओ, मेरी तसदीक करो और मेरी हिमायत करो यहां तक कि मैं अल्लाह की तरफ से सारी बात खोल कर रख दूं जिसके साथ उसने मुझे मामूर किया है _,"*

*❀_"_ एक शख्स अदनी चादर ओढ़े आन हजरत ﷺ के साथ साथ लगा था, जब रसूलुल्लाह ﷺ अपनी बात फरमा चुके तो ये शख्स अपनी हांकना शुरू कर देता कि, ऐ बनी फलां! ये शख्स तुमको लात व उज्जा़ से हटाकर बिदअत व गुमराही की तरफ खींच ले जाना चाहता है, पस न इसकी सुनो ना इसकी बात मानो_,*
*"_ वो नोजवान ये मंज़र देख कर अपने बाप से पूछता है कि कौन है जो आन हज़रत ﷺ के पीछे लगा हुआ है और आपकी बात की तर्दीद कर रहा है, जवाब मिलता है कि ये आपका अपना ही चाचा अबु लहब है,*
       
*❀_नबी करीम ﷺ हज की तरह मेलों के इज्तिमात में भी तशरीफ ले जाते थे, ताकी इंसानी इज्तिमा से फायदा उठायें, एक मर्तबा बाज़ार जु़लजाज़ में पहुंचे और लोगों को हक़ का पैगम सुना कर कलमा तैय्यबा की दावत दी , अबू जहल साथ लगा था, कम्बख़्त को बुग्ज़ व कीना ने इतना पस्त कर दिया था कि मिट्टी उठा उठा कर आप पर फ़ैंकता और साथ साथ पुकारता के लोगों इसके क़रीब में ना आना, ये चाहता है कि लात व उज्जा़ की परिस्तिस छोड़ दो,*

*❀_"_ मुखालीफ़ाना प्रोपगंडा की इस तूफ़ानी मुहीम से अबू तालिब को तशवीश भी लाहिक़ हुई कि कहीं अरब के अवाम इज्तिमाई मुखालफत पर ना उतर आएं, उन्होन एक तवील कसीदा लिख कर काबा में लटका दिया जिसमें एक तरफ ये सफाई दी कि मैने दावत ए मुहम्मद ﷺ को कुबूल नहीं किया, लेकिन दूसरी तरफ ये एलान भी किया कि किसी क़ीमत पर मुहम्मद को नहीं छोड़ सकता और उसके लिए अपनी जान तक दे दूंगा,*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -148,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
              
                  ★ *क़िस्त–91_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥- जब कभी कोई अहम शख्सियत मक्का में वारिद होती तो तहरीके इस्लामी के मुखालिफीन उसको रसूलुल्लाह ﷺ के असर से बचाने के लिए पूरा जतन करते, मगर बसा औकात असर उल्टा होता, इस क़िस्म के चंद ख़ास वाक़ियात का तज़किरा ज़रुरी मालूम होता है,*

*❀"_ तुफेल बिन अमरू दोसी एक शरीफ मर्द और लबीब शायर था, एक मर्तबा वो आया, बाज़ कुरेश के अफराद उसके पास पहुंचे, कहने लगे कि तुफेल! देखो तुम हमारे शहर में आए हो और यहां मुहम्मद (ﷺ) की सरगर्मियां हमारे लिए ना का़बिले बर्दाश्त बनी हुई हैं, उस शख्स ने हमारी वेहदत का शिराजा़ बिखेर दिया है और हमारे मुफाद को टुकड़े टुकड़े कर दिया है, उसकी बात जादूगरों जैसी है, और ये बेटे और बाप में भाई और भाई में शोहर और बीवी में जुदाई डलवा रहा है, हमें तुम्हारे और तुम्हारी क़ौम के बारे में अंदेशा है कि तुम कहीं उसके शिकार ना हो जाओ, पस बेहतर ये है कि उस शख्स से ना तो बात करना और ना उसकी कोई बात सुनना,*

*"❀_ तुफेल बिन अमरू दोसी रज़ियल्लाहु अन्हु का अपना बयान है कि उन लोगों ने उस वक्त तक पीछा न छोड़ा जब तक कि मैं पूरी तरह काइल न हो गया कि ना बात करूंगा ना सुनूंगा, चुनांचे जब मैं मस्जिदे हराम की तरफ जाता तो कानों में रूई ठूंस लेता,*

*❀"_ एक मर्तबा रसूलुल्लाह ﷺ काबा के पास इबादत में खड़े थे तो मैं भी क़रीब जा कर खड़ा हुआ, मैंने बहुत ही ख़ूब कलाम सुना, फिर दिल में मैंने कहा कि मेरी माँ मुझे रोए, खुदा की क़सम मै एक साहिबे अक़ल आदमी हूं, शायर हूं, बुरे भले की पहचान कर सकता हूं, फिर क्या चीज़ मुझे उन बातों को सुनने से रोक सकती है जिन्हें ये कहता है, जो पैगाम ये लाया है वो अगर भला होगा तो मैं कुबूल कर लुंगा, अगर बुरा होगा तो छोड़ दूंगा_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -149,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                       
                  ★ *क़िस्त–92_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥- इसी सोच बिचार में कुछ वक्त गुजर गया, अब हुजूर ﷺ घर को चले, तुफेल रजियाल्लाहु अन्हु भी साथ हो गए, रास्ते में सारा क़िस्सा सुनाया कि मुझे कुरेश ने किस चक्कर में डाल रखा है, फिर मकान पर पहुंच कर दरख्वास्त की कि अपना पैगाम इरशाद फरमाइए,*

*"❀_ रसूलुल्लाह ﷺ ने इस्लाम की हक़ीक़त बयान की और क़ुरआन पढ़ कर सुनाया, तुफैल रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि "ख़ुदा की क़सम! न इससे बढ़ कर अच्छा कलाम मैंने कभी सुना न इससे बढ़ कर सच्चा पैगाम,*

*❀"_ और फिर वो बताते हैं कि मैं इस्लाम ले आया और हक़ की गवाही दी, तुफेल दौसी रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने क़बीले में जा कर पुरजोश तरीक़े से दावत का काम किया और पूरा क़बीला मुतास्सिर हुआ, इनके तब्लीगी जोश का ये आलम था कि घर पहुंच कर जोंही ज़ईफुल उमर वालिद से मुलाक़ात हुई, कहने लगे कि ना आप मेरे ना मैं आपका! उन्होंने पूछा_बेटे ये क्यों? जवाब दिया कि अब मैंने मुहम्मद ﷺ का दीन कुबूल कर लिया है और आपकी पेरवी कर ली है, वालिद ने कहा कि बेटे! जो तेरा दीन है वही मेरा भी होगा, फोरन नहा कर इस्लाम कुबूल किया,*

*❀"_ तुफेल रज़ियल्लाहु अन्हु ने इसी तरह अपनी बीवी को दावत दी और उसने भी लबबेक की, फिर क़बीले में दावत ए आम का सिलसिला शुरू किया, बाद में आकर आन हजरत ﷺ की खिदमत में रुदाद बयान की और अपने क़बीले की खराबियां बयान कर के दुआ ए अज़ाब की दरख़्वास्त की, मगर हुज़ूर ﷺ ने हिदायत की दुआ की और तुफैल रज़ियल्लाहु अन्हु को ताकीद की कि वापस जा कर अपने लोगों में दावत जारी रखो और ख़ास नसीहत की कि उनके साथ नर्मी बरतो,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -150,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–93_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ आ'शा बिन क़ैस भी एक मुमताज़ शायर था, उसने रसूलुल्लाह ﷺ का चर्चा सुना और इस इरादे से मक्का का रूख किया कि जा कर इस्लाम क़ुबूल करे, उसने आन हज़रत ﷺ की शान में क़सीदा भी कहा था, अब जोंही ये मक्का की हुदूद में पंहुचा एक कुरेश मुशरिक ने आ घेरा और उसके मक़सद के बारे में खोज कुरेद की,*

*"❀_ उसने बताया कि मैं रसूलुल्लाह ﷺ की खिदमत में जा कर इस्लाम क़ुबूल करना चाहता हूँ, इस पर बात चल पड़ती है, मुशरिक हिला तराज़ ने आ'शा की दुखती रगो को टटोलने के लिए कहा कि देखो मुहम्मद (ﷺ) तो ज़िना को हराम ठहराता है, ये वार ओछा पड़ा तो फिर कहा कि वो तो शराब से भी रोकता है, यहां तक कि बातों बातों में आ'शा के इरादे को कमज़ोर कर दिया,*

*❀"_ चुनांचे उसने ये मनवा लिया कि इस मर्तबा तो तुम वापस चले जाओ और अगले बरस आ कर इस्लाम क़ुबूल कर लेना, आ'शा वापस चला गया और इसे पहले कि वो मक्का लौटता बद नसीब की मौत वाक़े हो गई_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -151,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
               
                  ★ *क़िस्त–94_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ सबसे ज़्यादा दिलचस्प वाक़िआ मर्द अराशी का है, ये मक्का में आया साथ ऊंट था जिसका सौदा अबु जहल ने चुका लिया, मगर क़ीमत की अदायगी में टाल मटोल किया, अब ये कुरेश के मुख्तलिफ लोगो के पास गया कि कोई ऊंट की क़ीमत दिलवा दे, वहां एक मजलिस आरास्ता थी, अराशी ने अहले मजलिस से अपील की कि आपमे से कोई मेरी रक़म अबू जहल से दिलवा दे, मैं एक मुसाफिर बेवतन हूं और मेरे साथ ज़्यादती हो रही है,*

*"❀_ अहले मजलिस में किसी की जुर्रत न थी कि वो अबु जहल से जा कर एक मुसाफिर का हक़ दिलवाए, इस बात को टालने के लिए इशारा कर के कहने लगे कि वो देखते हो एक शख्स (मुहम्मद ﷺ) बैठा है, उसके पास जाओ वो वसूली करा देगा, दर असल ये एक तरह का मज़ाक था क्योंकि मुहम्मद ﷺ से अबू जहल को जो अदावत थी वो ज़ाहिर थी,*

*"❀_ अराशी आन हज़रत ﷺ के पास पहुँचा और अपना माजरा बयान कर के मदद तलब की, आन हज़रत ﷺ उठे और फरमाया मेरे साथ आओ, वो लोग देखने लगे कि अब क्या होता है, रसूलुल्लाह ﷺ हरम से निकल कर अबु जहल के घर पर आए, दरवाज़ा खटखटाया, आवाज़ आई कौन है? फरमाया - मुहम्मद! बाहर आओ मेरे पास, अबु जहल निकला, चेहरे का रंग बिलकुल उड़ा हुआ था, आपने फरमाया - इस शख्स का हक़ इसे दे दो, चुनांचे बे चूं चरा अबू जहल ने अदायगी कर दी_,"*

*"❀_ अराशी खुश खुश हरम की उस मजलिस की तरफ पलटा और वाक़िया सुनाया, ये असर था उस अज़ीम किरदार का जो मुहम्मद ﷺ की ज़ात में जलवागर था, इसका एतराफ़ ख़ुद अबू जहल ने किया और अहले मजलिस से आ कर कहा कि उसने (मुहम्मद ﷺ ने) आकर दरवाज़ा खटखताया मैंने उसकी आवाज़ सुनी और यकायक एक रौब मुझ पर तारी हो गया,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -151,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–95_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_मुहाजिरीन ए हब्शा के ज़रीये इस्लाम का पैगाम एक नए इलाक़े में जा पहुँचा तो वहां से 20 ईसाईयों का एक वफ़द मक्का आया, ये लोग मस्जिदे हराम में आन हज़रत ﷺ की ख़िदमत में आए, बैठे बात की और सवालात पूछे, आन हज़रत ﷺ ने क़ुरान सुनाया और दावते हक़ पेश की, उन लोगों की आँखों में आँसु भर आए, अल्लाह की पुकार को क़ुबूल किया, ईमान लाये और नबी करीम ﷺ की तसदीक़ की,*

*❀"_ जब ये उठ कर निकले तो बाहर कुरैशी मुखालिफीन मस्जिद के गिर्द मंडला रहे थे, अबु जहल ने इस गिरोह को निशाना अलामत बनाया कि तुम भी क्या अहमक लोग हो जो अपने दीन को खैरबाद कह दिया, वफद वालों ने जवाब दिया, आप लोगों को हमारी तरफ से सलाम अर्ज़ है, हमें आपके साथ कोई झगड़ा नहीं करना, हमारा रास्ता अलग, आपका रास्ता अलग! हम अपने आपको एक भलाई से मेहरूम नहीं रखना चाहते _,"*

*❀"_ बैत ए उक़बा सानिया की सारी कार्रवाई रात की तारीकी में बड़े अहतमाम इख़फ़ा के साथ इसी वजह से अमल में लाई गई थी कि अशरारे मक्का की तरफ़ से सख़्त मज़ाहमत थी, अहले वफ़द जब बैत की मजलिस से फारिग हो कर क़यामगाहो में पहुंचे तो कुरेश के सरदारों ने उनको पकड़ा लिया, इनकी मुखबरी का निज़ाम ऐसा मज़बूत था कि उन्होंने बैत का क़िस्सा बयान कर के कहा कि तुम हमारे आदमी (मुहम्मद ﷺ) को निकाल ले जाना चाहते हो और उसके हाथ पर तुमने हमारे खिलाफ जंग करने का पैमान बांधा है, खूब समझ लो कि तुम लोग अगर हमें और अहले अरब को लड़ा दोगे तो तुमसे बढ़ कर काबिले नफ़रत हमारी निगाहों में कोई दूसरा नहीं हो सकता _,"*

*❀"_ अंसार ने बात को छुपाने की कोशिश की, चुनांचे उस वक्त़ तो बात टल गई और अंसारी काफिला रवाना हो गया, लेकिन कुरेश बाद में बराबर तजज्सुस में लगे रहे और पूरी इत्तेला पा ली, अंसारी काफिले का पीछा किया गया और सा'द बिन उबादा और मंज़र बिन अमरू रज़ियल्लाहु अन्हुम उनके हाथ आ गए, ये दोनो अपने क़बिलों पर बैत के दौरान नक़ीब मुक़र्रर हुए थे, मंज़र तो थे ही कमज़ोर आदमी, साद बिन उबादा को कुरेश ने पकड़ लिया और उनके हाथ गर्दन के साथ बांध दिए और गिरफ्तार कर के मक्का ले गए, मक्का पहुंच कर खूब मारा, उनके बाल पकड़ कर झंझोड़ा _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -151,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–96_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥-- सा'द बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु का खुद अपना बयान है कि इसी हालत में कुरेश का एक आदमी आया जिसका चेहरा रोशन और वजाहतदार था, लंबा और खूबसूरत! मैंने दिल में कहा कि अगर इस क़ौम में कोई खैर बाक़ी है तो इसकी तवक़्को़ इसी शख्स से की जा सकती है, वो जब क़रीब आया तो उसने हाथ उठा कर ज़ोर से मुझे थप्पड़ लगाया, अब दिल में मैंने समझ लिया कि इस गिरोह में भलाई की कोई रमक बाक़ी नहीं,*

*❀"_आखिर एक शख्स ने नरमी के साथ पूछा कि क्या तुम्हारा कोई आदमी कुरेश में ऐसा नहीं है कि जिससे तुम्हारा कोई भाईचारा या कोई अहद व पैमान हो? मैंने जुबेर बिन मुत'अम और हारिस बिन हर्ब के नाम लिए, उसने कहा फिर पुकारो उनके नाम और जो ताल्लुक़ उनके साथ है उसे बयान करो, चुनांचे मैंने ऐसा ही किया, वही शख्स उन्हें ढूंढ़ने निकला, वो दोनो पास ही मिल गए और उन्होंने आ कर मुझे छुड़वाया,*

*❀"_इस्लाम की मुख़ालफ़त की मुहिम का एक सरखील नफ़र बिन हारिस भी था, ये अपनी तिजारत के लिए अक्सर फारस जाता, वहां से शाहाने अजम के तारीखी किस्से भी जमा कर लाता और अदबी अंदाज से कहानियां भी, चुनांचे इसने मक्का में क़ुरान के इंक़िलाबी अदब के मुक़ाबले पर हजम के सल्फ़ी अदब का अड्डा क़ायम किया और लोगों को दावत देता कि मुहम्मद (ﷺ) से आद व समूद के फीके क़िस्से क्या सुनते हो, आओ मै तुमको रुस्तम व अस्फनाद की सरज़मीन की चटपटी कहानियां सुनाऊं_,"*

*❀"_ नफ़र बिन हारिस को एक मुस्तक़िल इंसानी किरदार बना कर क़ुरआन ने हमारे सामने रखा है कि:- "और लोगों में एक किरदार ऐसा भी है जो दिल बहलाने के अफ़सानों का ख़रीदार है ताकी उनके ज़रीये (लोगों को) अल्लाह के रास्ते से बैगर समझे बूझे बहकाये और उसका मज़ाक उडा़ये _," (सूरह लुक़मान -2)*         

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -152,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–97_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ ये नफर बिन हारिस वो है जिसने एक मजलिस में अबू जहल के सामने दावते मुहम्मद ﷺ के मोजु़ पर ये तक़रीर की थी:- ए गिरोह कुरेश! तुम्हारे ऊपर एक मामला आ पड़ा है कि आगे चल कर इसके खिलाफ तुम्हारा कोई हीला कारगार ना होगा, मुहम्मद (ﷺ) तुम्हारे दरमियान एक मन मोहना नो खेज़ लडका था, तुम सबसे बढ़ कर रास्त गो, तुम सबसे बढ़ कर अमानतदार! यहां तक कि जब उसकी कनपटीयो में सफेद बाल आ गए और उसने तुम्हें अपना वो पैगाम दिया तो अब तुम कहते हो कि वो जादूगर है, कहते हो कि वो काहिन है,.. कहते हो कि वो शायर है... और कहते हो कि वो दीवाना है.. इनमे से कोई बात भी दुरुस्त नहीं है, ऐ गिरोह कुरेश! अपने मोक़ुफ पर गौर करो, क्योंकि बाखुदा तुम्हारे सामने एक अमरे अज़ीम आ चुका है _,"*

*❀"_ नफर बिन हारिस की ये तक़रीर बताती है कि वो दावते मुहम्मद ﷺ कि अज़मत को भी समझता था और मोहसिन ए इंसानियत के किरदार की रफ़'अत से भी आगाह था, वो अपने ज़मीर को पामाल कर के हुज़ूर ﷺ के पैगाम की मुखालिफत के लिए शैतानी तर्कीबे निकालता था, उसे अंदाज़ था कि एक बा मक़सद तहरीक के संजीदा पैगाम के मुक़ाबले में आम लोगो के लिए सल्फ़ी अदब में ज़्यादा कशिश हो सकती है, इसलिए उसने सल्फ़ी अदब के एक मकतब की इब्तिदा कर दी,*

*"❀_ नफर बिन हारिस कहा करता था, "मैं मुहम्मद (ﷺ) से ज्यादा दिलचस्प कहानियां पेश करता हूं, फिर जब वो अजमी दास्ताने बयान करता तो कहता कि आखिर मुहम्मद (ﷺ) की बात किस पहलू से मेरी बातों से ज़्यादा दिलचस्प है, दूसरी तरफ वो हुजूर ﷺ के कलाम पर असातीर अव्वलीन की फबती कसता,*

*"❀_ इतना ही नहीं उसने गाने बजाने वाली एक फनकार लोंडी भी खड़ी की थी, लोगों को जमा करके खाने खिलाता था, फिर उस लोंडी से गाने सुनवाता, जिस नौजवान के मुताल्लिक़ मालूम हो जाता कि वो इस्लाम की तरफ रागिब हो रहा है तो उसके यहां फनकार लोंडी को ले जाता और उसे हिदायत करता कि जरा इसे खिला पिला और मोसिकी़ से शाद काम कर, आर्ट और कल्चर के ऐसे मजा़हिरे के बाद तंज़ कर के कहता कि मुहम्मद (ﷺ) जिस काम की तरफ बुलाते है वो मज़ेदार है या ये?*
 *®_( सीरते मुस्तफा- मौलाना इदरीस कांधलवी -1/188)*

*❀"_ लेकिन पैगामे हक़ और एक बा मक़सद तहरीक के मुक़ाबले में ये सब नतीजा ख़ैर साबित न हुए, चार दिन धूम धाम रही फिर ये सारे हंगामे ठंडे पड़ गये,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -153,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–98_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥ -चुनांचे अपने इस हरबे में नाकाम हो कर यही नफर बिन हारिस कुरेश के सरदारों के मशवरे से यहूदियों के मोलवियों के पास मदीना पहुंचा कि तुम इल्म रखते हो तो हम बे इल्मों को बताओ कि हम तहरीके इस्लामी से कैसे निपटें, और केसे दाई हक़ को किसी शिकस्त दें, उलमा ए यहूद ने सिखाया कि उस शख्स से असहाबे कहफ और ज़ुल क़रनैन का क़िस्सा दरियाफ़्त करो और रूह की हक़ीक़त पूछो, चुनांचे फ़ैसलाकुन अंदाज़ से ये सवालात रखे गए, वही ए इलाही ने इत्मिनान बख्श जवाब दे दिए, लेकिन कुफ्र की हट का क्या इलाज?*

*"❀__ इब्तिदायी ख़ुफ़िया मरहले से निकलने के बाद इस्लामी तहरीक जब तेज़ी से फेलने लगी और फिर आगे चल कर जब प्रोपोगंडे और तशद्दुद की मुख्तलिफ़ तदबीरे नाकारा साबित हुई तो ऐसी कोशिशें होने लगी कि किसी तरह समझोते की राह निकले और कुछ मान कर और कुछ मनवा कर झगड़ा खत्म किया जा सके, मगर उसूली तहरीकों में इतनी लचक होती ही नहीं कि लेन देने के लिए कोई दरमियानी राह पैदा कर ली जाए,*

*"❀__ उनकी एक शर्त समझोते की ये थी कि हुजूर ﷺ उनके बुतों और माबूदों के ख़िलाफ़ ज़ुबान ना खोलें और उनके मज़हब को बुरा न कहें, और इसके अलावा जो कुछ वाज़ भी करना चाहें और जैसी कुछ अख़लाक़ी नसीहते फ़रमाना चाहें गवारा कर ली जाएंगी, यानी "ला इलाहा" ना कहे महज़ अल्लाह का नाम लेने की गुंजाईश हो सकती है,*

*❀_"_ इसी तरह उनकी तरफ से ख्वाहिश की गई कि (सूरह यूनुस-15) यानि इस कुरान को बाला ए ताक़ रख दो और कोई दूसरा कुरान लाओ, या इसमे रद्दो बदल कर लो (ताकी कुछ हमारे तक़ाज़ों के) लिए भी गुंजाइश निकले)*

*❀_"_ इसका जवाब वही ए इलाही के अल्फाज़ में हुजूर ﷺ की ज़ुबान मुबारक से ये दिलवाया गया कि, "_मेरा ये अख्त्यार नहीं, कि इस (कुरान) को बतोर खुद बदल लो, जो कुछ मुझ पर वही किया जाता है, उसके मा सिवा किसी और चीज़ की पेरवी नहीं कर सकता, मैं अगर अपने रब की नाफरमानी करूं तो यौमे अज़ीम (क़यामत) के अज़ाब का अंदाज़ रखता हूं, उससे बढ़ कर ज़ालिम और कौन होगा जो कोई गलत बात ( अपनी तरफ से गढ़ कर) अल्लाह तआला से मंसूब कर दे _," (सूरह यूनुस -15)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -153,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–99_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_मसालिहत (समझौते) की राह निकालने के लिए मुखालिफीन ने हुजूर ﷺ के सामने एक मुतालबा ये भी रखा कि अगर आप अपने हलके़ से हमारे मा'शरे के घटिया लोगों, हमारे गुलामों और कल के लोंडों को निकाल दे' फिर हम आपके पास आ कर बेठे और आपकी तालीमात को सुने, आखिर मोजूदा हालात में हमारे मर्तबे से ये बईद है कि हम कोई इस्तेफादा कर सके, पंच लोगों ने हमारा रास्ता रोक रखा है, यहां हम उनको देखते हैं कि वो तहरीक के खवास बने हुए हैं और उनको बड़ी कुर्बत हासिल है, उन्हीं लोगो के बारे अक्सर तंज़न कहा करते थे कि ये है वो हस्तियां जो कैसर व किसरा की जानशीन बनने वाली हैं _,"*

*❀"_ इससे पहले कि हुज़ूर ﷺ के दिल पर इस फरेब करदा ख़्वाहिश का कोई असर होता क़ुरान ने आप पर वाज़े किया कि ये तो मुखालिफ़ीन की महज़ एक चाल है जैसे कि वो जुमला अंबिया के ख़िलाफ़ चलते रहते थे, मसलन ठीक ऐसी ही बात नूह अलैहिस्सलाम के सामने भी रखी गई थी, (हूद-27) पस आप उन साथियो को मुखालिफीन के लिए अपने क़रीब से हरगिज़ महरूम ना करें जो सुबेह व शाम खुदा का नाम पुकारने वाले हैं _," (अन'आम-52)*

*❀"_ बल्की हिदायत दी गई कि इखलास के ये पैकर जो तरह तरह की मुसीबते उठा रहे हैं, इनको अपने साया शफक़त में रखो, और ईमान लाने वालों में से जो लोग तुम्हारी पेरवी अख्त्यार करें, उनके साथ तवाजो़ से पेश आओ _, (अश- शुअरा- 215)*

*❀"_ बल्की एक मोक़े पर एक मुख़ालिफ़ से गुफ्तगू करते हुए हुज़ूर ﷺ ने एक नाबीना सहाबी (इब्ने उम्मे मकतूम) की मुद्दाख़लत को ना पसंद किया तो इतनी सी बात पर तम्बीह आ गई_," (सूरा अबसा- 1 से 10)*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -154,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–100_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_इसी सिलसिले में एक बार मुखालिफ़ीन क़ुरैश की मजलिस में गोर व फिक्र हो रहा था और दूसरी तरफ़ रसूले ख़ुदा ﷺ हरम में तन्हा तशरीफ़ फ़रमा था, उक़्बा बिन रबी'आ ने अहले मजलिस से कहा कि अगर तुम लोग पसंद करो तो मैं मुहम्मद (ﷺ) के पास जा कर बात करूं और उसके सामने ऐसी सूरतें पेश करूं जिनमे से मुमकिन है कि किसी को वो चाहे तो कुबूल कर ले, और फिर हम उसे अपना कर दें और वो हमारे मुक़ाबले से बाज़ आ जाए,*

*"❀_ ये सरीह तोर पर सौदाबाज़ी की एक तजवीज़ थी और यहाँ तक अगर कुरेश आ पहुँचे थे तो दर हक़ीक़त हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु के ईमान लाने और तहरीक के तेज़ी से फैलने की वजह से मजबूर हो कर आ पहुँचे थे, मजलिस की रज़ामंदी से उक़बा ने हुज़ूर ﷺ से जा कर यूँ गुफ्तगू की :-*

*"❀_ ऐ ब्रादर जा़दे! तुम्हारा जो कुछ मरतबा हमारे दरमियान है वो तुम खुद जानते हो, खानदान भर में तुम्हारा मुका़म बुलंद है और नसब के लिहाज़ से तुम एक शान रखते हो_," इस खुशामद आमेज़ मगर मुब्नी बर हक़ीक़त बातों के बाद उकबा ने शिकायत की कि तुमने क़ौम को बड़ी उल्झन में डाल दिया है, उनकी वेहदत को पारा पारा कर दिया है, उनके अकाबिर को अहमक क़रार दिया है, उनके माबूदो और उनके दीन में ऐब लगाया है, उनके गुज़रे हुए आबा व अजदाद की तकफीर कर डाली है, अब मेरी बात सुनो और मैं जो कुछ पेश करता हूं उन सारी सूरतों पर गौर करो, शायद तुम उन से कोई बात कुबूल कर लो,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने फरमाया, "_तुम कहो ए अबुल वलीद! मैं सुनूंगा_," उक़बा ने हस्बे ज़ेल सूरतों की पेश कश की:- अगर इस सारे हंगामा से तुम्हारा मक़सद दौलत हो तो फिर हम तुम्हारे लिए इतना माल जमा कर दें कि तुम हम सबसे बढ़ कर मालदार हो जाओ,"*
*"_ अगर तुम इसके ज़रिये सरदारी व क़यादत चाहते हो तो हम तुम्हें अपने ऊपर सरदार मुक़र्रर कर लेते हैं, यहां तक कि तुम्हारे बगैर हम किसी भी मामले में कोई फैसला नहीं करेंगे_,"*

*"❀_ अगर तुम बादशाहत चाहते हो तो हम तुम्हें अपना बादशाह तस्लीम किए लेते हैं, और अगर ये इस वजह से है कि तुम पर किसी जिन्न वगेरा का साया होता है और वो तुम पर मुसल्लत हो जाता है तो फिर हम कुछ चंदा वगेरा कर के तुम्हारे लिए इलाज का सामान करें, फिर या तो तुम्हें इससे निजात दिला दें या नाकामी हो तो माजू़र समझें_,"*    
*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -154,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–101_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥- पूरी पेशकश को सुन कर हुजूर ﷺ ने फरमाया - अबू वलीद! क्या तुम अपनी बात कह चुके? उसने कहा - हां, फरमाया- तो अब मेरी सुनो, उसने कहा - कहो! हुजूर ﷺ ने पूरी पेशकश को एक तरफ डाल कर क़ुरान की आयात सुनानी शुरू की (हामीम सजदा- 1 से 5 तक),*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ जब तक सुनाते गए उक़बा दोनों हाथ पीछे ले जा कर उन पर टेक लगाये हुए चुपचाप सुनता रहा, हुज़ूर ﷺ ने सजदा तिलावत आने पर क़िरात रोकी और सजदा किया, फिर फरमाया- अबू वलीद! तुमने सुन लिया जो कुछ सुना, अब तू जाने और ये_,"*

*"❀_ उक़बा उठा और अपने साथियों के पास पहुंचा, उनकी नज़र पड़ते ही कहा कि उक़बा का चेहरा बदला हुआ है, अब वो रंग नहीं जो जाते वक्त़ था, तशवीश के साथ उन्होंने माजरा पूछा, उक़बा ने कहा - माजरा ये है कि मैने ऐसा कलाम सुना है कि जेसा कभी नहीं सुना, बा खुदा ना वो शैर है, ना जादू है और न कहानत है, ऐ गिरोह कुरेश मेरी बात मानो और उसकी जिम्मेदारी मुझ पर रहने दो, उस शख्स को उसके हाल पर छोड़ दो और उसके पीछे ना पड़ो, खुदा की क़सम जो कलाम मैंने उससे सुना है इससे यक़ीनन कोई बड़ा नतीजा निकलने वाला है, अगर अहले अरब ने उससे निपट लिया तो दूसरों के ज़रीए तुम्हें उससे निजात हो जाएगी और अगर वो अरब पर छा गया तो उसकी सल्तनत तुम्हारी ही सल्तनत होगी, और उसकी ताक़त तुम्हारी ताक़त होगी, और तुम उसके वास्ते से लोगो में सबसे बढ़ कर खुश नसीब हो जाओगे _,"*

*"❀_ उक़बा की बात सुन कर मजलिस में यूं मजाक उड़ाया गया कि अबू वलीद उसकी जुबान का जादू तो तुम पर भी चल गया, उक़बा ने कहा कि उसके मुताल्लिक़ मेरी राय तो यही है जो मैंने कह दी, अब तुम जो चाहो करो,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -157,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–102_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥ एक कोशिश इस सिलसिले में और की गई, बड़े बड़े सरदार.. उत्बा बिन रबिआ, शीबा बिन रबिआ, अबू सुफ़ियान बिन हर्ब, नफ़र बिन हारिस, अबुल बख़्तरी बिन हिशाम, असवद बिन मुतालिब, ज़मा बिन असवद, वलीद बिन मुगीरा, अबू जहल बिन हिशाम, अब्दुल्लाह बिन अबी उमय्या, आस बिन वाइल, नबिया और मुन्हा अबना'ए हिजाज, उमय्या बिन खल्फ .. गुरुबे आफताब के बाद काबा के पास जमा हुए, इन्होंने रसूले खुदा ﷺ को बुलवा भेजा, हुजूर ﷺ अच्छी तवक़्क़ोआत के साथ जल्द जल्द आ पहुँचे, उन्होंने अपनी उसी पेश कश को जो पहले उक़बा के ज़रिये पहुँचाई गई थी, एक बार फिर दोहराया, इसे सुन कर हुज़ूर ﷺ ने ये जवाब दिया:-*

*"❀_ तुम लोग जो कुछ कह रहे हो, मेरा मामला उससे मुख्तलिफ है, मैं जो दावत तुम्हारे सामने ले कर उठा हूं, इसे इसलिए नहीं पेश कर रहा हूं कि इसके ज़रिये तुमसे माल व दौलत हासिल करूं या तुम्हारे ऊपर बादशाहत का़यम करूं, मुझे तो खुदा ने तुम्हारे सामने अपना पैगंबर बना कर उठाया है, उसने मुझ पर किताब उतारी है और मुझे हुक्म दिया है कि तुम्हारे लिए बशीर व नज़ीर बनुं,*

*❀"_ सो मैंने खुदा की हिदायत तुम तक पहुंचा दी है और तुम्हारी खैर ख्वाही का हक़ अदा किया है, अब जो कुछ मैं लाया हूं अगर इसे तुम कुबूल कर लो तो वो तुम्हारे लिए दुनिया व आखिरत की भलाई का ज़रिया है और अगर तुम इसे मेरी तरफ़ वापस फ़ैंक दो तो मैं अल्लाह के हुक्म के इंतज़ार में सब्र दिखाऊंगा, यहां तक कि खुदा मेरे और तुम लोगों के दरमियान अपना फैसला सादिर फरमा दे ,*

*❀"_ ये जवाब सुन कर जब उन्होंने देखा कि आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिल रहा, तो तरह तरह की हुज्जते निकालना शुरू की, मसलन ये कहा कि तुम जानते हो कि हमारी ये सर ज़मीन बहुत ही तंग है, इसमें पानी की कमी है और यहां की जिंदगी बहुत कठिन है, तुम खुदा से कहो कि वो पहाड़ों को यहां से हटा दे और हमारी ज़मीन को कुशादा कर दे और इसमें शाम व इराक़ की तरह दरिया चला दे, फिर ये कहा कि खुदा हमारे आबा व अजदाद को उठा खड़ा करे, और उनमें कुसई बिन किलाब जरूर शमिल हो क्योंकि वो मर्द बुज़ुर्ग बड़ा रास्त बाज़ था,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -158,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–103_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ हम उससे तुम्हारी दावत के बारे में दरियाफ्त करेंगे कि ये हक़ है या बातिल! फिर हमारे असलाफ ज़िंदा हो कर अगर तुम्हारी तसदीक़ कर दें और तू वो बातें कर दिखाएं जिनका मुतालबा हमने किया है तो हम तुम्हारी तसदीक़ करेंगे और खुदा के बारे में तुम्हारा ये मर्तबा हमें तस्लीम होगा कि उसने तुम्हें वाक़ई रसूल बना के भेजा है,*

*"❀_ फिर कहा कि ये भी नहीं करते तो हम पर अजा़ब ही वारिद करा दो, हुजूर ﷺ मुतालबात पर बार बार अपनी वही बात दोहराते चले गए और कहते गए कि इन कामों के लिए मुझे नहीं उठाया गया _,"*

*❀"_आख़िर जब हुज़ूर ﷺ उठ खड़े हुए तो आपके साथ ही साथ अब्दुल्लाह बिन अबी (जो हुज़ूर ﷺ का फूफ़ीज़ाद भाई था) भी उठ खड़ा हुआ और आपसे मुखातिब हो कर कहने लगा कि तुम्हारी क़ौम ने तुम्हारे सामने कुछ बातें रखीं, लेकिन तुमने कोई पेशकश भी मान कर नहीं दी, अब तो खुदा की क़सम मैं तुम्हारे ऊपर ईमान नहीं लाऊंगा ख्वाह तुम आसमान पर सीढ़ी लगा कर उस पर चढ़ते हुए दिखाई क्यों ना दे जाओ और फिर आंखों के सामने उतरो और तुम्हारे साथ चार फ़रिश्ते भी आ कर तुम्हारी सदाक़त की गवाही क्यों ना दे दें, खुदा की क़सम अगर मैं ऐसा करूं भी तो मेरा क़तअन ये ख्याल नहीं कि मैं हकी़क़तन तुम्हारी तसदीक़ करूंगा _,"*

*❀"_ ऐसे ही वाक़ियात में से एक ये है कि सफर ताइफ के बाद जब हुजूर ﷺ ने मक्का से निकल कर आस पास के क़बीलों में पैगाम पहुंचाना शुरू किया तो एक बार क़बीला बनू आमिर बिन सा'सा के यहां भी पहुंचे और सरदार क़बीला बहीरा बिन फरास से मुलाक़ात की, उसने हुजूर ﷺ की दावत सुनी फिर साथियों से कहने लगा- बा खुदा अगर कुरेश का ये नोजवान मेरे हाथ आ जाए तो मैं इसके जरिये सारे अरब को मुट्ठी में ले लूं _," फिर आपको खिताब कर के पूछा कि अगर हम लोग इस दावत को कुबूल कर लें और तुम मुखालिफीन पर गालिब आ जाओ तो क्या ये वादा करते हो कि तुम्हारे बाद ये सारा सिलसिला मेरी तहवील (क़बज़े) मे आ जाएगा?*
*"_ आप ﷺ ने जवाब दिया कि ये तो खुदा के अख्त्यार में है, वो जिसे चाहेगा मेरे बाद मुक़र्रर करेगा_,"*

*❀"_ बहीरा ने इस पर कहा कि क्या खूब! इस वक़्त तो अरब के सामने हम सीना सिपर हों और जब तुम्हारा काम बन जाए तो फ़ायदा कोई दूसरा हासिल कर ले जाए, जाओ हमको इस सिलसिले से कोई मतलब नहीं_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -159,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–104_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_बराहे रास्त आन हज़रत ﷺ के ख़िलाफ़ तो हर घड़ी और हर साँस गोना गो ज़्यादतियां की ही जाती रहीं, लेकिन आपके रफ़्क़ा को जो अज़ियते दी जाती थी वो भी बिल वास्ता आप ही के हस्सास क़ल्ब को छलनी करने वाली थी, अब देखिए कि किस पर क्या गुज़री?*

*"❀_ ख़ब्बाब बिन अर्त तमीमी रज़ियल्लाहु अन्हु जाहिलियत के दौर में गुलाम बना कर बेच डाले गए थे, और उम्मे नमार ने इनको ख़रीदा था, ये जिस वक़्त ईमान लाए कुरेश ने जलते अंगारे बिछा कर उनको बिस्तरे आतिश पर लिटाया, और छाती पर एक शख्स खड़ा हो गया ताकि करवट न बदल सके, अंगारे पीठ के नीचे ही ठंडा हो गये,*

*❀"_ बाद में ख़ब्बाब रज़ियल्लाहु अन्हु ने हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को एक मर्तबा पीठ दिखायी तो सफ़ेद कोड की तरह सफ़ेद दाग उस पर नुमाया थे, पेशा के लिहाज़ से ये लोहार थे, इस्लाम लाने के बाद जब इन्होंने लोगों से वाजिबुल वसूल उजरतों का तकाज़ा किया तो जवाब मिला कि जब तक मुहम्मद ﷺ का इंकार नहीं करोगे, एक कोड़ी भी नहीं मिलेगी, ये गोया मा'शी चोट लगाई जा रही थी, मगर हक़ का ये सिपाही कहता कि तुम लोग जब तक मर कर जिंदा ना हो जाओ ऐसा नहीं हो सकता,*

*❀"_ हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु बिन रबाह हब्शी उमय्या बिन ख़ल्फ़ के ग़ुलाम थे, जब सूरज ठीक निस्फ़ुन नहार पर आ जाता तो अरब की तपती रेत पर इनको लिटाया जाता और सीने पर भारी पत्थर रख दिया जात ताकी करवट न बदल सके, उमय्या इस हालत में इनसे कहता कि इस्लाम से बाज़ आ जाओ वर्ना इसी तरह ख़त्म हो जाओगे, हज़रत बिलाल जवाब में सिर्फ "अहद! अहद !" पुकारते,*

*❀"_ उमय्या का गुस्सा और भड़क गया, उसने आपके गले में रस्सी डाल कर शहर के लोंडों को साथ लगा दिया, वो आपको गली गली घसीटते फिरते लेकिन ये आशिक जांबाज़ उसी तरह अहद अहद पुकारता फिरता, कभी आपको गाय की खाल में लपेटा जाता, कभी अपनी ज़ीरा पहनना कर तेज धूप में बिठाया जाता, हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने उमय्या बिन ख़ल्फ़ से एक गुलाम के एवज़ में ख़रीद कर आज़ाद कर दिया_,"* 

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -161,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–105_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_ अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु कुहतानी असल थे, इनके वालिद यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु यमन से अपने दो भाईयों के साथ एक गुमशुदा भाई की तलाश में आए थे, दो भाई तो वापस चले गए और यासिर अबू हुजैफ़ा मख़ज़ुमी से हलीफ़ाना ताल्लुक़ात क़ा'इम कर के मक्का में ही रह गए और यही शादी कर ली,*

 *❀"_ यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु समेत तक़रीबन सारा ही घराना इस्लाम ले आया, चुंकी अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु का कोई क़बीला मक्का में न था इसलिये उन पर ख़ूब सितम ढाये जाते, उन्हें इस्लाम क़ुबूल करने के जुर्म की सज़ा यूं दी जाती कि उनको भी जलती ज़मीन पर लिटाया जाता और कुरेश उनको इतना मारते कि बार बार बेहोश हो जाते, इनके वाल्दैन पर भी इसी तरह ज़ुल्म किया जाता,*

*❀"_ पानी में उनको गोते भी दिए जाते और अंगारो पर भी तड़पाया जाता, हुजूर ﷺ इनके सर पर दस्ते शफक़त फैर कर खास दुआ करते और बशारत देते, हजरत अली की रिवायत है कि हुजूर ﷺ फरमाते कि अम्मार सर से पैर तक ईमान से भरा हुआ है,*

*"❀_ हज़रत सुमैय्या रज़ियल्लाहु अन्हा जो हज़रत अम्मार रज़ियल्लाहु अन्हु की वालिदा थी, उनको इस्लाम लाने पर अबु जहल ने निहायत वेहशाना तरीक़े से बरछी मार कर हलाक़ कर दिया, यही अव्वलीन खातून हैं जो राहे हक़ में शहीद हुई, हज़रत यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु जो हज़रत अम्मार रज़ियल्लाहु अन्हु के वालिद थे वो भी ज़ुल्म सेहते सेहते शहीद हो गए*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -161,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–106_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_सुहैब रज़ियल्लाहु अन्हु भी अम्मार रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ ईमान लाए थे, इनको इस बेदर्दी से मारा जाता था कि दिमागी तवाज़न बार बार दरहम बरहम हो जाता, दौरे हिजरत में क़ुरैश ने इनको इस शर्त पर मदीना जाने की इजाज़त दी कि अपना सारा माल व असबाब दे जाए, इन्होंने बाखुशी मंज़ूर किया और खाली हाथ निकल गए,*

*"❀_ अबू फकीह रज़ियल्लाहु अन्हु सफ़वान बिन उमय्या के गुलाम थे और इस्लाम लाने में हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु के हम असर, उमय्या को इत्तेला हुई तो पांव में रस्सी डलवा कर लोगों से कहा कि तपती रेत पर लिटाने के लिए घसीट कर ले जाओ, रास्ते में एक गब्रिला दिखाई दिया तो उमय्या ने कहा कि यही तो तेरा खुदा नहीं, उन्होंने संजिदगी से जवाब दिया कि मेरा और तेरा दोनों का खुदा अल्लाह ता'ला है,*

 *❀"_ इस पर उमय्या ने इस ज़ोर से इनका गला घोंटा कि लोग ये समझे कि दम निकल गया, मगर बच गए, एक बार इतना भारी पत्थर उनके सीने पर लाद दिया कि बेहाल हो जाने की वजह से जुबान बाहर निकल आई, कभी इनको लोहे की बेड़ियां पहनना कर जलती ज़मीन पर उल्टा लिटाया जाता, इनको भी हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने ख़रीद कर आज़ाद करा दिया,*

*❀"_ हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु जो उम्र के लिहाज़ से भी काबिले अहतराम थे और माल व जाह रखते थे, जब इस्लाम लाये तो इनके अपने चाचा ने रस्सी से बांध कर पीटा,*
*"_ हज़रत ज़ुबेर बिन अवाम रज़ियल्लाहु अन्हु को इस्लाम लाने कि सज़ा देने के लिए इनके चाचा चटाई में लपेट कर धुवाँ देते थे, मगर वो पूरी अज़मत से फरमाते मै कुफ्र तो अब हरगिज़ नहीं करुंगा _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -162,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–107_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_सईद बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु को (ये हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के चाचाज़ाद भाई थे) हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने रस्सियों में बाँध दिया, सा'द बिन अबी वक़ास रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ भी ज़ालिमाना कार्यवाहियां की गईं, अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ियल्लाहु अन्हु ने इस्लाम लाने पर हरम में पहली मर्तबा बा आवाज़ क़ुरआन पढ़ा, सूरह रहमान की तिलावत आपने शुरू ही की थी कि क़ुरैश टूट पड़े और मूँह पर तमाचे मारे गए, मगर फिर भी तिलावत जारी रखी और ज़ख्मी चेहरे के साथ वापस हुए,*

*❀"_ उस्मान बिन मज़ऊन रज़ियल्लाहु अन्हु वलीद बिन मुगीरा की पनाह में होने की वजह से इब्तिदा मामून थे, लेकिन रसूले खुदा के असहाब पर जो इम्तेहानी घड़ियां गुज़र रही थीं उनको देख कर उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु के दिल में एहसास पैदा हुआ कि मैं एक मुशरिक के साया हिमायत में अमन चैन से रहूं जबकी मेरे साथी ये कुछ भुगत रहे हैं,*

*❀"_ उन्होंने वलीद बिन मुगीरा से बात की कि मैं पनाह वापस करता हूं, वलीद ने समझा कि भतीजे मेरी कौम का कोई फर्द तुम्हारे साथ बद सुलूकी न कर बैठे_," उन्होंने कहा कि नहीं मैं तो अल्लाह की पनाह में रहूंगा और उसके मा सिवा और किसी की पनाह मुझे गवारा नहीं, काबा में जा कर उन्‍होंने बा आवाज़ बुलंद वलीद बिन मुगीरा की पनाह वापस करने का एलान किया और उसके बाद कुरेश की मजलिस में जा बैठे,*

*❀"_ इस पर एक शख्स उठा और उस्मान बिन मज़ऊन रज़ियल्लाहु अन्हु को एक थप्पड़ ऐसा मारा कि उनकी आंख फूट गई, इस पर वलीद बिन मुगीरा ने कहा कि तुम अगर मेरी पनाह में रहते तो आंख से यूं हाथ ना धो बैठते, उस्मान बिन मज़'ऊन रज़ियल्लाहु अन्हु ने जवाब दिया कि मेरी जो आंख बच रही हैं वो भी कुर्बान होने को तैयार है, मैं उस हस्ती की पनाह में हूं जो तुमसे ज़्यादा साहिबे इज्जत व क़ुदरत वाला है,*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -163,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–108_* ★
      *⚂ मक्की दौर- दावत ए आम ⚂*   
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*❥❥_हज़रत अबुज़र गिफ़ारी रज़ियल्लाहु अन्हु ने दावते हक़ को क़ुबूल किया तो इंक़िलाबी रूह से शरशार हो कर सीधे हरम पहुँचे और वहां जा कर बा आवाज़ बुलंद अपने नए अक़ीदे का एलान किया, क़ुरैश सिटपिटा गए और कहने लगे के ये कौन बेदीन है, मारो इसे, चुनांचे मार पीट शुरू हो गई, इरादा ये था कि उन्हें जान से मार दिया जाए, मगर हुज़ूर ﷺ के चाचा अब्बास रजियल्लाहु अन्हु का इत्तेफाक़न गुज़र हुआ तो उन्होंने कहा कि ये तो क़बीला गिफार का आदमी है और तुम्हें तिजारत के लिए उसी क़बीले की हुदूद से हो कर जाना होता है, कुछ होश करो, लोग बाज़ आ गए, दूसरे रोज़ उन्होंने फिर अक़ीदे का एलान किया और फिर मार खाई,*

*"❀_ हज़रत उम्मे शरीक रज़ियल्लाहु अन्हा ईमान लायीं तो उनके अज़ीज़ो अक़ारिब ने उन्हें चिलमिलती धूप में खड़ा कर दिया, इस हालत में वो उनको खाने के लिए रोटी के साथ शहद देते और पानी ना पिलाते ताकी गर्मी का दोगुना अज़ाब भुगतें, तीन दिन मुसलसल इसी आलम में गुज़र गए, इंतेहाई मुसीबत के लम्हों में उनसे मुतालबा किया गया कि इस्लाम को छोड़ दो, उनके हवास इस दर्जा मुतास्सिर हो चुके थे कि वो इस बात को समझ तक ना सकीं थीं, फिर जा़लिमों ने आसमान की तरफ इशारा कर के कहा कि खुदा ए वाहिद का इंकार कर दो, जब वो मुद्दआ समझ गई तो कहा कि खुदा की क़सम मैं तो अपने अकी़दे पर क़ायम हूं _,"*

*❀"_ खालिद बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हु के क़ुबूले इस्लाम पर उनके बाप ने इस क़दर मारा कि सर ज़ख़्मी हो गया, उनको फ़ाक़े का अज़ाब भी दिया गया, गर्ज़ ये कि कौन था जिसे इस भट्टी में ना डाला गया हो, हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को उनके चाचा हकम बिन आस ने रस्सियों में जकड़ दिया, यही सुलूक तलहा रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ हुआ,*

*❀"_ वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु बिन वलीद, अयाश रज़ियल्लाहु अन्हु बिन अबी रबी'आ और सलमा रज़ियल्लाहु अन्हु बिन हिशाम को इंतेहाई अज़ियतें दी गयीं और फिर उनको हिजरत से भी रोका गया, जोर व ज़ुल्म का इंतेहाई मुज़ाहिरा वो भी था जो अपनी बहन और बहनोई के साथ हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने रवा रखा*

*"❀_ एक तरफ इस ज़हर गुदाज सिलसिला ए तशद्दुद को देखिए और दूसरी तरफ तहरीके इस्लामी के अलंबरदारो की इस्तेका़मत मुलाहिजा फरमायें की मर्द औरतें, गुलाम और लौंडियां जो भी हक़ से शरशर हो गया, फिर उसका क़दम पीछे नहीं हटा , ज़ुल्म किसी एक फ़र्द को भी इरतेदाद की राह पर ना डाल सका, जो कोई इस्लाम की पुकार पर लब्बेक कह देता, उसके अंदर से बिलकुल एक नया इंसान नमुदार हो जाता और उसके सीने में नई क़ुववतें जाग उठती_,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -164,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–109_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_हिजरत ए हब्शा :-*
*❀"_ हर मुसीबत की बर्दाश्त की कोई हद होती है, इम्तिहान की जिन मुश्किल घडिय़ों से तहरीके इस्लामी के अलंबरदारों को साबका़ दर पेश था उनको बर्दाश्त करने में उन्होंने हमेशा के लिए यादगारी नमूना क़ायम कर दिया, लेकिन जुल्म व ज़ोर कहीं रुकने में नहीं आ रहा था, बल्की रोज़ बा रोज़ ज़ोर पकड़ता ही जा रहा था,*

*❀"_ हुज़ूर ﷺ अपने रफक़ा का हाल देख देख कर कुढ़ते, मगर कोई ज़ोर नहीं चलता था, सहारा था तो ख़ुदा के ईमान का था, आख़िरत के यक़ीन का था, सच्चाई की आखिरी फ़तेह की क़वि उम्मीदों का था, सोज़ भरी दुआओं का था, हुज़ूर ﷺ अपने रफीकों को तसल्ली देते कि खुदा कोई ना कोई रास्ता निकालेगा, हालात बता रहे थे कि निज़ामे हक़ की बुनियाद यहां नहीं होने की, बल्की किसी दूसरे गोशा ए ज़मीन को ये स'आदत मिलने वाली है,*

*❀"_ तहरीके इस्लामी की तारीख में पहले भी हमेशा हिजरत का बाब ज़रूर शामिल रहा है, सो अंदाजा हो चला था कि मोहसिने इंसानियत और उनके रफीको़ को भी वतन छोड़ना होगा, एक इलाक़े के लोग अगर ना अहल साबित हों तो दावत किसी दूसरी आबादी को मुखातिब बना लेती है, लेकिन जब तक खुदा की तरफ से वाज़े तोर पर हुक्म न हो जाए अंबिया की ये शान नहीं होती है कि अव्वलीन मरकज़ ए दावत को छोड़ दें _,"*

*❀"_ ताहम हुज़ूर ﷺ ज़बर और सब्र की आवेज़िश को ऐसे मराहिल में देख रहे थे कि जहाँ इंसानी सब्र का पैमाना झलक सकता है, मुसलमान बेचैन थे कि अल्लाह की मदद कब आएगी, इन हालात में हुज़ूर ﷺ ने सहाबा को मशवरा दिया कि ज़मीन में कहीं निकल जाओ खुदा जल्द ही तुमको किसी जगह यक्जा कर देगा _," पूछा गया कि किधर जाएं, हुजूर ﷺ ने मुल्क हब्श की तरफ इशारा किया,*

*❀"_ दार असल रसूले खुदा ﷺ के इल्म में था कि वहां की बादशाहत इंसाफ पर क़ायम है और ईसाइयत की मज़हबी बुनियादों पर चल रही है, आपके सामने ये इम्कान था कि शायद यही इलाक़ा दारुल हिजरत बनने के लिए मोजू हो, इसीलिये आपने उस मुल्क के बारे में फरमाया कि वो सर ज़मीन रास्ती है _,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -164,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–110_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_नबुवत के पांचवे साल हुजूर ﷺ की इंकलाबी जमाअत के 11 मर्दों और 4 औरतों का काफ़िला हजरत उस्मान बिन अफ्फान रजियल्लाहु अन्हु की ज़ेरे क़यादत रात की तारीकी में हब्शा को रवाना हुआ, हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ उनकी अहलिया मोहतरमा यानी रसूले खुदा ﷺ की साहबजादी जनाब रुक़य्या रज़ियल्लाहु अन्हा भी अववलीन सफरे हिजरत पर निकली, हुजूर ﷺ ने इस मुबारक जोड़े के मुताल्लिक फरमाया- लूत और इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बाद ये पहला जोड़ा है जिसने राहे खुदा में वतन छोड़ा_ ,"*

*❀"_ इस क़ाफिले के निकलने के बाद जब कुरेश को खबर हुई तो पीछा करने के लिए आदमी दौड़ाएं, मगर जब वो बंदरगाह (जद्दा) पहुंचे तो मालूम हुआ उनको ऐन वक्त पर कश्तियां तैयार मिल गई थी और वो रसाई से बाहर हैं, ये मुहाजिरीन थोड़ा अरसा (रज्जब से शव्वाल तक) हब्शा में ठहरे, एक अफवाह पहुंची कि कुरेश ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है, ये सब पलट गए, मगर मक्का के क़रीब पहुंच कर मालूम हुआ कि अफवाह गलत थी,*

*❀"_ अब सख्त मुश्किल पेश आ गई, कुछ लोग छूप कर शहर में दाखिल हुए, इस तरह लौट आने का लाज़मी नतीजा यही होना था कि पहले से बढ़ कर जुल्म होने लगा, दोबारा बहुत बड़ा काफ़िला जिसमे 85 मर्द और 17 औरतें शामिल थीं, हब्शा जा पहुंचा, वहां उनको पुर अमन फिज़ा मिली और वो इत्मिनान से इस्लाम के तक़ाज़ों के मुताबिक़ जिंदगी बसर करने लगे,*

*❀"_ अब देखिए कि हक़ के दुश्मनों का कीना कहां तक पहुंचा है, उन लोगों ने एक मजलिस में सारे मामले पर गोर कर के मनसुबा बनाया और अब्दुल्लाह बिन रबी'आ और अमरू बिन आस को सिफारत के लिए मामूर किया कि ये शाहे हब्शा से जा कर बात करें और मुहाजिरीन को वापस लाएं, इस मक़सद के लिए नजाशी और उसके दरबारियों के लिए तोहफे तैयार किए गए और बड़े सरो सामान के साथ सिफारत रवाना हुई_"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -165,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–111_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_हब्शा पहुंच कर ये लोग दरबारियों और पादरियों से साजिश करने में मशगूल हो गए, और उनको रिशवतें दी, उनके सामने मामले की ये सूरत रखी कि हमारे शहर में चंद सिरफिरे लोगों ने एक मज़हबी फितना उठा खड़ा किया है, और ये तुम्हारे मज़हब के लिए भी उतना ही खतरनाक है जितना हमारे आबाई धर्म के लिए, हमने उनको निकाल दिया था तो अब ये तुम्हारी पनाह में आ पड़े हैं, उनको यहां रहने नहीं देना चाहिए,इस मक़सद में आप हमसे तावुन करे*

*❀"_ उनकी असल कोशिश ये थी कि दरबार में सारा झगड़ा जे़रे बहस ना आने पाए, और मुहाजिरीन को सिर से बात करने का मौक़ा ही ना मिले, बादशाह एक तरफा बात सुन कर उनको हमारे हवाले कर दे, इसी मक़सद के लिए रिशवतें और साज़ बाज़ के तरीक़े अख्त्यार किए गए, ये लोग जब दरबारियों को चापलूस मिल चुके तो नजाशी के सामने तोहफे ले कर पेश हुए,*

*❀"_ फिर अपनी गर्ज़ बयान की कि मक्का के अशराफ ने हमको आपकी खिदमत में इसलिये भेजा है कि आप हमारे आदमियों को हमारे साथ वापस कर दें, दरबारियों और पादरीयों ने भी ताईद की, मगर नजाशी ने एक तरफ दावे पर कार्रवाई करने से इंकार कर दिया और साफ कहा कि उन लोगों से अहवाल दरियाफ्त किए बगैर मैं उनको तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता, दूसरे दिन दरबार में दोनों फरीक़ तलब किए गए।*

*❀"_ मुसलमानों को जब तलबी का पैगाम पहुंचा तो उनके दरमियान मशवरा हुआ कि बादशाह ईसाई है और हम लोग अपने ऐतका़द और मसलक़ में उससे इख्तिलाफ रखते हैं तो आखिर क्या कहा जाए, लेकिन फैसला यही हुआ कि हम दरबार मे वही कुछ कहेंगे जो कुछ खुदा के नबी ﷺ ने हमें सिखाया है, और उसमें जरा भी फर्क ना लाएंगे.. जो हो सो हो,*

*❀"_अंदाज़ा कीजिए कि उन लोगों का ईमान केसा मुहक्कम था, इतने संगीन हालात में हक़ और सच्चाई पर क़ायम रहने का अज़्म खुदा की दैन है,*      
*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -166,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–112_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
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*❥❥_फ़िर जब ये हज़रात दरबार में पहुँचे तो मुक़र्रर आदाब के मुताबिक नजाशी को सज्दा करने से इज्तिनाब किया, दरबारियों ने इस तर्ज़े अमल पर बुरा मनाया, और सवाल किया कि आख़िर तुम लोगों ने सज्दा क्यों नहीं किया,*

*❀"_हज़रत जाफ़र रज़ियल्लाहु अन्हु (मुतकल्लिमे वफ़द) ने पूरी जुर्रत से जवाब दिया कि हम लोग सिवाये अल्लाह के किसी को सज्दा नहीं करते और रसूलुल्लाह ﷺ को भी सीधे सादे तरीक़े से सलाम ही कहते हैं,*
*❀"_ गोर कीजिये किन नाज़ुक हालात में सच्ची तोहीद का ये इंक़लाबी मुज़ाहिरा किया जा रहा था, हरीफ जिस ताक़त के सामने चापलूसी कर रहे थे, ये लोग उसके रूबरू उसूल पसंदाना खुद्दारी का रंग दिखा रहे थे,*

*❀"_ अब सिफारते मक्का ने अपना दावा पेश किया कि ये मुहाजिरीन हमारे भगोड़े मुजरिम हैं, इन्होंने एक नया दीन घढ़ लिया है और एक तखरीबी तूफान उठा खड़ा किया है, लिहाज़ा इनको हमारे हवाले किया जाए,*

*❀"_नजाशी ने मुसलमानों से पूछा कि ये क्या मामला है और ईसाइयत और बुतपरस्ती के अलावा वो कोनसा दीन है जो तुम लोगों ने अख्त्यार किया है, हजरत जाफर रजियाल्लाहु अन्हु मुसलमानों की तरफ से तर्जुमान बन कर उठे और उन्होंने नजाशी से इजाज़त तलब की कि पहले वो सिफारते मक्का से सवालात कर लें_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -166,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–113_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
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*❥❥_ इजाज़त मिलने पर यूं मुकालमा हुआ, हज़रत जाफ़र रज़ियल्लाहु अन्हु- "क्या हम किसी के गुलाम हैं जो आक़ा से भाग आए हैं? अगर ऐसा हो तो हमें वापस जाना चाहिए_,"*
*"_ अमरू बिन आस- नहीं, ये लोग किसी के गुलाम नहीं, आजाद शुरफा हैं_,"*
*"_ हजरत जाफर- क्या हम किसी को नाहक़ क़त्ल कर के आए हैं? अगर ऐसा हो तो आप हमें औलिया ए मक़तूल के हवाले कर दें_,"*
*"_अमरु बिन आस- नहीं, इन्होंने खून का एक क़तरा भी नहीं बहाया_,"*

*❀"_हज़रत जाफ़र रज़ियल्लाहु अन्हु- क्या हम किसी का कुछ माल ले कर भागे हैं, अगर ऐसा हो तो हम उसकी अदायगी करने को तैयार हैं_,"*
*"_ अमरु बिन आस- नहीं, इनके जि़म्मे किसी के एक हब्बा (कोड़ी) भी नहीं_,"*
*❀"_इस जिरह से जब मुसलमानों की अखलाकी़ पोजीशन पूरी तरह साफ हो गई तो हजरत जाफर रजियल्लाहु अन्हु ने ये तक़रीर की:-*

*❀”_ ए बादशाह! हम लोग एक जाहिल क़ौम थे, बुत पूजते थे, मुर्दार खाते थे, बदकारियां करते थे, हमसायों को सताते थे, भाई भाई पर ज़ुल्म करता था, क़वी लोग कमज़ोर को खा जाया करते थे, इसी अना में हममे से एक शख्स पैदा हुआ जिसकी शराफत, सच्चाई और दयानत से हम लोग पहले से आगाह थे, उसने हमको इस्लाम की दावत दी, और ये सिखाया कि हम बुत परस्ती छोड़ दें, सच बोलें, खूंरेजी़ से बाज़ आए, यतीमों का माल न खायें, हमसायों को आराम दें, अफीफ औरतों पर बदनामी का दाग न लगायें, नमाज़ पढें, रोज़े रखें, सदका़ दें_,"*

*❀"_ हम उस पर ईमान लाए, शिर्क और बुत परस्ती छोड़ दी और तमाम बुरे आमाल से बाज़ आए, इस जुर्म में हमारी क़ौम हमारी जानो की दुश्मन हो गई और हमको मजबूर करती है कि फिर उसी गुमराही में लौट जाएं, इसलिए हम अपना ईमान और अपनी जाने ले कर आपकी तरफ भाग कर आए हैं, अगर हमारी क़ौम हमको वतन में रहने देती तो हम ना निकलते, ये है हमारी रुदाद!*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -167,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–114_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
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*❥❥_बात सच्ची हो और कहने वाला जज़्बात के साथ उसे कहे तो लाज़मन वो असर करती है, नजाशी जैसे खुदा से डरने वाले बादशाह का दिल मोम हो गया, अब वो कहने लगा कि ज़रा उस किताब का भी कोई हिस्सा सुनाओ जो तुम लोगो पर उतरी है, चुनांचे हज़रत जाफ़र रज़ियल्लाहु अन्हु ने सूरह मरियम का एक हिस्सा पढ़ा,*

*❀"_आयाते इलाही को सुन कर बादशाह के दिल पर रिक़्कत तारी हो गई, उसकी आंखें पुरनम हो गई, वो बे अख्तियार पुकार उठा- खुदा की कसम! ये कलाम और इंजील दोनो एक ही चिराग के पर तो हैं, बल्की उस पर मुस्तजा़द ये कहा कि मुहम्मद ﷺ तो वोही रसूल हैं जिनकी खबर यीसू मसीह ने दी थी, अल्लाह का शुक्र है मुझे उस रसूल का ज़माना मिला, साथ ही फैसला दिया कि मुहाजिरीन को वापस नहीं किया जा सकता, कार्रवाई खत्म हो गई और सिफारत नाकाम लोटी,*

*❀"_ बाद में उन लोगों ने फिर आपस में मशवरा किया कि एक कोशिश और की जानी चाहिए, नजाशी ईसाई है और अगर हजरत ईसा के बारे में मुसलमानों का अकी़दा दरबार में नुमाया किया जाए तो मुमकिन है कि बादशाह के अंदर मज़हबी तास्सुब की आग भड़क उठे*

*❀"_ दूसरे दिन अमरू बिन आस फिर दरबार में पहुँचे और नजाशी के कान भरने के लिए ये इल्ज़ाम तराशा कि ये लोग हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में बहुत ख़राब अकी़दा रखते हैं, नजाशी ने फिर मुसलमानों को तलब कर लिया, उनको जब सूरते हालात मालूम हुई तो कुछ तरद्दुद हुआ कि ईसा अलैहिस्सलाम के "इब्ने अल्लाह" होने का इंकार करने पर नजाशी का रद्दे अमल न जाने क्या हो, लेकिन अज़मियत ने कहा कि जो अमरे हक़ है उसे साफ साफ पेश कर दो,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -168,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–115_* ★
                *⚂ हिजरत ए हबशा ⚂*   
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*❥❥_हज़रत जाफ़र रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपनी तक़रीर में कहा कि: हमारे पैगम्बर ने बताया है कि ईसा अलैहिस्सलाम खुदा के बन्दे और पैगम्बर हैं, और कलामतुल्लाह हैं, नजाशी ने ज़मीन से एक तिनका उठाया और कहा कि वल्लाह! जो तुमने कहा है ईसा अलैहिस्सलाम इससे तिनके भर भी ज़्यादा नहीं हैं।*

*❀"_पादरी जो साज़िश का शिकार और रिश्वत और हदाया से मुसख्खर थे, दिल ही दिल में बहुत पेच व ताब खा रहे थे, यहां तक कि उनके नथनों से सांस की खरखराहट सुनाई देने लगी, नजाशी ने उनकी कुछ परवाह नहीं की, हुक्म दिया कि तमाम तहाइफ वापस कर दिए जाएं, मक्का का वफद पूरी तरह नाउम्मीद व खासिर हो कर लौटा।*       

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -168,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–116_* ★
          *⚂ हज़रत उमर का इस्लाम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के इस्लाम लाने का वाक़िया:-*
*❀"_ तशद्दुद की इस दास्तान का वो बाब सबसे मुमताज़ है जो उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के गैज़ व ग़ज़ब से मुरत्तब हुआ था, उमर रज़ियल्लाहु अन्हु 27 वे साल में थे जबकि मुहम्मद ﷺ का आलम बुलंद हुआ, इस्लाम जल्द ही आपके घराने में नफूज़ कर गया, आपके बहनोई सईद रज़ियल्लाहु अन्हु पहले पहले इस्लाम लाये, उनके असर से आपकी बहन फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा भी मुसलमान हो गई_,"*

*"❀_ खानदान की एक और बा असर शख्सियत नईम बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी दावते हक़ पर लब्बेक कही, अव्वल अव्वल उनको इस्लाम के इस नफूज़ का हाल मालूम नहीं हो सका, जोंही इल्म हुआ तो ये आपे से बाहर हो गए और इस्लाम लाने वालों के दुश्मन बन गए, लबीना रज़ियल्लाहु अन्हा इनके खानदान की कनीज़ थी, इनको मारते मारते थक जाते तो दम लेने के लिए अलग होते, फिर ताज़ा दम हो कर मारना शुरू कर देते, आख़िर एक दिन तैय कर लिया कि क्यूं ना असल दाई हक ﷺ ही पर हाथ साफ कर लिया जाए,*

*❀"_ वो तलवार ले कर चले, रास्ते में नईम बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से मुदभेड़ हो गई, उन्होंने कहा कि पहले अपने घर की खबर लो और बहन बहनोई से निमट लो, फिर किसी और तरफ जाना, फौरन पलटे और बहन के घर पहुंचे, वो क़ुरान पढ़ रही थी, आहट हुई तो खामोश हो गई और क़ुरान के औराक़ छुपा लिए,*

*❀"_ हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने पूछा कि ये क्या पढ़ा जा रहा था, बहन ने टाला, कहने लगे कि मुझे मालूम हो चुका है कि तुम डोनो मुर्तद हो चुके हो, ये कह कर बहनोई पर टूट पड़े, बहन बीच बचाव के लिए आई तो उनको भी मारा, उनका जिस्म लहू लुहान हो गया, लेकिन डबडबाती आंखों के साथ अज़ीमत मंदाना अंदाज़ से कहने लगी, उमर! जो कुछ कर सकते हो, करो! लेकिन इस्लाम अब दिल से नहीं निकल सकता_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -168,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–117_* ★
          *⚂ हज़रत उमर का इस्लाम ⚂*   
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*❥❥_ एक खातून और वो भी बहन, एक पेकरे जज़्बात, जिस्म ज़ख़्मी, कपडे ख़ून आलूद, आँखों में आँसु और ज़ुबान पर ये अज़मियत मंदाना बोल! उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की क़ाहिराना ताक़त ने इस मज़लूमाना मंज़र के सामने हार मान ली, हीरे का जिगर फूल की पत्ती से कट गया,*

*"❀_ फरमाया- जो तुम पढ़ रही थीं, मुझे भी ला कर सुनाओ, वो गईं और अज्ज़ाए कुरान निकाल लाईं, जब ये अल्फाज़ सामने आए कि "आमनु बिल्लाही व रसूलुहू" तो बे अख्त्यार पुकार उठे, "अशहदु अल्लाइलाहा इल्लल्लाहु व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु वा रसूलहु," ईमान की दौलत से मालामाल हो कर तहरीके़ हक के मरकज़े खाना अरक़म की तरफ चले, वहाँ जा कर खुदा के रसूल ﷺ के हाथ पर बैत की_,"*

*"❀_ इस वाक़िए पर मुसलामानों ने मारे खुशी के ऐसा नारा बुलंद किया कि मक्का का सारा माहोल गूंज उठा, दाइयाने हक़ उठे और मक्का में फैल गए, उन्होंने महसूस किया कि उनकी कुव्वत बढ़ गई है, हजरत उमर रजियाल्लाहु अन्हु के ईमान लाते ही काबा में पहली मर्तबा एलानिया नमाज़ बा जमात की अदायगी का सिलसिला शुरू हुआ _,"*

*"❀_ हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु मक्का के नोजवानों में अपने जोश और ज़हानत की वजह से इम्तियाज़ी मुक़ाम रखते थे, उनका किरदार इख़लास से भरपूर था, वो जाहिलियत के दौर में थे तो पूरे इखलास से तहरीके इस्लाम के दुश्मन थे, ना किसी ज़ाती मुफ़ाद की बिना पर, और जब हक़ीक़त खुल गई और फितरत सलीमा से पर्दे उठ गए तो पूरी शाने इखलास से तहरीके इस्लामी का झंडा ऊंचा कर दिया,*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -169,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–118_* ★
          *⚂ हज़रत उमर का इस्लाम ⚂*   
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*❥❥_हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु जेसी शख़्सियत सच्चाई के पैगाम पर लब्बेक कहे और फिर कोई नया मुददा न हो, ये कैसे मुमकिन था, उन्होंने ताहिया कर लिया कि एक बार फ़िज़ा को चेलेंज कर के रहेंगे, इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु (जो उस वक़्त लड़के थे मगर मामले को समझते थे) का बयान है कि मेरे वालिद उमर रज़ियल्लाहु अन्हु जब ईमान लाये तो मालूम किया कि कुरेश का कौनसा आदमी बात को अच्छी तरह नशर कर सकता है, उन्हें जमील बिन मामर जमही का नाम बताया गया, वो अलल सुबह उसके यहां पहुंचे और मैं भी साथ गया कि देखूं क्या करते हैं _,"*

*"❀_ उससे जा कर कहने लगे कि ऐ जमील तुम्हें मालूम है कि मैं इस्लाम ला चुका हूं और मुहम्मद ﷺ के दीन में दाखिल हो गया हूं, वो अपनी चादर थामे हुए मस्जिदे हराम के दरवाज़े पर पहुंचा और वहां गला फाड़ कर एलान किया कि ऐ गिरोह कुरेश! सुनो ! उमर बिन खत्ताब साबी हो गया है, हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु भी पीछे से आ पहुँचे और उन्होंने पुकार कर कहा, गलत कहता है मैं मुसलमान हुआ हूं और मैंने एलान किया है कि एक अल्लाह के सिवा कोई इला नहीं और मुहम्मद ﷺ उसके बंदे और उसके रसूल हैं,*

*❀"_ अहले कुरेश उन पर टूट पड़े, वो वालिद से खूब लड़े, और वालिद उनसे लड़े और इसी हाथपाई में सूरज सर पर आ गया, इसी असना में एक कुरैशी सरदार यमनी चादर ओढ़े हुए नमुदार हुआ, और उसने पूछा किस्सा क्या है ? उसने बात सुनी और कहा कि इस शख्स ने अपने लिए एक रास्ता पसंद कर लिया है, तो अब तुम क्या चाहते हो ? सोचो तो सही कि क्या बनू अदि बिन काब अपने आदमी को यूं तुम्हारे हाथों में दे सकते हैं, छोड़ दो इसे, ये थे आस बिन वाइल, इन्होंने हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को अपनी पनाह में ले लिया _," (सीरत इब्ने हिशाम- 1/370-71)*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -172,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–119_* ★
          *⚂ हज़रत उमर का इस्लाम ⚂*   
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*❥❥_इसके साथ ही हजरत उमर रजियाल्लाहु अन्हु के जोशे ईमानी ने अपने इज़हार का एक रास्ता और भी निकाला, उन्होन ईमान लाने की पहली ही रात को सोचा कि रसूले खुदा ﷺ की मुखालफत में इंतेहाई शिद्दत से कोन है? मालूम हुआ कि अबु जहल से बढ़ कर सख़्त कोई दूसरा नहीं,*

*❀"_ सुबह होते ही अबु जहल के यहां भी जा पहुंचे, दरवाज़ा खटखटाया अबु जहल निकला और खुश आमदीद कह कर मुद्दआ पूछा, उन्होंने बताया कि मैं ये इत्तेला देने आया हूं कि मै मुहम्मद ﷺ पर ईमान ले आया हूं और आपके पैगाम की सच्चाई को तस्लीम कर चुका हूं, अबु जहल ने भन्ना कर दरवाज़ा बंद कर लिया और कहा कि खुदा की मार तुझ और तेरी इत्तेला पर _,"*

*❀"_ तीसरी तरफ उन्होंने तहरीके इस्लामी का एक क़दम और आगे बढ़ा दिया, मार तो खाई मगर उसके जवाब में हरम में अलल ऐलान नमाज़ अदा करने का आगाज़ कर दिया, बाकौ़ल हजरत अब्दुल्लाह बिन मस'ऊद रजियल्लाहु अन्हु:- हम हजरत उमर रजियाल्लाहु अन्हु के इस्लाम लाने से पहले इस पर का़दिर ना थे कि काबा में नमाज अदा कर सकें, उमर रजियल्लाहु अन्हु मुसलमान हुए तो कुरेश से लड़ कर काबा में नमाज़ अदा की और हमने भी उनके साथ नमाज़ अदा की _,"*

*❀"_ एक तरफ तशद्दुद का वो ज़ोर देखिये और दूसरी तरफ ये समां मुलाहिज़ा हो कि इस्लाम के दुश्मनों में से बेहतरीन उनसर (असल बुनियाद) को छाँट रहा था,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -173,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–120_* ★
          *⚂ हज़रत हमज़ा का इस्लाम ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ ऐसा ही वाक़िया हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु का है, मक्का का ये नोजवान ज़हानत, शुजा'त और असर का मालिक था, हुज़ूर ﷺ के चाचाओं में से जनाब अबू तालिब के बाद एक यही चाचा ऐसे थे, जिनको इख़्तिलाफ़ के बावजूद आप ﷺ से मुहब्बत थी, उम्र में भी सिर्फ दो तीन बरस ज्यादा थे और हम उम्री की वजह से बचपन में चाचा भतीजे हमजोली रहे थे_,"*

*"❀_ एक दिन का वाक़िया है कि कोहे सफ़ा के पास अबु जहल ने हुज़ूर ﷺ पर दस्त दराज़ी की और बहुत ही बद ज़ुबानी से काम लिया, हुज़ूर ﷺ ने सब्र से उस अज़ियत को बर्दाश्त किया और कोई जवाब ना दिया, इत्तेफ़ाक से अब्दुल्लाह बिन जदआन की लौंडी ने ये सारा माज़रा देखा, हजरत हमजा़ शिकार पर गए हुए थे, कमान उठाये हुए वापस आए तो लौंडी ने क़िस्सा सुनाया और कहा कि, "हाय अगर तुम खुद देख सकते कि तुम्हारे भतीजे पर क्या गुज़री? ये सुन कर हमजा़ रज़ियल्लाहु अन्हु की हमियत (गैरत) जाग उठी,*

*"❀_सीधे कुरेश की मजलिस में पहुँचे जहां अबू जहल बैठा था, हरम में जा कर अबु जहल के सर पर कमान मारी और कहा कि क्या तुमने मुहम्मद (ﷺ) को गाली दी थी, अगर ऐसा है तो मैं भी उसके दीन पर हूं और जो कुछ वो कहता है वोही कुछ मैं भी कहता हूं, अब अगर हिम्मत है तो मेरे मुक़ाबले पर आओ _,"*

*"❀_ अबू जहल की हिमायत में बनी मख़ज़ूम का एक शख्स मजलिस से उठा मगर अबू जहल ने उसे ये कह कर रोक दिया कि जाने दो, मैंने अबू अम्मारा के भतीजे को बहुत गंदी गालियां दी है, हजरत हमजा़ रजियल्लाहु अन्हु इस्लाम पर डट गए और कुरेश ने महसूस कर लिया कि रसूले खुदा ﷺ की क़ुव्वत बढ़ गई है,*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -173,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–121_* ★
       *⚂ _ बॉयकॉट और नजर बंदी _ ⚂*   
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*❥❥_ दुश्मनाने हक़ ये मंज़र देख रहे थे कि हक़ का सैलाब आगे ही आगे बढ़ रहा है और बड़ी बड़ी अहम शख्सियतों को अपनी लपेट में ले रहा है, इस पर उनकी बेचैनी और बढ़ जाती, मुहर्रम 7 नबवी में मक्का के तमाम क़बा'इल ने मिल कर एक मुआहीदा किया कि खानदान बनू हाशिम से बॉयकॉट किया जाए और कोई शख्स ना उनसे क़राबत रखे ना उनसे शादी ब्याह का ताल्लुक़ रखे, ना लेन दें करे, ना उनसे मिले जुले, और न खाने पीने का कोई सामान उन तक पहुंचने दे, यहां तक कि बनू हाशिम मुहम्मद (ﷺ) को हमारे सुपुर्द कर दें और उनको क़त्ल करने का हमें हक़ दे दें_,"*

*"❀_क़बा'इल दौर के लिहाज़ से ये फैसला इंतेहाई संगीन था और एक आखिरी कारवाई की नोइयत रखता था, बनू हाशिम बेबस हो कर शोअब अबी तालिब में पनाह लेने पर मजबूर हो गए, गोया पूरा खानदान तहरीके इस्लामी के दाई की वजह से एक तरह की क़ैद और नज़र बंदी में डाल दिया गया, इस नज़र बंदी का दौर तक़रीबन तीन बरस तक तवील हुआ, और इस दौर में जो अहवाल गुज़रे हैं उन्हें पढ़ कर पत्थर भी पिघलने लगता है।"*

*"❀_ दरख्तो के पत्ते चबाये जाते रहे, और सूखे चमड़े उबाल उबाल कर और आग पर भून भून कर खाये जाते रहे, हालत ये हो गई कि बनू हाशिम के मासूम बच्चे जब भूख के मारे बिलखते तो दूर दूर तक उनकी दर्द भरी आवाजें जाती थी, कुरेश उनकी आवाज़ों को सुनते तो मारे खुशी के झूम झूम जाते,*

*❀_"नाका बंदी इतनी शदीद थी कि एक मर्तबा हकीम बिन हुजा़म रज़ियल्लाहु अन्हु (हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा के भतीजे) ने कुछ गेंहू अपने गुलाम के हाथ चोरी छिपे भेजा, रास्ते में अबू जहल ने देखा लिया और गेंहू छीनने के दरपे हुआ, इत्तेफ़ाक से अबुल बख्तरी भी आ गया, उसके अंदर किसी अच्छे इंसानी जज़्बे ने करवट ली, और उसने अबु जहल से कहा कि छोड़ो भी एक भतीजा है तो तुम उसे भी अब रोकते हो _,"*     

*❥❥_ इसी तरह हिशाम बिन अमरु चोरी छिपे कुछ गल्ला वगैरा भेज देते थे, यही हिशाम बिन अमरु इस ज़ालिमाना मुआहिदे के खिलाफ दाई अव्वल बने, पहले ये जुबेर बिन अबी उमय्या के पास गए, उससे बात की कि क्या तुम इस बात पर खुश हो कि तुम खाओ पियो, कपड़ा पहनो, शादी ब्याह करो और तुम्हारे मामूओं का ये हाल हो कि वो ना ख़रीद फ़रोख़्त कर सकें, न शादी ब्याह के ताल्लुक़ात क़ायम कर सकें, अगर मामला अबुल हकम इब्ने हिशाम के मामूओं और ननिहाल का होता और तुमने उसे ऐसे मुआहिदे की दावत दी होती तो वो कभी इसकी परवाह ना करता,*

*❀_"_ ये सुन कर जुबेर ने कहा- "मैं क्या करूं, मैं तो अकेला आदमी हूं, खुदा की कसम! अगर कोई दूसरा मेरे साथ होता तो मैं इस मुआहिदे की मनसुखी के लिए उठ खड़ा होता और उसे खत्म कर के दम लेता _," हिशाम बिन अमरू ने कहा कि दूसरा साथी तो तुम्हें मिल गया है, जुबेर ने पूछा कौन? हिशाम ने कहा- मै!*

*"❀__ फ़िर हिशाम बिन मुत'अम बिन अदि के पास पहुँचे और इसी तरह तहरीक की, उसने भी वही जवाब दिया, इसी तरह अबुल बख़्तरी और ज़म'आ बिन असवद तक पहुँच कर हिशाम ने बात की,*

*"❀__ गर्ज़ बॉयकॉट के मुआहिदे के खात्मे की तहरीक अंदर ही अंदर जब काम कर चुकी तो इन सब लोगों में एक जगह बैठ कर स्कीम ये बनायी कि सबके सामने हिशाम ही बात छेड़ेगा, चुनांचे हिशाम ने बैतुल्लाह का सात बार तवाफ किया, फिर लोगों की तरफ आया और कहा कि मक्का वालों! क्या ये ज़ेबा है कि हम खाने खाएं और लिबास पहनें और बनू हाशिम भूख से तड़प रहे हो, ना वो कुछ ख़रीद सकें और फिर उसने अपना अज़्म इन अल्फाज़ में पेश कर दिया:- खुदा की कसम! मैं उस वक्त तक नहीं बैठुंगा जब तक कि ताल्लुक़ात को तोड़ देने वाली इस ज़ालिमाना तहरीक को चाक ना कर लूं _,"*

*"❀__ अबू जहल भन्ना कर उठा और चीख कर बोला, झूठे हो तुम, खुदा की क़सम तुम उसे चाक नहीं कर सकते_," ज़म'आ बिन असवद ने अबू जहल को जवाब दिया - तुम खुदा की कसम! सबसे बढ़ कर झूठे हो, ये मुआहिदा मालूम है जिस तरीक़े से लिखा गया है हम उसे पसंद नहीं करते, अबुल बख्तरी भी बोल उठा, "_सच कहा ज़म'आ ने हमको पसंद नहीं जो कुछ इसमे लिखा गया है और ना हम इसको मानते हैं,*
 *"_ मुत'अम ने भी ताईद मजीद की, तुम दोनों ठीक कह रहे हो और गलत कहता है जो इसके अलावा कुछ कहता है, हिशाम ने भी यही बात कही, अक्सरियत को यूं मुखालिफ पा कर अबु जहल अपना सा मुंह ले कर रह गया, और मुहाहिदा चाक कर दिया गया, लोग जब उसे काबे की दीवार से उतारने लगे तो ये देख कर हैरान रह गए के उसे दीमक चाट चुकी थी, सिर्फ "बिस्मिका अल्लाहुम्मा" के अल्फाज़ सलामत थे_,"*
 *®- सीरत इब्ने हिशाम-2/29-31,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -175,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–122_* ★
                  *⚂ गम का साल ⚂*   
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*❥❥_ दौरे नज़रबंदी का ख़ात्मा हो गया और एक बार फिर ख़ुदा के नबी ﷺ अपने घराने सहित आज़ादी की फ़िज़ा में दाखिल हुए, लेकिन अब इससे भी सख़्ततर दौर का आगाज़ होता है, ये नबूवत का दसवां साल था, इस साल में अव्वलीन सान्हा ये पेश आया कि हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के वालिद (आप ﷺ के चाचा) अबु तालिब की वफ़ात हो गई, इस तरह वो एक ज़ाहिर सहारा भी छिन गया जो हुज़ूर ﷺ को अपने साया शफ़क़त में लिए हुए दुश्मन के लिए पूरी इस्तेक़ामत से आख़िर दम तक मुजा़हिम रहा था,*

*"❀__ इसी साल दूसरा सदमा हुज़ूर ﷺ को हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा की रेहलत का उठाना पड़ा, हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा महज़ हुज़ूर ﷺ की बीवी ही ना थी, बल्की साबिकी़न अव्वलीन में थी, और उन्होंने दौरे रिसालत से पहले भी मुवासनत व गम गुसारी में कोई कसर न छोड़ी थी और अव्वलीन वही के नुजूल से ले कर आखिरी दम तक राहे हक़ में हुजूर ﷺ के साथ सच्ची रफाक़त का हक़ अदा कर के दिखला गईं,*

*"❀__ तहरीक हक की हिमायत में माल भी खर्च किया, क़दम क़दम पर मशवरे भी दिए और दिली जज़्बे से ता'वुन दिखाया, बजा तौर पर कहा गया है कि "वो हुजूर ﷺ के लिए वज़ीर थीं_,"*

*❀_"_ एक तरफ तो एक के बाद एक दो सदमे हुज़ूर ﷺ को सहने पड़े और दूसरी तरफ़ ज़ाहिरी सहारों के हट जाने की वजह से मुख़ालफ़त का तूफ़ान और ज़़यादा चढ़ाव पर आ गया, इन्ही गम अंगेज़ हालात की वजह से ये साल अंदूह या आमुल हुज़्न के नाम से मौसूम हुआ_,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -176,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–123_* ★
                   *⚂ ग़म का साल ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥-अब क़ुरेश इंतेहाई ज़लील हरकतों पर उतर आए, लोंडो को पीछे लगा दिया जाता जो शोर मचाते और हुज़ूर ﷺ नमाज़ पढ़ते तो वो तालियां पीटते, रास्ते चलते हुए हुज़ूर ﷺ पर गलाज़त फैंक दी जाती, दरवाज़े के सामने काँटे बिछाये जाते, खुल्लम खुल्ला गालियाँ दी जाती, फ़बतियाँ कसी जाती, आपके चेहरे मुबारक पर खाक़ फ़ैंकी जाती, बल्की बाज़ ख़बीस बद्तमीज़ी की इस आखिरी हद तक पहुँचते कि आपके रुखे अनवर पर थूक देते ,*

*❀_"_ एक बार अबू लहब की बीवी उम्मे जमील पत्थर लिए हुजूर ﷺ कि जुस्तजू में हरम तक इस इरादे से आई कि बस एक ही वार में काम तमाम कर दें, मगर हुजूर ﷺ अगरचे हरम में सामने ही मौजूद थे लेकिन खुदा ने उसकी निगाह को रसाई ना दी, और वो हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के सामने अपने दिल का बुखार निकाल कर चली आई,*

*"❀__ इस तरह एक बार अबू जहल ने पत्थर से हुजूर ﷺ को हलाक कर देने का इरादा किया, और इसी इरादे में हुजूर ﷺ तक पहुंचा भी, मगर खुदा ने अबु जहल को खौफ व मरूबियत के ऐसे आलम में डाला कि वो कुछ कर ना सका,*

*"❀__ एक बार दुश्मनाने हक़ बैठे यही तज़किरा कर रहे थे कि इस शख्स (मुहम्मद ﷺ) के मामले में हमने जो कुछ बर्दाश्त किया है उसकी मिसाल नहीं मिलती, इसी दौरन हुजूर ﷺ तशरीफ ले आए, उन लोगों ने दरियाफ्त किया कि क्या तुम ऐसा कहते हो, हुजूर ﷺ ने पूरी अखलाकी़ जुर्रत से फरमाया - हां मैं हूं जो ये और ये कहता है! बस ये कहना था कि चारो तरफ से धावा बोल दिया गया,*

*❀_"_ अब्दुल्लाह बिन अमरु बिन आस का बयान है कि कुरेश की इससे बढ़ कर हुजूर ﷺ के खिलाफ मैंने कोई ज़बरदस्ती नहीं देखी, हमला आवर रुक गए तो खुदा के रसूल ﷺ ने फिर उसी फोक़ुल इंसानी जुर्रत से काम ले कर उनको इन अल्फाज़ से मुतनब्बा किया कि "मैं तुम्हारे सामने ये पैगाम लाया हूं कि तुम ज़िबह हो जाने वाले हो, यानी जुल्म की छूरी जो तुम मुझ पर तेज़ कर रहे हो, तारीख में काम करने वाला क़ानूने इलाही बिल आखिर इससे खुद तुमको ज़िबह कर देगा, तुम्हारा ये ज़ोर व इक़तिदार जो जुल्म के रुख पड़ गया है, ये यक्सर खत्म हो जाने वाला है,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -177,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–124_* ★
                   *⚂ ग़म का साल ⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_हज़रत उस्मान बिन अफ्फ़ान रज़ियल्लाहु अन्हु एक वाक़िया बयान करते हैं कि नबी करीम ﷺ बैतुल्लाह का तवाफ़ कर रहे हैं, उक़बा बिन मुईत, अबू जहल और उमय्या बिन खल्फ़ हतीम में बेठे हुए थे, जब हुज़ूर ﷺ अनके सामने से गुज़रे तो वो कलमात बद जुबानो पर लाते, तीन बार ऐसा ही हुआ,*

*❀_"आखरी मर्तबा हुजूर ﷺ ने चेहरा मुतागय्यरा के साथ कहा कि बाखुदा तुम बगेर इसके बाज़ ना आओगे कि खुदा का अज़ाब जल्दी तुम पर टूट पड़े _,"*

*❀_"_ हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि हैबते हक़ थी कि ये सुन कर उनमे से कोई ना था जो काँप ना रहा हो, ये फ़रमा कर हुज़ूर ﷺ अपने घर को चले तो हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु और दूसरे लोग साथ हो लिए,*

*"❀__ इस मोक़े पर हुज़ूर ﷺ ने हमसे ख़िताब कर के फरमाया- तुम लोगों को बशारत हो, अल्लाह ताला यक़ीनन अपने दीन को ग़ालिब करेगा और अपने कलमे की तकमील करेगा, और अपने दीन की मदद करेगा, और ये लोग जिन्हे तुम देखते हो अल्लाह ता'ला बहुत जल्दी तुम्हारे हाथो से ज़िबह कराएगा _,"*

*"❀__ गोर कीजिये कि बा ज़ाहिर किस अंगेज़ महोल में ये बशारत दी जा रही थी और फिर किस शान से ये बहुत ही जल्दी पूरी हुई... गोया तहरीके़ हक ने हथेली पर सरसो जमा दी_,"*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -177,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–125_* ★
         *⚂_ ताइफ में दावत हक _⚂*   
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*❥❥_ एक रोज रसूल अकरम ﷺ अलल सुबेह घर से निकले और खुदा का पैगाम सुनाने के लिए मक्का के मुख्तलिफ कूचों में घूमें फिरे लेकिन वो एक दिन पूरा ऐसा गुज़रा कि आपको एक आदमी भी ऐसा ना मिला जो बात को सुनता_,"*

*❀"_ नई स्कीम ये अख्त्यार की गई थी कि आप ﷺ को जब आते देखा जाए तो लोगो को चाहिए कि इधर उधर छुप जाएं, बात सुनने से बात फैलती है और मुखाल्फत करने से और बहस छेड़ने से वो और ज़्यादा उभरती है, स्कीम कामयाब रही, जो लोग मिले भी उन्होंने इस्तेहज़ा और गुंडा गर्दी का मुज़ाहिरा किया,*

*❀"_ उस रोज़ आप ﷺ पूरा दिन गुज़ार कर जब पलटे तो उदासी का एक भारी बोझ आपके सीने पर लदा हुआ था, सख़्त थकन थी... ऐसी घुटन जो किसी की खैर ख्वाही करने वाले को उस वक़्त होती है कि जिसकी वो खैर ख्वाही कर रहा है, वोही खुद मोहसिन कुशी पर उतर आए,*

*❀"_ शायद इसी दिन से आपके दिल में ये रुझान पैदा हो गया था कि अब मक्का से बाहर निकल कर काम करना चाहिए, ज़ैद बिन हारिसा को साथ ले कर सरवरे आलम ﷺ मक्का से पैदल चले और रास्ते में जो क़बाइल आबाद थे उन सबके सामने खुदा का पैगाम पेश किया,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -178,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                ★ *क़िस्त–126_* ★
        *⚂ _ताइफ में दावत हक _⚂*   
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*❥❥_ ताइफ एक बड़ा सर सब्ज़ इलाक़ा था, पानी, साया, खैतियां, बागात निस्बतन ठंडा मुक़ाम, लोग बड़े ख़ुशहाल थे और दुनिया परस्ती में बुरी तरह मगन, इंसान एक मर्तबा मा'शी ख़ुशहाली पा ले तो फिर वो खुदा फरामोशी और अखलाकी़ पस्ती में दूर तक बढ़ता चला जाता है, यही हाल अहले ताइफ का था, मक्का वालों में तो फिर भी मज़हबी सरबराही और मुल्की क़यादत की ज़िम्मेदारियों की वजह से किसी क़दर अखलाकी़ रख रखाव हो सकता था लेकिन ताइफ के लोग पूरी तरह रुखे मिज़ाज के थे, और फिर सूद खोरी ने उनके अच्छे इंसानी एहसासात को बिलकुल मालिया मेट कर दिया था,*

*"❀_ हुजूर ﷺ गोया मक्का से बदतर माहोल में क़दम रख रहे थे, मोहसिने इंसानियत ﷺ ताइफ में पहुँचे तो पहले सक़ीफ़ के सरदारों से मुलाक़ात की, ये तीन भाई थे, अब्द यालैल, मसूद और हबीब, इनमे से एक के घर में कुरेश (बनी जमाह) की एक औरत थी, इस वजह से एक तरह की लिहाज़ दारी की तवक्को हो सकती थी,*

*"❀_ हुजूर ﷺ उनके पास जा बेठे, उनको बा तरीक़ अहसन अल्लाह ता'ला की तरफ बुलाया, और अपनी दावत पर गुफ्तगू की और उनसे अक़ामत हक़ के काम में हिमायत तलब की, अब जवाब सुनिए जो तीनों की तरफ से मिलता है :-*
*"_एक बोला - अगर वाक़ई खुदा ने ही तुमको भेजा है तो बस फिर वो काबा का गिलाफ नुचवाना चाहता है_,"*

*"❀_दूसरा बोला - क्या खुदा को तुम्हारे अलावा रिसालत के लिए कोई और मुनासिब आदमी न मिल सका_,"*
*"_ तीसरा बोला- खुदा की कसम! मैं तुझसे बात भी नहीं करूंगा, क्योंकि अगर तू अपने कहने के मुताबिक वाक़ई अल्लाह का रसूल है, तो फिर तुझ जैसे आदमी को जवाब देना सख्त खिलाफे अदब है, और अगर तुमने खुदा पर इफ्तिरा (झूठा इल्जाम) बांधा है तो तू इस का़बिल नहीं हो सकता कि तुमसे बात की जाए _,"*      

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -179,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–127_* ★
        *⚂ _ताइफ में दावत हक _⚂*   
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*❥❥ज़हर में बुझे हुए तीर थे जो इंसानियत के मोहसिन के सीने में पे दर पे पेवस्त होते चले गए, आपने तहम्मुल से अपने दिल पर सारे ज़ख्म सह लिए और उनके सामने आखिरी बात ये रखी कि तुम अपनी ये बात अपने ही तक रखो और कम से कम आवाम को उनसे मुतास्सिर ना करो, मगर उन्‍होंने अपने यहां के घटिया और बाजा़री लड़को और नौकरों और गुलामों को बुलाकर आपके पीछे लगा दिया कि जाओ और उस शख्स को बस्ती से निकाल बाहर करो,*

*"❀__ एक झुंड का झुंड आगे पीछे हो लिया, ये लोग गालियां देते, शोर मचाते और पत्थर मारते थे, हुजूर ﷺ जब निढ़ाल हो जाते तो बैठ जाते, लेकिन ताइफ के गुंडे आपको बाजू से पकड़ कर उठा देते, और फिर पत्थर टखनो पर मारते और तालियां बजा बजा कर हंसते, खून बेतहशा बह रहा था और जूतियां मुबारक अंदर और बाहर से खून से भर गई,*

*❀_"_ इस नादिर तमाशे को देखने के लिए बड़ा हुजूम इकट्ठा हो गया, गुंडो का झुंड इस तरीक़े से आपको शहर से निकाल कर एक बाग के आहाते तक ले आया, जो रबीआ के बेटों उक़बा और शीबा का था, आपने बिलकुल बेदम हो कर अंगूर की एक बेल से टेक लगा ली, बाग के मालिक आपको देख रहे थे और जो कुछ आप पर बीती उसका भी कुछ मुशहिदा कर चुके थे,*

*❀_"_ यही वो मौक़ा था जब कि दोगाना पढ़ने के बाद आपके होंठों से ये दर्द भरी दुआ निकली :-*
*"_इलाही अपनी कुव्वत की कमी अपनी बेसरो सामानी और लोगों के मुक़ाबले में अपनी बेबसी की फरियाद तुझी से करता हूँ, तू सब रहम करने वालों से ज़्यादा रहम करने वाला है, दर्दमंदह बेकसो का परवर्दीगार तू ही है, तू ही मेरा मालिक है, आखिर तू मुझे किसके हवाले करने वाला है, क्या उस हरीफ बेगाना के जो मुझसे तुर्शुरुई रवा रखता है या ऐसे दुश्मन के जो मेरे मामले पर काबू रखता है, लेकिन अगर मुझ पर तेरा गज़ब नहीं है तो फिर मुझे कुछ परवाह नहीं, बस तेरी आफियत मेरे लिए ज़्यादा वुस'अत रखती है, मैं इस बात के मुक़ाबले में तेरा गज़ब मुझ पर पड़े या तेरा अजा़ब मुझ पर वारिद हो तेरे ही नूर व जमाल की पनाह तलब करता हूं, जिससे सारी तारिकियां रोशन हो जाती है' और जिसके ज़रिए दीन व दुनिया के जुमला मामलात संवर जाते हैं, मुझे तो तेरी रजा़मंदी और खुशनूदी की तलब है, बजुज़ तेरे कहीं से कोई कु़व्वत व ताक़त नहीं मिल सकती_, "*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -180,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵

                  ★ *क़िस्त–128_* ★
        *⚂ _ताइफ में दावत हक _⚂*   
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*❥❥_ इतने में बाग के मालिक भी आ पहुंचे, उनके दिलों में हमदर्दी के जज़्बात उमड़ आए थे, उन्होंने अपने नसरानी गुलाम को पुकारा, उसका नाम अददास था, फिर एक तश्तरी में अंगूर का खोशा रखवा कर भिजवाया, अददास अंगूर पेश कर के आन हजरत ﷺ के सामने बैठ गया, आपने हाथ अंगूर की तरफ बढ़ाते ही "बिस्मिल्लाह" कहा, अददास कहने लगा - खुदा की क़सम! इस तरह की बात इस शहर के लोग तो कभी नहीं कहते _,"*

*❀_"_ आन हजरत ﷺ ने पूछा कि तुम किस शहर के आदमी हो और तुम्हारा दीन क्या है? उसने बताया कि मैं नसरानी हूं और नेनवा का बाशिंदा हूं, आपने फरमाया - तुम तो यूनुस बिन मति जेसे मर्दे सालेह की बस्ती के आदमी हो_, अददास ने हैरत से पूछा- आपको केसे मालूम कि यूनुस बिन मति कौन है? आपने कहा- "वो मेरा भाई है, वो भी नबी था और मैं भी नबी हूं_,"*

*"❀__ ये सुनते ही अददास आपके हाथ पांव को चूमने लगा, रबीआ के बेटों में से एक ने ये माजरा देखा तो उसने अददास के वापस जाने पर मलामत की कि यह क्या हरकत कर रहे थे, तुमने अपना दीन खराब कर लिया है, अददास ने गहरे तास्‍सुर के साथ जवाब दिया - मेरे आका़! उससे बढ़ कर ज़मीन में कोई चीज़ नहीं, उस शख्स ने मुझे एक ऐसी बात बताई है जिसे नबी के सिवा कोई और नहीं जान सकता_,"*

*❀_"_ दर हक़ीक़त अब जनाब अबू तालिब की वफ़ात के बाद मक्का में आप ज़ाहिरी लिहाज़ से बिल्कुल बेसहारा थे और दुश्मन शेर हो गए थे, आप ﷺ ने ख़याल फरमाया कि ता'इफ में से शायद कुछ अल्लाह के बन्दे उठ खड़े हों, वहां ये सूरत पेश आई, वहां से फिर आप नखला में क़याम पजी़र रहे, वहां से वापस आए और गारे हिरा में तशरीफ फरमा हुए, यहां से मुत'अम बिन अदि को पैगाम भिजवाया कि क्या तुम मुझे अपनी हिमायत में ले सकते हो?*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -180,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–129_* ★
        *⚂ _ताइफ में दावत हक _⚂*   
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*❥❥_ अरब के क़ौमी किरदार की एक रिवायत ये थी कि हिमायत तलब करने वाले को हिमायत दी जाती थी, चाहे वो दुश्मन ही क्यों न हो, मुत'अम ने पैगाम कुबूल कर लिया, बेटों को हुक्म दिया कि हथियार लगा कर हरम में चलो, खुद रसूलल्लाह ﷺ को साथ लाया, और मक्का में आ कर ऊंट पर से ऐलान किया कि मैंने मुहम्मद (ﷺ) को पनाह दी है, मुत'अम के बेटे आपको तलवारों के साए में हरम में लाए, फिर घर में पहुंचाया,*

*"❀_ताइफ में हुजूर ﷺ पर जो कुछ गुज़री उसे मुश्किल ही से रिवायात के अल्फाज़ हम तक मुंतकिल कर सकते हैं, एक बार हजरत आयशा रजियल्लाहु अन्हा ने दरियाफ्त किया कि या रसूलुल्लाह ﷺ! क्या आप पर उहद के दिन से भी सख़्त दिन कोई गुज़रा है?*
*_ फरमाया तेरी क़ौम की तरफ से और तो जो तकलीफे पहुंची सो पहुंची, मगर सबसे बढ़ कर सख्त दिन वो था जब मैंने ता'इफ में अब्दया लैल के बेटे के सामने दावत रखी और उसने उसे रद्द कर दिया और इस दर्जा सदमा हुआ कि क़रने अशालिब के मुक़ाम तक जा कर बा मुश्किल तबीयत संभली _," (अल मुवाहिब -1/56)"*

*"❀__ ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु जिन्होंने आप ﷺ के निढा़ल और बेहोश हो जाने पर ताइफ से कंधो पर आपको उठा कर शहर के बाहर पहुंचाया, गमज़दा हो कर अर्ज़ करने लगे कि आप उन लोगों के लिए खुदा से बद दुआ करें, फरमाया - मैं उनके लिए क्यों बद दुआ करूं, अगर ये लोग खुदा पर ईमान नहीं लाते तो उम्मीद है कि इनकी नस्लें ज़रूर खुदा ए वाहिद की परस्तार होंगी _,"*

*❀_"_ इसी सफर में जिब्रील अलैहिस्सलाम आते हैं और इत्तेला देते हैं कि पहाड़ों का इंचार्ज फरिश्ता आपकी खिदमत में हाजिर हैं, अगर आप इशारा करें तो वो इन पहाड़ों को आपस में मिला दे जिनके दरमियान मक्का और ता'इफ वाक़े हैं, और दोनो शहरो को पीस कर रख दे_,"*

*❀_"_ इसी पास अंगेज फिज़ा में जिन्नो की जमात आ कर क़ुरान सुनती है और हुजूर ﷺ के हाथ पर ईमान लाती है, इसी तरह से खुदा ने ये हक़ीक़त वाज़े की कि अगर तमाम इंसान दावत हक़ को रद्द कर दें तो हमारी मखलूका़त ऐसी मौजूद है कि आपका साथ देने को तैयार है'*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -181,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–130_* ★
            *⚂ __सफर ए मैराज _⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ ताइफ के तजुर्बे के बाद गोया हुजूर ﷺ इस आखिरी इम्तिहान से गुज़र गए, क़ानून इलाही के तहत नागुजे़र था कि अब नए दौर के दरवाज़े खुल जाएंगे और तुलु ए सहर की बशारत दी जाए, यही बशारत देने के लिए हुजूर ﷺ को मेराज से सरफराज़ किया गया _,"*

*"❀_ मैराज की हक़ीक़त ये है कि हुजूर ﷺ को कुर्बे इलाही का इंतेहाई बुलंद मुका़म नसीब किया गया, पिछले अम्बिया अलैहिस्सलाम को भी मौक़ा बा मौक़ा शर्फ दिया जाता रहा था कि वो गैबी हक़ाइक़ का मुशाहिदा करें, और कुर्बे खुदावंदी मे पहुंच कर इनायाते खास से खुश किस्मत हों, कुरान में जहां एक तरफ इब्राहिम अलैहिस्सलाम के बारे में बताया गया है कि उनको मलाकूतुस समावात वल अर्द का मुशहिदा कराया गया, वहीं मूसा अलैहिस्सलाम को तूर पर बुलाया गया और वहा खुदावंद ताला ने एक नूर अफगन दरख्त की ओट से कलाम से सरफराज़ फरमाया, और फिर दूसरे मोके़ पर ऐसे ही लम्हा ए कुर्ब में शरीयत के अहकाम तफवीज़ (सुपुर्द) किए,*

*"❀_ गोया किसी ना किसी शक्ल में मैराज जलीलुल क़द्र अंबिया अलैहिस्सलाम को भी हासिल होती रही थी, हुज़ूर ﷺ की मैराज अपने अंदर शाने कमाल रखती है, वाक़िया ताइफ और हिजरत के दरमियान इस वाक़िए से ज़्यादा अहम और मुमताज़ वाक़िया कोई दूसरा पेश नहीं आया_,"*

*"❀_ इसकी जब इत्तेला आप ﷺ ने दी तो मक्का भर में एक हंगामा बरपा हो गया, आपने मजमा आम में अपने मुशाहिदात बयान किए, बैतुल मुक़द्दस का पूरा नक़्शा खींच दिया, रास्ते की ऐसी क़तई अलामात बताईं कि जिनकी बाद मे तसदीक़ हो गई, उस लम्हा ए कुर्ब में जो खास वही की गई वही सूरह बनी इसराईल के उनवान से हमारे सामने हैं, इस सूरह का आगाज़ ही वाक़िया इसरा के तज़किरा से होता है और फिर पूरी सूरह में मेराज की रूह रची बसी है,*       

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -182,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–131_* ★
            *⚂ _ हिजरत- का -हुक्म _⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ताइफ क़रीब था और दूर हो गया, यसरिब (मदीना मुनव्वरा) दूर था मगर क़रीब आ गया:-*

*"❀_ यसरिब उस रोज़ बिल्कुल क़रीब आ गया जिस रोज़ (नबुवत के 11 वे साल) 6 इंकबाबियों के एक जत्थे ने हुजूर ﷺ से पैमानो वफा बांधा, फिर दूसरे साल 112 अफराद ने तहरीके़ इस्लामी की अलंबरदारी के लिए बा-का़यदा गुफ्त व शुनीद कर के पहले बैते उकबा की गिरह बांधी और इस्लामी तोहीद और अखलाकी़ हुदूद के तहफ्फुज़ की ज़िम्मेदारी अपने सर ली,*

*"❀_ फिर हज के मौक़े पर एक बड़ी जमात हाज़िर हुई और उसने रात की तारीकी़ में एक खुफिया मजलिस के अंदर दूसरी बैते उक़बा मजबूत की जो पूरी तरह सियासी रूह से ममलू थी, इसी में हुजूर ﷺ का हिजरत कर के मदीना मुनव्वरा जाना तय हुआ और इस वालेहाना पेशकश के साथ तय हुआ कि अंसारे मदीना आपके लिए दुनिया जहां से लड़ाई मोल लेने को तैयार है _,"*

*❀"_ शायद यही दौर.. सफर ताइफ से हिजरत तक है जिसमें सूरह युसूफ नाजि़ल हुई थी और जिसने हदीस दीगरां के परदे में आलंबरदार हक़ को बशारत दी और उसके मुखालिफीन को उनके घटिया और ज़ालिमाना तर्ज़े अमल से आगाह कर के उनका अंजाम उनके सामने रख दिया,*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -183,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–132_* ★
            *⚂ _ हिजरत- का -हुक्म _⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ आखिरी बैत ए उक़बा (यानी ज़िल्हिज्जा 13 बाद बैसत) के बाद रसूलुल्लाह ﷺ ने मक्का के मुसलमानों को मदीना मुनव्वरा की तरफ़ हिजरत कर जाने का हुक्म दे दिया और फरमाया कि अल्लाह अज़ व जल ने अब तुम्हारे लिए भाई पैदा कर दिए हैं और एक ऐसा शहर फराहम कर दिया है जहां तुम अमन से रह सकते हो _," (इब्ने हिशाम- बा हवाला इब्ने इश्हाक़)*

*"❀_ ये हुक्म मिलते ही सबसे पहले हज़रत आमिर बिन रबिआ रज़ियल्लाहु अन्हु अपनी बीवी लैला बिन्ते अबी हसमा के साथ निकले, फ़िर हज़रत अम्मार बिन यासिर और हज़रत बिलाल और हज़रत साद बिन अबी वक़ास रज़ियल्लाहु अन्हुम ने हिजरत की, फ़िर हज़रत उस्मान बिन अफ्फान रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपनी अहलिया रुक़ैय्या बिन्ते रसूलुल्लाह ﷺ के साथ रवाना हुए, फिर मुहाजरत का एक सिलसिला चल पड़ा और लोग पे दर पे इस नए दारुल हिजरत की तरफ जाते गए, पूरे कुनबे अपने घर बार छोड़ कर निकल खड़े हुए।*

*"❀_ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को मदीना मुनव्वरा भेजने के बावजूद आन हज़रत ﷺ ने अपने मुक़ामे दावत को नहीं छोड़ा, आप ﷺ हुक्मे इलाही के मुंतज़िर रहे, अब कोई मुसलमान भी मक्का में नहीं रहा था, सिवाय ऐसे लोगों के जिन्हे कुरेश ने रोक रखा था या इब्तिला में डाल रखा था, अलबत्ता खास रफीक़ में अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु बाक़ी थे,*

*❀"_ इन हालात में कुरेश ने अंदाज़ा कर लिया कि अब जबकि मुसलमानों को एक ठिकाना मिल गया है और एक एक कर के सब लोग जा चुके हैं, क़रीब है कि मुहम्मद ﷺ भी हाथ से निकल जाएं और फिर हमारा दायरा ए असर से बाहर रह कर कुव्वत पकड़े और सारा पिछला हिसाब चुक जाए, ये लोग मक्का के पब्लिक हॉल दारुल नदवा में जमा हुए और सोचने लग गए कि अब मुहम्मद ﷺ के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाए,*   

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -186,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–133_* ★
            *⚂ _ हिजरत- का -हुक्म _⚂*   
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*❥❥_ मुख्तलिफ राय के बाद अबु जहल ने तजवीज़ किया कि हर क़बीले से एक मज़बूत और मोअज्जिज़ नौजवान लिया जाए और सबको तलवार दी जाए, फिर यकबार्गी उस पर हमला कर के काम तमाम कर दें, बस हमें इस तरह से छुट्टी मिल सकती है, इस तरह से मुहम्मद ﷺ का खून तमाम क़बाइल पर तक़सीम हो जाएगा और बनू अब्दे मुनाफ इतने सारे क़बाइल से बदला लेने की जुर्रत ना कर पाएंगे, बस इस राय पर इत्तेफ़ाक हो गया और ये साज़िसी मीटिंग बरख़ास्त हो गई,*

*❀"_इसी मीटिंग की कारवाई पर क़ुरान ने इन अलफ़ाज़ में तब्सिरा किया:- "और याद करो उस घड़ी को जब कुफ़्फ़ार तदबीरे कर रहे थे कि आपको क़ैद में डाल दें या क़त्ल कर दें या बाहर निकाल दें, वो अपनी सी तदबीर लड़ाते हैं और अल्लाह जवाबन तदबीर करता है और अल्लाह तदबीर करने में सबसे बड़ कर है _," (अल अनफाल- 30)*

*❀"_ आने वाली पुर इसरार रात सामने थी, हुज़ूर ﷺ अपने महबूब तरीन रफ़ीक़ हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के घर तशरीफ़ ले गए, जा कर राज़दाराना तरीक़े से इत्तेला दी कि हिजरत की इजाज़त आ गई है, जनाब सिद्दीक़ ने हमराही की दरख़्वास्त की जो पहले से क़ुबूल थी, इस सआदत के हुसूल पर फ़र्ते मसर्रत से हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की आँखें डबडबा गई,*

*❀"_ उन्होंने हिजरत के लिए दो ऊंटनियां पहले से खूब अच्छी तरह फरबा कर रखी थीं पेशकश की कि हुजूर ﷺ दोनो में से जिसे पसंद फ़रमायें हदिया है, मगर हुजूर ﷺ ने बा इसरार एक ऊंटनी (जिसका नाम जुद'आ था) की़मातन ली,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -187,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵                          
                  ★ *क़िस्त–134_* ★
            *⚂ _ हिजरत- का -हुक्म _⚂*   
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*❥❥_"रात हुई तो हुज़ूर ﷺ बा हुक्मे इलाही अपने मकान पर न सोये और दूसरे महबूब तरीन रफ़ीक़ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को अपने बिस्तर पर बिला खौफ़ सो जाने की हिदायत फ़रमाई, साथ ही लोगों की अमानते उनके सुपुर्द की कि सुबेह को ये मालिकों को अदा कर दी जाएं, इस अख़लाक़ की कितनी ही मिसालें तारीख के पन्नो में मौजूद है, एक फ़रीक़ तो क़त्ल की साज़िश कर रहा है और दूसरा फ़रीक़ अपने क़तिलो को अमानतों की अदायगी करने की फ़िक्र में है _,"*

*"❀__ फ़िर हुज़ूर ﷺ हज़रत सिद्दीक़ अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु के घर पहुँचे, जनाब अस्मा बिनते अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हा ने जल्दी से अपना कमर बंद फ़ाडा़ और एक टुकड़े में खाने की पोटलियां बाँधी और दूसरे टुकड़े से मश्किज़ा का मुंन बांधा, दो मुसाफिराने हक़ का ये का़फिला रात की तारीकी में गामज़न हो गया,*

*❀_"_ आज दुनिया का सबसे बड़ा मोहसिन व खैर ख्वाह (ﷺ) बगेर किसी कुसूर के बेघर हो रहा था! मोहसिन ए इंसानियत ﷺ का कलेजा कटा होगा, आंखें डबडबाई होंगी, जज़बात उमड़े होंगे, मगर खुदा की रज़ा और बंदगी का मिशन चुंकी इस क़ुर्बानी का भी तालिब हुआ इसलिए इंसाने कामिल ने ये क़ुर्बानी भी दे दी, आज मक्का के पैकर से उसकी रूह निकल गई थी, आज इस चमन के फूलों से ख़ुशबू उड़ी जा रही थी, आज ये चश्मा सुखा रहा था, आज उसके अंदर से बा उसूल और साहिबे किरदार हस्तियों का आखिरी क़ाफ़िला रवाना हो रहा था,*

*❀_"_ दावते हक़ का पोधा मक्का की सरज़मीन से उगा, लेकिन उसके फलों से दामन भरना मक्का वालों के नसीब में ना था, फल मदीना वालों के हिस्से में आए, सारी दुनिया के हिस्से में आए? मक्का वाले आज धकेल कर पीछे हटाए जा रहे थे, और मदीना वालों के लिए अगली सफ में जगह बनाई जा रही थी, जो अपने आपको ऊंचा रखते थे उन्हें पस्ती में धकेलने का फैसला हो गया और जिन्को मुक़ाबलतन निचले दर्जे पर रखा जाता था वोही लोग उठा कर ऊपर लाये जा रहे थे ,*

*❀_"_ हुजूर ﷺ ने आखिरी निगाह डालते हुए मक्का से ये खिताब फरमाया:- खुदा की क़सम, तू अल्लाह की सबसे खूबसूरत ज़मीन है, और अल्लाह की निगाह में सबसे बढ़कर महबूब, अगर यहां से मुझे निकाला ना जाता तो मै कभी ना निकलता_,"*
 *"_ तिर्मिज़ी और मुसनद की रिवायत है कि मक्का से निकलते वक़्त हुज़ूर ﷺ हज़ुरा के मुक़ाम पर खड़े हुए बैतुल्लाह की तरफ रुख किया और बड़े दर्द के साथ फरमाया_," (सीरत सरवरे आलम - 2/724)*     
*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -188,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
                  ★ *क़िस्त–135_* ★
            *⚂ _ हिजरत- का -हुक्म _⚂*   
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*❥❥- चंद लम्हों बाद हुजूर ﷺ गारे सोर में थे, रास्ता खुद हुजूर ﷺ ने तजवीज़ फरमाया था और अब्दुल्लाह बिन अरीक़त को उजरत दे कर गाइड़ मुकर्रर किया, तीन रोज़ आप गार में रहे, अब्दुल्लाह बिन अबू बकर रजियाल्लाहु अन्हु रात को मक्का की सारी खबरें पहुंचा आते, आमिर बिन फहीरा (हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु के गुलाम) बकरियों का रेवड़ ले कर उसी तरफ निकलते और अंधेरा हो जाने पर गार के सामने जा पहुंचते ताकी दोनो मुहाजिर ज़रूरत के मुताबिक़ दूध ले लें _,"*

*❀"_ उधर कुरेश ने हुजूर ﷺ के मकान का मुहासरा रात भर रखा और पूरे शहर की नाकाबंदी का कड़ा इंतजाम भी किया, मगर जब अचानक उनको ये मालूम हुआ कि जिसकी तलाश थी वो तो निकल गया है, तो उनके पांव तले ज़मीन निकल गई, हुज़ूर ﷺ के बिस्तर पर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को पा कर बहुत सिटपिटाए और उन पर गुस्सा निकाल कर चले गए,*

*❀"_ तलाश के लिए चारो तरफ आदमी दौड़ाएं, कुछ पता न चला, एक गिरोह दौड़ धूप करते हुए गारे सोर के दरवाज़े पर आ पाहुँचा, उनके क़दम अंदर दिखायी देने लगे, कितना नाज़ुक तारीखी लम्हा था, हज़रत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु को तशवीश हुई कि अगर ये लोग गार में दाखिल हो गए तो गोया पूरी तहरीक़ खतरे में पड़ जाएगी, ऐसे लम्हात में सही इंसानी फितरत के अंदर जैसा अहसास पैदा होना चाहिए, ठीक ऐसा ही एहसास जनाब सिद्दीक का था,*

*❀"_ मगर चुंकी हुजूर ﷺ के साथ हक़ ताला के कुछ वादे थे और उसकी तरफ से हिफाज़त व नुसरत की यक़ीन दहानी थी इसलिए पर्दा ए गैब के पीछे तक देखने वाला दिल जानता था कि खुदा हमें सही सलामत रखेगा, फिर भी ठीक उसी तरह वही सकीनत नाजि़ल हुई जेसे मूसा अलैहिस्सलाम पर नाज़िल हुई थी, इरशाद हुआ - फिक्र न करो अल्लाह हमारे साथ है _," (तौबा- 40)*

*❀"_ चुनांचे आने वाला गिरोह गार के दहाने ही से वापस लौट गया, तीन रोज़ गार में रहने के बाद हुज़ूर ﷺ जनाब सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ अपने रहबर और आमिर बिन फ़हीरा को ले कर निकले, ताक़्कुब से बचने के लिए आम रास्ता छोड़ कर साहिल का लंबा रास्ता अख्त्यार किया गया,*    

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -188,* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵                                    ★ *क़िस्त–136_* ★
            *⚂ _ हिजरत- का -हुक्म _⚂*   
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*❥❥_उधर मक्का में ऐलान किया गया कि दोनो मुहाजिरों में से किसी को भी कोई शख्स क़त्ल कर दे या गिरफ़्तार कर लाए उसके लिए सो ऊंट का इनाम है, लोग बराबर तलाश में थे,*

*❀_"सुराका़ बिन मालिक बिन जैशम को खबर मिली कि ऐसे ऐसे दो शख्स साहिल के रास्ते पर देखे गए हैं, उसने नेजा़ लिया और घोड़े पर सवार हो कर रवाना हो गया, क़रीब आ कर सुराका़ जब तेज़ी से झपटा तो उसके घोड़े के अगले पाँव ज़मीन में धंस गए, सुराक़ा ने दो तीन बार की नाकाम कोशिश के बाद माफ़ी चाही और दरख़्वास्त की एक तहरीरे अमान लिख दीजिए, गोया उसने ये भी मेहसूस कर लिया था कि इन हस्तियों के तुफैल में एक नया दौर नमुदार होने वाला है, अमान लिख दी गई और फतेह मक्का के दिन काम आई,*

*❀"_ इसी मौक़े पर हुज़ूर ﷺ ने सुराक़ा को एक बशारत भी दी कि, ऐ सुराक़ा उस वक़्त तेरी क्या शान होगी जब तू किसरा के कंगन पहनेगा_,"*
*"_ ये पेशगोई हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के दौर में फ़तेह ईरान के मोक़े पर पूरी हो गई,*

*"❀_ इसी सफर में हज़रत ज़ुबेर रज़ियल्लाहु अन्हु कारवांने तिजारत के साथ शाम से वापस आते हुए मिले, उन्होंने हुज़ूर ﷺ और हज़रत अबु बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु दोनो की खिदमत में सफ़ेद लिबास हदिया किया,*
*"_इसी सफर में बुरेदा असलमी भी सत्तर हमराहियों के साथ सामने आए, ये भी दर हक़ीक़त इनाम के ललच में निकले थे, जब सामना हुआ तो बुरेदा के दिल की काया पलट गई, तारीफ गुफ्तगू ही में जब हुजूर ﷺ ने एक कलमा बशारत "तेरा हिस्सा निकल आया" फरमाया तो बुरेदा सत्तर साथियो के साथ ईमान ले आए,*

*❀"_ फ़िर बुरेदा रज़ियल्लाहु अन्हु ने ये ख्वाहिश की कि हुज़ूर ﷺ मदीना में दाखिले के वक्त़ आपके आगे आगे झंडा होना चाहिए, हुजूर ﷺ ने अपना अमामा नेज़े पर बांध कर बुरेदा को दिया और उस झंडे को लहराते हुए ये क़ाफ़िला दारुल हिजरत में दाखिल हुआ_,"*     

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -188,*
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⚂⚂⚂.
        ▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁▁
     ✮┣ l ﺑِﺴْـــﻢِﷲِﺍﻟـﺮَّﺣـْﻤـَﻦِﺍلرَّﺣـِﻴﻢ ┫✮
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       *■ मोहसिन ए इंसानियत ﷺ ■*
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     *⚂ _ मदीना की मुख्तलिफ फिज़ा _⚂*   
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*❥❥_ तारीख़ी लिहाज़ से ये सूरत वाक़िया बजाय ख़ुद बड़ी अहमियत की हामिल है कि मदीना की सियासी व मज़हबी फ़िज़ा मक्का से बिल्कुल मुख्तलिफ़ थी, पहली बात ये है कि मक्का और उसके माहौल की सारी आबादी बाहम दीगर मरबूत थी और मज़हबी क़बीलों और मुआहिदाती बंधनो से बंधी हुई थी और कुरेश का उस पर पूरा तसल्लुत था, लेकिन मदीना और उसके माहौल में दो मुख्तलिफ अनासिर आबाद थे, जिनके दरमियान खिचाव मौजूद था,*

*❀"_ मदीना यसरिब के नाम से क़दीम शहर था, और यहां यहूदी बा कसरत आ कर अबाद हुए, यह जों जों उनकी नसल फैलती गई मदीना के आस पास उनकी नई बस्तियां क़ायम होती गई, और साथ के साथ उनके छोटे छोटे जंगी क़िले तामीर होते गए, चुनांचे पूरा इलाक़ा यहूद के मज़हबी व सियासी तसल्लुत में था,*

*❀"_ दूसरा असर अंसार का था, इनका असल वतन यमन था और क़तहान का खानदान इनका नसली सरचश्मा था, जिस ज़माने में सैलाब ने तबाही मचाई थी और बचे खुचे लोग इधर उधर मुंतशिर हुए थे, उस ज़माने में क़तहान के क़बीले में से औस और खज़रज नाम के दो भाई यसरिब आ पहुंचे और यहां अबाद हो गए,*

*"❀_ हो सकता है कि बाद में और लोग भी आए हों, ताहम इन्ही नव वारिदों के ज़रीए इस इलाक़े में नए असर का इज़ाफ़ा हुआ, बाद में नस्ल बढ़ती गई और आहिस्ता आहिस्ता एक नई ताक़त उभरने लगी, शूरू शुरू में इन लोगों ने यहूदी माशरा और तम्मद्दुन से मुनकता रह कर पनपना चाहा लेकिन पहले की जमी हुई ताक़त के ज़ोर व असर से दब कर उनसे दोस्ताना मुहीदा इस्तवार कर लिया, मुआहिदाना ताल्लुक़ात देर तक खुश उसलूबी से चलते रहे,*

*❀"_ लेकिन यहूद ने जोंही ये महसूस किया कि अंसार की रोज़ बा रोज़ तरक़्की़ उनके इक़तिदार के लिए एक खतरा बनती जा रही है तो उन्होंने हलीफाना ताल्लुक़ तोड़ लिया,*    

*❥❥_यहूद के अंदर एक अय्याश रईस फित्युन नामी उठा, उसने जबर व कुव्वत अपना ये हुक्म नाफ़िज़ कर दिया कि उसके हुदूद में जो लड़की भी बियाही जाए वो उसके शबिस्तान ए ऐश से गुज़र कर अज़्दवाजी ज़िंदगी के दायरे में दाखिल हो, यहूद के बिगाड़ का इससे अंदाजा कीजिए कि उन्होंने फित्युन के इस हुक्म के आगे सर तस्लीम खम कर दिया था,*

*❀"_ आखिर एक दिन इस शैतानी हुक्म ने अंसार की गैरत को भी चेलेंज कर दिया, मालिक बिन अजलान की बहन की शादी हो रही थी कि ऐन बारात के वक्त वो भाई के सामने से पूरे अंदाजे बेहिजाबी के साथ गुज़रा, मालिक ने मलामत की तो उसने कहा कि कल जो कुछ पेश आने वाला है वो इससे ज़्यादा शदीद होगा, चुनांचे मालिक ने फितयुन को जा कर क़त्ल कर दिया और शाम की तरफ भाग गया,*

*❀"_ वहां गससान हुक्मरान अबु जबला का सिक्का चल रहा था, उसे ये हालात जब मालूम हुए तो उसने हमला कर दिया और बड़े बड़े यहूदियों को क़त्ल कर दिया और औस और खज़रज को खुलत व इनाम से नवाजा़, इन वाकिआत ने यहूद का ज़ोर तोड़ दिया और अंसार की ताक़त बड़ गई,*

*❀"_ गर्ज़ यहूद के मुक़ाबले में अंसार का मामला बराबर की चोट का मामला था, लेकिन उसूल व मक़सद के ना होने की वजह से उनका इत्तेहाद मज़बूत बुनियाद नहीं रखता था, आपस की कश्मकश ने दीमक बन कर ताकत को चाटना शुरू किया, यहाँ तक कि औस और ख़ज़रज के दरमियान जंग बा'स वाक़े हुई और फ़रीक़ीन के निहायत क़ीमती अफ़राद एक दूसरे की तलवार का लुक़मा हो गये, इस तरह यहूद के सामने वो फिर बेज़ोर हो कर रह गए, इसी हालत से मजबूर हो कर उन्होंने क़रीब के ज़माने में कुरेश के सामने हलीफ़ाना ताल्लुक़ात की दरख़्वास्त रखी थी लेकिन बाज़ वजहो से कोशिश नाकाम रही,*     

*❥❥ दूसरी तरफ यहूद के तफूक़ की एक वजह उनकी मज़हबी सयादत भी थी, उनके पास तौरात थी, और वो एक मुस्तकिल मज़हबी निज़ाम के अलंबरदार थे, उनके पास एक सरमाया ऐतका़द था, एक अखलाकी़ जा़ब्ता था, फिक़ही अहकाम थे, मज़हबी क़ानून था, कुछ रिवायात थीं और इबादत की अंजाम दही का तरीक़ा था,*

*❀"_ अंसार इस पेहलू से तहि दामन थे और इस दायरे में उनके सामने हाथ फैलाने पर मजबूर थे, उन्हीं के 'बैतुल मदूरस' (यहूदियों के मज़हबी तालीम के मरकज़ ) से वो इस्तेफादा करते थे,हद ये कि अगर किसी अंसारी की औलाद ज़िंदा न रहती थी तो वो नज़र ही ये मानता था कि अगर बच्चा ज़िंदा रहा तो यहूदी बनाया जाएगा, अंसार में इस पेहलू से एहसास कमतरी मौजूद था और उनकी गैरत व हमियत इस पर दुख मेहसूस करती थी,*

*❀"_ उनके हक़ाइक़ को सामने रखने से अंदाज़ा हो सकता है कि मदीना के माहौल में यहूद और अंसार के दरमियान खिचाव था और ताल्लुक़ात की गेहराई में हरिफाना और रक़ीबाना जज़्बात काम कर रहे थे, इसी सिलसिले में ये बयान करना दिलचस्पी से खाली नहीं कि यहूद अंसार के सामने अक्सर ये कहा करते थे कि आखिरी नबी जल्द ही मबूस होने वाला है, वो आए तो फिर हम उसके साथ हो कर तुम्हारी खबर लेंगे _,"*
 *"_ यहूद की इस पेशगोई ने अंसार को भी उस पैगंबर मोऊद का मुंतज़िर बना दिया था और उनके अंदर एक शऊरी रूझान ये काम कर रहा था कि अगर वो नबी आ जाए तो वो आगे बढ़ कर उसका दामन थाम लेंगे, चुनांचे यही हुआ कि पेशगोई सुनाने वाले खुद तो मेहरूम रहे और जिनको वो धमकिया दिया करते थे वो नबी आखिरुज़ ज़मां के हलका़ ए रफाक़त में आ गए, यहूद जिनको पिटवाना चाहते थे उनके हाथो से खुद पिट गए,*

*"❀_ मदीना की इस फ़िज़ा और इसके पसे मंज़र को सामने रखने से अंदाज़ा हो सकता है कि क्युं ये माहौल मक्का के मुक़ाबले में तहरीक़ ए इस्लामी को ज़्यादा रास आया,*    

*❥❥_तहरीक ए इस्लामी मदीना में:-*
*"❀_ मक्का ने दावते हक़ सुनी और मुसल्लसल 13 साल सुनी इसका पूरा इस्तदलाल सामने आया, उसके नूर से भरी हुई एक ला मिसाल शख्सियत का किरदार उसके सामने जगमगाता रहा, उसके अलंबरदारो ने ज़ुल्म की चक्की में पिसते हुए "अहद अहद" की सदा बुलंद की, मगर मक्का की इज्तिमाई फिज़ा ने शुरू से आखिर तक एक ही रट लगाये रखी "नहीं मंज़ूर,"*

*"❀_लेकिन मदीना तक गुले दावत की हिकमत का पहला झोंका ही पहुंचा होगा कि उसकी रूह व जद में आ कर पुकार उठी "लब्बेक", मदीना का पहला नौजवान जो नबी ﷺ के पैगाम से बेहरा अंदोज़ हुआ सुवेद बिन सामित था, ये एक ज़हीन शायर थे, एक माहिर सवार थे, बहादुर जंगजू थे, ऐसे नोजवान बिल उमूम इंक़िलाबी हरकत के सिपाही बना करते हैं और तामीर व तरक्क़ी की हर दावत पर लब्बेक कहते हैं और फिर अपना सब कुछ लगा दिया करते हैं,*

*"❀_ जब ये मक्का में आए तो सरवरे आलम ﷺ ने हस्बे मामूल मिल कर दावत पेश की, सुवेद ने बताया कि ऐसी ही एक चीज़ मेरे पास भी है यानी सहीफा लुक़मान, उसका कुछ हिस्सा उन्होंने सुनाया भी, फिर आन हजरत ﷺ ने क़ुरान सुनाया, देखिए बे तास्सुबी का मुजा़हिरा कि सुवेद की फितरते सलीम फौरन पुकार उठी कि ये कलाम खूबी में बढ़ा हुआ है, चुनांचे इस कलाम का पैगाम उनके दिल में घर कर गया, लेकिन अफसोस कि जाने के बाद जल्दी ही वो खज़रजियो के हाथों मारे गए,*    
* ┵━━━━━━❀━━━━━━━━━━━━┵
   *⚂ _ तहरीक ए इस्लामी मदीना में _⚂*   
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*❥❥_मुतस्सिर होने वाला दूसरा यसरबी नौजवान अय्यास बिन मा'ज़ था, ये मदीना के एक वफ़द कारकुन थे, वफ़द का मक़सद था कि ख़ज़रज के ख़िलाफ़ कुरेश से हलीफ़ाना मुआहिदा करें और इमदाद हासिल करें, दाई ए हक़ ने उन लोगों तक बात पहुंचाने का मौक़ा निकाला, इस्लाम का तार्रुफ कराया और कुरान पढ़ कर सुनाया, अय्यास बिन मा'ज़ जो उस वक्त लड़कपन के आलम में थे, कहने लगे- क्या ही पाकीज़ा फितरत बोल रही है कि ए साथियों! तुम जिस गर्ज़ के लिए आए हो उससे ये ज़्यादा बेहतर है_,"*

*"❀_ सरदारे वफ़द अबुल हैसर ने मिट्टी उठा कर उनके मूँह पर मारी, साथ ही कहा - हम इस मतलब के लिए नहीं आए, अबुल हैसर को फ़िक्र थी कुरेश की हिमायत हासिल करने की और वो ख़ूब समझता था कि मुहम्मद ﷺ की बात मानी तो कुरेश के दिलों के दरवाज़े उल्टा और बंद हो जाएंगे _,"*

*❀"_ अय्यास चुप हो गए लेकिन उनके दिल की मिट्टी में दावत का बीज पड़ गया था, ये लोग वापस लौट गए मगर अफसोस कि मदीना का ये बेदार दिल नौजवान भी जल्द ही जंगे बास की लपेट में आ कर दुनिया से रुखसत हो गया, दम आखिर खुदा का ज़िक्र उसके लब पर था,*

*❀"_ नबुवत के 11 वे साल हज के लिए मदीना से जो गिरोह आया उससे एक नशिस्त में सरवरे आलम ﷺ की बड़ी तफसीली गुफ्तगू हुई, आपकी दावत सुन कर वो लोग आपस में कहने लगे- ए साथियों! जान लो कि क़त'ई तौर पर ये वो नबी हैं जिसके बारे में यहूद तुम्हारे सामने पेश गोई करते रहते हैं, सो अब वो कहीं तुमसे आगे न बढ़ जाएं _,"*

*❀"_ चुनांचे अल्लाह ताला ने उनके दिल खोल दिए और उन्होंने दीने हक़ को अपने सीनो में जज्ब कर लिया, फिर वो कहने लगे- हम लोगों ने अपनी क़ौम का साथ छोड़ा, दूसरी किसी कौम में हमारे लोगों की तरह दुश्मनी और खराबी ना होगी, शायद आपकी ज़ात के ज़रिए अल्लाह ताला उनको फिर जोड़ देंगे, हम उनके पास जाएंगे और आपके दीन की तरफ उनको दावत देंगे और उनके सामने अपना वो तास्सूर रख देंगे जो इस दीन के लिए आपके सामने हमने ज़ाहिर किया है, फिर अगर अल्लाह ताला ने उन्हें इस दीन पर जमा कर दिया तो उसके बाद आपसे ज्यादा कु़व्वत रखने वाला कोई दूसरा ना होगा _,"*

*❥❥_मक्का के लोगों ने जिस दावत को ठुकराया मदीना के लोगों ने उसमें अपने लिए इत्तेफाक व इत्तेहाद की बुनियाद पहली नज़र डालते ही देख ली, इस्लामी तहरीक के अलंबरदारी के लिए मदीना की ये पहली जमात जिसकी तशकील मक्का में हो रही थी, 6 अफराद पर मुश्तमिल थी- (1)_ अबुल हैसम बिन तैहान (2)_ असद बिन ज़रारा (3)_ औफ बिन हारिस (4)_ राफे बिन मालिक बिन अजलान (5)_ कुतबा बिन आमिर (6)_जाबिर बिन अब्दुल्ला_,*

*❀"_ ये लोग लौट कर गए तो माहौल में एक नई हरकत इन्होंने पैदा कर दी, दावते इस्लाम फैलने लगी और खूब मक़बूल हुई, अंसार के घरानों में से कोई घर ऐसा न रहा जिसमें मुहम्मद ﷺ का चर्चा ना हो रहा हो_,*

*❀"_बैत ए उक़बा अवला :- अगले साल यानि नबुवत के 12 वे बरस 12 अफ़राद का वफ़द आया और आ कर बैत की, इस बैत को इस्लाहन बैतुन निसा यानि जनाना बैत कहते हैं, इससे मफ़ूम ये है कि इस बैत में सिर्फ बुनियादी बातों का इकरार लिया गया था और जंग व तसादुम का कोई सवाल सामने न था, इस ईमानी इक़रार के अज्जा़ ये थे :-*

*"❀_ हम अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं ठहराएंगे, चोरी नहीं करेंगे, ज़िना नहीं करेंगे, अपने बच्चों को क़त्ल नहीं करेंगे, किसी के खिलाफ जानते बूझते कोई मनगढ़ंत बोहतान घड़ कर नहीं लाएंगे, और किसी मारूफ मामले में मुहम्मद ﷺ की नाफरमानी नहीं करेंगे_,*

*"❀_ ये लोग फारिग हो कर उठे तो पैगंबर ए खुदा ने मुस'ब बिन उमेर बिन हाशिम रज़ियल्लाहु अन्हु को मदीना में फ़रीज़ा ए दावत की अंजामदही पर मामूर किया, उनके ज़िम्मे लगाया कि वहाँ जा कर लोगों को क़ुरान पढाएं इस्लाम की तालीम दें, दीन की सूझ बूझ पैदा करें, चुनांचे वो नमाज़ की इमामत भी कराते थे और इस्लाम की विचारधारा और उसके उसूल अखलाक की तलीम भी देते थे,*

*❥❥ _दो लीडरों का कुबूले इस्लाम- एक दिन असद बिन ज़रारा रज़ियल्लाहु अन्हु (जिनके मकान पर नबी ﷺ के मामूर करदा दाई मुसब बिन उमेर रज़ियल्लाहु अन्हु ठहरे थे) दावती मुहिम के सिलसिले में अपने साथ मुस'ब बिन उमेर रज़ियल्लाहु अन्हु को ले कर बनी अब्दुल अशहल और बनी ज़फ़र के घरों तक जाने के लिए निकले, दोनो मर्क़ नामी कुंवे के क़रीब बनी ज़फ़र के आहाते में पहुँचे, बाज़ लोग जो इस्लाम ला चुके थे उनके गिर्द जमा हो गए,*

*"❀_ साद बिन मा'ज़ और उसैद बिन हुज़ैर दोनो बनी अब्दुल अशहल के लीडर थे और अभी तक अपनी क़ौम के मसलक़ ए मुशरिकाना पर क़ायम थे, असद बिन ज़रारा रज़ियल्लाहु अन्हु और मुस'ब बिन उमेर रज़ियल्लाहु अन्हु के कारे दावत पर साद बिन माज़ जले भुने तो थे ही, जोंही दोनो साहबों के इधर आने की इत्तेला मिली उन्होंने उसैद के कान में फूंका कि ये दोनों हम से कमज़ोर अफराद को अपने हमनवा बनाने आते है, लिहाज़ा जा कर उनकी खबर लो और उनको मना कर दो कि हमारे घरों में न आया करें, अगर असद बिन ज़रारा मेरा खालाजा़द और अज़ीज़ न होता तो तुम्हारे बजाय मैं खुद उससे निपट लेता।*

*"❀_ चुनांचे जोंही मदीना के हलका ए इस्लामी की ये मजलिस लगी, साद बिन मा'ज़ की तल्क़ीन के ज़ेरे असर उसैद बिन हुज़ेर भाला ताने हुए उन दोनो दाइयाने इस्लाम की तरफ लपके, फ़िर ठिठक कर बद जुबानी करते हुए कहा कि, तुम्हारे यहां आने का मतलब क्या है? तुम हमारे कमज़ोर आदमियों को बेवकूफ बनाते हो, अगर तुम्हें अपनी जानों की जरूरत है तो हमसे किनारा करो _,"*

*"❀_ मुसब बिन उमेर रज़ियल्लाहु अन्हु नर्मी से कहने लगे कि क्या तुम ज़रा बैठ नहीं जाते कि पहले गौर से सुनो, फिर अगर बात पसंद आए तो मानो, ना पसंद हो तो उससे बाज़ रहो, चुनांचे वो कुछ ठंडा पड़ गए, भाला नीचे डाल दिया और तहरीके़ इस्लामी के दोनों दाइयों के पास सुकून से बैठ गए, मुसब बिन उमेर रज़ियल्लाहु अन्हु ने गुफ़्त्गु शूरू की और क़ुरान पढ़ कर सुनाया,*

*❥❥_दोनो हज़रात कहते हैं कि उन्होंने अपने मुखातिब के बोलने से पहले उसके चेहरे से क़ुबूले इस्लाम का जज़्बा पढ़ लिया, आख़िर उसैद की ज़ुबान खुली:- क्या ही ख़ूब है ये कलाम है बहुत ही प्यारा! पुछा - तुम लोग इस्लाम में दाखिल होते वक्त क्या सूरत अख्त्यार करते हो ? दोनों ने कहा कि जाओ जा कर नहाओ, पाक साफ हो जाओ और अपने कपड़े धो डालो, फिर हक़ की सदाक़त की गवाही दो और नमाज़ अदा करो,*

*"❀__ उसैद जो अभी भाला ताने खड़े थे अब खुद इस्लाम का जिंदगी बख्श भाला उनके सीने में उतर चुका था, उठे नहाए धोए और आ कर दो रका'त नमाज़ अदा की, नमाज़ से फारिग हो कर बात छेड़ी और उसैद ने कहा कि मेरे साथ का एक शख्स और है, अगर वो भी तुम्हारे साथ हो जाए तो उसके कबीले का कोई आदमी सरताबी न करेगा, मैं इस वक्त उसे बुलाता हूं, वो है साद बिन माज़,*

*"❀__ चुनाचे फ़ौरन भाला उठाये साद बिन मा'ज़ के पास पहुँचे, वहाँ मजलिस लगी थी, उन्होंने देखते ही साथियों से कहा कि मैं खुदा की क़सम खा कर कहता हूँ' कि उसैद का चेहरा वो नहीं है जो तुम लोगों से उठ कर जाते वक्त था, फिर साद ने उसैद से पूछा - कहो क्या कर के आए?*

*"❀__ उसैद बिन हुज़ैर ने बे साख्ता जवाब दिया, मैंने दोनो से बात की, खुदा की कसम! उनकी तरफ से किसी तरह का अंदेशा महसूस नहीं किया और उन्हें मैंने मना कर दिया है, इस पर उन्होंने कहा कि हम वो करेंगे जो तुम्हें पसंद है, साथ ही साथ साद बिन माज़ के जज़्बात को हरकत में लाने के लिए ये भी कह दिया कि बनी हारिसा उसैद बिन ज़रारा के क़त्ल के दरपे हैं और वो लोग ये जानते हुए इस बात की जु़र्रत कर रहे हैं कि तुम्हारा अज़ीज़ है और इस तरह वो तुम्हारी तहकी़र करना चाहते हैं*

*❀_"_ साद बिन मा'ज़ बनू हारिसा की तरफ से ऐसी हरकत का ख़ौफ़ महसूस करते हुए गज़बनाक हो कर लपके और भाला उसैद के हाथ से ले लिया, लेकिन वहा पहुँचे तो देखा कि इस्लाम के दोनो अलंबरदार सुकून से हैं, समझ गए कि उसैद का मंशा इस चाल से सिर्फ ये है कि मैं बराहे रास्त उनकी बात सुनुं,*  

*❥❥ _अस'द बिन ज़रारा रज़ियल्लाहु अन्हु को मुखातिब कर के कहा कि तुम लोग हमारे पास आते हो तो ऐसी बात ले कर हमारे घरों में आते हो जिससे हमें नफ़रत है, मुस'अब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु ने नर्मी के उसी अंदाज़ से काम लेते हुए कहा कि ज़रा संभलो बात सुनो पसंद हो तो मानो नहीं तो फिर हम वो चीज़ तुम्हारे सामने नहीं लाएंगे जिससे तुम्हें नफरत हो*

*"❀_ साद बिन माज़ कहने लगे- तुमने बात इंसाफ़ की की, साद बिन मा'ज़ ठंडा पड़ गए, भाला नीचे डाल दिया और बैठ गए, सुनाने वाले ने हक़ का पैगाम सुनाया और क़ुरान पढ़ा , दौबारा वही कैफियत पेश आई, साद बिन माज़ के बोलने से पहले उनके चेहरे से क़ुबूले इस्लाम का जज़्बा झलकने लगा, ये दूसरा सरदार भी चंद लम्हो में इस्लाम के मैदान पर खड़ा था,*

*❀"_ साद बिन माज़ नई ज़िंदगी ले कर पलटे तो अहले मजलिस ने दूर से देखते ही आपस में कहा कि चेहरे का रंग बदला हुआ है, आते ही उन्होंने यूं ख़िताब किया- ऐ बनी अब्दुल अशहल! मेरे बारे में तुम्हारी क्या राय है? सब कहने लगे कि तुम हमारे सरदार हो, तुम्हारी राय हमसे पुख्ता है, खूबियों के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा बा बरकत हो,*

*"❀_ साद बिन माज़ ने कहा- तो फिर जब तक तुम लोग खुदा और उसके रसूल पर ईमान नहीं लाओगे तुम्हारे मर्दों और औरतों से बात करना मुझ पर हराम है! .. फिर क्या था पूरे क़बीले के मर्द औरत में से कोई एक भी इस्लाम के दायरे से बाहर न रहा,*

*"❀_ इन दो सरदारों के ज़रीए जब तहरीके हक़ की ताक़त यकायक इतनी बढ़ गई तो दावत की मुहीम ने भी ज़ोर पकड़ा और एक एक क़बीले और एक एक घर में सुबह इस्लाम की तजल्लियां बिखर गईं,*

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         *⚂ _ बैत ए उक़बा सानिया _⚂*   
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*❥❥_ बैत ए उक़बा सानिया :-* 
*"❀_ इसी दौरान में हज का ज़माना आ गया, अब के मुसलमानो की बड़ी तादाद मक्का पहुँची, मदीना की खैती ख़ूब फ़सल दे रही थी, ये नये जज़्बा ए दीनी से सरशार हो कर आने वाले हुज्जाज, कुरैश से बच बच कर रातो की तारीकी में अपने क़ाइद ए महबूब से मिले, इस बार फिर अहद व वफ़ा अज़ सरे नो इस्तवार किया गया, लेकिन अब की बार मामला "बैतुन निसा" से बहुत आगे तक जा पहुंचा,*

*"❀_ पहली बैत में स्यासी पहलू सिर्फ़ एक नुक्ते से नुमाया होता था, यानि ये इक़रार कि हम मुहम्मद ﷺ के मारूफ अहकाम से सरताबी नहीं करेंगे," लेकिन इस मर्तबा मुहम्मद ﷺ का साथ देने के और यही मा'नी सामने रख कर बैत ए सानिया इस्तवार की गई,* 

*"❀_ गुफ्तगु में तहरीक ए इस्लामी के इन सिपाहियों ने पेश आएंदा मुमकिनात का पूरा अंदाजा कर के ये कहा कि लोगों (यानि यहूद) के साथ हमारे मुआहिदाना राबता है और हमें उन राबतों को तोडना होगा, कहीं ऐसा ना हो कि जब हम ये कर चुकें और फिर अल्लाह तआला आपको गलबा अता कर दे, तो आप अपने खानदान वालों की तरफ लौट जाएं और हमे छोड दें _,"*

*"❀_ इस अंदेशे के जबाव मे मुसकुराते हुए हुजूर ﷺ ने फरमाया - तुम्हारा खून मेरा खून है, तुम्हारे दुश्मन मेरे दुश्मन हैं, मै तुम्हारा और तुम मेरे! जिससे तुम्हारी जंग उससे मेरी जंग, जिससे तुम्हारी सुलेह उसमे मेरी सुलेह _,"*

*❥❥_ अब्बास बिन उबादा रज़ियाल्लाहु अन्हु ने कहा :- ऐ ख़ज़रज वालों! जानते हो कि इस हस्ती के साथ किस बात का पैमान बांध रहे हो ? ये लोगों मे से सुर्ख व स्याह से जंग का पैमान है_,"अहले वफ़द ने पूरी ज़िम्मेदारी को महसूस करते हुए जवाब दिया कि, हाँ हम अपने मालो की तबाही अपने सरदारों के क़त्ल के अलल रग्म आप ﷺ के साथ पैमान बांध रहे हैं _,"* 

*"❀_ इस बैत की ख़ास नोइयत ही की वजह से इसका नाम "बैत हर्ब" पड़ गया, इस बैत की एक मरकज़ी शर्त ये थी कि हम तंगी में आसानी मे, ख़ुशी मे और रंज मे आन हुजूर ﷺ का हर इरशाद सुनेंगे और उसकी इतात करेंगे, हुज़ूर ﷺ को हुज़ूर ﷺ के फरमान को अपने आप पर तरजीह देंगे, ये कि हम अरबाबे अम्र से कशमकश नहीं करेंगे, और ये कि हम अल्लाह के दीन के मामले में मलामत करने वालों की मलामत की परवाह नहीं करेंगे,* 

*"❀_ ये बैत गोया इस्लामी क़सरे रियासत की पहली ईंट थी, और साथ के साथ किताबे तहरीक में लिखे जाने वाले बाब हिज्रत का दिबाचा (मक़सद) ! इस बैत के ज़रीये मुस्तक़िल की इस्लामी रियासत के लिये गोया इसके होने वाले शहरियों ने बा रज़ा व रगबत मुहम्मद ﷺ की क़यादत को क़ुबूल कर लिया, इसके अलावा समा व ताअत का नज़्म इस्तवार हो गया,* 

*"❀_ इस मोके पर सिर्फ एक पैमान ही नहीं बांधा गया बल्की इज्तिमाई नज़्म की बुनियाद भी उठा दी गई, इस्लामी तहरीक के काफ़िला ए सालार ने शे्हरी जमात की राय से 12 नक़ीब मुक़र्रर किये, 9 ख़ज़रज मे से और 3 औस मे से ! इन नक़ीबो को मामूर किया कि तुम अपनी क़ौम के सारे मामलात के ज़िम्मेदार हो, बिल्कुल उसी तरह जैसे ईसा अलैहिस्सलाम के हवारी ज़िम्मेदार थे और जैसे ख़ुद मै अपनी पूरी जमात का ज़िम्मेदार हूं, ये गोया आन हज़रत ﷺ के नाइब थे, इनके तकर्रूर से मुनज़्म माशरे की तामीर का काम बा क़ायदा शुरु हो गया,*

*"❀_ कुरैश के कान में भनक पड़ी तो सिटपिटा गए, वफ़द जा चुका था, इसलिये पीछा किया और साद बिन उबादा रज़ियाल्लाहु अन्हु और मंज़र बिन अमरू रज़ियाल्लाहु अन्हु को गिरफ्तार कर लाए, उन पर अपना गुस्सा निकाला, लेकिन सांप निकल गया था अब लकीर पीटने से क्या हासिल था,* 

*❥❥_मदीना में तहरीक का नया दौर:-*
*"❀_ ये वफ़द मक्का से बैते उक़बा सानिया के बाद मदीना लौटा तो दावत का काम अलल ऐलान बहुत ही ज़ोर व शोर से शुरू हो गया, नौजवान जब किसी तब्दीली के नक़ीब बन के उठ खड़े होते हैं तो उनके मुक़ाबले में बुढ़ापे से गुज़रती हुई नस्ल देर तक जम नहीं सकती और अगर जमी भी तो उसका दौर ज्यादा लंबा नहीं हो सकता, मक्का में भी और खास तौर पर मदीना में नौजवान ताक़त दावते इस्लामी के झंडे उठाये आगे आगे बढ़ रही थी, नौजवान ताक़त ने क्या कुछ ना किया होगा, इसका अंदाज़ा करने के लिए एक दिलचस्प वाक़िए का तज़किरा करना ज़रूरी मालूम होता है,*

*"❀_ बड़े बूढ़ों में से एक बुज़ुर्ग थे अमरू बिन जमुह जिनका ताल्लुक़ बनू सलमा से था, बड़े मियां ने अपने घर में लकड़ी का एक बुत मनात नामी फ़राहम कर रखा था, ये उसकी इबादत करते थे और उसकी झाड़ पूंछ में लगे रहते थे, बनी सलमा के दो नौजवान मा'ज़ बिन जबल और माज़ बिन अमरू दावते हक़ पर ईमान ला कर तहरीके इस्लामी के कारकुन बन चुके थे,*

*"❀_ ये दोनो रात की तारीकी में जाते और बड़े मियां के खुदावंद को बनी सलमा के गढ़े में उल्टा कर डाल आते थे जहां लोग गलाज़त और कूड़ा करकट फैंकते थे, सुबह होती तो अमरु बिन जमूह चिल्लाता कि ये कौन है जिसने रात हमारे खुदावंद पर दराज़ दस्ती की है, फिर वो अपने खुदावंद को धो धा कर सिंघासन पर बिठाता, अगली रात फिर यही हादसा पेश आता, बड़े मियां फिर उसी चक्कर में पड़े बड़बड़ाते फिरते, एक दिन अमरू ने तंग आ कर अपनी तलवार बुत के साथ लटका दी और उसे खिताब कर के कहा कि खुदा की क़सम मै नहीं जानता कि कोन तेरे साथ ये मामला करता है, सो अगर तुझमें कस बल है तो फिर खुद ही अपना बचाव कर ये तलवार मौजूद है _,"*

*❀"_ शाम हुई अमरु सो गया, दोनो नौजवान रात को आए और अमरू के खुदावंद को अंधे कुंवे में जा कर लटका आए, सुबह उठ कर इबरत का ये नक्शा देखते ही अमरु के दिल ने करवट ली और इस्लाम की सफों में आ शरीक हुआ, इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि मदीना की किस तरह काया पलट रही थी _,"*
 *®_ तफ़सील के लिए मुलाहिज़ा हो सीरत इब्ने हिशाम- 5/51-59,*
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     *⚂ _ मदीना में तहरीक का नया दौर _⚂*   
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*❥❥_ मदीना ने जब खुले दिल से दावत हक़ को लब्बैक कही तो सरवरे आलम ﷺ को उम्मीद की एक नई झलक नज़र आई, बैते उक़बा अवला ने उम्मीद को मुस्तहकम कर दिया, फिर मुस'ब बिन उमैर रजियाल्लाहु अन्हु ने खुद वहां रह कर और कुछ अर्सा काम करने के बाद उक़बा सानिया वाले मोसमे हज से कुछ पहले आ कर हुजूर ﷺ की खिदमत में रिपोर्ट पेश की, मदीना के मुसलमानो की तफसील बयान की, उनकी कुव्वत का हाल बताया और खुश खबरी दी कि वो इस साल बड़ी तदाद में आ रहे हैं,*

*"❀_ इस रिपोर्ट ने हुज़ूर ﷺ को गौर व फ़िक्र की दावत दी, ये सूरत वाक़ई बड़ी ख़ुशी देने वाली थी कि मदीना के मुसलमान तादाद और क़ुव्वत के लिहाज़ से दिन रात बढ़ रहे हैं और फिर यहूद की तरफ़ से उस तरह की संगीन मुख़ालफ़त का उनको सामना नहीं करना पड़ रहा था जैसे उनके कई साथियों को कुरेश की तरफ से दरपेश थी,*

*"❀_ और अहले यसरिब मक्का वाले रफ्का़ के लिए बिल उमूम कुढ़ते थे, उनको बहुत ज़्यादा सहुलतें मयस्सर थीं, उनके पास खैतियां थीं, हुजूर ﷺ सोचते थे कि क्या ये अच्छा ना हो कि मक्का के रफ्का़ मदीना चले जाएं, और कुरेश के मजा़लिम से निजात पा कर दीन के तक़ाज़े पूरे करें,*

*"❀_ चुनांचे आने वाले वफद में जो लोग महरम थे उनसे आप ﷺ ने इस ख्याल का इज़हार भी फरमा दिया, यूं तो हिजरत ए हब्शा से मुहाजिरीन के लौट आने के बाद ही से इक्का दुक्का रफ्का़ आपकी इजाज़त से मदीना जाते रहे, लेकिन बैते उक़बा सानिया के बाद रफ्तार तेज़ हो गई और तक़रीबन तैय हो गया कि दूसरा दारुल हिजरत मदीना ही होगा _,"*

*❥❥_ सरदाराने मक्का देख रहे थे कि तहरीक इस्लामी ने एक नया मज़बूत मरकज़ पैदा कर लिया है, उनकी निगाहों में मुस्तक़बिल बड़ा भयानक हो कर आने लगा, वो अपनी जगह खूब समझ रहे थे कि अब अगर मदीना में कलमा ए हक़ की जड़ लग जाती है तो हमारे हुदूदे असर से बाहर ही ये कलमा एक ना-का़बिले शिकस्त ताक़त बन कर एक दिन हमारी ही खबर लेगा और हमें अपनी करतूत का हिसाब अदा करना होगा,*

*"❀_ वो इस खतरे को भी महसूस कर रहे थे कि शाम की तिजारती राहें चुंकी मदीना से हो कर गुज़रती है इसलिए मदीना का नया इस्लामी मरकज़ राहों की नाकाबंदी कर पाएगा और इस तरह उनकी मा'शी शाह रग कट जाएगी, उन पर अंदर ही अंदर घबराहट का शदीद दौरा पड़ चुका था, मगर समझ में ना आता था कि करें क्या?*

*"❀_ चुनांचे पहला मुहाजिर जब मदीना के इरादे से निकला तो मक्का वालों ने उसके साथ जफा काराना मामला किया, ये अव्वलीन मुहाजिर अबू सलमा अब्दुल्लाह बिन अल असद मख़ज़ूमी रजियाल्लाहु अन्हु थे, ये बीवी बच्चों को ऊंट पर सवार कर के निकले, उनकी बीवी बनू मुगीरा में से थीं, वो लोग ऐन रवानगी के वक्त आए और उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा के ऊंट की मुहार ये कह कर अबु सलमा से छीन ली कि इसे हम तेरे साथ दर दर फिरने के लिए कैसे छोड़ सकते हैं,*

*"❀_ इस जज़्बाती सूरते हालात ने अबु सलमा रज़ियल्लाहु अन्हु के क़बीले वालो में सख़्त रद अमल पैदा कर दिया, उन्होंने बनू मुगीरा से कहा कि अगर तुम हमारे आदमी से उसकी जोरू को यूँ छीनते हो तो फिर हम अपना नन्हा बच्चा उसकी गोद में ना रहने देंगे, चुनांचे शोहर बीवी और बच्चा तीनो बाहम दीगर बिछड़ गए और इस आलम में अबु सलमा ने कूच किया,*

*"❀_ उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा रोज़ सुबेह को आ कर शहर से बाहराई मोक़े पर ज़ारो क़तार रोने लगती, आख़िर साल भर के बाद किसी को रहम आया और उसने बनू मुगीरा से कह सुन कर ऊंट पर सवार करा के उम्मे सलमा को बच्चे समेत मदीना रवाना करा दिया और वो तने तन्हा चल खड़ी हुईं, खुदा का करना ऐसा हुआ कि एक मुका़म पर उस्मान बिन तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु मिल गए और उन्होंने इस मुहाजिरा को हवाली मदीना में पहुंचा दिया,*

*❥❥_हिजरत ए हब्शा के तल्ख तजुर्बे के बाद अब पॉलिसी ये ठहरी कि खुदा परस्ताना निजामे जिंदगी के अलंबरदारों को अपने का़बू से निकलते हुए रोका जाए, वो निकलें तो ऐसी हालत में निकलें कि उनका कुनबा कबीला मक्का वालों के पास रहे, ये पॉलिसी शुरू में जरा ढीली ढाली थी, लेकिन रफ्ता रफ्ता इसमे सख्ती बढ़ती गई,*

*"❀_ हत्ताकी हज़रत उमर रज़ियल्लाहु, अयाश बिन रबी'आ रज़ियल्लाहु अन्हु, हिशाम बिन आस बिन वाइल रज़ियल्लाहु अन्हु दौरे आख़िर में ऐसे आलम में छुप छुपा कर निकले कि हर वक्त धड़का था कि कहीं गिरफ़्तार ना हो जाएं, हज़रत उमर और अयाश रज़ियल्लाहु अन्हुम बा ख़ैरियत मदीना पहुँच गए,*

*"❀_मक्का से एक साजिशी वफद उनके पीछे रवाना हुआ, ये अबु जहल बिन हिशाम और हारिस बिन हिशाम पर मुश्तमिल था, ये लोग जा कर अयाश से मिले और कहा कि तुम्हारी वालिदा का हाल खराब है और उसने क़सम खाई है कि जब तक तुमसे न मिल लेगी सर के बाल न संवारेगी और चिलमिलाती धूप में खड़ी रहेगी,*

*"❀_ साथियो ने समझाया कि ये वाज़े तौर पर एक चाल है, तुम एक बार मक्का वालों के फंदे में फंस गए तो तुम्हें दीन से हटा देंगे, अयाश को एक लालच ये भी था कि वो मालदार आदमी थे और कुछ माल निकाल लाना चाहते थे, हजरत उमर ने पेशकाश की कि मै इससे ज्यादा माल रखता हूं और तुम मुझसे आधा माल ले लो, उन दोनों के साथ न जाओ, लेकिन अयाश ना माने,*

*❥❥_ हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा कि अच्छा अगर यही तैय है तो मेरी असील ऊंटनी ले जाओ जहाँ कोई अन्देशा महसूस हो भाग निकलना, मगर मक्की साज़िशियों ने रास्ते में ऐसी चाल चली कि असील ऊंटनी से फायदा उठाना भी अयाश के बस में ना रहा और उनकी मश्कें कस ली गई',*

*"❀_ बाद में हजरत उमर रजियाल्लाहु अन्हु ने दस्ते खास से एक खत हिशाम बिन आस को लिखा और उसमें मशहूर आयत दर्ज की, इस खत को मक्का के पास "जी तवा" नामी मोके़ पर हिशाम ने पढ़ा, बार बार गौर किया और जब बात पा ली कि इसमें इशारा खुद उसकी जानिब है तो फौरन ऊंट लिया, कजावा कसा और रवाना हो गए,*

*❀"_ लेकिन इससे ज़्यादा मज़बूत रिवायत ये है कि जब आन हुजूर ﷺ मदीना तशरीफ ला चुके तो एक मजलिस में उन दोनो महबूसीन का जिक्र छेड़ा, आप ﷺ ने फरमाया - अयाश बिन अबी रबी'आ और हिशाम बिन आस को निजात दिलाने के लिए कौन मुझे अपनी खिदमत सौंपता है?*

*"❀_ वलीद बिन मुगीरा ने अपने आपको पेश किया, वलीद हुक्मे नबवी के मुताबिक मक्का रवाना हो गए, छिपते छिपाते आबादी के क़रीब आए, एक औरत खाना ले जाती नज़र आई, पूछा- अल्लाह की बंदी किधर को जा रही हो? उसने जवाब दिया कि- यहां दो कैदी हैं ये खाना उनके लिए है, वलीद पीछे पीछे हो लिए, वही दोनों थे और एक बेछत मकान में बंद थे,*

*"❀_ शाम हो गई तो ये दीवार फांद कर उतरे, उनकी बेड़ियों के नीचे पत्थर रख कर अपनी तलवार से उनको काट डाला, फिर बाहर निकाल कर दोनों को ऊंट पर बिठा लिया और राहे फरार अख्त्यार की,*

*❥❥_ इसी तरह अकसर लोग खुद अगर निकले भी तो मक्का वालों ने उनका माल रखवा लिया, लेकिन हिजरत के इस दर्जा जिगर आज़मा होने के बावजूद मर्द ही नहीं ख्वातीन के क़दम भी फ़र्ज़ पर बराबर मज़बूती से जमे रहे,*

 *"❀_ मुहाजिरीन के रास्ते में रुकावटें डाल कर कुरेश अपनी बोखलाहट का मुजा़हिरा कर रहे थे, जब बजुज़ ऐसे चंद अफराद के कोई बाक़ी ना रहा जिन्हे कुरेश के जबर ने महसूर कर रखा था या जिनको किसी मुफाद या मसलिहत ने बांध रखा था, तो उस वक़्त आप ﷺ को आसमानी हुकुमत की तरफ़ से हिजरत का परवाना मिला,*

*"❀_ आप ﷺ निकले तो ऐसे आलम में निकले जबकि मक्का वाले आपको जिंदा देखने के रवादार ना थे और जब निकलने की घड़ी आ गई तो खून की प्यासी तलवारों के घेरे में से आप बेखौफी की शान से निकल गए,*

*"❀_ मुहाजिरीन की तादाद जों जों बड़ रही थी मदीना में जिंदगी की रो ज़ोर पकड़ रही थी, दावते हक़ का इजाला आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता जा रहा था, और जितना जितना इस्लाम दिलों की दुनियाओं को फतह करता जा रहा था, इस्लाम का पैगाम लाने वाले मोहसिन की मुहब्बत बढ़ती जाती थी, ख़ुसुसन बैते उक़बा सानिया के बाद से मदीना की चश्म इंतज़ार हर दम मक्का से आने वाले रास्ते पर लगी रहने लगी,*

*❥❥_हवा की लहरें ये इत्तेला भी किसी न किसी तरह ले आईं कि मुहम्मद ﷺ मक्का से निकल चुके हैं और हिजरत के मराहिल तैय कर रहे हैं, इस ख़बर पर मदीना में इश्तियाक के जज़्बात इज़्तिराब की हद को पहुंच गए होंगे, इंतज़ार की बेचैनियां ज़ोर पकड़ गई होंगी,*

*"❀_सोचों कि हर ता्रफ़ क्या चर्चे होंगे? क्या इस्तफसारात हुआ करता होंगे? कैसी गुफ्तगु मे महफिलों की रोनक़ रहती होंगी? जज़्बात व अहसासात का क्या आलम होगा, मुशरिकीन का, यहूद का, अंसार का, मुसलमानों का,*

*"❀_ छोटे छोटे बच्चों की जुबानों पर यही बात रहने लगी कि रसूलुल्लाह ﷺ आ रहे हैं, रसूलुल्लाह ﷺ आ रहे हैं, लोग हर सुबह घरों से निकलते और शहर से बाहर जमा हो कर इंतेज़ार करते, जब गर्मा का सूरज ऊंचा हो जाता और धूप क़ाबिले बरदाश्त ना रहती तो हसरतज़दा हो कर लौट जाते,*

*"❀_ यौमे क़दुमत को भी लोग इसी तरह जमा हो कर लौट रहे थे कि एक या्हूदी ने क़िले पर से देखा और खुश ख़बरी सुनाई कि अहले यसरिब वालो तुम्हे जिस बुज़ुर्ग का इंतेज़ार था वो आ पहुँचे, तमाम शहर तकबीरात से गूंज उठा, लोग बेताबाना वार दौड़े, अक्सर अंसार ख़ूब हथियार लगा कर निकले,*

*❥❥_ अव्वलीन क़यामें मुक़ाम क़ूबा में हुआ जो मदीना से 3 मील फासले पर एक मुज़ाफाती आबादी थी, अमरु बिन औफ रज़ियल्लाहु अन्हु के खानदान ने इस्तक़बाल किया और इसी खानदान को शरफे मेज़बानी हासिल हुआ,*

*"❀_ ये घर दर असल तहरीके इस्लामी का एक मरकज़ी सेंटर था, मुहाजिरीन में अक्सर के लिए मंज़िले अव्वल में घर बना और बाज़ मुहाजिर सहाबी इस वक़्त भी यहीं मुक़ीम थे, हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु भी अमानतों की अदायगी के बाद रवाना हो कर यहीं कारवांने महबूब के साथ आ मिले,*

*"❀_यहां 14 रोज़ क़याम रहा और मुहाजिरीन ज़ोक दर ज़ोक शरफे मुलाक़ात को आ रहे थे, लोग उस हस्ती को देखना चाहते थे जिसका पैगाम उनके सीनो में घर कर चुका था, उसके चेहरे की एक झलक निगाहों के दमन में समेट लेना चाहते थे, उसके मुंह से मीठे बोल सुनना चाहते थे, उसकी दुआए खैर से हिस्सा हासिल करना चहते थे, गायबाना अकी़दत अब मोहसिने इन्सानियत को रु दर रु देखना चाहती थी,* 

*"❀_ सलाम मुलाक़ाते गुफ्तगूएं दुआएं मजलिसे क्या कुछ ना होगा, क़ुबा में आपने अपने हाथों से मस्जिद की बुनियाद रखी, एक एक मुसलमान उस तामीर की मुहिम में शरीक था और ख़ुद दुनिया का सबसे बड़ा तारीखसाज़ एक मामूली मज़दूर की तरह भारी भरकम पत्थर उठा कर ला रहा था, काम हो रहा था और नगमे गाए जा रहे थे,*
*"_ (तर्जुमा) _ यानि कामयाब वो है जो मस्जिदों की तामीर करे, उठते बैठते क़ुरान पढ़ें और रातों को (इबादत के लिए) जागे_,"* 

*"❀_ ये मस्जिद महज ईंट पत्थर और गारे और फूंस का मजमुआ ना थी, उसमे खातिमुन नबीय्यीन ﷺ से ले कर एक आमी मुसलमान तक हर एक ने बेहतरीन जज़्बात सर्फ किये थे, इसलिये इसकी शान में कुरान ने कहा- (तर्जुमा) ये ऐसी मस्जिद है कि इसकी बुनियाद तक़वा पर इस्तवार की गई है,*

*❥❥_ 14 रोज बाद इंसाने आज़म ﷺ ने सहाबा किराम समेत मदीना का रुख किया, क़ुबा से मदीना तक अंसार ख़ैर मुकद्दम के लिए सफे बाँधे खड़े थे, आपके ननिहाली रिश्तेदारों ने खास इश्तियाक़ से हथियार लगाये, औरतें छतों पर जमा थीं और तराना खैर मुकद्दम गा रही थीं और छोटी बच्चियों के झुंड घूम रहे थे, ये लड़कियां दफ बजा बजा कर गाती फिरती थीं,*

*"❀_ ज़रा तसव्वुर में लाइए उस तारीख़ी घड़ी को जो मदीना के नसीब में आई थी, गलियों की खाक के ज़र्रे ज़र्रे में दिल धड़क रहे होंगे, दीवारों की दर्ज़ो को आंखें मिल गई होंगी, हवा के झोंकों में इंसानी एहसास पैदा हो गए होंगे, आरज़ी क़याम के लिए हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु के घर की क़िस्मत जागी, 7 माह नबी करीम ﷺ का क़याम यहीं रहा,*

*"❀_ जोंही ज़रा सुकून हुआ और मुसाफिरत की कैफियत खत्म हुई तो सरवरे आलम ﷺ तामीरी अक़दमात की तरफ मुतवज्जा हुए, अव्वलीन मुहिम मस्जिद की तामीर की थी, दो यतीम बच्चो की इफ्तादा ज़मीन खरीदी गई और हजरत अबू अय्यूब अंसारी रजियल्लाहु अन्हु ने क़ीमत अदा की, उस ज़मीन पर मस्जिद नबवी की तासीस हुई,*

*"❀_ मस्जिद की अहमियत सिर्फ बतौर इबादतगाह ही के ना थी, बल्की उसे इस्लामी निज़ामे तमद्दून व रियासत का सरचश्मा व मरकज़ बनाना था, वो हुकुमत का दरबार, मशवरे का ईवान, सरकारी मेहमान खाना, जम्हूरी दारुल उलूम और क़ौमी लेक्चर हॉल की हैसियत से बरपा की गई,*

*❥❥_ इस अव्वलीन तामीरी अक़दाम पर वही क़ुबा वाला नक्शा पेश आया, कौन मुसलमान होगा जिसने इसमें दिलो जान से हिस्सा ना लिया होगा, खुद सरवरे आलम ﷺ पत्थर और गारा उठा उठा कर लाते, इस मंज़र को देख कर एक मुसलमान मारे जज़्बात के पुकार उठा कि :- (तर्जुमा) यानी अगर खुदा का नबी इस काम में यूं लग जाए और हम देखते रहे तो हमारा किया कराया गारत हुआ_,"*

 *"❀_ काम की गर्मा गर्मी में कोई बेहुदा गोई ना थी, बल्की आन हजरत ﷺ समेत सबके सब ये सदा बुलंद कर रहे थे- आखिरत की अब्दी जिंदगी ही जिंदगी है और वो ना हो तो फिर जिंदगी बीच है, ए अल्लाह! तू अंसार और मुहाजिरीन पर रहम फरमा_,"*

*❀"_ ये थी स्प्रिट और ये दुआएं जो मस्जिदे नबवी की तामीर का असल मसाला बनी, मस्जिद के साथ मोहसिने इंसानियत ﷺ के लिए गारे और फूंस के हुजरे तामीर हो गए, आप ﷺ अपने इन्हीं हुजरो में मुंतकिल हो गए ,*

*"❀_ मदीना में हज़रत रिसालत माब ﷺ की तशरीफ आवरी से अज़ खुद दावत का दायरा वसी होने लगा, और सात माह के अरसे में तहरीक़ हक़ ने क़बीले क़बीले और घर घर से जांनिसार हासिल कर लिए,*

*❥❥_ इंफिरादी दावत के अलावा सरवरे आलम ﷺ ने इज्तिमाई तौर से काम का आगाज़ जिस खिताबे आम से किया वो इन अल्फ़ाज़ पे मुश्तामिल था:-* 
*"❀_ (हमदो सना के बाद) लोगों ! अपनी जानों के लिए वक़्त पर कुछ कमाई कर लो, ख़ूब जान लो खुदा की क़सम तुममे से हर एक पर मौत वारिद होगी और वो अपने गल्ले इस हाल मे छोड़ कर रुखसत होगा कि कोई उसका चरवाहा ना रहेगा, फिर उसे उसके परवरदिगार की तरफ ऐसे आलम में ख़िताब किया जाएगा जबकी बीच में कोई तर्जुमान ना होगा, कहा जाएगा कि क्या तुझ तक मेरा रसूल नहीं पहुँचा था जिसने बात तुझ तक पहुँचाई हो, फ़िर क्या मैंने तुझे माल ना दिया था और तुझ पर नवाज़िश नहीं की थी ? तो फिर अपनी जान के लिए तूने क्या जमा किया ?* 

*"❀_ पस वो देखेगा दाएं बाएं लेकिन कुछ ना दिखाई देगा, फ़िर सामने की तरफ निगाह डालेगा, मगर बजुज़ जहन्नम के ओर कुछ सामने ना आएगा, सो जिसको भी तौफीक़ हो कि वो खजूर की एक फांक के एवज़ भी अपने चेहरे को दोज़ख की आग से बचाने के लिए कुछ कर सकता हो तो करे,* 

*❀"_ जो इतना भी ना कर सके वो कोई भली बात कह कर ही बचाव करे, क्यूँकी नेकी का बदला दस गुना से ले कर सात सौ गुना तक मिलता है और तुम पर सलामती हो और अल्लाह की रहमत और बरकतें वारिद हों _,"* 
*®_ (सीरत इब्ने हिशाम-2/18)*


*❥❥_दूसरा खिताबे आम जो आप ﷺ ने फरमाया ये था:- सारी तारीफ अल्लाह के लिए है, मैं उसकी हम्द करता हूं, उसी से मदद चाहता हूं! हम सब अपने दिलों की शरारतों और अपने आमाल की खराबियों के मुक़ाबले में अल्लाह ही की पनाह तलब करते हैं, जिसे अल्लाह हिदायत दे उसे कोई गुमराह करने वाला नहीं और जिसे वो हिदायत से महरूम कर दे उसके लिए कोई रहनुमा नहीं,*

*"❀_ और मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कि जो एक है और जिसके साथ कोई दूसरा हिस्सेदार नहीं कोई और क़ाबिले इबादत व ता'त हस्ती नहीं, बिला शुबहा बेहतरीन बयान अल्लाह तबारक वा ता'ला की किताब है, जिस शख़्स के दिल के लिए अल्लाह ने उसे महबूब बना दिया और जिसे कुफ्र के बाद इस्लाम में दाखिल किया और जिसने और सारे इंसानी बयानों के मुक़ाबले में उसे अपने लिए पसंद कर लिया, उसने फला पाई,*

*"❀_ ये बेहतरीन बयान है और सबसे ज्यादा मो'स्सिर, तुम वही कुछ पसंद करो जो अल्लाह को पसंद है और अल्लाह से इखलास के साथ मोहब्बत करो, अल्लाह के काम से तग़ाफ़ुल न बरतो और तुम्हारे दिल उसके लिए सख्त ना होने पाएं_,"*

*"❀_ चूंकी ये हक़ीक़त है कि अल्लाह जो कुछ पैदा करता है उसमें से बेहतर को छाँटता और मुंतखब करता है, सो उसने आमाल में से बहरीन और बंदो में से बरगुज़िदा तरीन और बयानों में से पाकीज़ा तरीन को मुतय्यन फ़रमा दिया है, नीज़ इंसानों को जो कुछ दिया गया है, उस सबमे से कुछ हलाल है, कुछ हराम, पस अल्लाह की गुलामी अख्त्यार करो, उसके साथ किसी को शरीक़ ना क़रार दो, उसके गज़ब से इस तरह बचो जेसा कि बचने का हक़ है,*

*"❀_ और अल्लाह के हुज़ूर में वो सारे पाकीज़ा अक़वाल सच कर दिखाओ जिनको तुम अपनी जुबानो से अदा करते हो, और अल्लाह की रहमत के ज़रिये एक दूसरे से मुहब्बत का रिश्ता इस्तवार करो, यक़ीनन अल्लाह नाराज़ होता है अगर उसके साथ बांधे हुए (ईमान के) अहद को तोड़ा जाए, और तुम पर सलामती हो _,"*
 *®_ (सीरत इब्ने हिशाम-2 -118,119)*

*❥❥_इस्लामी रियासत की तासीस:- तीसरा तामीरी अक़दाम और शायद सियासी लिहाज़ से सबसे बड़ा तामीरी अक़दाम ये था कि रियासत चलाने के लिए मदीना के यहूद व मुशरिकीन और मुसलमानों की सोसाइटी को एक नज़्म में पिरो दिया गया, एक तहरीकी मुआहिदा इस्तवार किया गया जिसकी नोइयत दर हक़ीक़त एक बाक़ायदा तहरीरी दस्तूर की है, इसको बजा तौर पर दुनिया का पहला तहरीरी दस्तूर कहा जाता है,*

*"❀_ इस दस्तूरी मुआहिदे के ज़रीए मदीना के मुनअज़्म होने वाले माशरे में ख़ुदा की हाकमियत और उसके क़ानून को बुनियादी अहमियत हासिल हो गई, सियासी क़ानून और अदालती लिहाज़ से आख़िरी अख्त्यार मुहम्मद ﷺ के हाथ आ गया,*

*"❀_ दिफाई (हिफाज़त) लिहाज़ से मदीना और उसके आस पास की पूरी आबादी एक मुत्तहिद ताक़त बन गई और उसके किसी असर के लिए कुरेश की हिमायत के दरवाज़े बंद हो गए, नीज़ दिफाई लिहाज़ से भी मरकज़ी और फैसला कुन अख्त्यार आन हज़रत ﷺ के पास आ गया, इस दस्तूरी मुआहिदे से बा जा़ब्ता तौर पर इस्लामी रियासत और इस्लामी निज़ामे हयात की तासीस वाक़े हो गई,*

*"❀_ निज़ामे मुवाख़ात ( भाई चारा):- मदीना के माशरे का एक बड़ा मसला सैंकड़ों मुहाजिरीन की बहाली का मसला था, घर बार छोड़ छाड़ कर मुसलसल लोग इकट्ठा चले आ रहे थे और चंद हज़ार की आबादी रखने वाली मुतवासित (मामूली) सी बस्ती को उनको अपने अंदर जगह देनी थी, मदीना के माशरे और उसके सदरे रियासत ने जिस कमाल की हिकमत से इस मसले को हल किया उसकी कोई दूसरी मिसाल दुनिया में नहीं मिलती।*

*❥❥_ महज़ एक अख़लाक़ी अपील के ज़रीये इस पैचीदा मसले को चंद रोज़ में हल कर लिया गया, सरवरे आलम ﷺ ने अक़ीदे और नज़रिए और मक़सद की सही मा'नो में एक नई बिरादरी पैदा कर दिखाई और एक एक अंसारी के साथ एक एक मुहाजिर का बिरादराना रिश्ता क़ायम कर दिया, अंसार का ये हाल था कि वो अपने माल, मसाकिन बागात और खैत आधो आध बाँट कर मुहाजिरीन को दे रहे थे बल्की बाज़ तो यहां तक तैयार हो गए कि दो बीवियों में से एक एक को तलाक दे कर अपने दीनी भाईयों के निकाह में दे दें,*

*"❀_ दूसरी तरफ मुहाजिरीन की खुद्दारी का नक़्शा ये था कि वो कहते थे कि हमें ख़ैत या बाज़ार का रास्ता दिखा दो हम तिजारत या मज़दूरी कर के पेट पाल लेंगे,*

*"❀_ बिल ख़ुसूस नव उम्र मुहाजिरीन जो अपने आपको तालीम के लिए वक़्फ़ करना चाहते थे उनकी अक़ामत गाह "सुफफ़ा" (मस्जिद नबवी का एक चबूतरा) थी, तामीरी काम के सिलसिले में ये एक अहम इदारा था, असहाबे सुफफ़ा की किफ़ालत सोसाइटी करती थी और आन हज़रत ﷺ खुद उनकी ज़रुरियात की तामील में सरगर्म रहते,*

*"❀_ मदीना में जिस नए माशरे की उठान हो रही थी उसे देख कर शैतान बुरी तरह तिलमिला रहा था, वो अपने कुछ फिदाकार और जांनिसार मैदान में लाना चाहता था, उन्होंने दाई हक़ नबी ﷺ और तहरीके इस्लामी और उसके काम करने वालों के खिलाफ फबतियां कसीं, मज़ाक उड़ाए, नित नए सवालात और ऐतराजा़त घड़ घड़ कर लाए, इल्ज़ामात लगाए, मुखबरियां और जासूसियां की,*

*"❀_ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को आपस में लड़ाने के मनसूबे तैयार किए, रहमते दो आलम ﷺ के क़त्ल की तदबीरे की, और जंग और इमरजेंसी के हालात में सख़्त क़िस्म की गद्दारियां की, अपनी तरफ़ से एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया,*

*❥❥_ इब्तिदा में यहूद को हुज़ूर सरवरे आलम ﷺ और इस्लाम से बड़ी अच्छी उम्मीदें थी, उनका अंदाज़ ये था कि आहिस्ता आहिस्ता हम मुहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ और आपके साथियों को अपने अंदर जज़्ब कर ले जाएंगे, यहूद का ज़हन हक़ परसताना तर्ज़ पर नहीं सोच रहा था, बल्की ये खालिस सौदागराना तर्ज़े फिकर था, वो समझ रहे थे कि ये उजड़े पकड़े लोग जो सैंकड़ों की तादाद में इकठ्ठा चले आ रहे हैं, इनको हम अपने बाड़े की भेड़ें बना सकेंगे,*

*"❀_ इसी उम्मीद पर उन्होंने मुसलमानों के साथ मुआहिदात क़ायम कर लिए और उस सियासी तंजीम को गवारा कर लिया जो मदीना में क़ायम की जा रही थी, उनका अंदाजा ये था कि ये सियासी ताक़त जो अपनी कोंपले निकाल रही है ये तो बस हमारी जेब में है, हमारी पीरी और मशीखत की गद्दियां हैं, उसे चारो तरफ से घेरे हुए हैं और हमारे इल्म और तक़वा के साथ अपना दामन उसके ऊपर फैलाए हुए हैं,*

*"❀_ मगर कुछ ही मुद्दत के तजुर्बे से उनकी ख़ुश फ़हमियों का ख़ात्मा होने लगा, उन्हें इस्लामी जमात ने जतला दिया कि ये कोई सस्ता शिकार नहीं है, ये ऐसी मज़बूत ताक़त है कि शिकारी उसके हाथो ख़ुद शिकार हो के रहने वाले हैं, उनकी निगाहों के सामने आहिस्ता आहिस्ता एक इंक़लाबी मिज़ाज की रियासत परवान चढ़ने लगी और ये रियासत अपने वजूद में एक क़िला की तरह मज़बूत बनती गई,*

*"❀_ चुनांचे अंदर ही अंदर उनमे एक हासिदाना उबाल पैदा होने लगा हत्ताकी मर्तबा कमाल तक पहुंच कर उसने गद्दारी की सूरत अख्त्यार कर ली,*

*❥❥__ यहूद में एक बुज़ुर्ग अब्दुल्लाह बिन सलाम थे, इस्लाम से पहले उनका नाम हुसैन था, ये बुलंद पाया आलिम व मुत्तक़ी थे और मज़हबी नेता थे, उनका ताल्लुक़ बनू कीनक़ा से था, हुज़ूर ﷺ से मुलाक़ात के बाद उन्होने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और अपने घर वालों को भी दावत दी और मुतास्सिर कर लिया, चुनांचे सब तहरीके इस्लाम के हल्के में दाखिल हो गए,*

*"❀_ उनके क़ुबूल इस्लाम की दास्तान सुनिए जिसे उनके एक अज़ीज़ ने रिवायत किया है, "_मैंने जब अल्लाह का पैगाम लाने वाली हस्ती के बारे में सुना तो आपकी सिफात को, आपके नाम और आपके ज़माने को पहचान लिया, क्योंकी हम उसके इंतजार में थे, सो इस इत्तेला पर मैं दिल ही दिल में खुशी महसूस कर रहा था, लेकिन जुबान से कुछ नहीं कहता था,*

*"❀_आखिरकार रसूले खुदा मदीना पहुंचे, जब आप कुबा में बनी अमरु बिन औफ के घराने में पहुंचे तो एक शख्स आया और उसने आप ﷺ की तशरीफ आवरी की इत्तेला मुझे इस आलम में दी कि मैं अपने खजूर के दरख़्त की चोटी पर चढ़ा काम में मसरूफ था, मेरी फूफी खालिदा बिन्ते हारिस नीचे बैठी थी, मैंने जोंही तशरीफ आवरी की खबर सुनी तकबीर बुलंद की, फूफी ने मेरी तकबीर सुन कर मुझसे कहा- खुदा तुझे गारत करे, तुझे अगर मूसा बिन इमरान की आमद की खुश खबरी भी मिली होती तो इससे बढ़ कर इजहारे मसर्रत न करता*

*"❀_ मैने कहा - फूफी जान! खुदा की कसम! ये मूसा बिन इमरान के भाई हैं और उन्हीं के दीन पर कारबंद है, ये वही पैगाम लाए हैं जो मूसा लाए थे," इस पर वो कहने लगीं, "ए मेरे बिरादरज़ाद ! क्या ये वही नबी है जिसके बारे में हमें बताया जाता है कि वो क़यामत की घड़ी के क़रीब उठाया जाएगा? मैंने कहा कि हां यही तो वो है _,*

*"❀_ फिर मै खुदा का संदेसा लाने वाले की खिदमत में पहुंचा और मैंने इस्लाम कुबूल कर लिया, फिर अपने घर वालों के पास आया और उनको भी दावत दी, तो वो भी हलका़ ए इस्लामी में दाखिल हो गए,*

*❥❥_ ये नव मुस्लिम आलिम (अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु) चुंकी यहूद की कमज़ोरियों के राज़दां, उनकी हासिदाना नफ़्सियात और उनके ज़लील किरदार के रम्ज़ शनास (पहचान रखते) थे, इसलिये ख़ूब समझते थे कि मेरे ज़हनी इंक़लाब पर क्या तास्‍सुर दिया जाएगा, उन्‍होंने तय किया कि उन पस्‍तियों पर से तस्‍ना (बनावट, फरेब) के पर्दे उठवा दिए जाएं, दिल ही दिल में एक ड्रामे का नक्‍शा बना कर उन्‍होंने अपने इस्‍लाम को मख्‍फी रखा,*

*"❀_मुनासिब मोके़ पर मोहसिने इंसानियत ﷺ की खिदमत में आए और अर्ज़ किया यहूद एक बातिल ज़दा गिरोह है और उनके फसाद अहवाल को बेनकाब करने के लिए आप मुझे अपने घर में पर्दे के पीछे बिठा दे और उनकी निगाहों से मख्फी रख कर उनकी राय मेरे बारे मे दरियाफ्त फ़रमायें और फिर मुलाहिजा़ फ़रमायें कि मेरे इस्लाम लाने से नावाकिफ होते हुए मुझे क्या मुका़म देते हैं क्यूंकि अगर उनको मेरे क़ुबूले इस्लाम का इल्म हो गया तो फिर वो मुझ पर बोहतान बांधेंगे और ऐब जोई करेंगे,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ ने ऐसा ही किया, अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु को घर में आड़ में पीछे बिठा दिया, और उधर यहूद बुज़ुर्ग आ पहुँचे, बात हुई, सवालात पूछे जाते रहे और जवाब दिए जाते रहे, आख़िर में रसूले ख़ुदा ﷺ ने पूछा - हुसैन बिन सलाम तुममें से कैसे आदमी हैं? कहने लगे कि वो हमारे सरदार हैं, और हमारे एक सरदार के फरजंद हैं, हमारे एक मर्द जलील हैं, एक बुलंद पाया आलिम हैं _,*

*"❀_ जब वो सब कुछ कह चुके तो अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु ओट से बाहर आ गए और उनको मुखातिब कर के कहा- ए गिरोह यहूद! खुदा का खौफ करो, और जो दीन हुजूर ﷺ के ज़रिये आया है उसे अपना लो, क्योंकि खुदा की क़सम! तुम खूब समझते हो कि आप ﷺ अल्लाह के भेजे हुए हैं, तुम हुजूर ﷺ के इस्मे गिरामी और आपकी सिफात का तज़किरा अपने यहां तौरात में लिखा देखते हो, सो मैं तो गवाही देता हूं कि हुजूर ﷺ खुदा के भेजे हुए हैं और आप पर ईमान लाता हूं और आपकी तसदीक करता हूं और आपको पहचानता हूं,*

*"❀_ यहूद पर्दा उठा देने वाले इस ड्रामे को देख कर बहुत सिटपिटाए और कहने लगे-तुम झूठे हो_," और फिर अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु के दरपे हो गए, अभी चंद लम्हे पहले जिस शख्स को सैय्यद और आलिम और मर्द जलील क़रार दिया घड़ी भर में उसे झूठा आदमी कह रहे थे, अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने रसूलुल्लाह ﷺ से अर्ज़ किया कि मैंने हुज़ूर ﷺ से कह नहीं दिया था कि ये एक बातिल ज़दा गिरोह है, ये सरकश, झूठ और बुराइयों से आरास्ता लोग हैं, इस दिलचस्प तरीक़े से अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने और अपने घर वालों के इस्लाम का एलान किया,*

*❥❥_ हज़रत सफिया रज़ियल्लाहु अन्हा बिन्ते हई बिन अख़तब ये रुदाद बयान करती हैं कि मैं अपने वालिद और चाचा की निगाह में सारी औलाद से ज़्यादा चहेती थी और दोनो हर वक़्त साथ रखते थे, जब रसूले ख़ुदा ﷺ मदीना आए और क़ुबा में क़याम फरमाया तो मेरे वालिद हई बिन अख़तब और चाचा अबू यासिर बिन अख़तब मुलाक़ात के लिए गए,*

*"❀_ जब लौटे तो गुरुब आफताब का वक्त़ था, मालूम होता था बहुत थके मांदे और परेशान खातिर हैं, वो बहुत धीमे अंदाज़ से चले आ रहे थे, मैं मामूल के मुताबिक़ मुस्कुराती हुई उनकी तरफ मुतवज्जा हुई, लेकिन बा खुदा परेशानी के मारे दोनो में से किसी ने मेरी तरफ इल्तिफात ना किया,*

*"❀_ मेरे चाचा अबु यासिर वालिद से कह रहे थे, क्या ये वही (पैगंबर मोऊद) है? वालिद ने कहा- हां खुदा की क़सम, चाचा ने फिर पूछा - क्या तुमने उसे पहचान लिया है, और यक़ीन कर लिया है? वालिद ने जवाब दिया - हां, इस पर चाचा ने दरियाफ्त किया- फिर उसके लिए तुम्हारे दिल में क्या जज़्बा है? वालिद ने कहा - दुश्मनी ही दुश्मनी.... जब तक जिंदा हूं खुदा की क़सम!*

*"❀_ ये था यहूद का असल ज़हन! यानी खूब समझते थे कि उनके सामने आने वाला दाई हक़ है, खुदा का पैगाम लाने वाला है, उसका हर बोल उसकी सच्चाई पर गवाही है, उसका पूरा किरदार उसके मर्तबे को नुमाया कर रहा है, उसका चेहरा और उसकी वजाहत उसकी नबुवत की तर्जुमानी कर रहे हैं, समझते ही नहीं खिलवतों में जुबान से इक़रार तक करते हैं, लेकिन ईमान व इता'त की राह अख्त्यार करने की बजाय मुख़ालफ़त व अदावत का अज़्म बांधते हैं, ये फितरत यहूद के यहां आम थी,*

    ⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙
      
          *⚂ _ मुनाज़राना सवालात _⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ अब्दुल्ला बिन सलाम रजियाल्लाहु अन्हु के तेहरीके इस्लामी में शामिल हो जाने के बाद यहूद ने मुनाज़राना बहसों और काविशो के मोर्चे जमाने पर पूरी तवज्जो सर्फ कर दी, मगर ये सारी कार्यवाही भी खुले मोर्चों से नहीं, मुनाफक़त के पर्दों से जारी की गई, ये बेहरुपिये तहरीके़ इस्लामी के इज्तिमात में शरीक होते, फ़िर बातों बातों मे गिर्या मिस्कीनी के तर्ज़ से होंठ लटका लटका कर सवालात सामने लाते,*

*"❀_ एक इज्तिमा में हुजूर रिसालत माब ﷺ के सामने उन्होंने ये सवाल रखा," ख़ल्क़ को जब खुदा ता'ला ने पैदा किया है तो खुद खुदा को किसने पैदा किया?*

*"❀_ देखा आपने ज़हन की खराबी !... यहूद खुद उसी खुदा पर ईमान रखने के दावेदार थे उसके पैगम्बरों का अकी़दा रखने वाले और उसकी किताब के अलमबरदार थे, वो खुदा को पहले से जानते थे, उसकी सिफात से आगाह थे, लेकिन उसी खुदा की तरफ जब इस्लाम ने बुलाया तो खुदा के बारे मेरे उनके दिलों में भारी इश्काल पैदा हो गया, और उनके सवाल का गोया ज़ाहिरी मुद्दा ये था कि अगर ये इश्काल दूर हो जाए तो फिर उनके लिए आगे बढ़ने का रास्ता खुल जायेगा, लेकिन सवाल का टेढ़ बता रहा है कि मक़सद तलबे हिदायत नहीं बल्की लोगों को हिदायत से बचने के लिए राह दिखाना है,*

*"❀_ आन हजरत ﷺ ने टेढ़े सवाल का जबाब बहूत ही सीधे तरीक़े से दिया, यानि संजीदगी से सूरह इखलास पढ़ दी :-* 
*"_ कहो ऐ मुहम्मद ﷺ कि अल्लाह हर लिहाज़ से एक है, अल्लाह ही ऐसा है कि सब उसके मोहताज हैं, वो किसी का मोहताज नहीं, ना उसकी कोई औलाद है और ना वो किसी की औलाद है, और उसके जोड़ का कोई भी नहीं _,"*

*❥❥_ आइए अब आपको एक और दिलचस्प मज्लिसी गुफ्तगु मे ले चले, यहूद के बाज़ नामूर मौलवी एक दिन हुजूर ﷺ के हलके़ मे आये और कहने लगे कि हमारे चार सवालों का जवाब दीजिए, फ़िर हम आपकी दावत मान लेंगे और आपकी इता'त क़ुबूल कर लेंगे, हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया कि अब इस अहद की ज़िम्मेदारी तुम पर है, पूछो जो कुछ पूछना है,*

*"❀_1- बच्चा माँ के मुशाबे क्यूं होता है जबकी वो अपने बाप के नुतफे से तश्कील पाता है?*
*"_2- आपकी नींद की कैफियत क्या होती है ?* 
*"_3- इज़राइल (याक़ूब अलैहिस्सलाम) ने क्या चीज़ अपने ऊपर हराम कर ली थी और क्यू?* 
*"_4- चोथा सवाल पूछा गया कि रूह (फरिश्ता वही) क्या है?* 

*"❀_ हुजूर ﷺ ने सुकून से एक एक सवाल का जवाब दिया और आखरी सवाल के जवाब में फरमाया कि तुम खुद इस बारे में जानते हो कि वो "जिब्रील" है और वही मेरे पास आता है, सब सवालात हो चुके, जबाव सामने आ गये, उन जावाबों में से किसी की तरदीद नहीं की गई, बल्की हर एक पर कहा गया- ठीक है ए हमारे अल्लाह!*

*"❀_ आप तवक्को़ करेंगे कि इन जवाबात के बाद उन्होंने दिलों के दरवाज़े इस्लाम के लिए खोल दिए होंगे, हरगिज़ नहीं ! आखरी बात पर वो कहने लगे - लेकिन ऐ मुहम्मद (ﷺ) जिब्रील तो हमारा दुश्मन है, वो एक फरिशता है कि जब आता है तो मुसीबत और खून खराबे का पैगाम ले कर आता है_, मुराद ये थी कि वो जब खुदा की तरफ से दीन की अलमबरदारी का मुतालबा लाता है तो एक कश्मकश ना गुज़ैर हो जाती है, तरह तरह के नुक़सनात सर पड़ते है, उससे हमारी नहीं बनती, बस उस फ़रिश्ते की दुश्मनी आड़े ना आयी होती तो फिर हम आपका ज़रूर साथ देते और आपके नक़्शे क़दम पर चलते,*

*❥❥_ यानी दावत ठीक, पैगाम बर हक़, तहरीक दुरुस्त, मगर उसके पसे मंज़र में जिस फरिश्ते को खुदा ने ला डाला है उससे हमारी साहिबे सलामत खत्म हो चुकी है, लिहाज़ा जहां वो होगा वहां हम नहीं आ सकते! चाहे फ़रिश्ता ख़ुदा का मुक़र्रर करदा और मुक़र्रब हो, क्या ही टेढ़ी खोपड़ियां थीं उन लोगों की!*

*"❀_ इसका जवाब मोहसिने इंसानियत ﷺ ने क़ुरान के अल्फाज़ में ऐसा दिया कि बस सुनने वालों को हमेशा याद रहा होगा, फरमाया- कहो (ऐ मुहम्मद ﷺ) कि जो कोई जिब्रील का दुश्मन हो (तो वो कान खोल कर सुन ले कि) कुरान को अल्लाह तआला ने तुम्हारे दिल पर अपने फरमान के तहत उतारा है जो अपने से पहले की आसमानी किताबों की तसदीक करता है, और ईमान लाने वालों के लिए (अदावत और मुसीबत और खून खराबे का पैगाम नहीं बल्कि) ज़रिया हिदायत व बशारत है_," (अल बक़राह -97)*

 *"❀_ एक और बहस पैदा हो गई, सरवरे आलम ﷺ ने किसी मौके पर हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम का ज़िक्र अंबिया अलैहिस्सलाम के सिलसिले में फरमाया, इस पर यहूदी हलकों में बड़ा चर्चा हुआ, हर तरफ़ कहा जाने लगा कि "मुहम्मद ﷺ की अनोखी बात" सुनी, कहते हैं कि सुलेमान बिन दाउद भी पैगंबर थे! खुदा की क़सम वो तो महज़ एक जादूगर (नाउज़ुबिल्लाह) थे_,"*

*"❀_ चुनांचे क़ुरान ने इस वाहियात चर्चे की तर्दीद की कि जादूगरी तो एक काफ़िराना हरकत है और हज़रत सुलेमान ने कभी ये हरकत नहीं की, चाह बाबिल के जो क़िस्से मशहूर है वो तो शैतान के करिश्मे थे,*

*❥❥_ हुज़ूर सरवरे आलम ﷺ मुशरिकीन के तौर तरीक़ो के मुक़ाबले में यहूद के बाज़ तरीक़ो को पसंद फरमाते थे, मसलन मुशरिकीन बालों में मांग निकालते थे और यहूद नहीं निकालते, तो आपने इस मामले में मुशरिकीन की मुख़ालफ़त की और यहूद की मुवाफक़त ! जिन मामलों में क़ुरान में कोई हुक्म अल्लाह तआला की तरफ से वारिद नहीं होता था उनमें नबी करीम ﷺ अहले किताब की मुवाफक़त करते*

*"❀_मदीना के यहूद आशूरा के दिन का रोज़ा रखते थे, आप ﷺ ने भी उस दिन रोज़ा रखा और मुसलमानों के लिए आशूरा का रोज़ा रखना पसंद फरमाया, किसी यहूद का जनाजा़ गुज़रता तो आप खड़े हो जाते, सबसे बढ़ कर ये कि मुसलमानों के लिए क़िब्ला नमाज़ बैतुल मुक़द्दस था, ये एक खुली हुई अलामत थी कि तहरीक इस्लामी मुशरिकीन के मुक़ाबले में अहले किताब से ज़्यादा अक़रब थी,*

*"❀_ वाक़िया दर हक़ीक़त ये था कि यहूदियत का ढाँचा तो उस मज़हब के मुफ़ाद परस्त मौलवियों और पीरों ने पूरी तरह मशख़ कर डाला था, और ये ढांचा बेजान भी हो चुका था, लेकिन मूसा अलैहिस्सलाम जिस दीन को लाए थे वो वही इस्लाम था जिसे सारे ही अंबिया ने शराइत के थोड़े बहुत फ़र्क के साथ पेश किया था और अब इसको मुहम्मद ﷺ दुनिया के सामने रख रहे थे बल्कि एक निज़ाम की सूरत में बरपा कर रहे थे,*

*"❀_ यही रिश्ता था जिसकी बिना पर हुजूर ﷺ को भी उम्मीदे थीं कि यहूद इस्लामी जद्दो जहद को जों जों समझेंगे उसका खैर मुकद्दम करेंगे और इस काम को अपना काम समझेंगे, इन्ही उम्मीदों की फिज़ा में कुरान ने अपनी दावत यूं पेश की थी कि असल सवाल गिरोह बंदियों का नहीं उसूल व अमल का है,*

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            *⚂ _ तहवील ए क़िब्ला _⚂*   
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*❥❥_ और यकायक तहरीके़ इस्लामी एक इंक़लाबी मोड़ मुड़ गई, ये मोड़ था तहवील ए क़िब्ला का वाक़िया ! मक्का में बैतुल मुकद्दस को क़िब्ला बनाया गया था ताकी नज़रिया इस्लामी की अलंबरदार जमात को अपनी जुदागाना हैसियत का एहसास हो, अब दौरे मक्का की वो ज़रूरत खत्म हो चुकी थी जिसके तहत बैतुल मुकद्दस को आरजी तौर पर क़िब्ला बना लिया गया था, मुसलमानों का ज़हनी राब्ता क़िब्ला इब्राहिमी ही से ज़्यादा क़रीब था और खुद हुजूर ﷺ इसी खानदान के चश्मों चराग थे और यही वजह थी कि हुजूर ﷺ का क़ल्ब हक़ीक़त शनास पहले से इस तब्दीली का मुंतज़िर रहा,*

*"❀_ सोलह (16) महीने तक मदीना में बैतुल मुक़द्दस के रुख़ नमाज़ अदा की जाती रही, रज्जब या शाबान 2 हिजरी का वाक़िया है कि इब्ने सा'द की रिवायत है कि सरवरे दो आलम ﷺ बशर बिन बरआ बिन मारूर के यहां दावत पर गए थे, वहां जुहर का वक्त़ आ गया और आप ﷺ लोगों को नमाज़ पढ़ाने खड़े हुए, दो रकाते पढ़ा चुके थे कि तीसरी रकात में यकायक वही के ज़रिये आयत नाज़िल हुई, कहा गया कि - "_लो हम तुम्हें उसी क़िब्ला की तरफ़ फैर देते हैं जिसे तुम पसंद करते हो, सो (अब) मस्जिदे हराम की तरफ रुख फैर दो, अब जहां कहीं भी तुम हो उसी की तरफ़ मुंह कर के नमाज़ पढा़ करो_,"*

*"❀_ इस हुक्म के सुनते ही खुदा के सबसे ज़्यादा इता'त श'आर बंदे हालते नमाज़ ही में रुख बदल लेते हैं और आपके साथ साथ ही आपका इत्तेबा करने वाले तमाम नमाज़ी नए क़िब्ला की तरफ मुड़ गए,*

*"❀_ बैतुल मुक़द्दस मदीना से सीधा शुमाल में और मक्का जुनूब में, हालते नमाज़ में क़िब्ला की तबदीली के माने ये हुए कि इमाम को मुक़्तदियों के सामने से सीधा पीछे की तरफ आना पड़ा होगा, और नमाज़ियों की सफ़ को बिल्कुल उलटे क़दमो घूमना पड़ा होगा, इसके बाद मदीना और आस पास की बस्तियों में आम मुनादी करा दी गई, बर'आ बिन आजिब का बयान है कि एक जगह मुनादी की आवाज़ इस हालत में पहुंची कि लोग रुकु में थे और वो एलान सुनते ही उसी हालत में काबा की तरफ मुड़ गए,*

*❥❥_ हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु की रिवायत है कि बनी सलमा के यहां यह इतेला दूसरे रोज़ सुबेह की नमाज़ के दौरान मे पहुँची, लोग एक रकात पढ़ कर दूसरी में थे कि मुनादी की पुकार सुनी और उसे सुनते ही पूरी जमात ने अपना रुख बदल लिया_," (तफहीमुल कुरान - 1/119-121)* 

*"❀_ इस तब्दीली पर जो हंगामा बरपा होने वाला था उसके बारे मे पहले से कुरान ने आगाह कर दिया, (अल बक़राह -142 तर्जुमा) "_अब ये बेवक़ूफ़ लोग कहेगे कि आखिर वो क्या चीज़ है जिसने इन (मुसलमानों) को इस क़िब्ला से रूख फैरने पर आमादा कर दिया जिसकी तरफ मुंह करते चले आ रहे थे ? आप कह दीजिए कि मशरिक और मगरिब सब अल्लाह ही की है, वो जिसको चाहता है सीधी राह की हिदायत कर देता है _,"*

*"❀_ उन्हें बताया कि पहले बैतुल मुक़द्दस को क़िब्ला बनाने से गर्ज़ ये थी कि अरबियत के बुत को तोड़ा जाये, क्यूँकी अरब अपने कौ़मी दायरे से बाहर की किसी चीज़ की क़दर मानने के ले लिए तैयार ना थे, अब बैतुल मुक़द्दस से काबा की तरफ रुख घुमा देने का मुद्दा ये है कि इसराइलियत का बुत भी टूट जाए, एक काम पहले हो चुका था दूसरा अब कर दिया गया, अरबियत के परस्तार पहले छंट चुके थे और इसराइलियत के परस्तार अब छंट जायंगे,*

*"❀_ अब इस हलके़ में वोही लोग रहेंगे जिनकी निगाह में असल अहतराम अल्लाह के फरमान और उसके रसूल ﷺ की सुन्नत का है, रसूल ﷺ का दामन पूरे ऐतमाद के साथ थाम कर चलने वालो को उन तमाम बे उसूल अफराद को उन अफराद से छांट कर अलग करेगा जो इस हक़ीक़त पर ईमान रख़ते हों कि मशरिक व मगरिब सब अल्लाह के हैं और असल मरकज़ इता'त है,*
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            *⚂ _ अज़ान की इब्तिदा _⚂*   
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*❥❥_ मदीना में जब अज़ान की इब्तिदा हुई तो चुंकी यहूद के रिवायती मसलक के ख़िलाफ़ ये भी निज़ामे मज़हब में एक बिद'अत थी, लिहाज़ा वो इस पर भी बड़ा पेच व ताब खाते, ख़ुसुसन वो देख रहे थे कि अज़ान के कलमात इस्लाम की पूरी इंक़लाबी दावत और उसके बुनियादी नज़रिए को जामियत से सामने ले आते हैं और दिन में पांच मर्तबा उनका पुकारा जाना...एक मो'स्सिर ज़रिया नशरो इशा'त है,*

*"❀_ ये आवाज़ उनकी औरतों, उनके बच्चों और उनके गुलामों के कानो में पड़ती, हर रोज़ पड़ती और पाँच पाँच बार पड़ती, तसव्वुर कीजिए कि जब ये अनोखी आवाज़ें बिलाली सोज़ व साज़ के साथ गूंजती होगी तो मदीना की सारी फिज़ा में सन्नाटा छा जाता होगा, अपनों परायों के दिल मुतवज्जा हो जाते होंगे,*

*"❀_ ख़ुसुसन उनको वो फ़र्क़ महसूस होता होगा जो नक़ूस बजाने और अज़ान पुकारने में था, और जिसके बारे में ख़ुद उनके आवाम भी कुछ न कुछ अहसास करते होंगे, नक़ूस की आवाज़ में न लफ़्ज़ थे न मा'नी थे, बाखिलाफ इसके अज़ान की आवाज़ चंद बोलों और चंद कलमों पर मुश्तमिल थी जिनमे आम फहम मा'नी मोज्ज़न थे,*

*"❀_ नकूस की आवाज़ में इंसानी जज़्बात का इज़हार नहीं था, लेकिन अज़ान की पुकार में इंसानी क़ल्ब का सोज़ व गुदाज़ कार फरमा होता था, इस फर्क को मेहसूस कर के यहूद बजाए इसके कि ये ऐतराफ कर लेते कि अज़ान फिल वाक़े इबादत की दावत देने का बेहतर और मोअस्सिर ज़रिया है और इसके कलमात क़द्रो क़ीमत रखते हैं, वो चिड़ मे मुब्तिला हो गए,*

*"❀_ अपनी मजलिसों में, सोहबतों में वो अज़ान पुकारने वाले की आवाज़ को अजीब व गरीब तशबीहे देते, वो नकलें उतारते और अज़ान के कलमात को बिगाड़ बिगाड कर सामाने तज़हीक (हंसी, मजाक) पैदा करते।*
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   *⚂ _ बद तमीजियों की आखरी हद _⚂*   
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*❥❥_बद तमीजियों की आखरी हद ये थी कि खुद अल्लाह ता'ला को भी (नाउज़ुबिल्लाह) निशाना बना लिया, मसलन जब ये आयत उतरी कि " कोन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे" तो बजाए इसके कि इसके सीधे सादे मफ़हूम को लिया जाता यहूद ने ये कह कर मज़ाक़ उड़ाना शुरु कर दिया - लोगों ! सुनते हो अब तो अल्लाह ता'ला भी कल्लाश (कंगाल) हो गए हैं (नाउज़ुबिल्लाह) लो अब वो बन्दो से क़र्ज़ मांगने निकल खड़े हुए हैं _,"* 

*"❀_ खुदा से बेखौफ़ी और बेशर्मी की इससे ज़्यादा नापाक मिसालें काम मिलती हैं, इसी तरह कुरान में जहां मक्खी और मच्छर या ऐसी ही बाज़ाहिर हक़ीर चीज़ों का बतौर मिसाल तज़किरा हुआ है और उनके वज़ूद से कोई इस्तदलाल किया गया है, वहां ये लोग तंज़ व तहकीर का तूफान मचाने का मौक़ा पा लेते,* 

*"❀_ कहते कि खुदा भी अजीब है कि जिसे मिसाल देने के लिए भी मिलती हैं तो ऐसी हक़ीर चीज़ें मिलती है, इस्तहज़ा में ये इस्तदलाल भी शामिल होता कि कुरान ख़ुदा का कलाम केसे हो सकता है जबकी इसके अंदर इन घटिया चीज़ो का तज़किरा है, (नाउज़ुबिल्लाह)* 

*"❀_ इन लोगों को क्या ख़ूब जवाब मिला कि (सूरह अल बक़राह - 26) हां! अल्लाह इससे हरगिज़ नहीं शरमाता कि मच्छर या इससे भी हक़ीर तर किसी चीज़ की मिसाल दे, जो लोग हक़ बात के क़ुबूल करने वाले हैं वो इन्ही मिसालों को देख कर जान लेते है कि ये हक़ है जो उनके रब ही की तरफ से आया है और जो मानने वाले नहीं है वो इन्हें सुन कर कहने लगते हैं कि ऐसी मिसालों से अल्लाह को क्या सरोकार?*
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             *⚂ _ मदीना मे हालात _⚂*   
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*❥❥_सुलेह हुदेबिया पर जब मुसलमान मक्का गए तो उनके बदन बार बार की अलालतो ने ऐसे चूर चूर कर दिए थे कि अहले मक्का की तरफ से ताने दिए गए "और जाओ ना मदीना_," इन्ही तानों का रद्दे अमल था कि रसूलुल्लाह ﷺ के इरशाद के तहत मुसलमान अकड़ अकड़ कर चलते थे,*

*"❀_ इन्हीं हालात की बिना पर हुजूर ﷺ फरमाते थे कि, हिजरत का मामला बड़ा संगीन है कोई खैल नहीं! इस सिलसिले में एक दिलचस्प वाक़िया पेश आया एक बद्दू ने आकर सरवरे आलम ﷺ के हाथ पर बैत की लेकिन मदीना आते ही बुखार ने आ लिया, उसने इसको इस्लाम की बद शगुनी क़रार दिया और इसरार करके बैत खत्म कराई और चला गया, इस वाक़िये पर हुजूर ﷺ ने फरमाया कि मदीना सुनार की भट्टी की मानिंद है के खोट मेल को उगल देती है और ज़र खालिस को अलग कर लेती है_," (बुखारी)*

*"❀_ यही दौर था जबकी हुजूर सरवरे आलम ﷺ ने अल्लाह ताला से गिड़गिड़ा कर दुआ की, ऐ अल्लाह! हमारे लिए मदीना को वैसा ही दिलकश बना दे जेसे मक्का को बनाया था या उससे भी ज़्यादा, और हमारे लिए इसके पैमानों (यानी गल्ले और पैदावार) में बरकत अता फरमा, और इस पर आई हुई वबा को जोहफा (मीका़त अहले शाम) की जानिब मुन्तक़िल कर दे_," (सीरत इब्ने हिशाम- 2/221)*

*"❀_ दूसरी तरफ़ फ़क़र व फ़ाक़ा की कैफ़ियत में हद दर्जा तशवीश नाक थी, नई जगह आ कर माशी ज़िंदगी की नई नीव डालना और फिर उसमे कस्बे हलाल का अहतमाम करना और वो भी इस आलम में जबकी एक तहरीक़ लम्हा लम्हा इत्तेफ़ाक माल के मुतालबात के लिए सामने खड़ी हो, ऐसे हालात में जो इब्तिला (आजमाईश) पेश आ सकता है वो ज़ाहिर है, हक़ के अलंबरदारों पर जो कुछ गुज़री उसकी दर्दनाक रुदाद से तारीख सीरत और अहादीस के ज़खीरे भरे पड़े हैं,*

*❥❥_हज़रत अबु तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु उस दौर की इब्तिला का हाल यूं बयान करते हैं कि हम लोग भूख की मुसीबत में घुल घुल कर जब तंग आ गए तो सहारा हासिल करने के लिए सरवरे आलम ﷺ की खिदमत में पहुँचे, हाल बयान किया और पेट खोल कर दिखाये कि कई रोज़ के फ़ाक़े की वजह से ( मैदे में होने वाली एक खास जलन को रोकने के लिए) पत्थर बांध रखे थे, इस पर तारीख की उस अज़ीम तरीन शख्सियत ने अपने पेट से कपड़ा उठा कर दिखाया कि एक नहीं दो पत्थर बांधे हुए थे, इस मंजर को देख कर अपना दुखड़ा बयान करने वालों की तसल्ली हो गई_," (शमाईल तिर्मिज़ी)*

*"❀_ एक मर्तबा इसी हाल में हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु बे वक्त़ आए और चाहा कि तस्कीन हासिल करने के लिए अपनी तकलीफ़ बयान करें, मगर फ़िर ख़याल हुआ कि इससे क़ाइद ए इस्लाम को ख़्वाह मख़्वाह मज़ीद परेशानी होगी,*

*❀"थोड़ी देर में हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु भी आ पहुँचे, वो भी इसी इम्तिहान का शिकार थे, बाइस ए आमद पुछा गया तो उन्होंने साफ अर्ज़ किया कि भूख के मारे बेताब हूँ, हुज़ूर ﷺ ने सुना तो फरमाया कि मेरा भी हाल कुछ ऐसा ही है, तय पाया गया कि अपने रफीक़ ए मुकद्दस अबुल हैशम के यहां चलें,*

*"❀_ हज़रत अबुल हैशम रज़ियल्लाहु अन्हु बाग़ात के मालिक और ख़ुशहाल थे, तीनो अपने रफ़ीक के यहाँ पहुँचे तो वो बेचारे खादिम न होने की वजह से ख़ुद ही पानी लेने गए हुए थे, आए तो फ़र्ते मसर्रत से लिपट गए और बाग में ले जा कर दस्तर ख्वान बिछाया और खजूरें तोड़ कर हाज़िर की, खजूर खा कर उन फ़ाक़ा कशान राहे हक़ ने ठंडा पानी पिया और खुदा का शुक्र अदा करते और अबुल हैशम के लिए दुआए खैर करते वापस हुए.'' (ईज़ा)*

*❥❥_ हज़रत साद बिन अबी वक़ास रज़ियल्लाहु अन्हु ने एक मोक़े पर बयान किया कि तहरीके़ मुहम्मदी ﷺ का मै ही वो रुक्न हुँ जिसके हाथ से एक दुश्मने हक़ का पहला ख़ून गिरा, मैं ही हूँ जिसने अव्वलीन तीर फैंका, हम लोगों ने ऐसी हालत में काम किया है कि हम दरख्तों के पत्ते और कीकर की फलियां खाया करते थे और इस वजह से मुंह के किनारे ज़ख्मी हो जाते थे और अजाबत ऊंटों और बकरीयों की मेंगनियों की शक्ल अख्त्यार कर जाती थी_,"*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ के रफ़ीक़े ख़ास हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि एक ज़माना था कि जब मैं मिम्बरे नबवी ﷺ और हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के हुजरे के दरमियान भूख और फ़ाक़े की शिद्दत के मारे बेहोश पड़ा रहता और लोग मुझको जूनून ज़दा समझ कर (बतौर इलाज) पाँव से मेरी गर्दन दबाते थे, हालांकी मुझे जूनून नहीं होता था, वो महज़ भूख का आलम होता था _," (शमाइल तिर्मिज़ी)*

*"❀_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ही का बयान करदा एक वाक़िया ये भी है कि आप हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ साथ चले जा रहे थे और किसी आयत का मफ़हूम ज़ेरे बहस था बात करते करते और साथ चलते चलते यकायक हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु बहोश हो कर गिर पड़े, फ़ाक़ा कशी ने नोबत यहां तक पहुँचा दी थी,*

*"❀_इस आलम में हुजूर ﷺ अगरचे बैतुल माल में आने वाली दौलत को साथ के साथ रफका़ को संभालने के लिए खर्च करते चले जाते थे मगर खर्च का दायरा इतना वसी था कि बैतुलमाल की आमदनियां और अंसार और खुशहाल मुहाजिरीन के फराख दिलाना सदक़ात बदरजा अदना भी काफी ना होते थे, आम फ़ाक़ा ज़दा मुहाजिरीन के साथ साथ असहाबे सुफफ़ा का मुस्तक़िल दारुल इक़ामा ज़रुरत मंद था मेहमान आते थे, बदवी लोग वक़्तन फ़ा वक़्तन इस्लाम लाने ज़ियारत करने और अहकाम मालूम करने आते, सा'इल आ आकर सवाल करते और मुसलसल नए मुहाजिरीन की आमद रहती, इन हालात में बैतुल माल बेचारा भी क्या कर सकता था,*

*❥❥_ जब सहाबा किराम और अहले हाजत की ज़रुरियात का दबाव शदीद होता था, आप ﷺ या तो इआनत के लिए अपील कर देते और लोग जज़्बा ए सादिक से अपना माल पेश कर देते या फिर कर्ज़ लेना पड़ता, कर्ज़ अपनी जमात के अंदर से कुछ ज़्यादा मिल ना सकता था, लिहाज़ा यहूदी मालदारों की तरफ़ रुजू करना पड़ता था, यहूदियों का हाल ये था कि ये लोग पक्के सूदखोर थे और उनके सूदी जाल तमाम इलाक़े मे फैले हुए थे, लेकिन मुहम्मद ﷺ और आपके साथियों को वो जिस गर्ज़ से कर्ज़ देते थे वो सूद से ज़्यादा बड़ी चीज़ थी, वो ये थी के रूपया और अहसान दारी के ज़ोर से इन पर क़ाबू पाया जाए और इस ज़हनियत के साथ वो क़र्ज़ ख़्वाही में बिलकुल आदतों की ज़हनियत का मुज़ाहिरा करते और तोहीन व तज़लील पर उतर आते, यही हाल मुशरिकीन का था,* 

*❀"_ इस तल्ख तजुर्बे से खुद सरवरे आलम ﷺ को भी गुज़रना पड़ा और आपके साथियों को भी, बहुत सारे वाक़ियात सीरत और तारीख की किताबों में मज़कूर हैं, आह! दुनिया की भलाई के लिए ज़िंदगियों की बाज़ी लगा देन वालों ने ये सब कुछ भी भुगता, मगर इस खस्ता हालत पर भी अपने ईमान और मक़सद के बारे मे कोई तज़लज़ुल नहीं आया,*

*"❀_ मोहसिन ए इंसानियत ﷺ ने अपने क़रीबी रफ़ीक़ और ज़ाती नायब हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु को हुक्म दे रखा था कि सहाबा किराम की ज़रूरत पर वो आमदनियों को बेदरेग खर्च करें, हज़रत बिलाल रज़ियाल्लाहु अन्हु इसी काम में लगे रेहते थे, एक मर्तबा 90 हज़ार दिरहम की रक़म आई और एक बोरिये पर ढ़ेर लगा दी गई, वहीं बैठे बैठे सरवरे आलम ﷺ ने उसे ज़रूरत मंदों मे तक़सीम करा दी और एक हिस्सा बाक़ी ना रहा, तक़सीम हो चुकने के बाद एक साईल आ गया तो उसके लिए कर्ज़ लेने का हुक्म दिया,*

*"❀_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि किसी मौक़े पर सय्यदना बिलाल रज़ियाल्लाहु अन्हु के सामने खजूरों का एक ढ़ेर लगा पड़ा था, हुज़ूर ﷺ ने दरियाफ़्त फ़रमाया ये कैसा माल है ? सय्यदना बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया कि इसे मुस्तक़बिल की नादीदा ज़रुरतो के लिये रोके रखने का इरादा है, फ़रमाया क्या तुम बे फ़िक्र हो गए हो कि कल क़यामत के दिन कहीं इस माल को यूं रोके रखना के बदल जहन्नम का धुंवा तुम तक पहुंचे, खर्च करो ए बिलाल ! और तख्ते इक़्तिदार के मालिक की तरफ़ से किसी तरह का अंदेशा ना करो _,"* 

*❥❥_ हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ही का बयान है कि मदीना का एक मुशरिक उनके पास आया और ख़ुद पेशकश की कि मेरे पास बहुत माल मौजूद है, जब ज़रुरत हो मुझसे ले लिया करें, चुनांचे हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने क़र्ज़ लेना शुरू कर दिया,*

 *"❀_ यकायक एक दिन ऐसा हुआ कि हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु वज़ू कर के अज़ान कहने की तैयारी में थे कि वो माबीन अपने साथ कुछ और कारोबारियों को लिए हुए आया और चिल्लाया कि - "ओ हब्शी! हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु उसके पास गए, वो बहुत गरम हुआ और बुरा भला कहने लगा और धमकी दी कि महिना ख़त्म होने को है, अगर क़र्ज़ वक़्त पर अदा नहीं किया तो (अरब के जाहिल तरीक़े के मुताबिक़) तुमको गुलाम बना लुंगा और तुम्हारा वही हाल होगा जो पहले था,*

*"❀_ हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि इस नसीहत से मुझ पर वो कुछ गुज़री जो ऐसे आलम में हर शरीफ आदमी पर गुज़रती है, सैय्यदना बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु इशा की नमाज़ के बाद अपना दुखड़ा सुनाने नबी करीम ﷺ की खिदमत में पहुंचे और अदायगी की कोई तदबीर ना पा कर रूपोश (गायब) हो जाने का इरादा ज़ाहिर किया और कहा कि जब क़र्ज़ अदा करने का कुछ इंतजा़म हो जाएगा तो मैं वापस आ जाऊंगा_,"*

*"❀_ लेकिन इससे पहले कि हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु अपने इरादे को अमल में लाते, अगली ही सुबह नबी करीम ﷺ की तरफ़ से बुलावा आया, हाज़िर हुए तो देखा कि हाकिम ए फिद्क की तरफ से सामान से लड़ी हुई चार ऊँटनियां हदिया खड़ी है, क़र्ज़ ख्वाह को बुला कर हिसाब बेबाक़ कर दिया गया और बाक़ी माल हस्बे मामूल मुस्तहीकी़न में तक़सीम कर दिया गया,* 

*❥❥_ हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह असलमी रज़ियल्लाहु अन्हु तहरीक़ इस्लामी की एक और बुज़ुर्ग तरीन हस्ती हैं, ये मदीना मुनव्वरा के रहने वाले थे और ख़ासे खुशहाल थे, फ़िर भी हालात व ज़रूरियात के तहत एक यहूदी महाजन से वक़्तन फ़ा वक़्तन क़र्ज़ लेने पर मजबूर हो जाते,* 

*"❀_ एक साल खजूरों पर पूरी तरह फल ना आया और क़र्ज़ा वक़्त पर अदा ना हो सका, यहूदी महाजन से बा मुश्किल अगली फ़सल तक के लिये मोहलत माँगी, अगली मर्तबा फिर फ़सल खराब हुई, मजी़द मोहलत देने से यहूदी ने इन्कार कर दिया,*

*"❀_आखिर जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु भी अपनी कहानी सुनाने अपने आका़ ﷺ की खिदमत मे पहुँचे, हुज़ूर ﷺ चंद सहाबा को साथ ले कर यहूदी के घर तशरीफ ले गए और उससे अपील की कि वो जाबिर को मोहलत दे दे, उसने इन्कार किया, हुजूर ﷺ थोड़ी देर के लिए इधर उधर घूमे और एक बार फिर आ कर उससे गुफ्तगु की, लेकिन फिर भी उसको किस तरह जू तक न रेंगी,*

*"❀_ फिर थोडी देर के लिए आप ﷺ सो गए, जागे तो फिर जा कर वोही ज़िक्र छेड़ा, मगर वो ज़ालिम ना पसीजा, आखिर कार आप ﷺ जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु की खजूरों के झुंड में जा कर खडे हुए और उनसे फरमाया कि खजूरें तोडो, खजूर तोड़ी गईं तो तवक़क़ो से बहुत ज़्यादा निकलीं, क़र्ज़ा भी अदा हो गया और खासी मिक़दार भी बच गई,*

*❥❥_ हुजूर ﷺ की एक ज़ाती ज़िरह एक यहूदी कर्ज़ ख्वाह के पास रहन थी, आखिर दम तक आप ﷺ के पास उसको छुड़ाने के लिए इंतेज़ाम ना हो सका, एक मर्तबा सरवरे आलम ﷺ से एक यहूदी क़र्ज़ ख्वाह मुतालबा करने आया, अपने यहुदियाना मिज़ाज के मुताबिक उसने निहायत गर्मी से गुफ्गु की, सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने उसे अहसास दिलाया कि तुम देखते नहीं कि किस हस्ती से हम कलाम हो _,"* 

*"❀_ वो कहने लगा कि मै तो अपना हक़ तलब कर रह हूं, हुज़ूर ﷺ अपने सहाबा को फरमाते हैं कि तुम लोगों को उसकी हिमायत करनी चाहिए ये उसका हक़ है, फ़िर उसका हिसाब बेबाक करने का हुक्म दिया और उसे हक़ से कुछ ज़्यादा दिलवा दिया,*

*"❀_ ज़ैद बिन साना का दिलचस्प वाक़िया इन हालात पर मज़ीद रोशनी डालता है, ये यहूदी आलिम थे, और दयानत दारी से हुज़ूर पाक ﷺ के दावा ए नबूवत का जायज़ा मुख़तलिफ़ अलामात की रौशनी मे ले रह थे, इनका बयान है कि एक बद्दू आया और हुजूर ﷺ से आ कर मिला, उसने बयान किया कि मेरी क़ौम मुसलमान हो चुकी है और मैने उनको दावत देते हुए कहा था कि तुम अगर इस्लाम लाओगे तो अल्लाह ता'ला तुमको भरपूर रिज़्क देगा, लेकिन बद किस्मती से उल्टा क़हत पड़ गया है, अब अगर उनको सहारा न पहुँचाया जाए तो अंदेशा है कि वो इस्लाम से दूर हो जायंगे,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु की तरफ़ मुस्तफ़सिराना निगाह से देखा, उन्होंने अर्ज़ किया कि फिल वक़्त कुछ भी मौजूद नहीं है, ज़ैद बिन साना ने पेशकश की कि मुझसे 80 मिश्काल सोना ले लें, और उस्ऊके बदले मे वक़्ते मुईन पर खजूरें दे दें, मामला तैय हो गया और हुजूर ﷺ ने सोना ले कर बद्दू के हवाले कर दिया,*

*❥❥_जैद बिन साना का बयान है कि मुक़र्ररा मियाद में जब दो तीन दिन बचे रह गए तो वो हुजूर ﷺ से एसे आलम मे दो चार हुए कि आप ﷺ अपने चंद सहाबा के साथ में किसी के जनाज़े की नमाज़ से फारिग हो कर एक दीवार के पास तशरीफ फ़रमा थे, ज़ैद ने हुज़ूर ﷺ के कुर्ते और चादर के पल्लूओं को खींचते हुए निहायत तुरशरूई से कहा- ऐ मुहम्मद (ﷺ)! मेरा क़र्ज़ा अदा नहीं करते ! खुदा की क़सम मैँ तुम सब औलादे अब्दुल मुत्तलिब को ख़ूब जानता हूं कि पक्के नादेहिन्द (क़र्ज़ ले कर वापस ना करने वाले) हो _,"*

*"❀_ हज़रत उमर फारूक रज़ियल्लाहु अन्हु ने ज़ैद को गर्म निगाहों से घूरा और कहा कि - "ओ ख़ुदा के दुश्मन क्या बकता है! ख़ुदा की क़सम मुझे (हुज़ूर ﷺ से) अंदेशा ना होता तो तेरी गर्दन उड़ा देता_, सरवरे आलम ﷺ ने हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को समझाया कि, "एसे मोक़े पर आपको चाहिए कि एक तरफ़ मुझे हसन व ख़ुबी से अदा ए क़र्ज़ करने की तलक़ीन करते, दूसरी तरफ़ उसको मुतालबा करने के बेहतर तरीक़े की नसीहत करते_,"* 

*"❀_ फ़िर फ़रमाया कि, "अब जाओ और जा कर उसका हिसाब अदा कर दो और डांटने के बदले में 20 सा'अ (मदीने का एक मारुफ पैमाना) खजूर मजी़द दो _,"* 
*"❀_ दर असल ज़ैद बिन साना की तरफ से साहिबे नबूवत का आखरी इम्तिहान था, हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से अपना तार्रुफ़ कराया और उनको गवाह बना कर इस्लाम क़ुबूल किया और अपना आधा माल मिल्लते इस्लामिया पर सदका़ कर दिया,*

*"❀_ ये ज़ैद यहूदी महाजनों की सफ़ से बिकुल अलग अपना अपना मुक़ाम बुलंद रखते थे लेकिन इनके वाक़िए से भी ये वाज़े हो जाता है कि मदीना मुनव्वरा मे दावत और इसके दाइयों की माली मुश्किलात किस दर्जे की थी और उनके ज़ेरे असर आए दिन क़र्ज़ उठाना पड़ता था और क़र्ज़ ख्वाहो की तरफ़ से सख़्तियां बर्दाश्त करनी पड़ती थी,*

*❥❥_ यहूद और मालदार मुशरिकीन ने एक तरफ तो इस्लामी तहरीक के खिलाफ महाजनी लड़ाई छेड़ रखी थी, दूसरी तरफ वो एक और मुहिम में भी मसरूफ थे, वो ये कि लोगों को "इनफाक़ फी सबिलिल्लाह" (अल्लाह के लिए खर्च करने) से रोका जाए ताकी तहरीक़ इस्लामी माली कमज़ोरी की वजह से खत्म हो जाए, इस मक़सूद के लिए एक तो वो तरगीब इनफाक़ की आयत का मज़ाक उडा़ते कि लो जी मुसलमानों का खुदा भी (नाउज़ुबिल्लाह) दिवालिया हो कर क़र्ज़ मांगने निकल खड़ा हुआ है, कभी कहते कि इस्लामी तहरीक़ के खुदा का हाथ बंद है,*

*"❀_ ये बातें यहूदियो से चल कर मुनाफिक़ीन की जुबानो पर चढ़ जाती और पूरी फ़िज़ा को गुबार आलूद कर देती, दूसरी तरफ़ वो ख़र्च करने वालों से मिल कर कहते कि देखो क्यूं अपना माल गारत कर रहे हो, मक्का के चंद कंगालो को खिला पिला कर तुम क्या हासिल करोगे, अपने बाल बच्चों की खिदमत करो करोबार चलाओ, आखिर माल का ये क्या अहमकाना मसरफ तुमने ढूंढा है,*

*"❀_ इन यहूद और मुनाफिक़ीन ही के बारे में क़ुरान ने कहा कि ये लोगों को कंजूसी की तालीम देते हैं _,"*
*"❀_ ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि रसूलुल्लाह (ﷺ) के साथियों पर खर्च करना बंद कर दो ताकि ये मुंतशिर हो जाएं _," (अल मुनाफिकून- 7)*
*"❀_ यहूद के कारिंदों में ये सरगोशियां होती थी कि रसूलुल्लाह ﷺ के साथियों पर माल खर्च करने से बाज़ आ जाओ ताकि ये सब छूट छुटा जाएं',*

*"❀_कितनी दूर अंदेशाना स्कीम थी, यानी एक तरफ़ से जज़्बा ए इनफाक़ के सर चश्मे को बंद कर दिया जाए, और दूसरी तरफ़ क़र्ज़ देकर अपने पंजे की गिरफ़्त तहरीक इस्लामी की गर्दन पर कसी जाए, स्कीम कामयाब हो जाती तो ईमान व इस्तादलाल और अमल व किरदार के मैदान में मुक़ाबला किये बगैर सर पर मंडराते हुए इंक़लाब को शिकस्त दी जा सकती थी, मगर मामला एक खुदा ए दाना और एक हाकिम कादिर व तवाना से था, उसकी गहरी तदाबीर ने दुश्मनाने हक़ की चालों को शिकस्त दे दी _,"*
 *®_(सीरत इब्ने हिशाम- 2/188)*

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      *⚂ _ मुनाफिकी़न की हरकतें _⚂*   
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*❥❥_बेबसी और बुज़दिली के आलम में आदमी के अंदर काम करने वाले हरिफ़ाना (दुश्मनी के) जज़्बात हमेशा हसद और कीना की राह से उसे निफ़ाक़ के कमीनेपन तक ले जाते हैं, वो मुख़ालिफ़ पर सामने से वार करने के बजाय पीछे से वार करता है, वो खुल्लम खुल्ला सामने आने के बजाय नक़ब ज़नी की स्कीमे बनाता है,*

*"❀_ यहूद ने भी इसी बुज़दिलाना काम को संभाल लिया, चूंकि बराहे रास्त हमला करने की ताक़त नहीं थी, इस वजह से निफ़ाक़ का ख़ुफ़िया मुहाज़ (मुक़ाबले) पर अमल किया, इस्लाम की बढ़ती हुई ताक़त को देख कर बहूत से लोग अपना मुस्तक़बिल बनाने के लिए इसी चोर दरवाज़े से अंदर दाखिल हने लगे, इस चोर दरवाज़े की शुरुआत बहरहाल यहूदी ज़हन ने किया, उनके अच्छे अच्छे सरदार थे जो इस्लामी जमात की सफों में अपने हरीफाना (दुश्मनी) के जज़्बात को इस्लाम के बेहरुप मे छिपाये हुए दाखिल होने लेगे,*

*"❀_बनी क़ीनका मे से नुमाया मर्तबे के हस्बे ज़ेल सरदार इस्लाम के दायरे में दाखिल हुए, (1)_ साद इब्ने हनीफ (2)_ ज़ैद बिन नसीत (3)_ नोमान बिन अवफ़ा इब्ने अमरू (4)_ राफे बिन हरीमला (5)_ रफाआ बिन ज़ैद बिन ताबूत (6)_ सल्सला इब्ने बरहाम (7)_ कनाना इब्ने सोरिया _,"*

*"❀_ इनमे से ज़ैद बिन नसीत वो शख्स है जो बनी क़ीनक़ा के बाज़ार में हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से लड़ाई पर आमादा हो गया था, फ़िर यही था जिसने रसूलुल्लाह ﷺ की ऊंटनी के ख़ो जाने पर ताना दिया था कि यूं तो आसमान की ख़बर देते फिरते थे, लेकिन इतना पता नहीं कि ऊंटनी इस वक़्त कहां है _,"* 

*"❀_ इसके जबाब में हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया था कि बाखुदा मेरा हाल ये है कि मै बजुज़ इसके कुछ नहीं जानता जो कुछ कि अल्लाह ताला मुझे बता दे और अल्लाह ताला ने मुझे ऊंटनी के बारे मे इत्तेला दे दी है, सो वो उस वादी मे है और एक दरख़्त के साथ उसकी रस्सी उलझ गई है _, "चुनांचे सहाबा किराम तलाश को गए तो बिलकुल यही सूरत वाक़ई आँखो से देखी _,"*

*❥❥_इनमे से राफे बिन हरीमला का मुक़ाम निफ़ाक़ में इतना बुलंद था कि जिस दिन वो मरा तो सरवरे आलम ﷺ ने खुद फ़रमाया कि "आज मुनाफ़िक़ों के सरखीलों (सरदारों ) मे से एक सरखील (सरदार) मर गया है _,"* 

*"❀_ ऐसा ही मुक़ाम रफ़ाआ बिन ज़ैद बिन ताबूत का था, चूनांचे गज़वा बनी अल मुस्तलक़ से वापसी पर तूफ़ान सरसर उठा और लोग कुछ घबरा गए तो हुजूर ﷺ ने तसल्ली दिलाते हुए फरमाया कि ये तूफ़ान मुनाफ़िक़ों के एक सरखील को कैफ़र किरदार (उसके किए की सज़ा) तक पहुंचाने के लिए मुतहरिक हुआ है, लोग मदीना पहुँचे तो मालूम हुआ कि रफ़ाआ की रूह उस तूफ़ान की लहरों के साथ परवाज़ कर चुकी थी_,"* *®_(सीरत इब्ने हिशाम-2 -174-175)* 

*"❀_ दिलचस्प हक़ीक़त ये है कि मुनाफ़िक़ों की सफ़ो में जितने भी लोग शरीक थे सबके सब मालदार और खुशहाल लोग थे, उनके सामने मुफाद थे और उनके मिज़ाज बिल उमूम ग़लत जज़्बात के साँचे में ढल कर पत्थर की तरह सख़्त हो चुके थे, नोजवान ताक़त तहरीके़ इस्लामी के साथ थी, तहक़ीक़ के मुताबिक सिर्फ़ एक नौजवान मुनाफ़िक़ों में मिलता है जिसका नाम क़ुश बिन अमरू बिन सहल था,*

*"❀_ मुनाफ़िक़ों का ग्रुप मेहदूद ना था बल्की दर हक़ीक़त ये अपने हलकों से मुनाफ़िको को भरती भी करते, इस्लामी जमात के अंदर से कमज़ोर अफ़राद को तलाश कर कर के उनको मुतस्सिर भी करते और उन्को इस्तेमाल मे लाते, शुकूक व शुब्हात फैला कर और मुसलमानों की मजलिसों मे संजीदा मामलात में मज़ाक बनाने और हंसी उड़ानें के पहलू पैदा कर कर के फिज़ा को खराब करने की कोशिशें करते रहते,*

*"❀_ मस्जिद मैं जा कर तमाम अहम गुफ्तगूएं सुनते और फिर आ कर अपनी मजलिसों में रिपोर्ट करते, रातों को साज़िशि मजलिसो मे बैठ कर शरारत के मनसूबे बनाते और नये नये तरीक़ो से उनको अमल में लाते, यूं तो अपने अंदाज़ व हरकतों की वजह से उनके निफाक़ का पैदा किया हुआ बेढंगा किरदार नबी करीम ﷺ और सहाबा किराम की निगाह मे पहचाना जाता था और इसके साथ हर मरहले पर वही ए इलाही की रौशनी उनके खयालात, उनकी हरकतों और उनकी कारवाइयों और साजिशों बल्की उनके मुजरिमाना ज़मीर की ख़ास ख़ास अलामात को नुमाया करती रहती थी,*

*❥❥_एक मोके़ पर मस्जिदे नबवी में मुनाफिकी़न की हरकतें बरदाश्त से बाहर हो गई, आम मजमे में ये टोली की टोली बिल्कुल अलग धड़ा बनी बैठी थी और अपनी जगह अलग खुसर फुसर कर रही थी, ये मंज़र देख कर सरवरे आलम ﷺ ने इनको मस्जिद से निकल जाने का हुक्म दिया,*

*"❀_ इन मुनाफिकी़न की खुद अपनी मरकजी़ क़यादत अब्दुल्लाह बिन उबई की जा़ते गिरामी में मुर्तक़ज थी, ये शख्स जो वाक़िआ उफक में फित्ने की बारूद को पतीला दिखाने वाला था, इसकी रग रग में इस्लामी इंक़लाब के खिलाफ बुग्ज व कीना का आतिशी लावा भरा पड़ा था, इस ला इलाज़ बुग्ज व कीना की बुनियाद क्या थी, ये उसैद बिन हुज़ैर की ज़ुबानी सुनिये, जिन्होने गज़वा बनी अल मुस्तलक़ के मौके पर अब्दुल्लाह बिन उबई की एक शर अंगेजी पर तब्शिरा करते हुए का़इद ए इंसानियत ﷺ की खिदमत में अर्ज किया:-*

*"❀_ या रसूलुल्लाह ﷺ! इस शख्स (के दुखी जज़्बात) की रिआयत फ़रमायें, मदीना में जब आप ﷺ का वरूद (पहुंचना) हुआ था उस मौक़े पर हम इसको बादशाहत की मुसनद पर बिठाने की पूरी तैयारी कर चुके थे और इसके लिए ताज तैयार हो रहा था, आप ﷺ की आमद से इसका बना बनाया खेल बिगड़ गया, बेचारा इसी की जलन निकाल रहा है _," (तक़सीमुल कुरान - सूरह नूर का दीबाचा)*

*"❀_ अब्दुल्लाह बिन उबई अव्वल रोज़ से मुनाफ़क़त में मुब्तिला हो गया था और मरते दम तक इसी में मुब्तिला रहा, अव्वल अव्वल इस्लाम ले आया ताकी इस नई ताक़त के निज़ाम के अंदर अपनी जगह बना सके लेकिन इस निज़ाम के अंदर से तो जिधर भी कोई रास्ता जाता था वो ईमान और अमल के बल पर तैय हो सकता था, सो अब्दुल्ला बिन उबई के लिए निफाक़ के सिवा कोई दूसरा मुका़म ना था,*

*❥❥_ इब्तिदा में ये निफाक़ मख़फी रहा, लेकिन एक दिन अचानक उसके दिल का नासूर फट पड़ा और गंदा बदबुदार मादा बहने लगा, हुवा ये कि हुजूर पाक ﷺ सा'द बिन उबादा रजियल्लाहु अन्हु की बीमार पुरसी के लिए तशरीफ ले गए, हुजूर ﷺ गधे पर सवार थे और अपने पीछे आप ﷺ ने ओसामा बिन ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु को बिठा लिया_,"*

*"❀_ यही ओसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु बतलाते हैं कि रास्ते में एक जगह अब्दुल्लाह बिन उबई मजलिस जमाये बैठा था, उसके गिर्द क़बीले के लोग हलक़ाज़न थे, सरवरे आलम ﷺ का गुज़र हुआ तो उसे बुरा लगा और मुंह फैर लिया, हुजूर ﷺ क़रीब पहुँचे तो सलाम कहा, फिर ज़रा देर के लिए रुके और क़ुरान का कुछ हिस्सा पढ़ा, और ख़ुदा की तरफ़ दावत दी, ख़ुदा की याद दिलाई और उसके गज़ब से डर दिलाया,*

*"❀_ ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि अब्दुल्लाह बिन उबई दम साधे बैठा रहा और कोई बात नहीं की लेकिन जब हुज़ूर ﷺ बात से फारिग हो कर चलने लगे तो बड़े गुस्ताखाना और बाजा़री से अंदाज़ में मुंह फाड़ के कहा कि, "_ऐ फलां!.. बात करने का तेरा ये ढंग ठीक नहीं.. अपने घर में बैठ और जो कोई तेरे पास जाए तू बस उसको अपनी बात सुना दिया कर... और जो कोई तेरे पास ना आए उसे तंग ना किया कर और उनके घर में आ कर ऐसी दावत न सुना कि जो उसे नागवार हो _,"*

*"❀_ देखिए इन अल्फाज़ को, परखिए इस अंदाज़े बयान को! लफ़्ज़ लफ़्ज़ ज़हर में बुझा हुआ है और हर्फ़ हर्फ़ से सडांध उठ रही है, कितने दिल छेदने वाले बोल हैं, केसे इश्तिआल (गुस्सा) दिलाने वाले जज़्बात हैं,*

*❥❥__हुजूर ﷺ ने अपने मक़ाम की बुलंदियों से पस्ती की इस हड़बड़ाहट को सुना .. उस करीमुन नफ्स हस्ती को गुस्से की बजाय रहम ही आया होगा, मजलिस मे अब्दुल्लाह बिन रवाहा रज़ियल्लाहु अन्हु भी मोजूद थे जो मुस्लिम जमात के रुक्न थे, उनकी गैरत ने अपना फ़र्ज़ अदा किया और उन्होने मुनफ़िकीन के उस सरदार को तुनक कर जब दिया,_ "हुजूर ﷺ क्यूं ना आयें, हम आप ﷺ को चाहते है, आप हमारे घरों और हमारी मजलिसो मे आयेंगे, हम आपसे मुहब्बत करते है और आप ही के वसीले से अल्लाह ताला ने हमे सरबुलंदी अता फरमाई है और आप ही के ज़रीये से हिदायत अता की है _,"* 

*"❀__ इस तजुर्बे से गुज़रने के बाद क़ाइद ए इन्सानियात ﷺ साद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु के यहां पहुँचे, उन्होंने चेहरे का एक ख़ास रंग देख कर इस्तफ़सार किया, आपने वाक़िया बयान किया, साद रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी वोही वाक़ीआती पसे मंज़र बयान किया कि अल्लाह ताला आप ﷺ को मदीना ले आया वरना हम उस (मुनाफ़िक) के लिए ताज तैयार करा रहे थे, आपने तो आकर उसकी बादशाहत का ख्वाब दरम बरहम कर दिया, मुद्दा ये था कि उसका ये रद्दे अमल कु़दरती है उसे कुछ अहमियत नहीं देनी चाहिये,*

*"❀__ ये शख्स निफाक़ के पूरे ड्रामे का मरकज़ी हीरो बन कर तारीख के स्टेज पर काम करता रहा, सबसे आगे ये था, इसके पीछे शऊरी तौर पर निफाक़ का खैल खैलने वाले अवाम थे, उनके पीछे अध कचरे और थोड़े मुसलमान थे, और सबसे आखिर में जाहिल और नासमझ बदवी थे, तहरीके़ इस्लामी के खिलाफ जो भी रद्दे अमल हरकत नमूदार होती थी, उसमे दरजा बा दरजा इन मुख़्तलिफ़ अनासिर का हिस्सा होता था,* 

*"❀__ मदीना मुनव्वरा मे मुस्लिम जमात जिन जिन मुखालफतों और मजा़हमतों से दो चार हुई और सरवरे आलम ﷺ को जिन जिन शरारतो के तूफ़ानी रेलों का सामना करना पडा उन सबमे यहूद के ज़ेरे असर मुनाफ़िक़ों की इस फ़ासिद ताक़त का बड़ा भारी पार्ट शामिल रहा है, कमांड अगरचे सारे मुहाज़े मुखलफत पर यहूद की रही लेकिन जितने भी नागवार फ़ित्ने मोहसिने इंसानियत का रास्ता रोकने के लिए उठें उनमे अमलन बहुत बड़ा हिस्सा मुनाफ़िक़ों का था, जो यहूद के आला कारकुन बन कर काम करते रहे,*  

*❥❥_ एक अहम तारीखी रिवायत साबिक़ मज़हबी व माशरती तसव्वुरात के मुताबिक़ ये चली आ रही थी कि मुत्तबना (मुंह बोले बेटे) की मुतलका़ से हक़ीक़ी बहू की तरह निकाह करना नाजायज़ है, इस रिवायत को खत्म करने के लिए मुसबबत ए इलाही ने वाक़िआत को बडी अजीब सूरत से नशो नुमा दी और फिर एक इन्क़िलाबी नतीजे तक पहुंचाया,*

*"❀_हुआ ये कि ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु जो दस बरस की उम्र में गुलाम बन कर बिके थे और जिनको हकीम बिन हुज़ाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने हज़रत खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा की ख़िदमत में हदिया किया था, हुज़ूर ﷺ के घर में मुत्तबना (मुंह बोले बेटे) की हैसियत रख़ते थे, बाद में ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु के बाप और भाई लेने आए और हुजूर ﷺ ने अज़्न भी दिया कि चाहो तो जा सकते हो लेकिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु को आप ﷺ से अब इतनी गहरी मुहब्बत हो चुकी थी कि इजस रिश्ते का टूटना गवारा ना हुआ,* 

*"❀_ चुंकी असलन अशराफ ए अरब मे से थे इसलिये मक्का के कुछ बुजुर्गो ने जनाब ज़ैनब बिन्ते जहश रज़ियल्लाहु अन्हा (हुज़ूर ﷺ की फूफ़ी ज़ाद बहन) को इनके निकाह मे देना तजवीज़ किया, लेकिन ज़ैनब के भाई इस रिश्ते पर राज़ी ना हुए, क्यूँकी निकाह के लिए जो मैयार और पैमाने उस माहोल मे राईज़ थे उन पर यह जोड़ा पूरा नहीं उतरता था,*

*"❀_ जाहिली ज़हन की निगाह में हजरत जैद रज़ियल्लाहु अन्हु के दामने हयात पर गोया गुलामी के धब्बे का असर अभी बाकी था, और फ़िर उनकी बेसरो सामानी बजाय ख़ुद एक नुक़्स थी, इस्लाम आया तो उसने ज़हन को भी बदलना ज़रूरी समझा और मोहसिन इन्सानियत ﷺ ने खानदानी इम्तियाजा़त की रोके निकाह व अज़्दवाज के रास्ते से हटा कर पूरे इस्लामी माशरे को एक खानदान में बदल देने की कोशिश फरमाई,* 

*"❀_ चूनांचे फिल वाक़े ये दीवारें क़तई तौर पर ढह गई और कफ़ू का एक नया मफ़हूम पैदा हो गया, आपने बड़ी ताकीद से लोगों का ज़ोक़े निगाह बदला, और उनको सिखाया कि औरतों को निकाह मे लेने के लिए मर्तबा अव्वल पर उनके दीन और किरदार को देखो, बाक़ी चीज़ो का लिहाज़ बाद में है,*

*❥❥_ हुजूर ﷺ भी चाहते थे कि ये निकाह हो, लेकिन जब इसमे एक जाहिली रुझान रुकावट बना तो ये चीज़ खुदा और रसूल की निगाह में नापसन्दीदा क़रार पाई, इस सिलसिले में इशारतन सूरह अहजा़ब में गिरफ्त की गई,*

*"❀_मतलब ये था कि जब एक मुस्लिम और मुस्लिमा के दरमियान रिश्ता अज़्दवाज के क़याम के लिए दरवाज़े खोल दिए गए हैं तो अब अपने रास्ते में पुराने जाहिली तसव्वुरात को अहमियत दे दे कर रुकावट बनना खुदा और रसूल की रहनुमाई और उनके फ़ैसलो के मुक़ाबले में एक तरह की ख़ुदसरी है और ऐसी ख़ुदसरी गुमराही की तरफ ले जाने वाली होती है _,"*

*"❀_ हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा के भाई इन आयात को सुन कर इशारो में बात को समझ गए और निकाह के लिए तैयार हो गए, गोया शर्फ व ज़िल्लत के जाहिली मैयार की जंजीर टूट गई, अल्लाह ताला ने इस वाक़िये के ज़रिये मुत्तबना के बारे में गलत तसव्वुर राईज़ को भी तोड़ने का इरादा फरमा लिया, बाद में हुआ ये कि ज़ोजैन में निबाह न हो सका और आप ﷺ के पास शिकायत आने लगी लेकिन मामलात सुलझने के बजाए बिगडते चले गए, यहां तक कि बिल आख़िर ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु तलाक देने का इरादा आप ﷺ के सामने ज़ाहिर करने लगे,*

*"❀_इस पर आप ﷺ को बड़ी तशवीश हुई कि एक ऐसा निकाह टूट रहा है जो माशरे में एक नई इंक़लाबी मिसाल कायम करने के लिए किया गया था, और इसमे खुद रसूलुल्लाह ﷺ की तहरीक और मशवरे को बड़ा दखल था और आप ही चुंकी ज़ैद की तरफ से वली थे आपकी बड़ी जिम्मेदारी थी, आपने बार बार इस रिश्ते को बचाने और हजरत ज़ैद को तलाक से बाज़ रखने की कोशिश की, लेकिन आखिरकार ये सारी कोशिशें नाकामी की सरहद को आ पहुंची।*

*❥❥..और जिस तरह की शिकायतें पैदा हो गई होंगी उनके इजाले की एक ही सूरत मुमकिन थी और वो ये कि आप ﷺ खुद ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा को अपने निकाह में ले लें, शरीयत में पोजीशन बिल्कुल साफ थी और इस मामले में कोई रुकावट ना थी लेकिन साबिक़ जाहिली तास्सुरात के तहत अंदेशा था कि लोगों को अचंभा होगा और साथ ही मुखालफीन को फितना खड़ा करने का मोज़ू मिल जाएगा, लेकिन मर्ज़ी ए इलाही ये थी कि ज़माना जाहिलियत से मुत्तबना की जो गलत पोजीशन चली आ रही थी उसकी नफी खुद आप ﷺ ही के जरिए पूरी हिदायत व सराहत से कर दी जाए ताकि इस रस्मियत की जड़ बिल्कुल कट जाए,*

*"❀_ क़ुरान में अल्लाह ताला ने आप ﷺ के मख़फ़ी ख़याल और नज़र को उठा कर सरे आम रख दिया, फरमाया- (सूरह अहज़ाब -37) अंदाज़ तंबीह का है, तुम अपने दिल के पर्दे ख़फ़ा में वो बात लिए हुए हो जिसे अल्लाह खोल देने वाला है...और तुम लोगों से अंदेशा करते हो, यानि एक बात जो खुदा की शरीयत में रवा है उसे लोगों के जाहिली तसव्वुरात के अंदेशे से दिल में छिपाए रखना अल्लाह को नापसंद है, इसे सामने आना चाहिए और इसे वाक़े होना चाहिए,*

*"❀_ मक़सूद इससे ये था कि मुंह बोले बेटों के बारे में वो गलत क़ैद जो लगी चली आ रही है, वो मुसलमानों के ऊपर से हमेशा के लिए दूर हो जाए, इस जाहिलियत की जंजीर को काटने के लिए भरपुर ज़र्ब लगाने की ये शकल अख्त्यार की गई कि हुज़ूर ﷺ से हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा का रिश्ता निकाह ख़ुद अल्लाह ताला ने बतौर ख़ास फ़रमा दिया,*

*"❀_ बस इस वाक़िये का होना था कि मदीना के दुश्मनाने हक़ के हल्कों में खलबली मच गई, ये लोग फ़ितना खड़ा करने लगे, इसके साथ कहानियां भी घड़ ली गई, इस वाक़िये के सिलसिले में सही मानो में गंदा प्रोपोगेंडा किया गया और मोहसिने इंसानियत ﷺ के अखलाकी़ मर्तबे पर हमला बोला गया,*

*❥❥_ इंसानियत के सबसे बड़े ख़ैर ख्वाह पर कई रोज़ तक कैसी सख़्त गुज़री होंगी, यहूद का ये प्रोपोगेंडा बेचारे मुसलमानों के लिए भी बेहद परेशानियों का मोजिब हुआ होगा, उनको राह चलते छेड़ा जाता होगा, उन पर फिकरे किए जाते होंगे और उनको शुबहात के चक्कर में डाला होगा, उनमे वो मुस्लिम भी थे जो अपने कच्चेपन की वजह से घबराते होंगे, उनमे मुनाफिक भी थे और वो अपने बन कर अजीब तरह की दोरंगी बाते करते होंगे,*

*"❀_ इस हालत में मुसलमानों की तस्कीन और तरबियत के लिए अल्लाह ताला ने चंद हक़ाइक़ उनके ज़हन नशीन कराये, उनको बताया कि नबी पर किसी ऐसी बात में कोई मुज़ायक़ा नहीं जिसे अल्लाह ताला ने उसके लिए तैय कर दिया हो_, (अहज़ाब -138)*
*"❀_ इस क़दम का मक़सद भी वाज़े कर दिया कि मुसलमानों के लिए मुंह बोले बेटों की मुतलका़ से निकाह करने में कोई रुकावट बाक़ी ना रहे, (अहज़ाब -37)*

*"❀_ ये एलान भी कर दिया कि मुहम्मद (ﷺ) तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं _, (अहज़ाब -40)*
*❀"आखिर में खुद हुजूर ﷺ से खिताब फरमा कर कहा कि काफिरों और मुनाफिकों की ना मानो और उनकी दिल आज़ारियों का बालाए ताक़ रख दो और अल्लाह पर भरोसा करो और अल्लाह ही कारसाजी़ के लिए काफ़ी है _"(अहजाब -48) )*

*"❀_ मुनाफिक़ीन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा फ़ितने का मैदान इतना ही था कि आन हज़रत ﷺ और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के ख़िलाफ लावा पकाते रहे, एक अख़लाक़ी तहरीक के लिए तबाही का सबसे ज़्यादा कारगर और आसान तरीन हरबा यही हो सकता है कि उसकी बेहतरीन शख्सियत को दागदार कर दिया जाए, इस सिलसिले में इक़्तदार तल्बी और नफ़सानियत के इल्ज़ामात पहले ही आ चुके थे, लेकिन दर हक़ीक़त मामला एक इल्ज़ाम या दूसरे इल्ज़ाम तक महदूद नहीं था, शोशा बाज़ी की एक मुहीम और सर्द मुहीम बराबर चलाई जाती रही,*

*❥❥_ बाद के दौर में जब ज़कात का निज़ाम व वसूल व सर्फ बा जा़ब्ता तौर पर क़ायम हो गया, हुजूर ﷺ पर एक घटिया इल्ज़ाम ये भी आइद किया गया था कि आप बैतुल माल में आने वाले सदक़ात को मन माने तरीक़े से उड़ाते हैं, सूरते वाक़िया ये कि तमाम जमा किया हुआ माल और कारोबारी सरमायों और मवेशी और ज़रई पैदावारों में से जब बा जा़ब्ता खुदा के हाजतमंद बंदो का हक़ लिया जाने लगा तो ढेरो दौलत एक मरकज़ पर सिमटने और सरकारे दो आलम ﷺ के मुबारक हाथों से बाराने रहमत की तरह तक़सीम होने लगी,*

*"❀_ दौलत की इस बहती गंगा को देख कर, ज़र परस्तो के मूँह में पानी भर आता और वो चाहते कि जाहिली दौर की तरह आज भी इस गंगा से वही हाथ रंगें जो पहले से मज़बूत माली हैसियत के मालिक हैं, लेकिन इस्लामी तहरीक के क़ाइम करदा निज़ामे मा'सियत ने दौलत के बहाव का रूख़ ग़रीब तबक़ो की तरफ़ फैर दिया था और ये लोग इस इंक़लाब पर कुढ़ते थे, वो फ़ी नफ़्सा इस्लामी निज़ामे मासीयत पर तो हमला कर ना सकते थे, बस दिल का बुखार निकालने के लिए मोहसिने इंसानियत ﷺ को निशाना बना लेते,*

*"❀_ उनका ये कहना था कि दौलत अपने हामियों और अपने चहेतों में खर्च की जा रही है और मुहाजिरीन को खास तौर पर नवाजा़ जा रहा है, दूसरे लफ़्ज़ों में खुदाई ख़ज़ाने के बल पर दोस्त नवाजी़ और कुन्बा परवरी हो रही है,*

*"❀_ गोर फरमाइये ये इल्ज़ाम कि उस शख्सियत पर लगाया जा रहा था जिसने सदका़ की आमदनी को खुद अपने और अपने अहलो अयाल के लिए ही नहीं बल्कि पूरे खानदान बनी हाशिम के लिए बा मंज़िला हराम के क़रार दे लिया था, ये शान बेलोशी पुर खुलूस जिसकी कोई मिसाल तारीख में मुश्किल ही से मिले,*

*"❀_ फ़िर यही लोग थे जिनके बारे में क़ुरान मजीद यूं बयान करता है कि ये अपनी बातों से नबी ﷺ कि ज़ात को दुख देते हैं _," (तौबा - 61)*
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   *⚂ _ हज़रत आयशा पर बोहतान तराशी _⚂*   
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*❥❥_हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की आप बीती:-*
*"❀_ जब हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा पर बोहतान तराशी की गई उस तूफाने अज़ीम में हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के सफ़ीना क़ल्ब व रूह पर जो कुछ गुज़री उसकी मुस्तनद तफ़्सील हदीस, सीरत और तारीख की अहम किताबों में मेहफ़ूज़ है, मेरे सामने इस वक़्त ज़ादुल मा'द (मुलाहिज़ा हो, जिल्द 2 सफ़ा- 113-115) और सीरत इब्ने हिशाम (मुलाहिज़ा हो जिल्द 3) जैसी मुस्तनद किताबे हैं, लिहाज़ा इसको मुस्ता'र लेता हूँ _,"*

*"❀_मदीना पहुंच कर मैं बीमार हो गई और एक महीने के क़रीब पलंग पर पड़ी रही, शहर में बोहतान की ख़बरे उड़ रही थीं, रसूलुल्लाह ﷺ के कानों तक भी बात पहुँच चुकी थी, मगर मुझे पता ना था, अलबत्ता जो चीज़ मुझे खटक रही थी वो ये कि रसूलल्लाह ﷺ कि वो तवज्जो मेरी तरफ न थी जो बीमारी के ज़माने में हुवा करती थी_,"*

*"❀_ आप ﷺ घर में आते तो बस ये पूछ कर रह जाते केसी हैं ये ? इससे ज़्यादा कोई कलाम ना करते, इससे मुझे शुबहा होता कि कोई बात है ज़रूर, आखिर आप ﷺ से इज़ाजत ले कर मै अपनी मां के घर चली गई ताकि वो मेरी तीमारदारी अच्छी तरह कर सकें, एक रोज़ रात के वक्त हाजत के लिए मैं मदीना के बाहर गई, उस वक्त तक हमारे घरों में ये बैतुल खला न थे और हम लोग जंगल ही जाया करते थे, मेरे साथ मिस्ताह बिन असासा की मां भी थी जो मेरे वालिद की खालाजा़द बहन थी,*

*"❀_(दूसरी रिवायत से मालूम होता है कि इस पूरे खानदान की किफ़ालत हजरत अबू बकर रजियल्लाहु अन्हु ने अपने जिम्मे ले रखी थी, मगर इस अहसान के बावजूद मिस्ताह भी उन लोगों में शरीक हो गए थे जो हजरत आयशा रजियल्लाहु अन्हा के खिलाफ उस बोहतान को फैला रहे थे)*

*"❀_ रास्ते में उनको ठोकर लगी, और बे साख्ता उनकी जुबान से निकला- गारत हो मिस्ताह ! मैंने कहा - अच्छी मां हो जो बेटे को कोसती हो और बेटा भी वो जिसने जंगे बदर में हिस्सा लिया है, उन्होंने कहा बेटा! क्या तुझे उसकी बातों की खबर नहीं? फिर उन्होंने सारा किस्सा सुनाया कि इफ्तिरा परवाज़ लोग मेरे मुताल्लिक़ क्या बातें उड़ा रहे हैं _,"*

*❥❥_(मुनाफिकी़न के सिवा खुद मुसलमानो में से जो लोग इस फित्ने में शमिल हो गए थे उनमे मिस्ताह, हस्सान बिन साबित मशहूर शायरे इस्लाम और हमना बिंते जहश (हजरत जैनब रजियाल्लाहु अन्हा की बहन) का हिस्सा सबसे नुमाया था),*
*"❀_ ये दास्तान सुन कर मेरा खून खुश्क़ हो गया, वो हाजत भी भूल गई जिसके लिए आई थी, सीधे घर गई और रात भर रो रो कर काटी,*

*"❀_ इस मोके़ पर इब्ने हिशाम की ली हुई रिवायत में ये अल्फाज़ बड़े अहम हैं" रोने का आलम ये रहा कि मुझे अंदेशा हो गया कि मेरा कलेजा फट जाएगा _,"*

*"❀_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा इस गम में जान घुला रही थीं लेकिन शहर भर में चैचै मैमै का एक चक्कर चल रहा था, उनकी तरफ से सबसे बढ़ कर सफाई दे सकने वाले उनके वालिद और शौहर ही हो सकते थे जो उनके ज़हन व किरदार का क़रीबी और तफ़सीली इल्म व तजुर्बा रखते थे, मगर इस तरह के बोहतान जब ज़ालिम लोग लगाते हैं तो जो जितना क़रीबी होता है वो उतना ही ज़्यादा पेचीदगी में पड़ जाता है, उसकी सफ़ाई बिल्कुल बे मा'नी हो कर रह जाती है, चुनांचे वालिद और शौहर दम बा खुद थे और चारो जानिब से जुबानों के छोड़े हुए तीर खा रहे थे,*

*"❀_ इंसानियत के मोहसिने आज़म पर ये घड़ियां जिस दर्जा शाक़ गुज़री होंगी... ज़ाती लिहाज़ से भी और तहरीक के मुफाद के लिहाज़ से भी .. इसका कुछ थोड़ा अंदाजा हर शरीफ और हस्सास और ज़िम्मेदार आदमी कर सकता है है, सब्र व सुकूत से बहुत काम लिया, लेकिन इस नाज़ुक मामले को मोजूदा हालत में मुअल्लक़ तो नहीं छोड़ा जा सकता था, इधर या उधर कोई एक फ़ैसला नागुज़ेर था, सो हुजूर ﷺ ने गैर जानिब दाराना तरीक़े से तहक़ीक़ शुरू की,*

*"❀_ अपने दो क़रीबी रफ़्क़ा हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत ओसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु को तलब फ़रमाया और उनसे राय तलब की, हज़रत ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:- "या रसूलल्लाह! वो आपकी जो़जा मोहतरमा हैं और हम उनके बारे में बजुज़ खैर के कुछ नहीं पाते, ये सब कुछ झूठ और बातिल है जिसे फैलाया जा रहा है_,"*

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*❥❥_हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने बिलकुल दूसरे पहलू से मसले को लिया और फरमाया: या रसूलल्लाह! औरतों की कमी नहीं, आप इसके बजाय दूसरी बीवी कर सकते हैं, यूं आप लौंडी को बुलाकर तहक़ीक़ फरमा लें, इसमें हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का मंशा ये था कि बजाय इसके कि हुज़ूर ﷺ परेशान रहें, क्यों ना ऐसी बीवी को तलाक दे कर दूसरा निकाह कर लें जिसके बारे में एक तूफान उठा दिया गया है, हक़ीक़त ये है कि हज़रत अली ने अपने खास रिश्ते की वजह से इस मामले में तहरीकी पहलू की बा निस्बत हुजूर ﷺ की ज़ाती परेशानी को ज़्यादा अहमियत दी और वो राय दी जिससे आप इस ज़हनी उलझन से निकल कर मुत्म'इन हो जाएं _,*

*"❀_ ताहम हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के मशवरे का दूसरा जुज़ सरवरे आलम ﷺ ने कुबूल फरमा लिया और उसके मुताबिक़ घर की ख़ादिमा को तलब किया गया, उसने कहा - खुदा की क़सम मैं भलाई के सिवा कुछ नहीं जानती और मैं इसके अलावा और कोई नुक़्स नहीं निकाल सकती कि मैं आटा गूंधती थी और कह कर जाती कि ज़रा इसे देखती रहना और वो पड़ी पड़ी सो जाती और बकरी आ कर आटा खा जाती,*

*"❀_ इस बेसाख्ता बयान में खादिमा ने जितनी मुकम्मल सफाई हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की दे दी थी उस पर कोई दूसरा बयान मुश्किल ही से इज़ाफ़ा कर सकता है, उसने एक ऐसी भोली भाली और सादा मंशा लड़की का हक़ीक़ी नक़्शा पेश कर दिया जिस नक्शे में किसी शर को इंसानी अक़ल नसब नहीं कर सकती*

*"❀_ इसके साथ साथ दूसरा अक़दाम नबी करीम ﷺ ने ये किया कि मजलिसे आम में खिताब फरमाया - हम्द व सना के बाद बड़े दर्द भरे अल्फाज़ ज़बान से निकले, "आखिर उन लोगों का मुद्दा क्या है जो मुझे मेरे अहले खाना के बारे में दुख देते हैं और उनके मुताल्लिक़ खिलाफे वाक़िआ बात करते फिरते हैं, खुदा की क़सम उनके बारे में बजू़ज भलाई के कोई और बात मेरे इल्म में नहीं है और वो बात एक ऐसे शख्स के मुत्तालिक कहते हैं कि उसकी तरफ से भी भलाई के सिवा मेरे इल्म में कोई और बात नहीं है और उसने मेरे घर में भी मेरी मौजूदगी के बगैर कभी क़दम नहीं रखा_," (सीरत इब्ने हिशाम-3/345)*

*"❀_दूसरी रिवायत में इब्तिदाई अल्फाज़ ये हैं:- कोई है जो मुझे उस शख्स से बचाए जो मेरे घर वालों के बारे में मुझे ईजा़ देता है_," (जादुल मा'द -2/114)*

*❥❥_ ये सुन कर क़बीला औस के सरदार उसैद बिन हुजैर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उठ कर अर्ज़ किया - या रसूलुल्लाह ﷺ! अगर ऐसे लोग हमारे क़बीले के हों तो हम उनसे निमट लेंगे और अगर हमारे ख़ज़रजी भाइयों में से हों तो आप हुक्म दें, खुदा की कसम ऐसे लोग इस क़ाबिल हैं कि उनकी गर्दनें उड़ा दी जाएं,*

*"❀_ दूसरी तरफ से खज़रजियों के सरदार साद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु भन्ना कर उठे और कहा," झूठ कहते हो, बा खुदा हम उनकी गर्दनें नहीं मारेंगे, हां हां खुदा की कसम! तुमने ये बात इसी बिना पर कही है कि उनका ताल्लुक़ ख़ज़रज से है_," हज़रत साद रज़ियल्लाहु अन्हु का ये ख़िलाफ़े तवक़्को जवाब उसैद बिन हुज़ैर रज़ियल्लाहु अन्हु को सख़्त नागवार गुज़रा, शिद्दतें जज़्बात में बोल उठे: "गलत तुम कहते हो, बा खुदा! बल्की तुम खुद मुनाफिक़ हो, जभी मुनाफिकों की वकालत व हिमायत करते हो?*
 *®_ (सीरत इब्ने हिशाम -3/345)*

*"❀_ ये ना खुशगावरतर सूरत इस वजह से पैदा हुई कि औस व खज़रज के दरमियान खिचाव पैदा करने के लिए भी मुतावतर फित्ने की बारूद बिछाई जा रही थी, तब ही ज़रा सी बात पर जज़्बाती हैजान पैदा हो गया और जमात के दोगुना अनासिर मुताहरिक हो गए, कुछ इधर से उठे कुछ उधर से, और क़रीब था कि औस व ख़ज़रज आपस में एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हो जाएं, दोनो कबीलों को शैर व शकर करने वाले क़ायद ए जलील को ये गवारा ना था कि बरसो की मेहनत से बंधा हुआ ये शिराजा उसकी जा़त की वजह से दरहम बरहम हो जाए और खुद तहरीक़ ही कि चोले हिल जाएं, आप मिंबर से उतर आए लोगो को ठंडा किया और मजलिस बरखास्त कर दी,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ के लिए जमात के इस कमज़ोर पहलू का ये नया तजुर्बा पहली परेशानी में कितना इज़ाफ़ा का मोजिब बन गया होगा, ये दर असल असबियत की वही बारूद फट रही थी जिसे अब्दुल्लाह बिन उबई गज़वा बनी अल मुस्तलक़ के मोके़ पर दिलों की गहराइयों में बिछा चुका था,*

*❥❥_कहानी का आखिरी हिस्सा भी खुद हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की ज़ुबानी ही सुनिये:- इस बोहतान की अफ़वाहे कमो बेश एक महीने तक शहर में उड़ती रहीं, नबी करीम ﷺ सख़्त अज़ियत में मुबतिला रहे, मैं रोती रही, मेरे वाल्दैन इंतेहाई परेशानी और रंज व गम में मुब्तिला रहे, आखिरकार एक रोज़ हुजूर ﷺ तशरीफ लाये और मेरे पास बैठे, इस पूरी मुद्दत में आप ﷺ कभी मेरे पास ना बैठे थे, हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु और उम्मे रोमान रजियल्लाहु अन्हा (हजरत आयशा की वालिदा) ने मेहसूस किया कि आज कोई फैसले की बात होने वाली है, इसलिए वो दोनों भी पास आ कर बैठ गए,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया - आयशा मुझे तुम्हारे मुताल्लिक़ ये ख़बरे पहुँची हैं, अगर तुम बेगुनाह हो तो उम्मीद है कि अल्लाह ताला तुम्हारी बरा'त ज़ाहिर फ़रमा देगा और अगर तुम किसी गुनाह में मुब्तिला हुई हो तो अल्लाह से तौबा करो और माफ़ी मांगो, बंदा जब अपने गुनाह का मुअतरिफ़ (इक़रार) हो कर तौबा करता है तो अल्लाह माफ़ कर देता है,*

*"❀_ ये बात सुन कर मेरे आंसू खुश्क हो गए, (बेगुनाह आदमी से इसी फितरी कैफियत की तवक्को़ करना चाहिए) मैंने अपने वालिद से अर्ज़ किया - आप रसूलुल्लाह ﷺ की बात का जवाब दें, उन्होंने फरमाया- बेटी! मेरी कुछ समझ ही में नहीं आता क्या कहूं, मैंने अपनी वालिदा से कहा आप ही कुछ कहें, उन्होंने भी यही कहा कि मैं हैरान हूं क्या कहूं,*

*"❀_ इस पर मै बोली- आप लोगों के कानों में एक बात पड़ गई है और दिलो में बैठ गई है, अब अगर मैं कहूं कि मै बेगुनाह हूं... और अल्लाह गवाह है कि मैं बेगुनाह हूं,.. तो आप लोग ना मानेंगे, और अगर ख्वाम ख्वाह एक ऐसी बात का ऐतराफ करूं जो मैंने नहीं कि और अल्लाह जनता है कि मैंने नहीं की.. तो आप लोग मान लेंगे,*

*❥❥_ मैंने उस वक़्त हज़रत याकूब अलैहिस्सलाम का नाम याद करने की कोशिश की मगर याद ना आया, आख़िर मैंने कहा इस हाल में मेरे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि वो बात कहूँ जो हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वालिद ने कही थी "फस्बिरुन जमील_," (तौबा-18) (इशारा है उस वाक़िए की तरफ जबकी हज़रत याकूब के सामने उनके बेटे बिन्यामीन पर चोरी का इल्ज़ाम बयान किया गया था),*

*"❀_ ये कह कर मैं लेट गई और दूसरी तरफ करवट ले ली, मैं उस वक्त अपने दिल में कह रही थी कि अल्लाह मेरी बेगुनाही से वाकिफ है और वो ज़रूर हक़ीक़त खोल देगा, अगरचे ये बात तो मेरे वहमो गुमान में भी ना थी कि मेरे हक़ में वही नाजि़ल होगी जो क़यामत तक पढ़ी जाएगी, मैं अपनी हस्ती को इससे कमतर समझती थी कि अल्लाह खुद मेरी तरफ से बोले, मगर मेरा ये गुमान था कि रसूलल्लाह ﷺ कोई ख्वाब देखेंगे जिसमें अल्लाह ताला मेरी बरा'त ज़ाहिर फरमा देगा_,"*

*"❀_ इतने में यकायक हुजूर ﷺ पर वो कैफियत तारी हो गई जो वही नाजि़ल होते वक्त हुआ करती थी, हत्ताकी सख्त जाड़े के ज़माने में भी मोती की तरह आपके चेहरे से पसीने के कतरे टपकने लगते थे, हम सब खामोश हो गए, मै तो बिल्कुल बेखौफ थी मगर मेरे वाल्दैन का हाल ये था कि काटो तो बदन में लहू नहीं, वो डर रहे थे कि देखिये अल्लाह क्या हक़ीक़त खोलता है_,*

*"❀_ वो कैफियत दूर हुई तो हुजूर ﷺ बेहद खुश थे, आपने हंसते हुए पहली बात जो फरमाई वो ये कि मुबारक हो आयशा! अल्लाह ने तुम्हारी बरा'त नाज़िल फरमा दी और इसके बाद हुज़ूर ﷺ ने 10 आयातें सुनाईं, मेरी वालिदा ने कहा उठो और रसूलल्लाह का शुक्रिया अदा करो, मैंने कहा मैं ना इनका शुक्रिया अदा करूंगी ना आप दोनो का ! बल्की अल्लाह ताला का शुक्र करती हूं जिसने मेरी बारा'त नाजि़ल फरमाई, आप लोगों ने तो बोहतान का इंकार तक ना किया _,"*
 *®_(तफ़हीमुल क़ुरान - माख़ूज़ अज़ माहनामा तर्जुमानुल क़ुरान- जिल्द- 45 सफ़ा- 9-10)*
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        *⚂ _ मस्जिदे ज़रार की तामीर _⚂*   
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*❥❥_ऐसा ही एक मौक़ा गज़वा बनू मुस्तलक के सफर में आया जहां यहूद के आलाकर बनने वाले मुनाफिकी़न ने अब्दुल्लाह बिन उबई के ज़ेरे इशारत मुहाजिरीन व अंसार में खौफनाक हद तक इश्तियाल (आग भड़काने का काम) पैदा कर दिया, हुज़ूर ﷺ ने इस मौक़े पर भी बड़ी हिकमत से सूरते हालात को संभाला _,"*

*"❀_ इस तरह के फितनों में सबसे बढ़ कर मुंजिम फितना वो था जिसने मस्जिद ज़रार की सूरत में ज़हूर किया, इस फितने का असल बानी क़बीला ख़ज़रज का एक शख्स अबु आमिर राहिब था, हुजूर ﷺ के मदीना आने से पहले ये अपने इल्म किताब और तकश्शुफ (दरवेशी) की वजह से बहुत बा असर था, हुजूर ﷺ जब मदीना आए तो हर खास व आम आप ﷺ की तरफ रुजू करने वाले बन गए, तो अबु आमिर के असर व रसूख का चिराग गुल हो गया, दिल ही दिल में वो कुढ़ता था,*

*"❀_ बदर के वाक़िए ने जो मुस्तक़बिल उसके सामने नुमाया किया उसका मुशाहिदा कर के उसकी आंखों में नश्तर उतर गए, उसने एक तरफ जंगे उहद के लिए सरदाराने मक्का को उकसाया दूसरी तरफ अरब के मुख्तलिफ सरदारों से साज़िश बाज़ी की, तीसरी तरफ खुद अंसार को रसूले अकरम ﷺ के खिलाफ बगावत बुलंद करने की दावत दी, और चौथी जानिब हिरक्क़ल रौम को फौजें चढ़ा लेने की दावत दी _,"*
 *®_(तफ़सीर इब्ने कसीर -4/388)"*

*"❀_ उसने मुनाफ़िक़ीन से ये साजिश की कि हुज़ूर ﷺ का मुक़ाबला करने के लिए एक मुतवाज़न (अलग) अड्डा खड़ा किया जाए, चुनांचे इसी मंसूबे के तहत मस्जिद ज़रार खड़ी की गई, इस मरकज़ ए फ़साद के बानियो ने हुज़ूर ﷺ से बड़े ड्रामाई अंदाज़ में ये दरख्वास्त की कि हमने ये मस्जिद ऐसे कमज़ोरों और माज़ूरो के लिए तामीर की है जो ज़्यादा दूर नहीं जा सकते और अंधेरी रातों और बारिश और तूफ़ान की सूरत में आस पास के लोग उसमें असानी से जमा हो जाएंगे, आप उसमे चलें, उसका इफ्तेता फ़रमायें और उसे बरकत अंदोज़ करें,*

*❥❥_हुजूर ﷺ उस वक्त तबूक रवाना हो रहे थे, लिहाज़ा आपने इस मामले को वापसी तक के लिए मुल्तवी कर दिया, वापसी में वही के ज़रिये आपको मुत्नब्बा कर दिया गया कि:-*
*"❀_ और वो लोग जिन्होंने (इस्लामी मआशरे को) नुक़सान पहुंचाने, कुफ्र करने, मुसलमानों के दरमियान फूट डालने और पहले से खुदा और रसूल के खिलाफ जंग करने वालों को घात लगाने का अड्डा फराहम करने के लिए मस्जिद खड़ी की है.. और हाँ वही जो क़सम खा खा कर कहेंगे कि (इस काम में) हमने तो फ़क़त नेक मक़ासिद मल्हूज़ रखे हैं, (इनकी हकीकत ये है कि) अल्लाह गवाही देता है कि वो क़त'ई तौर पर झूठे है, इसमें आप हरगिज़ हरगिज़ कभी क़याम न फ़रमायें _,"*

*"❀_ हां वो मस्जिद (यानी मस्जिदे कु़बा) कि जिसकी बुनियाद अव्वल रोज़ से परहेज़गारी (के जज़्बात) पर रखी गई है, वही ज़्यादा मुस्तहिक है कि आप उसमें (इबादत के लिए) खड़े हों, उसमें ऐसे लोग हैं जो इस बात के ख़्वाहां हैं कि पाकीज़गी अख़्तियार करें, और अल्लाह पाकीज़गी चाहने वालो ही को पसंद करता है _,"*
 *®_(तौबा-107-108)*

*"❀_चुनांचे मस्जिद के मुक़द्दस नाम से क़ायम होने वाला ये नापाक अड्डा फ़रमाने नबुवत के तहत जला कर रख दिया गया, ताकि इसके साथ उसकी मनहूस तारीख़ भी मलियामेट हो कर रह जाए, (सीरत इब्ने हिशाम- 4/ 185)*

*"❀_ मुख्तसर ये है कि इलाही हिदायत के उन ठेकेदारों और अंबिया के वारिसों ने शर अंगेजी़ का कोई मौक़ा हाथ से जाने न दिया, परेशान कुन हरकतों से कहीं बढ़ चढ़ कर उनकी वो तख़रीबी साजिशे तबाह कुन थीं जो हर जंग के मोके़ पर इस्लामी हिफ़ाज़त को नुक़सान पहुंचाने के लिए अमल में लाई जाती रहीं,*

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        *⚂ _निज़ामे इन्साफ़ में ख़लल _⚂*   
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*❥❥_निज़ामे इन्साफ़ में रुख़ना अंदाज़ी (ख़लल):-*

*"❀_ मदीना की इस्लामी रियासत का वो दस्तूरी मुआहिदा जिसके तहत मुसलमान मुहाजिरीन व अंसार और यहूद के कबीले एक सियासी हालात में इज्तिमाई तौर पर जमे हुए थे, इसमे तस्लीम कर लिया गया था कि सियासी और अदालती लिहाज़ से आला अख्तियार मुहम्मद ﷺ के हाथ में है, वो दस्तावेज़ आज तक महफ़ूज़ है और उसमें हस्बे ज़ेल दो वाज़े दफ़ात मोजूद हैं _," (सीरत इब्ने हिशाम-2/121-123)*

*"❀_ (तर्जुमा)_ (1)_ और ये कि जब कभी तुममें किसी चीज़ के मुताल्लिक़ इख्तिलाफ पैदा हो जाए तो अल्लाह और मुहम्मद ﷺ की तरफ रूजू किया जाए,*
*"❀_(2)_ और ये कि इस नोश्ता को कुबूल करने वालों के दरमियान कोई नया मामला या झगड़ा पैदा हो जाए जिस पर फसाद पैदा होने का अंदेशा हो तो अल्लाह ताला की तरफ और उसके रसूल मुहम्मद ﷺ की तरफ लौटाया जायेगा_,"*

*"❀_ क्या दस्तूरी बयान के बाद मुआहिदा यहूदी क़ाबिलो पर शर'अन अख़लाक़ी और सियासी व क़ानूनी हैसियत से ये फ़र्ज़ आ'इद हो गया कि वो इस निज़ामे अद्ल व क़ानून को कामयाब बनाने में पूरी तरह तावुन करें और इसकी वफ़ादाराना इताअत करें जो सरवरे आलम ﷺ की क़यादत में चल रहा था,*

*"❀_ऊपर से मुआहिदाना ज़िम्मेदारी उनको बा रज़ा व रगबत क़ुबूल की थी, लेकिन जहां उन्हें ये महसूस हुआ कि इस्लामी रियासत के साफ़ सुथरा बे गर्ज़ क़ानून की ज़द उनके किसी मुफ़ाद पर पड़ती है और उनकी कोई शख़्सियत उसकी लपेट में आती है, तो वो अपने मुआहिदे को नज़र अंदाज़ कर के अलग रास्ते पर पड़ जाते रहे_,"*

*❥❥_ यहूद के एक शादी शुदा मर्द ने किसी मनकूहा यहूदिया से ज़िना किया, मामला यहूद के सरदारों के सामने आया, ये अकाबिर बैत मदरास में जमा हुए और आपस में सुलह ठहराने के बाद एक आदमी को सरवरे आलम ﷺ की खिदमत में दरियाफ्त करने के लिए भेजा कि ऐसी हरकत पर क्या सज़ा दी जाएगी,*

*❀_ उन्होंने पहले ही से ये राय क़ायम कर ली कि अगर हमारी रिवाजी़ सज़ा (तहमिया) बताई जाए तो मुहम्मद (ﷺ) को एक बादशाह समझो और बात मान लो, लेकिन अगर किताबे इलाही के मुताबिक़ रज्म की शरई हद जारी करने को कहें तो फ़िर वो (अपने इल्मे सही और अपनी जुर्रत हक़ और इत्तेबा फ़रमाने इलाही की रो से) नबी हैं और उनसे बचना कि तुम्हारा जो कुछ क़ा'इदाना असर बाक़ी है वो भी ना जाता रहे,*

 *"❀_ इसलिए आदमी पहुंचा और उसने पैगाम दिया, और अकाबिरे यहूद की तरफ से पेशकश की कि हम आपको हकम बनाते हैं, ये पेशकश दस्तूरी मुआहिदे से टकराती थी, मुआहिदे की रो से हुजूर ﷺ मुस्तक़िल तौर पर मदीना के हकम और अदलिया के सरबराह थे, गालिबन यही वजह हुई कि हुजूर ﷺ उठ कर सीधे बैत मदरास तशरीफ ले गए और जा कर यहूद से फरमाया कि अपने आलिमो को लाओ, अब्दुल्ला बिन सोरिया को पेश किया गया, बाज़ रिवायतों के मुताबिक़ उस शख़्स के साथ अबू यासिर बिन अख़तब और वहब बिन यहूदा भी थे, दौराने गुफ़्तगू सबने अब्दुल्लाह बिन सोरिया को इल्मे तौरात में फ़ाज़िल तरीन मुस्तनद शख़्सियत क़रार दिया,*

*❀_हुजूर ﷺ ने उस आलिम से अलहैदगी में गुफ्तगू की और खुदा का खौफ दिला कर बनी इस्राइल के ज़ेरे अबवाब तारीख की याद ताज़ा करा के दरियाफ़्त किया कि क्या तुम जानते हो कि शादी शुदा ज़ानी के लिए तौरात में रज्म का हुक्म आया है? उसने जवाब दिया - हां बा खुदा! वही से जो हक़ीक़त हुजूर ﷺ पर आशकार थी, उसकी तस्दीक़ फरीक़ मुखालिफ की तरफ से भी हो गई,*

*❥❥_लेकिन मजलिस आम में यहूदी सरदार और उलमा बहस करते रहे, उनका इसरार था कि हमारे कानून शरीयत में ज़िना की सज़ा तहमिया है, इस सज़ा के मुताबिक यहूदी ज़ानियों का मुंह काला कर के उनको गधे पर सवार करते और बस्ती में घुमाते, तौरात का हुक्म रज्म उन्होंने बाला ए ताक डाल दिया था,*

*"❀_ उनके अंदर जब ज़िना की वबा फैली और उनके ऊंचे तबक़ो तक के लोग इस अखलाकी़ फसाद में मुलव्विस हो गए तो मआशरे ने शरीयत का साथ देने के बजाय मुजरिमों की हिमायत का रुख अख्तियार कर लिया और सज़ा में कमी कर दी,*

*"❀_ अब अकाबिरे यहूद को अंदेशा ये था कि अगर तौरात के कानून रज्म का अहया हो जाता है तो फिर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, आज तुम कल हमारी बारी है, यही वजह है कि वो रज्म की सज़ा का निफाज़ रुकवाना चाहते थे, मजबूरन हुज़ूर ﷺ ने मजलिस आम में उनसे तौरात मंगवाई _,"*

*"❀_ एक यहूदी आलिम ने मुतलका़ मुका़म की क़िरात की, उस नुस्खे में आयत रज्म मौजूद थी और उस सितमगर आलिम ने आयत पर हाथ रख कर आगे पीछे से पढ़ डाला, अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु (मशहूर यहूदी आलिम जो ईमान ले आए थे) उन्होंने ने लपक कर उसका हाथ हटा दिया और हुजूर ﷺ को दिखाया कि, "ए पैगम्बरे खुदा! मुलाहिज़ा कीजिये ये रही आयत रज्म_,"*

*❥❥_हुजूर अकरम ﷺ ने इस मक्कारी पर यहूद को सख्त मलामत की और ये कह कर मुजरिमों पर हद जारी कर दी कि मै पहला शख्स हूं जो खुदा के हुक्म और उसकी किताब और उस पर अमल पेरा होने के मसलक की तजदीद करता हूं _,"* 
*®_ (सीरत इब्ने हिशाम- 2/1962)*

*"❀_ यह वह लोग थे जो बगलों में क़ानून ए इलाही लिए हुए मन गढ़त रिवाजी़ क़ानून का खोटा सिक्का चला रहे थे और इस किरदार के साथ वो उस मुक़द्दस हस्ती के मुक़ाबले को निकले थे जो क़ानूने इलाही का बेलाग तरीक़े से अहया करने उठी,* 

*"❀_ और क़ुरान का ये नगमा ए हक़ फ़िज़ाओं में गूंज रहा था कि :- (तर्जुमा सूरह माईदा-68) कह दो ऐ अहले किताब ! उस वक़्त तक तुम्हारी कोई बुनियाद ही नहीं है जब तक तुम तौरत और इंजील को और अल्लाह की तरफ़ से जो कुछ क़वानीन नाज़िल हुए हैं उनको नफ़िज़ ना कर दिखाओ_,"* 
*"_जब तक तुम्हारे अक़ीदे व अमल मे ये भारी मुख़ालफ़त मौजूद है, तुम्हारी कुछ भी हक़ीक़त नहीं है, तुम एक बे मानी और बे वज़न टोली हो _,"*. 

*"❀_ यहुदी माशरे के फसादे आम का एक बड़ा मज़हर ये था कि उनमे आला और अदना तबक़ो की ताक़सीम मुस्तक़िल तौर पर क़ायम हो चुकी थी और क़ानूनी मुसावात यकसर खत्म हो गई थी, बा असर लोगों के लिए क़ानून अलग था और कमज़ोर के लिये अलग इन्साफ़ की नदी फ़ट कर अलग अलग धारों में तक़सीम हो गई थी, उनके क़ाज़ी और मुफ्ती मीज़ाने अदल के पलड़े ना बराबर कर चुके थे,*

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*❥❥_ मजमुई तौर पर सारे अरब में इंसाफ में दो रंगी पाई जाती थी, बा असर तबक़ो के लिए क़ानून दूसरा था, कमज़ोरों और आम लोगों के लिए दूसरा,*

*"❀_फतेह मक्का का मौक़ा था कि फातिमा नामी एक मख़ज़ूमी औरत चोरी के जुर्म में गिरफ्तार हुई, चूंकी वो बा असर क़बीले से ताल्लुक़ रखती थी, इसलिए कुरेश के लोग उसकी गिरफ्तारी पर बड़े बेचैन हुए, और उनके तसव्वुर में ये बात समा ना रही थी कि ऐसी औरत पर भी क़ानून का वही हुक्म अक़ूबत (सज़ा) चल जाए जो आम लोगों के लिए है,*

*"❀_ उन लोगों ने मशवरा किया कि रसूले खुदा ﷺ से कह कहा कर उसे छुड़ा लिया जाए, मगर आगे होकर बात कौन करे, इस गर्ज़ के लिए उन्होंने ओसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु को सिफ़ारिशी बनाया, ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु ने जाकर मुद्दा' अर्ज किया, हुजूर ﷺ के चेहरे का रंग बात सुन कर मुतगय्यर हो गया और फरमाया- "क्या तुम अल्लाह की एक हद के बारे में (उसे रुकवाने की) सिफ़ारीश करते हो?*

*"❀_ बस इतने ही पर ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु को अहसास हो गया और उन्होंने माफ़ी तलब की, दिन ख़तम होने पर हुज़ूर ﷺ ने मजमे में ख़िताब फरमाया _,"*

*"❀_ तुमसे पहले के लोगों का एक सबबे हलाकत ये था कि जब उनमें से कोई मुमताज़ आदमी चोरी करता था तो वो उससे चश्म पोशी कर लेते थे और जब कोई कमज़ोर दर्जे का आदमी यही जुर्म करता था तो उस पर सज़ा नाफ़िज़ कर देते थे, मै अपने बारे में खुदा की क़सम खा कर कहता हूं जिसके क़ब्जे में मेरी जान है अगर फातिमा बिन्ते मुहम्मद (ﷺ) भी चोरी करे तो मैं उसका हाथ भी काट डालूं _,'*
 *®_(मुस्लिम)*

*❥❥_यही मरुजा़ ज़हनियत उम्मे हारिसा के मामले में भी सामने आई, इस औरत ने किसी का दांत तोड़ डाला, मुक़दमा हुज़ूर ﷺ के सामने लाया गया, हुज़ूर ﷺ ने क़सास (बदला) का हुक्म सुनाया, उम्मे रबीआ (गालिबन मुजरिमा की बहन थी, लेकिन इस मामले में रिवायात में कुछ शुबहा हो गया है) ने ये फैसला सुना तो हुजूर ﷺ से ताज्जुब से पूछा कि क्या फलानी से भी क़सास लिया जाएगा, ख़ुदा की क़सम उससे क़सास नहीं लिया जा सकता _,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने फरमाया - "अरी उम्मे रबीआ! क़सास तो ख़ुदाई नोश्ता (लिखा हुआ, तहरीर) है _,"*
*"_मगर वो कहने लगी कि नहीं खुदा की क़सम उससे हरगिज़ क़सास नहीं लिया जा सकता _,"*
*"_उनकी समझ में नहीं आता कि इस दर्जे की मुजरिमा का दांत कैसे तोड़ा जा सकता है,*

*"❀_इधर अमलन ये हुआ कि फ़रीक़ीन के दरमियान जुर्माने पर मामला तैय हो गया, इस तरह हुक्मे क़सास (जिसमे जुर्माने की गुंजाईश भी शामिल थी) भी पूरा हो गया और उम्मे रबीआ की बात भी रह गई,*

 *"❀_चुनांचे बतौर लतीफा हुजूर ﷺ ने फरमाया कि खुदा के एसे बंदे भी हैं कि जब वो (किसी बात पर) कसम खा लें तो खुदा उनकी कसम को पूरा कर देता है_," (मुस्लिम, बाब) अल क़सास )*
* ⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙                                       
              *⚂ _ क़त्ल की साजिशें _⚂*   
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*❥❥_फिर क़त्ल की साजिशी तदबीरे अख्तियार की गई, ठीक यही राह मक्का के अरबाबे जहालत ने अख्तियार की थी, और अब उसी नापाक रास्ते पर मदीना के यहूद और मुनाफिकी़न भी गामज़न हो निकले,*

*"❀_ एक मर्तबा अमरू बिन उमैया ज़मरी ने क़बीला आमिर के दो आदमी क़त्ल कर दिए, उनकी देत वसूलने के लिए और मुआहिदाना ज़िम्मेदारियों की याद दहानी के लिए रसूले ख़ुदा ﷺ बनू नज़ीर के यहां पहुंचे, वहां के लोगो ने आपको एक गड़ी के साये में बिठाया,*

*"❀_ फिर वो लोग अल्हैदगी में मिल कर मंसूबा बांधने लगे कि कोई शख्स जा कर ऊपर से पत्थर (चक्की का पाट) गिरा दे और हुजूर ﷺ की जिंदगी का खात्मा कर दें, अमरु बिन जहश बिन का'ब ने ये ज़िम्मेदारी अपने सर ली, इधर हुज़ूर ﷺ पर उनका इरादा मुनकशिफ़ हो गया और आप वहां से उठ कर चले आये _,"*
 *"_®( सीरत इब्ने हिशाम-2/192, रहमतुल्लिल आलमीन-1/180)*

*"❀_मशहूर यहूदी सरदार काब बिन अशरफ जिसका बाप क़बीला तय से था और जिसकी माँ यहूद के मालदार और मुक़्तदा अबू राफे बिन अबी की हक़ीक़ी बेटी थी, अपने इस दोगुना ताल्लुक़ की वजह से अरबों और यहूदियों के दरमियान एक सा रसूख रखता था, एक तरफ वो माली कुव्वत रखता था, दूसरी तरफ उसकी शायरी की भी धाक थी, उसके सीने में इस्लाम के खिलाफ बड़ा जहरीला लावा भरा था, उसने हुजूर ﷺ की दावत की और कुछ आदमियों को मामूर कर दिया कि जब हुजूर ﷺ आएं तो उनको क़त्ल कर दें,*
*❥❥_ जिस ज़माने में बनू क़ुरेज़ा से हुज़ूर ﷺ ने तजदीद मुआहिदा किया उस ज़माने में बनू नज़ीर ने हुज़ूर ﷺ को पैग़ाम भेजा कि आप अपने साथ तीन आदमी ले आयें और हम भी अपने तीन आलिम पेश करेंगे, आप अपनी बात उस मजलिस मे बयान करें, अगर हमारे आलिमो ने उसकी तस्दीक़ कर दी तो हम सब भी आप पर ईमान ले आएंगे, हुजूर ﷺ रवाना हुए तो रास्ते में आपको इत्तेला हो गई कि यहूद तलवारे बांधे इस इरादे से आपके मुंतजिर हैं कि आपको क़त्ल कर दिया जाये, आप वापस आ गये,*

*"❀_ फ़तेह खैबर के मौक़े पर एक यहूदी औरत जैनब बिन्ते अल हरस (ज़ोजा सलाम बिन मश्कम) ने एक बकरी का गोश्त भून कर तैयार किया और उसमें ज़हर मिला दिया, फिर ये मालूम किया कि हुज़ूर ﷺ को कौनसा हिस्सा ज़्यादा मरगूब है, फिर जब मालूम हो गया कि दस्त का गोश्त खास तौर से पसंद है तो उसने उसमें बाक़ी गोश्त से ज्यादा मिक़दार मे बहुत तेज़ क़िस्म का मसलक ज़हर मिला दिया,*

*"❀_ फिर ये गोश्त हुजूर ﷺ और आपके साथियों के लिए तोहफे में भेजा, हुजूर ﷺ ने लुक़मा मूंह में रखा (शायद कुछ हिस्सा निगला भी गया हो) और जल्दी ही थूक दिया, फरमाया कि इस गोश्त ने मुझे इत्तेला दी है कि इसमें ज़हर मिला हुआ है _,"*

*"❀_ फिर खुद भी नहीं खाया और साथियों को भी रोक दिया, बाद में उस यहूदिया को बुलाया तो उसने इकरार कर लिया, हक़ीक़त ये थी कि इसके पीछे बहुत से यहूद की साज़िश काम कर रही थी, हुजूर ﷺ ने मजलिस आम में उनको बुलवा कर बात की तो उन्होंने भी ऐतराफ किया, मगर बात ये घड़ी की हमने आपकी जांच लेना चाही थी कि आप अगर सच्चे नबी होंगे तो आप पर हक़ीक़त मुनकाशिफ हो जाएगी, वरना हमको निजात मिल जाएगी,*

*❥❥_तबूक से जब हुज़ूर ﷺ की वापसी हुई और मुनाफ़ीक़ीन के दिल इस मुहीम की कामयाबी से भुने जा रहे थे क्योंकि इन छुपे दुश्मनों के अरमान कुछ और थे तो उन्होंने हुज़ूर ﷺ के क़त्ल की नापाक साज़िश बांधी, इस साज़िश में 12 आदमी शरीक हुए,*

*"❀_ साज़िश की मजलिस में तैय पाया गया कि हुज़ूर ﷺ जब उक़बा से गुज़रें तो उनको नीचे गिरा दिया जाए, इसी मंसूबे के मुताबिक़ ये 12 फ़सादी हुज़ूर ﷺ के साथ-साथ लगे रहे, हुज़ूर ﷺ जब उक़बा के करीब पहुंचे तो इरशाद फरमाया कि जो लोग बतन वादी के कुशादा रास्ते से हो कर जाना चाहे वो उधर से जा सकते हैं, आप ﷺ ने उक़बा का रास्ता लिया, सहाबा की कसीर तदाद बतन वादी की तरफ चली गई,*

*"❀_मगर साजिशी गिरोह बतौर खास हुजूर ﷺ के साथ रहा, हुजूर ﷺ की निगाह यूं भी दिलों की गहराई में उतर कर मख्फी जज़्बात को पढ़ने वाली थी, और फिर अल्लाह ताला ने गैबी इशारा दे कर आप ﷺ को इस हाल से मुतला भी कर दिया, आप ﷺ ने दो रफ़ीक़ो को साथ लिया, एक हज़रत हुज़ैफ़ा बिन यमान थे दूसरे अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हुम,*

*"❀_ हज़रत अम्मार रज़ियल्लाहु अन्हु को हुक्म दिया कि वो आगे रहें और नाक़ा (ऊंटनी) की मुहार थामें और हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया कि वो पीछे-पीछे चलें, जब उक़बा का खास मुका़म आ गया तो साजिशी टोली लपकती हुई आई, रात की तारीकी भी थी और उन्होंने चेहरे पर नका़बे भी डाल रखी थी, हुजूर ﷺ को आहट हुई तो साथियों को हुक्म दिया कि वो उन लोगों को पीछे लोटा दें,*

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*❥❥_हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु लपक कर गए और उन लोगों का ऊंट दिखाई दिया, उन्होंने अपना तरकश उसकी थोथनी पर मारा, वो लोग हज़रत हुज़ेफ़ा को जब पहचान गए तो समझें कि राज़ फाश हो गया और पीछे भाग कर लोगों और में घुल मिल गये,*

*"❀_ हज़रत हुज़ेफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु वापस हुए तो हुज़ूर ﷺ ने हुक्म दिया कि इस मुका़म से ऊंट को तेज़ हांक कर निकाल ले चलो, फ़िर हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु से पूछा कि तुमने उन लोगों को पहचाना, उन्होंने कहा कि फलां और फलां की सवारी तो पहचान ली मगर आदमी नहीं पहचाने, हुजूर ﷺ ने पूछा कि तुमने उनका इरादा समझा, उन्होंने नहीं मे जवाब दिया, हुजूर ﷺ ने उनको खुद आगाह किया कि ये हमें उक़बा से गिरा देना चाहते थे,*

*"❀_ सुबह हुई तो हुजूर ﷺ ने गैबी इशारे के मुताबिक़ नाम बा नाम उन 12 साज़िशियों को तलब किया, और हर एक के दिली जज्बात और मजलिसे साजिश में कहीं हुई उसकी बातों को उसके सामने रख दिया, और बारी बारी हर एक से सफाई तलब की,*

*"❀_ उनके जवाब बड़े दिलचस्प रहे होंगे, मसलन हसन बिन नमीर कहने लगा कि, "मुझे यक़ीन ना था कि आपको इसकी खबर होगी, मगर आज मालूम हुआ कि वाक़ई आप खुदा के रसूल हैं, इससे पहले मैं सच्चा मुसलमान ना था, अब सच्चे दिल से इस्लाम लाता हूँ _,"*

*"❀_ सबने इस तरह की मुख्तलिफ बातें बनाईं, उज़्र कहे और बाज़ ने माफ़ी चाही, हुज़ूर ﷺ ने सबसे दरगुज़र फ़रमाया, रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने उन सभी शख्सों के नाम सिर्फ हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु को राज़दारी से बता दिए थे और आम मुसलमानों पर फ़ास नहीं किए,*

     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_इन्हीं वाक़ियात में ये भी है कि यहूदियों ने आप ﷺ पर जादू का एक हमला भी किया था, बहादुर दुश्मन वो होता है जो खुल कर मुक़ाबला करे और अगर वो जान के दरपे हो तो चेलेंज कर के खुल्लम खुल्ला हमला आवर हो, लेकिन यहूद में इतना बल तो ना था, चुनांचे वो साज़िश की राह पर पड़े, जो बुज़दिलों और कमीना फ़ितरत लोगों की राह होती है,*

*"❀_लेकिन इससे आगे जादू टोनो व खलीफों और झाड़ फूंको के ज़ोर से वो लोग किसी पर हमला करते हैं, सो उन लोगों ने बुग्ज़ के मारे ये घटिया हरकत भी हुजूर ﷺ के खिलाफ कर डाली, बनी ज़रीक़ का एक शख़्स लुबैद बिन आसिम यहूदियों का हलीफ़ था और मुनाफ़िका़ना शख़्सियत का हामिल था, उसके हाथो सहर (जादू) का अमल कराया गया,*

*"❀_ एक यहूदी लड़का अपनी अच्छी फितरत की वजह से हुजूर ﷺ की तरफ़ से माइल था और आप ﷺ की खिदमत किया करते था, उसको मजबूर कर के बाज़ यहूद ने हुज़ूर ﷺ के सर के बाल और कंघी के दंदाने हासिल किये, और उन पर जादू का अमल कर के 12 गिरहों वाला गंडा बनाया गया और ज़रवान नामी कुंवें में उसे रखवाया गया,*

*"❀_अहादीस में आता है कि इस अमल ए सहर की वजह से हुजूर ﷺ एक अजीब सी कैफियत महसूस करते, किसी काम का ख्याल फरमाते कि वो कर लिया है, हालांकि ना किया होता, जिन्सी मीलान पर भी कुछ असरात थे, अलका़ ए रब्बानी से आप इस अमले सहर से आगाह हुए, वो गंडा निकलवाया गया और आपकी तबीयत मामूल पर आ गई,*
 *®_ ( तफ़सीर इब्ने कसीर -2/572)*

*❥❥_ फतेह मक्का के मौक़े पर फ़ुज़ाला बिन उमैर के सीने में भी इंतेक़ाम की बिजली कोंधी, दिल ही दिल में हुज़ूर ﷺ के क़त्ल का इरादा बांधा,*

*"❀_हुजूर ﷺ बैतुल्लाह का तवाफ कर रहे थे कि फ़ुज़ाला नमुदार हुआ, क़रीब आया तो आप ﷺ ने बुलाया, फ़ुज़ाला तुम हो? उसने जवाब दिया - हां! या रसूलल्लाह फ़ुज़ाला! फरमाया क्या बात तुमने अपने दिल में ठान रखी है ? फ़ुज़ाला ने घबरा कर जवाब दिया - कुछ भी नहीं, मैं तो खुदा का ज़िक्र कर रहा हूँ _,"*

*"❀_ हुजूर ﷺ ये जवाब सुन कर हंस पड़े और हिदायत की कि खुदा से मगफिरत तलब करो _," और ये कहते हुए अपना हाथ फ़ुज़ाला के सीने पर रख दिया और उसका दिल ठिकाने आ गया, फ़ुज़ाला का बयान है कि हुजूर ﷺ ने जब अपना हाथ मेरे सीने से उठाया तो खुदा की मख़लूक में मेरे लिए हुजूर ﷺ से बढ़ कर और कुछ मेहबूब ना रहा,*

*"❀_ फ़ुज़ाला इसी क़ल्बी इंकलाब से गुज़र कर घर चले गए, फ़ातेह मक्का बल्की फ़ातेह अरब के ख़िलाफ़ एक शख़्स क़त्ल का इरादा बांध कर आता है और उसकी बारगाह से नई ज़िंदगी ले कर रवाना होता है, क़ुरैश और यहूद और मुनाफ़ीक़ीन सबके सब अपनी चालें चलते रहे, मगर अल्लाह ताला ने अपना वादा पूरा कर दिखाया और आखिर दम तक अपने बंदे और रसूल की हिफ़ाज़त फरमायी,*
■* ⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙══⊙               
        *⚂ _ हलाकत अंगेज़ गद्दारियां _⚂*   
     ─━━━════●■●════━━━─
*❥❥_ऊपर हमने मदीना की इस्लामी दुश्मन ताक़तों की जिन शरारतों का ज़िक्र किया है वो अख़लाक़ी और क़ानूनी लिहाज़ से संगीन जुर्म में शुमार की जाती हैं और अगर उन पर सख़्त तरीन कारवाई की जाती तो दीन व सियासत के बेहतरीन उसूले अद्ल के ऐन मुताबिक़ होती, मगर हुजूर पाक ﷺ ने बड़ा ही ठंडा और साबिराना रवैय्या अख्तियार किया,*

*"❀_ जिस तहरीक के सामने असल मक़सद इंसानियत की अख़लाक़ी इस्लाह व तामीर हो वो इक़्तिदार की तलवार और क़ानून के डंडे का सहारा नहीं ले सकती, इंसानों के ज़हन व किरदार की तब्दीली का काम तलवारों और कोड़ों से कभी भी नहीं होता, अक़ली दलील और अख़लाक़ी अपील से होता है, इस राह में गुस्से के बजाय तहम्मुल और इन्तेक़ाम के बजाय सब्र ज़्यादा कारगर होता है,*

*"❀_इंसानियत के मोहसिने आज़म ने तारीख की फ़िज़ाओं को हुस्ने अख़लाक़ से रोशन करना चाहा, मुख़ालिफ़ों की ज़्यादतियों, साजिशों और फ़ितनो पर आला तरीन दर्जे का सब्र दिखाया, इतनी बड़ी अफ़ु (माफ़ी) और इतनी बड़ी चश्म पोशी की मिसाल तारीख़ में कहीं नहीं मिलती,*

*"❀_ लेकिन मुखालिफ ताक़तों ने भी जुर्म व शरारत की आखिरी हद को छुए बगैर दम ना लिया, उन्होंने एक बार नहीं बार बार बागियाना गद्दारी के खुले खुले कदम उठाए, लेकिन उनके इन जुर्मो के मुक़ाबले में भी हद दर्जे का तहम्मुल दिखाया और आखिर दम तक ये कोशिश जारी रखी कि दुश्मन ताक़त की हक़ शराफत बेदार हो जाए, उसकी सोचने की ताक़त जाग उठे, वो मक़ुलियत (समझ बूझ) की तरफ मुड़ जाए और एक बार दूसरी बार तीसरी बार संभल जाए,*

*"❀_मगर जो लोग टेढ़े रास्ते पर पड़ गए थे उनकी आंखे नामुरादी के गढ़े में गिरने से पहले पहले नहीं खुल सकी,*

*❥❥_ कुरैश मक्का ने अब्दुल्लाह बिन उबई को कार आमद तरीन आदमी पाकर उसे एक ख़ुफ़िया ख़त भेजा और उसके ज़रिये मदीना के फ़ासिद और कमज़ोर लोगों को अपने असर में लेने के लिए एक पैगाम भेजा, लिखा कि'-*
*"❀_ तुम लोगों ने हमारे आदमी (यानी मुहम्मद ﷺ) को अपने यहां पनाह दी है और हम खुदा की क़सम खा कर कहते हैं कि या तो तुम उसे मार डालो या मदीना से निकाल बाहर करो, वर्ना हम सब मिल कर तुम्हारे खिलाफ़ चढ़ाई करेंगे और तुमको क़त्ल करेंगे और तुम्हारी औरतों को अपने लिए सामाने इशरत बनाएँगे _," (सुनन अबू दाऊद)*

*"❀_ अब्दुल्लाह बिन उबई अगर ईमानदार और शरीफ़ शहरी होता तो वो फ़ौरन इस ख़त को हुज़ूर ﷺ तक पहुंचाता और उसकी दिली ख्वाहिश ये होती कि कुरैश की धमकी के मुक़ाबले में सारे मदीना के जज़्बात गैरत को सफ आरा कर दिया जाए, लेकिन गद्दारी तो उसकी रूह में रची बसी थी, वो अपनी महरूमी इक़्तिदार का इन्तेक़ाम लेने के लिए इस पर तुल गया कि कुरैश का इरादा पूरा कर दिया जाए,*

*"❀_लेकिन ये राज़ बहुत जल्दी खुल गया और हुज़ूर ﷺ को बतला दिया गया, ख़ुद अब्दुल्लाह बिन उबई के पास तशरीफ़ ले गए और उसे समझाया कि तुम लोगों के अपने ही बेटे, भतीजे, और भांजे अपनी पूरी कुव्वते शबाब के साथ दीने हक़ की अलंबरदारी कर रहे हैं और अगर कोई ऐसी वेसी सूरत पैदा हो गई तो तुम देखोगे कि तुम्हारी ही औलादें तुम्हारे मुक़ाबले में खड़ी हैं, तुम्हें अपने ही बच्चों से लड़ना होगा_,"*

*"❀_अब्दुल्ला बिन उबई की समझ में ये बात बैठ गई और वो अपने मंसूबे से बाज़ आ गया,*

*❥❥_ वाज़े रहे कि जंगे बदर के बाद कुरैश ने फिर ऐसा ही एक खत अब्दुल्लाह बिन उबई को भेजा था, इसी फितनेगर ने एक निहायत ही नाज़ुक मौक़े पर सख्त गद्दारी का काम ये किया कि जब बनू नज़ीर की बार बार की वादा खिलाफी और तखरीबी हरकतों पर इस्लामी रियासत की तरफ से उनको दस रोज़ के अंदर मदीना की हुदूद से निकल जाने का हुक्म हुआ और वो इसके लिए तैयारी भी करने लगे,*

*"❀_ तो अब्दुल्लाह बिन उबई ने उनको कहला भेजा कि खबरदार! इस हुक्म की तामील ना करना और अपनी बस्ती को ना छोड़ना, हम दो हज़ार आदमियों की फौज ले कर आ रहे हैं और फिर ये उम्मीद भी दिलाई कि एक तरफ बनु क़ुरेज़ा तुम्हारी मदद करेंगे और दूसरी तरफ बनु गतफ़ान तुम्हारे हलीफ़ हैं,*

*"❀_चुनांचे बनू नज़ीर ने हुज़ूर ﷺ को कहला भेजा कि हम यहां से नहीं जा सकते, आपका जो जी चाहे करें, बिल आख़िर इस्लामी हुकुमत को अपना हुक्म मनवाने के लिए फ़ौजी कारवाई करनी पड़ी,*

*"❀_ फिर इसी शख़्स ने जंगे उहद के इन्तेहाई नाज़ुक और फैसला कुन मौक़े पर ये गुल खिलाया कि जब इस्लामी फ़ौज मदीना से निकल कर शौत के मुका़म पर पहुंची तो ये तीन सो मुनाफिकी़न को ले कर मदीना लौट गया, ये हरकत इस्लामी फ़ौज की पीठ में छुरा घोपने के बराबर थी, कहता ये था कि जब हमारी राय पर अमल नहीं किया जाता और अख्तियारात दूसरों के हाथों में हैं तो हम अपनी गर्दनें क्यूं कटवाएं,*
*"_ दर असल अब्दुल्लाह बिन उबई की राय ये थी कि मदीना से बाहर ना निकले,*


*❥❥_गद्दाराना साज़ बाज़ के लिहाज़ से दूसरी नुमाया शख्सियत अबू आमिर की थी, हम मस्जिद ज़रार के सिलसिले मे इसका तार्रुफ़ करा चुके है, इस फ़ितनागर ने जंगे बदर के बाद नबी करीम ﷺ की फतेह से जल भुन कर मक्का का सफ़र किया और अबु सूफियान से मिल कर कुरैशी सरदारों को इंतक़ाम के लिए भड़काया,*

*"❀_जंगे उहद की आग को दहकाने मे इसका भी हिस्सा था, ये खुद भी कुरैशी लश्कर के साथ मैदाने जंग मे इस गुरूर के साथ उतरा कि मेरे कहने पर क़बीला औस के लोग इस्लाम का साथ छोड़ कर कुरेश की तरफ आ जाएंगे, उसने मैदाने जंग मे औस वालो को पुकारा मगर उसको वो जवाब मिला कि दिमाग दुरुस्त हो गया,_ और तो और खुद उसके फरजंद हजरत हंज़ला रज़ियल्लाहु अन्हु निहायत इखलास और जांनिसारी से सरवरे आलम ﷺ के इशारों पर सर कटाने को तैय्यार खड़े थे,* 

*"❀_ फिर उहद के बाद ये हिरक़क़ल रोम के पास पहुँचा ताकि वहां से फौजे चढ़ा लाये, इधर मुनाफिकी़न को पूरा भरोसा दिलाया था कि तुम तैय्यार रहना मै फौज ले कर आ रहा हूं,* 

*"❀_ इस शख्स का एक कारनामा ये भी है कि इसने मुक़ामे हुनैन के क़रीब हुज़ूर ﷺ को अज़ियत देने के लिए गढ़े ख़ुदवाए थे, चुनांचे आप ﷺ एक गढ़े मे गिरे और बहुत चोटें आई_,*

*❥❥_गद्दाराना सरगरमियों का तीसरा बड़ा इमाम काब बिन अशरफ था और इसका तज़किरा भी पहले हम कर चुके हैं, इस शख़्स ने एक तरफ़ मदीना में वज़ीफ़े जारी कर के किराये के फित्तू पैदा कर रखे थे, और दूसरी तरफ़ मक्का वालों को मदीना पर हमला करने के लिए भड़काता था, इस मक़सद के लिए उसने अपने असर व रुसूख, अपने फन और अपनी दौलत को खूब इस्तेमाल किया,*

*"❀_इसकी साज़िश से अबू सुफियान और दूसरे लोगों ने गिलाफे काबा को थाम कर बदर का इंतक़ाम लेने का हलफ लिया, इस साज़िशी माहोल ने इस्लामी जमात को खास हिफाज़ती इंतेजामात अख्तियार करने पर मजबूर किया, हुजूर ﷺ रातो को जागा करते थे और अपने सहाबा को बारी-बारी पहरे पर मामूर करते,*

*"❀_ इसी दौर का वाक़िया है कि एक बार आप ﷺ ने मजलिस आम में फरमाया- आज कोई अच्छा आदमी पहरा दे, ये इरशाद सुन कर साद बिन अबी वका़स रजियल्लाहु अन्हु ने हथियार लगाए और रात भर पहरा दिया, हाल ये था कि सहाबा सुबह तक हथियार लगाये सोया करते थे,*

*"❀_ और ग़ालीबन यही वो दौर है, जिससे हुज़ूर ﷺ का ये इरशाद ताल्लुक़ रखता है कि- ख़ुदा की राह में एक दिन का पहरा देना दुनिया और माफ़ीहा के मुक़ाबले में बेहतर है_,"*
*"❀_ और ये कि- (खुदा की राह में) एक दिन रात का पहरा देना महीने भर के (निफ़्ली) रोज़ो और शबाना (रात की) क़याम नमाज़ से अफ़ज़ल है _,"*
 *®_रियाज़ुस सालेहीन_,"*

*❥❥_यूं तो मदीना मे नबी करीम ﷺ ने दस बरस का जो ज़माना गुज़ारा है उसका ज़्यादातर हिस्सा ऐसा ही नाज़ुक और हंगामी सूरते हालात छाई रही, लेकिन हक़ व बातिल का आपस में टकराव जब भी (थोड़े थोड़े वक़्फो पर ऐसा बार बार होता रहा) जंग की सूरत अख्त्यार करती, यहूद और मुनाफिकी़न गद्दाराना हरकतों में लग जाते,*

*"❀_ उहद का वाक़िया हम ऊपर बयान कर ही चुके हैं कि इस्लामी फ़ौज मैदाने जंग की तरफ़ मार्च कर रही है और रास्ते मे साज़िशियों का सरदार अब्दुल्ला बिन उबई 300 आदमियों को अलग कर के वापस ले जाता है, अगर हुज़ूर ﷺ और आपके जांनिसार की जगह कोई दुनियावी ताक़त इस सूरतें हालात से दो चार होती कि तीन हज़ार दुश्मनों वाले मुक़ाबले पर जाने वाले कुल एक हज़ार हों और उसमे से भी तीन सो आदमी यकायक अलग हो जाएं और बक़िया सात सो मे भी कुछ अफ़राद सर अंगेज़ी के लिए घुले मिले रह जाएं तो शायद वहीं दिल टूट जाते और हिम्मत जवाब दे जाती,*

*"❀_ चुनांचे बनु सलमा और बनू हारिसा के लोग दिल शिकस्ता हो कर वापसी की सोचने लगे थे, लेकिन सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के हिम्मत बंधाने से रुक गए, मगर खुदा पर ईमान, रूह में सदाक़त की बरतरी का ऐन अख़लाक़ी कुव्वत की कामयाबी का तसववुर और गैबी इमदाद पर भरोसा इस्लाम के अलमबरदारो का असल सरमाया था, और वो इसी इरादे के साथ मैदाने उहद की तरफ बढ़ते चले गए,* 

*"❀_ फिर मैदाने उहद मे ऐसा सख्त वक़्त भी आया और नबी करीम ﷺ की शहादत की ख़बर उड़ी तो मुनाफ़िकीन ने इस तजवीज़ के लिए हामी पैदा करना चाहे कि अब्दुल्लाह बिन उबई की मन्नत समाजत कर के उसे आमादा किया जाए कि वो अबू सूफियान से अमान ले दे,*

*❥❥_फिर इस मौके पर मुसलमानो को अल्लाह ताला ने उनकी कमज़ोरियो पर गिरफ़्त करने के लिए एक तरह की जो शिकस्त दी थी, उस पर उन लोगो ने ये कहना शुरू किया कि मुहम्मद (ﷺ) अगर नबी होते तो क्यूं शिकस्त खाते, ये तो दुनियावी हुक्मरानों का सा मामला हुआ कि कभी जीत हो गई कभी हार,*

*"❀_ इस प्रोपोगंडा के नतीजे उन्ही मुसलमानों के अंदर शुबहात पैदा हो भी गए, बाज़ लोग इस तरह सोचने लगे कि हम जब खुदा की राह में लड़ने गए थे और खुदा के पैगम्बर की क़यादत में थे तो फिर आखिर हमें हार क्यों हुई ? इसका जवाब देते हुए कुरान ने कहा कि -( आले इमरान -165) ये मुसीबत तुम्हारी अपनी ही लाई हुई है (यानी तुम्हारी बाज़ कमज़ोरियां रंग लायी है)*

*"❀_ और मुनाफ़ीक़ीन ने सबसे बढ़ कर अपने जौहर जंगे अहज़ाब (गज़वा खंदक़) के मौक़े पर दिखाए, मैदाने बदर के अव्वलीन जंग में क़ुरैश की क़ुव्वत को गहरी चोट लग चुकी थी, उसका इंतेक़ाम लेने के लिए उन्होंने बड़ी तैयारियों से फ़ौज कशी की और 5 हिजरी में वो अपनी और अपने सारे हामियों और मदीना के साज़िशियो की क़ुव्वते मुज्तमा कर के और मुख़्तलिफ़ क़बा'इल को उकसा उकसा कर लाए, गोया हर तरफ़ से लश्करो (अहज़ाब) ने आ कर मुसलमानों को घैर लिया,*

*"❀_ये बड़ा ही फैसला कुन मोरका था और इसके बाद कुरैश और दूसरे दुश्मनाने इस्लाम का ज़ोर टूट गया, जंगे अहज़ाब के ख़ात्मे के दिन ही दर हकीकत फ़तेह मक्का का दरवाज़ा खुल गया था, इस्लामी तहरीक के पासबानो को सबसे ज्यादा इज़त्राब अंगेज़ हालात इसी मौके पर पेश आए, मगर हक़ के अलंबरदारों के लिए अल्लाह ताला की ताईद खास थी, इसलिए एक तरफ खंदक की नई हिफाज़ती तदबीर दूसरी तरफ कुरैश और बनू क़ुरेज़ा की साज़िश तोड़ने में नईम बिन मसूद का हकीमाना कमाल, तीसरी तरफ हुजूर ﷺ और आपकी तरबियत याफ्ता क़ाएदीन और पूरी जमात का मज़बूत मुजाहिदाना किरदार और चौथी तरफ़ मशीअत की भेजी हुई आँधी ने ये नतीजा दिखाया कि दुश्मन यकायक मैदान से इस तरह रुखसत हो गया जैसे पल भर में बदलियां छट जाती है,*

*❥❥_ फिर एक मौका गज़वा तबूक का है, मुनाफिक़ीन ने हिरक़क़ल रोम के दरबार में पहुंच कर उसको उकसाने की कोशिशें की थी, खबर उड़ी कि हिरक़क़ल ने 40 हजार का लश्कर मदीना पर हमला करने के लिए रवाना कर दिया है , हालात कुछ अजीब थे,*

 *"❀__क़हत का जमाना था, दरख्तो में फल तैयार थे, मौसम सख्त गर्म था, फौज बड़ी तादाद में ज्यादा फासले पर रवाना की जानी थी, मगर मालियत का पहलू कमज़ोर था और सवारी, साज़ व सामान और नान व नफ्का़ की हद दर्जा क़िल्लत थी, इसलिए इसे "जैशे इसरत" का नाम भी दिया गया है,*

*"❀__मुनाफ़िकीन ने इस हालात को देख कर और ये अंदाज़ा कर के कि इस लड़ाई में गनीमत का माल हाथ आने का कम ही इमकान है, अदमे ता'वुन की पोलिसी अख़्तियार की और झूठे उज़्र ग़ढ ग़ढ कर बैठे रहे,*

*"❀__ अलजद बिन क़ैस ने आ कर हुज़ूर ﷺ से कहा कि लोग जानते हैं कि मुझे औरतों की तरफ बहुत ज़्यादा रगबत है और मैं डरता हूं कि बनी मरियम अलसफ़र की औरतों को देख कर फ़ित्ने में मुब्तिला न हो जाऊं लिहाज़ा मुझे माज़ूर रखिये,*

*"❀__ ये लोग खुद तो रहे ही थे, हर किसी से कहते फिरते थे कि खुदा खुदा करो दीवाने हो गए हो, इस झुलसती गर्मी में तुम जंग करने चले हो, उन्होंने एक अड्डा सोलीम यहूदी के मकान पर बना रखा था, इसमे लोग जमा होते तो उनको गज़वा में जाने से रोकते, आखिर इस अड्डे का नापाक वजूद ही खत्म कर दिया गया,* 

*❥❥_फ़िर लश्कर की रवानगी के बाद इन लोगों ने एक और फ़ितना पैदा कर दिया, हुज़ूर ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को अहले बैत की देख भाल के लिए बतौर ज़ाती ना'इब के छोड़ा था, ये लोग कहने लगे कि आज कल मुहम्मद ﷺ की तबियात हज़रत अली के बारे में ठीक नहीं है इसलिए इनको साथ नहीं लिया,*

*"❀_हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु की गैरत को इस नश्तर ने उभार दिया और हथियार लगा कर हुज़ूर पाक ﷺ से जा मिले और मुनाफ़ीक़ीन की शर अंगेज़ी का क़िस्सा बयान किया, हुज़ूर ﷺ ने उन्हें समझा बुझा कर वापस भेजा कि मदीना में उन लोगों से खतरा है,*

*"❀_ तबूक पहुंच कर साथ जाने वाले मुनाफिकी़न (और कुछ न कुछ तादाद फितना अंगेजी के लिए हमेशा शरीक होती थी) ने हक़ के सिपाहियों को ये कह कर डराना शुरू किया कि बनु असगर के शेरदिल जंग आज़माओ को तुम लोगों ने अरबों पर क़यास कर रखा है, कल तुम पर अपनी गलत फहमी का हाल खुल जाएगा जबकि तुम सबके सब गुलाम बन कर जकड़े जाओगे, इन लोगों से पूछताछ की गई तो कहने लगे कि हम तो मज़ाक में कुछ बातें कर रहे थे कोई संजीदा मामला ना था,*

*"❀_रोमी लश्कर तो आया ही नहीं था, लेकिन इस क़िस्म से एक तरफ रोमियो को अंदाज़ा हो गया कि मदीना पूरी तरह से चौकन्ना है और हमारे मुक़ाबले पर आने की ताक़त रखता है, दूसरी तरफ अयला, जरबा और दोमता अलजुंदुल के इलाक़े ज़ेरे असर आ जाने से बेरूनी हमले के इम्कानात कम हो गए,*

*❥❥__इस (तबूक के) सफ़र में दो मोक़ो पर हुज़ूर ﷺ ने चश्मे से बिला इजाज़त पानी पीने से फ़ौज को मना कर दिया था, लेकिन बाज़ मुनाफ़ीक़ीन ने हुक्म उदूली कर के अपने दिली रोग को ज़ाहिर कर दिया, इसी सफ़र में उक़बा के मुक़ाम पर हुज़ूर ﷺ को क़त्ल कर देने की नापाक नाकाम साज़िश की गई, जिसका हाल हम बयान कर चुके हैं, अहले निफ़ाक़ की इतनी गद्दारियों और साज़िशों के बावजूद हुज़ूर ﷺ इस मुहीम में कामयाबी हासिल कर के वापस हुए और बड़ी शान से आप दरगुज़र करते गये,*

*"❀_तीन मुखलिस साथी काब बिन मालिक, हिलाल बिन उमय्या और मुर्राह बिन रबीआ जो गफ़लत की वजह से रह गए थे, उन्होन एतराफ तसव्वुर किया और उनको पचास दिन तक हुक्मे इलाही के इंतज़ार में मआशरे से अलग रहना पड़ा , इस इम्तेहान से ये लोग इस खूबी से गुज़रे कि उन्होंने अपने आपको ज़रे किरदार से माला माल कर लिया, उनकी भी तौबा कुबूल हुई,*

*"❀_मगर मुनाफिकी़न कहते थे कि अजब बेवकूफ लोग हैं, हमारी तरह कोई उज़्र कर देते, ख्वाह मख्वाह आपने आपको वबाल में डाल लिया है, अब भुगतो _,"*

*"❀_ अंदाज़ा कीजिए कि इस्लामी रियासत और इस्लामी तहरीक को कैसे संगीन हालात का सामना करना पड़ा और तमाम इंसानियत को फलाह का रास्ता दिखाने वाली हस्ती को पेरवाने मूसा और उनकी उम्मत के मुनाफिकी़न के हाथों केसी गद्दाराना कारवाइयों से साबका़ पेश आया, मगर इस्लामी रियासत का फ़ैलाव बढ़ता ही गया, तहरीक हक़ की रोशनी फ़िज़ा में फ़ैलती ही चली गई और मुहम्मद ﷺ का पैग़ाम गूंजता ही चला गया, इखलास फूला फला मगर गद्दारियों के झाड़ झंकाड़ फल तो क्या देते उनकी जड़े ही कट गई,*
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*⚂ _ क़ुरेश की ज़लील इंतक़ामी हरकात _⚂*   
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*❥❥_ मदीना के इब्तिदाई दौर में जंग छिड़ने से पहले क़बीला औस के मुमताज़ सरदार सा'द बिन मा'ज़ रज़ियल्लाहु अन्हु उमरा करने के लिए मक्का मुअज्ज़मा गए, उमैया बिन ख़ल्फ़ से चूंकी उनके पुराने ताल्लुक़ात थे, इसलिए उनके यहां क़याम किया, वो उमैया को ले कर काबा का तवाफ़ करने गए,*

*"❀_ इत्तेफ़ाक़न अबू जहल भी उधर आ निकला, उसने पुकार कर उमैया से पूछा कौन है तुम्हारे साथ? उमैया ने बताया कि साद हैं, अबू जहल ने गुस्सा हो कर कहा कि तुम लोग बद मज़हबी लोगों को पनाह देते हो, फिर सा'द से कहा कि मैं ये बर्दाश्त नहीं कर सकता कि तुम काबा में क़दम रख सको, अगर तुम उमय्या की हिमायत में ना होते तो आज ज़िंदा बच कर जा ना सकते_,"*

*"❀_देखिए कि सियासी इंतक़ाम का जज़्बा कुरैश के एक लीडर को यहां तक ले आया है कि वो खुदा के घर के दरवाज़े उसके बंदो पर बंद करता है और उनको एक इबादत से महरूम करना चाहता है, गोया काबा भी इन लोगों की एक जागीर थी और हरम की तोलियत को उन्होंने दर हक़ीक़त अपनी सियासी कुव्वत का ज़रिया बना रखा था,*

*"❀_इधर साद बिन मा'ज़ रज़ियल्लाहु अन्हु भी कोई दरवेश तो थे नहीं, उनके अंदर इस्लाम की रूह हमियत कार फरमा थी और वो मदीना की सियासी कुव्वत के मानी जानते थे, उन्होंने मुख्तसर लफ्ज़ो में ऐसा जवाब दिया कि अबू जहल और कुरेश के सामने एक बड़ा खतरा नमुदार हो गया, साद ने कहा- अगर तुमने हमको हज से रोका तो हम तुम्हारा मदीना का (तिजारती) रास्ता रोक देंगे_,"*

*❥❥_दूसरे लफ़्ज़ों में ये कुरैश की मा'शी शाह रग को काट देने की धमकी ने सारे मक्के को चोंका दिया, बाद में मदीना की पोलिसी साद बिन मा'ज़ रज़ियल्लाहु अन्हु के इसी क़ौल के मुताबिक़ तशकील पाई और कुरैश बेबस हो कर आखिरी बाज़ी खैल जाने पर तैय्यार हो गए,*

*"❀_अबू जहल जज़्बात में आ कर कहने को तो ये कह गया, लेकिन इस बेजा धमकी से कुरैश के असर को सख्त धक्का लगा, कुरान ने उनकी हरम की ठेकेदारी को जिसके बल पर वो खुदा के बंदो को खुदा के घर ( खाना काबा) मे दाख़िल होने से रोक रहे थे, भरपूर तनक़ीद का निशाना बनाया, मुख़्तलिफ़ मौक़ो पर ये आयात नाज़िल हुई,*

*"❀_ और इससे बढ़ कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह के मा'बदो में उसके नाम की याद से रोके और (इस तरीक़े से) उनकी वीरानी के दरपे हो_," (सूरह बक़रा-114)*
 *"❀_लोग पूछते हैं कि माहे हराम में लड़ना कैसा है? कहो इसमें लड़ना बहुत बुरा है, मगर राहे खुदा से लोगों को रोकना और अल्लाह से कुफ्र करना और मस्जिदे हराम का रास्ता खुदा परस्तो पर बंद करना और हरम के रहने वालो को वहां से निकालना अल्लाह के नज़दीक इससे भी ज़्यादा बुरा है _," (अल बक़रा - 317)*
*"❀_लेकिन अब क्यों न वो (यानी अल्लाह ताला) उन पर अज़ाब नाज़िल करे, जबकी वो मस्जिदे हराम का रास्ता रोक रहे हैं, हालांकि वो मस्जिद के जाइज़ मुतवल्ली नहीं हैं _," (अल अनफ़ाल-32)*

*"❀_ और क़ुरान की ये बात तमाम अरब में आहिस्ता आहिस्ता फैलती गई और कुरैश की मज़हबी धाक का ज़ोर कम होता गया, खुद सुलेह हुदेबिया (ज़िलक़ा'दह 6 हिजरी) के मौक़े पर क़ुरैश ने मुआहिदे का बड़े पैमाने पर मुज़ाहिरा किया ,*

*❥❥_सरवरे आलम ﷺ ने फक़त उमरा के इरादे से ये सफर किया, कोई नफीर जंग नहीं हुई, रज़ा काराना तौर पर उमरा के लिए निकले, कुर्बानी के जानवर साथ लिए गए और जंगी ज़रूरत से असलहा बंदी के बैगर महज़ मामूली हिफाज़ती हथियार के साथ क़ाफ़िला रवना हुआ,*

*"❀_ ज़ुल हुलेफ़ा के मुक़ाम पर मशहूर मुक़र्ररा श'आर के मुताबिक़ क़ुर्बानी के ऊंटों को निशान ज़द किया गया और उनके गले में क़लादे डाले गए, इससे एक नज़र में देखने वाले को अंदाज़ा हो सकता था कि ये ऊंट हरम में कुर्बानी पेश करने के लिए ले जाए जा रहे हैं, ये जंगी सवारियां नहीं हैं,*

*"❀_रास्ते में मुखबिर बशर बिन सुफियान के ज़रिये इत्तेला मिल गई कि बनी काब बिन लुवई जंगी तैयारी कर रहे हैं और किसी क़ीमत पर हरम में न जाने देंगे, हुदेबिया पहुंच कर हुजूर ﷺ ने पैगाम भेजा कि हम लड़ने नहीं आये, उमरा करने आये हैं,*

*"❀_ बदील बिन वरका़ खुज़ाई ने समझाइश की कोशिश की, फिर अमरू बिन मसूद ने बात चीत को आगे बढ़ाया, इसके बाद कनाना का एक शख्स हलीस बात चीत करने के लिए बीच में आया, उसने अपनी आँखों से जब क़लादे वाले ऊंटों का एक सैलाब वादी में देखा तो उसकी आंखें डबडबा गईं, और उसने अपना ये तास्सुर कुरैश से बयान किया, तो उन्होंने ये कह कर उसकी बड़ी हौसला शिकनी की कि तुम देहाती आदमी इन मामलों में क्या जानो, हलीस को इस पर बड़ा रंज हुआ,*

*"❀_उसने कहा - ए कुरैश! हमारा तुम्हारा ये मुआहिदा नहीं, ना इस पर हमनें हलिफ़ाना ताल्लुक़ क़ायम किया है, क्या ख़ुदा के घर से ऐसे शख़्स को रोका जाएगा जो उसकी शान बढ़ाने के लिए आया है, क़सम है उस ज़ात की जिसके हाथ में हलीस की जान है, तुम मुहम्मद (ﷺ) को मौक़ा दो कि जो कुछ वो करना चाहते हैं करें, वरना हम अपने तमाम गिरोहों को वापस ले जाते हैं,*

*❥❥_कुरैश ने मुआहिदा हुदेबिया की ज़िम्मेदारियों को बाला ताक़ रख कर बनू बकर को हथियार भी फराहम किये और रात की तारीकी में छुप छुप कर ख़ुज़ा'इयों से लड़े, बनी ख़ुज़ा'आ ने हरम में जा कर पनाह ली और बनु बकर के सरदार को पुकार कर कहा कि, ए नोफिल! देखो अब हम हरम में दाखिल हो चुके हैं, अब बाज़ आ जाओ... खुदा के लिए! खुदा के लिए!!*

*"❀_मगर वो फ़तेह के नशे में बहक रहा था, उसने कहा- "आज कोई ख़ुदा नहीं, ए बनु बकर! अपना पूरा पूरा बदला लो! क्या हरम के अहतराम में अपनी इज़्ज़त का इंतका़म लेना फरामोश कर दोगे _,"*.
*"❀_चुनांचे उन ज़ालिमो ने हरम में ख़ूनरेजी की और कुछ खुज़ाई बा मुश्किल जाने बचा कर बदील बिन वरका़ और उसके गुलाम राफे के मकान में जा छुपे,*

*"❀_ कुरैश ने कबाइली रकाबतो (मुखालफतों) के तहत जज़्बाती हैजान में आ कर ये बड़ी हिमाकत की कि जिसका खामियाजा उन्हें नक़दा नक़द भुगतान पड़ा, यही वाक़िया फ़तेह मक्का का मुहर्रिक हुआ, कुरैश ने क़त'न न सोचा कि तहरीके इस्लामी की लम्हा बा लम्हा आगे बढ़ती हुई ताक़तवर रो के मुक़ाबले में उनकी कुव्वत अख़लाक़ी और सियासी दोनों लिहाज़ से हद दर्जा गिर चुकी है और उनको फूंक फूंक कर क़दम रखना चाहिए,*

*"❀_अमरू बिन सालिम खुज़ाई मदीना रवाना हो गए और सरवरे आलम ﷺ के हुजूर में जा कर बनू बकर और कुरैश के ज़ुल्मों का दुखड़ा सुनाया, हुजूर ﷺ मस्जिद में मजलिस में तशरीफ रखते थे, अमरू बिन सालिम ने अरबी रिवायत के मुताबिक अपनी दर्द भरी दास्तान को दिल शगाफ अशआर में बयान किया,*

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*❥❥_ नबी करीम ﷺ ने जवाब दिया- तुम्हारी इमदाद की जाएगी, अब कुरैश की आंखे खुली कि हमने कैसी हलाकत अंगेज हरकत कर डाली, और अबू सुफियान डरा डरा मदीना पहुंचा कि तजदीदे अहद कराए, वहां वो ऐसी हौसला शिकनी फिज़ा से दो चार हुआ कि जिसका वो शायद तसव्वुर भी ना रखता होगा,*

*"❀_वो अपनी बेटी उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे हबीबा रज़ियल्लाहु अन्हा के घर में जा कर बिस्तर पर बैठने लगा तो बेटी ने लपक कर बिस्तर उठा दिया कि तुम मुशरिक हो कर खुदा के रसूल के पाक़ बिस्तर पर नहीं बैठ सकते,*

*"❀_ फ़िर वो हज़रत अबू बकर सिद्दीक, हज़रत उमर और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हुम जेसे मुमताज़ सहाबा से जा कर मिला और हर एक से मदद हासिल करना चाही, यहाँ तक कि उसने हज़रत फातिमा ज़ोहरा रज़ियल्लाहु अन्हा को भी रसूलुल्लाह ﷺ की खिदमत में सिफ़ारिश के लिए कहा और जब ये भी ना हो सका तो चाहा कि इमाम हसन रज़ियल्लाहु अन्हु (बचपने की हालत के बावजूद) ही को हज़रत फातिमा इसकी इजाज़त दे दें,*

*"❀_कोई सूरत न पा कर बद हवासी में उसने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के मशवरे के मुताबिक़ मुसलमानों के मजमे में अपनी तरफ से एक तरफा जवार (यानि मुसलिहाना ज़िम्मेदारी) का ऐलान कर दिया और बगैर हुजूर ﷺ की तरफ से जवाबी कु़बुलियत हासिल किये मक्का वापस चला गया,*
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               *⚂ _ फतेह मक्का _⚂*   
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*❥❥_अबू सुफियान ना मुराद लौटा और चंद ही दिन बाद यकायक मक्का ने देखा कि एक अज़ीम लश्कर उसके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है,*

*"❀_जल्द ही हुजूर ﷺ ने एलान कर दिया कि सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम तैय्यार हो जाएं और अपने घर में भी नज़्म दिया कि हथियार तैय्यार कर दें, लेकिन ये अम्र बिल्कुल राज़ में रखा कि किधर का इरादा है हत्ताकी हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा को भी इल्म न हो सका, जिन्होंने अपने हाथों से हुजूर ﷺ के लिए असलहा तैयार किये थे,*

*"❀_ ग़ालिबन क़यास से बाज़ लोगों ने अंदाज़ा कर लिया होगा कि मक्का पर चढ़ाई होने वाली है, क्योंकि इतना बड़ा लश्कर किसी और तरफ ले जाने की कोई वजह नहीं थी, हातिब बिन अबी बलता रज़ियल्लाहु अन्हु के अहलो अयाल मक्का में घिरे हुए थे और चुंकी उनका कोई क़बीला हिमायत के लिए ना था, इसलिए उन्हें बचाने के लिए मदीना की तैयारी का हाल एक खुफिया खत के ज़रिये कुरैश को लिख भेजा ताकि वो अहसान की बिना पर उनके अहलो अयाल से त'अरुज़ (सामना) ना करे,*

*"❀_इसके साथ वो ये समझते थे कि इस इत्तेला के बावजूद इस्लामी फौज की फतेह यकी़नी है और उनका खत नतीजे के ऐतबार से कोई बड़ा नुक़सान इस्लाम को न पहुंचा सकेगा, इस वाक़िये से अंदाजा होता है कि किस तरह खारजी हालात और ज़हनी तास्सुरात में घिर कर कभी कोई सालेह तरीन आदमी से भी इंतेहाई दर्जे की लग्ज़िश हो सकती है,*

*"❀_ हुजूर ﷺ को इस खुफिया खत का इल्म इल्मे इलाही से हुआ और आपके फरिस्तादों (का़सिदो) ने मक्का जाने वाली एक औरत की चोटी से उसे बरामद किया, इतनी बड़ी खता से हुजूर ﷺ ने इसलिये दरगुज़र फरमाई कि हातिब मुखलिस थे, बदरी सहाबी थे, ईमान और हुस्ने किदार रखते थे और यह एक लग्ज़िश उनसे तकाज़ा ए बशीरत हो गई थी,*

*❥❥_ हुजूर ﷺ ने 10 हजार सिपाहियों का अज़ीम लश्कर साथ ले कर 10 रमज़ान को मदीना से कूच किया, आप ﷺ ने एक अज़ीम फौजी जर्नल की हैसियत से ऐसा हैर फैर का रास्ता अख्तियार किया कि कुरैश की जो गश्ती टोली देखभाल के लिए निकली थी, वो किसी और तरफ मारी मारी फिरती रही और आपकी मुस्लिम फौज ने यकायक मक्का के सामने जा पड़ाव डाला,*

*"❀_हुजूर ﷺ जम'आ पहुंचे तो आपके चाचा हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु मय अहलो अयाल आ मिले, फ़िर मुक़ामे अबवा में पहुंचे तो अबू सुफियान बिन हारिस बिन अब्दुल मुत्तलिब (ये दूसरे अबू सुफियान हैं जो हुज़ूर ﷺ के चाचा ज़ाद भाई भी थे और हलीमा सादिया के वास्ते से रज़ाई भाई हैं) और अब्दुल्लाह बिन अबी उमैया (हुजूर ﷺ के फूफिजा़द भाई और उम्मुल मोमिनीन हजरत उम्मे सलमा रजियल्लाहु अन्हा के सोतेले भाई) ने हाज़िर हो कर बारगाह में हाजरी की इजाज़त मांगी,*

*"❀_ इन्होंने क़रीबी अज़ीज़ हो कर इस्लाम की मुख़ालफ़त में जो शदीद अज़ियाते हुज़ूर ﷺ को दी थीं उनकी बिना पर आप ﷺ ने मिलने से इंकार कर दिया, अबू सुफियान ने आलमे पास में कहा कि अगर माफ़ी ना मिले तो मैं बाल बच्चों को अरब के आतिशी रेगिस्तान में ले जाऊंगा, और हम सब भूखे प्यासे रह कर मर जायेंगे,*

*"❀_ हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने भाई की सिफ़ारिश की और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने दोनों को मशवरा दिया कि हज़रत युसूफ अलैहिस्सलाम के भाईयों के अल्फ़ाज़ में माफ़ी तलब करें, चुनांचे उन्होने जा कर वही कहा- बा खुदा! अल्लाह ने आपको हम पर बरतरी बख्शी और वाक़ई हम ख़ता कार थे, हुज़ूर ﷺ का दिल इन अल्फ़ाज़ से पिघल गया और आपने भी वही हज़रत यूसुफ अलैहिस्सलाम वाला जवाब दिया - तुम पर आज के दिन कोई गिरफ़्त नहीं है, ख़ुदा तुम्हें माफ़ करे और वो रहम करने वालो में सबसे बढ़ कर रहम करने वाला है _,*

*❥❥_मर अल्जो़हरान के मुक़ाम में पहुँच कर जब फ़ौजी कैम्प लगाया गया तो बतौर मसलीहत रात को सरवरे आलम ﷺ ने हुक्म दिया कि हर सिपाही अपने लिए अलहैदा आग़ रोशन करे, अबु सूफियां बिन हर्ब, हकीम बिन हुज़ाम और बदील बिन वरका़ जेस अकाबिर देख भाल के लिए निकले, बुलन्दी से 10 हजार चुल्हो को रोशन देखा तो कुरैश सकते मे रह गए कि इतना बडा लश्कर मक्का के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है,*

*"❀_ पास ही से हजरत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु गुज़रे, आवाज़ पहचान कर अबु सूफियान को पुकारा, बात चीत हुई, हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने बतया कि हज़रत मुहम्मद ﷺ अपनी फ़ौज ले कर आ पहुँचे, अब कुरैश की खैर नहीं,*

*"❀_अबू सुफ़ियान ने पुछा कि अब चारा कार क्या है, उन्होंने कहा कि मेरे साथ खच्चर पर बैठ जाओ और चल के हुजूर ﷺ से बात चीत की जाये, फ़िर आगे बढ़े तो फ़ौजी तरीक़े से क़दम क़दम पर सिपाहियों ने पुछा- कौन जा रहा है? हजरत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु तार्रुफ कराते तो रास्ता मिल जाता ,*

*"❀_ क़रीब पहुंचे तो हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने देख लिया और अबु सूफियान को पहचान कर पुकार उठे कि ओ दुश्मने खुदा ! आज तुझ पर काबू मिला, दौड़े दौड़े क़त्ल की इजाज़त लेने रसूलुल्लाह ﷺ की खिदमत में गये, हजरत अब्बास रज़ियलल्लाहु अन्हु ने भी खच्चर तेज़ कर लिया, हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने पहले पहुँच कर अपनी बात की और हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपना नज़रिया बताया कि मै अबू सूफ़ियान को पनाह दे कर लाया हूं,* 

*"❀_ और मक्का का सबसे बड़ा सरदार हालात से मजबूर हो कर इस्लाम के दायरे में दाखिल हो चुका था, हजरत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु हुजूर ﷺ के इरशाद से अबू सूफियान को एक टीले पर ले गये ताकी वो एक बार लश्करे इस्लाम की अज़मत का मंजर देख ले, अबु सूफियान हर दस्ते के बारे मे पूछते जाते, सा'द बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु उस मुक़ाम से गुज़रे तो सिपाहियाना जोश में आ कर पुकार उठे - आज घमसान का दिन है, आज के दिन काबा का माहोल लड़ाई के लिए खोल दिया जाएगा,*

*❥❥_आख़िर में हुज़ूर ﷺ की सवारी सादगी की शान के साथ गुज़री जिसके आगे आगे ज़ुबेर बिन अवाम अलम उठाए हुए थे, हुज़ूर ﷺ को साद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु के नारे का इल्म हुआ तो फ़ौरन उनसे अलम वापस ले कर उनके बेटे के सुपुर्द करा दिया और फरमाया कि आज का दिन काबा की अज़मत का दिन है, और दुआ और माफ़ी का दिन है _,"*

*"❀_फिर ये एलान आम कर दिया गया कि जो कोई भी मस्जिदे हराम में दखिल होगा या अबू सुफियान के घर में चला जाएगा और जो कोई भी मुक़ाबले के लिए हथियार ना उठाएगा उसके लिए अमन है, बाशर्ते कोई काबिले तज़ीर ( सज़ा) जुर्म का मुजरिम ना हो,*

*"❀_खुद अबू सुफियान ही ने मक्का में आगे बढ़ कर इस एलान को बा आवाज़ बुलंद पुकारा, ये सुन कर हिंद बिन उक़बा (जो़जा अबू सुफियान) उसकी मूंछ खींच कर चिल्लाई कि ऐ बनी कनाना! इस कमबख्त को क़त्ल कर दो, ये क्या बक रहा है, वो गालियां देती रही, लोग जमा हो गए, अबू सुफियान ने कहा कि अब ऐसी बातों से कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि मुहम्मद ﷺ का मुक़ाबला करने की ताब अब किसी में नहीं,*

*"❀_जब शहर में हुज़ूर ﷺ का दाखिला हुआ तो दुनिया भर के फ़ातेहीन के बर अक्स सर मारे आजिज़ी के ख़ुदा के सामने इस तरह झुक रहा था कि पेशानी कजावे को छू रही थी और ज़ुबान सूरह फ़तेह की तिलावत में मसरूफ़ थी,*

*❥❥_हुजूर ﷺ के इस अफू व करम को देख कर अंसार में बाज़ लोगों ने ये बात फैलाई कि आखिर आप ﷺ पर अपनी क़ौम और अपने वतन की मुहब्बत गालिब आ ही गई, दर असल उनको ये अंदेशा हुआ कि कहीं मोहसिने इंसानियत ﷺ उनसे जुदा हो कर अब मक्का वालो मे ना रहने लगें, और वो अपनी मेहबूब हस्ती के क़ुर्ब से महरूम हो जायें,*

*"❀_आप ﷺ ने उनसे खिताब किया और फरमाया - खुदा की क़सम ! ऐसा नहीं है, मैं खुदा का बंदा और उसका रसूल हूं, मैंने खुदा की तरफ और तुम्हारी तरफ हिजरत की, अब मेरा जीना मरना तुम्हारे साथ है_ , अंसार पर रिक़्क़त तारी हो गई ( रोने लगे)और उन्होंने मा'ज़रत तलब की, ख़ुदा और रसूल ने उनकी मा'ज़रत क़ुबूल की,*

*"❀_ पहले आप ﷺ उस तारीखी़ मुकाम ख़ैफ़ में गए जहां क़बीले के साथ नज़र बंदी के दिन गुज़ारे थे, फ़िर हरम पहुंचे, ख़ासुल ख़ास सहाबा का एक हल्का साथ था, हजरे असवद का इस्तेलाम किया, हाथ मे कमान लिए हरम में नसब शुदा एक एक बुत के पास जा कर पुकारते "हक़ आ गया और बातिल मिट गया, और बातिल को तो मिटना ही है_," (बनी इसराईल -81)*

*"❀_ कमान के इशारे से एक एक बुत गिर गया, फिर काबा की चाबियां मंगा कर दरवाज़ा खुलवाया, अंदर हजरत इब्राहीम और इस्माईल अलैहिस्सलाम की तस्वीर बनी थी, और उनके हाथों में पांसे के तीर दिखाये गये थे, उनको मिताने का हुक्म देते हुए फरमाया कि खुदा कुफ्फार को गारत करे, ये दोनों खुदा के पैगम्बर थे और उन्होंने जुवा कभी नहीं खैला था, बाद में आपके हुक्म से वो सारे अस्नाम (बुत) भी तोड़ डाले गए जो मुद्दतो से आस पास नसब थे,*

*❥❥_फिर आप ﷺ नमाज़ व ज़िक्र में मसरूफ रहे, मस्जिद के सामने आम हुजूम जमा था और लोग अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए मुज़तरब थे, उनसे आपने खिताब फरमाया - एक खुदा के सिवा कोई इला नहीं, उसका कोई शरीक नहीं, उसने अपना वादा सच्चा कर दिखाया, उसने अपने बंदे को मदद दी, उसी अकेले ने तमाम लश्करों को शिकस्त दी, आज तमाम किब्र व गुरुर, खून के तमाम दावे, माल के तमाम मुतालबे मेरे क़दमों के नीचे हैं, अलबत्ता हरम काबा की तोलियत और हिजाज की आब रसानी के ओहदे इससे मुस्तशना हैं,*

*"❀_ए कुरैश! अब खुदा ने तुम्हारे जहिलियत के गुरुर और नसब के फख्र को मिटा दिया, तमाम इंसान आदम की औलाद हैं और आदम मिट्टी से पैदा किए गए_",*
*"❀_ फ़िर क़ुरान की आयत पढ़ी - (तर्जुमा) लोगों मैंने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया है और तुम्हें क़बीलो और खानदानों में इसलिए तक़सीम किया है कि तुम आपस में पहचाने जाओ, लेकिन मो'अज्जिज खुदा के नज़दीक वही है जो परहेज़गारी में पेश पेश हो, बिला शक अल्लाह दाना और बा ख़बर है _," (अल हुजरात-13)*

*"❀_ फिर एक क़ानूनी एलान किया- ख़ुदा ने शराब की ख़रीद फ़रोख़्त हराम कर दी है _,"*
*"❀_ फिर हुज़ूर ﷺ ने पूछा - तुमको मालूम है कि तुमसे क्या सुलूक करने वाला हूं? इन अल्फ़ाज़ के गूंजते ही ज़ुल्म, किब्र, तशद्दुद और ख़ूंख़ारी की वो सारी गंदी तारीख़ कुरैश की निगाहों के सामने से एक फ़िल्म की तरह गुज़र गई होगी, जिसे उन्होंने 20-21 बरस में तैयार किया था, उनके ज़मीर फट जाने को होंगे,*

*"❀_ बेबसी और नदामत के आलम में वो लोग पुकार उठे, तू शरीफ भाई है और एक शरीफ भाई का बेटा है_," जवाबन आवाज़ आई- तुम पर आज कुछ गिरफ़्त नहीं, जाओ तुम सब आज़ाद हो_,"*

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*❥❥_ क्या कुरैश की तारीख़ ज़ुल्म और जंग को सामने रखते हुए कोई मुखलिस भी इस जवाब की तवक़्क़ो कर सकता है? मगर जो कोई भी उस रहमते आलम ﷺ की शाने करीमी को समझता हो वो हुज़ूर ﷺ से इस जवाब की उम्मीद बांधेगा, कोई और होता तो आज अकड़ कर मक्का में दाखिल होता, एक एक वाक़िए का इंतका़म लेता, चुन चुन के उन अफ़राद को तलवार का लुक़मा बनाता जिन्होनें ज़रा भी कोई ज़्यादती की होती,*
 .
*"❀_लेकिन फ़ातेह चुंकी मोहसिने इंसानियत ﷺ थे, इसलिए उन्होंने इंसानों को फ़तेह करना चाहा और ज़मीन पर क़बू पाने से बढ़कर दिलों को जीतने की कोशिश की, यहाँ तक कि मुहाजिरीन से कहा कि वो अपने अपने मकान और मालों से दस्तबरदार (छोड़ कर दूर) हो जायें,*

*"❀_ शान ए लुत्फ़ व अहसान का इससे बड़ा मुजा़हिरा क्या होगा कि काबा की चाबियां क़यामत तक के लिए उन्ही उस्मान बिन तल्हा को तफ़वीज़ (सुपर्द की) फरमायी जिनसे एक बार दरे काबा खुलवाने की ख्वाहिश हुज़ूर ﷺ ने दावत के इब्तिदाई दौर में की तो उन्होंने सख्ती से इंकार कर दिया था,*

*"❀_ इस मौके पर आप ﷺ ने मुस्तक़बिल पर निगाह जमाते हुए उस्मान से फरमाया, एक दिन आएगा कि ये चाबियां मेरे अख्तियार में होंगी और मैं जिसे चाहूंगा तफवीज़ (सुपर्द) करूंगा_,"उस्मान की निगाह इतनी दूर रस कैसे होती, उन्होंने कहा- शायद उस रोज़ तमाम लोग हलाक हो चुके होंगे _,"*
 *"फरमाया-नहीं! वो तो कुरैश की सच्ची इज्ज़त का दिन होगा_,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने चाबियां देते हुए जब उस्मान बिन तल्हा को बरसो पहले की वो बात बतौर लतीफ़ा याद दिलाई तो वो पुकार उठे, कि "बेशक आप अल्लाह के रसूल हैं _,"*
*"_आपने फरमाया कि आज का दिन नेकी और वफ़ा का दिन है_,"*

*❥❥_ इसके बाद हुजूर ﷺ के हुक्म से हजरत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने काबा पर चढ़ कर अज़ान दी, ये अज़ान गोया इस्लामी इन्क़लाब की कामायाबी का ऐलान था, वही काबा जहाँ खुदा के बंदो के लिये खुदा का नाम पुकारना जुर्म बन गया था और इससे रोक्ने के लिए कितनी ही सख़्तियां हुज़ूर ﷺ और हुज़ूर ﷺ के साथियो ने झेली, आज उसकी बुलंदियो से बा आवाज़ बुलंद अल्लाह की बड़ाई पुकारी जा रही थी और कोई कु़व्वत ना थी जो रोक सके,*

*"❀_ इस लम्हे अबू सूफियान बिन हर्ब,उताब बिन उसैद और हारिस बिन हिशाम जैसे सरदार काबा के क़रीब एक कोने में बैठे अपनी हारी हुई बाज़ी का तसव्वुर कर रह थे, उताब ने जले दिल से कहा कि ख़ुदा ने उसैद को इस आवाज़ के सुनन के लिए ज़िन्दा ना रखा, हुज़ूर ﷺ इन लोगों के पास पहुंचे और जो जो बातें उन्होंने की थी उनके सामने दोहरा दी, ये लोग शर्मिंदा हुए ,* 

*"❀_फिर हुजूर ﷺ ने उम्मे हानी के मकान पर गुस्ल कर के 8 रका'त बतौर शुक्राना फतेह पढ़ी, फतेह के दूसरे रोज़ कोहे सफा पर से हुजूर ﷺ ने दूसरा ख़िताब आम फ़रमाया, पहले अल्लाह की हम्द व सना की और फ़िर मुख़्तसर कलमात में हरम की हुरमत को बयान किया और उसे हमेशा के लिए क़ायम कर दिया और उसके अहकाम बयान किए,*

*"❀_ यूं तो आम माफ़ी का ऐलान कर दिया और इस ऐलान ने दिलो को ऐसा मुसख्खर किया कि किसी में मुक़ाबले की ताक़त ना रही लेकिन ख़ास मुजरिमों के बारे में नाम लेकर आपने फरमा दिया कि ये लोग जहाँ भी पाए जाएं क़त्ल कर दिये जाएं, इन मुजरिमों की फ़ेहरिस्त मे चंद मर्दो और चंद औरतों के नाम शामिल थे, लेकिन हुज़ूर ﷺ ने उनमे से भी अकसर की जान बख्शी कर दी,*

*❥❥__ एक तहक़ीक़ी राय ये भी है कि सिर्फ एक शख्स अब्दुल उज्जा़ को हलाक़ किया गया, ये मुखलिस मुसलमान हुआ, सदक़ात की वसूली के लिए एक मुस्लिम साथी के साथ में इसे भेजा गया, सफर ही में झगड़ा हुआ और मुस्लिम साथी को क़त्ल कर के और सदके़ के मवेशियों को साथ ले कर भाग आया, दूसरे भारी भारी फ़ौजदारी जराइम इसके ज़िम्मे थे,*

*"❀_ सफवान बिन उमैय्या इस्लामी तहरीक के कट्टर मुखालिफ़ो में थे, भाग कर यमन जाते हुए जद्दा पहुंचे थे कि उमैर बिन वहाब जमही हुज़ूर ﷺ से माफ़ी की मंज़ूरी ले कर जद्दा से वापस लाए, बाद में इस्लाम अख़्तियार किया,*

*"❀_इकरमा बिन अबू जहल भी यमन भाग गए थे, इनकी ज़ोजा उम्मे हकीम बिन्ते हारिस (अबू जहल की भतीजी) खुद मुसलमान हुईं और अपने शोहर के लिए हुज़ूर ﷺ से माफ़ी की मंज़ूरी ली, ख़ुद जा कर लाईं, इकरामा को जब माफ़ी की ख़ुश ख़बरी मिली तो उन्हें सख्त ताज्जुब हुआ कि उनके जैसे मुखालिफ़ को भी मुहम्मद (ﷺ) ने माफ़ कर दिया, हाज़िर हुए और इस्लाम क़ुबूल किया,*

*"❀_ अब्दुल्ला बिन साद बिन अबी सराह मुसलमान थे और किताबत वही (वही लिखने) का मौका भी मिला था, मगर बागी हो कर मुखालिफ मुहाज़ से तावुन करने लगे, यहां तक कि इन्होनें ये दावा भी किया कि वही तो दर असल मुझ पर आती थी, मुहम्मद (ﷺ) तो मुझसे सुन कर लिखवा लेते थे, जुर्म सख़्त था लेकिन हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु की तरफ़ से बा इसरार सिफ़ारीश होने पर हुज़ूर ﷺ ने बा हैसियत हाकिम ए आला उनको माफ़ी दे दी, माफ़ी के बाद फिर ये मुसलमान हुए,*

*❥❥_मुकी़स बिन सबाबा (या सबाना) मुनाफिकाना तौर पर इस्लामी जमात में शरीक हुआ और धोखे से एक अंसारी को क़त्ल कर के भाग आया था, उसके इस कदम की वजह ये थी कि मुकी़स का भाई उस अंसारी के हाथों मारा गया था, हुज़ूर ﷺ ने उसकी दैत (जुर्माना) दिलवा दी, इसके बावजूद उसने अंसारी को क़त्ल किया, इरतेदाद और फरेब दही के अलावा तन्हा ये क़त्ल का जुर्म ही सज़ा ए मौत के लिए काफी वजह जवाज़ था,*

*"❀_हिबार बिन असवद वो शख़्स हैं जिसने दूसरी मुखालिफ़ाना हरकतों के अलावा हज़रत जेनब रज़ियल्लाहु अन्हा पर हिजरत के वक़्त हमला कर के इतनी अज़ीयत दी थी कि उनका हमल साक़ित हो गया, पहले छुपा रहा, फ़िर ख़ुद ही पेश हो कर आज़ीज़ी से अपने कुसूर का एतराफ किया और रसूलल्लाह ﷺ की खिदमत में सख्त शर्मिंदगी का इजहार किया, साथ ही कलमा इस्लाम की कुबुलियत का एलान किया, हुजूर ﷺ ने फरमाया - मैंने हिबार को माफ कर दिया _,"*

*"❀_ हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु का क़ातिल वहशी सामने आया और इस्लाम क़ुबूल किया, हुज़ूर ﷺ ने उससे हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु के क़त्ल का हाल सुना, उसका जुर्म भी माफ़ किया और उसे मशवरा दिया कि तुम मेरे सामने न आया करो कि इससे ज़ख्म ताज़ा होते हैं,*
*"❀_ये शख़्स इस्लाम लाने के बाद जंगे यरमूक में शरीक हुआ और इसका खास कारनामा ये है कि मुसेलमा कज़्ज़ाब को इसने तीर से हलाक किया, कहता था कि मैंने सबसे अच्छे आदमी को क़त्ल कर के जो गुनाह किया है, अब सबसे बुरे आदमी को क़त्ल कर के कफ्फारा अदा कर दिया है,*

*"❀_ अब्दुल्ला बिन जुबैरी मशहूर जाहिली शायर जिसने शायर की कुव्वत को इस्लाम के खिलाफ आग भड़काने में इस्तेमाल किया था, पेश हुआ और इस्लाम लाया, माफ़ी दे दी गई, काब बिन जुबेर ने भी इस्लामी तहरीक और उसके दाई के खिलाफ़ शायरी का मुहाज गरम रखा था, 9 हिजरी में अपने भाई के साथ हाज़िर हुआ, इस्लाम क़ुबूल किया और तलाफ़ी के सच्चे जज़्बे से क़सीदा पेश किया, हुज़ूर ﷺ ने माफ़ी दी और अपनी चादर इनाम में अता फरमायी,*

*❥❥_क़यामे मक्का ही के ज़माने में एक बार हुजूर ﷺ खाना काबा का तवाफ कर रहे थे कि फ़ुज़ाला बिन उमैर छुप कर क़त्ल के इरादे से आए, हुजूर ﷺ खुद ही पास जा पहुंचे और उसके दिल की बात बता दी, फ़ुज़ाला इस गिरफ़्त पर शर्मशार हुए, आप ने इस्तगफ़ार के लिए कहा और उनके सीने पर हाथ फैरा, उनके दिल की दुनिया बदल गई, क़त्ल के इरादे के मुजरिम से ये सुलूक और किसी से तवक्को़ हो सकती है?,*

*"❀_औरतों में सबसे बड़ी मुजरिमा हिंदा बिन्ते उक़बा थी, जिसने सरगर्मी से मुखालफतें की थी और हजरत हमजा़ रज़ियल्लाहु अन्हु का मुसला किया था, बल्की उनका कलेजा चबा गई थी, चेहरा छुपाने के लिए नकाब पहन कर हाज़िर खिदमत हुई, हालात से मजबूर हो कर ये इस्लाम कुबूल करने आई, लेकिन इस लम्हे भी ढिटाई से अजीब अजीब टेढ़ी बाते हुजूर ﷺ से की, फिर ये गुस्ताखाना अंदाज़े कलाम कोई भी दूसरा होता तो गवारा ना करता,*

*"❀_ चंद मर्दों और औरतों के मुताल्लिक़ हदीस और कुतुबे सीरत की रिवायत में खास इख्तिलाफ है, लेकिन किसी का सज़ा ए मौत पाना साबित नहीं किया जा सकता, ऐसे कट्टर दुश्मनों के लिए ऐसे अफू (माफ़ी) की मिसाल इस दर्जे की फ़तेह कामिला हासिल करने के बाद किसी और की जिंदगी से तारीख़ पेश नहीं कर सकती,*

*"❀_ सरज़मीन ए मक्का की फ़तेह से बढ़ कर अज़ीम फ़तेह ये थी कि हुज़ूर ﷺ मक़ामे सफ़ा की बुलंदी पर बैठे थे और लोग जोक़ दर जोक़ आ कर इस्लाम क़ुबूल कर रहे थे, उनसे तोहीद व रिसालत के इक़रार के साथ ख़ुसूसी तौर पर बाज़ राइजुल वक़्त की बुराइयों को छोड़ने का अहद भी लिया जाता,*

*"❀_बैत के अजज़ा ये हैं - मैं ख़ुदा के साथ किसी को भी उसकी ज़ात और उसकी सिफ़ात और इबादत और इस्त'आनत (मदद मांगना) के इस्तेहक़ाक़ (हक) में शरीक ना करूंगा, चोरी ना करूंगा, ज़िना ना करूंगा, खून ए नाहक़ ना करूंगा, लड़कियों को हलाक ना करूंगा, किसी पर बोहतान ना लगाऊंगा, नेकी के दायरे में हस्बे इस्तेता'त खुदा के रसूल की इता'अत करूंगा_,*

*❥❥_ 15 रोज़ या कमो बेश क़याम रखने के बाद जब मक्का से हुजूर ﷺ रवाना हुए तो असल तामीरी काम के लिए तरीक़ माज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु को मामूर किया कि वो लोगों को इस्लामी निज़ामे हयात इस्लामी अक़ा'इद इस्लामी अख़लाक़ इस्लामी क़ानून और इस्लामी सक़ाफ़त (तेहज़ीब) की तालीम दें,*

*"❀_ इस्लामी अदलिया (इंसाफ़) का निज़ाम आपके अपने हाथो हद जारी करने के इस मशहूर वाक़िए से हुआ, जिसमे फातिमा बिन्ते अबी अल-असद को चोरी के जुर्म में बड़े सिफ़ारिशी दबाव को रद कर सज़ा दी गई,*

*"❀_ हुनैन और ताइफ से फारिग होने के बाद मक्का आ कर हुजूर ﷺ ने उताब रज़ियल्लाहु अन्हु बिन उसैद को नाइब हाकिम मुक़र्रर किया और एक दिरहम यौमिया का मुआवजा इनके लिये तैय कर दिया,*

*"❀_फतेह मक्का, तेहरीके इस्लामी की तारीख का अज़ीम तरीन वाक़िया है, अब गोया निज़ामे हक़ के रास्ते से सबसे बड़ी रुकावटी ताक़त हट गई थी, अरब की पुरानी जाहिली क़यादत का झण्डा झुक गया तो फिर निज़ामे जाहिली का बरक़रार रहना और जाहिलियत के गिर्द अवाम का सिमटे रहना मुमकिन ना रहा, आवामुन्नास की बहूत सी पेचीदगियां फतेह मक्का ने खत्म कर दी,*

*"❀_बहुत से क़बाइल इस्लाम की तरफ बढ़ने से इसलिये माज़ूर थे कि कुरैश के साथ या तो उनके हलिफ़ाना ताल्लुक़ात थे या मा'शी तौर पर वो उनके हाथो क़र्ज़ दार थे, या उनकी समाजी बरतरी से मरऊब (दबे हुए) और मज़हबी लिहाज़ से उनकी पैरवी को मजबूर थे, कुरैश की अज़मत का बुत टूट गया तो उनके रास्ते साफ़ हो गए,*

*❥❥__बहुत से अवामी हल्कों में ये ऐतक़ाद फैला हुआ था कि मक्का में सिर्फ वही गालिब रह सकता है जिसने खुदा की ता'ईद हासिल हो, और जो ताक़त हक़ पर ना हो उसे मक्का में फ़रोग़ हासिल नहीं हो सकता, इस तरह का ऐतक़ाद अबरहा के हमले के बाद से बहुत मज़बूत हो गया और लोग ये समझते थे कि कुरैश मक़बूले इलाही हैं _,*

*"❀_ चुनांचे लोग कहा करते थे कि, उसे अपनी क़ौम से निमट लेने दो, अगर उसने क़ौम को ज़ेर कर लिया तो वो नबी सादिक़ है, इस एतक़ाद के मुताबिक ही अब राय आम इस्लामी तहरीक बन गई, ना सिर्फ मक्का के लोगों ने बल्की आस पास के क़बीलों के वफूद ने आ कर ख़ुशी ख़ुशी अपने आपको इस्लामी तहरीक का ख़ादिम और मुहम्मद ﷺ की क़यादत का पेरू बनाया, अब दावती और तालीमी काम के लिए मैदान बिल्कुल साफ़ हो गया और एक एक मुसलमान के हर तरफ मौक़ा निकल आया कि वो तहरीक़ हक़ का पैगाम अवाम तक पहुंचाए, अब कोई रुकावट डालने वाला नहीं था,*

*"❀_ फ़तेह मक्का का असर दूसरे क़बीलों पर तो ये पड़ा कि उनके वफ़ूद नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में आ आकर इस्लामी तहरीक के साया दामन में दाख़िल हो गए लेकिन बनु हवाज़िन और बनु सक़ीक पर फ़तेह मक्का का उल्टा असर पड़ा, क्यूंकी एक तरफ उन्हें अपनी अफरादी कसरत, अपनी मआशी ताकत और अपनी जंगी महारत पर बड़ा भरोसा था और दूसरी तरफ इस्लामी इंकलाब के रद अमल में बढ़ कर मुसलसल मुखालिफाना और हरीफाना कारवाई करने की वजह से वो अब अपनी शाने मजाहमत की तकमील पर मजबूर थे,*

*"❀_ उन्होंने आख़िर मोरका लड़ने के लिए अपनी सारी कुव्वत हुनैन या अवतास नामी वादी में (ताइफ़ और मक्का के दरमियान) समेट ली थी, सिर्फ बनू काब और बनू किलाब ने पूरी तरह अलहैदगी अख़्तियार की थी, सरवरे आलम ﷺ को बनू हवाज़िन की तैयारियों का हाल मालूम हुआ, आपने अब्दुल्लाह बिन अबी हदरद की बतौर जासूस भेज कर तस्दीक़ी मालूमात हासिल की,*
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               *⚂ _ मोरका हुनैन _⚂*   
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*❥❥_ अब मुक़ाबले के लिए तैयारी होने लगी, जंगी ज़रुरियात के लिए हुज़ूर ﷺ ने अब्दुल्लाह बिन रबी'आ से 3 हज़ार दिरहम की रक़म क़र्ज़ ली, और सफवान बिन उमैया रईसे मक्का से असलहा जंग (ख़ुसुसन 100 ज़िरहें) मुस्तआर (उधार) लिए, इससे अंदाज़ा होता है कि मोहसिने इंसानियत ﷺ किसी गैर मामूली जंगी तैयारी के साथ नहीं निकले थे और आप ﷺ को पहले ही से किसी खूंरेज़ी का ख्याल ना था, मौक़े पर नई तैयारियों की ज़रुरत पेश आई,*

*"❀_कितना नादिर वाक़िया है कि एक फ़ातेह जिसने मुकम्मल तौर पर कुरैश को शिकस्त दी और उनसे माल और असलहा ज़बरदस्ती वसूल किया जा सकता था, लेकिन मका़मे अज़मत पर होते हुए भी अखलाकी़ उसूल का इतना पास था कि जो कुछ लिया क़र्ज़ लिया और मुस्तआर लिया, इस्लामी तहरीक का इम्तियाज़ इसकी यही अख़लाक़ी रूह है,*

*"❀_ शव्वाल 8 हिजरी में मुस्लिम फ़ौज 12 हज़ार की तादाद में मक्का से मार्च करती है, इंसान बहरहाल इंसान है, हक़ के इन सिपाहियों के दिलों में किसी न किसी सूरत से ये तास्सुर उभरा कि आज हम मक्का के फ़ातेह है, हमारी तादाद कसीर (ज़्यादा) है और हमारे साथ सामाने जंग बा फ़रात है, ज़ाहिर बात है कि ऐसा अहसास कमज़ोर करने ही का मोजिब होता है, उन लोगों को ख़याल न रहा कि वो शहंशाहे हक़ीक़ी के सिपाही हैं जिसे अपने बंदों की तरफ़ से गुरुर की एक रमक़ भी गवारा नहीं,*

*"❀_ इस तास्सुर पर चंद लम्हों के लिए ऐसी गिरफ़्त हुई कि तारीखी़ यादगार बन गई और क़ुरान ने इंसानियत के लिए इसे दुरुस्ते इबरत बना दिया, हुवा ये कि मुस्लिम फौज में अबकी बार मक्का से एक नया नव मुस्लिम नौजवान तबका़ शामिल हुआ था जो हज़रत ख़ालिद बिन वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु के ज़ेरे कमान थे, पहले ही हमले में जब अचानक हर तरफ से तीरों की बारिश हुई तो लश्कर बिखर गया, इसके साथ ही साथ घबराहट में मुस्लिम फौज के तमाम दस्ते मुंतशिर होने लगे, एक वक्त आया कि हुजूर ﷺ अपनी जगह पर तने तन्हा खड़े रह गये,*

*❥❥_ये लम्हा उन लम्हों में से एक है जिनकी नज़ाकत ने हुजूर ﷺ की अज़ीमत, यक़ीन और एतमाद की शहादत एक साथ पहुंचाई है, हिम्मत से साथियों को पुकारा और सवारी से उतर कर जलाल भरे अंदाज़ में फरमाया- मै सच्चा नबी हूं, मैं अब्दुल मुत्तलिब का बेटा हूं,*

*"❀_ हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने क़रीब ही से सदा बुलंद की, या मआशरल अंसार! या असहाबल शजराह! इतना सुनना था कि हर तरफ से मुसलमान लपके और अपने मरकज़े इस्तेक़ामत के गिर्द जमा हो गए, फ़िर जो लड़े तो आनन फ़ानन रंग बदल गया और दुश्मन के क़दम उखड़ गए, इस्लामी दस्तें ने बाज़ी जीत ली,*

*"❀_ ता'इफ बड़ा ही महफूज़ मुकाम था, क्योंकि उसके गिर्द फसील (चार दीवारी) मौजूद थी, लेकिन तरतीब ऐसी अख्तियार की कि ता'इफ पर हमला ऐसे रुख से किया गया जिधर से अहले ता'इफ को गुमान न गुज़रा होगा, हज़रत ख़ालिद बिन वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु एक दस्ता ले कर पहले रावना हुए, बाद में हुज़ूर ﷺ बा नफ़्स नफ़्सी पूरी फ़ौज ले के पहुंचे,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने सोचा कि ता'इफ इस्लाम के मातहत आए हुए अरब के दरमियान एक जजी़रा इख्तिलाफ बन कर तो रह नहीं सकता, इसे अगर इस वक्त़ मुसख्खर किया गया तो दो तरफा नुक़सान होगा और अगर छोड़ दिया गया तो हालात अहले ताइफ के अंदर रजा़काराना इता'अत का जज़्बा उभार देंगे, बल्कि दिलों के दरवाज़े इस्लाम के इंकलाबी नज़रिये के लिए खुल जायेंगे,*

*"❀_चुनांचे आपने दीन की मसलहत और अहले ता'इफ़ की फ़लाह को सामने रख कर मुहासरा (घेराव) उठा लिया, ये एक वाज़े तरीन सबूत है कि हुज़ूर ﷺ ख़ूंरेज़ी से बचने की कितनी फ़िक्र रखते थे, साथियों ने कहा कि आप उन लोगों के लिए बद दुआ कीजिए, मगर आपने ये दुआ की- ए अल्लाह! तू सकी़फ को सही रास्ते की हिदायत दे और उनको हमारे साथ मिला दे)*

 *"❀_ये दुआ उस ता'इफ के बाशिंदों के लिए की जा रही थी, जिसने पत्थर मार कर एक दिन हुजूर ﷺ के खून से अपनी गलियों की मिट्टी को लाल किया था, ये दुआ भी उसी रहमत भरे ज़हन की तर्जुमानी है जिसने कुव्वत से जहां भी काम लिया, चारह नाचार लिया, मगर जिसने माफी और अहसान के दरिया बहाने में कहीं भी कोताही नहीं की,*

*❥❥_ जोराना में बेशुमार माले गनीमत 24 हजार ऊंट, 40 हजार बकरियां, 4 हजार ओकिया चांदी जमा था, इसमे से कुरानी क़ानून के मुताबिक़ 5 वा हिसा मआशरे के हाजतमंद तबक़ो और इज्तिमाई ज़रुरतों के लिए बैतुल माल में लिया गया और बक़िया फ़ौज में तक़सीम कर दिया गया,*

*"❀_कुरान ने तालीफ़े क़ल्ब (दिलजोई) की जो मद (रक़म) रखी है, उसके तहत हुज़ूर ﷺ ने मक्का के बाशिंदो और उनके सरदारों को दिल खोल कर बहुत सा माल दिया, मक़सूद ये था कि उनके ज़ख्मो पर मरहम रखा जा सके, उनसे ज़्यादा बद नसीब उस वक्त़ आसमान के नीचे कौन होगा, जिनकी क़यादतों के तख्त उलट गए थे, और जिनके लिए तारीख़ की सारी फ़िज़ा ही ने रंग बदल लिया था, उनके अहसासात का आलम क्या हुआ होगा जब वो सरवरे आलम ﷺ के क़राबतदार होते हुए पिछली सफ़ो में खड़े थे, और अंसार और मुहाजिरीन हुज़ूर ﷺ के दस्तो बाज़ू बने हुए थे,*

*"❀_कैसा अजीब समां होगा कि अबू सुफियान, हकीम बिन हुज़ाम, नफ़र बिन हारिस, सफ़वान बिन उमैया, इक़रा बिन हाबिस और उन जैसे दूसरे अक़ाबिर उसी शख़्स के हाथों से आज अतियात हासिल कर रहे थे जिसे उन्होंने बरसो गालियां दी थी, झूठा कहा था, मज़ाक और तंज़ का निशाना बनाया था, बदनी अज़ियतें दी थी, क़ैद में डाला था, क़त्ल करना चाहा था, घर से निकाला था और जिसके खिलाफ़ तलवार उठा कर उसे अमन व चैन का एक लम्हा बसर करने का मौका ना दिया था, क्या इंसान नवाज़ी की ऐसी कोई मिसाल तारीख़ में कहीं मिलती है?*

*"❀_ अंसार ने जब दरिया ए करम को कुरैश के हक में इस तरह उमड़ते देखा तो उनके बाज़ नौजवान थोड़ी देर के लिए अदना जज़्बात की लपेट में आ गए, उनका तास्सुर ये था कि शायद हुज़ूर ﷺ नस्ली और वतनी ताल्लुक़ की बिना पर उन लोगों को नवाज़ रहे हैं और हमें पसे पुश्त डाल दिया है, कहा गया कि हक़ की हिमायत में जान जोखिमो में डालने के लिए तो हम हैं लेकिन दाद और बख्शीश के वक्त कुरैश मुक़द्दम हो गए हैं,*

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*❥❥_ यूं सोचने वालों ने ये ना सोचा कि हुजूर ﷺ ने अपने अहले बैत पर ये बारिश नहीं की थी, कुर्बानियां देने वाले क़राबत मंद मुहाजिरीन तक को नवाजा़ नहीं था, खुद कोई इम्तियाज़ी इस्तेफ़ादा नहीं किया था, तो फ़िर अगर कुरैश के साथ ये ख़ुसूसी सुलूक हो रहा था तो इसकी बुनियाद किसी अज़ीम मसलेहत पर होगी, बात हुज़ूर ﷺ तक पहुंची तो जेसे कि हम पूरा वाक़िया पहले बयान कर चुके हैं, एक शामियाना ताना गया और अंसार को जमा किया गया, हुजूर ﷺ ने उनके सामने दिल हिला देने वाली मुख्तसर तकरीर की,*

*"❀_तकरीर का आखिरी जुमला ये था कि, "ए अंसार ! क्या तुम्हें ये पसंद नहीं कि और लोग तो ऊंट और बकरियां ले जाएं और तुम मुहम्मद (ﷺ) को साथ ले जाओ_," अंसार की आँखों से आँसु बह बह कर डाढियों को तर कर रहे थे, आखिरी बात सुन कर वो चीख उठे कि हम को सिर्फ मुहम्मद ﷺ दरकार है_,"*
*"_फिर आप ﷺ ने उन्हें नर्मी से वो मसलहत समझाई जिसके तहत कुरैश की दिलजोई जरूरी थी,*

*❀_"इधर 6 हज़ार जंग के क़ैदी क़िस्मत के फ़ैसले के मुंतज़िर थे, हुज़ूर ﷺ पूरे 2 हफ़्तों तक मुंतज़िर रहे कि कोई उनके बारे में आ कर शायद बात करे, माले गनीमत की तक़सीम भी इसीलिये रोके रखी, मगर जब कोई ना आया तो तक़सीम अमल मे आ गई,*

*"❀_ तक़सीम के बाद हलीमा सादिया (हुजूर ﷺ की रज़ाई वालिदा) के क़बीले के मोअज़्जिज़ीन का वफ़द ज़ुबेर बिन सर्द की सरदारी में कैदियों के मुतल्लिक बात चीत करने हाज़िर हुआ, ज़ुबेर ने हुज़ूर ﷺ को मुखातिब बना कर बड़ी मोस्सिर तक़रीर की और कहा - जो औरतें छप्परो में महबूस (रखी गई) हैं, उनमे आपकी फूफियां हैं, उनमे आपकी खालाएं हैं, खुदा की कसम! अगर सलातीने अरब में से किसी ने हमारे खानदान मे दूध पिया होता तो उनसे बहुत कुछ उम्मीदें होती, आपसे तो हमें और भी ज़्यादा तवक्को़ हैं _,"*

*❥❥_हुजूर ﷺ ने वज़ाहत की कि मैं तो खुद मुंतज़िर था कि कोई आए, मजबूरन तक़सीम कर दी गई, अब जो क़ैदी बनी हाशिम के हिस्से में आए थे उनको मैं तुम्हारे हवाले करता हूं, बाक़ियों के लिए आम मजमे में नमाज़ के बाद बात करना, नमाज़ के बाद जुबेर ने अपनी दरख्वास्त दोहराई, आपने फरमाया - मुझे सिर्फ अपने खानदान पर अख्तियार है अलबत्ता मैं तमाम मुसलमानों से सिफारिश करता हूं _,'*

 *"❀_फौरन मुहाजिरीन व अंसार बोल उठे कि हमारा हिस्सा भी हाजिर है, सिर्फ बनी सुलेम और बनी फुजारा के लिए ये तजुर्बा बड़ा अनोखा था कि लड़ कर मफतूह होने वाले दुश्मन के कैदी मुफ्त में रिहा कर दिए जाएं, आखिर हुजूर ﷺ ने उनको 6 ऊंट फी कैदी दे कर बाक़ी को भी रिहा करा दिया, पूरे 2 हजार कैदी आज़ाद हो गए,*

*"❀_ मुताद्दिद क़ैदियों को हुज़ूर ﷺ ने कपड़े भी दिए, आम फ़ातेहीन के बा ख़िलाफ़ न सिर्फ़ क़ैदियों की जान बख्शी की बल्की बिला फिदिया उनको बतौर अहसान के रिहा कर दिया, असल मक़सद यहां लोगों को हलाक करना या गुलाम जमा करना नहीं था, मक़सद तो सिर्फ निज़ामे हक की अक़ामत और दिलों को इसके लिए हमवार करना था,*

*"❀_इस मुहिम से फ़ारिग़ हो कर आप ﷺ ने उमरा अदा किया और उताब बिन उसैद रज़ियल्लाहु अन्हु को मक्का की अमारत का मनसब सौंपा और मदीना वापस तशरीफ ले गए,*
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         *⚂ _मोहसिन ए इंसानियत ﷺ _⚂*   
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*❥❥_वो तमाम जंगी अक़दामात जो मदीना की इस्लामी हुकूमत की तरफ से अमल में आई, उन सारे मोरको को सामने रखिए और उन सियासी हालात को भी निगाहों में ताज़ा कर लीजिए जिनके तहत ये कारवाइयां वाजिब हो गईं थीं, तो तस्लीम किए बिना चारा नहीं कि एक ऐसे शख्स को जो हुसूले जाह व जलाल के बजाय महज़ हक़ और सच्चाई का फरोग (रोशनी) चाहता है, जो बाज़ोर शमशीर अपना असर पैदा करने के बजाए दलील और अखलाक़ से दुनिया को मुतास्सिर करना चाहता है, जो इंतेक़ाम के बजाय दरगुज़र से और तशद्दुद के बजाय लुत्फ़ व अहसान से काम लेता है,*

*"❀_ जो खून बहाने वाली तलवार के बजाय मुआहिदा (समझौता) लिखने वाले क़लम से मसाईल हल करने को तरजीह देता है, उसे इंक़लाबी दुश्मन हरीफों ने सख्त मजबूर कर के मैदाने जंग में तलब किया, कोई एक लम्हा ऐसा नहीं गुजरा कि वो चैन से बैठ सका हो, हैरत होती है कि इस आलम में हुजूर ﷺ ने कैसे वो अज़ीम तामीरी कारनामा सर अंजाम दे लिया जिसने तारीख़ के धारे का रुख बदल दिया और इंसानियत को एक नये नक्शे पर ढा़ल दिया,*

*"❀_वही हस्ती इस लिहाज़ से इंसानियत की अज़ीम तरीन मोहसिन है कि उसने सलामती के पैग़ाम को पूरे अरब में और फिर सारी दुनिया में पहुंचाने के लिए तलवारों की छाँव में से अपना रास्ता निकाला और इंतेहाई जंग पसंद हरीफ़ो की रुकावटों को तोड़ कर निज़ामे अदल को क़ायम किया और उसे तकमील दी,*

*"❀_देखो कि हमारी फ़लाह व बेहतरी के लिए हुज़ूर ﷺ किन अज़ियतों किन मुश्किलों, किन आवेज़िशो और किन तूफ़ानी हंगमो से गुज़रे और अज़ीमत आमूज़ अंदाज़ से गुज़रे, किस शुजाअत से हर हरीफ़ के चेलेंज को क़ुबूल किया और ज़ुल्म व फ़साद की हर ताकत के सर को झुकाया, बिखरे हुए कबीलों को एक कर दिया, उनको जाहिली क़यादत से निजात दिलाई, उनको तालीम व तज़किया से गुज़ारा, अमन का माहोल फराहम किया, कानून की अलंबरदारी क़ायम की, मुआशरे में भाई चारा और बराबरी की बुनियाद डाली, हुकुमत के लिए शूराइयत के उसूलो पर जम्हूरी दौर का आगाज़ कर दिया,*

*❥❥__हुजूर ﷺ के जंगी अक़दामात को देखें तो मोरका बदर से ले कर फ़तेह मक्का तक (फ़तेह ख़ैबर समेत) कुल पांच बड़े मोरके हुए, जो दर असल हक़ीक़त के लिहाज़ से सारे के सारे मुदाफ़'अना (हिफ़ाज़ती) ही थे, लेकिन इनमें से सबसे पहले तीन तो इसी सूरत में लड़े गए जबकि दुश्मन ने चढ़ाई कर के मदीना पर धावा बोला, ले दे कर दो ही कारवाईयां मदीना से खुद हुजूर ﷺ ने पेश क़दमी कर के की, यानी एक फतेह मक्का (हुनैन समेत) के लिए और दूसरी फ़तेह ख़ैबर के लिए,*

*"❀_बस इन दो ही अक़दामात में फ़ैसला हो गया, मुद्दत के लिहाज़ से देखें तो मोरका बदर से फ़तेह मक्का तक कुल ज़माना 6 बरस का है, हुज़ूर ﷺ ने अपने अज़ीम तबलीगी व तालीमी और तामीरी व इस्लाही कारनामे में 23 बरस की लंबी मुद्दत खपाई और इसमे से फ़क़त 6 बरस ऐसे हैं कि जिनमें तालीमे इंसानियत के मुख़्तलिफ़ कामों के साथ साथ हरीफ़ो की शमशीर जंग पसंद का मुक़ाबला भी मजबूरन करना पड़ा,*

*"❀_ इंतेहाई मुबालगा से अंदाज़ा करें तो भी सारे के सारे मोरको में मजमुई तौर पर 15 हज़ार से ज़्यादा अफ़राद हुज़ूर ﷺ का मुकाबला करने ना आये होंगे, उनसे सिर्फ 759 जानों के बदले अरब की कई लाख की पूरी आबादी संवर सुधर जाती है, 10 बरस के अरसे में जो तारीख की वुसअतो में बहुत ही मेहदूद दिखाई देता है, अरब जैसे सेहरा को जिंदगी के एक मदरसा ए फलाह में बदल देना और तमाम बिखरे हुए कबीलों और इंतेहाई वेहशी, सिरफिरे और जंगजू लोगों को इसमे दाखिल कर लेना और फिर उनको अज़ीम सच्चाइयों और पाकीज़ा अखलाक़ की तालीम देने में कामयाब हो जाना ना सिर्फ तालीम देना बल्कि पूरी इंसानियत के लिए उनको मुअल्लिम और मुरब्बी बना देना शायद हुजूर ﷺ की नबुवत का सबसे बड़ा हिम्मती मोअज्जा़ है ,*

*"❀_ और ये अम्र हर क़िस्म के शक व शुब्हा से बालातर हो जाता है कि इस्लाम की इंक़लाबी तहरीक के खिलाफ़ जाहिलियत की कश्मकश का फैसला होने मे जंगी मोरको का कितना भी असर पड़ा हो लेकिन बहरहाल फैसले का असल मैदान आम राय का मैदान था बल्की ज़रा रूहानी ज़ुबान में बात कहें तो दिलों का मैदान था, अरब के लाखों मर्द व ज़न मफ़तूह हुए तो इसी मैदान में दलील और अख़लाक़ के असलहा से मफ़तूह हुए,*
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            *⚂ _ दलील की कु़व्वत_⚂*   
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*❥❥_इस हक़ीक़त को वाज़े करने के लिए हम आखिरी क़िस्तों में ये बताना चाहते हैं कि हर तरफ़ से मुख़ालफ़तो और मुज़ाहमतो के नित नए तूफ़ानो के बावजूद ये कैसे मुमकिन हुआ के एक क़लील मुद्दत में 10-12 लाख मुरब्बा मील पर फैली हुई कसीर तादाद औलादे आदम इस्लामी निज़ामे हयात के साए में आ गई,*

*"❀_हकी़क़त ये है कि दावत अगर हक़ हो, तहरीक अगर इंसानी फलाह पर मुबनी हो और उसके अलंबरदार अगर मुखलिस और इसार पेश हों तो मुखालफतें और मुजा़हमतें हमेशा इंकलाबी काफिले के लिए नाफे का काम देती है, हर रुकावट एक संगे मील बन जाती है, रास्ते का हर काँटा रहबरी करने लगता है, यही वजह है कि सच्चाई अगरचे एक अक़लियत के साथ उभरती है लेकिन अक्सरियत को फ़तेह कर लेती है,*

*"❀_ आइए देखें कि तहरीके इस्लामी ने किन किन कुव्वतों से काम ले कर आम दायरे में तेज़ी से क़दम बढ़ाने के रास्ते बनाए,*
*"❀_(1)_ दलील की कुव्वत:- तहरीक इस्लामी की सबसे बड़ी कुव्वत दलील की कु़व्वत थी,*

*"❀_ तहरीक इस्लामी ने अपनी दावत पेश की तो सोती हुई अक़लों को चौंकाया, दिमागों को झंझोड़ कर बेदार किया, आंखे खोल कर देखने और कान खोल कर सुनने की तल्क़ीन की, निज़ामे कायनात में तदब्बुर करने की तरगीब दिलाई, ज़मीन और आसमान के अहवाल का तजुर्बा करने का सबक दिया, नित नए सवाल छेड़-छेड़ कर फ़िक्रो में तहरीक पैदा की, ज़ेहनी तक़लीद के बंधनों को तोड़ा, फ़िज़ूल रिवायतों और रस्मों के जाल पारा पारा किये, बाप दादाओं और पुराने ग़लत तरीकों को बातिल किया ,*

*"❀_ अलगरज़ इसने जहिलियत के मुसल्लत करदा अक़ली जंग को साफ कर दिया, इस तरह जो रूहें जागती गईं और जिन लोगों की अक़ले अंगडा़इयां ले कर उठने लगीं उनके सामने जिंदगी की बुनियादी सच्चाइयां रखीं और अपने इस्तदलाल के ज़ोर से एक के बाद एक उनको मुतास्सिर कर के छोड़ा,*

*❥❥_तहरीके इस्लामी ने खुदा ए वाहिद को खालिक, मालिक, राज़िक, हाकिम और हादी की हैसियत से पेश किया तो इस ज़ोर से पेश किया के जवाबी वहम कुंद हो कर रह गए, इसने इंसानी कुव्वते मुशाहिदा को एक कर के दावत दी कि जमीन व आसमान की जादूगरी पर निगाह डालो, चाँद तारों की गर्दिश पर गौर करो, मौसमो, हवाओं और बारिशों के निज़ाम में काविश करो, नबादात की पैदावर के मनाज़िर से सबक लो, हैवानात की परवरिश और उनकी नसल में दिमाग खपाओ, इंसानी गिरोहो की रंगा रंगी और रंजिशों का मुता'ला करो, अपने नफ़्स और अक़ल की गहराइयों में झाँको, तुम देखोगे कि हर तरफ अटल क़वानीन अपना काम कर रहे हैं, हर दायरा ए वजूद में एक नज़म काम कर रहा है,*

*"❀_ ये क़ानून, ये नज़म, और तवाफ़ीक़ ये तावुन, ये वेहदत ये इर्तका़ अपने आप इत्तेफ़ाक़न नहीं होते, चीज़े अपने आप खुद तजवीज़ नहीं करती, अपना नक्शा खुद नहीं बनाती, बेशऊर और बेजान माद्दा कायनात की तख़लीक अपने आप नहीं करते, अनासिर (हवा पानी मिट्टी आग) आपस के मशवरे से इत्तेफ़ाक नहीं करते, बल्की बालातर हस्ती फ़ाल व मुख़्तार और हाकिम व खबीर हस्ती, एक नाज़िम एक डाइरेक्टर एक हुक्मरान और एक क़ानून साज़ की हैसियत से काम कर रही है,*

*"❀_ तमाम कानून और मखलूक उसकी तस्बीह कहते हैं', तमाम मोजूदात उसके हुजूर सजदा रेज़ है, तमाम मखलूक उसी के हुक्म की पाबंद है, अज़ीम सूरज से ले कर नन्हे सितारे तक हर चीज़ उसकी बारगाह में मुस्लिम की हैसियत से सर झुकाये हुए है,*

*"❀_ फ़िर इस्लामी तहरीक ने बताया कि अगर इतने बड़े कारख़ाना ए वजूद के ऊपर एक से ज़्यादा मालिक और मुंतज़िम होते तो उनके दरमियान टकराव हो जाता, और ये कायनात किसी तरह भी क़ाम न करती जिसका तुम मुशाहिदा कर रहे हो, गोया किताबे कायनात का हर वर्क़ खुदा की हस्ती ही पर नहीं बल्कि उसकी तोहीद पर और उसकी मुख्तलिफ़ सिफ़ात पर मुहक्कम दला'इल से भरा पड़ा है,*

*❥❥_ फ़िर इस्लामी तहरीक ने दलाइल के ज़ोर से वाज़े किया कि ये कायनात जो पूरी की पूरी खुदा के दीन और क़ानून में जकड़ी हुई है और जिसका हर ज़र्रा उसके सामने सर झुकाए हाज़िर है, तुम खुदा की बंदगी करोगे तो सारी कायनात तुम्हारे लिए मुसख्खर (ताबे) हो जायेगी, और तुम अगर खुदा से बगावत और कुफ्र करोगे तो निज़ामे कायनात से तुम्हारा निज़ामे तमद्दुन रब्त हो जायेगा,*

*"❀_इस कायनात में इंसान के लिए भी फ़लाह की वाहिद राह यही है कि वो ख़ुदा के दीन और ख़ुदा के क़ानून का पाबंद हो कर रहे, तुम जो ख़ुदा के पैदा करने से पैदा होते हो, उसके रिज़्क़ पर पलते हो और हां तुम जिनके बदन का उज्व उज्व और जिनका आज़ा का ज़र्रा ज़र्रा मुस्लिम बन कर खुदाई कानून में जकड़ा हुआ है, तुम्हारे लिए जिंदगी की कोई सीधी राह है तो खुदा की बंदगी ही की राह है, तुम्हारी फितरत का खमीर इसी बंदगी के अहद से उठाया गया है और तुम्हारे ज़मीरो में एहसासे अबुदियत पेवस्त है,*

*"❀_ फिर इस्लामी तहरीक ने इस ज़ोरे इस्तदलाल से ये हक़ीक़त भी उजागर की कि खुदा की तरफ से हिदायत की अहतियाज हर हर ज़र्रे को है, वही अनासिर की तकदीरें मुकर्रर करने वाला है, दूसरे मोजूदात की तरह इंसान भी उसकी हिदायत का उसी तरह मोहताज है जैसे वो रोशनी हवा और पानी का मोहताज है,*

*"❀_ ख़ुदा ने अपनी हिदायत से मख़लूक़ को फ़ायदा पहुंचाने के लिए वही का निज़ाम मुकर्रर किया है, इंसान चूंकी श'ऊर से फ़ायदा उठाता है इसलिए उसके लिए वही की वो तकमीली सूरत मुकर्रर की गई है जिसके तहत उसके शऊर को मुखातिब किया जाता है, फ़िर इस्लामी तहरीक ने अपनी उसूली दावत के इस जुज़ को भी दलील ही के ज़ोर से क़ाबिले कुबूल बनाया कि जब इस कायनात में इल्लत व मा'लूल और सबब व नतीजे का क़ानून काम कर रहा है तो इंसान के अख़लाक़ी आमाल को भी इस जामे क़ानून के तहत किसी तकमीली नतीजे तक पहुंचना चाहिए,*

*❥❥__इसके साथ-साथ इसने ये भी दिखाया कि इंसान की इस महदूद इम्तेहानी जिंदगी में महदूद कानून मुकाफात के तहत इस आरज़ी जिंदगी के बाद किसी नए दौरे हयात में इंसानी अमल के नतीजों को भरपूर तरीक़े से जहूर करना है, खुदाई अमल जो हर तरफ कार फ़रमा है, इसका अक़ली तकाज़ा ये है कि जो जैसा करे वैसा भरे, इस तरह इसने हयात बादल मौत और मुहासबा ए आख़िरत और अजर व सज़ा का तसव्वुर दिया,*

*"❀_ सारी बुनियादी सच्चाइयों को साबित करने के लिए इसने पिछली पूरी इंसानी तारीख पेश कर दी, एक एक क़ौम की दास्तान को लिया और दिखाया कि जिन इंसानी गिरोहों ने जिंदगी का निज़ाम इन हक़ाइक़ पर उठाया, उन्होंने फ़लाह पाई और जिन्होनें इनसे रुगरदानी की वो ख्वार व रुसवा हो कर मलिया मेट हो गए,*

*"❀_ जिन अफ़राद ने इनको क़ुबूल किया उनके दिलों दिमाग रोशन हो गए और उनके किरदार जगमगा उठे और जिन्होंने इनकी मुख़ालफ़त की वो पस्तियों में गिरते चले गए, दिखाया कि ये वो सच्चाइयाँ हैं जिनकी दावत हर दूसरी तारीख़ में हर क़ौम के सामने एक ही तर्ज़ के लोगों ने बार-बार पेश की और उनको गालिब करने के लिए बेलोस जज़्बा ए इखलास के साथ जान व माल की सारी मता निछावर कर दिखायी,*

*"❀_इस्लामी तहरीक की ये दावत अपने पूरे इस्तदालात के साथ कुरान में फ़ैली हुई है, इसे बड़े हुस्ने तकरार से पेश किया गया, इसे दिलरुबा तसरीफ आयात के साथ लाया गया, इसके लिए बेहतरीन अदबी ज़ुबान इस्तेमाल की गई, इसमे जज़्बात ए लुत्फ़ का रस घोल दिया गया, मुख़ालिफ़ाना एतराजा़त को साथ के साथ साफ़ किया गया, मुंकिरो और हरीफ़ो की नुक्ता आफ़रीनियों और तंज़ व इस्तेहज़ा का संजीदगी से तजुर्बा किया गया,*

*"❀_फिर कहीं इब्रत दिलाई कहीं तम्बीह की, कहीं शर्म दिलाई कहीं चैलेंज किया, कहीं नर्मी और लताइफ से दिलों को पिघलाया, कहीं इस्तफहाम का अंदाज अख्तियार किया, कहीं ताज्जुब हैरानी का रंग भरा, गर्ज़ ये कि मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से इंसानी ज़हन को इस तरह घेरा कि अरबाबे श'ऊर के लिए कोई दूसरा रास्ता ही ना रहने दिया,*

*"❀_अगर बाज़ी तलवार के ज़ोर से फ़तेह की जाने की होती तो आख़िर इस्तदलाल, दलाईल, सबूत के इतने अहतमाम की ज़रूरत ही क्या थी जो क़ुरान के दो तिहाई बल्की ज़्यादातर हिस्से में फैला हुआ है, दर हक़ीक़त इस्लामी तहरीक की बेपनाह दलील की कुव्वत ने अपने मुखातिबो को बेदम कर दिया और उनमें से अहले सआदत ने हक़ को कुबूल करने के लिए दिलों के दरवाज़े खोल दिये और जिद्दी लोग मजबूर हुए कि दलील की बाज़ी खत्म कर के तशद्दुद के ओछे हथियारों पर उतर आए, जो भी दावत तहरीक अपने मुखातिबों को इस मरहले पर पहुंचा देती है वो आख़िरकार मैदान मार ले जाती है,*
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 *⚂ _मुस्लिम किरदार की अखलाकी़ कुव्वत _⚂*   
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*❥❥_मुस्लिम किरदार की अखलाकी़ कुव्वत:-कोई दावत भी अगर सिर्फ लफ्जी़ दावत हो और उसके साथ अखलाकी़ ज़ोर मौजूद ना हो तो वो कैसी ही ज़िरे क्यूं ना हो और थोड़ी देर के लिए दिलों पर कितना ही जादू क्यूं ना तारी कर ले, आख़िरकार धूएं के मर्गोलों की तरह फ़िज़ा में तहलील हो जाती है, तारीख़ पर अल्फ़ाज़ से कभी कोई असर नहीं डाला जा सकता और अकेली ज़ुबान कभी इंकलाब नहीं उठा सकती,*

*"❀__ अल्फ़ाज़ जब भी मोस्सिर होते हैं जबकी अमल के लुगत के रु से उनके कुछ मानी हों, दलील जब किदार के बगैर आए, अपील जब इखलास से खाली हो, और तनक़ीद जब अखलाकी़ लिहाज़ से खोखली हो तो इंसानियत उससे मुतास्सिर नहीं हुआ करती, किरदार की अख़लाक़ी कुव्वत ही किसी दावत में असर भरती है, अमल की शहादत के बगैर ज़ुबान की शहादत बेकार साबित होती है,*

*"❀__ हक़ ये है कि, "अल्लाह के नज़दीक ये सख़्त नापसन्दीदा हरकत है कि तुम कहो वो बात जो करते नहीं (सूरह- सफ़-3) इस्लामी तहरीक की दावत सिर्फ़ लफ़्ज़ी दावत ना थी, वो सरासर एक पैगामे अमल थी और वो एक खास तर्ज़ का इंसान बनाने आई थी और वो इंसान उसने अव्वल रोज़ से बनाना शुरू कर दिया, उस इंसान का तर्ज़े फिक्र, उसके अखलाकी़ औसाफ और उसका मन मोहना किरदार था जो उसके दलाईल को हकी़की़ वज़न, उसकी अपील को सच्ची जाज़्बियत और उसकी तंकी़दों को गहरा असर देने वाला था,*

*"❀__हुजूर सरवरे कायनात ﷺ ने मक्का में अपनी इंफिरादियत की शान दिखाई थी और मदीना में आ कर आपने अपनी इज्तिमाइयत का जलवा दिखाया, आप ﷺ ने इंसान की तामीर के असल काम से कभी गफलत नहीं बरती, दूसरों की इस्लाह करने के जज्बे में इसे कभी फ़रामोश नहीं किया, एक ऐसे मआशरे के दरमियान जिसकी निगाहों में कमाने और खाने पीने से ज़्यादा ऊंचा कोई मक़सद ना था, जिसकी हर मजलिस एक मैक़दा और एक शराब खाना और रक्स गाह थी, जहां शुजाअत का इस्तेमल दंगे फसाद क़त्ल इंतेक़ाम दर इंतेक़ाम और लूटमार के अलावा कुछ ना था, और जहां तमद्दुन एक ऐसा जंगल में बदल गया था जिसमें इंसानी दरिंदे दहाड़ते रहते थे और शरीफ और मिस्कीन लोग उनके लिए सस्ते शिकार बने हुए थे,* 

*❥❥_वहां जनाबे मुहम्मद ﷺ जब इंसानियत के एक सालेह काफिले को लिए हुए नमुदार हुए तो इसका वजूद अव्वल रोज़ से माहौल में इंतेहाई नुमाया था, लोग इंसानियत के इस नए नमूने को अचंभे से देखते और हर पहलू से मुख्तलिफ और मुमताज़ पाते , फ़िर उसकी पूरी नशो नुमा उनकी आँखों के सामने होती और उसकी तालीम व तरबियत का सारा काम अव्वल से आख़िर तक आवामुन्नास ने ख़ूब अच्छी तरह देखा,*

*"❀_ खवास और अवाम हर सुबह और हर शाम देखते थे कि कलमा इस्लाम के बाद दीगर अच्छे-अच्छे अफराद को खींचता चला जाता है, यकायक दिल के हाथों मजबूर हो कर लोग उठते हैं और अपने आपको इंक़लाबी तहरीक के सुपुर्द कर देते हैं,*

*"❀_वही जो पहले मुहम्मद ﷺ के खिलाफ़ दांतों और नाखुनो तक का ज़ोर सर्फ़ कर के लड़ रहे होते हैं, अचानक वही सर झुकाने वाले हो जाते हैं, जेसे किसी ने उन पर जादू कर दिया हो, फिर जो कोई भी कलमा हक़ को क़ुबूल करता है आनन फ़ानन उसके ज़हन व किरदार में ख़ुश गवार तब्दीलियां आने लगती है,*

*"❀_ उसकी दोस्तियां और दुश्मनियां बदल जाती हैं, उसकी आदतें और उसके ज़ोक में इंकलाब आ जाता है', उसके मशगिल नया रंग अख्तियार कर लेते हैं, उसकी पहली दिलचस्पियां ख़त्म हो जाती है और नई दिलचस्पियां पैदा हो जाती है, फिर वो इंतेहाई नेक और खुश मिजाज़ शख्सियत से आरास्ता हो जाता है, उसकी सोई हुई सलाहियतें जाग उठती हैं, उसके ज़मीर का चिराग पूरी लो देने लगता है, गोया उसके अंदर से बिल्कुल एक दूसरा आदमी नमुदार हो जाता है,*

*❥❥_ क़ातिल आते और इंसानी जान के मुहाफ़िज़ बन जाते, चोर आते और अमीन बन जाते, ज़ानी आते और इफ़्फ़त व हया के पैकर बन जाते, डाकू आते और सुलेह व दोस्ती के मुअल्लिम बन जाते, सूदखोर आते और इन्फ़ाक़ करने वाले बन जाते, कुंद ज़हन आते और उनके अंदर से आला का़बिलियतों के चश्मे उबल पड़ते, अदना समाजी मर्तबों से उठते और शर्फ की बुलंदियों को छू लेते, जैसे ये किसी और ही दुनिया की मखलूक बन गए हों,*

*"❀_ जेसे ये मिट्टी के पुतले न हों, बल्की किसी दूसरे जौहर से उन्होंने वजूद पाया हो, ये खुदा के परस्तार रसूलुल्लाह ﷺ के दीवाने, शमा ए सदाक़त के परवाने, नेकी के नकीब भलाई के दाई, बदी के दुश्मन, ज़ुल्म के मुखालिफ़, ये रुकू व सुजूद में क़रार पाने वाले, ये क़ुरान पढ़ते हुए गिरया बेताबी में खो जाने वाले, ये दिनो को मक़सद के लिए दौड़ धूप करने वाले और रातों को अल्लाह से लौ लगाने वाले,*

*"❀_ मिस्कीनों को खाना खिलाने वाले मुसाफिरों की खबर गिरी करने वाले, यतीमों और बेवाओं के सरो पर शफक़त का हाथ रखने वाले, लहू व ल'इब से बे ताल्लुक़, ऐशो इशरत से दूर, फ़िज़ूल बहसो से किनारा कश, संजीदगी व वका़र के पैकर, शा'इश्तगी व सलीका के मुजस्समे और ये महफिले हस्ती में अजनबी बन जाने वाले लोग, ये अपनी ही बस्तियों में रह कर गरीबुल वतन..., आखिर कैसे मुमकिन था कि सारे अरब की निगाहें इन पर मुर्तकज़ ना हो जायें,*

*"❀_ये दाईयाने इस्लाम! जो बगैर किसी लौस के दीन की खिदमत में हमातन लगे हुए, किसी मुआवजे के बगैर तहरीक के हमा वक़्ती कारकुन थे और दुनिया की भलाई के लिए अपने फायदे को बिल्कुल बाला ए ताक डाले हुए थे, ये अपने मुक़द्दस नस्बुल ऐन के लिए दिमागो की काविशें, जिस्मो की ताकत, जेबो के माल और वक़्त आने पर अपने और अपने बच्चों की जाने तक सर्फ करने वाले लोग थे,*

*❥❥_ ना उनको रोज़ी की फ़िक्र थी, ना तब बदन का होश था, ना रातों की नींद का ख़याल था ना बीवी बच्चों में मगन रहने की मोहलत ना खेल तमाशो से दिल बहलाने की फुर्सत, उन्होंने हँसते हँसते मुखालिफों की गालियाँ सुनी, ख़ुशी ख़ुशी फ़ाक़े काटे, रुहानी मसर्रत के साथ वतन छोड़े, सब्र के मौक़े पर इंतेहाई दर्जा का सब्र दिखाया और मुक़ाबला करने का वक़्त आया तो मज़बूत हाथों से मुक़ाबला किया,*

*"❀_ अहद अहद कहते तपती रेत पर लौट गए, वजद आफरीन शैर पढ़ते पढ़ते सूलियों पर लटक गए, घायल हो कर गिरे तो माईले परवाज़ रूह झूम कर पुकार उठी, रब काबा की क़सम मैं तो मुराद पा गया, ये किरदार हो और फिर दुनिया सर के बल ना आए? इस मुस्लिम किरदार ने हर मौक़े पर ऐसी ज़री मिसाले क़ायम की है कि जिंदगी की पेशानी उनके नूर से यौमे आखिरत तक जगमगाती रहेगी,*

*"❀_ इस किरदार के मुरब्बी ने मक्का से रवाना होते हुए अपने क़ातिलो की अमानतों की वापसी का अहतमाम किया, इसी किरदार ने ज़िना का ज़ुर्म सरज़द हो जाने पर बतौर ख़ुद पेश हो कर इकरारे जुर्म किया और इस्लामी अदालत से बा इसरार इन्तेहाई मुस्लिमीन सज़ा ए मौत अपने लिए कुबूल की ताकि वो खुदा के हुजूर में पाक हो कर पेश हो सके, इस किरदार को कुबूले इस्लाम के चंद ही मिनट बाद जब एक हसीन ने दावत ए ऐश दी तो उसने ये कह कर ठुकरा दिया कि अब मैं खुदा और रसूल की नाफ़रमानी नहीं कर सकता,*

*"❀_ अंसार ने अपने घर बार और माल व मता आधो आध बांट कर मुहाजिरीन के सामने रख दिए, क्या आवाम के दिल इस भाई चारे को देख कर खिंचते ना होंगे कि अदना तरीन गुलाम खानदानी बस्तियों के साथ और गरीब तबक़ो के अफ़राद अहले सरवत के साथ और घरो से उजड़ कर आने वाले लोग मदीना के मुक़ामी बाशिंदों के साथ एक सफ में खड़े हैं, हर एक को अहमियत हासिल है, हर एक की इज्ज़त होती है, हर एक की राय वज़न रखती है और हर एक को ज़िम्मेदारियां उठाने और जोहर दिखाने का मौक़ा मिलता है,*

*❥❥_ ये एक बिरादरी है जिसके सारे अफ़राद अच्छे हालात में भी शरीक रहते हैं और तकलीफ़ और मुसीबत में भी हिस्सेदार बनते हैं, उनके गम मुश्तरिक उनकी मसर्रते मुश्तरिक, उनका सोचना मुश्तरिक और उनके अक़दाम मुश्तरिक, भूख का दौर है तो उसमें सबसे बड़ा हिस्सेदार समाज का क़ाइद है और ख़ुशहाली का दौर आता है तो उसमें सबसे कम हिस्सा वो अपने लिए लेता है,*

*"❀_ इस किरदार की तस्वीरें कुरान ने खींच खींच कर बार-बार मुखालिफीन को भी और अवाम को भी ये अहसास दिलाया कि देखो इंसानियत का ये नमूना जो नज़रिया हक़ के नूर से बनता है कितना अफ़ज़ल है, और अमन व सलामती का हुसूल अगर मुमकिन है तो इसी के ज़रिये मुमकिन है, इस किरदार को तहरीके इस्लामी ने अपनी दावत की सच्चाई की दलील बना कर सामने रखा, फिर बार-बार इस किरदार का तका़बुल जाहिली किरदार से भी किया, अहले किताब के किरदार से भी किया और मुनाफिकी़न के किरदारों से भी किया, दोनों को आमने सामने रख कर दिखाया कि देखो और खुद राय क़ायम करो,*

*"❀_ ख़ुद सरवरे कायनात ﷺ ने अपनी जमात के एक एक फ़र्द पर पूरी तरह तवज्जो की और बेहतरीन मौक़े पर कभी नसीहत से, कभी गिरफ़्त से, कभी नाराज़गी से, कभी इज़हारे ख़ुशनूदी से काम ले कर मुस्लिम किरदार को नशो नुमा दी, जिसमें जैसी सलाहियतें देखी और मिज़ाज की जैसी साख्त पाई उसको उसकी जरूरियात के मुताबिक मशवरे दिए और जिस नोइयत की कमज़ोरी देखी उसके सामने दीन ए हक़ का वैसा ही अखलाकी़ तकाज़ा बयान किया,*

*"❀_ गैर मुस्लिम वाल्दैन की इता'त की ताकीद करने के साथ-साथ ये कड़ा हुक्म भी दिया गया कि दीन के खिलाफ़ किसी की इता'त नहीं की जाती, इस किरदार की शान ये थी कि वो ना ईरान की पुर शिकवा तहज़ीब से मुतास्सिर हुआ और ना रोम के ठाठ दार तमद्दुन के सामने उसका दिल पसीजा, वो बड़े बड़े दरबारों में अपनी बद्दियाना शान के साथ कालीनों को रोंदता हुआ बगैर अपनी गर्दन झुकाये पहुंचा, और कहने की बात इस तरह की जैसे वो बोनो के दरमियान खड़ा बात कर रहा हो, इस किरदार को जब ज़हनी लिहाज़ से इतना मुस्तहकम बना दिया गया और हर क़िस्म के एहसासे कमतरी से उसे बालातर कर दिया गया, तो फिर उसे हरीफों ने मैदाने जंग में भी पुकारा तो उसने शुजाअत व इस्तेक़ामत की ज़िंदा जावेद नज़ीरें क़ायम कर दी,*

*❥❥_ इस मुस्लिम किरदार के बेशुमार कट्टर मुखालिफ़ीन होंगे, जो उसका तंज़ व इस्तेहज़ा करते हुए दिल ही दिल में महसूस करते होंगे कि ये हमसे हज़ार दर्ज़ा अफ़ज़ल और बरतर हैं, बेशुमार हरीफ़ ज़ाहिर मुख़ालफ़त करने के बावजूद बातिन में रश्क करते होंगे कि काश कि हम भी इस बिरादरी में शामिल होते, इस किरदार को गालियां देने वाले इसके खिलाफ प्रोपोगंडा करने वाले कभी-कभी लम्हा ए फिक्रिया में पड़ कर अपने आप से कहते होंगे कि हम झूठ बोल रहे हैं और अपने आपको धोखा दे रहे हैं,*

*"❀_कितनी मुहब्बत भरी जिंदगी थी, कितनी हल्की फुल्की, कितनी पुर अमन और कितनी इत्मिनान बख्श सही मा'नों में हयात ए तय्यबा ! ऐसी कई मिसाले नित नई मिसाले जिस इंसानी माहोल में नमुदार होती रही, क्या दुनिया को उनका ईसार देख देख कर उनसे मुहब्बत ना होती होगी?*

*"❀_ यहां हम चंद मिसाले बयान करेंगे कि किस तरह इस्लाम का जादू हर चारो तरफ से बिखरे हुए ज़र्राते इंसानियत को अपनी तरफ खींचता चला गया, पहले मक्का के दौर को ले लीजिए, मशहूर शायर तुफेल दौसी आते हैं और कुरैश उन्हें हुज़ूर ﷺ से मिलने से बाज़ रखते है', आख़िर वो ख़ुद हाज़िर होते हैं और क़ुरान की चंद आयात सुन कर महज़ उनके असर से इस्लाम क़ुबूल कर लेते हैं,*

*"❀_अमरू बिन अबसा हुजूर ﷺ का चर्चा सुन कर आते हैं और इस्लाम दिल में जगह पा लेता है, हुजूर ﷺ के बचपन के साथी जुमाद बिन सालबा सलाहकार और चारागर बनके आते हैं, मगर जुबान मुबारक से खुदा की हम्द के चंद बोल सुन कर ही मफ़्तूह हो जाते हैं, एक सहराई क़बीला जिसका पेशा डाका ज़ानी है, उसके एक नोजवान अबुज़र इस्लाम का चर्चा सुन कर आते हैं और मुखालिफ़ माहौल से बच बच कर हुज़ूर ﷺ तक पहुंचते है, दावत सुनते हैं और तहरीक़ हक़ को अपना दिल दे बैठते हैं, उनको यकायक एक जज़्बा उठता है और वो हरम में जा जा कर कलमा हक़ का ऐलान करते हैं, फिर जो शख्श तहरीक़ इस्लामी के हल्के में दाखिल होता गया, वो अपने दायरे असर में खुद एक दाई बन गया,*

*❥❥_बाज़ के असर से क़बीले के क़बीले इस्लाम को क़ुबूल करते गए, सुवेद बिन सामित हुज़ूर ﷺ से मुलाक़ात करते हैं और गहरा असर ले जाते हैं, अयास बिन मा'ज़ मदीना से आ कर हुज़ूर ﷺ की दावत के क़ायल हो जाते हैं और फ़िर मदीना में निज़ामे हक़ की तलब पैदा करते हैं, नज़रान से 20 ईसाइयों का वफ़द आ कर हुज़ूर ﷺ से इस्लाम के पैगाम का शऊर हासिल करता है और बूवजूद ये कि कुरैश उनको वरगलाते हैं, ये लोग हक़ की रोशनी को सीनों में जज़्ब कर के रुखसत होते हैं, मुहाजिरीन ए हब्शा से यमन के लोग मुतास्सिर हो कर इस्लाम को सीनों में जगह देते हैं और इन्हीं के ज़रिये शाहे नजाशी का दिल ईमान से मुनव्वर हो जाता है,*

*"❀_ मदीना में औस और ख़ज़रज के लोग तो हुजूर ﷺ की आमद से पहले ही तेज़ी से इस्लाम में आ रहे थे और हुजूर ﷺ के हिजरत कर के आ जाने के बाद तो कोई घर खाली ना रहा जिसमें इस्लाम की रोशनी ना जा पहुंची हो, हैरतनाक ये था कि यहूद के एक आलिम अब्दुल्लाह बिन सलाम हुजूर ﷺ के एक सादा से खिताब को सुन कर क़रीब आ जाते हैं और थोड़े से गोर व फिक्र के बाद फैसला कर के सरवरे आलम ﷺ की खिदमत में शहादत ए हक़ अदा करते हैं,*

*"❀_ इस तरह ईसाइयों में से एक नामूर राहिब व आलिम अबू क़ैस सरमा बिन अबी अनस तहरीक इस्लाम की पुकार पर लब्बेक कहते हैं, जुबेर बिन मुत'अम बदर के क़ैदियों को छुड़ाने आए थे और हुज़ूर ﷺ की ज़ुबान से चंद आयतों को तवज्जो से सुनने का मौका मिला, हक़ीक़त ऐसी मुनकशिफ हुई कि उन्होंने मेहसूस किया कि जेसे दिल परवाज़ कर गया है, कुरैश के गुलाम अबू राफे मक्का की तरफ से सफीर बन कर मदीना आए तो सीना इस्लाम के लिए खुल गया, वापस जाने पर तैय्यार न थे, हुजूर ﷺ ने समझाया कि सफीर को रोका नहीं जा सकता, तुम वापस जाओ और फिर इस्लाम की कश्ती इधर खींचें तो मदीना आ जाओ, चुनांचे वो मक्का गए और वापस मदीना आ गए,*

*"❀_ बनू क़ुरेज़ा के ख़िलाफ़ उनके जराइम की सज़ा देने के लिए चढ़ाई होती है तो इस आलम में एक फर्द अमरू बिन साद इस्लाम क़ुबूल करते हैं, सुमामा बिन उसाल हनफ़ी रईस यमामा क़ैद हो कर आते हैं और हुजूर ﷺ के तर्जे अमल से मुतास्सिर हो कर इस्लामी जमात का एक फर्द बन जाते हैं, गज़वा उहद बरपा है कि अमरू बिन साबित असीरम (बनी अब्द अशहल) ऐन उसी लम्हे हक़ के सामने सर तसलीम खम कर के सीधे मोरका में शरीक हो जाते हैं और शहादत से फ़ैज़ होते हैं, मोरका ख़ंदक के कठिन हालात में नईम बिन मसूद तहरीके इस्लामी के क़दम में आ गिरते हैं',*

*"❀_अबुल आस मदीना आते हैं तो बिल्कुल गैर मुतवक़्का़ तौर पर इस्लाम का ऐलान करते हैं, हजरत खालिद और अमरू बिन आस जैसे मुमताज़ अफराद (सुलेह हुदेबिया और जंगे मोता के दरमियान) यकायक कुरेश से टूट कर इस्लामी रियासत के साथ आ मिलते हैं, जाहिलियत के मुहाज से लड़ते लड़ते अंदर से दिल उकता चुके थे, तो यकायक उनको तहरीके इस्लामी ने खींच लिया, फ़ुज़ाला फतह मक्का के मौक़े पर और शीबा बिन अबी तल्हा मोरका हुनैन के मौके पर हुजूर ﷺ के क़त्ल के इरादे कर के पहुंचे मगर ख़ुद ही तेगे हक़ से घायल हो गए,*

*❥❥_ वफ़द हवाज़िन व बनु साद के आने पर हुज़ूर ﷺ ने मालिक बिन औफ को याद किया और ख्वाहिश की वो इस्लाम लायें, पैगाम पहुंचने पर मालिक बिन औफ सक़ीफ़ से छुप कर अगले ही दिन हाज़िर हो गए और इस्लाम ले आए, क़बीला तय पर इस्लामी दस्ते ने फतेह पाई तो हातिम ताई की बेटी कैदियों में मदीना लाई गई, उसने हुजूर ﷺ से हुस्ने सुलूक की दरख्वास्त की, जिसे कुबूल फरमा कर आपने सवारी का इंतज़ाम कर के वापस भेजा,*

*"❀_ उन्होंने अपने भाई अदी बिन हातिम को जिनके दिल में इस्लाम के ख़िलाफ़ गुस्से की आग मुश्त'अल थी, सारा हाल सुनाया और मदीना हाज़िर होने की तलक़ीन की, अदी आये और आकर खुद हालात का पूरा जायज़ा ले कर जब महसूस कर लिया कि हुजूर ﷺ खुदा के सच्चे नबी हैं तो हलका इस्लाम में दाखिल हो गए,*

*"❀_का'ब बिन जुबेर जिन्होंने हुजूर ﷺ और इस्लामी तहरीक के खिलाफ शायरी का मुहाज़ खोल रखा था खुद मदीना आए और अर्ज़ किया कि ता'इब हो कर आया हुं अमन दीजिए, अमान मिल गई फिर उनको वो क़सीदा पढ़ा जो तारीख़ी हैसियत अख़्तियार कर गया,*

*"❀_ अब्दुल्लाह जु़लबजादीन को देखिये कि ये भोला भाला नोजवां मदीना से चलने वाली नसीम के झोंके से मुतास्सिर हो जाता हैं लेकिन चाचा के डर से अपने अरमान को सीने में कुछ अरसा दबाये रखते हैं, चाचा से मायूसी हो जाती है तो चाचा उसके माल व जाह उसके दिए हुए लिबास और घर के माहोल को सलाम विदा कह कर कंबल पोश बने हुए मदीना पहुंचे और जिंदगी इस्लामी तहरीक के हवाले कर देते हैं,*

*"❀_ बहरीन के क़बीला अब्द अलक़ैस के एक ताजिर मुनक़ज़ बिन हिबान करोबारी सफ़र पर निकले, मदीना रास्ते में पड़ता था, वहां कुछ वक़्त के लिये ठहरें, हुज़ूर ﷺ के पेशे नज़र ये नक्शा कार तो रहता ही था कि बेरून हिजाज़ के इलाक़ो से राब्ता बढ़ाने के ज़रिया पैदा हों और काम के आदमी वहाँ भी तहरीक को हासिल हों, इसलिए इत्तेला मिलते ही खुद तशरीफ़ ले गए, दावत पेश की और मुनक़ज़ ने क़ुबूल की, घर गए तो बहस व तम्हीस के बाद उनके वालिद भी हलका इस्लामी में आ गए, बाद में क़बीले के आम लोगों ने भी उनकी दावत से इस्लाम अख्तियार किया,*

*❥❥_मुताद्दिद लोगों ने बादशाहतें, सयादतें और ओहदे छोड़ कर अपने आपको खुदा की अबुदियत के मुका़म पर ला खड़ा किया, मिसालों से अंदाज़ा किया जा सकता है कि दावते हक़ की खैती किस तरह उग रही थी, आज यहां बीज फूटा, कल वहां इखलास ने कोंपल निकाली, सुबह इधर कोई कली चटक गई, शाम उधर किसी ने आंख खोली, जैसे शाम को आसमान पर तारे जगमगाते हैं, पहले एक फिर दो चार फिर दस हैं, फिर सो पचास, फिर हजारों लाखों बल्की अनगिनत गोया रेत के जर्रे ख्वाबे जमूद से एक एक कर के चमक रहे थे,*

*"❀_ लोग जोक दर जोक आगे बढ़ कर तहरीक के धारे पर बहते चले गए, ऐसे लोगों में जब कोई एक भी ईमान ले आता तो फिर वो अपने क़बीले और अपने इलाक़े में खुद एक दाई व मुअल्लिम भी होता, उसकी ज़ात में तहरीक का एक मुकामी मरकज़ खुल जाता, वो अपने क़ौल और अपने किरदार से कितने ही दूसरे साथियों को बसा औक़ात पूरे के पूरे क़बीले को इस्लाम की बारगाह में ला पेश करता,*

*"❀_ इसके अलावा खुद मदीना के मरकज़ी दावत की सरगर्मियां भी और उसके इलाक़ाई कारकुनों की कोशिशें भी बेशुमार ऐसे आदमी पैदा करती जाती जो अगरचे बराहे रास्त इस्लामी तहरीक के हल्के में फ़ौरन शमिल ना होते लेकिन उसके साथ हमदर्दी और हिमायत का रवैय्या अख्तियार कर लेते, और ऐसे लोगों की हमदर्दियां और हिमायते भी अपनी जगह बड़ा काम करती, ऐसे हामियाने तहरीक गैरो और मुखालिफो में भी बैठ कर बात कर सकते थे और उनकी बात सुनने में किसी तरह का तास्सुब हाइल ना होता,*

*"❀_ एसे लोग कुरैशे मक्का के दरमियान भी बा कसरत थे, यहूद में भी थे और देहात के क़बीलों में भी एसे अफराद थे जिन्होनें सुलेह हुदेबिया के मौके पर कुरैश को मुआहिदा करने के लिए तैय्यार किया, ऐसी ही एक शख्शियत थी जिसने जंगे उहद के बाद अबू सुफियान को पलट कर मुसलमानों पर दोबारा हमला करने से रोका, ऐसी ही एक शख्सियत वो भी थी जिसने हुजूर ﷺ के ज़माना ए नज़रबंदी में शोएब अबी तालिब को जाने वाले गल्ले को रुकवाने की मुखालफत की, और ऐसी ही शख्सियत थी जिन्होनें सिरे से बॉयकॉट के उस नापाक मुआहिदे को खत्म कराया जो हुजूर ﷺ के खानदान के खिलाफ बांधा गया था, ऐसी ही एक शख्सियत यहूद में भी थी, जिसने यहूदी होते हुए अपनी जान तहरीक इस्लामी में लगा दी, और दूसरे यहूदियों को भी अहसास दिलाने की कोशिश की,*

*"❀_गर्ज ये कि इस्लाम लाने वाली तादाद के इर्द-गिर्द एक बड़ा हलका़ ऐसे हिमायतियों का भी हर जगह बनता गया और वो भी तहरीक के वसी होने के साथ-साथ वसी तर होता गया, गर्ज़ कि इस्लामी इंकलाब के नकी़बो का एक जाल सा सारे अरब में खुद बा खुद फ़ैल गया, मदीना उन सबके लिए मरकज़े तहरीक था, आगे हम सरसरी तौर पर ऐसी चंद मिसाले बयान करेंगे जिनसे अंदाज़ा होगा कि एक या चंद अफ़राद ने किस तरह पूरे पूरे कबीलों या इलाक़ो को मुतास्सिर कर लिया,*

*❥❥_एक मिसाल तो खुद मदीना ही थी और शायद सबसे बड़ी और शानदार मिसाल है, एक नौजवान सुवेद बिन सामित मक्का जा कर रसूलुल्लाह ﷺ से कलमा इस्लाम की रोशनी हासिल करते हैं और फिर आहिस्ता आहिस्ता बहुत सी तादाद मुतास्सिर हो जाती है, यहां तक कि मदीना इस्लामी तहरीक का मरकज़ बनने के काबिल हो जाता है,*

*"❀_ तुफैल दौसी अपने मिज़ाज की वजह से अगरचे क़बीला को जल्दी मुतास्सिर ना कर सके लेकिन उनकी वजह से यमन में तहरीक इस्लामी का तार्रुफ हो गया, और मुहाजिरीन हब्शा से मुतास्सिर हो कर क़बीला अश'अर ने किसी खारजी तहरीक के बगैर अपने आपको इस्लाम के मुहाज़ पर पेश कर दिया, जुमाद बिन सालबा की दावत से पूरा क़बीला अज़्द शनवा हल्का इस्लाम में आ गया,*

*"❀_ हज़रत अबुज़र गिफ़ारी इस्लामी नज़रिया इंकलाब की रूह से सरशार हो कर मक्का से लोटे तो उनकी दावत से उनका आधा क़बीला निज़ामे हक़ का अलंबरदार बन गया, और बाक़ी आधा हुज़ूर ﷺ के मदीना जाने पर मुसलमान हुआ, फ़िर इसी क़बीला गिफ़ार के अंदर से क़बीला असलम में भी इस्लाम ने नफूज़ किया और आहिस्ता आहिस्ता ये पूरा क़बीला भी जाहिलियत से कट कर इस्लामी इंकलाब का अलंबरदार बन गया, मुनक़ज़ बिन हिबान मदीना से सदाक़त का नूर जज़्ब करके अपने वतन बहरीन पहुंचे तो दावत हक़ का काम शुरू कर दिया और लोग मुतास्सिर होने लगे, चुनांचे कुछ अरसे बाद ये 14 मुस्लिम रफ़ीक़ो का वफ़द ले कर मदीना हाज़िर हुए,*

*"❀_गर्ज ये कि बात वही इंजील की सामने आती है कि खुदा की बादशाहत (दावते हक़) की मिसाल खमीर की सी है कि एक औरत ने ज़रा सा खमीर आटे में मिला दिया और वो सारे का सारा खमीर हो गया, जहां कहीं इस्लाम पहुंचा और मुनासिब तदाद मुतास्सिर हुई, वहा लाज़मन मस्जिद की बुनियाद डाली जाती, मस्जिद सिर्फ एक इबादतगाह ही की हैसियत न रखती थी, बल्की वो इस्लाम का तमद्दुनी मरकज़ होती थी, और तालीम गाह, दारुल मशवरा, समाजी इज्तिमा गाह और मेहमान खाना का काम भी देती थी,*

*"❀_ मसाजिद जहां अवामी इदारो की हैसियत रखती थी, वहां इन्हें सरकारी सरपरस्ती भी हासिल होती थी, मदीना से जिन हज़रात को कोई इलाक़े या बस्ती में सोल अफ़सर बना कर भेजा गया, वही वहां की मस्जिद के इमाम भी होते थे, जो क़बीले मदीना के प्रशासन से बाहर होते हैं, उनकी मुस्लिम आबादी इमाम के तकर्रूर के लिए हुजूर ﷺ से मशवरा लेती और फिर हुजूर ﷺ के बताए हुए मैयार पर खुद किसी आदमी का इंतखाब कर लेती,*

*❥❥_अवाम में दावत व तालीम का जो वसी काम मज़कूरा बाला बराहे रास्त तरीक़े पर हुआ इसके साथ जो दूसरे बड़े बड़े अक़दामात मोअस्सिर हद तक मुकम्मल हुए उनमें से एक मदीना के सियासी असरात को बढ़ाने का काम था जो मुआहिदो और हलीफ़ाना ताल्लुक़ात के ज़रिये ज़्यादा अमल में आया,*

*"❀_ मुआहिदाना ताल्लुक़ात के ज़रिये हुज़ूर ﷺ का हुकूमत के दायरा असर को वसी करना और इस मामले में गैर मामूली हद तक तवज्जो देना ये ज़ाहिर करता है कि आप जंग व जदल से इन्तेहाई मुमकिन हद तक बच कर रहना चाहते थे और अमन व सुलेह की फ़िज़ा चारो तरफ क़ायम करना चाहते थे ताकि ऐसी पुर सुकून फ़िज़ा में दावते हक़ का ठंडा काम बा खूबी हो सके, और जंगी जज़्बात बीच में रुकावट न हों,*

*"❀_ जंगी कारवाईयां जहां कहीं बका़ ए रियासत, बका़ ए अमन या बका़ ए इस्लाम के लिए नागुज़ेर ज़रूरत बन गईं, वहां तो आपने किसी दर्जे की हिचकिचाहट से काम नहीं लिया, लेकिन अगर जंग से बच कर निकला जा सकता हो और रियासत का सियासी तहफ्फुज़ व इस्तेहकाम और दावत के लिए खुला मैदान अमन व सुलेह से हासिल करना मुमकिन हो तो फिर आपने लाज़मन सुलेह व दोस्ती का रास्ता अख्तियार किया, खुद रियासत का वजूद तलवार के ज़ोर से नहीं दस्तूरी मुआहिदे के बल पर क़ायम हुआ, और फिर इसकी हिफ़ाज़त के लिए और इसके असरात को बढ़ाने के लिए आपने हलीफ़ाना राब्तों को इतने बड़े पैमाने पर ज़रिया बनाया कि जंगी कारवाईयां उनके मुक़ाबले में बिल्कुल हल्का तनासुब रखती थी,*

*"❀_ मुआहिदो और हलीफ़ाना ताल्लुक़ात क़ायम करना कोई आसान काम नहीं होता, ख़ुसुसन जबकि मज़हबी इख़्तिलाफ़ात, सियासी तास्सुबात, खुली मुख़ालिफ़ ताक़ते मोजूद हों, और मामला बिल उमूम एसे कबीलों और दुश्मनों से हो जो पहले ताल्लुक़ात न रखने की वजह से बिल्कुल अजनबी हो, इस काम के लिए बड़ी सियासी महारत की ज़रूरत होती है, लेकिन मोहसिने इंसानियत ﷺ ने इस दायरा कार में जिस दर्जे की सियासी बशीरत और क़ायदाना महारत और डिप्लोमेटिक का़बिलियत का नमूना पेश किया है, इसकी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती, और इस वजह से नहीं मिल सकती कि हुजूर ﷺ ने इतने वसी ताल्लुक़ात मुख़्तलिफ़ हालात में पैदा करते हुए किसी भी मौके पर नज़रिया हक, अपने अखलाकी़ उसूलों और अपने सियासी मरतबे को ज़रा सा भी नुक़सान नहीं पहुंचने दिया,*

*❥❥_सियासत आज एक मकरूह मशगला इसलिए बन कर रह गई है कि सियासत का कोई अखलाक़ नहीं होता और ये एक ऐसा टैंक है कि जिधर को हरकत करता है इंसानियत की क़द्रो क़ीमत को रोंदता चला जाता है, मगर हुजूर ﷺ ने डिप्लोमेसी और सियासत का बिल्कुल मफ़हूम बदल कर रख दिया और इन कामो को ना सिर्फ आलाइशों (गंदगियों) से पाक कर दिया बल्की नेकी और इबादत की रूह से सजा दिया,*

*"❀_इस्लामी उसूलों के साथ सियासी और डिप्लोमैटिक सरगर्मियों को जारी रखना और फिर उनमें गैर मामूली दर्जे की कामयाबी हासिल करना और इसके ज़रिये बेशुमार बिखरे हुए क़बाइल को अपने गिर्द मुज्तमा कर लेना आज किताबों में पढ़ते हुए आसान मालूम होता है, मगर रेगिस्तान अरब में जब अमलन ये सब काम हो रहा होगा, तो करने वाला ही जान सकता है कैसी कठिन मुहिम होगी,*

*"❀_ मुआहिदाना राब्तों का ये सिलसिला न सिर्फ इस लिहाज़ से दावत की तोसी में मददगार था कि हलीफ क़बाइल में हक़ के दाइयों को आमदो रफ़्त और अवाम से घुलने मिलने के खुले मौक़े हासिल हो जाते थे और खुद इन क़बीलों के लोगों का राब्ता भी मदीना से बढ़ जाता था, ये लोग मोहसिने इंसानियत ﷺ और आपके सहाबा किराम के अखलाक़ और उनकी का़यदाना सलाहियतों से मुतास्सिर होते गए, मदीना उनकी उम्मीदों का मरकज़ बनता गया, और इसका नतीजा यहीं हो सकता था कि उनके दिल भी इस्लाम के लिए खुलते चले गए,*

*"❀_ गोया दीन की दावत और सियासी असरात की तोसी दोनों काम एक दूसरे के लिए लाज़िम व मलज़ूम थे, ये हकीकत ज़हन में रख कर उन मुआहिदाना ताल्लुक़ात का जायज़ा लीजिए जो हुज़ूर ﷺ ने बड़े वसी पैमाने पर क़ायम कर दिखाया और इस काम में आपकी रफ़्तार कार हैरत अंगेज़ तक तेज़ रही, बावज़ूद इसके नक़ल हरकत के लिहाज़ से हालात सख्त ना मुवाफिक़ थे,*

*"❀_ जब हम मोहसिने इंसानियत ﷺ की मुक़द्दस शख़्सियत पर निगाह डालते हैं तो नस्बी, खूनी, सेहरी रज़ाई और वलाई इलाक़ो का दायरा बड़ा वसी पाते हैं, और इसके साथ-साथ दोस्ती और रफ़ाकत और आम शख्सी ताल्लुक़ात का हलका रोज़ाना बढ़ता हुआ देखते हैं, उनके हुकूक़ अदा करते हैं और उनको मज़बूती देते हैं, बहुत दूर के रिश्तों का भी इतना अहतराम और लिहाज़ हुज़ूर ﷺ को था कि जमात को ताकीद की कि जब तुम मिस्र को फ़तेह करो तो उसके बाशिंदो से हुस्ने सुलूक करना क्यूँकि उनकी तरफ से तुम पर सिलह रहमी की ज़िम्मेदारी होती है, वज़ाहत फ़रमाई कि हज़रत इस्माइल की वालिदा उन्ही में से हैं, नबी अकरम ﷺ के इन वसी ज़ाती तालुकात ने भी इस्लामी तहरीक़ के फरोग और दावत हक़ के अवामी निफाज़ को बढ़ाने में बड़ा भारी असर डाला है,*
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 *⚂ _ हुज़ूर ﷺ के अज़्दवाजी ताल्लुक़ात _⚂*   
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*❥❥_ हुज़ूर ﷺ के अज़्दवाजी ताल्लुक़ात के मोज़ू पर चूंकी तास्सुबी मुशरिकीन ने एतराज़ात का एक ख़ारज़ार पैदा कर दिया है कि हुज़ूर ﷺ ने मुताद्दिद निकाह किये और इस्लाम ने अज़्दवाज की तादाद को जायज़ रखा,*

*"❀_ पहली बात ये ज़हन नशीन करने की है कि इंसानियत का पहला तारीखी दौर (जिसे हम हुजूर ﷺ के ज़माने तक फ़ैला हुआ पाते हैं) तकसीरे नसल का दौर है, ज़मीन के टुकड़े वीरान पड़े हुए थे, जहां आबादी थी वहां बिखरी हुई थी, और रिज़्क के ज़राए और वसाइल का मैदान भी खुला पड़ा था,*

*"❀_इसलिए उस दौर के किसी भी तमद्दुन मआशरे को लें और किसी भी मज़हब को देखें, इंसानी मआशरों में अज़्दवाजी तादाद बहुत बड़े बड़े पैमानों पर पूरी तरह मरूज थी, खुद शरियत आलिया ने भी इसकी इजाज़त दी और बहुत से जलीलुल क़द्र अंबिया अलैहिस्सलाम जिनमें खुद अंबिया ए नबी इसराईल नुमाया है, ने कई कई निकाह किये, इक्का दुक्का अंबिया ने जाती रूझान और मखसूस हालात की बिना पर घर बार के बख़ेड़ों से किनारा कशी की और अपने आपको दावत हक़ के काम में ही लगाये रखा, मगर अक्सरियत ने दावत के साथ ही घरेलू जिंदगी अख्तियार की और भर पूर तरीक़े से अख्तियार की,*

*"❀_ हुजूर ﷺ तकसीरे नस्ल और अज़्दवाजी तादाद के इसी दौर के आखिर में आते हैं, और आप ﷺ ही के ज़रिये पहली मर्तबा फरमाने इलाही से अज़्दवाजी तादाद पर (4 निकाह की) पाबंदी आ'इद हुई, हुजूर ﷺ ने जो भी शादियां की वो इसी रुखसत और इजाज़त से की जो शरीयत में चली आ रही थी,*

*"❀_दूसरी बात ये सामने रहे कि हुजूर ﷺ के अक्सर व बेश्तर निकाह जिन्सी दाइए के ज़ेरे असर नहीं बल्की तहरीक और मुल्क व क़ौम की फलाह व बेहतरी के पेशे नज़र अमल में आए, उनकी नोइयत दावती और सियासी है, हुजूर ﷺ का अपना इरशाद महफूज है कि (रिवायत सहल बिन साद) मेरे अंदर औरतों के लिए कोई जिन्सी तलब मौजूद नहीं है _,"*

*"❀_वाक़िआ ये है कि सही मानों में शादियां हुज़ूर ﷺ ने दो ही की हैं, एक हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा से और दूसरी हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से, बाक़ी निकाहों के लिए बाज़ अहम इज्तिमाई मसलिहते आती रहीं, और उन मसलीहतों की खातिर हुजूर ﷺ ने अपनी मसरूफ तरीन जिंदगी और इन्तेहाई फकी़राना मआशरत पर भारी बोझ दिला कर इंसानियत के लिए कुर्बानी दी है,*

*❥❥_ ख़याल कीजिए कि एक नौजवान जो 25 बरस तक इफ़्फ़त मा'ब (बड़ी इज़्ज़त वाले) और हयादारी का नमूना इस मआशरे में पेश करता है, जिसमें शराब और ज़िना का कल्चर बड़े क़ाबीले फ़ख़र पहलू बने हुए थे, 25 बरस को पहुंच कर भी लज्ज़त पसंदी का आम मैयार छोड़ कर किसी नव उम्र हसीना के बजाय 40 साल की एक बेवा का इंतिखाब करता है,*

*"❀_ और फिर अज़्दवाजी लिहाज़ से उम्र के बेहतरीन 25 बरस उसी एक खातून के साथ गुज़ार कर पचास साल पूरा कर लेता है, क्या उसके बारे में वो घटिया बाते सोची जा सकती है जिनका चर्चा एतराज़ करने वालो ने किया है, फिर अज़्दवाज की कसरत का दौर 55 से 59 साल का दौर है, अरब जैसे गर्म मुल्क के लिहाज़ से इस उम्र में जिन्सी रूझान कमी की तरफ जा चुके होते हैं,*

*"❀_ फ़िर ख़ुद अज़्दवाज की उम्रों को देखें तो दो के अलावा बक़िया की उम्रें निकाह के वक़्त 20 साल से ऊपर थीं, और पाँच की उम्रें तो 36 से 50 बरस थी, क्या हुज़ूर ﷺ के लिए नौजवान तरीन और हसीन तरीन लड़कियों की कमी थी?*

*"❀_ फिर ऐसा घटिया ऐतराज़ उठाने वालों को सोचना चाहिए कि वो हस्ती जिसने अपने सर पर इतने बड़े काम का बोझ उठाया था, कि ना दिन को सुकून मयस्सर था और ना रात को आराम का कोई लम्हा और मुजस्समा इफ्फत व हया कि जिसने इंसानियत को पर्दे का अज़ीम बा बरकत क़ानून अता किया और आदमज़ाद को क़ल्ब व नज़रे क़ाबू रखना सिखाया और वो हस्ती की जिसके अवक़ात का ज़्यादा हिसा रियासत और मआशरे के वसी मसाइल में खप जाता था और जिसके निजी अवक़ात पैरो को वरम देने वाले लम्बे लम्बे नमाज़ के क़याम में सर्फ़ होते थे, आख़िर केसे उसके बारे में वो फ़िज़ूल बाते सोची जा सकती हैं,*

*❥❥_ फ़िर लज़्ज़त पसंद बादशाहो और फ़ातेहों की सी कोई बात उनमें नहीं दिखाई देती, ना वो जाबिर व ज़ालिम है, ना उन्हें शराब और मौसिकी और फ़ाख़िरा लिबासों से दिलचस्पी है, बल्की उल्टा उन्होंने मा'शरे को इन नफ़्सानियत अंगेज़ तफ़रीहात से पाक किया, ना उन्होंने अज़वाज को दुनियावी ऐश व इशरत के सामान फराहम कर के दिए और ना रेशम और सोने से उनको बदनों को सजाया, बल्कि अपनी दरवेशाना जिंदगी के रंग में उनको भी रंग दिया,*

*"❀_फिर उनकी ऐसी नाज़ बरदारी कभी नहीं की कि उनकी खुशनुदी तहरीक के मुफ़ाद पर मुक़द्दम हो जाए, या कोई अदना से अदना उसूल भी तर्क करना पड़े, बल्कि ऐसे मौकों पर उनको ताक़त से तम्बीह की, और एक मौक़े पर तो नान नफ्का़ का मैयार बुलंद करने के मुतालबे पर ही साफ साफ उनसे कह दिया कि इस फ़क़ीरी में साथ दे सको तो बेहतर वर्ना मै रुखसत किए देता हूं, क्या ये सारे अहवाल मिल जुल कर उन बेहुदा एतराजा़त का पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते ? ,*

*"❀_हुजूर ﷺ के मुताद्दिद निकाह जिन खास जरूरतों की बिना पर हुएं वो ये थीं:-*
*"_ कबा'इली निज़ाम का खास्सा है कि अस्बियत, ताल्लुक़ात का दायरा बड़ा महदूद होता है और उसकी सरहदे बहुत ही मजबूत रखी जाती है, बिखरे हुए बेशुमार क़बीलों को जोड़ने के लिए जहां इंसानियत के नज़रिये की ज़रूरत थी, वहा क़ाइद (नेता) की ऐसी शख़्सियत भी मतलूब थी जो सबके लिए नहीं तो बेशतर अहम क़बा'इल के लिए अपनाइयत रखती हो, ये सियासी ज़रूरत बाज़ अज़्दवाजी इलाक़ो के लिए दाई बनी,*

*"❀_ मसलन उम्मुल मोमिनीन हज़रत जुवेरिया रज़ियल्लाहु अन्हा के मामले को लीजिए, ये बनु मुस्तलक के क़बीले की ख़ातून हैं, पूरा क़बीला निहायत ताक़तवर था और डाका ज़नी और लूटमार में मशहुर ख़ुद हज़रत जुवेरिया रज़ियल्लाहु अन्हा का वालिद नामी रहज़न थे, इस्लामी हुकूमत से इस क़बीले ने शुरू ही से सख्त अदावत अख्तियार की, ये ना नज़म को कुबूल करने पर तैय्यार थे ना मुआहिदाना राब्तों के लिए तैय्यार थे, बल्की मुख़ालफ़त के हर मुहाज़ पर मौजूद, आख़िर इस क़बीले को फौजी ताक़त से दबाया गया, हज़रत जुवेरिया रज़ियल्लाहु अन्हा क़ैदियों में आई थीं, हुज़ूर ﷺ से इनका निकाह हुआ तो सहाबा किराम ने पूरे क़बीले के क़ैदियों को रिहा कर दिया कि ये लोग रसूले खुदा ﷺ के ससुराली रिश्तेदार बन गए हैं और अब हम इनको क़ैद में नहीं रख सकते,*
 .
*"❀_इस निकाह की बरकत देखिये कि पूरा क़बीला रहज़नी छोड़ कर अमन पसंद और मुत्तबा निज़ाम बन गया,*

*❥❥_ इसी तरह उम्मुल मोमिनीन हजरत मैमुना रज़ियल्लाहु अन्हा के मामले को लीजिए, नजद का इलाक़ा जहाँ इन्तेहाई सियासी अहमियत रखता था (क्यूँकी कुरैश का एक तिजारती रास्ता इराक़ जाने के लिए उधर से भी गुज़रता था ) वहां दावत के लिये इसकी ज़मीन बेहद संगलाख (मुश्किल) साबित हुई, यहां के लोगों ने एक दावती व तालीमी वफ़द के 70 क़ीमती अफ़राद को शहीद कर दिया था, फ़िर मुतादिद बार अहले नजद ने इस्लाम के ख़िलाफ़ फ़ितना अंगेज़ी की थी,* 

*"❀_ हज़रत मैमुना रज़ियल्लाहु अन्हा सरदार नजद की अहलिया की बहन थीं, हुज़ूर ﷺ से निकाह के होते ही फ़िज़ा बदल गई और नजद मदीना के ज़ेरे असर होता गया,* 

*"❀_ फिर उम्मुल मोमिनीन हजरत उम्मे हबीबा रज़ियल्लाहु अन्हा के बारे मे गौर कीजिये कि ये क़ुरेश के आला सरदार अबू सुफियान की साहबजादी थीं, इस निकाह के बाद अबू सुफ़ियान फिर कभी हुजूर ﷺ के खिलाफ मैदान मे नही आये और उनका ज़ोरे मुख़ाफत टूट गया, बड़ी हद तक इस निकाह ने फतह मक्का का रास्ता हमवार कर दिया,* 

*"❀_ इसी तरह उम्मुल मोमिनीन हजरत सफिया रज़ियल्लाहु अन्हा को लीजिए, ये एक बड़े यहूदी सरदार हई बिन अखतब की साहबजादी थीं, इनके खानदानी मर्तबे के पेशे नज़र ये किसी तरह मोजु़ ना होता कि इनको किसी ममूली घर में जगह मिलती, हुजूर ﷺ ने इनसे निकाह किया तो फिर यहूद कभी मुख़ालिफ़ाना मुहाज़ का इराद करने की जुर्रात ना कर सके, हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा हुज़ूर ﷺ के हुक्म से यहूदी रिश्तेदारों की माली खिदमत भी करती रहती थीं,*

*"❀_उम्मुल मोमिनीन हज़रत हफ़्शा रज़ियल्लाहु अन्हा के निकाह के पशे मंज़र में दूसरे मुहर्रिकात के अलावा एक सबब ये भी काम कर रह था कि इस्लामी माशरे के लिए जिन ख़ास साथियों को हुज़ूर ﷺ ने अपना मुशीर बना कर क़यादत की तरतीब दी, उनमे से चार साथियों से आपने गहरे ज़ाती ताल्लुक़ात क़ायम किए, हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के घर में आपने निकाह किया, हजरत उस्मान गनी रज़ियल्लाहु अन्हु को एक के बाद दीगर दो साहबजादियां निकाह मे दीं, हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के घर को हजरत फातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा से ज़ीनत बख्शी, अंदरुनी सूरत हज़रत हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को इस हलक़ा ए क़राबत से बाहर नहीं रखा जा सकता था, हुज़ूर ﷺ ने उनकी साहबज़ादी को भी अपने निकाह मे ले लिया, इस तरह हुजूर ﷺ ने मरकज़ी कड़ी बन कर मुस्तक़बिल के इन क़ायदीन को आपस में एक दूसरे को मज़बूत कर दिया,*

*❥❥_तहरीक इस्लामी कामयाबी से अपना सफर तभी तय कर सकती है जबकि मर्दों के हल्के के साथ-साथ औरतों के हल्के में भी बराबर काम जारी हो, ये काम बगैर इसके कैसे हो सकता है कि औरतों की रहनुमाई और तालीम के लिए खुद उनकी सनफ (जिंस) में से कुछ ज़हीन ख्वातीन को बतौर क़ाइद और कारकुन के तैय्यार कर दिया जाए,*

*"❀_इस्लामी निज़ाम हिजाब के साथ ये ज़रुरत सिर्फ अज़्दवाज के दायरे में ही पूरी हो सकती है यानी जहां हर मुस्लिम फर्द की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने घर में मस्तूरात को तहरीके इस्लामी की खिदमत के लिए तैयार करे, वहां पैगम्बर और क़ाइद (नेता) के लिए ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वो अपने घर को नमूना बनाएं, और अपने अहले बैत को ख़्वातीन की तालीम और तरबियत के लिए तैय्यार करे, यही ज़रूरत है जिसके तहत ख़ुद क़ुरान में हुज़ूर ﷺ की अज़वाज (बीवियों) व बनात (बेटियों) पर खुसूसी तवज्जो दी गई है,*

*"❀_चुनांचे हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ियल्लाहु अन्हा के अलावा हज़रत हफ्शा और उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा ख़वातीन में इल्मी और ज़हनी क़यादत के क़ाबिल बनीं और बाक़ी अज़वाज ने भी अख़लाक़ी हैसियत से अपने आपको क़ाबिले तक़लीद नमूना बनाया,*

*"❀_ बसा अवका़त अज़्दवाजी राब्तों में हुज़ूर ﷺ को दूसरे फ़रीक़ की दिलजोई का ग़ैर मामूली एहतमाम भी करना पड़ा, मसलन अपनी फूफ़ी ज़ाद हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश रज़ियल्लाहु अन्हा का निकाह खुद आप ही ने बा इसरार ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु से किया था और मक़सूद ये था कि खानदानी इम्तियाज़ की तंग हद बंदियां टूट जाएंगी, निकाह बद क़िस्मती से नाकाम हो गया और नौबत तलाक़ तक पहुंची, हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा की दिल शिकश्तगी ज़ाहिर है और हुज़ूर ﷺ इसमें अपनी ज़िम्मेदारी भी महसूस करते होंगे, अपने निकाह में लेकर बेहतरीन शक्ल में तलाफी फरमा सकते थे,*

*"❀_मगर जाहिलियत की एक ग़लत रिवायत बीच में आड़ थी, ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु को आपने मुंह बोला बेटा बना रखा था और रिवाज़ के मुताबिक़ इस सूरत में बाप बेटे के से हुकूक़ हर मामले में आड़े आते थे, इस रिवायत को है खुदावंद तआला ने तोड़ दिया, और खास हुक्म के ज़रिये हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा को आपके निकाह में दिया,*

*❥❥_पहले हमने उम्मे हबीबा बिन्ते अबू सुफियान रज़ियल्लाहु अन्हा के निकाह की मसलहत बयान की है मगर इसकी भी एक वजह तालीफ़े क़ल्ब थी, ये उबैदुल्लाह से बियाही हुई थी और उनके साथ हिजरत करके चली गईं थी, वहां शौहर नसरानी हो गया और शराब नोशी में मुब्तिला हो कर मर गया, उम्मे हबीबा रज़ियल्लाहु अन्हा ने इस्लाम पर बड़ा सबात (मज़बूती) दिखाया,*

*"❀_बहरहाल गरीबुल वतनी में शोहर का इस्लाम छोड़ देना और फिर मर जाना दोहरा सदमा था, हुजूर ﷺ ने खास क़ासिद (अमरू बिन उमय्या) को शाहे नजाशी के पास निकाह का पैगाम दे कर भेजा, उम्मे हबीबा रजियल्लाहु अन्हा को इत्तेला पहुंची तो इतनी ख़ुश हुईं कि ख़ुश ख़बरी सुनाने वाली शाही लौंडी को अपने ज़ेवर दे दिए, शाहे नजाशी ने ख़ुद निकाह पढ़ाया, उम्मे हबीबा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अपने मामू के लड़के ख़ालिद बिन सईद बिन अबुल आस को वकील बनाया, चार सो दीनार महर शाहे नजाशी ने अपने पास से अदा किया और ज़ियाफ़त की, बाज़ रिवायात के मुताबिक़ मदीना में तजदीद निकाह की गई और वलीमा भी हुआ,*

*"❀_इसी तरह उम्मुल मसाकीन जेनब बिन्ते खुज़ैमा रज़ियल्लाहु अन्हा बिन हारिस हिलालिया (बिन बकर बिन हवाज़िन) हुज़ूर ﷺ के फूफिजा़द अब्दुल्लाह बिन जहश के निकाह में थीं, उनकी शहादत (गज़वा उहद) में हुई तो हुज़ूर ﷺ ने उनको बेवगी से निकाल कर अपने हरम में ले लिया, ज़ाहिर बात है कि ये खालिस घरेलू मामला था और तालीफे क़ल्ब के साथ इसमें खानदानी पहलू भी मल्हूज़ होंगे,*

*"❀_ तहक़ीक़ के मुताबिक ग्यारह (11) निकाह हुजूर ﷺ ने किये, इससे ज़्यादा की कमज़ोर रिवायत भी नहीं मिलती, इनमें से हजरत खदीजा रजियल्लाहु अन्हा हिजरत से पहले (दसवे साल नबुवत में) और ज़ैनब बिन्ते खुज़ैमा रजियल्लाहु अन्हा सिर्फ 3 माह अज़्दवाज नबवी में रह कर 3 हिजरी में फ़ौत हुई, हुज़ूर ﷺ की उम्र का बिल्कुल आख़िरी दौर है जिसमें कुल चार अज़वाज मुतहरात हरम में थीं और उनमें भी एक (हज़रत सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा) दुनियावी रगबती से बिल्कुल बेनियाज़ हो गई थीं, लेकिन जब क़ानूने इलाही ने पाबंदी आ'इद कर दी उसके बाद फिर आप ﷺ ने कोई निकाह नहीं किया,*

*❥❥_ आम मुसलमानों के मुक़ाबले क़ानून ने आपको अलग कर दिया, आम मुसलमानों को तो ये हुक्म था कि अगर चार से ज़्यादा किसी की बीवी हों तो वो ज़ाइद तादाद को तलाक़ दे दे, लेकिन हुज़ूर ﷺ को इजाज़त दी गई के ज़ाइद अज़वाज को पास रखें, इसकी वजह ये थी कि अज़वाजुन नबी ﷺ ज़रुरियात ए दीनी के तहत उम्माहतुल मोमिनीन (तमाम मुसलमानों की माएं) क़रार दे कर मुहर्रमात में दाख़िल कर दिया गया था, अब अगर उनमें से कुछ को हुजूर ﷺ से तलाक दिलवाई जाती तो वो बिल्कुल तन्हा हो कर रह जातीं,*

*"❀_ अब हुज़ूर ﷺ के अज़्दवाजी इलाक़ो की सियासी अहमियत को देखिये कि उनकी वजह से एक तरफ़ मक्का के क़बीले और मुहाजिर बिरादरी से और दूसरी तरफ़ आम क़बीले अरब से क़ा'इद निज़ाम को जो रिश्ता क़राबत हासिल हुआ उसकी वुसअत ज़ाहिर करने के लिए के लिए हम मुताल्लिक़ खानदान और कबीलों के नाम दर्ज करते हैं:-*
 *(1)_ बनी असद बिन अब्दुल उज्जा़ (2)_ बनी आमिर बिन लुई (3)_ बनी तमीम (4)_ बनी अदि (5)_ बनी मखज़ूम (6)_ बनी उमैय्या (7)_ बनी असद बिन ख़ुज़ेमा (8)_ बनू मुस्तलक़ (9)_ यहूद अरब (10)_ बनू किलाब क़ल्ब व सलीम (11)_ बनू कुंदह,*

*"❀_बेशुमर रुकावटों और बागियाना इरादों को इन तल्लुक़ात ने ख़त्म कर दिया, बल्की बहुत ही पुरानी तारीखी़ अदावते तक बेअसर हो गई, सोचिए कि एक अज़ीम नस्बुल ऐन जिसने सारी इंसानियत को फ़ायदा पहुंचाना था, एक निज़ाम ए अदल, अमन और एक आलमगीर भाई चारे का रिश्ता क्या इतनी की़मती चीज़ ना थी कि उसके लिए अगर तादाद अज़्दवाज से अरब के क़बा'इली माहौल में रास्ता हमवार होता हो तो किया जाए,*
*"_ फिर पूरे अरब को वेहदत और नज़म और अमन और तमद्दुन की राह पर डालने के लिए अगर ये तदबीर मुफ़ीद रही तो आखिर इस पर इतना शोर क्यों?*

*"❀_ दर हक़ीक़त देखा जाए तो ये हुजूर ﷺ का ईसार ए अज़ीम था कि आपने इंसानी भलाई के मिशन को कामयाब करने के लिए अपनी वसी मसरूफियात के साथ आखिरी उम्र में अयालदारी का इतना बोझ उठा, और अपने फक़र के आलम में किन मुश्किलों से अहले बैत के नान नफ्का़ के इंतेजामात किए और घरदारी के कितने झनेलो को अपने सर लिया, आज कोई तसव्वुर नहीं कर सकता सारे हालात के रहते किसी आदमजा़द को कोई लम्हा इशरत का, आराम और सुकून की कोई घड़ी भी हाथ आ सकती है,*

*"❀_ आख़िर वाक़िया ये है कि अपने आला मक़सद की ख़ातिर हुज़ूर ﷺ का ये ईसार था कि अज़्दवाज की तादाद का बोझ उठाया, गोया जहां तक तहरीक इस्लामी के सियासी पहलू का ताल्लुक़ है मोहसिने इंसानियत के वसी ज़ाती ताल्लुक़ात ने ज़रूर रास्ते साफ किये होंगे और अवाम के लिए इस्लाम की तरफ बढ़ना आसान कर दिया होगा,*
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    *⚂ _ आवाम ख़ुद आगे बड़ते है' _⚂*   
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*❥❥_ किसी भी उसूली इंक़िलाबी तहरीक की तरह मोहसिने इंसानियत ﷺ के कारनामे को दो हिस्सो मे तक़सीम किया जा सकता है, एक वो दौर जबकि इस्लामी तहरीक खुद आवाम के क़रीब जा जा कर उनको पुकारती थी, दूसरा वो दौर जबकि आवाम खुद आगे बढ़ने लगे और इस्लाम के दरवाज़े पर ख़ुद दस्तक देने लगे कि हम अन्दर आना चाहते हैं, ये दूसरा दौर कुशादा होता है, और ये जब आ चुका होता है तो फिर तमाम मुजा़हमतें खत्म हो जाती है और तमाम मंफी रुझानात मैदान छोड़ देते हैं,*

*"❥❥_ मगर इस दौर तक पहुंचने के लिये नबी करीम ﷺ और आपके सहाबा ने बड़ेे बड़े जतन किए और खून पसीना एक कर दिया, एक तरफ फिकरी दावत के मैदान में साबित कर दिया कि दलील की कु़व्वत हमारे साथ है, दूसरी तरफ अखलाक़ी दायरे मे धाक बिठा दी कि इस्लाम का बनाया हुआ इन्सान इंसानियत का बेहतरीन नमूना है, तीसरी तरफ सियासी बसीरत के लिहाज़ से अपना सिक्का जमा दिया कि हम लोग मामलात की गिरह खोलना बांधना जानते है और चोथी तरफ मैदाने जंग मे अपना लोहा मनवा लिया कि हम मजा़हमतों से निमट सकते है और जुल्म व ज़ोर का नाको चने चबवा सकते है,*

*"❥❥_दिमागो को मुतास्सिर किया, दिलो को झंझोड़ा, जज़्बात को साथ लिया, सआदतमंद रूहों को मुशफिक़ बना कर गले लागया, गैर जंग पसंद क़बाइल को मुआहिदाना निज़ाम मे शमील किया और जंगजू मुख़ालिफीन का जंगी ज़ोर तोड कर रास्ता साफ़ किया, तब कहीं जा कर वो वक़्त आया कि आवाम चारो तरफ़ से नय मरकज़ मदीना की तारीफ़ गामज़न हुए, ये दौर उस साल में शूरू होता है जिसे "आमूल वफ़द" का उनवान दिया गया, यानि वो साल जिसमे अरब के गोशे गोशे से क़बा'इल ने अपने वफ़द मदीना भेजे इस्लाम क़ुबूल करने के लिए, इताअत का अहद बांधने के लिए, या महज़ तहक़ीक़ और हालात को समझने के लिए,* 

*"❥❥_ ये दौर फतेह मक्का के बाद के तीन साल-8-9-10 हिजरी पर फैला हुआ है, ये गोया मोहसिने इंसानियत ﷺ की काश्त करदा फसल को काटने का मौसम था, सीरत का ये बाब इतना अहम है कि वफद का तज़किरा सामने आना चाहिए, क्यूँकी वफ़द की आमद और उनकी बात चीत और उनके तास्सुरात में निहायत ही मुफ़ीद सबक़ मिलते हैं, फ़िर यही बयान इस हक़ीक़त को वाज़े कर सकता है कि किस तरह आवामुन्नास चारो तरफ से आकर इस्लाम के क़दमो में गिरे,*
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     *⚂ _ मदीना में वफ़द की आमद _⚂*   
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*❥❥_ किताबों में मदीना आने वाले वफ़द की तदाद कम से कम 15 और ज़्यादा से ज़्यादा 104 मिलती है, हम उनमे से सिर्फ अहम नुमाया वफ़द का तज़किरा करेंगे, आमुल वफ़द से पहले 5 हिजरी में ही इक्का दुक्का वफ़द आने लगे थे,*

*"❀_ (1)_ वफ़द क़बीला मज़ीना:- ये बहुत बड़ा क़बीला था और ऊपर जा कर इसका सिलसिला नसब कुरैश से मिल जाता था, मशहूर सहाबी नौमान बिन मक़रन इसी क़बीले से थे, 5 हिजरी में इस क़बीले के 400 अफ़राद का अज़ीम वफ़द नबी करीम ﷺ की खिदमत में हाज़िर हुआ और इस्लाम का पैगाम बांधा, गलिबन मदीना आने वाला सबसे पहला नुमाइंदा अवामी वफ़द यही था, मदीना से वापसी पर उनको ज़ादे राह के तौर पर खजूरें दी गईं,*

*"❀_(2)_ वफ़द क़ाबीला बनू तमीम:- ये वफ़द भी इब्तिदाई दौर में आया और बड़े ज़ोर शोर से आया, इस वफ़द के अफ़राद मस्जिद में दख़िल हुए तो बड़े अक्खड़ तरीक़े से हुजरे के क़रीब आवाज़ दी, मुहम्मद ए मुहम्मद! (ﷺ) बाहर आओ! चुनांचे वही इलाही (सूरह हुजरात) ने उनको शाइश्तगी (तहजीब, अखलाक) का दर्स भी दिया, ये लोग यूं तो इस्लाम को दिल दे के ही घरों से चले थे, मगर अभी अरबी नाज़ नख़रा मिज़ाजो में बाक़ी था,*

*"❀_ उन्होने ख्वाहिश की कि फ़रीक़ीन के ख़तीब और शायर मजमे में फसाहत और मानी आफरीनी के जौहर दिखायें, दर हक़ीक़त अरब के बाज़ ऊंचे क़बीले किसी क़यादत को तभी क़ुबूल कर सकते थे कि उसकी ज़ेहनी बरतरी बड़ाई के वो क़ायल हो जायें, हुज़ूर ﷺ ने भी मसलिहत को देख कर क़ुबूल कर लिया,*

*"❀_ ख़िताब और क़सीदे सुन कर वफ़द ने ऐतराफ़ किया कि हमारे ख़तीब और शायर से रसूले ख़ुदा के ख़तीब और शायर बरतर हैं, इस ऐतराफ़ के बाद तमाम अफ़राद इस्लाम के साया ए दरख़्त में आ गए,*

*❥❥_(3)_ वफ़द बनी अब्द अलक़ैस:- इलाक़ा बहरैन में इस्लाम की दावत का आगाज़ बाज़रिये मुनक़ज़ बिन हिबान इब्तिदा ही मे हो गया, हलका़ असर बड़ा होने लगा, 5 हिजरी में 13 आदमियों का वफ़द मदीना आया, हुज़ूर ﷺ के पूछने पर उन्होंने जब बताया कि हम खानदान रबीआ के अफ़राद हैं, तो हुज़ूर ﷺ ने मरहबा कह कर उनकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई की, वफ़द की तरफ़ से दरख़्वास्त की गई कि चूंकी हमारा इलाक़ा ज़्यादा दूर है और रास्ते में दुश्मनो की आबादियाँ हैं, इसलिए हम चार महिनों के अलावा सफ़र नहीं कर सकते, लिहाज़ा हमें चंद मुतइयन बातें बता दीजिए, जिन पर हम पाबंद रहें और अपने लोगों को बतायें,*

*"❀_ नबी करीम ﷺ ने तौहीद, नमाज़, रोज़ा और अदाए खुम्स की तलक़ीन फ़रमाई और शराब साज़ी से दूर रहने के लिए 4 क़िस्म की मरूज़ चीज़ो ज़रूफ़ दिबा, ख़तम, नक़ीर, मुरफ़त का इस्तेमल ममनू ठहराया, वफ़द के लोग बहरैन की जाहिली सक़ाफ़त के मुताल्लिक़ हुजूर ﷺ की मालुमात सुन कर बड़े हैरान हुए,*

*"❀_ इस वफ़द में एक शख़्सियत जारूद बिन अला की भी थी, जारूद मसीह था, उसने अर्ज़ किया था कि मैं एक मज़हब पर चल रहा हूँ, उसे छोड़ कर अगर आपके दीन पर आऊं तो क्या आप ज़ामिन बनते हैं, (यानी कोई उखरवी वबाल तो ना आएगा) हुजूर ﷺ ने फरमाया - हां मैं ज़ामिन हूं, क्यूंकि जिस दीन की तरफ मैं दावत देता हूं, ये तुम्हारे मज़हब से अफ़ज़ल है_, जारूद फ़ौरन मुसलमान हो गया और उसके हम मज़हब साथी भी हल्का ए इस्लामी में दाखिल हो गए,*

*❥❥_(4)_ नुमाइंदा बनु साद (बिन बकर):- क़बीला ने जुमाम बिन सालबा को नुमाइंदा बना कर भेजा, ये ऊंट पर सवार हो कर सादा अंदाज़ से मस्जिदे नबवी में आये और असहाबे नबी से पूछा - तुममे से अब्दुल मुत्तलिब का फरजंद (यानी औलाद) कोन है? सहाबा किराम ने हुजूर ﷺ की तरफ इशारा किया,*

*"❀_ वो रसूलुल्लाह ﷺ के पास पहुंचे और कहा - ए अब्दुल मुत्तलिब के बेटे! कुछ बातें सख्ती से पूछूंगा बुरा ना मानना, हुजूर ﷺ ने इजाज़त दी, फिर उन्होंने क़सम दिला दिला कर दीन की चंद बुनियादी बातों (तोहीद, रिसालत, नमाज़, हज, ज़कात वगैरा) के बारे में पूछा कि क्या आप ऐसा कहते हैं?*

*"❀_हुजूर ﷺ तस्दीक फरमाते गए, सारे जवाब ले कर कहा- मेरा नाम जुमाम बिन सालबा है, मुझको मेरी क़ौम ने भेजा है, मैं जाता हूं और जो कुछ आपने बताया है उसमें मैं जर्रा भर इज़ाफ़ा करूंगा ना कमी और ऊंट पर सवार हो कर रवाना हो गए,*
*_ उनके जाने के बाद हुजूर ﷺ ने फरमाया कि अगर ये सच कहता है तो उसने फलाह पाई_,*

*"❀_ वापस जा कर उन्होंने क़ौम में तूफ़ानी अंदाज़ से दावत दी कि लोगों! मैं खुदा और उसके रसूल पर ईमान लाया हूं, लात व उज़्ज़ा वगैरा कोई हक़ीक़त नहीं रखते, लोगों ने डराया कि तुम पर ऐसी बातों की वजह से बुतो की मार ना पड़े और जुनून या जुज़ाम न हो जाए, जुमाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा- "खुदा की क़सम! ये ना नफ़ा पहुंचा सकते हैं ना नुकसान," शाम होने से पहले पहले सारा क़बीला इस्लामी तहरीक में शामिल हो गया,*

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*❥❥_(5)_ वफ़द अश'अरीन ( यमन ):- यमन का ये एक मोअज़्ज़िज़ क़बीला था और अबू मूसा अश'अरी रज़ियल्लाहु अन्हु इसके एक फ़र्द थे, उन तक दावते हक़ मक्की दौर में तुफ़ेल दौसी और मुहाजिरीन हब्शा के वास्ते से पहुंच चुकी थी, अश'अरीन में से तीन शख्स हिजरत का इरादा कर के मदीना को रवाना हुए कि हुजूर ﷺ से फैजा़न हासिल करेंगे और तहरीक़ हक़ को तावुन पहुंचाएंगे,*

*"❀_पानी का सफर था, रास्ते में मुखालिफ हवा चली और जहाज हब्श के साहिल से जा लगा, वहां ये लोग हिजरत अवला की सआदत पाने वाली इस्लामी जमात से जा मिले, कुछ ज़माना वहां रह कर हज़रत जाफ़र तैय्यार रज़ियल्लाहु अन्हु की रफ़ाकत में चंद नव मुस्लिम हब्शियों को भी साथ ले कर ये मदीना को रवाना हुए, और फ़तेह ख़ैबर के मौक़े पर (7 हिजरी) बारगाहे रिसालत में जा हाज़िर हुए,*

*"❀_ उनके जज़्बे बेअख्तियार का ये आलम था कि मंजिले मक़सूद पर पहुंचे तो ये नगमा ए मसर्रत जुबान से उबला पड़ता था कि- (तर्जुमा) कल हम अपने रफीको़ से जा मिलेंगे, यानि मुहम्मद ﷺ से और आपके सहाबा से _,"*

*"❀_ हुजूर ﷺ को इत्तेला हुई तो अहबाब से कहा- तुम्हारे यहां यमन से कुछ लोग आते हैं (ख्याल रहे कि) ये लोग बहुत रफीकुल क़ल्ब और नरम दिल होते हैं, फिर फरमाया- ईमान है तो यमन का! हिकमत है तो यमन की! फिर मुलाक़ात हुई, बातें हुई, सवालात सामने आयें, जवाब दिये गये और मदीना की फ़िज़ा में एक नया रंग छा गया,*

*❥❥_(6)_ वफ़द दौस (यमन) :- हम पहले बता चुक है कि तुफ़ेल दौसी रज़ियल्लाहु अन्हु मक्का के इब्तिदाई दौरे दावत मे इस्लाम लाए थे, उन्होंने जाते ही ज़ोर शोर से दावत का काम किया और उनके वालिद और बीवी तो फ़ौरन उनके साथ हो गए, कुछ दूसरे अफ़राद भी मुतास्सिर हुए, मगर क़बीला बड़े भारी अखलाक़ी इंहितात में पड़ गया था, और बदकारी फैल गई थी, एसे हालात में उनकी तुन्‍दी मिजाजी़ और जोशीले पन की वजह से काम आगे ना बढ़ सका,*

*"❀_ ये हुजूर ﷺ से आकर मिले और क़ौम की शिकायत कर के दुआ की तमन्ना की, आप ﷺ ने उनको नरम अंदाज़ में दावत की तलक़ीन की और दौसी की इसलाह के लिए खुदा से दुआ की, अब जो तुफैल दौसी रज़ियल्लाहु अन्हु ने जा कर काम शूरु किया तो रास्ते खुलते गए और 5 हिजरी में बहुत से घरानों में इस्लाम दाखिल हो गया, यहां तक कि 7 हिजरी मे 80 खानदान हिज्रत करके मदीना आ गये, और इन्हीं मुहाजिरीन मे हजरत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु जेसी बड़ी शख्सियत भी थी,*

*"❀_(7)_ वफद सदा :- इस क़बीले में से पेहले पहल ज़ियाद बिन हारिस सदाई नबी करीम ﷺ की खिदमत में आए थे, फ़िर उन्होंने जा कर कुछ असर डाला, 8 हिजरी मे 15 आदमियों का एक वफ़द पूरे क़बीले का नुमाइंदा बन कर हाज़िर हुआ, साद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु उनके मेज़बान थे, उन्होंने ख़ाने के अलावा उनके लिये कपड़ों का इंतेज़ाम भी किया, इन लोगों ने हुजूर ﷺ हाथ पर इस्लामी तहरीक मे शिरकत की बैत बाँधी, और क़बीले की तरफ़ से भी तावुन की पेश कश की,*

*"❀_ इस वफ़द के वापस जाने पर काम तेज़ी से हुआ, हज्जतुल विदा के मौके पर इस क़बीले के बहूत से अफ़राद मक्का पहुंचे, फतेह मक्का से पहले के दौर में यही वफद ऐसे सामने आते हैं कि जिनका तज़किरा तारीख मे महफूज़ है, फतेह मक्का के बाद तो गोया एक अवामी सैलाब था जो चारो तरफ से इस्लाम का साथ देने के लिए उमड़ पड़ा और 10 हिजरी मे कसीर तादाद मे वफद मदीना पहुंचे,*

*❥❥_,(8)_ वफ़द शकीफ़ (ताइफ़):- हुज़ूर ﷺ जब फ़तेह मक्का के सफ़र से वापस हुए तो उरवा बिन मसऊद सक़फ़ी हाज़िर हो कर हल्का इस्लामी में दाख़िल हुए और बनु सकीफ़ में दावत फैलाने का इरादा ज़ाहिर किया, हुजूर ﷺ ने सकी़फ के किब्र व गुरुर के पेशे नज़र अहतियात का मशवरा दिया, और अंदेशा ज़ाहिर किया कि वो लोग तुम्हें क़त्ल न करें, हज़रत उरवाह रज़ियल्लाहु अन्हु को अपने असर व रुसूख पर पूरा एतमाद था, लिहाज़ा बा इसरार काम करने की इजाज़त ली,*

*"❀_वापस जाते ही मकान की छत पर खड़े हो कर इस्लाम की पुकार बुलंद की, उनकी तवक्को़ के खिलाफ़ हर तरफ से तीरंदाजी शुरू हो गई और एक तीर खा कर वो शहीद हो गए, बनू सक़ीफ़ करने को तो ये हरकत कर बैठे, मगर इस ज़ालिमाना क़दम ने उनके जमीरो में हरकत भी पैदा कर दी, वो मामले को ठंडे दिल से सोचने पर मजबूर हो गए,*

*"❀_ महीने भर बाद उन्होंने एक इज्तिमा किया, जिसमें सूरते हाल का हकीकत पसंदाना जायज़ा ले कर इस सवाल पर गौर किया गया कि क्या हम लोग पूरे अरब का मुक़ाबला कर सकते हैं जो इस्लाम के ज़ेरे असर हो चुका है, बिल आख़िर तय पाया गया कि मदीना में किसी नुमाइंदे को भेजा जाए, बाद में पूरा वफ़द तैय्यार किया गया, उस्मान बिन अबुल आस, औस बिन औफ और बहर बिन ख़रशा (बनी मालिक में से) हकम बिन अमरू बिन वहाब और शरजील इब्ने गिलान ( हलीफ़ क़बीलों की तरफ से) वफ़द में शरीक हुए, अब्दियालैल सरदार ता'इफ़ इनको ले कर मदीना गया,*

*"❀_याद कीजिए कि ये वही अब्दियालैल है जिसने 12 साल पहले हुजूर ﷺ की दावत सुनने से इंकार कर दिया था, और शरारती लड़कों को आपके पीछे लगा दिया था, तबूक से रसूले अकरम ﷺ की वापसी पर ये वफ़द मदीना पहुंचा, इनके लिए मस्जिद के करीब खैमा नसब किया गया, ख़ालिद बिन सईद बिन आस फ़रीक़ीन के दरमियान ज़रिया ए गुफ़्तगू रहे, इन लोगों ने अजब अजब शर्तें पेश की,*

*❥❥_,(8)_ वफ़द शकीफ़ (ताइफ़):- (पिछले पार्ट से जारी):-*
*"❀_ एक शर्त ये थी कि तीन बरस तक उनका बुत "लात" मुनहदिम ना किया जाए, फिर इस मुद्दत को घटाते घटाते वो एक महीने तक लाये, उन्होंने ये अंदेशा ज़ाहिर कर दिया कि हमारे बुतों को अगर कहीं मालूम हो गया कि उनको मुनहदिम किया जाने वाला है तो मुमकिन है कि वो तमाम बाशिंदों का खात्मा कर दें, हजरत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ये सुन रह थे, उनसे चुप रहा ना गया, अब्दियालैल को मुखातिब कर के कहा- "कैसी जहालत की बात कर रहे हो, तुम्हारे ये माबूद तो महज़ पत्थर है _,*

*"❀_ अब्दियालैल ने भन्ना कर कहा कि ऐ इब्ने खत्ताब हम तुमसे बात करने नहीं आए, हमारा मामला रसूलुल्लाह से है, बहरहाल हुजूर ﷺ ने ये शर्त जब किसी क़ीमत पर क़ुबूल ना की तो वो इस पर राज़ी हो गए के इंहिदाम की कारवाई हमसे ना कराई जाये, बल्की हुज़ूर ﷺ अपने आदमी भेजें, चुनांचे अबू सुफ़ियान बिन हर्ब और मुगीरा बिन शोबा को नामज़द कर दिया गया,*

*"❀_ फिर उन्होंने कहा कि हमें नमाज़ अदा करने से मुस्तशना रखा जाए, हुजूर ﷺ ने फरमाया :- जिस दीन मे नमाज़ नहीं उसमे कोई भलाई नही _,*
*"_ एक रुक्ने वफद ने ये भी दरख़ास्त की कि रसूले खुदा! हमें ज़िना की इजाज़त दीजिये, इसके बगैर तो हमारे लिए कोई चाराकार ही नहीं, फ़िर वो कहने लगे कि अच्छा हमारे लिए सूद की लेन देन की तो गुंजाईश छोड़िये, इसी तरह शराब पीने की छूट माँगी,*

*"❀_अंदाज़ ऐसा था गोया कि रसूले ख़ुदा ने कोई दुकान लगा रखी थी कि जिसमे से हर एक अपनी अपनी पसन्द का सौदा खरीद सकता था, कि जो चीज़ चाहे छोड़े और जो चाहे ले, हुज़ूर ﷺ इन मुतालबों के जबाव मे क़ुरान की आयात पढ़ कर बताते गये कि ये तो ख़ुदाई ज़ाब्ता है ना कि किसी का मन घढ़त,*

*"❀_जब ये फ़िज़ूल शर्ते ख़त्म हो गईं तो फिर अहले वफ़द मशवरा कर के इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर हम इस्लाम के मुतालबों को नहीं मानते तो हमारा हश्र भी एक दिन मक्का वालो का सा होगा, मजबूरन इता'त में सर झुका दिया और मुआहिदा लिखा गया,*

 *"❀_ हुजूर ﷺ ने सिर्फ दो बातों में उनको ढील दी, यानी कुछ मुद्दत के लिए उनसे ज़कात की वसूली ना की जाएगी और उनको जिहाद में शिरकत पर मजबूर नहीं किया जाएगा, लेकिन हुजूर ﷺ की तवक़्क़ो के मुतबिक जब इस्लाम ने दिलों में घर कर लिया तो ये तकाज़े भी खुद बा खुद पूरे होने लगे,*

*"❀_ वफ़द में एक मुखलिस नौजवान उस्मान बिन अबुल आस शरीक थे, ये फारिग अवका़त में इस्लाम की हक़ीक़त, शरीयत के अहकाम और इस्लामी निज़ाम के तक़ाज़ो का इल्म हासिल करते थे, इन्हीं को अमीर मुकर्रर किया गया, ये लोग जब वापस पहुंचे तो पहले तो उन्होंने ड्रामाई तरीक़े से मुखालिफाना तास्सुर बयान किया कि मुहम्मद (ﷺ) ने बड़ी ना क़ाबिले कुबूल शर्तें पेश की हैं लिहाज़ा जंग की तैयारी करो,*

*"❀_ दो रोज़ तक खास जोशीली फ़िज़ा क़ायम रही, आख़िरकार लोग ख़ुद ही कहने लगे कि भला हम मुहम्मद (ﷺ) से क्या लड़ेंगे, जबकी सारा अरब उनकी इता'त कर रहा है, जाओ जो कुछ वो कहे उसे क़ुबूल करो, यूं फ़िज़ा तैय्यार कर के अहले वफ़द ने फिर अपना तास्सुर बयान किया, हमने मुहम्मद (ﷺ) को तक़वा, वफ़ा, रहम और सच्चाई में बहुत ऊंचा पाया है और हमारा सफ़र बहुत ही बा-बरकत रहा,*

*"❀_वही ता'इफ़ जो एक दिन दाई हक़ पर पत्थर फ़ांक रहा था, आज उसके इशारों से उनका जाहिली निज़ाम ख़ुद उनकी आँखों के सामने मिसमार किया जा रहा था,*

*❥❥_(9)_वफ़द बनी हनीफ़ा:- ये लोग इलाक़ा यमामा से ताल्लुक़ रखते थे, इन तक इस्लाम सुमामा बिन उसाल की दावत से पहुँचा, और फ़िर ये लोग ख़ुद मदीना आ कर नबी करीम ﷺ से मिले और इस्लामी तहरीक़ के साये में दाख़िल हुए, इस वफ़द के साथ मुसेलमा कज़्ज़ाब भी आया था, उसने इधर उधर की बातें कहीं कि अगर मुहम्मद ﷺ ये बात तय करें कि अपना जानशीन मुझे बनायेंगे तो मैं बैत करूंगा,*

*"❀__दर असल नबुवते मुहम्मदी ﷺ कि अज़ीमुश्शान कामयाबियों को देख कर इस शख़्स के मुंह में पानी भर आने लगा था और इसने ना जाने कब से ये सोचना शुरू कर दिया होगा कि कुछ अदबी इबारत को अगर बतौर इल्हाम पेश किया जाए और मुक़ाबले पर एक इल्मे नबुवत बुलंद कर दिया जाए तो कुछ खैल बनाया जा सकता है, इन्हीं ख़्यालात की वजह से उसका ज़हन सौदागराना बन गया था, उसका इरादा ये था कि या तो मुझसे सौदा कर लो, वरना फ़िर मैं पूरा ढोंग रचाउंगा ,*

*"❀__हुजूर ﷺ ने उसका ज़हन पढ़ लिया और खजूर की जो छड़ी उस वक्त हाथ में थी उसे आगे कर के फरमाया कि मैं तो इस छड़ी के देने की शर्त पर भी बैत नहीं लेना चाहता,*
*"_ वफ़द वापस चला गया, वापस जा कर मुसेलमा ने वाक़ई नबुवत का दावा कर दिया, उसकी शरियत में नमाज़ माफ़ थी और शराब और ज़िना हलाल थे,*

*❀_(10)_ वफ़द बानी तय:- क़बीला तय के लोग ज़ैद अल ख़लील की क़यादत में हाज़िर हुए, नबी करीम ﷺ ने इन लोगों के सामने इस्लाम का कलमा हक़ पेश किया और इल्हामी निज़ामे हयात की दावत दी, सरदार समेत वफ़द ने दिलों जान से इसे कुबूल कर लिया, ज़ैद अल खलील (जिनका नाम हुज़ूर ﷺ ने ज़ैद अल खैर कर दिया) शायर व खतीब भी थे और बहादुर भी,* 

*❥❥_अदी बिन हातिम भी इसी (बनी तय) क़बीले के सरदारों में थे, मज़हबन इसाई थे और हुज़ूर ﷺ के ख़िलाफ इनके दिल में अदावत का एक तूफ़ान भरा हुआ था, मुक़ाबले की तैयारी में थे, लेकिन अचानक इस्लामी फौजे यमन के इलाक़े में जा पहुंची तो भाग कर शाम चले गए, इनकी बहन गिरफ़्तार हो कर मदीना पहुंची तो रसूलुल्लाह ﷺ के हुस्ने सुलूक और मजमुई किरदार से बेहद मुतास्सिर हुईं,*

*"❀_ उन्होंने अदी बिन हातिम को बा इसरार मदीना भिजवाया और ताकीद की कि जल्द से जल्द रसूलुल्लाह ﷺ से जा मिलो, बाज़ लोग कहते हैं कि ये भी वफ़द बनी तय के साथ ही मदीना पहुंचे थे, इनके सामने अब सवाल ये था कि ये शख़्स महज़ एक बादशाह है या नहीं ? पहुंचे तो मस्जिद में ही हुज़ूर ﷺ से मुलाक़ात हुई, आप उठे और अदी को अपने घर की तरफ़ ले चले,*

*"❀_ रास्ते में एक बुढ़िया ने हुजूर ﷺ बात करनी चाही, तो आपने काफी वक्त़ उसे दिया, और पूरी तवज्जो सर्फ की, फिर घर पहुंचें तो खुद ज़मीन पर बैठे और अदी बिन हातिम को बा इसरार गद्दे पर बिठाया, इन दो बातों से अदी को यक़ीन हो गया कि ये अल्लाह के रसूल हैं और महज़ दुनियावी बादशाह नहीं हैं,*

*"❀_ फिर हुजूर ﷺ की बातों ने मज़ीद पुख्तगी दिलाई, दौराने गुफ्तगू में हुजूर ﷺ ने भांप लिया कि अदी के ज़हन में अब क्या उलझनें बाक़ी हैं और फिर उनको बड़ी खूबी से साफ किया, अदी रज़ियल्लाहु अन्हु उन लोगों में से थे जो हक़ को जल्दी पहचान लेने के बाद ये इत्मिनान भी चाहते हैं कि इसकी कामयाबी के अमली इमकानात काफी हद तक मोजूद हैं और जल्दी कोई नतीजा बर आमद हो सकता है,*

*❥❥_ये अंदाज़ा कर के हुजूर ﷺ ने फरमाया - शायद तुम्हें इस्लाम में शामिल होने से रोकने वाली चीज़, इसके मानने वालो की तंगहाली है! सो खुदा की कसम! अंक़रीब वो वक्त आने वाला है कि लोगों के अंदर दौलत के फव्वारे छूटेंगे, यहाँ तक कि लेने वाले नहीं मिलेंगे _,*

*"❀_ और अगर तुमको ये चीज़ इस्लाम में आने से रोकती है कि मुसलमानों की तादाद कम है और इनके मुखालिफीन बहुत हैं, तो मैं तुम्हें बताता हूँ कि खुदा की क़सम! वो वक्त आने वाला है कि तुम सुन लोगे की एक औरत तन्हा अपने ऊंट पर सवार हो कर क़ादसिया से इस मस्जिद की ज़ियारत के लिए चली और बा खैरियत पहुंची,*
*"_या शायद तुम्हारे लिए ये ख़याल माने है कि सल्तनत और इक़्तिदार दूसरों के पास ज़्यादा है, तो ख़ुदा की क़सम! ऐसा अनक़रीब होगा कि तुम ख़ुद सुन लोगे कि सरज़मीन बाबिल के महल्लात मुसलमानों ने फ़तेह कर लिये,*
*"_इस पहलू से जब अदी बिन हातिम के शुबहात का इज़ाला हो गया तो उन्होंने फ़ौरन अपने आपको तहरीके इस्लामी के हवाले कर दिया,*

*"❀_ इस गुफ्तगू से ज़ेल अहम नता'इज निकलते हैं, इस्लाम सिर्फ अखलाकी़ इस्लाह ही की दावत नहीं देता बल्कि इसके प्रोग्राम में मआशी फलाह भी शामिल है और सियासी इंक़लाब भी, वो आख़िरत की भलाई को दुनियावी मामलात की दुरुस्ती से अलग कर के नहीं लेता, इस्लामी तहरीक अगर तकमील के दर्जे तक पहुंच जाए तो इससे लाज़िमन ये नतीजा निकाला जाए कि:-*
*(1)_ म'आशी ज़राए व वसाइल इतनी तरक्की कर जाएं और उनको ऐसे सही आदिलाना तरीक़े से तक़सीम किया जाए कि मा'शरे में कोई मोहताज ना रहे,*

*"❀_ (2)_ सियासी लिहाज़ से इतनी मज़बूत हुकूमत पैदा हो कि मुखालिफ़ीन उसे तर निवाला ना बना सके, बल्की उल्टा वो हर मुख़ालिफ़ ताक़त का ज़ोर तोड़ सके,*
*"(3)_ दाखिली अमन का मैयार ये होना चाहिए कि अगर एक औरत भी मुल्क के एक सिरे से दूसरे सिरे तक का सफर करे और इंसानी आबादियों और वीरानों से गुज़रे तो उसकी जान इज्ज़त और माल को किसी तरह से कोई खतरा ना हो, यही एक इस्लामी निज़ामे सल्तनत की ख़ूबियाँ हैं,*

*❥❥_ (11)_ वफ़द बनी हर्स (या बनी हारिस) बिन काब:-*
*"❀__ ये इलाक़ा नज़रान के लोग थे, अतराफ में हज़रत खालिद बिन वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु ने 10 हिजरी में बतौर खास जा कर इस्लाम की दावत दी थी, उन्होंने दावत कुबूल कर ली, हज़रत खालिद उनको इस्लाम की तालीम व तरबियत देने के लिए कुछ अरसा ठहरे और हुजूर ﷺ को खत के जरिए कामयाबी की इत्तेला दी,*

*"❀__ मदीना से इस खत के जवाब में हुक्म गया कि वापस आ जाओ और क़बीले के चंद सरदारों को साथ ले आओ, इस हुक्म की तामील की गई, ये क़बीला अपने दौरे जहिलियत में भी कुछ अच्छी क़दर रखता था, चुनांचे वफद आया तो हुजूर ﷺ ने बातचीत की, दौरन में पूछा कि क्या वजह है कि तुम लोग अपने दुश्मनों के खिलाफ मैदाने जंग में हमेशा कामयाब होते रहे हो और तुम्हें कभी शिकस्त नहीं हुई,*

*"❀__ उन्होंने बताया कि "हम लोग किसी के खिलाफ़ खुद जारेहाना (आगे बढ़ कर) जंग नहीं करते, लड़ने के लिए मुजतमा हो जाएं तो फिर तफ़रुका (जुदाई) में नहीं पड़ते, बल्की इत्तेहाद रखते हैं, और अपनी तरफ़ से कभी किसी ज़ुल्म की इब्तिदा नहीं करते,*

*"❀__हुजूर ﷺ ने उनकी इस हिकमत अमली की तस्दीक़ की, वफ़द के एक मुमताज़ फर्द क़ैस बिन हुसैन को उन लोगों पर अमीर मुकर्रर किया गया,* 

*❥❥_ (13)_वफ़द नज़रान:-*
*"❀_ मोहसिने इंसानियत ﷺ ने क़लम को भी बड़े पैमाने पर दावत का ज़रिया बनाया और खास खास लोगों को ख़त रवाना फरमायें, चुनांचे नजरान के ईसाइयों को भी ख़त के ज़रिये कलमा हक़ पहुंचाया, नामा मुबारक में ऐजाज़ मुमतना से काम ले कर पहुंचाने की बात हुजूर ﷺ ने इन लफ्ज़ो में पहुंचाई,*

*"❀_ इब्राहीम, इस्हाक़ और याक़ूब के इला (माबूद) के नाम से आगाज़ करता हूं, फिर इसके बाद मैं तुमको बंदो की इबादत से खुदा की इबादत की तरफ बुलाता हूं और तुम्हें बंदो की आका़ई से खुदा की आक़ाई की तरफ़ पुकारता हूँ,....._,*

*"❀_असक़फ ने खत पढ़ा तो उसके बदन में कंपकंपी सी तारी हो गई, उसने पहले खास खास अकाबिर को बुला कर राय ली, फिर पूरी वादी के अवाम को जमा किया, वादी में 73 बस्तियां थी और आबादी इतनी थी के एक लाख फ़ौज निकल सकती थी, बहुत भारी इज्तिमा हुआ, ये इम्कान अकाबिर के पेशे नज़र था कि शायद ये वही आखिरी नबी मोऊद हैं जो बनू इस्माईल में से उठने वाले हैं,*

*"❀_मशवारा आम के बाद फैसला ये हुआ कि अकाबिर का एक वफ़द मदीना जाए और हुज़ूर ﷺ से बात चीत करे और जायज़ा ले, चुनांचे शरजील, अब्दुल्लाह और जब्बार को ख़ुसुसियत से नामज़द किया गया, ये पहला वफ़द था जो सियासी इता'त और जजी़या अदा करने के वादे पर एक फरमान ए अमन व हुक़ूक़ हासिल कर के वापस हुआ,*

*❥❥_ वफ़द फ़रमान हासिल कर के वापस हुआ तो असक़फ़ और आला सरदार उसके इस्तक़बाल के लिए बहुत दूर तक आये, फ़रमान रास्ते ही में असक़फ़ को पेश कर दिया और वो चलते चलते पढ़ने लगा, उसका चचेरा भाई बशर बिन मुआविया भी फ़रमान की तरफ इस दर्जा मुतवज्जह हुआ कि ऊंटनी से गिर पड़ा, उसकी जुबान से निकला, "बुरा हो उस शख्स का जिसकी वजह से हम मुसीबत में पड़ गए हैं," ज़ाहिर है कि उसका इशारा किधर था,*

*"❀_ असक़फ़ ने कहा- "ये क्या कह रहे हो, ख़ुदा की क़सम! वो तो नबी मुरसल हैं," अब बशर के दिल में इंकलाब आ गया और उसने ये अज़्म ज़ाहिर किया कि" अच्छा तो अब खुदा की क़सम मै ऊंटनी का पालान उसकी बारगाह में जा कर ही उतारूंगा, असक़फ उसके पीछे पीछे दौड़ता हुआ पुकारता रहा कि मेरी बात तो सुनो लेकिन बशर ने उसकी एक ना सुनी और कहा तो ये कहा कि "तुम्हारे जुबान से इतनी बड़ी गलत बात निकल ही नहीं सकती_,*

*"❀_ अपनी धुन का पक्का बशर मोहसिने इंसानियत ﷺ की खिदमत में जा कर इस्लाम लाया, वहीं मुकी़म हो गया और खुदा ता'ला ने उसको शहादत का मर्तबा नसीब फरमाया, इससे मिलता जुलता वाक़िया इब्ने अलक़मा रज़ियल्लाहु अन्हु के नाम से भी मज़कूर है,*
*"_ वफ़द मुक़ामी सरदारों समेत वापस पहुंचा तो वहां के एक और तारिकुद दुनिया राहिब के कानों में सारे हालात व वाक़ियात की भनक पड़ी, और उसे मालूम हुआ कि एक नबी ऐसा ऐसा उठा है,*

*"❀_ये भी वलिहाना ज़ज़्बे से सरशार हो कर मदीना को रवाना हो गया, एक प्याला एक असा एक चादर हुजूर ﷺ की खिदमत में बतौर तोहफा पेश कर के अपनी मुहब्बत व अक़ीदत का इज़हार किया, फिर मदीना में कुछ अरसा ठहर कर इस्लाम के निज़ामे फ़िक्र व अमल की तालीम हासिल की, और हुज़ूर अक़दस ﷺ से इजाज़त ले कर वापसी का वादा कर के नज़रान गए लेकिन हुज़ूर ﷺ की जिंदगी में वापस पहुंच न सके,*

*❥❥_(14)_वफ़द बनू असद :- बनू असद नामी क़बीला जंगी मुहीमात में क़ुरैश का बड़ा अहम दस्त व बाज़ू था, 9 हिजरी में इस क़बीले की सिफ़ारत मदीना पहुंची और उन्होंने अपना इस्लाम पेश किया, अरबों के अंदाज़े गुरुर की बू उसमें मौजूद थी, इसलिए अहसान जताने के अंदाज़ में अरकाने वफ़द ने हुज़ूर ﷺ से कहा कि आपने कोई मुहीम तो हमारी तरफ़ भेजी ना थी, हम तो अज़ ख़ुद इस्लाम लाए हैं,*

*"❀_इस ज़हनियत को तोड़ने के लिए वही इलाही ने हुज़ूर ﷺ से कहलवाया कि (तर्जुमा) अपने इस्लाम लाने का अहसान मेरी जा़त पर ना धरो, ये तो अल्लाह का तुम पर अहसान है कि उसने तुम्हें ईमान नसीब किया,*

*"❀_ फिर इस वफ़द ने परिन्दों से फ़ाल लेने, कहानत (भविष्य के बारे में बताना) और ज़रबुल हमा (यानी क़ीमत या भाव तय करने के बाद ग्राहक जिन्स या ज़मीन को दूर से कंकरी मारता और जिस माल को कंकरी लग जाती वो उसका हो जाता) के बारे में हुक्म दरियाफ्त किया, हुजूर ﷺ ने तीनो उमूर की मुखालफत फरमाई,*

 *"❀_ आख़िर में उन्होंने ख़त या तहरीर के बारे में सवाल किया कि ये जा'इज़ है या ना-जा'इज़, हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि ये तो किसी ना किसी नबी ही का आगाज़ करदा फन है और इससे अच्छा इल्म और क्या होगा, इस क़बीले से भी नबुवत का मुद्दई काज़िब तलहिया इब्ने खुवैल्द ख़िलाफ़ते सिद्दीकी के दौर में उठा था,* 

*❥❥_(15)_वफ़द बनू फ़ज़ारा:- ये एक मज़बूत और सरकश क़बीला था, मुऐना बिन हसन इसी के एक फ़र्द थे, 9 हिजरी में हुज़ूर ﷺ जब तबूक से वापस आ रहे थे तो इनको वफ़द ने आ कर इस्लाम की बैत की, रसूले खुदा ﷺ ने उन लोगों से इलाक़े के आम हालात पूछे तो उन्होंने क़हत साली का रोना रोया और दर्द भरे अंदाज़ में कहा कि या रसूलल्लाह! हमारी बस्ती तबाह हो गई, मवेशी हलाक हो गए, बाग उजड़ गए, बाल बच्चे सूख कर कांटा हो गए, खुदा से आप हमारे लिए सिफ़ारिश कीजिए और खुदा आपसे हमारी सिफ़ारिश करे_,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ ने टोका कि खुदा के पास तो मैं सिफ़ारिश करता हूं, मगर वो कौन हो सकता है कि जिसके आगे खुदा ए ज़ुलजलाल सिफ़ारिश करे, उसके सिवा कोई मा'बूद नहीं और उसकी अज़मत व जलाल सारे आसमान व ज़मीन को अहाता में लिए हुए है, फिर आप ﷺ ने उनके लिए बाराने रहमत की दुआ की, जो क़ुबूल हुई,*

*"❀_(16)_ वफ़द बनू आमिर:- ये खानदान अरब के मशहूर क़बीला क़ैस अयलान की शाख थी, इसमें तीन बड़े सरदार थे, आमिर बिन तुफैल, अरबद बिन क़ैस और जब्बार बिन सलमा, अच्छा ख़ासा बड़ा वफ़द इन सरदारों के साथ आया, अव्वलुल ज़िक्र दोनों सरदार मर्तबे के तालिब थे, ख़ुसूसन आमिर पहले ही सरपसंदी दिखा चुका था, इस वक़्त भी ये दोनों आपस में एक खौफनाक क़त्ल की साज़िश बना के आये थे,*

*"❀_ वफ़द हुजूर ﷺ की खिदमत में पहुंचा तो हुजूर ﷺ को "सैयदना" कह कर मुखातिब किया, हुजूर ﷺ ने बात करने के इस अंदाज की तरदीद करते हुए फरमाया - आका़ तो खुदा ही है, उन्होंने फिर कुछ तारीफी कलमात कहे, हुजूर ﷺ ने फिर मुतनब्बा किया कि देखो बात करते हुए ख्याल रखना चाहिए कि शैतान कहीं बहका ना ले जाए,*

*❥❥_ आमिर बिन तुफैल ने हुजूर ﷺ के काम को एक सियासी, मुल्कगीरी और सल्तनत साज़ी का काम समझते हुए बा फ़ायदा सौदा करने के लिए शर्तें रखी कि:-*
*"_(1)_ अहले बादिया (सेहरा) पर आप हुकूमत करें और शहर मेरे ज़ेरे इक़्तिदार हों,*
*"_(2)_ या अपने बाद मुझे जानशीन नामज़द कर दीजिये,*
*"_(3)_ वर्ना मै गतफान को ले कर चढ़ाई करुंगा,*

*"❀_ आमिर ने अरबद को इस पर तैय्यार कर रखा था कि मैं तो मुहम्मद (ﷺ) को बातों में लगाए रखूंगा और तुम मौक़ा पा कर काम तमाम कर देना, मगर रौब ए नबुवत के सबब से अरबद बिल्कुल साकित व सामित रहा, दोनों नाकाम हुए, हुजूर ﷺ की निगाह ने उन दोनों के दिलो को पढ़ लिया था, सो आपने दुआ की कि ऐ खुदा! इनके शर से बचाइयो, ज़्यादा वक्त न गुज़रा था कि आमिर ताऊन के हमले का शिकार हो गया और अरबद बिन क़ैस पर बिजली गिरी और उसे ख़ाकसार कर गई,*

*"❀_(17)_ वफ़द अज़रा:- सफ़र 9 हिजरी में इस क़बीले के 12 अफ़राद हाज़िर हुए, हमज़ा बिन नौमान भी इनमें शामिल थे, उन्होंने अपना तार्रुफ कराया कि हम लोग अज़रा की औलाद में से हैं, जो मां के वास्ते से कुसई के भाई थे, रसूले खुदा ﷺ ने बड़ी मसर्रत से खैर मुकद्दम किया, उन सबने अपने सीने इस्लाम के लिए खोल दिये,*

*"❀_ उनको हुज़ूर ﷺ ने बशारत सुनाई कि शाम ख़त्म हो जायेगा, और हिरक्क़ल मुल्क को छोड़ कर चला जायेगा, उन लोगों को हुज़ूर ﷺ ने क़ाहिनो से ग़ैब की ख़बर (भविष्य) मालूम करने से मना किया और इब्राहिमी कुर्बानी के अलावा दूसरी तमाम रस्मी और अवबामी कुर्बानियों से रोक दिया, रवानगी के वक्त वफ़द को मामूल के मुताबिक़ रास्ते का सामान दिया गया,*

*❥❥_(18)__ वफ़द कुंदाह:- इलाक़ा यमन का एक मैयार क़बीला था, हज़रत अश'अफ़ इब्ने क़ैस 80 (या 60) सवारों का वफ़द ले कर हाज़िर हुए, ये एक आला दर्जे के रेशमी जुब्बे पहन कर बज़्मे नबुवत में पहुंचे, बातें हुई, हुजूर ﷺ ने दरियाफ़्त किया कि क्या तुम लोग मुसलमान हो चुके हो? उन लोगों ने तस्दीक़ में जवाब दिया, हुज़ूर ﷺ ने ताज्जुब से पूछा कि फिर ये रेशम क्यों? सच्चे ईमान की ये मिसाल देखिये कि उन लोगों ने फौरन रेशम को पारा पारा कर के अपने लिबासों से अलग कर दिया,*

*"❀_(19)_ वफ़द अज़्द :- बनी अज़्द भी इलाक़ा यमन में रहते थे, इनका वफ़द सर्द बिन अब्दुल्लाह अज़्दी की क़यादत में आया, इन लोगों ने दावत ए इस्लाम पर लब्बेक कही, हज़रत सर्द क़बीले के अमीर मुक़र्रर हुए ,*

*"❀_(20)_ वफ़द जर्श:- यमन के अक्सर इलाक़े और अज़ला इस्लामी सल्तनत का हिस्सा बन चुके थे, लेकिन बीच बीच में सरकश दुश्मन भी थे, शहर जर्श ऐसे ही क़बाइल के क़ब्ज़े में था और यहां मज़बूत हिफ़ाज़ती क़िला मौजूद था, सरकश ताक़तो को हमवार करने के लिए, हज़रत सर्द अज़्दी को क़बीले की फ़ौजी क़यादत भी सौंपी और कारवाई की इजाज़त भी दी, उन्होन जर्श वालो को मुहासरे के बाद शिकस्त दी, इस कारवाई के बाद जर्श वालों का वफ़द मदीना आया ,*

*"❀_ (21)_ वफद हमदान:- यह क़बीला यमन में आबाद था, उनमें इशा'ते इस्लाम के लिए खालिद बिन वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु को भेजा गया था, वो वहां 6 माह तक रहे इस्लाम ना फैला, नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अली मुर्तजा रज़ियल्लाहु अन्हु को उस क़बीले में इशा'ते इस्लाम के लिए मामूर फरमाया, उनके फैज़ान से तमाम क़बीला एक दिन में ईमान ले आया_,"* 

*❀_ सैयदना अली रज़ियल्लाहु अन्हु का ख़त जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सुना तो सजदा शुक्र अदा किया और ज़ुबान मुबारक से फरमाया- हमदान को सलामती मिले, यह वफद उन्हीं लोगों का था जो हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ पर ईमान जा चुके थे और दीदार ए नबवी सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम से मुशर्रफ होने आए थे _,"* 

*❥❥_(22)_ क़ासिद फ़रुह जुज़ामी:- फ़रुह मुआन के मुक़ाम पर सल्तनत रोम की तरफ से इलाक़े के गवर्नर थे और हमारे इलाक़े में शाम और अरब दोनों तरफ के हिस्से शामिल थे, इन तक दावत पहुंची तो अपने ओहदा व जान को खतरे में डाल कर इस्लाम में दाखिल हो गये, क़ासिद के ज़रिये अपने इस्लाम की इत्तेला भी हुजूर ﷺ को दी, और एक सफेद खच्चर बतौर हदिया रवाना फरमाया,*

*"❀_जब रोमी हुकूमत को इत्तेला हुई तो इनको गिरफ्तार कर के मुका़मे अफरा में सलीब पर लटकाया गया, मगर इतना मजबूत ईमान खुदा ने अपने इस बंदे को इनायत किया कि खुशी खुशी तख्ते हुकूमत से उठ कर तख्ते दार पर जा खड़े हुए,*

*"❀_(23)_ वफ़द तजीब:- ये यमन के खानदान कुंदाह का एक ज़ेली (मातहत) वफ़द था, ये पहले से इस्लाम ला चुके थे और अपने आपको उसके तक़ाज़ो के साँचे में अमलन ढाल रहे थे, 13 अफ़राद वफ़द में शरीक हो कर आए और अपने साथ ज़कात का माल और मवेशी भी अज़ खुद लाए, अर्ज़ किया कि अल्लाह का हक हाज़िर है, हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि माल वापस ले जाओ और मुक़ामी मुस्तहिक़ीन पर ख़र्च करो,*

*"❀_ उन्होंने बयान किया कि मुकामी मुस्तहिक़ीन को दे दिला कर ये माल बच रहा है, इस मौके पर हज़रत सिद्दीक़े अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु की ज़ुबान से बेसाख्ता निकला- या रसूलल्लाह! अरब का कोई वफ़द वफ़द तजीब की शान का नहीं आया, हुज़ूर ﷺ ने फरमाया - हिदायत खुदा के अख्तियार में है वो जिसके लिए भलाई का इरादा फरमाता है उसका दिल ईमान के लिए खोल देता है,*

*"❀_ उन लोगों ने कुछ सवाल किए और उनके जवाब बारगाहे रिसालत से लिखवा लिए, फिर ये शोक़ में जल्दी जल्दी वापस हो गए कि अपने क़बीले के लोगों को यहां की मालुमात और इज़हार व अहवाल जा कर बताएं, उनके साथ बनी अब्दी का एक नौजवान भी था जिसे वफ़द ने अपने सामान और सवारियों पर निगरा बना कर छोड़ा था, उसे हुज़ूर ﷺ ने बतौर खास बुलाया, उसने अर्ज़ किया कि मेरी सिर्फ एक तमन्ना है कि आप मेरे लिए मगफिरत की दुआ फरमायें, यमन में जब आगे चल कर इरतेदाद फैला तो इस नौजवान ने पूरे क़बीले को संभाले रखा, इस वफद को भी जा़दे राह बतौर हदिया अता हुआ,*

*❥❥_(24)_ वफद बनी साद हुज़ैम (क़ुज़ा):- इस क़ा्बीले के चंद आदमी वफ़द की सूरत में मदीना पहूंचे, उनमें बाज़ अफ़राद इखलास और शऊर से मुसलमान हुए थे और बाज़ सियासी हालात की वज़ह से, बहर हाल उन्होंने दस्ते नबुवत पर बैत की, हुज़ूर ﷺ के हुक्म से हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने चाँदी की सूरत में ज़ादे राह दिया, उनकी वापसी पर सारे क़बीले ने दावते इस्लाम क़ुबूल की,*

*"❀_ (25-) वफ़द बहरा:- ये भी इलाक़ा यमन का एक क़बीला था, 13 आदमियों का वफ़द मरकज़े इस्लाम में भेजा, ये लोग पहले से मुतास्सिर थे, वहां नबुवत के अनवार देख कर यक़ीन से मालामाल हुए, इस्लाम क़ुबूल किया और कुछ दिन क़याम कर के फ़राइज़ व अहकाम सीखे और फिर वापस चले गए, इनको भी मामूल के मुताबिक़ ज़ादे राह इनायत हुआ,*

*"❀_ (26)_ वफ़द ज़ी मुर्राह:- इस क़बीले से भी 13 अफ़राद का वफ़द इस्लामी दारुल हुकुमत में पहुंचा जिसके सरदार हारिस बिन औफ़ थे, उन्होंने हुज़ूर ﷺ से अपना तार्रुफ़ कराते हुए बयान किया कि हम लुई बिन ग़ालिब की औलाद हैं और आप ﷺ से नस्बी ताल्लुक़ रखते हैं, हुज़ूर ﷺ ने उनके इलाक़े का हाल पूछा तो उन्होंने कह़त साली का खौफ़नाक नक्शा खींच कर दुआ की दरख़्वास्त की, वापस पहुंचने पर मालूम हुआ कि ऐन दुआए रसूल ﷺ ही के दिन बारिश हुई और ज़मीन सर सब्ज़ व शादाब हो गई, निज़ामे इस्लामी का इल्म हासिल करने के लिए ये वफ़द भी चांद रोज़ मुक़ीम रह कर रुखसत हुआ और ज़ादे राह से नवाज़ा गया,*

*"❀_(27)_ वफ़द खौलान:-10 आदमियों का ये वफ़द ईमान से मालामाल हो कर बड़े मुखलिसाना जज़्बात के साथ बारगाहे नबुवत में पहुंचा, ये लोग जाहिलियत में 'उम उन्स" नामी बुत की परिस्तिश करते थे, उन्होंने पुराने क़िस्से बयान किये कि "उम उन्स" के नाम पर कितनी बड़ी बड़ी कुर्बानियां दी जाती थी और क्या क्या रस्में अदा होती थी, दौराने क़याम में उन्होंने नई इस्लामी जिंदगी के बारे में जरूरी इल्म हासिल किया और जाते हुए इनको भी ज़ादे राह अता हुआ,*

*❥❥_(28)_ वफ़द महरीब:- ये लोग इस्लाम से पहले निहायत तुंद खु और बद अख़लाक़ थे, इब्तिदाई दौर ए दावत में जब हुज़ूर ﷺ ने कबीलों में जा जा कर पैगामे हक़ दिया था तो इनके यहां भी पहूंचे और इन्होन नाशाइस्ता रवैय्या अख़्तियार किया था, 10 अफ़राद का वफ़द तालिब हो कर हाज़िर हुआ,*

*"❀_ एक मजलिस में हुजूर ﷺ ने बा गोर एक शख्स को देख कर पहचाना तो उसे फिक्र हुई, वो खुद ही बोला कि हुजूर शायद मेरे बारे में कुछ ख्याल फरमा रहे हैं, आप ﷺ मुझसे एक बार उकाज़ में मिले थे और मैंने आपसे बड़ी घटिया गुफ्तगू की थी और आपका पैगाम बुरे तरीक़े से रद्द कर दिया था,*

*"❀_ या रसूलल्लाह ﷺ! हमारे साथियों में से कोई हमसे ज़्यादा आपका और इस्लाम का दुश्मन न था, लेकिन खुदा का शुक्र है कि उसने मुझे ईमान व इताअत की तौफीक़ दी, फिर उसने अपनी साबिक़ ग़लती के लिए दुआ मगफिरत की दरख्वास्त की, हुजूर ﷺ ने फरमाया कि इस्लाम दौरे कुफ्र के गुनाहों को मिटा देता है,*

*"❀_(29)_ वफ़द गस्सान:- गस्सान अगरचे नसलन अरबों का क़बीला था मगर मज़हब नसरानियत अख़्तियार कर के क़ैसर की तरफ से अरबी इलाक़े पर हुक्मरान था, 10 हिजरी में इस क़बीले के तीन अफ़राद मदीना आ कर हुज़ूर ﷺ के दस्ते मुबारक पर इस्लाम लाए, उन्होंने बताया कि हमारे खानदान के लोग तो मौजूदा दीन को छोड़ कर मुश्किल से क़ुबूल ए हक करेंगे,*

*"❀_हुजूर ﷺ ने उनको ज़ादे राह दे कर रुखसत किया, उन्होंने जा कर दावत दी, मगर बे नतीजा रही, उन्होंने हालात से मजबूर हो कर इस्लाम पोशिदा रखा, उनमें से एक साहब जंगे यरमूक के मोके पर हजरत अबू उबैदा रज़ियल्लाहु अन्हु से मिले और अपने इस्लाम पर क़ायम होने की खबर दी, बाक़ी 2 का पहला ही इंतकाल हो गया था,*

*❥❥_(30)_ वफ़द सलामान:- सात आदमियों का वफ़द मदीना आया जिसमें हबीब इब्ने उमर भी शामिल थे, इनके दरियाफ़्त करने पर हुज़ूर ﷺ ने बताया कि नमाज़ को ठीक वक़्त पर अदा करना सबसे बेहतर अमल है, इन्होनें भी क़हत साली का हाल बयां कर के दुआ की दरख्वास्त की, रसूलल्लाह ﷺ ने दुआ फरमाई और बाद में तस्दीक हुई कि उसी रोज़ बाराने रहमत का नुज़ूल हुआ,*

*"❀_ (31)_ वफ़द बनी अब्स:- ये भी इलाक़ा यमन का क़बीला था, इनका वफ़द भी 10 हिजरी में आया, इन लोगों ने दरियाफ़्त किया कि हमने मुअल्लिमीन ए इस्लाम से सुना है के जो हिजरत ना करे उसका इस्लाम कुबूल नहीं होता, हम लोगों का हाल ये है कि माल मवेशी ही हमारा ज़रिया ए माशियत है, अब अगर हिजरत करना ज़रूरी है तो हम उनको बेच कर आ जायेंगे _,*

*"❀_ जज़्बा ए ईमान देखिये कि एक इशारे पर अपने माल और अपना इलाक़ा छोड़ने पर तैय्यार हैं, हुज़ूर ﷺ ने फरमाया के जहां रहो खुदा से डरते रहो_,*
*"_ दर हक़ीक़त सूरते मामला यूं थी कि इब्तिदाई दौर में जब मरकज़ ए इस्लाम को मजबूत करने के लिए कुव्वत को यकजा करना और मुल्क भर में काम करने के लिए अफराद का तैय्यार करना मतलूब था तो हिजरत कर के मरकज में आना फ़र्ज़ किया गया, ये मरहला तय हो गया, और बाद में कुव्वत का मुल्क भर में फैले रहना और अपने अपने इलाके में दावत को फैलाना ज़रूरी ठहरा तो हिजरत की फ़र्ज़ियत साक़ित हो गई,*

*❀_(32)_ वफ़द गामिद:- 10 हिजरी में गामिद का वफ़द आया जो 10 अफ़राद पर मुश्तमिल था, ये सब के सब इस्लाम में दाख़िल हुए, हज़रत उबई इब्ने काब रज़ियल्लाहु अन्हु को हुज़ूर ﷺ ने मामूर फरमाया कि इनको क़ुरान की तालीम दें, फिर इनको जा़दे राह दे कर रुखसत फरमाया,*

*"❀_(33)_ वफ़द बनी मुंतफ़िक़:- इस क़बीले में से नहीक बिन आसिम और लक़ीत बिन आमिर वफ़द की शक्ल में मरकज़े इस्लाम में पहुंचे, मस्जिद में पहुंचे तो हुज़ूर ﷺ खुतबा दे रहे थे, खुतबा के ख़त्म होने पर लकी़त ने खड़े हो कर क़यामत और जन्नत और दोज़ख़ के मुताल्लिक़ कुछ सवाल किये और हुज़ूर ﷺ ने तफ़सील से जवाब दिये,*

*"❀_ फ़िर उन्होंने अंबिया और असलाफ़ के मुताल्लिक़ कुछ बाते दरियाफ़्त की, एक सवाल बराहे रास्त हुज़ूर ﷺ से ये किया कि आया आपको इल्मे गैब हासिल है? हुज़ूर ﷺ ने जवाब दिया कि गैब की चाबियां ख़ुदा ताला ही के क़ब्ज़े मैं है _,"*

*❥❥_(34)_ वफ़द अब्द अलक़ैस नंबर-2:- पहले वफ़द अब्द अलक़ैस का ज़िक्र हो चुका है जो 5 हिजरी में आया था, इनका दूसरा वफ़द जो 40 अफ़राद पर मुश्तमिल था 10 हिजरी में मदीना हाज़िर हुआ,*

*"❀__(35)_ तारिक बिन अब्दुल्लाह और उनके साथी:- ये तारिक बिन अब्दुल्लाह वो शख़्स हैं जिन्होन शोक़ अलहिजाज़ में वो मंज़र भी देखा था कि हुज़ूर ﷺ क़बीले में दावत देते फिर रहे हैं और आपका सगा चाचा पीछे-पीछे कंकरियां फैंकता हुआ कहता है कि लोगो! इस पर ईमान ना लाना, ये (नाउज़ुबिल्लाह) झूठा है,*

*"❀__फिर यहीं तारिक बिन अब्दुल्लाह रबजा़ से एक गिरोह के साथ खजूरों की खरीदारी के लिए मदीना आए, इनकी अक़ामतगाह पर हुजूर ﷺ का गुज़र हुआ, आप ﷺ ने इनका अता पता पूछा और सफर की वजह मालूम फरमाई, फिर एक ऊंट का सौदा किया और क़ीमत चुकाने का वादा कर के चले आए, बाद में तारिक़ और उनके साथियों को खटका हुआ कि बैगर जान पहचान के हमने ऊंट दे दिया, ना जाने क्या सूरत हो,*

*"❀__ इस काफिले की एक मो'अज्जिज खातून ने कहा कि उस शख्स का चेहरा रोशन मैंने देखा था, वो कभी धोखा करने वाला नहीं हो सकता, अगर वो क़ीमत अदा न करे तो मैं ज़ामिन हूं, थोड़ी देर में आदमी आया और ऊंट की क़ीमत की खजूरें अलग अदा की और हदिया की अलग, उनके दिल मफ़्तूह हो गए, बाद में ये शहर में आए तो मस्जिद में हुज़ूर ﷺ खुतबा दे रहे थे और सदक़े की ताकीद फरमा रहे थे, इस तरह उनके दिलों में इस्लाम की दावत को रास्ता मिला,* 

*❥❥_ (36)_ अमरू बिन मा'द यकरब नुमाइंदा बनी जुबेद :- बनी जुबेद के लोगों तक जब निज़ामे नबुवत के चर्चे पहुंचे तो उन्होंने अपने सरदार अमरू बिन मा'द यकरब से कहा कि हम सुनते है कि कुरैश में मुहम्मद (ﷺ) नामी नबी बन कर हिजाज़ में उठा है, तुम जाओ और जा कर मालूम करो, अगर वो तुम्हारी राय में वाक़ई नबी हो तो फिर हम सब ईमान लाएं, चुनांचे ये शख़्स आया और उसने इस्लाम क़ुबूल किया, हुज़ूर ﷺ के इंतेक़ाल के बाद इसने इर्तिदाद किया,*

*"❀_(37)_ क़ासिद मिन जानिब मलूक हुमेर:- हुमेर एक शाही खानदान था, उसकी तरफ से क़ासिद एक खत लाया, इस खत में कुछ लोगों के कुबूले इस्लाम और तर्के शिर्क की इत्तेला थी, हुजूर ﷺ ने उसके जवाब मे एक तफसीली फरमान मलूक हुमेर के नाम भिजवाए, उसमें उनको बुनियादी अहकाम लिखवाए, मुसलमानों से ज़कात लेने और गैर मुस्लिमों से जिज़़या वसूलने की हिदायत दर्ज करवाई, और लोगो की मज़हबी आज़ादी का हक सब्त फरमाया और वजाहत की कि जो लोग यहूदी या नसरानी रहना चाहें उनका मज़हब जबरन तबदील नहीं किया जा सकता _,*

*"❀_इसके साथ-साथ फरमान में लिखवाया कि जर'आ ज़ुवेज़न की तरफ हमारे नुमाइंदे अफ़सर मा'ज़ बिन जबल, अब्दुल्ला बिन ज़ैद, मालिक बिन उबादा, उकबा बिन नम्र, मालिक बिन मुर्राह रज़ियल्लाहु अन्हुम और कुछ दूसरे लोग रवाना किये जा रहे हैं, इस जमात के सर बराह मा'ज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हुम हैं, ये हमारे अहकामात पहुंचाएंगे और सदका़ व जिज़़या की रक़म जमा कर के लाएंगे,*

*❥❥_(38)_ वफ़द नखा:- ये भी यमन ही का एक क़बीला था, ये अक्सर रिवायात के मोजिब आख़री वफ़द है जो 11 हिजरी (मुहर्रम) में मदीना आया, इसमे 200 आदमी शरीक थे, दर असल ये लोग हज़रत माज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ पर इस्लाम की बैत कर चुके थे, दिलों के इंकलाब ने तकाज़ा किया तो ये मरकज़े इस्लाम में पहुंचे, रसूले अकरम ﷺ के सामने अपना इस्लाम पेश किया, एक रुक्ने वफ़द ने अपने ख्वाबों की ताबीरे दरियाफ़्त की और मुख़्तसर क़याम के बाद वापस हो गए,*

*"❀_ वफ़दों की आमद इस कसरत से और इतने पे दरपे हुई हैं कि सही मानों में फ़ौज दर फ़ौज अल्लाह के दीन में दाख़िल हो रहे हैं (सूरह अन- नस्र-2) का मफ़हूम सामने आ जाता है, दर हक़ीक़त इंसानी फितरत खुद हक की तरफ झुकाव रखती है,*

*"❀_ आवामुन्नास के रास्ते में रुकावट थी तो साबिक़ जाहिली क़यादत थी, वो जब हट गई और साथ ही जब उनको ये इत्मिनान हो गया कि मदीना की इस्लामी ताक़त एक मज़बूत ताक़त है और उसके हाथों से वाक़ई खैर व फलाह फैल रही है तो फिर उनके सीने सच्चाई और नेकी के पैगाम के लिए पूरी तरह खुल गए, उन्होंने खुद अपने अंदर से इस नूरे सदाक़त की प्यास से बेताब हो कर मदीना की तरफ़ लपके, उजाला फैलता चला गया और ज़ुल्मतें दूर होती चली गईं,*
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     *⚂ _ बैनुल अक़वामी दावत का आगाज़_⚂*   
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*❥❥_बैनुल अक़वामी (अंतर्राष्ट्रीय) दावत का आगाज़:-*

*"❀__ नबी करीम ﷺ कि क़ायम करदा जिस जमात को तहरीके इस्लामी चलने की सआदत हासिल हुई उसका दायरा क़ौमी व मुल्की ही ना था, बल्कि वो ऐसी खैर ए उम्मत थी, जो "उखरिजत लिन्नास" के मर्तबे पर फ़ाइज़ की गई थी और जिसे "शोहदा अलल नास" क़रार दिया गया था, यानि तमाम इंसानियत को हक़ और अद्ल का रास्ता और भाई चारे के निज़ाम का रास्ता दिखाने वाली जमात,*

*"❀__अहले अरब की इस्लाह व तरबियत और उनकी रियासत पुर तंजीम फी नफ्सा आखरी मकसूद न थी, बल्की पेशे नज़र ये था कि एक इस्लामी रियासत उठे और तमाम ज़राए व वसाइल को काम में ला कर दुनिया भर की कौमो और ममलुकतों को निज़ामे हक़ की दावत दे, आख़िर वो करोड़ों बंदगाने ख़ुदा जो उस बादशाहत के दौर में छोटे छोटे तबक़ो और ख़ानदानों के इक़्तिदार तले पिस रहे थे और जिन्हे ना सोचने की आज़ादी मुहैय्या थी, ना मआशी फ़रागत हासिल थी और ना जिनके कुछ सियासी हुकूक थे,*

*"❀__उनकी मज़लूमाना हालत से कोई भी इस्लाही तहरीक कैसे आंखें बंद कर सकती है, किसरा के नाम भेजे गए खत में हुजूर ﷺने खुद ही अपनी दावत के बैनुल इंसानी पैमाने को इन अल्फाज़ से उजागर कर दिया है कि मेरी हैसियत ये है कि मै सारे इंसानों की तरफ अल्लाह का रसूल हूं,*

*"❀__ हक़ ताला ने बादशाहों और मज़हबी तबक़ो के हाथों इलाक़ाई क़ोमियतो में बटी हुई इंसानियत के लिए बैनुल अक़वामी दौर का आगाज़ ख़ुद मोहसिने इंसानियत ही के हाथो कराया, और एक कलमा सदाक़त भौगोलिक, नस्ली, लिसानी और सियासी हदबंदियों को तोड़ता हुआ बहुत जल्द वक़्त की मालूम व मरबूत दुनिया के तीनों बर्रे आज़म पर छा गया,* 

*❥❥_ हुजूर ﷺ एसे ज़माने में मबऊस हुए कि जिसके चंद ही सदियों बाद दुनिया के सिरे माददी लिहाज़ से मिल जाने वाले थे, इस मौके के आने से मुनासिब वक़्त पहले इस्लाम के निज़ामे हक़ की बैनुल अक़वामी दावत उठा दी गई, ताकि इंसानियत जों जों माददी तौर पर क़रीब होती जाए ज़ेहनी और नज़रियाती और अख़लाक़ी व मक़सदी लिहाज़ से भी एक रिश्ते में पिरोई जा सके, बीच का ये वक़्त दावत के फैलाने और अक़वामे आलम के दौरे नो के लिए तैय्यार करने को बा मुश्किल काफ़ी हो सकता था,*

*"❀_ तहरीके इस्लामी अपनी उसूली फितरत के लिहाज़ से तक़ाज़ा करती थी कि उसकी दावत की किरनें अरब की हुदूद में पाबंद ना रहे बल्कि ज़मीन के गोशे गोशे तक पहुंचे, इसके साथ साथ अमली ज़रूरत भी यही थी कि इस्लाम अरब के इर्द गिर्द भी नूर अफ़गन हो,*

*"❀_ मोहसिने इंसानियत ﷺ के काम की रफ़्तार हमारे लिए हैरान कुन है कि 13 बरस की मुद्दत में इब्तिदाई दावत दे कर काम करने वाले अफ़राद तैय्यार करने का काम मुकम्मल फरमा लिया, और फिर 8 बरस के अंदर इस्लामी रियासत अमलन ज़मीन के नक्शे पर खड़ी कर के मुख़ालफ़त के सारी रूकावटे तोड़ दी और फिर अपनी जिंदगी ही में दावत की लहर आस पास की सल्तनतो में पहुंचा दी,*

*"❀_ सुलेह हुदेबिया (6 हिजरी) ने अंदरुनी मुल्क के झगड़ों से फरागत दे कर हुजूर ﷺ के लिए ये मौक़ा फराहम किया कि अरब से बाहर भी काम की इब्तिदा कर दी जाए, उमरतुल कज़ा अदा करने के फ़ौरन बाद यानी 1 मुहर्रम 7 हिजरी को हुज़ूर ﷺ ने आस पास की सल्तनतो के हुक्मरानो को इस्लामी निज़ाम का पैग़ाम ख़ुसूसी क़ासिदो के ज़रिये भिजवाया,*

*❥❥_ये बात आज के दौर में काबिले गोर मालूम होती है कि हुजूर ﷺ ने दूसरे मुल्कों के अवाम तक कलमा हक़ पहुंचाने के बजाए आखिर शाही दरबारों को क्यों मुखातिब फरमाया, इसकी वजह बिल्कुल वाज़े है, आवामुन्नास के कोई शहरी हुक़ूक़ उस दौर के बादशाहो के मुक़ाबले में ना थे और उन्हें वो आज़ादी ही मुहैय्या ना थी जिससे काम ले कर वो अपने बारे में खुद कोई फैसला कर सकें,*

*"❀_फिर ये बादशाहते इस काम का मौक़ा देने पर भी क़त'न तैय्यार न थी कि दूसरे मुल्क के अजनबी लोग आ कर उनकी रैयत से मेल जोल रखें, उनके सियासी इक़्तिदार रिवाजी मज़हबों के बल पर ही चल रहे थे और वो मज़हबी पेशवाओ के तबक़ो का तावुन हासिल कर के हुक्मरानी कर रहे थे,*

*"❀_ फिर जहां दावते हक कुबूल करने वालों में रिवाजी निज़ाम के ख़िलाफ़ बागियाना रूझान पैदा कर के नए निज़ाम की अक़ामत का इंक़लाबी दाइया उभारा जाता हो, वहां कैसे मुमकिन था कि बादशाहतें अपनी अवाम में इस्लामी दावत को चुप चाप फैलने का मौक़ा देती, उस दौर की बादशाही क़यादत तो गोया खुदावंद बनी बैठी थी और एक पत्ता भी उसकी इजाज़त के बिना हिल नहीं सकता था,*

*"❀_ यही वो हक़ीक़त है जिसकी बिना पर सिर्फ ये कि नबी करीम ﷺ ने इस्लामी दावत का मुखातिब खुद बादशाहों को बनाया बल्कि अपने खुतूत में सराहत से उनको पूरी क़ौम का नुमाइंदा क़रार दे कर अवाम के बुरे और भले की ज़िम्मेदारी उन पर डाली, हुजूर ﷺ ने खुतूत लिखवाते हुए एक तरफ रिवाजी आदाब का अहतमाम किया, यानि बतौर खास मुहर करने के लिए अंगुठी बनवाई और उसमें "मुहम्मद रसूलुल्लाह" के अल्फ़ाज़ कुंदह करवाये,*

*"❀_दूसरी तरफ अपना एक खास उसलूब व नहज पैदा किया, हर ख़त का आगाज़ खुदा ए रहमान व रहीम के नाम से फरमाया, फिर मुर्सिल की हैसियत से अपना इस्मे मुबारक लिखवाया, फिर मकतूब इल्या का नाम, फिर कम से कम और इंतेहाई मुहतात और नपे तुले अल्फ़ाज़ में दावत को बयान फरमाया, उस दौर के लिहाज से जो सिफ़ारती ज़ुबान अपने खुतूत के लिए अख़्तियार की है वो हुज़ूर ﷺ की ज़ेहनी बरतरी को हमारे सामने वाज़े कर के आज भी हैरान कर देने वाली है,*

*❥❥_ दावत के अलावा उन ख़ूतूत की तरसील का एक बड़ा मुद्दा ये भी था कि आस-पास के हुक्मरानों को ये हक़ीक़त अच्छी तरह मालूम हो जाए कि अब अरब पहले की तरह की कोई खुली चारागाह नहीं है, बल्की वो एक बा ज़ाब्ता हुकुमत के ज़ेरे निज़ाम है, एक कार फ़रमा ताक़त जो हर लिहाज़ से चौकस और मज़बूत है, वो किसी पुरानी सल्तनत से दबने वाली भी नहीं बल्कि वो चेलेंज कर रही है और चेलेंज करने का दम ख़म उसमें मौजूद है,*

*❀"_हिरक्क़ल या कैसर रोमी सल्तनत के मशरिकी हिस्से का ताजदार था और कुस्तुनतुनिया उसका दारुल हुकूमत था, दहिया बिन खलीफा कलबी रज़ियल्लाहु अन्हु को हुज़ूर ﷺ ने नामा मुबारक दे कर उसके दरबार में भेजा, दहिया बैतुल मुक़द्दस के मुकाम पर जा कर उससे मिले, सफीरे मदीना के अगाज़ में हिरक्कल ने बड़ा भारी दरबार लगाया और नबी करीम ﷺ के बारे में बहुत सी तफ़सीलात दरियाफ़्त की,*

*"❀_ फिर दरियाफ़्त कराया कि अगर मक्का का कोई और आदमी इस इलाक़े में आबाद हो तो पेश किया जाए, इत्तेफ़ाक़ की बात कि हुज़ूर ﷺ के मुखालिफ़ मुहाज़ का सरदार अबू सुफियान उन्ही दिनों तिजारत के सिलसिले में शाम में पहूंचा था, तिजारती साथियों के साथ दरबार में लाया गया, हिरक्क़ल ने उन लोगों से कहा कि मैं अबू सुफियान से कुछ सवालात करूंगा, अगर कोई बात गलत हो तो तुम लोग बता देना,*

*"❀_अबू सुफियान का अपना क़ौल था कि अगर मुझे ये अंदेशा न होता कि साथी मेरे झूठ को ज़ाहिर कर देंगे तो शायद मैं उस मौक़े पर कुछ बाते गढ़ता, लेकिन खुदा ने सूरते हालात ऐसी पैदा कर दी कि रसूले खुदा और इस्लाम के मुखालिफ़ की ज़ुबान से भी सच निकला,*

*❥❥_ फ़िर क़ैसर ने हुज़ूर ﷺ के खानदान नसब अख़लाक़, हुज़ूर ﷺ के रफ़्क़ा, तहरीक़ के हालात और उनकी रफ़्तार तरक़्की, जंगो में मुस्लिम जमात की पोजीशन और इस्लाम की तालीमात और दूसरी चीज़ दरियाफ़्त की, सारी बाते सुन कर कहा कि, “अबू सुफ़ियान! अगर तुमने सच सच जवाब दिए हैं तो वो शख़्स एक रोज़ इस जगह का मालिक होगा जहां मैं बैठा हुआ हूं, काश मैं हाज़िरे खिदमत हो सकता है और उस नबी के पांव धोया करता _,*

*"❀_इसके बाद नामा मुबारक पढ़ा गया जिस पर दरबारी बहुत सिटपिटाए क्यूंकी हिरक्क़ल की ज़ेहनी कैफियत ने उन्हें बोखलाहट में डाल दिया था, उन्होंने मक्का वालो को जल्दी जल्दी बाहर निकाल दिया, इस बात चीत ने खुद अबू सुफियान के दिल पर इस्लाम की अज़मत का नक्श सब्त कर दिया,*

*"❀_ खुसरो परवेज़ किसरा ईरान की बहुत बड़ी सल्तनत का हुक्मरान था, हुज़ूर ﷺ ने अब्दुल्लाह बिन रवाहा रज़ियल्लाहु अन्हु को सफीर बना कर उसकी तरफ़ नामा दावत भेजा, ख़ुसरो किसरा गुस्से में भर गया और नामा नबुवत को ये कह कर चाक कर दिया कि हमारी रैयत का एक फ़र्द ये जुर्रत दिखाता है,*

*"❀_ कम्बख्त को पूरी तरह मालूम न था कि अरब कितने बड़े इंकलाब से गुज़र रहा है और कैसी भारी नज़रियाती कु़व्वत तरक़्क़ी पा रही है, उसने अपने गवर्नर ए यमन बाज़ान को मामूर किया कि मकतूब निगार को फ़ौरन गिरफ़्तार कर के हाज़िर करो, बाज़ान ने एक फौजी दस्ता इस मुहिम पर रवाना किया, ये दस्ता मदीना पहुंचा और उनके सरदार ने हुजूर ﷺ तक मुद्दआ पहुंचाया,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने फरमाया कि कल सुबह आ कर फिर मिलो, सुबह ये लोग हाज़िर हुए तो हुजूर ﷺ ने उनको खबर दी कि आज रात खुदा ने तुम्हारे बादशाह की मोहलते हयात ख़त्म कर दी है और वो अपने ही बेटे के हाथों क़त्ल हो गया है, जाओ और जाकर तहक़ीक़ कर लो,*

*❥❥_इस पेश गोई की सहत मालूम होने और मोहसिने इंसानियत ﷺ की तालीम और किरदार का हाल जानने पर बाज़ान इस्लामी निज़ामे उखुवत में शरीक हो गया, और उसके साथ दरबार और इलाक़े के बहुत से लोग भी ईमान से मालामाल हुए,*

*"❀_हुजूर ﷺ ने किसरा के रवैये की रुदाद सुन कर फरमाया - उसने मेरे खत को चाक-चाक कर के दर हक़ीक़त अपनी सल्तनत को पारा पारा कर दिया है, हुजूर ﷺ के अल्फ़ाज़ में क़ज़ा ए इलाही बोल रही थी,*

*"❀_10-15 बरस के अंदर अंदर 4-5 हजार बरस की क़दीमी सल्तनत, मज़बूत और वसी और बड़े ठाठ बाठ रखने वाली सल्तनत इस्लाम के क़दमों में मफ़्तूह पड़ी थी, इसके अलावा जिन दूसरे छोटे-छोटे वालियों तक दावत भेजी गई, उनमें से एक तो फरवाह बिन अमरू रोमी सल्तनत का गवर्नर था, जिसने इस्लाम कुबूल कर के ना सिर्फ ओहदा व जाह पर लात मारी बल्की जान भी शहादत हक़ में लगा दी,*

*"❀_दूसरा नजद का हुक्मरान सुमामा था जो 6 हिजरी में इस्लाम में दखिल हुआ, तीसरा जबला गस्सानी 7 हिजरी में इस्लाम लाया, चौथा दोमता अलजंदुल का हाकिम अकीदर भी मुसलमान हुआ, पांचवा जु़ल्कलाह हमीरी जो क़बीला हमीर का बादशाह था और अपने आपको खुदा कहलाता और लोगो से सजदे कराता था, आख़िरकार ये भी इस्लाम में दाखिल हुआ, उसने इस्लाम लाने की ख़ुशी में 18 हज़ार गुलाम आज़ाद किये थे,*

*❥❥_इन वाक़ियात से ज़ाहिर है कि दावते हक़ के इस क़लमी मुहाज़ से भी बड़े अहम नतीजे पैदा हुए और ये तदबीर इस्लाम की तरक़्क़ी में बहुत कारगर हुई, अव्वलन ये हुआ कि इर्द गिर्द की सल्तनतों में इस्लाम का पैगाम जा पहुंचा और महदूद हलकों में सही इस पर सोचा जाने लगा, फिर ये इस्लाम की सदाक़त और उसके मुताबिक़ फितरत होने का एक सबूत है कि अहले जाह व इक़्तिदार की एक अच्छी ख़ासी तादाद ऐसी हालत में इस्लाम लाई जबकि मुस्लिम जमात तमद्दुनी लिहाज़ से बहुत पीछे थी,*

*"❀_ उन लोगों के साथ उनके ज़ेरे असर अवाम में भी इस्लाम को रास्ता मिलने लगा, खुतूत ए नबवी ﷺ के जो मुखातिब इस्लाम में नहीं आ सके उनके ज़ेहनो पर भी खासे अच्छे असर पड़ गए, फ़िर अंदरुनी मुल्क की फ़िज़ा हमवार होने मे मदद मिली, सबसे बड़ा फ़ायदा इस मुहिम का ये हुआ कि मुस्लिम जमात के सामने एक बड़ा दायरा काम के शुरू ही से आ गया,*

*"❀_इसका नतीजा ये हुआ कि अरब में इस्लामी सल्तनत के छा जाने के बावजूद सहाबा किराम ने अपनी कमरे नहीं खोलीं, ऐश व इशरत में नहीं पड़े, उनमें ये इत्मिनान पैदा ना हुआ कि करने का काम हमने मुकम्मल कर दिया, कलमा हक़ से उनकी लगन घटने नहीं पाई, हुजूर ﷺ ने अपने रफ़का को सिफ़ारती मामलात में डाल कर उनको आने वाली ज़िम्मेदारियों के लिए अच्छी ख़ासी तरबियत दे दी,*

*"❀_ वो अजनबी हलकों में पहुंचे, ठाठ बाट वाले तमद्दुनों के दायरे में दाख़िल हुए, शाही दरबारो में पहुंचे, भरी मजलिसों में उन्हें मुकालमा व बहस का तजुर्बा हुआ, वक़्त के हुक्मरानों और दरबारियों की नफ़्सियात समझने का उनको मौक़ा मिला और फिर जिस मज़बूत इत्मिनान से अपने मसलक की बरतरी के लिए सादगी के साथ बयाने हक़ के लिए जिस जुर्रात इज़हार का उन्होंने मुजा़हिरा किया उसने उनकी सलाहियतों को और ज़्यादा उजागर कर दिया और उनका किरदार और ज़्यादा निखर गया,*

*"❀_बैनुल अक़वामी दावत की ये मुहिम जिसका हुज़ूर ﷺ ने अग़ाज़ फरमाया था, उसे तकमील देने की सआदत आपके जानशीन सहाबा, रफ़का और आपकी तरबियत याफ्ता जमात के हिस्से में आई,*
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*⚂ _तहरीके इस्लामी का इज्तिमा ए अज़ीम _⚂*   
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*❥❥_तहरीके इस्लामी का इज्तिमा ए अज़ीम (हज):-*
*"❀_हज इस्लाम की एक अज़ीम दर्जे की बुनियादी इबादत है, हरम ए पाक जो दावते इब्राहिमी का मरकज़ था और जिसके ज़र्रे ज़र्रे पर दीन की तारीख़ के क़दीमी (पुराने) नुकूश सब्त हैं, जिसकी फिज़ा में इब्राहीम खलीलुल्लाह अलैहिस्सलाम की दुआएं रची बसी हैं और फिर जिसके पूरे माहौल में खुद मोहसिने इंसानियत ﷺ के कारनामे हयात के अबवाब बिखरे हुए हैं, वो हमेशा के लिए इस्लामी दावत और तहरीक़ का आलमी मरकज़ और क़िब्ला क़रार पाया, हर साहिबे तौफीक़ मुसलमान के लिए उम्र भर में कम से कम एक बार इस मरकज़ पर मुक़र्रर अय्यामे हज में हाज़री देना, श'आर व मानसिक अदा करना, कु़र्बानी की सुन्नते इब्राहीम को ताज़ा करना, अंबिया की तारीख के नुक़ूश और बरकात से मालामाल होना, दुनिया भर के नज़रिया ए हक़ के अलमदारो और इस्लामी भाई चारे के निज़ामे रफ़का से राब्ता पैदा करना और हर तरफ़ से मूंह मोड़ कर कामिल आजिज़ी के साथ अपने आपको खुदा के सुपुर्द कर देना फ़र्ज़ है,*

*"❀_हज की फ़र्ज़ियात का ये हुक्म 9 हिजरी में नाज़िल हुआ, हुज़ूर ﷺ ने उस साल हज़रत अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु को अमीर ए हज बना कर तीन सौ सहाबा के साथ मक्का रवाना फरमाया कि वो उनको अपनी अमारत में हज अदा करायें, हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को एक दूसरी ज़िम्मेदारी सौंपी कि वो सूरह बक़रा (पहली 4 आयत) हज के इज्तिमा में सुनाएं और हुक्मे ख़ुदावंदी के मुताबिक ज़रूरी एलानात लोगों तक पहुंचा दें,*

 *"❀_ क़ाबिले एलान उमूर ये थे कि एक तो साबिक़ जाहिलाना शिर्क पर क़ायम रह कर जिन लोगों ने हुज़ूर ﷺ या इस्लामी रियासत से मुआहिदा कर के मुफ़ादात महफ़ूज़ कर रखे थे, उनके सामने ऐलान कर दिया गया कि चार महीने की मोहलत है, उसके बाद तमाम ऐसे मुआहिदात बा हुक्मे खुदावंदी ख़त्म हो जायेंगे, इस दौरन में वो अपने लिए राहे अमल खुद तय कर लें और उनको इस रियासत की शहरियत तर्क कर देनी है या जंग करनी है या फिर इस्लामी रियासत के अंदर बा हैसियत मुस्लिम के रहना है,*

*"❀_ये रियायत भी दी गई कि अगर कोई मुशरिक इस मुद्दत में मदीना आ कर इस्लाम को समझाना चाहे तो उसको बा हिफ़ाज़त आने का मौक़ा होगा, फिर मुशरिकीन में से भी उन लोगो को अलग रियायत दी गई जिन्होनें दयानतदारी से अहद को पूरा किया था उनके मुआहिदात को उनकी मुकर्रर मुद्दत तक के लिए बहाल रखा गया, असल जद उन मुशरिकीन पर थी जिन्होनें इस्लाम की मुखालफत दुश्मनी और जंग के खौफनाक तरीक़े अपनाए, टकराव करते हुए सारी अख़लाक़ी हदे तोड़ दी, फिर क़ौल व क़रार से बार बार फिरे और हर क़िस्म के लिहाज़ व मुरव्वत को बाला ए ताक़ रख देते रहे, ये वो मुशरिकीन थे जिन्होंने राहे हक़ को रोकना चाहा, जिन्होने दीने हक़ में ऐब निकाले, जिन्होने रसूले पाक ﷺ को घर से निकालने के मंसूबे बांधे और जिन्होनें जंग व जदल में पहल की,*

*❥❥_ अब हम उस अज़ीमुश्शान इज्तिमा हज का तज़किरा करते हैं जिसमे मोहसिने इंसानियत ﷺ ने बा नफ़्स नफ़ीस शिरकत फरमाई और जिसमें इस्लामी तहरीक की इंसानी कुव्वत का एक समंदर हुजूर ﷺ की निगाहों के सामने मोज्जन हुआ, 10 हिजरी में जब हुजूर ﷺ ने हज करने का इरादा फरमाया तो तमाम इलाक़ो में इसकी इत्तेला भेज दी गई, इस्लामी इंकलाब के अलंबरदारो के क़ाफ़िले हर तरफ़ से मदीना में इकट्ठे होने लगे, बंदगाने इलाही का ये क़ाफ़िला चला तो रास्ते में भी मुख़्तलिफ़ क़बीलों की जमाते आ आकर इस दरिया ए रवां में शमिल हो गयीं,*

*"❀_ अज़वाज मुतहरात सबकी सब हुजूर ﷺ के साथ थीं, हुजूर ﷺ ने जुल हुलैफा से अहराम बांधा, और फिर यहीं से वो पुकार बुलंद की जो बारगाहे इलाही में हाज़री देने वाले हुज्जाज की रूहों की सदा होती है, "लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक ...." हम हाज़िर हैं, ए हमारे अल्लाह हम हाज़िर हैं! तेरा कोई शरीक़ नहीं, हम तेरी बारगाह में हाज़िर हैं, मुहम्मद ﷺ तेरे लिए हैं, नियामत तेरे क़ब्ज़े में हैं, बादशाही तेरी है तेरा कोई शरीक नहीं_,"*

*"❀_ मक्का के क़रीब जा कर ज़ीतवा में कुछ देर क़याम फरमाया, फिर कसीरुल तादाद मुस्लिम जमात को साथ लिए हुए मक्का के बालाई जानिब से दाख़िल हुए, तवाफ किया, सफा व मरवा तशरीह ले गए, वहां से काबा की तरफ रुख कर के खुदा की तोहीद की पुकार फिर बुलंद की, 9 वी ज़िलहिज्जा को वादी नमरा में उतरे, दिन ढलने के बाद अराफात तशरीफ़ ले गए, पहाड़ी पर चढ़ कर ऊंटनी क़सवा पर सवार हो कर खुतबा नश्र फरमाया, चारो तरफ मुकब्बिर खड़े थे जो एक एक जुमले को दोहराते जाते थे और इस तदबीर से हुजूर ﷺ के इरशादात सारे मजमे के कानों तक पहुंंच रहे थे,*

*"❀_ गौर कीजिए, क्या समां होगा, नबी करीम ﷺ का दिल उस मंज़र को देख कर क्या कैफियत महसूस करता होगा, आज गोया सारी उमर की काश्तकारी के नतीजे में एक फसल पूरे जोबन के साथ लेहला रही थी, एक लाख 44 हज़ार या बाज़ रिवायत के मुताबिक़ एक लाख 24 हज़ार का एक बड़ा मजमा ज़मीन पर अपनी मिसाल आप था, सहाबा किराम की आंखें जब अपनी मेहबूब हस्ती को पहाड़ी की बुलंदी पर इतने बड़े मजमे के दरमियान देखती होंगी तो उनके दिलों की परवाज़ कहाँ तक ना हो रही होगी,*

*❥❥_ नबी करीम ﷺ ने दो खुतबे इस मौके पर दिये, पहला अराफात की पहाड़ी से 9 ज़िल्हिज्जा को दूसरा 10 ज़िल्हिज्जा को, इन खुतबों के बाज़ मजा़मीन रिवायत में आपस में मिल जुल गए हैं, ये खुतबे कई हैसियतों से गैर मामूली अहमियत रखते हैं, अव्वलन हुजूर ﷺ ने जमात के सबसे बड़े दीनी इज्तिमा में ख़िताब फ़रमाया और ऐसे दौर में फ़रमाया जबकि आपका पेश कर्दा कलमा हक़ तनावर दरख़्त बन कर फल फूल लाने लगा था,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ की फ़रासते नबूवत समझ रही थी कि जमात से ख़िताब का ये आखरी मौका है, इसलिए गोया अल विदाई वसीयतें फ़रमाई जिनका हर हर लफ़्ज़ बेश क़ीमत है, मुल्की काम के तकमीली मरहले पर आ जाने के बाद यही मौका था कि तेहरीके इस्लामी की तरफ से इन्सानियत के नाम कोई पैगाम और कोई मंशूर दिया जाता, सो आपने इस फरीज़े को बा हुस्न व जौहर अदा किया, राबियन ये खुतबे हुजूर ﷺ के कमाले ख़िताब और आपकी शाने फसाहत के भी नादिर (उम्दा) नमूने है और इनके ज़रीये उस मुक़द्दस शख्सियत की अज़मतों को समझने मे मदद मिलती है,*

*"❀_ ये पेशे नज़र रहे कि इन खुतबों का एक हिस्सा मखसूस मुल्की हालात व मसा'इल से मुतल्लिक़ है और एक हिस्सा बैनुल इन्सानी मंशूर पर मुश्तमिल है, निफ्स मज़मून खुद ही इस तक़सीम को वाज़े कर देगा,* 
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           *⚂ _ खुतबा अराफ़ात _⚂*   
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             *❥❥_खुतबा अराफ़ात:-*
*"❀_ तमाम तारीफ सिर्फ अल्लाह ही के लिए हैं, हम उसकी हम्द करते हैं, उससे मदद तलब करते हैं, उससे अपने गुनाहों की माफी चाहते हैं और उसके हुजूर इज़हारे नदामत करते हैं, हम अपने दिलों में फितना अंगेज़ियों और अपने आमाल की बुराइयों के मुक़ाबले में उसकी पनाह मांगते हैं, जिसे अल्लाह सीधे रास्ते पर चलने की तौफीक दे उसे कोई दूसरा गुमराह नहीं कर सकता और जिसे वही हिदायत की तौफीक ना दे उसे कोई राहे रास्त पर नहीं चला सकता,*

*"❀_ और मैं एलान करता हूं इस हक़ीक़त का कि अल्लाह के सिवा कोई मा'बूद नहीं है, वो अकेला है उसका कोई शरीक नहीं और मैं एलान करता हूं इस हक़ीक़त का‌ कि मुहम्मद (ﷺ) उसके बंदे और उसके रसूल हैं,*
*"_अल्लाह के बंदो! मैं तुमको उसकी इबादत की हिदायत करता हूं और तरगीब दिलाता हूं, मैं आगाज़े कलाम इस बात से करता हूं जो बाइसे खैर है,*

*"❀_ इस (तमहीद) के बाद (मैं कहता हूं कि) आई लोगों! मेरी बाते गौर से सुनो, मैं तुमको वज़ाहत से बताता हूं, क्यूंकि मैं ऐसा नहीं समझता कि इस साल के बाद मैं तुमसे इस मुका़म पर मुलाक़ात कर सकूं,*
*"_ ऐ लोगों! तुम्हारा ख़ून और तुम्हारा माल तुम्हारे लिए (आपस में) हराम कर दिए गए हैं ताकि तुम अपने रब के हुजूर जा कर पेश हो जाओ.. जैसे कि तुम्हारे इस महीने में और तुम्हारे इस शहर में तुम्हारा ये दिन हराम है,*
*"_आगाह रहो कि मैने बात पहूंचा दी! ए अल्लाह तू खुद गवाह रहियो!*

*"❀_ सो जिस किसी के क़ब्ज़े में कोई अमानत हो उसे उसके मालिक को अदा कर दे, दौरे जाहिलियत की सूदी रक़मे काल अद्म कर दी गईं और सबसे पहले मै अपने चाचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब के सूदी मुतालबात को काल अद्म करता हूं,.. दौरे जहिलियत के तमाम खूनों के मुतालबात क़सास काल अद्म कर दिए गए और सबसे पहले मै अम्मार बिन रबीआ बिन हारिस बिन अब्दुल मुत्तलिब के खून का मुतालबा साक़ित करता हूं, दौरे जहिलियत के तमाम ऐज़ाज़ात और मनासिब काल अद्म किये जाते हैं मा सिवाए सदाता (काबा की देख भाल का शोबा) और सका़या (हाजियों के लिए शोबा आब रसानी) के,*  

*❥❥_ क़त्ल ए अम्द में क़सास लिया जाएगा (जो लाठी और पत्थर से क़त्ल किया जाए वो क़त्ल ए अम्द के मुशाबा है) और उसकी देत 100 ऊंट मुकर्रर की जाती है, जो इसमे इजाफ़ा करे सो वो अहले जाहिलियत में शामिल होगा,*

*"❀_ ऐ लोगों! शैतान (निज़ामे हक़ के छह जाने के बाद) इस बात से तो ना उम्मीद हो गया है कि अब तुम्हारी इस सर ज़मीन में उसकी इबादत की जाएगी, लेकिन वो इस पर भी ख़ुश होगा कि उसके अलावा उन दूसरे गुनाहों में उसकी इता'त की जाए जिनको तुम हल्का समझते हो,*

*"❀_ ऐ लोगों ! महीनों (यानी हराम महिनों) का अदल बदल कुफ्र के तर्जे अमल में इज़ाफ़ा है और इसके ज़रिए कुफ्फार और ज़्यादा गुमराही में पड़ते हैं कि एक साल किसी महीने को हलाल कर देते हैं और दूसरे साल हराम ठहरा लेते हैं ताकि (आगे पीछे कर के) खुदा के हराम करदा महिनों की फक़त गिनती पूरी कर दें _,*

*"❀_यकी़नन आज ज़माना फिर फिरा कर उसी हालत पर आ गया है जो उस वक्त थी, जबकि खुदा ने आसमान और ज़मीन को पैदा किया, यानि अल्लाह की बारगाह में महीनों की तादाद कतई तौर पर बारह (12) है और जबसे अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया है ये तादाद उसकी किताब (नोश्ता तक़दीर) में उसी तरह सब्त है, उनमें चार महीने हराम हैं... तीन मुतावातर यानि ज़ुका़'दा, ज़िलहिज्जा और मुहर्रम और एक अकेला अलग यानि रज्जब जो जुमादिल आखिर और शाबान के दरमियान है,*

*"❀_अगाह रहो कि मैने बात पहुंचा दी, ए अल्लाह तू खुद भी गवाह रहियो !!*

*❥❥__ ऐ लोगों! तुम्हारी ख्वातीन को तुम्हारे मुक़ाबले में कुछ हुकूक दिए गए हैं और तुम्हें उनके मुक़ाबले में हुकूक दिए गए हैं, उन पर लाज़िम है कि वो तुम्हारी ख्वाबगाहो में तुम्हारे अलावा किसी को ना आने दे और किसी ऐसे शख़्स को घर में तुम्हारी इजाज़त के बिना दाख़िल न होने दें जिसका दाख़िल होना तुम्हें पसंद न हो, और किसी बेहयाई का इरतिकाब न करें, अगर वो कोई ऐसी बात करे तो तुमको अल्लाह ने इजाज़त दी है कि (उनकी इस्लाह के लिए) उनको जुदा कर सकते हो, ख्वाबगाहो से अलग कर सकते हो और ऐसी बदनी सज़ा दे सकते हो जो निशान डालने वाली ना हो, फिर अगर वो बाज़ आ जाएं और तुम्हारी इता'त में चले तो क़ायदे के मुताबिक़ उनका नान व नफ्का़ तुम्हारे ज़िम्मे है,*

*"❀_ यकीनन ख़्वातीन तुम्हारे ज़ेरे नगीं (मातहत) हैं जो अपने लिए बतौर खुद कुछ नहीं कर सकतीं, तुमने उनको अल्लाह की अमानत के तौर पर अपनी रफाक़त में लिया है और उनके जिस्म को अल्लाह ही के क़ानून के तहत तसर्रुफ में लिया है, सो ख़्वातीन के मामले में खुदा से डरो और भले तरीक़े से उनकी तरबियत करो,*
*"_आगाह रहो कि मैने बात पहुंचा दी, ए अल्लाह तू खुद भी गवाह रहियो!!*

*"❀_ ऐ लोगों! मोमिन आपस में भाई-भाई हैं, किसी शख्स के लिए उसके भाई का माल (लेना) उसकी रजा़मंदी के बिना जायज़ नहीं,*
*"_अगाह रहो कि मैने बात पहुंचा दी, ए अल्लाह! तू खुद भी गवाह रहियो!!*
*"_ सो मेरे बाद कहीं (इस भाई चारे को तर्क करके) फिर काफिराना ढंग अख्तियार कर के एक दूसरे की गर्दनें ना काटने लगना,*

*"❀_मै तुम्हारे दरमियान एक ऐसी चीज़ छोड़े जा रहा हूं जब तक उस पर कारबंद रहोगे कभी राहे रास्त से ना हटोगे, वो है अल्लाह की किताब !!*
 *"_अगाह रहो कि मैने बात पहुंचा दी, ए अल्लाह! तू खुद भी गवाह रहियो!!* 

*❥❥__और तुम लोगों से मेरे बारे में पूछा जाएगा, तो अब तुम बताओ क्या कहोगे?*
*"_ लोगों ने पुकार कर कहा- हम गवाही देते हैं कि आपने पैगाम पहुंचा दिया, उम्मत को नसीहत करने का हक़ अदा कर दिया, हक़ीक़त से सारे पर्दे उठा दिए और अमानत ए इलाही को हम तक कमा हक्का़ पहुँचा दिया_,*
*"_ ए अल्लाह! तू गवाह रहियो! ए अल्लाह! तू गवाह रहियो! ए अल्लाह! तू गवाह रहियो!!*

*"❀_ जो लोग यहां मौजूद हैं वो ये बाते ग़ैर हाज़िर लोगों तक पहुंचा दें, मुमकिन है कि बाज़ सामईंन के मुकाबले में बाज़ ग़ैर हाज़िर लोग इन बातों को ज़्यादा अच्छी तरह याद रखें और उनकी हिफ़ाज़त करे',*
*"_ ऐ लोगों! अल्लाह ताला ने मीरास में से हर वारिस के लिए हिस्सा मुकर्रर कर दिया है और एक तिहाई माल से ज़्यादा की वसीयत करना जायज़ नहीं है,*

*"❀_जिसने अपने बाप के बजाय किसी दूसरे को बाप क़रार दिया, या जिस गुलाम ने अपने आका़ के अलावा किसी और को आका़ ज़ाहिर किया, तो ऐसे शख्स पर अल्लाह और फरिश्तों और तमाम इंसानों की तरफ से लानत है, उससे (क़यामत के दिन) कोई बदला या ऐवज़ कुबूल ना होगा,*
*"_तुम पर अल्लाह की तरफ़ से सलामती हो और उसकी रहमते नाज़िल हों,* 

*❥❥__मीना में खुतबा:-*
 *"❀_ ऐ लोगों! मेरे बाद कोई नया नबी आने वाला नहीं है और ना तुम्हारे बाद कोई और उम्मत बरपा की जाने वाली है, पस गौर से सुनो और अपने रब की इबादत में लगे रहो,*
*"_ नमाज़े पंजगाना क़ायम करते रहो, माहे रमज़ान के रोज़े रखते रहो, अपने मालों की ज़कात दिली रगबत से अदा करते रहो, अपने रब के हरम पाक का हज करते रहो और अपने अमीर व हुक्काम की इताअत पर कारबंद रहो .. ताकि अपने रब की जन्नत में जगह पा सको_,*

*"❀_ ये हमारे मेहबूब नबी ﷺ का आखिरी पैगाम है और इसमें हम ही मुखातिब बनाएं गए हैं, इसकी नोइयत पैगम्बर पाक ﷺ की वसीयत की सी है, इसके एक एक बोल पर हुजूर ﷺ ने दर्द भरे अंदाज से आवाज़ बुलंद की है कि मैने बात पहुँचा दी है,*

*"❀_ हमें चाहिए कि इसे पढ़ कर हमारी रूहें चौंक जाएं, हमारे जज़्बे जाग उठे, हमारे दिल धड़कने लगे और हम अपनी अब तक की रविश पर नादिम हो कर और काफिराना निज़ामों की मरउबियत का क़लादा गर्दनों से निकाल कर मोहसिने इंसानियत ﷺ का दामन थाम लें, इस मिशन को ले कर उठ खड़े हों जिसकी कामयाबी के लिए हुजूर ﷺ ने वो वो अज़ियतें भुगती है कि इतने बड़े सब्र और हिल्म की मिसाल नहीं मिलती,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने हज के तमाम अरकान व मनासिक बा इत्मिनान अदा फरमाए, जमात के आम लोगों से बा कसरत मेल जोल रहा, लोगों ने इस मौक़े पर कसरत से मसाइल पूछे और बिल आखिर तवाफे विदा के बाद इस मुबारक सफ़र से वापसी हुई,*

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*❥❥_हज्जतुल विदा में जिस अंदाज से नबी करीम ﷺ ने हिस्सा लिया, अपनी जमात से जिस तरह खिताब फरमाया, लोगों को जिस तरह मुख्तलिफ ताकीदे और वसीयतें की वो सब बता रही थी कि हुजूर ﷺ इज्तिमाई तौर पर अलविदा कह रहे है, वापसी में गदीर खम (एक तालाब) के पास पड़ाव डाला और वहां फिर एक खिताब खास सहाबा किराम से किया, उसमें वही अलविदाई रंग और ज़्यादा उभर आया, बोल ऐसे है कि उनको सुन कर दिलो पर रक़्क़त तारी हो गई होगी,*

*"❀_ पहले अपनी सुन्नत के मुताबिक़ खुदा की हम्द व सना की, फिर फरमाया- इसके बाद (कहना ये है कि) ऐ लोगों! मै बहर हाल एक इंसान हूं, शायद जल्दी ही मेरे पास खुदा का बुलावा ले कर क़ासिद आ पहुंचे और मै लब्बैक कहुं, मै ज़िम्मेदारी के दो बोझ तुम्हारे अंदर छोड़े जा रहा हूं, उनमें से एक खुदा की किताब है, जिसमें जा़ब्ता ए हिदायत है और रोशनी व हिकमत है, सो खुदा की किताब को थाम लो, और उसी से रहनुमाई हासिल करो, (फिर क़ुरान की तरफ बहुत तरगीब वी तशवीश दिलाई), फिर फरमाया- और दूसरे मेरे घर के लोग हैं, अपने घर के लोगो के बारे मे मै तुम्हें खुदा ही की याद दिलाता हूं _,"*

*"❀_इस खुतबे में हुज़ूर ﷺ ने एक तो उन ज़लालतों का दरवाज़ा बंद किया जो अम्बिया अलैहिस्सलाम को फ़ोकुल बशर और ग़ैर बशर क़रार देने वालों ने पैदा किया, और जिनकी इंतेहा ये हुई कि जो हस्तियां ख़ुदा को "लम यलिद वलम युलद" की शान के साथ मनवाने आई थी, गुलु पसंददो ने इन्हीं को उठा के खुदा की औलाद और ख़ुदाई में शरीक बना डाला, और उनको क़ानून ए मौत से मावरा फ़र्ज़ कर के गैबवियत के तसव्वुरात तराशे और उनके लिए हयाते जिस्मानी व उन्सरी के दवाम के अक़ीदे पैदा किये,*

*"❀_ हुजूर ﷺ ने रुखसत का लम्हा आने से पहले सहाबा किराम को आगाह कर दिया कि मैं इंसान हूं और इंसानों की तरह मौत का क़ानून मुझ पर भी नाफिज़ होगा, फिर ताकीद ये फरमाई कि किताबे इलाही को बुनियादी जा़ब्ता ए हयात की हैसियत से क़ायम रखना, इसी से रहनुमाई ले कर जिंदगी का निज़ाम चलाना, ये तुम लोगों के लिए बहुत बोझल ज़िम्मेदारी है, इसलिए इस ज़िम्मेदारी का अच्छी तरह अहसास करो, इसके साथ साथ अपने अहलो अयाल अपने घर वालों और अपने क़रीबी अज़ीज़ों के बारे में बगैर किसी सराहत के तवज्जो दिलाई कि उनसे मुताल्लिक़ भी तुम पर कुछ ज़िम्मेदारियां हैं,*

*"❀_ एक तरफ हुजूर ﷺ के अहलो अयाल आपकी निजी जिंदगी के शाहिद और आपके मामूलत को क़रीब से देखने वाले और आपकी तालीमात के पूरी तरह अमानतदार थे, और इस लिहाज़ से वो उम्मत के लिए तालीम का एक क़ीमती ज़रिया थे, दूसरी तरफ़ हुज़ूर ﷺ ने ना उनके लिए खज़ाने जमा किए, ना मीरास समेटी, ना जायदाद बनाई बल्कि ज़िंदगी में भी उनको दरवेशाना मआशरे से गुज़ारा और उनका मुस्तक़बिल भी बगैर किसी सरो सामान के अल्लाह के हवाले कर दिया, ज़ाहिर बात है कि हुजूर अक़दस ﷺ के बाद उनके बारे में सहाबा की जमात पर बड़ी भारी ज़िम्मेदारी आइद होती थी,* 
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           *⚂ _ सफ़र ए आख़िरत_⚂*   
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*❥❥_ माहे सफ़र 11 हिजरी के अगाज़ ही से सफ़रे आख़िरत के लिए मोहसिने इंसानियत ﷺ कि रूह पाक ने तैयारियां शुरू कर दी, एक रोज़ उहद तशरीफ़ ले गए और शोहदा ए उहद के लिए दुआएं की, वापस आ कर फिर ये खुतबा दिया_,*

*❀_ लोगो! मैं तुमसे पहले रुखसत होने वाला हूं और खुदा के सामने तुम्हारे मुताल्लिक़ शहादत देने वाला हूं, वल्लाह! मैं हौज़ ए कौसर को यहां से देख रहा हूं, मुझे सल्तनतों के खज़ानो की कुंजियां सुपुर्द कर दी गई हैं (यानी मुख्तलिफ़ मुल्क दावते हक़ के नतीजे में फ़तेह होने वाले हैं) मुझे ये अंदेशा नहीं कि तुम मेरे बाद मुशरिक हो जाओगे, डर ये है कि दुनियावी मुफ़ाद की कशमकश में ना पड़ जाओ_,*

*"❀_ फिर आधी रात को बक़ी (कब्रिस्तान) में तशरीह ले जा कर अहले कुबूर के लिए दुआए मगफिरत फरमाई और फरमाया कि, "हम भी जल्दी ही तुमसे आ मिलने वाले हैं _,*
*"_ फिर एक रोज़ बतौर खास रफ़क़ा ए जमात को जमा किया और ख़िताब फरमाया के,:-*
*"_ मरहबा! ए मुसलमानो! अल्लाह तुम्हें अपनी रहमत में रखे, तुम्हारी शिकस्ता दिली दूर फरमाये, तुम्हें रिज़्क दे, तुम्हारी मदद करे, तुम्हें उरूज दे, तुम्हें बा अम्नो अमान रखे, मैं तुमको अल्लाह के तक़वा की वसीयत करता हूं और तुमको अल्लाह ही की निगरानी में सौंपता हूं, तुमको उसी से डराता हूं क्योंकि मैं खुला खुला मुतनब्बा करने वाला हूं,*

*"❀_ देखो अल्लाह की बस्तियों में उसके बंदो के दरमियान तकब्बुर और सरकशी की रविश अख्तियार ना करना, अल्लाह ताला ने मुझे और तुम्हें फरमाया है कि (अल क़सस-83) ये आख़िरत का घर हम उन लोगों के लिए खास करेंगे जो ज़मीन में सरकश और फसाद मचाने की नियत न रखते हों और आक़बियत (की कामयाबी) तो है ही मुत्तक़ीन के लिए_," सलाम हो तुम सब पर और उन सारे लोगों पर जो इस्लाम कुबूल कर के मेरी बैत मैं दाखिल होंगे_,"*

*❥❥_ क़ब्रिस्तान बकी़ से वापसी पर ही हल्का हल्का दर्दे सर शुरू हुआ, फिर सफ़र की 29 वी तारीख़ को एक जनाज़े के साथ जाते आते हुए उसमें शिद्दत आई, मर्ज़ के इब्तिदाई हल्के हमले के दौरान में 11 रोज़ तक मस्जिद में तशरीफ़ लाकर खुद ही नमाज़ की इमामत फरमाते रहे, शिद्दते मर्ज़ में घर के अंदर बिल्कुल साहिबे फराश रहने की मुद्दत एक ही हफ्ता है, तकलीफ़ बढ़ने पर अज़वाज से इजाज़त ले कर हजरत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ही के हुजरे में आ गए,*

*"❀_मरजुल मौत में भी तहरीके हक़ की ज़िम्मेदारियां पूरी तरह सामने रहीं, तबूक और मौता के मोर्के के हुसूले मक़सद के लिहाज़ से भी तकमील तलब थे, अगर ज़रा भी ढील बरती जाती तो मुखालिफ सल्तनत शेर हो जाती, इसलिए उसी हालत मे 26 तारीख़ सफ़र लोगों को गज़वा रोम की तैय्यारी का हुक्म दिया और दूसरे दिन हज़रत ओसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु को इस मुहिम का अफसर आला मुकर्रर फरमा दिया, फरमाया- जाओ अल्लाह के नाम से, अपने बाप के मुका़मे शहादत तक पहुंचो...., अपने हाथों से अलम तैय्यार फरमा कर बुरेदा बिन ख़सीब असलमी को सौंपा,*

*"❀_दो एक आदमियों ने हज़रत ओसामा रज़ियल्लाहु अन्हु की कम उम्री (और कुछ खानदानी मर्तबे) की बिना पर बाते बनाई कि ऐसे लड़के को बड़े बड़े मुहाजिरीन व अंसार पर अमीर क्यूं मुक़र्रर किया है, हुज़ूर ﷺ ने सुना तो सख़्त रंजीदा हुए और सख्त तकलीफ के बावजूद सर पर पट्टी बांध कर मस्जिद में तशरीह लाए और ठीक गदीरे खाम के से अंदाज में खिताब किया कि:-*

*"❀_ मुझे इत्तेला मिली है कि तुमने ओसामा के मुताल्लिक़ ऐसी ऐसी बात कहीं है, इससे पहले उसके बाप के अमीर मुक़र्रर होने पर भी तुम लोग ऐतराज़ात उठा चुके हो... हालांकि खुदा की क़सम वो इस मनसब का मुस्तहक़ था और उसके बाद उसका बेटा भी इसका अहल है, वो (ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु) भी हमको सबसे ज़्यादा मेहबूब था और उसके बाद उसका बेटा (ओसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु) भी हमें सबसे ज़्यादा मेहबूब है,*

*❥❥_इससे क़ब्ल (वफ़ात से 5 दिन पहले) 7 मश्क पानी डलवाया, इस गुस्ल से तबियत ज़रा हल्की हुई तो सहारा ले कर मस्जिद में तशरीफ़ ले गए और वहां सहाबा किराम से आखिरी ख़िताब फरमाया:- "तुमसे पहले ऐसे लोग गुज़रे हैं, जिन्होने अंबिया और सुलहा की क़ब्रों को सज्दागाह बना लिया था, मैं तुम्हें इसे मना कर रहा हूं, देखो मैंने बात पहुंचा दी, इलाही तू खुद इसका गवाह रहियो,*

*"❀_ फिर नमाज पढ़ाई और नमाज़ के बाद फरमाया:- मैं तुमको अंसार के हक़ में खास ताकीद करता हूं, ये लोग मेरे जिस्म के पैरहन और मेरे लिए जा़दे राह रहे हैं, इन्होंने अपने हिस्से की ज़िम्मेदारियां पूरी कर दी और अब (तुम पर) इनके हुक़ूक़ बाक़ी हैं, दूसरे लोग फैलेंगे और ये जहां के तहां ही रह जाएंगे, इनमें से अच्छा काम करने वालों की कद्र करो और लग्ज़िश करने वालों से दरगुज़र करो,*

*"❀_ खुदा ने अपने बंदे को अख्तियार दिया कि वो चाहे तो दुनिया और माफीहा को क़ुबूल करे जो खुदा की बारगाह में है, तो उस बंदे ने वोही कुछ इंतिखाब कर लिया जो उसके लिए खुदा की बारगाह में है _,"*

*"❀_ यूं तो इस सारी गुफ्तगूओं में अलविदाई रंग झलक रहा था, लेकिन आखिरी फ़िक्रे में इशारा बड़ा ही सरीह था, जिसे हज़रत अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु फ़ौरन पा गए और ज़ारो क़तार रोने लगे,* 

*❥❥_नमाज़ की जमात में शिरकत से जब माजू़री हो गई हजरत अबू बकर सिद्दीक रजियल्लाहु अन्हु को अपनी जगह इमामत पर मामूर फरमा दिया, मर्ज़ की शिद्दत बढ़़ने से जमात में इज्तिराब बढ़ता गया और लोग परेशानी में बार बार मस्जिद का चक्कर लगाते, तस्कीन दहानी के लिए हुजूर ﷺ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत फ़ज़ल इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु के कांधो का सहारा ले कर पांव घसीटते हुए मस्जिद में तशरीफ़ लाए और मिम्बर से निचले ज़ीने पर बैठ कर बिल्कुल आखिरी ख़िताब ये फरमाया-*

*"❀_ लोगों! मुझे खबर मिली है कि तुम मेरी मौत से डरते हो, जितने भी अंबिया मबऊस हो चुके हैं, क्या कोई भी उनमें से हमेशा जिंदा रहा, मैं खुदा से मिलने वाला हूं और तुम भी खुदा से मिलने वाले हो, मैं वसियत करता हूं कि मुहाजिरीन अव्वलीन के साथ भलाई करो और मैं वसियत करता हूं कि मुहाजिरीन आपस में हुस्ने सुलूक करें_,"*

*"❀_ फिर सूरह अस्र पढ़ कर फरमाया- तमाम मामलात खुदा के हुक्म पर चलते हैं, जिस काम में ताख़ीर हो उसके लिए जल्दी ना मचाओ, किसी की उजलत पसंदी की वजह से खुदा जल्दी नहीं करता, और मैं वसीयत करता हूं कि अंसार के साथ भलाई करो, उन्होंने तुमसे पहले मदीना को अपना वतन बनाया और ईमान को अपने ऊपर लाज़िम कर लिया, क्या उन्होंने फलों में तुमको अपना शरीक ना बनाया ? क्या उन्होंने तुम्हारी खातिर मकानों में वसीयत ना दी? क्या उन्होंने बावजूद अहतयाज के तुमको अपने आप पर तर्जीह ना दी ? देखो अपने आपको उन पर तरजीह ना दो, सुनो कि मैं पहले जाता हूं और तुम भी मुझसे आ मिलोगे, हौज़ पर मिलने का वादा है _,"*

*"❀_इन खुत्बात को मुख्तलिफ रिवायत में मुख्तलिफ औका़त से मुताल्लिक़ किया गया है, मगर एक राय ये भी पाई जाती है कि शायद अम्रे वाक़िया यहीं हो कि ये सारी बातें एक ही ख़ुतबे में कहीं गई हैं, सोमवार के रोज़ मिज़ाजे अक़दस ने आखिरी बार संभाला लिया, मिस्वाक की, पर्दा उठा कर सहाबा किराम की जमात को देखा और मुस्कुराए... इसके चंद ही लम्हों बाद रफीकु़ल आ'ला तीन बार फरमाया और हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की आगोश में सर रख कर खुदा ए हय्युल क़य्यूम से जा मिले,*

*❥❥_ आह! हम सबके सब खुदा ही के ममलूक हैं और हमें भी पलट कर उसी के हुज़ूर जाना है, आज वो हस्ती दुनिया से रुखसत हो रही थी जिसने इंसानियत को हयाते नो से मालामाल किया और जिसने जिंदगी के काफिले को राहज़नो के हुजूम से निकाल कर सिराते मुस्तकी़म पर लाने के लिए खौफनाक अज़ियतें सहीं, संगीन मराहिल पार किये, मुश्किलात के पहाड़ काटे और फिर इस कारनामे का कोई सिला वसूल नहीं किया,*

*"❀_ ये सदमा कितना बड़ा होगा उन रफ़ीक़ों के लिए.. उम्र भर के साथियों के लिए, जो हुज़ूर ﷺ को एक नज़र देखने से भी नई ताक़त हासिल करते थे, उनकी निगाहों में ज़मीन व आसमान घूम गये होंगे, तारीख़ में ज़लज़ला आ गया होगा, हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु पर सकता तारी हो गया, हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु बेहस व हरकत हो गए, हज़रत अब्दुल्लाह बिन अनीस रज़ियल्लाहु अन्हु का दिल ऐसा शक़ हुआ कि उसी सदमे से इंतेक़ाल कर गए,*

*"❀_ये अज़ीम सदमा यूं भी एक कोहे ग़म था, मुसीबत ये कि ये निहायत ही ख़तरनाक हालात में पेश आया, जबकि एक तरफ़ रोमी हुकुमत की तरफ़ से जंग का ख़तरा मोजूद था और इसीलिये हज़रत ओसामा का लश्कर रवाना हो रहा था, दूसरी तरफ फितना इर्तिदाद और ज़कात का इंकार का फितना था, तीसरी तरफ तहरीके इस्लामी इर्द गिर्द की सल्तनतों को दावत देने के साथ-साथ हल्का सा चेलेंज भी दे चुकी थी, और दाखिली मुश्किल ये कि निफाक़ की दबी हुई रोके उभर आने का अंदेशा था, मगर हुजूर ﷺ की तरबियत का कमाल था कि आपकी तरबियत याफ्ता जमात ने अपने जज़्बात पर फौरन का़बू पा लिया और ना उम्मीदी और इंतेशार का शिकार होने से बच कर अपनी अहम जिम्मेदारियों को अंजाम देने की फिक्र की,*

*"❀_ मोहसिने इंसानियत जैसी हस्ती की वफ़ात पर रंज़ व गम करने से ज़्यादा अज़ीम ज़िम्मेदारी जांनशीनों पर ये होती है कि वो उस तहरीक और निज़ाम की हिफ़ाज़त व इस्तहकाम की फ़िक्र करें जिसका शीराज़ा ऐसे ही लम्हो पर गफ़लत और कोताही करने से बिखर भी सकता है, वो हस्ती जो बरसों पूरे काम की रूह रवां बनी रहती है और तमाम साथियों के कामिल ऐतमाद और गहरी मोहब्बतों का मरकज़ होती है, उसके उठ जाने से बड़ा भारी खला अचानक पैदा हो जाता है, जिसे अगर वक्त पर ठीक से ना भर लिया जाए तो बड़े खौफनाक नतीजे पेश आ सकते हैं, हुजूर ﷺ की तैय्यार करदा जमात ने अपने अहसासे ज़िम्मेदारी और अपने मज़बूत किरदार का बेमिसाल सबूत इस वाक़िये से पेश किया कि फ़ौरन उस खला को भर लिया और नज़म के बंधन ढीले ना पड़ने दिए, जांनशीनी के लिए कोई कशमकश नहीं हुई, तलवार नहीं चली, शोर व हंगामा नहीं हुआ,*

*❥❥_ सकीफ़ा बनी सा'दा में मुख़्तसर सी गुफ़्तगू के बाद इस्लाम की शुराई जम्हूरियत के तहत हज़रत अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु का इंतिखाब अमल में आया, जिसकी तौसीक़ मस्जिदे नबवी के इज्तिमा आम में पूरी जमात के अवामी इज्तिमा ने बाशरह सद्र कर दी,*

*"❀_ हुज़ूर ﷺ के बाद हुज़ूर ﷺ के अज़ीम दावती नस्बुल ऐन को फ़ैलाने और हुज़ूर ﷺ की अगाज़ करदा मुहीमात को तकमील तक पहुंचाने में जिस अज़्म व बशीरत और हुस्ने किरदार के साथ हज़रत अबु बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु ने ज़रे ख़िदमत अंजाम दी और जिस शान से हज़रत फ़ारूक, हज़रत उस्मान, हज़रत अली और सफे क़यादत के दूसरे अकाबिर सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने अपना भरपूर तावुन हुज़ूर ﷺ के जानशीन अमीरे जमात को बाहम पहुंचाया उसकी मिसाले इंसानियत के पास कम ही होंगी_,*

*"❀_ मोहसिन ए इंसानियत की तैय्यार करदा जमात ने साबित कर दिया कि वो बेहतरीन नमूना ए इंसानियत है, वो बेलोस किरदार रखते हैं, वो ज़हानत व बसीरत में अपना नमूना आप हैं और सख्त तरीन हालात में अपनी ज़िम्मेदारियों से ग़ाफ़िल होने वाले नहीं, चुनांचे तारीख़ गवाह है चंद ही बरसों में इस्लामी तहरीक की शुआ'एं दुनिया के कोने कोने तक पहुंचा दीं और इस्लामी निज़ामे अदल का साया ए रहमत जिस रफ़्तार से हुज़ूर ﷺ ने खित्ता खित्ता फैलाया था, उसमें क़त'अन कोई फ़र्क़ नहीं आने दिया,*

*"❀_दुनिया में अगर आज हम मुसलमानों का वजूद है तो ये उसी हस्ती की जांनशीनियों के तुफैल हैं, आज अगर सच्चाई और नेकी का कलमा हमारे सीनों में नूर अफ़गन है तो ये उसी मुक़द्दस वजूद का फ़ैज़ान है, आज अगर ज़िंदगी की सलाह व फलाह के लिए एक उसूली जा़ब्ता इंसानियत के सामने मौजूद है तो ये मुहम्मद ﷺ की जद्दो जहद का समरा है, आज अगर जिंदगी का एक बेहतरीन नमूना ए मैयार हमारी निगाहों के सामने है तो ये नबी करीम ﷺ ही का पेश करदा है,*

*"❀_ हमारे बस में नहीं कि हुजूर ﷺ के अहसानात का किसी अदना दर्जे में भी कोई बदला हुजूर ﷺ को अदा कर सकें, इसलिए ए खुदावंद ए बरतर हम आजिज़ बंदे तुझी से ये दरख्वास्त करते हैं तू हमारे जज़्बे को कुबूल फरमा कर अपने खज़ाना ए रहमत से हमारा बदला अदा फरमा, हुजूर ﷺ की पाक रूह पर रहमते नाजिल फरमा, बरकात भेज, सलामती की फुवारे बरसा दरजात व मरातिब को बुलंद फरमा, हुजूर ﷺ की दावते पैगाम और तहरीक को फिर उरूज दे, उसे तौसी अता फरमा और अपने ज़्यादा से ज़्यादा बंदो को इस्लामी निज़ाम के साया ए रहमत से बेहराह मंद कर, हर एक मुस्लिम बंदे को इस सआदत की तौफीक दे कि हुजूर ﷺ की दावत की मुकद्दस अमानत के सच्चे अमानतदार बनें, उसे सारी इंसानियत तक पहुंचाए, हुजूर ﷺ की जारी करदा तहरीके हक़ को फिर एक जिंदा हक़ीक़त बनायें, और तन मन धन सर्फ कर के हुजूर ﷺ के पेश करदा निज़ामे अदल को जमीन पर इस्तवार कर दे, हुजूर ﷺ के मिशन की तकमील में हिस्सा लेना भी हुजूर ﷺ की ममनुनियत का बेहतरीन इज़हार है, ﷺ,*

 *"❀___ अल्हम्दुलिल्लाह मुकम्मल हुआ __,*

*📓 मोहसिन ए इंसानियत ﷺ -,*
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