╭┅◑════◑════◑═══◑┅╮ *◑ बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम ◐*
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○ *मुहर्रम और आशूरा* ○
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*☞_बाज़ जगहो और दिनों की फ़ज़ीलत✦*
*✪_ अल्लाह ता'ला ने अपने कामिल अख़्तियार और मुकम्मल क़ुदरत की वजह से अपनी मख़लूक़ात में फ़र्क़ रखा है, खुद फ़रमाया:- आपका रब पैदा करता है जो चाहता है और चुन लेता है लोगों को अख़्तियार नहीं है, अल्लाह ताला की ज़ात पाक और बरतर है उससे जिसके साथ ये लोग शरीक करते हैं_, (सूरह क़सस -68)*
*✪_ अल्लामा बशीर अहमद उस्मानी रह. तकरीरे बुखारी में बयान फरमाते हैं:- क्या गुलाब और पेशाब अपनी ज़ात से यक़सां हैं, सिर्फ खुशबू और बदबू का फर्क है ? हरगिज़ नहीं, जिस तरह पेशाब और गुलाब में फ़र्क़ है इससे भी बढ़कर फ़िरौन और मूसा अलैहिस्सलाम और हुज़ूर ﷺ और अबू जहल में फ़र्क़ है,*
*✪_ यही तहकीक क़िबला नुमा में मौलाना क़ासिम नानोतवी रह. ने लिखी है:- क्या लैलातुल कद्र और तमाम रातें बराबर हैं? हरगिज नहीं ! तो क्या लैलातुल कद्र में फजीलत महजब इबादत से है? नहीं बल्कि इबादत इसमें इसलिए हुई कि इसमें खुद फजीलत थी,*
*"_इसी तरह रमज़ान की फजीलत इस वजह से नहीं कि इसमें क़ुरान का नुज़ूल हुआ, बल्कि नुज़ूले क़ुरान इसमें इसलिए हुआ कि वह (माहे रमज़ान) खुद अफ़ज़ल था, हाँ नुज़ूल क़ुरान से शर्फ़ में इज़ाफ़ा हो गया,*
*✪ _ इंसानो में अल्लाह ताला ने अम्बिया अलैहिस्सलाम को फजीलत बख्शी, फिर अम्बिया अलैहिस्सलाम ने भी फ़र्क़ रखा, बाज़ को बाज़ पर फजीलत दी, माहे रमज़ान और अशरा ज़िलहिज्जा, रातो में शबे क़दर की फजीलत को सब तस्लीम करते हैं ,शबे बरात की फजीलत भी अक्सर उलमा मानते हैं, जगहो में मक्का मुकर्रमा और मदीना मुनव्वरा की फजीलत भी सबको मालूम है,यही हाल कुछ और वक्तों और जगहों का भी है,*
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*☞ _ माहे मुहर्रम और यौमे आशूरा ✦*
*✪ _ इसी तरह माहे मुहर्रम और आशूरा की भी कुछ फजीलते हदीसों आई हैं, اشهر حرم की फजीलत कुरान में मनसूस है इनमें मुहर्रम भी दाखिल है, इसी तरह माहे मुहर्रम का शहर हराम होना तो कुरान से मालूम हो गया, बकिया फजाईल हदीसों में हैं,*
*✪ एक तम्बीह _ लेकिन फजाइल के बारे में बहुत सी बातें उम्मत में बुनियाद (मनगढ़ंत) मशहूर हो गई हैं, मुहर्रम और आशूरा के बारे में भी बहुत सी बातें ऐसी है जिनका कोई सबूत मुहद्दिसीन के यहां नहीं, इस बारे में बहुत अहतयात की जरूरत है,*
*✪ _हमारे पास शरीयत की बुनियाद के तौर पर दो चीजें है, किताबुल्लाह और सुन्नत रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, आमाल व अय्याम के फजाइल भी अहकाम की तरह इन्हीं उसूलों से साबित किये जाएंगे, मनगढ़ंत बातों का कोई ऐतबार नहीं, हां बेशक सल्फे सालेहीन यानी सहाबा किराम रजियल्लाहु अन्हुम व ताबईन के अक़वाल भी जो साबित हो हुज्जत होंगे, इसलिए कि जिन बातों में राय और कयास को दखल न हो (बिल खुसूस फजाइल की बात) उनमें इन हज़रात के कौल अहादीस के दर्जे में हैं,*
*✪_ रहा इज्मा और क़यास जो कुरान व सुन्नत से माखूज़ हो तो बेशक ये दोनो भी हुज्जत हैं लेकिन फजा़इल की जो बातें मशहूर हैं उनका इन दोनो से ताल्लुक नहीं,इसलिए किसी अमल या कौल या किसी ज़मान व मकान की फ़ज़ीलत के लिए रिवायात की ज़रूरत है और उनके मोअतबर या गैर मोअतबर होने के लिए मुहद्दिसीन मैयार हैं,इसलिए जो बात भी पेश की जाए उसका माखूज़ व हवाला भी पेश किया जाना चाहिए ताकि मालूम हो सके ये बात कहां से आई और मोअतबर है या नहीं,*
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*☞_ मुहतरम महीनें - ✦*
*✪_ साल में 12 महीने हैं, उनमें चार महीने मुहतरम हैं – मुहर्रम, रज्जब, ज़िल क़ादा, ज़िलहिज्जा, इनका ख़ास अहतमाम करना चाहिए, आमाले सालेहा का सवाब इनमें ज़्यादा हो जाता है और गुनाहों से बचने का भी ख़ास अहतमाम करना चाहिए कि इनमें गुनाहों का वबाल भी ज़्यादा होता है,*
*“__ जैसे मक्का मुकर्रमा में नेक आमाल का सवाब ज़्यादा होता है और गुनाहों की सज़ा भी ज़्यादा होती है” ( तफ़सीर इब्ने कसीर -2/554)*
*✪ _ क़तादा रह .फ़रमाते हैं :- इन मुहतरम महीनों में जुल्म का गुनाह दूसरे महीनों में जुल्म से ज्यादा होता है, अगरचे जुल्म हर हाल में बड़ा गुनाह है लेकिन अल्लाह तआला अपने जिस हुक्म को चाहते हैं बड़ा बना देते हैं,*
*✪ _ आगे फरमाया :- अल्लाह तआला ने अपने मखलूक में कुछ को मुंतखब फरमाया, मलाइका में कुछ को पैगम्बर बनाया, इंसानो में कुछ को रिसालत से नवाजा, कलामों में अपने कलाम को मुंतखब फरमाया, जमीन में से मस्जिद को चुन लिया, महीनों में रमजान और अशहरे हरम को फजीलत दी, दिनों में जुमा को खुशुसियत दी, रातो में शबे कदर को इम्तियाज बख्शा, लिहाज़ा अल्लाह तआला ने जिन उमूर को फजीलत दी उनको बड़ा समझो, अकलमंदो के नजदीक वही उमूर बड़े होते हैं जिनको अल्लाह तआला बड़ा बताते हैं _”( तफ़सीर इब्ने कसीर -2/554)*
*✪_ लिहाजा मुहर्रम के महीने में ज़िल क़ादा, ज़िलहिज्जा और रज्जब की तरह आमल ए सालेहा का ख़ास अहतमाम करना चाहिए और गुनाहों से बचने का भी खुसूसी अहतमाम करना चाहिए,*
*✪_ इमाम राज़ी रह. ने फरमाया है कि इसमे इशारा इस बात का है कि मुबारक महीनों में ये खासियत है कि इनमें जो शख्श इबादत करता है उसको बक़िया महीनों में भी इबादत की तोफीक़ होती है, और जो शख्श कोशिश करे इन महीनों में अपने आपको गुनाहों और बुरे कामों से बचाने की तो बाक़ी साल के महीनों में उसको उन बुराइयों से बचना आसान हो जाता है, इसलिए इन महीनों से फायदा ना उठाना एक अजीम नुक़सान है _,”(मार्फुल कुरान _जिल्द -4 सफा -373),*
*✪_ कुरान ए करीम में इन चार महीनों की ताईन नहीं आई, ये ताईंन और इनके नाम सही हदीसों में आये हैं:-*
*“__ हज़रत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- बेशक ज़माना घूम कर उस हालत पर आ गया जिस पर आसमान व ज़मीन के पैदा किये जाने के वक़्त था, साल में बारह (12) महीने हैं, इनमें चार मोहतरम हैं, तीन मुसलसल ज़िल का'दा, ज़िल्हिज्जा और मुहर्रम और एक मुज़र (क़बीले) का रज्जब जो जुमादी (सानी) और शाबान के दरमियान हैं _,”( बुखारी शरीफ़,2/632)*
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*☞_ कुफ्फार ए मक्का महीनों को आगे पीछे करते थे ✦*
*✪_ कुफ्फारे मक्का अपनी नफ्सानी ख्वाहिश पूरी करने के लिए महीने आगे पीछे करते थे, मुहर्रम में लड़ने का जी चाहता तो ये कह देते कि इस साल पहले सफर का महीना आएगा इसके बाद मुहर्रम का, इस तरह मुहर्रम को दूसरे महीनो से तबदील कर लेते थे, अहदे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के ज़माने से ये बात चली आती थी कि चार महीने मुहतरम हैं इनमें क़िताल मना है, तो कुफ्फारे मक्का चार के अदद का अहतराम करना चाहते थे लेकिन लड़नें की ख्वाहिश पूरी करने के लिए महीनों को आगे पीछे करते थे, इसकी वजह से अरबों के शुमार में महीनों का सही पता नहीं था,*
*✪_ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बयान फरमा दिया कि इस साल महीनों की तरतीब बिल्कुल फितरत के मुताबिक हो गई है, इससे पहले साल 9 हिजरी में जबकी हजरत अबू बकर रजियल्लाहु अन्हु की इमारत में हज हुआ था, अगरचे महीना जिलहिज्जा ही था लेकिन जहिलियत के शुमार में वो ज़िल का़'दा था, शायद इसीलिए हुजूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने अपने हज को मोअख़र फरमाया और उस साल 10 हिजरी में हज के मोके पर मीना के दसवीं ज़िलहिज्जा के खुतबे में ये फरमाया, इस साल महीनों की तरतीब बिल्कुल फितरत के मुताबिक हो गई है, और आगे फरमाया कि साल के (12) बारह महीने हैं,*
*✮_ इसमे कुरान ए करीम की सूरह तौबा की आयत 36 की तरफ इशारा है:-*
*__ कि महीनों का शुमार अल्लाह तआला के यहां बारह है, लोहे महफूज़ में लिखा हुआ है जबसे आसमान व ज़मीन पैदा हुए, इनमे चार महीने मुहतरम हैं, ये वही महीने हैं जिनको हदीस ने मुत’इयन किया,*
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*☞ ___माहे मुहर्रम का रोज़ा _ ✦*
*✪_ माहे मुहर्रम की एक फजी़लत यह भी है कि इस महीने का रोज़ा रमज़ान के बाद सबसे अफ़ज़ल है और इस महीने को हुजूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अल्लाह तआला का महीना क़रार दिया, यूं तो सारे ही दिन और महीने अल्लाह तआला के हैं लेकिन अल्लाह तआला की तरफ से निस्बत करने से इसका शर्फ और फजी़लत ज़ाहिर होती है,*
*✪ _ हजरत अबू हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुजूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया – रमज़ान के महीने के बाद सबसे अफ़ज़ल रोजा अल्लाह तआला के महीने मुहर्रम का रोज़ा है, (तिर्मिज़ी – 1/157)_,*
*✪ _ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि मैं हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास बैठा हुआ था कि एक सहाबी ने आकर पूछा कि या रसूलल्लाह ! रमज़ान के महीने के बाद किस महीने के रोज़े रखने का आप मुझे हुक्म देते हैं? तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया है कि अगर रमज़ान के महीने के बाद तुमको रोज़े रखना हो तो मुहर्रम का रोज़ा रखो क्योंकि ये अल्लाह का महीना है, इसमें एक दिन है जिसमें अल्लाह तआला ने एक क़ौम की तौबा क़ुबूल की और दूसरे लोगों की तौबा भी क़ुबूल फरमाएंगे _,”( तिर्मिज़ी -1/157 ) _,*
*✪__ लेकिन इस रिवायत में जोफ़ है, जिस क़ौम की तौबा क़ुबूल हुई वो क़ौम बनी इस्राइल है, आशूरा के दिन अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को बनी इस्राइल के साथ फिरौन और उसके लश्कर से निजात दी, इस दिन की वजह से इस महीने में फजी़लत आ गई, बाज़ उलमा के नज़दीक मुहर्रम से मुराद इसका खास दिन यानी दसवीं तारीख आशूरा है, तो उनके नज़दीक इन हदीसों से सिर्फ यौमे आशूरा के रोज़े की फजी़लत साबित होगी न कि पूरे महीनों की, ( अल अराफुल शाज़ी )*
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*☞ _आशूरा (10 वी मुहर्रम) का रोज़ा ✦*
*✪ _ दसवीं मुहर्रम का दिन इस्लामी तारीख में एक बड़ा और मोहतरम दिन है, इस दिन आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रोज़ा रखा था और मुसलमानों को रोजा रखने का हुक्म भी दिया है,*
*✪ _ पहले तो ये रोज़ा वाजिब था, फिर जब रमजा़नुल मुबारक के रोज़े फ़र्ज़ हुए तो मुसलमानों को अख्तियार दिया गया कि चाहे ये रोज़ा रखें या न रखें, अलबत्ता इसकी फजी़लत बयान कर दी गई कि जो रोज़ा रखेगा उसके एक साल गुजिश्ता के गुनाह माफ कर दिए जाएंगे,*
*✪ _ पहले ये रोज़ा सिर्फ एक दिन रखा जाता था लेकिन आखिर में हुजूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि अगर मैं जिंदा रहूं तो इंशा अल्लाह नवी (9) मुहर्रम को भी रोज़ा रखूंगा, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का विसाल हो गया, (इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन) इसलिए ये रोजा दो दिन रखना चाहिए, ९ और १० को या १० और ११ को, बाज़ किताबों में ये रिवायत इस तरह भी आई है कि एक दिन पहले और एक दिन के बाद, इसलिए अगर तीन रोज़े रखे (९-१०-११) तो भी बेहतर है, अलबत्ता सिर्फ १० को रोज़ा रखना बेहतर नहीं बल्की मकरूह तंज़ीही है,*
*✪ _ ये रोज़ा इस तरह शुरू हुआ कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इसराइल को फिरौन और उसके लश्कर से इसी दिन निजात मिली, इसलिए मूसा अलैहिस्सलाम ने शुक्रिया में ये रोज़ा रखा और यहूद में ये रोज़ा चलता रहा, यहूद से कुरैश ने सीखा, कुरैश मक्का मुकर्रमा में ये रोज़ा रखते थे, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी ये रोज़ा रखा था, मदीना तशरीफ़ लाए तो देखा कि यहूद भी ये रोज़ा रखते हैं, पूछ गया कि ये रोज़ा क्यों रखते हो? यहूद ने बताया कि अल्लाह तआला ने हमें इस दिन फिरौन से निजात दी, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि हम तुमसे ज़्यादा मूसा अलैहिस्सलाम के हक़दार हैं, इसलिए आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ये रोज़ा रखा और मुसलमानों को भी रखने का हुक्म दिया,*
*✪ _ और शुरू में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अहले किताब के साथ मुवाफ़क़त को पसंद करते थे फिर बाद में मुख़लफ़त का हुक्म हुआ तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि अगर ज़िंदा रहा तो नौवी को भी रोज़ा रखूंगा ताकि मुखालफत हो जाए, इसलिए सिर्फ़ 10 को रोज़ा रखना फुक़हा किराम ने मकरूह तंज़ीही क़रार दिया है,*
*®_ (दुर्रे मुख्तार _2/91) _*
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*☞_ आशूरा के रोज़े से मुताल्लिक़ रिवायात - ✦*
*✪_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं, रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ होने से पहले लोग आशूरा का रोज़ा रखते थे और आशूरा के दिन बैतुल्लाह शरीफ़ को गिलाफ़ पहनाया जाता था, जब रमज़ान फ़र्ज़ हुआ तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि जो चाहे रोज़ा रखे जो चाहे न रखे_,”( बुखारी शरीफ़- 217)_*
*✪_ एक रिवायत में इस तरह है कि कुरैश जाहिलियत में आशूरा के दिन रोज़ा रखते थे और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम भी उस वक़्त रोज़ा रखते थे, जब मदीना तशरीफ़ लाए तो यहाँ भी रोज़ा रखा और इस रोज़े का हुक्म भी दिया, जब रमज़ान फ़र्ज़ हुआ तो आशूरा (के रोज़े का हुक्म) छोड़ दिया गया, जो चाहे रखे जो चाहे न रखे_,” (बुखारी शरीफ- 254,268)_,*
*✪_ हज़रत रबीआ बिन्त मुआविज़ रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा की सुबह अंसार के गाँवों में ऐलान करा दिया कि जिसने सुबह को खा लिया हो वो बक़िया दिन पूरा करे (यानी रुका रहे) और जिसने अभी तक खाया पिया नहीं है वो रोज़ा रखे, फ़रमाती हैं कि हम भी ये रोज़ा रखती थीं और अपने बच्चों को भी रोज़ा रखाती थी और उनके लिए ऊन का खिलौना बनाती थी, जब कोई बच्चा खाने के लिए रोता तो उसको ये खिलौना दे देती यहाँ तक कि अफ़्तार का वक़्त होता,” (बुखारी-1/263),*
*✪_ हज़रत सलमा बिन अल अकुआ रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा के दिन एक आदमी को भेजा जो लोगों में ये ऐलान कर रहा था कि जिसने खा लिया वो पूरा करे या फरमाया (यानी बाक़िया दिन खाने पीने से रुका रहे) और जिसने नहीं खाया वो ना खाये (यानी रोज़ा रखे) _,” ( बुखारी- 1/257,268) _*
*✪__इन रिवायतो से मालूम होता है कि ये रोज़ा पहले वाजिब था और ज़रूरी था,*
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*✪_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु की फ़रमाते है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूद को देखा कि आशूरा के दिन रोज़ा रखते हैं, आपने पूछा ये क्या है? यहूदियों ने कहा ये अच्छा दिन है, इस दिन अल्लाह तआला ने बानी इस्राइल को उनके दुश्मन से निजात दी, मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इस्राइल को गलबा और कामयाबी अता फरमाई, हम इस दिन की ताजी़म के लिए रोज़ा रखते हैं, आन हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया हम तुमसे ज़्यादा मूसा अलैहिस्सलाम के करीब हैं, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी रोज़ा रखा (यानी रखते थे) और लोगों को भी रोज़ा रखने का हुक्म दिया _ ,” (बुखारी – 1/268, 562)_*
*✪_ हज़रत अबू मूसा अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम मदीना मुनव्वरा में दाखिल हुए तो देखा कि कुछ यहूदी आशूरा की ताजी़म कर रहे हैं और इस दिन रोज़ा रखते हैं इसको ईद बना रहे हैं, आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने फरमाया कि हम इस रोज़े के ज़्यादा हक़दार हैं, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने मुसलमानों को रोज़ा रखने का हुक्म दिया _,” ( बुखारी – 1/268,562) _,*
*✪_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि मैंने आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम को नहीं देखा कि किसी दिन के रोज़े का जिसकी फजी़लत दूसरे पर बयान फरमाई हो, अहतमाम और क़स्द करते हो सिवाए आशूरा के रोज़े के और रमज़ान के महीने के _,” (बुखारी- 1/268) _,*
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*☞ __आशूरा के रोजे का सवाब ✦*
*✪_ हज़रत अबू क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया आशूरा के रोज़े के बारे में मुझे अल्लाह तआला से उम्मीद है कि एक साल गुज़िश्ता के गुनाह माफ़ फ़रमा देंगे _,” ( तिर्मिज़ी – 1/151) _,*
*✪ _ इमाम तिर्मिज़ी फ़रमाते हैं कि सिर्फ़ इसी एक हदीस में ये फ़ज़ीलत हम को मालूम है, इमाम अहमद और इसहाक़ इसी के क़ायल हैं,*
*✪_ गुनाहों से मुराद उसूल के मुताबिक़ सगीरा गुनाह हैं, कबीरा गुनाहों के लिए तौबा की ज़रूरत होगी,*
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*☞_ आशूरा का रोज़ा रखने का तरीक़ा -✦*
*✪_ हज़रत हकम बिन अरिज फरमाते हैं कि मैं इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु की खिदमत में हाजिर हुआ, वो ज़मज़म के कुंवे के पास चादर से टेक लगाए हुए थे, मैंने कहा मुझे बताएं कि आशूरा के दिन का रोज़ा मैं किस तरह रखू? फरमाया – जब मुहर्रम का चांद देखो तो शुमार करते रहो फिर नौवी की सुबह को रोजा रखो,*
*"_कहते हैं कि मैंने पूछा – क्या हुजूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इसी तरह ये रोज़ा रखते थे, इब्ने अब्बास रजियल्लाहु अन्हु ने फरमाया-हां, (ये हदीस सही है), ( तिर्मिज़ी- 1/158) _,*
*✪_ दूसरी हदीस में है कि इब्ने अब्बास रजियल्लाहु अन्हु ने फरमाया- आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दसवीं तारीख को आशूरा का रोज़ा रखने का हुक्म दिया, एक और रिवायत में इब्ने अब्बास रजियल्लाहु अन्हु का इरशाद है कि नौवी और दसवीं का रोज़ा रखो और यहूद की मुख़ालफ़त करो _,”( तिर्मिज़ी – 158 _),*
*“__ (दूसरी रिवायत तहावी और बेहिक़ी ने सनद के साथ नक़ल की है)*
*✪__इन सब रिवायतों से मालूम हुआ कि आशूरा का रोज़ा रखने का पसंदीदा तरीक़ा यह है कि नवी और दसवीं तारीख को रोज़ा रखे, और हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने जो फ़रमाया है उसी तरह आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रोज़ा रखते थे, मतलब इसका यह है कि अगर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ज़िंदा रहते तो ऐसा ही करते जैसा कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरादा ज़ाहिर फ़रमाया था, इसलिए अगरचे वाक़ियातन किया नहीं लेकिन पसंद फरमाने की वजह से आपके फ़ैल ही की तरह है, वल्लाहु आलम _,*
*✪_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से एक रिवायत बहुत सी किताबो में मज़कूर है जो मुहम्मद बिन अबी लैला की तरीक़ से मरवी है इसमें आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है कि आशूरा का रोज़ा रखो और इसमें यहूद की मुख़ालफ़त करो, एक दिन पहले रोज़ा रखो या एक दिन बाद _,” (मुसनद अहमद- 1/241, तहावी, बहिकी़, बिज़्ज़ार वगैरा _,*
*“__ यानी 9-10 को रोज़ा रखो या 10-11 को,*
*✪_ मुहर्रम के रोज़े के तीन मरातिब हैं –*
*(1) सबसे अफ़ज़ल 9-10-11 तीन दिन,*
*(2) 9 और 10 दो दिन,*
*(3) सिर्फ़ 10 को एक दिन,*
*"_9 और 10 में कई हदीसें आई हैं, 10 और 11 कोई दर्जा नहीं, सिर्फ़ 9 का रोज़ा भी सुन्नत नहीं, ( हाशिया तिर्मिज़ी – 1/ 158) _*
*✪_ दूरे मुख्तार ने लिखा है कि सिर्फ़ 10 का रोज़ा मकरूह तंज़ीही है, (यानी पहले या बाद में एक रोज़ा शामिल किए बगैर ) (दूरे मुख्तार -2/91)*
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*☞___ तम्बीह ✦*
*✪__ इस मसले से मालूम हुआ कि यहूद व नसारा के साथ इबादत में मुशाबहत भी शरीयत में पसंदीदा नहीं, इसलिए सिर्फ़ 10 का रोज़ा मकरूह कहा गया, बावजूद ये कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ये रोज़ा रखा था, लेकिन आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरादा मुख़ालफ़त का था, इसलिए किसी तरह मुख़ालफ़त होना चाहिए, चाहे एक दिन पहले रखो या एक दिन बाद में,*
*✪_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बालों को सीधा लटकाते थे, माँग नहीं निकालते थे, अहले किताब भी ऐसा ही करते वे, मुशरिकीन माँग निकलते थे, आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम को जिस मसले में अल्लाह ताला की तरफ से खास हुक्म नहीं आता उसमें अहले किताब की मुवाफ़क़त को पसंद करते थे, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी माँग निकाली, (बुखारी– 1/503, 562_)*
*✪ _ इससे मालूम हुआ कि इस रोज़े के मसले में भी अल्लाह ताला की तरफ से मुख़ालफ़त का हुक्म मिला था, इसलिए सिर्फ़ 10 का रोज़ा नहीं रखना चाहिए, (यानी एक दिन और मिलाकर दो रोज़े रखने चाहिए)*
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*☞_ अहलो अयाल पर वुसअत के साथ खर्च करना✦*
*✪_ आशूरा के दिन अहलो अयाल पर खर्च करना वुसअत करना पसंदीदा काम है या नहीं? अक़सर मुहद्दिसीन की राय ये है कि इस मज़मून की हदीस मोअतबर है, इसलिए ये अमल पसंदीदा है, अल्लामा सखावी रह.ने अल-मक़ासिदुल हस्ना में इस हदीस की ताईद की है,*
*✪_ हज़रत इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया :- जो कोई आशूरा के दिन अपने अहलो अयाल पर वुसअत करेगा अल्लाह तआला उस पर पूरे साल वुसअत और फ़राख़ी फ़रमाएँगे _,”*
*“__ इसको तिबरानी, बहिक़ी और अबू शेख ने इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया, तिबरानी और बहिक़ी ने अबू सईद खुदरी रजियल्लाहु अन्हु से, बहिक़ी ने हज़रत जाबिर रजियल्लाहु अन्हु और अबू हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु से और फ़रमाया इन सबकी सनद ज़ईफ़ है लेकिन बाज़ को बाज़ से मिलाया जाए तो क़ुव्वत पैदा हो जाती है, (मका़सिदुल सख़ावी रह. -674_),*
*✪_ अल्लामा शामी ने भी दूर्रे मुख्तार में लिखा है कि तोसा की हदीस साबित सही है, अलबत्ता आशूरा के दिन सुरमा लगाने की हदीस मोज़ू है, जैसा कि सख़ावी ने मक़ासिद हसना में यक़ीन के साथ लिखा है, मुल्ला अली का़री ने भी किताबुल मोज़ुआत में इनका इत्तेबा किया, सैवती ने दूर्रे मुंतशरह में हाकिम से नक़ल किया कि ये मुंकिर है, हाकिम ने ये भी फ़रमाया जैसा कि जराही ने कशफुल ख़फ़ा में नक़ल किया कि आप हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कोई असर वारिद नहीं, आशूरा के दिन सुरमा लगाने के बारे में ये बिदअत है _,” (शामी रशीदिया, 2/124)*
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*☞ __एक बड़ी गलत फहमी- ✦*
*✪_ बहुत से लोग यह समझते हैं कि मुहर्रम और आशूरा की अहमियत और फजीलत हजरत हुसैन रजियल्लाहु अन्हु की शहादत से मुताल्लिक है ये बिल्कुल गलत है, शरीयत जनाबे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में मुकम्मल हो गई थी, सय्यदना हुसैन रजियल्लाहु अन्हु का वाक़िआ बहुत बाद में पेश आया, खुलफा ए राशीदीन का दौर खत्म हो चुका उसके भी कई साल के बाद, भला इससे शरीयत के किसी मसले का ताल्लुक क्या हो सकता है,*
*✪_ सय्यदना हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत बहुत ही दर्दनाक और तकलीफ़दह वाक़िया है, लेकिन इस्लाम में मातम करना ज़ाइज़ नहीं, इस्लाम मातम का दीन नहीं है, इस्लामी तारीख का हर हर पन्ना शोहदा के खून से रंगीन है, अगर मातम किये जाएं तो हर दिन मातम ही करना होगा,*
*✪__हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत, हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत, हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत इसके पहले हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत, गज़वा ए मोता का वाक़िया, गज़वातुल रजी़ का वाक़िया, ये वाक़ियात जो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए भी दर्दो गम का बाइस बने थे, इनको क्यों भूल जाएं, लेकिन इस्लाम मातम करने की तालीम नहीं देता बल्कि दीन के लिए जान व माल क़ुर्बान करने की तालीम देता है, हमारे उन बुज़ुर्गों ने दीने हक़ पर अपनी जाने दी, हम दीन के लिए क्या क़ुर्बानी पेश कर रहे हैं? ये सोचने की बात है,*
*✪__शाह अब्दुल हक देहलवी रह. लिखते हैं कि शेख इब्ने हज़र रह. अपनी किताब "सवाइक मोहरका़" में तहरीर करते हैं, इस दिन रोज़े वगेरा के सिवा किसी और काम में मशगूल न हों और हरगिज़ रवाफिज और शिया लोगों की बिदअत में मशगूल ना हो, जैसे नोहा और मातम करना, रोना धोना छाती पीटना,ये मुसलमानों का तरीका नहीं, वर्ना आप हजरत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात का दिन इसका ज्यादा मुस्तहिक़ होता,…….._,”( मासबत बिल सुन्नत _),*
*✪_ बाज़ आइम्मा फुक़हा ए हदीस से पूछा गया कि इस दिन सुरमा लगाना, गुस्ल करना, मेहंदी लगाना, दाने पकाना (खिचड़ा), नए कपड़े पहनना और ख़ुशी ज़ाहिर करना कैसा है? तो फरमाया इसमें ना आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कोई सही बात मरवी है ना किसी सहाबी से, आइम्मा अरबाह और उनके अलावा किसी ने भी इन चीज़ों को मुस्तहब नहीं समझा, मोअतबर किताबों में ना कोई सही बात मरवी है ना ज़ईफ़, जो कहा जाता है कि आशूरा के दिन जो सुरमा लगाए उसकी आंख साल भर ना दुखेगी, जो गुस्ल करे वो साल भर बीमार ना होगा और जो अहलो अयाल पर वुसअत करे अल्लाह तआला उस पर पूरे साल वुसअत करेगा, ये सब बातें मोज़ू (और मनगढ़ंत) हैं, अल्लामा इब्ने कय्यिम रह.ने भी तशरीह की है कि आशूरा के दिन सुरमा लगाना, तेल लगाना, खुशबू लगाना, इस मज़मून की हदीस झूठे लोगों की घड़ी हुई है, (मा'सबत बिल सुन्नत) _,*
*✪_ इसके बाद शाह अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी रह. ने एक और मोजु हदीस ज़िक्र की, जिसमें ये बातें भी हैं कि इसी दिन यूसुफ अलैहिस्सलाम क़ैद खाने से निकले, इसी दिन याकूब अलैहिस्सलाम की बीनाई वापस हुई, इसी दिन अय्यूब अलैहिस्सलाम की बला टली, इसी दिन यूनुस अलैहिस्सलाम मछली के पेट से बाहर निकले... इसी दिन हुजूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के अगले पिछले जुनुब माफ़ हुए, इसी दिन क़ौमे यूनुस अलैहिस्सलाम की दुआ कबूल हुई, जो इस दिन रोज़ा रखे उसके लिए चालीस साल का कफ्फारा होगा, सबसे पहली मखलूक दुनिया की आशूरा का दिन है, सबसे पहली बारिश इसी दिन हुई, जो इस दिन रोज़ा रखे गोया कि हमेशा रोजा रखा, ये अम्बिया का रोज़ा है, जिसने इस रात को जिंदा किया सातो आसमान वालों के बराबर इबादत की...इब्न जोजी़ रह.ने इसको मोजुआत में जिक्र किया, जाहिर है कि बाज लोगों ने इसको (आशूरा के दिन को) वज़ा करके इसके लिए ये सनद जोड़ दी _,” (मा'सबत बिल सुन्नत,61) _,*
*✪_ …इसी दिन अल्लाह तआला ने इन मखलूकात को पैदा किया, आसमान, जमीन, कलम, लोग, जिब्रील अलैहिस्सलाम, फरिश्ते, आदम अलैहिस्सलाम, इब्राहिम अलैहिस्सलाम इसी दिन पैदा हुए, इसी दिन उनको आग से निजात मिली, इस्माईल अलैहिस्सलाम का फिदया आया, फिरौन ग़र्क हुआ और इदरीस अलैहिस्सलाम को आसमान पर उठाया गया, आदम अलैहिस्सलाम की तौबा कुबूल हुई और दाऊद अलैहिस्सलाम की मगफिरत हुई, अल्लाह तआला अर्श पर मुस्तवी हुए, कयामत इसी दिन आएगी,... ये हदीस मोजू है, इब्ने जोजी़ रह.ने इब्ने अब्बास रजियल्लाहु अन्हु से मोजूआत में जिक्र फरमाया है, (मा'सबत बिल सुन्नत -20)_,*
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*☞_ क्या कयामत आशूरा के दिन आएगी ? ✦*
*✪_ क़यामत जुमा के दिन आएगी ये बात सही हदीस (तिर्मिज़ी -110) में आई है, लेकिन क्या वो जुमा दसवीं मुहर्रम को होगा? ये बात किसी मोअतबर हदीस में नहीं मिली, हज़रत शाह रफ़ीउद्दीन ने ज़िल्ज़ालतुल साअत में इसको ज़िक्र किया, वहीं से ये बात शायद मशहूर हुई, मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह साहब ने तालीमुल इस्लाम में भी इसको ज़िक्र किया है, और किताबों में भी अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी रेह. के तकरीर तिर्मिज़ी में भी मज़कूर है कि सनद क़वी से साबित है, मौलाना यूसुफ़ बिन्नोरी रह. ने लिखा है कि मुझे ऐसी कोई हदीस नहीं मिली _” ( मा'अरफुल सुनन – 4/306)*
*✪_ मुफ़्ती मुहम्मद तकी़ उस्मानी साहब दा.ब. ने लिखा है कि इसकी हदीस मोज़ू है,*
*✪_ ख़ुलासा ये है कि ख़ास आशूरा के दिन क़यामत आना किसी मोअतबर हदीस से मालूम नहीं हो सका, बल्कि हदीस में आया है कि हर जुमे के दिन इंसान और जिन्न के सिवा बाकी हैवानात क़यामत के इंतजार में रहते हैं, जब सूरज निकल आता है तो उनको इतमिनान होता है, ( मिश्कात- 120)*
*✪_ शायद इसलिये आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हर जुमा की फजर में अलिफ लाम मीम तंज़ील सजदा और सूरह दहर पढ़ते थे कि इन सूरतो में खल्के आदम का भी जिक्र है और क़यामत का भी ताकि लोग क़यामत की तैयारी करें, वल्लाहु आलम बिस सवाब,*
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*☞_ ख़ुलासा ए कलाम ✦*
*✪_ इस सारी बहस से मालूम हुआ कि आशूरा की फ़ज़ीलत और अहमियत में सिर्फ़ मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इस्राइल की निजात और फ़िरौन और उसके लश्कर की ग़र्क़ आबी को दख़ल है, इसी वजह से इस दिन की फ़ज़ीलत है और इसी वजह से रोज़ा भी है,*
*✪_ और किसी वाक़िया का कोई सबूत नहीं है, सय्यदना हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु के वाक़िया ए शहादत से भी इस दिन में कोई हुक्मे शरई साबित नहीं होता, किसी ख़ास खाने या किसी ख़ास नमाज़ का भी कोई सबूत नहीं ,*
*✪_ तफ़सीर इब्ने कसीर में मुसनद अहमद से एक हदीस हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की मज़कूर है जिसमें नूह अलैहिस्सलाम की कश्ती का जोदी पहाड़ पर ठहरना मज़कूर है, इब्ने कसीर ने इसको गरीब कहा, उनके गरीब कहने का मतलब बहुत सी जगह पर यही होता है कि इसका ऐतबार नहीं,*
*✪__ इसलीये सही हदीस में जो बात आई है सिर्फ उसी पर अमल करना चाहिए, अल्लाह तआला उम्मत को किताबो सुन्नत पर क़ायम फरमाये और बिदअत व खुराफात और बे बुनियाद बातों को शरीयत में दाखिल करने से बचाये, आमीन या रब्बुल आलमीन,
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*☞_ ताज़िए का जुलूस और मातम की मजलिस देखना ✦*
*▣_इन दिनों मुसलमानों में कसीर तादाद मातम की मजलिस और ताजिया के जुलूस का नज़ारा करने के लिए जमा हो जाती है इनमें कई गुनाह है।*
*“_ पहला गुनाह यह है कि इसमें दुश्मनाने सहाबा रजियल्लाहु अन्हुम और दुश्मनाने क़ुरान के साथ मुशाबहत है ।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम का इरशाद है- जिसने किसी क़ौम से मुशाबहत की वह उसी में शुमार होगा।*
*▣_ होली के दिन एक बुजुर्ग जा रहे थे उन्होंने मज़ाक के तौर पर एक गधे पर पान की पीक डालकर फरमाया कि तुझ पर कोई रंग नहीं फेंक रहा ले तुझे मैं रंग देता हूं । मरने के बाद इस पर पकड़ हुई कि तुम होली खेलते थे और अज़ाब में गिरफ्तार हुए।*
*▣_दूसरा गुनाह यह है कि जिस तरह इबादत को देखना इबादत है उसी तरह गुनाह को देखना भी गुनाह है । तीसरा गुनाह यह है कि इस मुकाम पर अल्लाह ता’अला का गज़ब नाजि़ल हो रहा होता है ऐसी गज़ब वाली जगह जाना बहुत बड़ा गुनाह है।*
*▣_ एक बार रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम का गुज़र ऐसी बस्तियों के खंडहरात पर हुआ जिन पर अजा़ब आया था । रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने अपने सर मुबारक पर चादर डाल ली और सवारी को बहुत तेज़ चला कर उस मुकाम से जल्दी से गुज़र गए।*
*“_ जब सैयदुल अव्वलीन व आखिरीन, रहमतुल आलमीन सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम गज़ब ( अज़ाब )वाली जगह से बचने का एहतमाम फरमाते थे तो अवाम का क्या हश्रर होगा।सोचना चाहिए कि अगर अल्लाह ता’अला के दुश्मनों के करतूतों से उस वक्त कोई अज़ाब आ गया तो क्या सिर्फ नज़ारा करने के लिए जमा होने वाले मुसलमान अज़ाब से बच जाएंगे । हरगिज़ नहीं बल्कि अज़ाबे आखिरत में भी यह लोग उनके साथ होंगे ।अल्लाह ता’अला मुस्तहिके़ आजा़ब बनाने वाली बद आमालियों से बचने की तौफीक अता फरमाए ।*
*"_ यह भी खयाल रहे कि जिस तरह मुबारक दिनों में इबादत का ज्यादा सवाब है इसी तरह गुनाहों पर ज्यादा अज़ाब है। अल्लाह ता’अला सबको दिन का सही फहम और कामिल इत्तेबा की नियामत अता फरमाए ।आमीन या रब्बुल आलमीन ।*
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*☞ _ वाक़िया ए कर्बला का रंज व आलम और इज़हारे गम के तरीके में फर्क ✦*
*▣_हर कलमागो चाहे शिया हो या सुन्नी ,सबको इस दहशतनाक और दर्द अंगेज़ वाक़िए से बे इंतेहा रंज व अलम है,*
*"_कोई नही जो हज़रत हुसैन रज़ि. की मज़लूमियत से मगमूम न हो, तक़रीबन 1374 साल गुज़रने के बावजूद इस वाक़िए को कोई भूल नही पाया इसकी याद ताज़ा अपने सीनों में रहती है,*
*▣_अहले सुन्नत वल जमात इस दर्दनाक वाक़यात को अपने सीने में रखने के बावजूद एक बहादुर साहिबे वक़ार इंसान की तरह संजीदगी को हाथ से जाने नही देते,*
*"_जबकि इसके बर खिलाफ शिया लोगों ने इस रंज व गम का इज़हार करने के लिए सुन्नत से मुंह मोड़ लिया और 10 वी मुहर्रम को इज़हारे गम का वो तरीक़ा इख्तियार कर लिया जो नाजाइज़ और हराम है,जिनसे मुसलमानों के अक़ाइद फ़ासिद होते हैं,*
*▣_ शिया लोगों के कमज़ोर तबियत के रहनुमा अपने फायदे की खातिर हक़ को छिपाते हैं और आख़िरत के नताइज़ को नज़र अंदाज़ करते हैं,*
*"_ अफसोस ये है कि आज बहुत से हमारे सुन्नी भाई भी इनकीं पैरवी करते हैं और अपनी आख़िरत खराब कर रहे हैं,*
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*☞ _ ताजियादारी के मुतालिक अहले सुन्नत का फैसला ※*
*▣_हज़रत शाह अब्दुल अजीज रह. मुहद्दिस देहलवी फतावा आजिज़ी मतबुआ मुज़तबै ,सफा 74 पर लिखते है:-*
*“_ताजियादारी बिदअत है और बिदअते शिया है और बिद’अते शिया इसमें शामिल होने वालों को खुदा की लानत में गिरफ्तार कर देती है, और उसके फ़राइज़ और नवाफिल भी बारगाहे इलाही में मक़बूल नही होते,*
*▣_मर्सिया ख्वानी की मजलिस में ज़ियारत और गिरयाज़ारी की नियत से जाना भी जाइज़ नही क्योंकि वहां कोई ज़ियारत नही है जिसके वास्ते कोई आदमी जाए और ताज़िया लकड़ियों की जो बनाई गई है ये ज़ियारत के का़बिल नही बल्की मिटाने के क़ाबिल है,*
*®_(फतावा अजी़ज़ी मतबुआ मुज़तबै सफा 73)*
*▣_ताज़िये के ताबूत की ज़ियारत करना और उस पर फातेहा पढ़ना और मर्सिया पढ़ना और किताब सुनना और फरियाद करना और रोना, सीना पीटना, इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु के मातम में अपने आपको ज़ख्मी करना ये सब चीजें शरन नाजाइज़ है,*
*®_(फतावा अजी़ज़ी मतबुआ मुज़तबै सफा 155)*
*▣_हम मुसलमानों का फ़र्ज़ है कि ताज़िये के जुलूस में शिरकत से परहेज़ करें और अपने अहल व अयाल को भी बचाएं, हर मुसलमान को इस बिदअत व जहालत से रोकना हम सबका फ़र्ज़ है,*
*(अल्लाह तमाम अहले ईमान को हक़ की समझ अता फरमाए, आमीन या रब्बुल आलमीन, )*
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*☞ __ ताज़िया और अलम ※*
*▣_माहे मुहर्रम में ताज़िया मय अलम के निकालना और उसके साथ मर्सिया पढ़ना जुलूस के साथ शरीक होंना और चढ़ावा चढ़ाना और नज़रे हुसैन की सबील लगाना उसका पीना और पिलाना और उसका सवाब समझना, ये सब अफ़आल बिद्दत और नाजाइज़ है और रवाफिज़ का श’आर है, इनमे शिरकत भी नाजाइज़ है,*
*®_(फतावा मेहमुदिया, 2/44)*
*※ ताज़िये के सामने लाठी चलाना और खेल तमाशा※*
*▣_मुहर्रम के महीने में ताजियों के जुलूस के सामने लाठियां चलाना और दूसरे खेल तमाशे जो खेले जाते हैं, शर'न बेअसल और नाजाइज़ है, ये रवाफिज़ का तरीका है, हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से साबित नही,*
*®_(फतवा मेहमुदिया, 2/45)*
*※_ ताज़िये की मन्नत ※*
*▣_ताज़िये की मन्नत दुरुस्त नही, जिन बड़ों ने इसकी मन्नत मानकर बनाना शुरू किया वो गलती पर थे और इस काम की वजह से गुनाहगार हुए और आपको इसकी इत्तेबाअ करना जाइज़ नही, ताज़िये वगैरह हरगिज़ न बनाए, क़तअन तर्क कर दीजिए,*
*"_ये अक़ीदा रखना की ताज़िया नही बनाएंगे तो कोई नुक़सान जानी माली पहुंचेगा ,ऐसे अक़ाइद से ईमान सालिम नही रहता,*
*▣_ताज़िये बनाना और उस पर नज़र नियाज़ चढ़ाना ,उससे मन्नत मानना हराम व शिर्क है, सदक़ा खैरात जो कुछ करना हो शरीयत के मुताबिक महज़ खुदा के लिए कर दिया जाए, ताज़िये पर चढ़ाने और उससे मन्नत मानने और गैरुल्लाह के नाम पर खाना खिलाने से वो खाना भी नाजाइज़ हो जाता है, इसका सवाब नही होता बल्कि गुनाह होता है,*
*※_ इसाले सवाब और इस्लाम के खिलाफ अफ़आल※*
*▣_अय्यामे मुहर्रम में मजलिसे मुनअक़द करना, इमामो के नाम का खिचड़ा पकाना शर्बत पिलाना, अपनी औलाद को इमामो का फ़क़ीर बनाना (फकीरी पहनाना), ये सब अफ़आल तालीमें इस्लाम के खिलाफ है और अल्लाह ताला और उसके सच्चे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नाराज़गी का सबब है, इन सबसे तौबा लाज़िम है,*
*▣_इसाले सवाब के लिए कुछ खाना गरीब मिस्कीन को खिलाकर या नक़द देकर, या क़ुरआने पाक पढकर या कोई इबादत कर के मुर्दों को सवाब पहुंचाना बगैर किसी तारीख व हैयत के इलतज़ाम के शर’न दुरुस्त है,*
*®_ (फतावा मेहमुदिया, 2/46)*
*※_ पंजतन पाक का मिसदाक़ _※*
*▣_हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, हज़रत अली, हज़रत फातिमा, हज़रत हसन और हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हुम को शामिल करके पंजतन पाक कहना, अगर पंजतन पाक का ये मतलब है कि इन सबका मक़ाम व दर्जा मुत्तहिद है तो ये गलत है,*
*®_ ( फतावा मेहमुदिया, 2/47)*
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*☞ ✦ हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु ने किस मक़सद के लिए जान दी ※*
*▣_आप पहले पढ़ चुके हैं हज़रत हुसैन रज़ि. ने अहले बसरा को जो खत लिखा था,जिसके चंद जुमले ये है,“_आप लोग देख रहे हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत मिट रही है,और बिद्दत फैलाई जा रही है, मैं तुम्हे दावत देता हूं कि कितबुल्लाह और सुन्नते रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हिफाज़त करो और उसके अहकाम की तन्फीज़ के लिए कोशिश करो,”(कामिल इब्ने असीर, 4/9)*
*▣_फ़र्ज़ुक शायर के जवाब में जो कलेमात कूफ़ा के रास्ते मे आपने इरशाद फरमाया उसके चंद जुमले ये है:-"_अगर तक़दीर इलाही हमारी मुराद के मुवाफिक होती है तो हम अल्लाह का शुक्र करेंगे और हम शुक्र अदा करने में भी उसकी इआनत तलब करते हैं कि अदाए शुक्र की तौफ़ीक़ दी और अगर तक़दीर इलाही मुराद में हाइल हो गई तो उस शख्स का कोई कुसूर नही जिसकी नियत हक़ की हिमायत हो और जिसके दिल मे खुदा का ख़ौफ़ हो, (इब्ने असीर,)*
*▣_मैदान जंग में खुतबे के ये अल्फ़ाज़ जब साहबज़ादे अली अकबर ने कहा था कि, अब्बा जान क्या हम हक़ पर नही हैं? आपने फरमाया,” क़सम है उस ज़ात की जिसकी तरफ सब बन्दगाने खुदा का रुजू है बिला शुब्हा हम हक़ पर हैं,*
*▣_अहले बैत के सामने आपके आखरी इर्शादात के आपके ये जुमले पड़े:-“मै अल्लाह ताला का शुक्र अदा करता हुं राहत में भी और मुसीबत में भी,या अल्लाह मैं आपका शुक्र अदा करता हु की आपने हमे शराफ़ते नुबूवत से नवाजा और हमें कान आंख और दिल दिए जिससे हम आपकी आयात समझे और दीन की समझ आता फरमाई ,हमे आप शुक्र गुज़ार बंदों में दाखिल फर्मा लीजिए,”*
*▣_इन खुतबात और कलिमात को सुनने पढ़ने के बाद भी क्या किसी मुसलमान को ये शुबहा हो सकता है कि हज़रत हुसैन रज़ि. की यह हैरत अंगेज़ क़ुरबानी अपनी हुकूमत और इक़्तेदार के लिए थी,बड़े ज़ालिम हैं वो लोग जो उस मुक़द्दस हस्ती की अज़ीमुश्शान क़ुरबानी को उनकी तसरिहात के खिलाफ बाज़ दुनियावी इज़्ज़त और इक़्तेदार की खातिर क़रार देते हैं, हक़ीक़त वहीं है जो शुरू में लिख चुका हूं कि हज़रत हुसैन रज़ि. की सारी क़ुरबानी सिर्फ इसीलिए थी,*
*▣_किताब व सुन्नत के कानून को सही तौर पे रिवाज दें,*
*◈_इस्लाम के निजाम अदल को अज़ सरे नो क़ाइम करें,*
*◈_इस्लाम मे खिलाफत नुबूवत के बजाए मुलुकीयत ब आमरियात की बिद्दत का मुकाबला करें,*
*◈_हक़ के मुकाबले में न ज़ोर व ज़ार की नुमाइश से मरूब हों और न जान माल और औलाद का ख़ौफ़ उस रास्ते मे हाइल हों,*
*◈_हर ख़ौफ़, मुसीबत, मशक़्क़त, में हर वक़्त अल्लाह को याद रखे,और इसी पर हर हाल में तवक़्क़ल और एतेमाद हो और बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी उसके शुक्र गुज़ार बंदे साबित हों,*
*▣_कोई है जो जिगर गोशाए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इस पुकार को सुने और उनके मिशन को उनके नक़्शे क़दम पर अंजाम देने के लिए तैयार हो,उनके अख़लाक़ हँसना की पैरवी को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बनाले,*
*“◈_ या अल्लाह हम सब को अपनी और अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके असहाब रज़ियल्लाहु अन्हुम व अहले बैत अतहर की मुहब्बते कामिला और इत्तेबा ए कामिल नसीब फरमाए,*
*⚀•हवाला:➻┐शहादते हुसैन रजियल्लाहु अन्हु, ( मजमुआ इफादात)*
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*📗 मुहर्रम और आशूरा के फज़ाइल व मसाइल (मौलाना फजलुर्रहमान आज़मी साहब)*
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