*❥ निकाह ❥*
*⇰ निकाह की तारीफ,*
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*✪_ निकाह का लुगवी मा'नी :- लुगत मे निकाह दो मा'नो के लिए इस्तेमाल हुआ है, (१) अक़्द ए निकाह और (२) वती (हमबिस्तरी),*
*✪_ इस्तलाही शरीयत में निकाह का मतलब ये है कि किसी ऐसी औरत को अक़्द ए निकाह में लाना, जिससे निकाह करने में कोई शरई मुमा'नत ना हो ताकि उसके साथ हलाल तरीके़ से जिन्सी तस्कीन हासिल की जा सके,*
*✪_निकाह एक ऐसी इबादत है जो अबुल बशर आदम अलैहिस्सलाम से लेकर आज तक जारी हे, जन्नत में भी ये सिलसिला जारी रहेगा, और अम्बिया अलैहिस्सलाम की भी सुन्नते मुस्तमराह है,*
*↳® रद्दुल मुहतार (फतावा शामी), 3/3,*
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*⇰निकाह की अक़साम*
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*✪ फ़र्ज़ ⇛ किसी शख्स पर शेहवत का इस क़दर गल्बा हो कि अगर निकाह ना करे तो जरूर ज़िना कारी में मुब्तिला हो जाएगा, और उसको बा- क़दरे जरूरत नफ्का़ और महर पर हकीकतन या हिकमतन कुदरत भी हासिल है, तो शरअन उस पर फर्ज है कि शादी करके अपनी असमत की हिफ़ाज़त करे,*
*↳® रद्दुल मुहतार- 3/6*
*✪ _वाजिब:⇛अगर किसी पर शेहवत का गलबा है कि शादी ना करे तो ज़िना में मुब्तिला होने का ख़ौफ़ है, लेकिन यकीन नहीं, और उसको बीवी के नान व नफ़्क़ा पर क़ुदरत भी हासिल है, ऐसे शख़्स पर शादी करके अपनी अस्मत की हिफ़ाज़त वाजिब हे,*
*↳® रद्दुल मुहतार- 3/6*
*✪ सुन्नत:⇛ अगर कोई शख़्स निकाह के क़ाबिल हो गया, नान नफ्का़ पर क़ुदरत हासिल है और हमबिस्तरी पर भी क़ुदरत है, निकाह से कोई और शरई मा'ना मोजूद नहीं, ऐसे शख़्स के लिए निकाह करके बाइज़्ज़त ज़िन्दगी गुज़ारना शरअन मसनून है, क्यूं कि ये रसूलुल्लाह ﷺ का दाएमी अमल है और शादी से एराज़ करने वालो पर आप ﷺ ने रद्द फरमाया, लिहाज़ा ऐसा शख़्स इत्तेबा ए सुन्नत की नियत से अपनी अस्मत की हिफ़ाज़त और सालेह औलाद के हुसूल की नियत से शादी करे तो अजरो सवाब का हक़दार होगा,*
*↳® रद्दुल मुहतार- 7/3,*
*✪_हराम:⇛अगर किसी शख़्स में बीवी के हुकूक़ अदा करने की ताक़त न हो, मसलन नामर्द है, या नान नफ़्क़ा पर हक़ीक़तन या हिकमतन कादिर नहीं, और मिजाज़ की सख़्ती वगेरा की वजह से उसको यकीन है कि बीवी के हुकूक़ अदा नहीं हो सकेंगे,तो एसे शख़्स के लिए शादी करना हराम है,*
*↳® रद्दुल मुहतार- 7/3,*
*✪_ मकरूह तहरीमी:⇛ जिस शख़्स को बीवी पर ज़ुल्म का यकीन तो ना हो लेकिन गालिब गुमान यही है कि ज़ुल्म हो जाएगा,तो ऐसे शख़्स के लिए जब तक अदा ए हुकूक़ पर क़ुदरत न हो निकाह करना मकरूह तहरीमी है,*
*↳ ® रद्दुल मुहतार- 7/3,*
*✪ मुबाह:⇛अगर किसी शख़्स को हुकूक़ ए ज़ोजियत की अदायगी से कासिर होने का अंदेशा हो, उसका यकीन या ज़न ग़ालिब न हो तो उसके लिए शादी करना मुबाह है,*
*↳® शामी, 7/3,*
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*⇰निकाह की अहमियत,*
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*✪⇛ रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि ए जवानों की जमात, तुममें से जो शख्स मुजाम'त और उसके लवाज़मात (यानि बीवी बच्चों का नान नफ्का़ और महर अदा करने) की कुदरत इस्तेताअत रखता हो, उसे चाहिए कि वो निकाह करे, क्योंकि निकाह से नज़र की हिफाज़त होती है और शर्मगाह महफूज़ हो जाती है,*
*→और जो शख़्स जिमा की लवाज़मात की इस्तेताअत न रखता हो उसे चाहिए कि रोज़े रखे, क्यूंकी रोज़ा रखना उसके लिए खस्सी करने का फ़ायदा देगा_,"*
*↳® बुखारी व मुस्लिम,*
*✪_यानि जिस तरह से खस्सी करने से भी जिन्सी हैजान ख़त्म हो जाता है उसी तरह रोज़ा रखने से भी जिन्सी हैजान कम हो जाता है*
*✪⇛ तशरीह:- इस हदीस में निकाह के दो बड़े फायदे बयान हुए हैं:-*
*⇛ 1, हराम जगह नज़र डालने से आँखो की हिफ़ाज़त,*
*⇛ 2, हरामकारी के ज़रिये शहवत रानी से हिफ़ाज़त,*
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*⇰पाक दामनी के लिए निकाह की बरकत:-*
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*✪⇛ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि तीन शख्स ऐसे हैं जिनकी मदद अल्लाह तआला पर (उसके वादे के मुताबिक़) वाजिब है:-*
*→1- एक तो वो मकातिब जो अपने बदल किताबत अदा करने का इरादा रखता है,*
*→2- वो निकाह करने वाला जो हरामकारी से बचने की नियत रखता है,*
*→3- अल्लाह तआला की राह में जद्दो जुहद करने वाला,*
*↳® रवाह तिर्मिज़ी व नसाई व इब्ने माजा, मिश्कात 2/267,*
*✪⇛ फ़ायदा:- जो शख़्स महज़ पाक दामनी की खातिर निकाह का इरादा रखता हो उसके पास बहुत ज़्यादा माल और दौलत ना हो तब भी उसको परेशान ना होना चाहिए और उसकी वजह से शादी में ताख़ीर नहीं करनी चाहिए बल्कि मुनासिब रिश्ता तलाश करके फौरन रिश्ता करे,*
*→ अल्लाह तआला अपनी गैबी मदद से तमाम ज़रूरियात को पूरा फरमाएंगे और इंशा अल्लाह ग़िना अता फरमाएंगे,*
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*⇰निकाह में ताख़ीर के मुफ़ासिद और ख़राबियां:-*
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*✪ _हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ अली थानवी रहमतुल्लाहि तआला ने फरमाया कि बालिग होने के बाद कुंवारी लड़कियों की जल्दी शादी ना करने में बहुत से मुफासिद और खराबियां सामने आई हैं, कई लड़कियां किसी के साथ भाग गईं, अगर कोई शरीफ खानदान में ऐसा ना भी हो तब भी वो लड़कियां उन सरपरस्तों को दिल ही दिल में कोसती हैं और चुंकी वो मज़लूम हैं लिहाज़ा उनका कोसना खाली नहीं जाता, (क्यूंकि हदीस में आता है कि मज़लूम की बद-दुआ से डरो क्यूंकी उसके और हक़ तआला शानहु के दरमियान कोई हिजाब नहीं)*
*✪_ताख़ीर की वुज़ुहात:- जहेज़ के इंतज़ार में निकाह में ताख़ीर, मोक़े का रिश्ता न मिलने का उज़्र, लायके दामाद की ज़ेहनी तराशीदा सिफ़ात, (हसब नसब, अख़लाक़, हुस्नो जमाल, मालो दौलत वगेरा)*
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*⇰औलाद की शादी में ताख़ीर का गुनाह:-*
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*✪ _ रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि जिस शख्स के यहां लड़का पैदा हो तो उसे चाहिए कि वो उसका नाम अच्छा रखे और उसे नेक अदब सिखाए (यानि शरीयत के अहकाम और अदब, जिंदगी के इस्लामी तरीक़े सिखाए ताकि वो दुनिया और आखिरत में कामयाब और सर बुलंद हो) फिर वो बालिग हो जाए तो उसका निकाह करादे,*
*→ अगर लड़का बालिग हो (और शादी के खर्चे पर क़ुदरत ना रखता हो) और उसका बाप (उसके निकाह का खर्चा बर्दाश्त करने पर कुदरत रखता हो उसके बावजूद) उसका निकाह ना करे और फिर वो लड़का बुराई में मुब्तिला हो जाए तो उसका गुनाह बाप पर होगा, ”*
*®_ रवाह बैहिकी़, मिश्कात- 2/271)*
*✪ _ फ़ायदा:- औलाद की पूरी तरबियत ये है कि उनको पहले दिन इस्लामी जिंदगी सिखाए, ताकि वो इबादत, मा'मलात, हलाल व हराम की तमीज और आला अखलाक सीख लें, और जब तालीम व तरबियत का ये मरहला गुज़र जाए तो उसके बाद वाल्देन का बड़ा फरीजा़ ये है कि उनकी शादी की तरफ मुतवज्जह हों, ताकि वो जिंसी जज़्बात की मग़लूबियत का शिकार हो कर बुराइयों के रास्ते पर ना लग जाए_,*
*✪_चूनांचे इस फरीज़े की अहमियत को बताने और इस बात की ताकीद के लिए बतौर तजदीद फरमाया गया कि अगर किसी शख्स ने अपने बालिग लड़के की शादी नहीं की और वो लड़का जिंसी बेराह रवि का शिकार हो कर बदकारी में मुब्तिला हो गया तो उसका गुनाह और वबाल बाप पर होगा_,*
*✪⇛ इसी तरह लड़की के बालिग होते ही निकाह कर दो अगर (जोड़ का रिश्ता मिलने के बावजूद) उसका निकाह ना करे, फिर वो लड़की बुराई (यानि बदकारी वगैरा) में मुब्तिला हो जाए तो उसका गुनाह उसके बाप पर है,”*
*®_ मिश्कात, 2/272,*
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*⇰निकाह के लिए दीनदार शख़्स का इंतखाब,*
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*✪_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने इरशाद फरमाया कि औरत से 4 वजह से निकाह किया जाता है:-*
*→ 1- शराफत की वजह से,*
*→ 2- माल की वजह से,*
*→ 3- ख़ूबसूरती की वजह से,*
*→ 4- दीनदारी की वजह से,*
*"_ऐ मुखातिब! तुमको दीनदार औरत से निकाह करना चाहिए,”*
*®_ मिश्कात, 2/267,*
*✪⇛ फ़ायदा:- देखा जाता है कि लोग निकाह में ज़्यादातर माल को देखते हैं और सबसे कम दीन को, हालांकि माल और हुस्नो जमाल की तरफ तवज्जो कम होनी चाहिए और उसके मुक़ाबले में दीनदारी की तरफ ज्यादा इल्तफात होना चाहिए,*
*⇛ क्योंकि दीन की वजह से आपस का ताल्लुक़ अच्छा रहता है, इसमें ज़ौजेन को सुकून मिलता है, एक दूसरे के हुक़ूक़ पहचानते हैं और अदा करते हैं, जिससे दोनों की जिंदगी राहत और सुकून की गुज़रती है,*
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*⇰नेक सालेह औरत की सिफ़ात*
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*✪_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने फरमाया:- "मोमिन अल्लाह ताला के तक़वे (खौफ़े ख़ुदा) के बाद जो सबसे बेहतर चीज़ अपने लिए मुंतखब करता है वो नेक बख्त खूबसूरत बीवी हे,*
*→ नेक बीवी की ख़ुसूसियत ये हे कि अगर (शौहर) उसको कोई हुक्म देता हे तो वो उसकी तामील करती हे, जब शोहर उसकी तरफ देखता है तो वो (अपने हुस्न और पाकीज़ा सीरत से ) उसका दिल खुश करती है, जब वो उसको क़सम देता है तो वो उस क़सम को पूरा करती है, (यानि अपनी ख्वाहिश पर शौहर की ख्वाहिश को मुकद्दम रखती है) और शौहर की ग़ैर मौजूदगी की सूरत में अपनी असमत और शौहर के माल की हिफ़ाज़त करती है_,”*
*®_ मिश्कात, 2/268,*
*✪_फ़ायदा⇛इस हदीस में नेक सालेह औरत की सिफ़ात का बयान हुआ है,:-*
*"_ 1- शोहर की इता'त करने वाली,*
*"_ 2- खिदमत करके शोहर का दिल खुश करने वाली,*
*"_ 3- अपनी ख्वाहिश पर शौहर की ख्वाहिश को मुकद्दम रखने वाली,*
*"_ 4- अपनी असमत और पाकदामनी की हिफाज़त और उसका ख्याल रखने वाली,*
*"_ 5- शौहर के माल की हिफ़ाज़त करने वाली,*
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*⇰ निकाह सही होने की शर्त,*
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*✪_ मजलिसे अक़्द में लड़का और लड़की से 2 शरई गवाहों की मौजुदगी में बाकाअदा इजाब व कुबूल करवाया जाए, लड़की से कहा जाए कि “आपका निकाह फलां बिन फलां से कर दिया, क्या आपकी तरफ से इजाज़त है? वो (लड़की) इजाज़त दे दे तो उसके बाद लड़के से कहा जाए कि “फ़लाँ बिन्त फ़लाँ को इतने महर की इवज़ आपके निकाह में दे दिया, क्या आपने कुबूल किया? वो (लड़का) जवाब में कहे कि “हां मैने कुबूल किया”*
*✪⇛ इजाब बनाम कुबूल और उसके सही होने की शराइत:- निकाह इजाब व क़ुबूल के ज़रिये मुनअक़द होता है, ये इज़ाब व क़ुबूल दोनों माज़ी के लफ़्ज़ के साथ होना चाहिए, (यानी ऐसा लफ्ज़ जिससे ये समझा जाए कि निकाह हो चुका है), जैसे किसी ने गवाहों की मौजूदगी में कहा कि मैंने अपनी लड़की का निकाह तुम्हारे साथ कर दिया और उसने जवाब में कहा कि मैने कुबूल किया,*
*✪_ या दोनों में से एक लफ़्ज़ माज़ी का हो जैसे किसी ने कहा कि अपनी फलां लड़की का निकाह मेरे साथ कर दो तो दूसरे ने जवाब में कहा कि मैंने कर दिया, तब भी निकाह हो गया,*
*®_ हिदाया, 2/325,*
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*⇰ गवाहों की मौजुदगी में निकाह होना:-*
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*✪_निकाह मुनअकद होने के लिए ये भी जरूरी है कि कम से कम 2 मर्दो के या 1 मर्द और 2 औरतों के सामने निकाह किया जाए, वो तमाम गवाह एक ही मजलिस में दोनों (लड़का और लड़की) के इजाब व कुबूल अपने कानों से सुने, निकाह के मामले को देखे और उनको मालूम हो कि ये इजाब व कुबूल करने वाले आपस में निकाह कर रहे हैं, कोई हंसी मज़ाक नहीं हो रहा,*
*®_ रद्दुल मुहतार -3/21,*
*✪⇛ निकाह की इजाज़त के वक़्त गवाह बनाना:- लड़की अगर मजलिसे अक़्द में मौजुद न हो बल्की घर में हो तो ऐसी सूरत में उमुमन लड़की के वालिद, चाचा या मामू वगैरा कोई मेहरम रिश्तेदार इजाज़त लेते हैं, फ़िर मजलिसे अक़्द में निकाह पढ़ाने वाले को वो इजाज़त मुंतकिल की जाती है,*
*✪_ लड़की से इजाज़त तलब करते वक़्त गवाहों का मोजूद होना मुस्तहब हे, जरूरी नहीं, अलबत्ता निकाह पढ़ते वक़्त 2 गवाहों की मोजूदगी ज़रूरी है, जो इजा़ब व कुबूल के अल्फ़ाज़ को सुने और समझे,*
*®_ रद्दुल मुहतार -,*
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*⇰ अदले बदले की शादी*
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*✪_ अदले बदले की शादी की असली शक़ल तो ये है कि कोई शख़्स अपनी बहन या बेटी का निकाह दूसरे के साथ इस शर्त पर कर दे कि वो अपनी बहन या बेटी उस पहले शख़्स के निकाह में दे, अलग से कोई महर वगेरह मुक़र्रर ना किया जाए बल्कि महज़ एक लड़की को दूसरी लड़की का एवज़ और महर क़रार दे दिया जाए, ऐसा करना शरअन मकरूह तहरीमी और ना-जाइज़ है, अगर किसी ने ऐसा कर लिया तो हर एक के ज़िम्मे अपनी बीवी का महर मिस्ल लाज़िम होगा,*
*®_ रद्दुल मुहतार -3/106,*
*✪⇛ अदले बदले की शादी की ख़राबियां:- अदले बदले की शादी में अगर दोनो तरफ की लड़कियों के लिए महर मुकर्रर भी हो तो अगरचे ये निकाह हक़ीक़त के लिहाज़ से सही होगा फ़िर भी ऐसी शादियो में अमूमन देखा गया हे के दोनों खानदानों के ता'ल्लुका़त ख़राब हो जाते है,*
*✪_ अगर एक तरफ की लडक़ी की अपने शहर से कुछ अनबन हो जाए तो इसका असर फौरन दूसरी तरफ की लडक़ी पर पड़ता है, चाहे उनकी जिंदगी सही गुज़र रही हो, ऐसा एक वाक़िया नहीं बल्कि दसियों वाक़ियात है जिनका मुशाहिद होता रहता है,*
*✪⇛ इसलिए मेरा मुसलमानों को यही मशवरा है कि अदले बदले की शादी का मामला ना करे, अगरचे वो महर अदा करें तब भी कोशिश करें कि अदला बदला की ना हो,*
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*⇰कफू (बाराबारी) में निकाह करना,*
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*✪_ शरीयत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम में निकाह का मक़सद ता-हयात मियां बीवी की हैसियत से एक साथ जिंदगी गुज़ारना और नस्ले इंसानी बढ़ाना हे, इसके लिए जरूरी है कि ज़ौजेन में मुहब्बत और दोनों के मिज़ाज में मुवाफक़त हो, इसी वजह से शरीयते मुताहारा ने हुक्म दिया है कि निकाह में कफू (बराबरी) का लिहाज़ रखा जाए,*
*✪_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने फरमाया, “औरतों का निकाह कफू में ही करो, उनकी शादी उनके वली की मौजुदगी में ही करो और उनका महर दस दिरहम से कम मुक़र्रर ना करो,*
*®_ बेहीकी,*
*⇛कफू या बाराबरी अक्सर 5 बातों में देखी जाती हे,-1- नसाब, 2- इस्लाम, 3- दीनदारी, 4- मालदारी, 5- पेशा,*
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*⇰कफू (बराबरी) का बयान*
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*✪_ 1- नसब में बराबरी :- नसब में बराबरी ये हे कि शेख, सैय्यद, अंसारी और अल्वी सब एक दूसरे के बराबर है, यानी अगरचे सैय्यद का मरतबा औरो से बढ़ कर है लेकिन अगर सैय्यद लड़की की शेख के यहां शादी हुई तो ये ना कहेंगे कि बराबरी ना हुई,*
*®_ शरह बिदाया, 2/300,*
*✪ 2- मुसलमान होने में बराबरी:- मुसलमानों में बराबरी का ऐतबार फक़त मुगल पठान वगैरा और क़ौमो में शेखों, सय्यदों, अलवियों में इसका कुछ ऐतबार नहीं है, जो शख्स खुद मुसलमान है और उसका बाप भी मुसलमान नहीं था, उस औरत के बराबर नहीं जो खुद भी मुसलमान है और उसका बाप भी मुसलमान, और जो शख्स खुद मुसलमान है और उसका बाप भी मुसलमान है लेकिन उसका दादा मुसलमान नहीं, वो उस औरत के बराबर का नहीं जिसका दादा भी मुसलमान है,*
*⇛जिसके बाप दादा दोनों मुसलमान हों लेकिन परदादा मुसलमान ना हो तो वो शख़्स उस औरत के बराबर समझा जाएगा जिसकी कई पुश्तें मुसलमान हों,*
*✪_खुलासा ये है कि दादा तक मुसलमान होने में बराबरी का ऐतबार है, उसके बाद परदादा और निगड़ दादा में बराबरी जरूरी नहीं है,*
*®_आलमगीरि, 1/310,*
*✪_ 3- दीनदारी में बराबरी:- दीनदारी में बराबरी का मतलब ये है कि ऐसा शख्स जो दीन का पाबंद नहीं, लुच्चा, शराबी और बदकार हो, नेक बख्त पारसा दीनदार औरत के बराबर नहीं समझा जाएगा,*
*®_ आलमगीरी, 1/310,*
*✪ _4- माल में बराबरी:- माल में बराबरी के मा'ने ये है कि बिल्कुल मुफलिस मोहताज मालदार औरत के बराबर का नहीं है, और अगर वो बिल्कुल मुफलिस नहीं बल्की जितना महर पहली रात को देने का दस्तूर है उतना महर दे सकता है और नफ्का़ भी, तो अपने मेल और बराबर का है अगरचे सारा महर न दे सके और ये ज़रूरी नहीं कि जितने मालदार लड़की वाले हैं वो भी उतना ही मालदार हो या उसके करीब करीब मालदार हो,*
*®_आलमगीरि, 2/299,*
*✪_5 _पेशा में बराबरी⇛ पेशा में बराबरी ये हे कि जोलाहे, दर्जियों के मेल और जोड़ के है, इसी तरह धोबी वगेरा भी दर्जी के बराबर के नहीं,*
*®_ शरह तनवीर, 1/190,*
*✪⇛दीवाना पागल आदमी होशियार और समझदार औरत के मेल का नहीं है,*
*®_रद्दुल मुहतार-2/531,*
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*⇰जिन औरतों से निकाह हराम हे -*
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*✪ _हुरमत के 6 बुनियादी उसूल :⇛ कोनसी औरत किसके लिए हराम हे इसकी तफसीली क़वानीन की बुनियाद 6 चीज़ों पर है:-*
*★ 1- नस्बी क़राबत (बाप और माँ का ताल्लुक़)*
*★ 2- रज़ाअत ( दूध का रिश्ता )*
*★3- मुसाहरत (ससुराल का रिश्ता)*
*★ 4- मनकुहातुल गैर (यानि औरत का किसी गैर मर्द के निकाह में या इद्दत में होना)*
*★ 5- जिमा बयनुल उखतीन (यानी किसी मर्द के निकाह में पहले किसी ऐसी औरत का होना जिसके होते हुए दूसरी औरत का निकाह में लाना शरन ममनु है)*
*★ 6- शरीयत की तरफ से मर्द के लिए जो तादाद मुक़र्रर है, उससे ज़्यादा निकाह करना, मसलन आज़ाद मर्द के निकाह में 4 बीवीयों के होते हुए पांचवी औरत से निकाह करना,*
*✪_ हुरमत की आयतें कुरान ⇨ तुम पर हराम की गई है, तुम्हारी माँएँ तुम्हारी बेटियाँ और तुम्हारी बहनें और तुम्हारी फुफियाँ और तुम्हारी खालाएँ और भतीजियां और भांजियाँ और तुम्हारी वो माँएं जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया और तुम्हारी वो बहनें जो दूध पीने की वजह से बहनें हुई,*
*→तुम्हारी बीवीयों की माॅएं और तुम्हारी बीवीयों की बेटियां जो कि (आदतन) तुम्हारी परवरिश में रहती हैं, उन बीवीयों से हो जिनसे तुमने सोहबत की हो और अगर तुमने उन बीवीयों से सोहबत नहीं की तो तुम पर कोई गुनाह नहीं, और तुम्हारे उन बेटों की बीवीयां जो कि तुम्हारी नसल से हों और ये कि तुम दो बहनों को एक साथ (निकाह में) रखो लेकिन जो पहले हो चुका अल्लाह ता'ला बड़े बख्शने वाले और बड़े रहमत वाले हैं ,*
*✪_ और वो औरतें जो कि शोहर वाली हैं मगर जो कि तुम्हारी ममलूक हो जायें, अल्लाह तआला ने इन तमाम अहकाम को तुम पर फ़र्ज़ कर दिया, और इन औरतों के सिवा और तमाम औरतें तुम पर हलाल की गई हैं,*
*®_ तर्जुमा -बयानुल क़ुरान, सूरह अन-निसा 23-24,*
*✪_खुलासा :- बाप की मनकुहा, माँ, बीवी की माँ, दादी, परदादी, नानी, परनानी से निकाह हराम हे, बेटी, पोती, परपोती, नवासी, परनवासी, से निकाह हराम हे,*
*→ सोतेली लड़की जो दूसरे शोहर से हो और बीवी अपने साथ ले आई हो अगर उसकी मां से हमबिस्तरी हुई तो हराम हो गई वरना नहीं,*
*→ हक़ीक़ी बहन, माँ शरीक, बाप शरीक, दूध शरीक से निकाह हराम है, बाप की और माँ की बहनें, (फुफियां और खालाएं) से निकाह हराम है,*
*✪_ भतीजियां (बाप शरीक, मां शरीक, दूध शरीक तीनो तरह के भाईयों की बेटियां) से निकाह हराम है, भांजियां (तीनों तरह की बहनो की बेटियों) से निकाह हराम है, बेटे की बीवी, (पोते, परपोते, नवासे, परनवासे की बीवियां) से निकाह हराम है,*
*→दो बहनों को एक साथ निकाह में रखना हराम है, जब तक कोई औरत किसी शख़्स के निकाह में है दूसरा शख़्स उससे निकाह नहीं कर सकता,*
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*⇰ वो औरतें जिनसे निकाह हलाल है,*
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*✪ _जिन औरतों का पहले ज़िक्र हुआ, जिनसे निकाह हराम है, उनके अलावा दूसरी औरतें तुम्हारे लिए हलाल है- मसलन चाचा की लड़की, खाला की लड़की, मामू की लड़की, मामू और चाचा की बीवियां उनकी वफात या तलाक़ देने के बाद, मुंह बोले बेटे की बीवी जब वो तलाक़ दे दे या वफात पा जाए,*
*⇛ बा-शर्ते कि ये मज़कूरा अक़्साम किसी रिश्ते से मेहरम ना हो,*
*✪_बीवी की वफ़ात के बाद उसकी बहन से निकाह हलाल है,*
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*⇰रहमतुल आलमीन ﷺ की तादाद ए अज़वाज की हिकमत :-
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*★_हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. फरमाते हैं कि हुजूर अक़दस ﷺ की सिफात सरापा रहमत व बरकत है, तबलीग व अहकाम और तज़किया नुफूस और अबलाग़ कु़रान आप ﷺ का सबसे बड़ा मक़सद ए बैसत था, आप ﷺ ने इस्लाम की तालीमात को कौलन व अमलन दुनिया में फैला दिया, यानि आप ﷺ ज़ुबान से बताते भी थे और अमल भी करते थे, फिर चुंकी इंसानी जिंदगी का कोई शोबा ऐसा नहीं है जिसमें नबी ﷺ की रहबरी की ज़रुरत न हो, नमाज़े बाजमात से लेकर बीवियों की तालीमात, आल व औलाद की परवरिश और पाखा़ना पेशाब और तहारत तक के बारे में आप ﷺ की क़ौली और अमली हिदायात से कुतुब हदीस भरपूर हैं,*
*★_ अंदरून ए खाना (घर में) क्या क्या काम किया, बीवीयों ने कैसे मेल जोल रखा, और घर में आ कर मसाइल पूछने वाली ख़्वातीन को क्या क्या जवाब दिया, इस तरह के सेंकड़ों मसाइल हैं जिनसे अज़वाज़ मुताहरात रज़ियल्लाहु अन्हुमा के ज़रिये उम्मत को रहनुमाई मिली है,*
*★_ तालीम व तबलीग़ की दीनी ज़रूरत के पेशे नज़र हुज़ूर अकदस ﷺ के लिए कसरत ए अज़वाज एक ज़रूरी अम्र था, सिर्फ़ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से अहकाम व मसाइल, अख़लाक़ व आदाब और सीरत ए नबवी ﷺ से मुतल्लिक़ दो हज़ार दो सो दस (2210) रिवायात मरवी हैं, जो कुतुब हदीस में पाई जाती हैं, हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा की रिवायात की तदाद तीन सो उन्हत्तर (369) तक पहुंची हुई है,*
*★_ दीगर अज़वाज़ मुताहरात रज़ियल्लाहु अन्हुमा की रिवायत भी मजमुई हैसियत से काफ़ी तादाद में मोजूद हैं, ज़ाहिर है कि इस तालीम व तबलीग का नफ़ा सिर्फ़ अज़वाज़ मुताहरात रज़ियल्लाहु अन्हुमा से पहुंचा,*
*★_अम्बिया अलैहिस्सलाम के बुलंद मक़सद और पूरे आलम की इन्फिरादी व इज्तिमाई, खानगी और मुल्की इस्लाहात की फिक्रो को दुनिया के शेहवत परस्त इंसान क्या जाने, वो तो सबको अपने ऊपर क़यास कर सकते हैं और इसी के नतीजे में कई सदी से यूरोप के मुल्हदीन और मुस्तशरीक़ीन ने अपनी हठधर्मी से फखरे आलम ﷺ के तदाद ए अज़वाज को (नाऊजुबिल्लाह) एक खालिस जिन्सी और नफसानी ख्वाहिश की पैदावार क़रार दिया है, अगर हुजूर अक़दस ﷺ की सीरत पर एक सरसरी नज़र डाली जाए तो एक होशमंद मुंसिफ मिज़ाज कभी भी आप ﷺ कि कसरत ए अज़वाज़ को इस पर महमूल नहीं कर सकता,*
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*⇰एक उम्र रशीदा खातून से निकाह:-*
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*⚄★_ आप ﷺ की मासूम जिंदगी कुरैशे मक्का के सामने इस तरह गुज़री कि 25 साल की उम्र में एक उम्र रशीदा साहिबे औलाद बेवा (जिनके दो शोहर फौत हो चुके थे) से अक़्द करके 50 साल की उम्र तक उन्ही के साथ गुज़ारा किया, वो भी इस तरह कि महीना महीना घर छोड़ कर गारे हिरा में इबादत में मशगूल रहते थे, दूसरे निकाह जितने हुए 50 साला उम्र शरीफ के बाद हुए, ये 50 साला जिंदगी और शबाब का सारा वक़्त अहले मक्का की नज़रों के सामने था,*
*⚄★_कभी किसी दुश्मन को भी आप ﷺ की तरफ कोई ऐसी चीज़ मंसूब करने का मौक़ा नहीं मिला जो तक़वा व तहारत को मशकूक कर सके, आप ﷺ के दुश्मनों ने आप ﷺ पर इल्ज़ामात में कोई कसर उठा नहीं रखी लेकिन आपकी मासूम ज़िंदगी पर कोई ऐसा हर्फ कहने की जुर्रत नहीं हुई जिसका ताल्लुक़ जिंसी और नफ़सानी जज़्बात की बे-राह रवी से हो,*
*⚄★_इन हालात में क्या ये बात गौर तलब नहीं है कि जवानी के 50 साल इस ज़ुहद व तक़वा और दुनिया की लज्ज़तों से दूरी में गुज़ारने के बाद वो क्या बात थी जिसने आख़िर उम्र में आप ﷺ को मुताअद्दिद निकाहों पर मजबूर किया, अगर दिल में ज़रा सा भी इन्साफ़ हो तो मुताअद्दिद निकाहों की वजह इसके सिवा नहीं बताई जा सकती जिसका ऊपर (पिछले पार्ट में) ज़िक्र किया गया है और इस कसरते अज़वाज की हैसियत को भी सुन लीजिए किस तरह वजूद में आई,*
*⚄★_ 25 साल की उमर से ले कर 50 साल की उम्र शरीफ होने तक तन्हा हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा आप ﷺ की ज़ोजा रहीं, उनकी वफ़ात के बाद हज़रत सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा और हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से निकाह हुआ, हज़रत सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा तो आप ﷺ के घर तशरीफ़ ले आईं और हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा कम उम्री की वजह से अपने वालिद के घर ही में रहीं,*
*⚄★_ और चंद साल के बाद मदीना मुनव्वरा में हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की रुखसती अमल में आईं, उस वक़्त आप ﷺ की उमर 54 साल हो चुकी हैं और दो बीवियां इस उम्र में आकर जमा हुई हैं, यहां से तादादे अज़वाज का मामला शुरू हुआ,*
*★_इसके एक साल बाद हज़रत हफ़सा रज़ियल्लाहु अन्हा से निकाह हुआ, फ़िर कुछ माह बाद हज़रत जे़नब बिन्त ख़ुज़ेमा रज़ियल्लाहु अन्हा से निकाह हुआ और सिर्फ 18 माह आप ﷺ के निकाह में रह कर वफ़ात पाई, फ़िर 4 हिजरी में हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा से निकाह हुआ, फ़िर 5 हिजरी में हज़रत ज़ैनब बिन्त जहश रज़ियल्लाहु अन्हा से निकाह हुआ, उस वक़्त आप ﷺ की उमर शरीफ 58 साल हो चुकी थी, और इतनी बड़ी उमर में आकर चार बीवियां जमा हुई,*
*★_हालांकि उम्मत को जिस वक़्त चार बीवीयों की इजाज़त मिली थी उस वक़्त ही आप ﷺ कम अज़ कम चार निकाह कर सकते थे लेकिन आप ﷺ ने ऐसा नहीं किया, उनके बाद 6 हिजरी में हज़रत जुवेरिया रज़ियल्लाहु अन्हा से और 7 हिजरी में हज़रत उम्मे हबीबा रज़ियल्लाहु अन्हा से और फिर हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा से, फिर इसी साल हज़रत मेमुना रज़ियल्लाहु अन्हा से निकाह हुआ,*
*★_खुलासा ये कि 54 साल की उम्र तक आप ﷺ ने सिर्फ एक बीवी के साथ गुजारा किया, यानि 25 साल हजरत खदीजा रजियल्लाहु अन्हा के साथ और 4 साल हजरत सौदा रजियल्लाहु अन्हा के साथ गुजारे, फिर 58 साल की उम्र में 4 बीवियां जमा हुई और बाक़ी अज़वाज़ मुतहारात रज़ियल्लाहु अन्हुमा 2-3 साल के अंदर हरमे नबुवत में आई',*
*★_ और ये बात खास तोर से काबिले जिक्र है कि सब बीवीयों में सिर्फ एक ही औरत ऐसी थीं जिनसे कुंवारे पन में निकाह हुआ, यानि उम्मुल मोमिनीन हजरत आयशा सिद्दीका रजियल्लाहु अन्हा, उनके अलावा बाक़ी सब अज़वाज मुतहरात बेवा थीं, जिनमें बाज़ के दो दो शोहर पहले गुज़र चुके थे और ये तादाद भी आख़िर उम्र में आ कर जमा होती है,*
*★_ और ये अम्र भी काबिले जिक्र है कि सरकारे दो आलम ﷺ अल्लाह ताला के नबी बर हक हैं, नबी जो कुछ करता है हुक्मे इलाही से करता है, आप ﷺ ने जो कुछ किया अपने रब के हुक्म से किया, तादाद ए अज़वाज़ की वजह से तालीमी और तबलीगी फ़ायदे जो उम्मत को हासिल हुए और जो अहकाम उम्मत तक पहुंचे उसकी जुज़वियात इस कदर कसीर तादाद में है कि उनको शुमार करना दुश्वार है, कुतुब अहादीस इस पर शाहिद हैं,*
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*⇰बीवियों में मुसावात ना करना बड़ा गुनाह है,*
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*✪_ अगर एक से ज्यादा बीवियों में मुसावात (बराबरी) और अद्ल (इंसाफ) पर कुदरत न हो तो एक ही बीवी पर इक्तफा किया जाए, एक से ज़्यादा निकाह करना उसी सूरत में जा'इज़ और मुनासिब है जबकि शरीयत के मुताबिक सब बीवियों में बराबरी कर सके और सबके हुकूक का लिहाज़ रख सके, अगर इस पर कुदरत न हो तो एक ही बीवी रखी जाये,*
*✪_ अगरचे कुराने करीम ने 4 औरतें तक निकाह में रखने की इजा़जत दी और इस हद के अंदर जो निकाह किए जाएंगे वो सही और जाइज होंगे, लेकिन मुताअद्दिद बीवियां होने की सूरत में उनमें अद्ल और मुसावात का़यम रखना वाजिब है और इसके खिलाफ करना गुनाहे अज़ीम है,*
*✪_ रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने सब बीवीयों के दरमियान पूरी मुसावत व अद्ल की सख्त ताकीद फरमाई है, और इसके खिलाफ करने पर सख्त वइदें सुनाई हैं और खुद अपने अमल के ज़रिये भी इसको वाज़ेह फरमाया हे, बल्कि रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम तो उन मामलों में भी मुसावात फरमाते थे जिनमें मुसावात लाज़िम नहीं,*
*✪_ एक हदीस में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने इरशाद फरमाया कि “जिस शख्स के निकाह में दो औरतें हों और उनके हुकूक में बराबरी और इन्साफ ना कर सके तो वो क़यामत में इस तरह उठाया जाएगा कि उसका एक पहलू गिरा हुआ होगा,*
*®_ मिश्कात, 278,*
*✪⇛ अलबत्ता ये मुसावात उन उमूरो में जरूरी हे जो इंसान के अख्तियार में हे, मसलन नफका़ में बराबरी, शब- बाशी में बराबरी, रहा वो अम्र जो इंसान के अख्तियार में नहीं, मसलन- क़ल्ब (दिल) का मीलान किसी की तरफ ज्यादा हो जाए, तो इस गैर अख्त्यारी मामले में उस पर कोई मुवाख़जा नहीं, बशर्ते कि इसका असर अख्त्यारी मामलात पर ना पड़े,*
*✪⇛रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने खुद भी अख्त्यारी मामलात में पूरी मुसावात क़ायम फ़रमाने के साथ हक़ तआला की बारगाह में अर्ज़ किया," या अल्लाह! ये मेरी बराबरी वाली तक़सीम है उन चीज़ों में जो मेरे अख्तियार में है, अब वो चीज़ जो आपके क़ब्जे में है मेरे अख्तियार में नहीं है,उस पर मुझसे मुवाख्ज़ा ना करना,*
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*⇰हुरमते मुताअ और निकाह मोअक़त:-*
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*✪⇛ हुरमते मुता'अ:- मुता'अ मखसूस वक्त के लिए किया जाने वाला अक़्द है, इसमें ना हुसूले औलाद मक़सूद होता हे, ना घर बसाना, ना इफ्फत ना अस्मत और इसलिए जिस औरत से मुता'अ किया जाता है उसको फरीक़े मुखालिफ़ ज़ोजा ए वारिशा भी क़रार नहीं देता और इसको अज़वाजे मारूफा की गिनती में भी शुमार नहीं करता और चुंकी मक़सद महज़ शेहवत पूरी करना है इसलिए मर्द औरत आरजी तोर पर नये नये जोड़े तलाश करते रहते हैं, जब ये सूरत है तो मुता'अ इफ्फ़त व अस्मत का ज़ामिन नहीं बल्कि दुश्मन है,*
*✪_ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूले करीम ﷺ ने गज़वा ए ख़ैबर के मोके़ पर औरतों से मुताअ करने और पालतू गधे का गोश्त खाने से मना फरमाया हे_,*
*"_ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु की ये हदीस बुखारी व मुस्लिम में भी है_,,*
*✪_दूसरी हदीस जो इमाम तिर्मिज़ी ने नक़ल की है वो ये है:- हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि मुताअ अव्वल ज़माने में मशरू था, यहां तक कि आयते करीमा (इला अला अज़वाजाहुम अव मलकत अयमानाहुम) नाज़िल हुई तो वो (मुता'अ) मनसूख हो गया, इसके बाद हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया कि ज़ोजा ए शरिया और ममलूक ए शरिया के अलावा हर तरह की शर्मगाह से इस्तमुता हराम है,*
*✪⇛निकाह मोअक़त का हराम होना:- निकाह मुता'अ की तरह निकाह मोअक़त भी हराम और बातिल है, निकाह मोअक़त ये है कि एक मुक़र्रर मुद्दत के लिए निकाह किया जाए, और दोनों में फ़र्क ये है के मुता'अ में लफ्ज़ मुता'अ बोला जाता हे और निकाह मोअक़त लफ़्ज़े निकाह से होता है,*
*®_ आलमगीर, 1/282,*
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*⇰बीवी का दूध पीना हराम है,,*
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*✪_ बीवी का दूध पीना शौहर के लिए हराम है लेकिन अगर किसी ने पी लिया है (जान बुझकर या बिला जान बुझकर) तो उस पर लाज़िम है कि इससे तौबा करे, हालांकी इससे निकाह पर असर नहीं पड़ेगा, निकाह बा -दस्तूर कायम रहेगा,*
*®_ रद्दुल मुहतार - 3/211,*
*✪ अगर बीवी के पिस्तान में दूध ना हो तो पिस्तान मुंह में लेना जायज़ है, इसमें कोई गुनाह नहीं, हालांकी दूध मुंह में आने का अंदेशा भी हो तो इससे बचना चाहिए,*
*®_ रद्दुल मुहतार -3/325,*
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*⇰मज़ीना से निकाह का हुक्म:-*
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*✪_ ज़िनाकारी शरअन व अक़लन बड़ा कबीह काम है, इसलिए शरीअते मुताहरा ने इसको सख़्त हराम क़रार दिया है, बल्कि बोसो किनार, बद नज़री, बेपर्दगी वगैरा जो ज़िना के असबाब है उनको भी हराम क़रार दिया है,*
*✪_ तर्जुमा :- ज़िनाकारी के क़रीब भी मत फटको बिला शुबहा वो बड़ी बेहयाई (की बात) है और बुरी राह है,*
*®_सूरह बनी इस्राईल, 32,*
*✪_ अगर किसी लड़का लड़की से ये हराम काम सरजद हो जाए तो शरीयत का हुक्म ये है कि उनको हाकिम ए वक़्त कोड़े की सजा दे और वो दोनों तौबा भी करें, अगर इस्लामी हुकूमत न होने की वजह से या मुल्क में ये कानून नाफिज़ न हो या कानून नाफ़िज़ है और कोड़े की सज़ा दे दी बाद में दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शरअन इसकी इजाज़त है,*
*✪_बल्कि अगर ज़िना की वजह से हमल भी ठहर गया हो तब भी ज़ानी के लिए हालते हमल में भी अपनी मज़ीना से निकाह करना जायज़ है,*
*®_ (रद्दुल मुहतार-3/48)*
*✪_ दूसरे की मजीना से भी हालते हमल में निकाह जायज़ है लेकिन वज़ा हमल तक हमबिस्तरी जायज़ नहीं, जबकि अपनी मजी़ना से निकाह की सूरत में वज़ा हमल से पहले भी हमबिस्तरी जायज़ है _,"*
*®_ (रद्दुल मुहतार-3/48)*
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*⇛साली से ज़िना करने से बीवी हराम नहीं होती,*
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*✪ साली (यानी बीवी की बहन) से ज़िना करना भी बड़ा गुनाह है, अगर किसी से ये गुनाह सरज़द हो गया तो तौबा इस्तगफ़ार करना लाज़िम है और आइंदा उस साली से पर्दे का अहतमाम करना चाहिए,*
*⇛ लेकिन इस अमल से उसकी बीवी के साथ निकाह पर कोई असर नहीं पड़ा, वो बा-दस्तूर उसकी मनकुहा है, ताहम साली के साथ इस्तबरा यानी उसके एक हैज़ गुज़ारने तक या उसके हामला होने की सूरत में उसके वज़ा हमल तक अपनी बीवी से हमबिस्तरी करना जायज़ नहीं बल्कि अलहिदा रहना वाजिब है,*
*✪ हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. ने तहरीर फरमाया है कि, “कम से कम एक हैज़ गुज़ारने तक बीवी से अलहिदा रहने को वाजिब क़रार दिया जाए,*
*®_ शामी -3/283, इम्दादुल मुफ़्तीन-553,*
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*⇰मजी़ना की बेटी से निकाह जायज़ नहीं,*
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*✪ _जिस औरत से ज़िना किया हो या ना-जायज़ तौर पर बोसो किनार किया हो, उसकी लड़की से निकाह हराम और बातिल है, चाहे लड़की ज़ानी के नुत्फे से हो या ना हो, अब अगर ज़ानी शख़्स अपनी मज़ीना की लड़की बीवी के तौर पर रखता है तो ज़ानी ही कहलाएगा, औलाद अगर पैदा हो तो वो भी हरामी नस्ल होगी, अज़ीज़ ओ अकारिब और दीगर बा-असर लोगों पर लाज़िम होगा कि ऐसे बदकार शख़्स से माशरती बायकॉट करे,*
*®_ रद्दुल मुहतार- 3/32,*
*⇛मजीना की माँ से निकाह हराम है,*
*✪_ जिस औरत से ज़िना किया हो या ना-जायज़ बोसो किनार हुआ हो, उसकी मां से निकाह करना हराम है, क्योंकि ज़िना की वजह से हुरमते मुसाहरत साबित होती हे यानि ज़ानी के लिए मज़ीना की बेटी, नवासी वगैरा और मज़ीना की माँ, नानी वगैरा और मज़ीना के लिए ज़ानी का बाप या बेटा सबसे निकाह हराम हो जाता है,*
*®_हिन्दिया, 1/275,*
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*⇰अहले किताब से निकाह का हुक्म:-*
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*✪ जो ईसाई या यहुदी अल्लाह तआला के वजूद के कायल हो और आसमानी किताबो में कोई एक किताब तौरात, इंजील, ज़बूर वगेरा को मानता हो, किसी पैगम्बर पर ईमान का दावादार हो, ऐसी औरत से फी नफ्सा निकाह जायज़ हे, बा-शर्ते कि निकाह शरई तरीक़े पर दो गवाहों के सामने हो और वो औरत पाक दामन हो,*
*✪_ यानि तुम्हारे लिए मुसलमान पाक दामन औरत से निकाह हलाल है इसी तरह अहले किताब की अफ़ीफ और पाक दामन औरतों से भी निकाह हलाल है,*
*®_ तर्जुमा-अहकामुल कुरान, सूरह माएदा, 5,*
*✪_हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. तहरीर फ़रमाते हैं कि,'जम्हूर सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम व ताबईन रह. के नज़दीक अगरचे अजरुए क़ुरान अहले किताब की औरतों से निकाह फि नफसा हलाल है लेकिन उनसे निकाह करने पर जो दूसरे मुफासिद और खराबियां अपने लिए और अपनी औलाद के लिए बल्की पूरी उम्मत ए मुस्लिमा के लिए तजुर्बे के मुताबिक लाज़मी तौर पर पैदा होंगी, उनकी बिना पर अहले किताब की औरतों से निकाह को वो भी मकरूह समझते थे,'*
*®_मार्फुल कुरान,*
*✪_हज़रत हुज़ेफ़ा बिन यमान जब मदाइन पहुंचे तो वहां एक यहूदी औरत से निकाह कर लिया, हज़रत फ़ारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु अन्हु को इसकी इत्तेला मिली तो उनको ख़त लिखा कि उसको तलाक़ दे दो, हज़रत हुज़ेफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ने जवाब में लिखा कि” क्या वो मेरे लिए हराम है?” फ़िर हज़रत फ़ारूक़े आज़म रजि. ने जवाब में तहरीर फरमाया कि,'मैंने हराम नहीं कहा, लेकिन उन लोगों की औरतों में आम तौर पर इफ्फत व पाक दामनी नहीं है, इसलिए मुझे खतरा है कि आप लोगों के घराने में इस रास्ते से फ़हश व बदकारी दाखिल न हो जाए,'*
*®_ अहकामुल कुरान,*
*✪_हज़रत इमाम मुहम्मद बिन हसन रह. ने किताबुल आसार में इस वाक़िये को बा-रिवायत इमामे आज़म हज़रत अबू हनीफ़ा रह. इस तरह नक़ल किया है कि, दूसरी मर्तबा जब हज़रत फ़ारूक़े आज़म रज़ि ने हज़रत हुज़ेफ़ा रजि. को ख़त लिखा तो उसके अल्फ़ाज़ ये थे,:-" यानि आपको क़सम देता हूं कि मेरा ये ख़त अपने हाथ में रखने से पहले ही उसको तलाक़ देकर आज़ाद कर दो, क्यूंकी मुझे ये ख़तरा है कि दूसरे मुसलमान भी आपकी इक़तिदा करेंगे और अहले किताब की औरतों को उनके हुस्नो जमाल की वजह से मुसलमान औरतों पर तर्जीह देंगे, तो मुसलमान औरतों के लिए इससे बड़ी मुसीबत और क्या होगी,?*
*®_ किताबुल आसार, 56,*
*✪_इस वाकिये को नक़ल कर के हज़रत मुहम्मद बिन हसन रह. ने फरमाया कि फुक्हा ए हनफिया इसको अख्तियार करते हैं कि इस निकाह को हराम तो नहीं कहते लेकिन दूसरे मुफासिद और खराबियों की वजह से मकरूह समझते हैं _,"*
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*⇰गैर मुस्लिम से निकाह हराम है,*
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*✪_कोई भी मुशरिक बुत परस्त (हिन्दू, सिख या बोद्ध मठ के मानने वली वगेरा) से मुसलमान मर्द का निकाह हराम है, जब तक वो बा क़ायदा तोर पर दीन ए इस्लाम को कुबूल कर के मुसलमान ना हो जाए, एक मुसलमान के लिए उनसे निकाह हरगिज़ जायज़ नहीं_,"*
*®_ (रद्दुल मुहतार-3/46)*
*✪_किताबिया औरत से निकाह का जवाज़ तो बाज़ शराइत से साबित हे जिसकी तफ़सील पहले गुज़र चुकी है, लेकिन किसी मुसलमान खातून का निकाह गैर मुस्लिम मर्द से चाहे वो किताबी हो या गैर किताबी, किसी हाल में हलाल नहीं, इसका खूब ख्याल रखना लाज़िम हे,*
*®_ हिंदिया, बिदाया,*
*✪⇛और मुशरिक औरत से निकाह मत करो जब तक ईमान ना ले आये, ”*
*®_ सूरह अल-बक़राह, 221,*
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*⇰ का़दियानी से निकाह का हुक्म,,*
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*✪_ हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम अल्लाह तआला के आखिरी पैगम्बर हे, आपके बाद कोई नया नबी नहीं आएगा, आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के बाद जो भी नबुवत का दावा करेगा वो झूठा होगा, ये अकी़दा रखना तमाम मुसलमानो पर फर्ज है,*
*✪ _मिर्जा गुलाम अहमद का़दियानी का दावा ए नबुवत झूठा है, इस दावे में उसने कुरान व हदीस के उन तमाम सारे नुसूस का इंकार किया जिनसे ख़त्मे नबुवत के अक़ीदे साबित हैं,*
*✪_ लिहाजा मिर्जा गुलाम अहमद का़दियानी मुर्तद, दायरा ए इस्लाम से खारिज है, अब जो सच भी मिर्जा गुलाम को नबी तस्लीम करता था वह भी दायरा ए इस्लाम से खारिज है,*
*⇛ इसलिए उससे निकाह का रिश्ता कायम करना जायज़ नहीं, उसको लड़की देना या उसकी लड़की को अपने निकाह में लाना दोनों हराम है,*
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*⇰शिया से निकाह,*
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*✪_ जो शख्स हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु की ख़ुदाई का क़ायल हो या कुराने करीम को तहरीफ़ शुदा मानता हो, या उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा पर ज़िना की तोहमत रखता हो या हज़रत अबू बकर सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु की सहाबियत का मुनकिर हो, या हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम की वही लाने में गलती का अकी़दा रखता हो, या कोई और कुफरिया अकी़दा रखा हो, दायरा ए इस्लाम से खारिज हे, लिहाज़ा अगर कोई शिया लडक़ी इन अका़इद की हामिल हो तो उससे सुन्नी मुसलमान का निकाह हलाल नहीं,*
*✪⇛अगर कुफरिया अक़ाइद न रखती हो तो फि नफ्सा निकाह मुनअक़द हो जाएगा फिर भी उससे निकाह से मर्द का अकी़दा ख़राब हो जाने का ज़्यादा अंदेशा है, इसलिए इससे बचना लाज़िम है,*
*®_रद्दुल मुहतार-3/46,*
*✪ _अगर कोई शिया कुफरिया अका़इद रखता है तो उसके साथ सुन्नी लड़की का निकाह मुनअक़द नहीं होगा, और अगर कुफरिया अका़इद न रखता हो तब भी वो मुब्तदा और फासिक वह, उससे सुन्नी लड़की का निकाह नहीं हो सकता क्योंकि वो फासिक होने की वजह से सुन्नी लड़की का कफू नहीं,*
*®_ आलमगीरी, 1/किताबुन निकाह,*
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*⇰गैर मुक़ल्लिद से निकाह ,*
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*✪_ जो लड़की अकी़दा ए अहले सुन्नत वल जमात की हामिल और फिक़हा को मानने वाली खुसूसन इमाम अबू हनीफा रह. के मानने वाली हो उसका निकाह गैर मुक़ल्लिद (बा क़ोल खुद अहले हदीस) लड़के से फी नफ्सा मुनअक़द हो जाता है, क्योंकि वह भी मुस्लिम है,*
*✪_फिर भी ऐसी जगह रिश्ता करने में अमूमन खानदानों के आपस में इख्तिलाफ पैदा हो जाता है, क्योंकि अहादीस की रोशनी में मर्द और औरत की नमाज़ में 13 मक़ामात में फ़र्क़ है, और भी कई बुनियादी मसाइल हैं जिनमे अहले सुन्नत और ग़ैर मुक़ल्लिदीन का इख़्तिलाफ़ है,*
*✪_ तो उनके यहां शादी की सूरत में मर्द और उसके खानदान वाले लड़की को उनके मसाइल में गैर मुक़ल्लिदीन की पैरवी करने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे आपस में नाचाकी़ पैदा होती है, इसी तरह बाज़ दीगर मसाइल में भी तशद्दुद करते हैं, इसलिए उन्हें लड़की देने से हत्तल इम्कान अहतराज़ किया जाए,*
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*⇰टेलिफोन पर निकाह का हुक्म,*
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*✪ _निकाह में चुंकी ये ज़रूरी होता है कि 2 गवाह मजलिसे निकाह में हाज़िर हों और इजाब वी क़ुबूल दोनों सुने, इसलिए टेलीफ़ोन पर निकाह दुरुस्त नहीं होता,*
*✪_ अगर दूसरे शहर या मुल्क में निकाह करना हो तो इसका सही तरीक़ा ये है कि उस शहर में (यानि जिसमें लड़की है) किसी शख्स को अपने निकाह का वकील मुकर्रर करे, वकील उसकी तरफ से दूसरे फरीक़ के साथ गवाहों की मौजूदगी में इजाब व क़ुबूल करे, इस तरह निकाह सही हो जाएगा,*
*®_ फतावा उस्मानी, 2/304,*
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*⇰तहरीरी निकाह का हुक्म,,*
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*✪_तहरीर के ज़रिये भी निकाह हो सकता है, मगर ये ज़रूरी है कि तरफीन में से एक की जानिब से निकाह की कुबूलियत का ज़बानी इज़हार हो और सिर्फ एक ही तरह से तहरीर हो, कुबुलियत का इज़हार 2 गवाहों के सामने किया जाए, और वो तहरीर भी उन गवाहों के सामने सुना दी जाए,*
*✪⇛ मसलन ज़ैद हिंदा को लिखे कि मैंने तुमसे एक तोला सोना महर पर निकाह किया, हिंदा के पास जब ये तहरीर पहुंचे तो वो अव्वल 2 गवाहों को तलब करे, उनको ये तहरीर सुना दे और फिर उनके सामने कहे कि मैं इसे कुबूल करती हूं, अब निकाह मुनअक़द हो जाएगा,*
*✪⇛अगर हिंदा तहरीर पढ़ कर गवाहों को ना सुनाए सिर्फ अपनी कुबूलियत का इज़हार उनके सामने करे या ज़बानी इज़हार की बजाये सिर्फ तहरीर लिख दे, और उस पर गवाहों के दस्तखत कराए, या गवाहों के दस्तखत भी ना कराए, तमाम सूरतों में निकाह ना हो सकेगा,*
*®_ ख़ुलासा फ़तावा अशरफ़ी,*
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*⇛ निकाह के वक़्त वल्दियत गलत बताना:-*
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*✪_ बाज़ लोग दूसरे की औलाद लड़का या लड़की लेकर परवरिश करते हैं, अब किसी जगह उनकी वल्दियत बतानी पड़े तो अपनी तरफ मंसूब कर देते हैं, (यानी अपना नाम बता या लिखा देते हैं,) निकाह के वक़्त भी ये मामला पेश आता है,*
*⇛तो हुक्म ये है कि अपनी वल्दियत हमेशा अपने असल वाल्देन की बतानी चाहिए, सोतेले बाप की तरफ निस्बत करना जायज़ नहीं, हदीस में इस पर सख्त वईद आई है,*
*⇛ लेकिन अगर निकाह के वक़्त गलत वल्दियत बता दी गई मगर औरत या उसका वकील जानता था कि इससे मुराद कौनसा मर्द है या कौनसी औरत है तो निकाह दुरुस्त हो जाएगा,*
*✪_ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने इरशाद फरमाया कि “जिसने अपने बाप के अलावा किसी गैर की तरफ निस्बत की हालांकि वो जानता है कि उसका बाप कोई और है, उस पर जन्नत हराम है।”*
*®_ रवाह बुखारी व मुस्लिम व अबू दाऊद व इब्ने माजा, तरगीब व तरहीब, 3/75,*
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*⇰गलती से लड़की का नाम बदल गया,,*
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*✪_ अगर गलती से निकाह के वक़्त नाम बदल गया मसलन जे़नब बिन्त बकर का नाम खालिदा बिन्त बकर कह दिया या जे़नब बिन्त उमर कह दिया वगैरा, अब अगर शादी के गवाह लड़की को पहचानते हों कि फलां जे़नब बिन्त बकर का ही निकाह हो रहा है, या वो लड़की मजलिसे निकाह में खुद मोजूद है और उसकी तरफ इशारा करके निकाह पढ़ाया और गवाह भी पहचान रहे हैं कि इसी लड़की का निकाह हो रहा है, तो नाम गलत बताने के बावजूद ये निकाह मुनअक़्द हो जाएगा,*
*⇛ और अगर लड़की मजलिसे निकाह में मौजूद ना हो और ना ही उसकी तरफ इशारा हुआ और गवाहों को मुतय्यन तौर पर मालूम नहीं कि फलां जे़नब बिन्त बकर ही का निकाह हो रहा है, इन सब सूरतो में निकाह मुनअक़्द न होगा, दोबारा शराइत के साथ निकाह पढ़ाना ज़रूरी है,*
*®_ रद्दुल मुहतार -3/26,*
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*⇰गूँगे के निकाह का तरीका,*
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*✪_गूँगे का निकाह इस तरह पढ़ाया जाएगा कि दो गवाहों की मौजुदगी में गूँगे से निकाह कुबूल करने का इशारा करा दिया जाएगा, जिससे इजाब कुबूल मफहूम हो,*
*⇛ और सुनने वालो को इसकी मुराद मालूम हो जाये, यानि उससे तलफ्फुज़ भी करवाया जाये,*
*®_रद्दुल मुहतार-3/21,*
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*⇛ तजदीदे निकाह कब लाज़िम है?*
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*✪_ बाज़ अल्फ़ाज़ कुफ़्रिया होते हैं, कभी क़स्दन और कभी ला इल्मी में या कभी गुस्से में ऐसे अल्फ़ाज़ मुंह से निकल जाएं, मा'अनी व मतलब के लिहाज़ से उलमा के नज़दीक उसका फैल कुफ़्र ठहरे, इसी तरह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम की कोई सुन्नत की क़स्दन तोहीन की जिससे उस शख़्स का अमल तहक़ीक़ हाल के बाद कुफ्र ठहरा, या कोई और ऐसा मसला पेश हो जिसकी वजह से उलेमा मुहक़्क़ीन ने उस शख्स के कुफ्र का फतवा सादिर फरमाया,*
*⇛ ऐसा शख़्स अगर अपनी नाज़ेबा हरकत और फ़ैल से तौबा करे तो उस पर लाज़िम होगा कि तजदीदे ईमान के साथ तजदीदे निकाह भी करे, और जिस मसले में इख्तिलाफ हो कि इससे कुफ्र सादिर हुआ या नहीं हुआ, वहां अहतयातन तजदीदे ईमान व तजदीदे निकाह का हुक्म किया जाता है,*
*®_ फतावा आलमगीर, 2/283,*
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*⇰ तजदीद ए निकाह का तरीक़ा,,*
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*✪_ चूंकि शर'अन हर निकाह में गवाहों का मौजुद होना ज़रूरी है, और महर भी लाज़िम होता है, इसलिए तजदीद ए निकाह के वक़्त ये तरीक़ा अख़्तियार किया जा सकता है कि अगर शोहर के पास गुंजाइश है तो नए महर के तोर पर कुछ मुकर्रर करे या गुंजाइश नहीं तो बीवी शोहर को महर का कुछ हिस्सा हदिया कर दे और शोहर को इस नए निकाह का वकील भी बना दे,*
*✪_फिर शोहर दो गवाहों की मोजूदगी में बा-का़यदा कुबूल करे, अल्फ़ाज़ इस तरह इस्तेमाल करे कि ''फ़लां बिन्त फ़लां को इतने महर के बदले में अपने निकाह में लाया'' और दोनों गवाह इस मजलिस को मजलिसे निकाह समझे और निकाह को हक़ीक़त पर ही मामूल करे,*
*⇛ यानि वो दोनों गवाह ये समझे कि इन दोनों मिया बीवी के दरमियान नया निकाह हो रहा है, सिर्फ मज़ाक़ या दिल्लगी न समझे वरना निकाह मुनअक़्द ना होगा, वल्लाहु तआला आलम-*
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*⇰ खुतबा ए निकाह सुनना वाजिब है,*
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*✪_ निकाह से पहले जो खुतबा पढ़ा जाता है, इसी तरह जब तकरीर से पहले जब खुतबा मसनूना पढ़ा जा रहा हो, इस दौरन हाज़रीन का आपस में बात चीत करना जायज़ नहीं, बल्कि खुतबा सुनना वाजिब है, इस दौरन बात चीत करने वाले गुनहगार होंगे, तौबा लाज़िम है,*
*✪_ इस ज़माने में लोग इसमे बहुत गफ़लत करते हैं, कोई दूल्हे को देख रहा होता है और कोई तो शीरनी की फ़िक्र में है, कोई मिलने जुलने वालों के खुश गप्पियों में मशगूल हैं,*
*⇛ इस मसले की इशाअत करनी चाहिए कि निकाह का खुतबा भी गौर से सुने, इस दौरन खामोशी अख्तियार करें,*
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*⇰ दो ईदों के दरमियान निकाह बिला शुबहा जाइज़ है,*
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*✪_ बाज़ लोगों में ये ग़लत बात चल पड़ी है कि दोनों ईदों के दरमियान निकाह जायज़ नहीं, ये बिल्कुल बे-असल बात है,*
*✪ _जम्हूरे उम्मत के नज़दीक दोनों ईदों के दरमियान निकाह जायज़ है, खुद आन हजरत सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम का निकाह हजरत आयशा सिद्दीका़ रजियल्लाहु अन्हा से शव्वाल के महीने में हुआ,*
*®_ बा- हवाला मिश्कात, 2/271,*
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*⇰ शादी के मोक़े पर छुवारा फैंकना सुन्नत है,*
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*✪_ निकाह के मौके पर अमूमन छुंवारे तक़सीम करते हैं और फर्द अफ़राद हाथों में देते हैं,*
*⇛ इस बारे में असल सुन्नत तरीक़ा ये है कि मजलिसे निकाह में शिरकत करने वालो में छुंवारे तक़सीम करने की बजाये फ़ैंक दिया जाए, छिड़का जाए,*
*®_ खैरुल फतावा, 4/585,*
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*⇰मंगनी की रस्म और दावत,*
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*✪_ शरअन मंगनी की हैसियत एक वादे की है, यानी अगर मंगनी की मजलिस में बाका़यदा इजाबो कुबूल न हो बल्कि सिर्फ रिश्ता तय होने के बाद आइंदा निकाह का वादा हो तो इसकी हक़ीक़त वादे की हुई,*
*✪_ अब इसका हुक्म ये है कि जब तक कोई माक़ूल उज़्र पेश ना आए उस वादे को पूरा करना ज़रूरी है, अलबत्ता अगर कोई माक़ूल उज़्र पेश आए तो मंगनी तोड़ी भी जा सकती है,*
*®_ रद्दुल मुहतार -३/११,*
*✪ _बाज़ इलाक़ो में मंगनी ने एक मुस्तक़िल रस्म की हैसियत अख्तियार कर ली, इसमें दो तरफ के अज़ीज़ो अकारिब के अलावा मिलने वालों और मोहल्ले वालों की एक बड़ी तादाद को बुलाई जाती है, इस मोके़ पर दावत भी होने लगी है, बल्कि वलीमा की तरह दावत होती है,*
*✪_ खूब समझ लेना चाहिए कि मंगनी की हक़ीक़त सिर्फ इतनी है कि दोनों तरफ के चंद ज़िम्मेदार हज़रात जमा होकर रिश्ता तय कर लें, महर, शादी और रुखसती की तारीख़ तय कर लें,, इस मौके की मुनास्बत से हल्की सी ज़ियाफत हो जाए तो भी कोई हर्ज नहीं, इसके लिए बाका़यदा दावत का एहतमाम करना, इसको सुन्नत क़रार देना बिल्कुल गलत है, बल्कि सुन्नत समझकर ऐसा करना बिदअत और वाजिबुल तर्क है,*
*✪_ इस बात को मल्हूज़ रखा जाए कि शरीयत का मिजाज़ ये है कि इस मौक़े पर सादगी से काम लिया जाए, तकल्लुफ़ से इज्तनाब किया जाए, तो दुनिया व आख़िरत दोनो लिहाज़ से ख़ुशी नसीब होगी,*
*®_ फतावा उस्मानी, 2/232,*
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*⇰एक जगह मंगनी के बाद दूसरी जगह निकाह,*
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*✪_ बाज़ जगह दस्तूर है कि मंगनी के मोके़ पर बाकायदा इजाब व कुबूल हो जाता है, लड़का और लड़की नाबालिग हो तो वालिद या दादा, चाचा वगैरा से गवाहों के रूबरू इजाब व कुबूल करवा लिया जाता है,*
*®_ रद्दुल मुहतार -2/287,*
*✪_ ऐसी सूरत में इस मजलिस का नाम अगरचे मंगनी की होती है, लेकिन जब निकाह के क़स्द से इजाब व कुबूल हो गया तो निकाह मुनअक़्द हो गया, अब इस रिश्ते को तोड़ा नहीं जा सकता, जब तक ये निकाह बरक़रार है दूसरी जगह निकाह नहीं हो सकता, अगर दूसरी जगह निकाह कर दिया तो वो निकाह बातिल हे, मुअक्कद नहीं होगा,*
*⇛ अगर मंगनी की मजलिस में गवाहों के रूबरू इजाब व कुबूल नहीं हो तो ये वादा निकाह है, अगर कोई माक़ूल उज़्र पेश आए तो मंगनी तोड़ कर दूसरी जगह निकाह करना दुरुस्त है,*
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*⇛ मंगनी के मौके़ पर दी हुई चीज़ो की वापसी,*
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*✪_ मंगनी के मौक़े पर लड़के वालों की तरफ से लड़की को कुछ सामान दिया गया, मसलन घड़ी, अंगुठी और दीगर साज़ो सामान वगेरा, कुछ खाने पीने का सामान, बाद में लड़की वालों ने रिश्ते से इंकार कर दिया,तो ऐसी सूरत में जो सामान मोजूद हों उनको वापस लिया जा सकता है,*
*"✪_ और जो हलाक हो चुके हों या खा पी लिया उनकी वापसी नहीं हो सकती, हां अगर लड़की वालों ने इंकार नहीं किया बल्कि खुद लड़के वालों ने इंकार कर दिया तो कुछ भी वापस नहीं लिया जा सकता,*
*®_ रद्दुल मुहतार-3/153,*
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*⇰शादी के मौक़े पर (लड़कें या लड़की वालों से) से रक़म वसूल करना,*
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*✪_ बाज़ इलाक़ों में ये रिवाज़ है कि लड़की वाले दूल्हे से रक़म का मुतालबा करते हैं, (और आज अक्सर देखा जाता है कि लड़के वाले लड़की वालों से रक़म का मुतालबा करते हैं,) और फिर रिश्ता करते हैं,*
*✪_ हज़रत मुफ्ती महमूद हसन साहब रहमतुल्लाह फ़र्माते है कि अगर ये रक़म बतौर क़र्ज़ लिया जाता है तो हस्बे ज़रूरत तरफैन की रज़ामज़न्दी से क़र्ज़ का लेन देन दुरुस्त है, मगर इसमें भी ये लिहाज़ रहे कि शादी का दबाव और असर ना हो,*
*⇛ अगर ये क़र्ज़ नहीं बल्कि शादी ही की वजह से लिया जाता है तो ये रिश्वत है और हराम है, इसकी वापसी ज़रूरी है,*
*®_ फ़तावा महमूदिया- 2/372)*
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*⇰_शादी के मौके पर गुनाहों से बचे,*
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*"✪_ दुनिया में एक गलत दस्तूर चल पड़ा है कि लोग आम मौकों की निस्बत तीन मौकों पर ज़्यादा गलतियां करते हैं, एक शादी के मोके़ पर, दुसरे विलादत के मोके़ पर और तीसरे किसी के मरने पर, हालांकि ये तीनों मौक़े ऐसे है कि इनमे इन्सान को ज्यादा से ज़्यादा अल्लाह तआला के मुक़रर करदा क़वानीन की ज़्यादा से ज़्यादा रिआयत करना चाहिये, इसलिये कि पहली दो चीज़े यानि शादी और विलादत तो बहुत बड़ी नियामते है और ये एक फ़ितरी उसूल है कि नियामत मिलने पर इन्सान का दिल अपने मुनज़म और हुस्न की तरफ़ ख़ुद ख़ुद ख़िचता है,*
*"✪_ इन तीन मौकों पर मुसलमान को गुनाह छोड़ देने चाहिए मगर वह वो इन तीन मोको में ख़ुल कर अल्लाह तआला की नफ़रमानी करता है, शादी और विलादत के मोक़े पर उसकी कोशिश होती है कि सबको ख़ुश कर दे, किसी से गिला शिकवा ना रहे, चुनांचे रिश्तेदारो में, दोस्तों में किसी को उससे कुछ शिकायत हो नाराजगी हो तो उसके पास खुद चल कर जाता है और ख़ुशामद कर के उनको राज़ी करने की कोशिश करता है,*
*"✪_ शादी में खुशामद कर के सबको जमा कर लेते हैं और हर क़ीमत पर उन्हें ख़ुश करने की कोशिश करते है मगर ज़ुल्म देखिए कि सब लोगों को जमा करते हैं लेकिन अल्लाह और उसके रसूल ﷺ को वहां से निकाल देते है कि आप थोडी देर के लिए ज़रा एक तरफ़ हो जाएं इस वक़्त हमने शैतान को बुला लिया है, मालूम होता है कि मुसलमान के दिल में शैतान का खौफ अल्लाह ताला के खौफ से बढ़ कर है, इसलिये शादी में अल्लाह तआला की नाराज़गी मोल ले कर शैतान को राज़ी करता है,*
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*⇰खुतबा मसनूना की आयात*
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*"✪_ रसूलुल्लाह ﷺ निकाह के खुतबे में तीन आयतें पढ़ा करते थे, आप ﷺ ने इन आयात का इंतेखाब फरमा कर उम्मत को अल्लाह तआला की नाफरमानी और बगावत से बचने की हिदायात दी हैं और ये तम्बीह फरमाई है कि इस मोके़ पर लोग अल्लाह ताला की बगावत और नाफरमानियां बहुत करते हैं, पहले से बढ़ कर नाफ़रमानियां करते हैं,*
*"✪_अल्लाह ताला ने इन आयात में धमकी दी है कि खबरदार! ये नियामत मैंने दी है ख़ुशी में आ कर इतराओ मत, मैं चाहूँ तो अपनी नियामत छीन भी सकता हूँ हुं, शादी तो तुमने कर दी आगे मियां बीवी में तवाफिक़ (मेल जोल) पेदा करना मेरा काम है, मेरी कुदरत में है कि इसको नियामत बनाऊं या अज़ाब, मेरी कुदरत से कोई चीज़ बाहर नहीं, जिस नियामत पर तुम इतरा रहे हो, इतनी खुशियां मना रहे हो, मैं चाहूं तो इस नियामत को अज़ाब में बदल डालूं, मियां बीवी एक दूसरे के हक़ में अज़ाब और मुसीबत बन जाएं, ये सब मेरी कुदरत में है _,"*
*"✪_इन आयात के ज़रिये अल्लाह तआला शादी करने वालों को तम्बीह फरमा रहे हैं कि होश में आ जाओ ऐसा न हो कि शामते आमाल से ये ख़ुशियाँ तुम्हारे लिए वबाल बन जाएँ, ये भी अल्लाह तआला की रहमत है कि जहाँ-जहाँ इंसान के भटकने का अहतमाल होता है, अंदेशा होता है कि कहीं गलत रास्ते पर न पड़ जाए, अल्लाह ताला पहले से ही उसे बेदार कर देते हैं, बल्कि झंझोड़ते हैं कि मेरे बंदे भटक ना जाना, ये इम्तिहान का मौक़ा है, होशियार रहना, ये अल्लाह ताला की रहमत है वरना वो अगर खबरदार ना करें और इंसान भटक जाए तो इसमे अल्लाह ताला का क्या बिगड़ेगा ? ये बंदों पर उनकी रहमत और मुशफ़क़त है,*
*✪_यूं तो इंसान को क़ायल करने और उसे मजबूर करने के लिए अल्लाह तआला के अहसान भी काफी हैं, फिर अल्लाह तआला ने अक़ल भी दी है, अक़ल के अलावा शरीयत भी दी है, इसके बावज़ूद अल्लाह तआला मोका़ बा मोका़ बार बार मुतवज्जह फरमाते रहते हैं कि मुतवज्जह हो जाओ, गफ़लत से बाज़ आ जाओ, कितनी बड़ी शका़वत ए क़ल्ब है कि इन सब चीज़ों के बावज़ूद ये मुसलमान फिर भी बगावत से बाज़ नहीं आता, फिर वही टेढ़ी चाल गोया कि इसे मरना ही नहीं, अल्लाह ताला के सामने कभी जाना ही नहीं,*
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*⇰_एक संगीन गलती :-*
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*✪_ एक ग़लत काम ये भी है कि शरीयत का हुक्म ये है कि लड़की से इजाज़त लेने के लिए वली अक़रब जाए यानी लड़की के रिश्तेदारो में जो क़रीब से क़रीबतर रिश्तेदार है वही लड़की से जा कर पूछे कि इस लड़के से तेरा निकाह कर रहे हैं क्या तुझे कुबूल है? अगर लड़की कुंवारी हो और पूछने वाला क़रीबतर रिश्तेदार हो तो पूछने पर लड़की के खामोश रहने से निकाह हो जाता है, सराहतन इजाज़त देना जरूरी नहीं, अगर लड़की कुंवारी न हो, पूछने वाला क़रीबतर रिश्तेदार न हो तो लड़की का सराहतन इजाज़त देना जरूरी है, खामोश रहने से निकाह ना होगा,*
*"✪_लड़की का सबसे ज़्यादा क़रीब रिश्तेदार कौन है? वालिद जा कर पूछे, किसी का वालिद नहीं है तो वालिद के बाद दादा का नंबर है, दादा जा कर पूछे, वालिद भी ना हो दादा भी ना हो तो भाई पूछे, फिर भाई के बाद भतीजे का नंबर है, भाई, भतीजे और भतीजो की औलाद में से कोई भी ना हो तो फिर चाचा वाली है, लड़की के वलियों की ये तरतीब है, इसकी रिआयत ज़रूरी है, अगर वालिद के होते हुए भाई ने पूछ लिया या चाचा ने पूछ लिया और लड़की खामोश रही तो उसका पूछना ना पूछना बराबर है, ये तो ऐसा ही होगा कि गोया लड़की से पूछा ही नहीं बगैर पूछे निकाह कर रहे हैं, अलबत्ता निकाह हो जाएगा,*
*"✪_ ये मसला सुन कर कहीं इस शुबहा में ना पड़ जाएं कि सिरे से निकाह ही नहीं होगा, निकाह हो जाएगा, दो वजहों से, एक ये कि जैसे दस्तूर हो गया, लड़की को पहले से ये मालूम होता है कि पूछने जो भी आए और जो कुछ पूछे बहरहाल उसके अब्बा (वालिद) ने ही भेजा होगा, जब उसे मालूम है कि जो मेरा असली वली है ये उसका भेजा हुआ है, उसने पूछा है तो निकाह हो जाएगा,*
*"✪_दूसरी वजह ये है कि अगर उसको इतना इल्म भी ना हो कि वालिद ने भेजा है या खुद आया है, तो ये निकाह लड़की की इजाज़त पर मौक़ुफ़ रहेगा, बाद में जब लड़की रुख़सती के लिए तय्यार हो गई और ख़ुशी से शौहर के घर रुखसत हो गई तो गोया उसने कुबूल कर लिया, अब निकाह नाफ़िज़ हो जाएगा,*
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*⇰_बहनोई को इजाज़त के लिए भेजना गुनाह है,*
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*"✪_ मसनून तरीक़ा तो ये है कि पूछने के लिए वली अक़रब जाए लेकिन लोगों में दस्तूर ये है कि बाप दादा भाई के बजाए मामू को या किसी गैर महरम भेज देते हैं, ये भी गनीमत है कि किसी गैर महरम की बजाए मामू का ही इंतेखाब किया, इतनी अक़ल तो आ गई कि लड़की के पास उसके मामू को भेज देते हैं लेकिन नहीं सोचते कि मामू किसी दर्जे में लड़की का वली नहीं, उसके बजाए चाचा को भेजते तो ठीक था कि वो किसी ना किसी दर्जे में तो वली है कि वालिद, दादा और भाई भतीजे ना हो तो सबके बाद आख़िर में चाचा वली है और वो पूछ सकता है, मामू का तो कोई हक़ है ही नहीं,*
*"✪_ फिर इससे बढ़ कर और ज़्यादा जहालत, बेदीनी और परले दर्जे की बेहयाई की बात ये कि बाज़ लोग लड़की के बहनोई को पूछने के लिए भेजते हैं, ये शरीयत के ख़िलाफ़ तो है ही अक़ल और गैरत के भी ख़िलाफ़ है, इंतेहाई दर्जे की बेहयाई है, बहनोई को इजाज़त के लिए भेजना गुनाह है,*
*✪"_लड़की से इजाज़त के लिए ऐसे ख़तरनाक रिश्ते का इंतेखाब कितनी बड़ी बेहयाई है और लड़की के वाल्दैन किस क़दर बेहया है, ज़रा सोचिये क्या अंजाम होगा इस क़िस्म की शादियों का? बेदीनी की नहुसत से अक़ल पर पर्दा पड़ गया था, शर्म व हया भी रुखसत हो गई, ये सब गुनाहों की नहुसत है और अल्लाह ताअला की नफ़रमानी करते करते दिल से हया भी निकल गई,*
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*⇰_खुतबा निकाह की हिकमत व मसलिहत:-*
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*"✪_ खुतबा में जो तीन आयतें और चार हदीसें पढ़ी जाती हैं उनसे मुताल्लिक कुछ बयान से पहले ये मसला समझ लिया जाए कि निकाह के लिए खुतबा पढ़़ना कोई शर्त लाज़िम नहीं, जेसे जुमा से पहले खुतबा शर्त है उसके बैगर नमाज़ नहीं होती, ऐसे निकाह के लिए खुतबा लाज़िम नहीं लेकिन फिर भी क्यों पढ़ा जाता है? इसकी मसलिहत समझ में आ जाए तो मुसलमान की दुनिया और आखिरत दोनों संवर जाएं, लोगों ने इस खुतबे को भी रस्म की शक्ल दे दी है, इसकी मसलिहत न कोई सोचता है न समझता है, निकाह ख्वां खुतबा पढ़ कर सुना देता है सुनने वाले सुन कर उठ कर जाते हैं, मगर ये कोई नहीं सोचता कि खुतबे की हिकमत और मसलिहत क्या है,*
*✪"_अगर कोई है कि हां हमें मालूम है कि खुतबा अगरचे जरूरी नहीं, इसके बिना भी निकाह हो जाता है, मगर इसके पढ़ने से बरकत होगी, बरकत के लिए पढ़ते हैं, लेकिन ज़रा सोचिए कि बरकत तो जब हो कि खुतबे में जो कुछ पढ़ा गया है उसके मुताबिक़ अमल भी हो, ज़रा इस बात को सोचिये कि मजलिसे निकाह में बैठे तमाम शूरका और खास तोर से निकाह करने वाले फरिक़ीन को कुरान की आयात पढ़ कर सुनायी जा रही है, अहादीस बतायी जा रही है मगर ये लोग अल्लाह ताला' के अहकाम और क़वानीन सुनने के बाद समझने के बाद घर पहुंचते ही उन्हें तोड़ना शुरू कर दें, एक एक हुक्म को तोड़ते चले जाएं तो महज़ सुनने से क्या हासिल होगा? बरकत होगी या अज़ाब नाज़िल होगा?*
*✪"_निकाह से पहले खुतबे का मक़सद ही बंदो को अल्लाह तआला के अहकाम से बा खबर करना है,*
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*⇰_नियामत के बजाय ज़हमत :-*
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*✪"_ खुतबा में कुरान मजीद की तीन आयतों में अल्लाह तआला के अहकाम खोल खोल कर सुनाए जा रहे हैं, उनके बाद जो चार हदीसें हैं उनमें भी अल्लाह ताला के क़वानीन ही बताए गए हैं, निकाह के खुतबे में तीनों आयतों का पढ़ना रसूलुल्लाह ﷺ से साबित है और ये हदीसें रसूलल्लाह ﷺ से खास खुतबा निकाह में पढ़ना अगरचे साबित नहीं है लेकिन हैं तो रसूलुल्लाह ﷺ ही की हदीसें, इनमें भी निकाह के बारे में रसूलुल्लाह ﷺ की तालीमात है, अगर एक एक आयत और हदीस की तशरीह की जाए तो वक़्त बहुत ज़्यादा चाहिए, इसलिए अलग-अलग तशरीह की बजाएं मुख्तसर बताता हूं,*
*"✪_तीनों आयतों का हासिल एक ही है वो ये है कि हर काम में अल्लाह तआला से डरो, जहन्नम की आग से डरो और उससे बचने की कोशिश करो, तीनो में यही मज़मून है, अगर अल्लाह तआला की नाफ़रमानी छोड़ दोगे तो अल्लाह तआला अपनी निआमतो को नियामतें बना देंगे और अल्लाह तआला की नाफरमानी नहीं छोड़ी, उसकी बगावत से बाज़ ना आए तो अल्लाह ताला का दस्तूर है कि उसने दुनिया में जो नियामते दे रखी है, वो उन नियामतों को नियामतें नहीं रहने देते बल्कि उन्हें अज़ाब बना देते हैं, नियामतें अज़ाब की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं और वबाल बन जाती है, ये अल्लाह तआला का दस्तूर है,*
*"✪_वो अल्लाह तआला जिसने शादी की नियामत दी वो उस नियामत को ज़हमत में बदल सकता है, अल्लाह तआला की नाफरमानी छोड़ कर सही सही बंदे बन जाएं और अल्लाह तआला की हिदायत के मुताबिक जिंदगी बसर करें, अल्लाह तआला सबको इसकी तौफीक़ अता फरमाये,*
*"✪_ खुतबे में पढ़ी गई तीनो आयतों पर गौर करें तो उनमें इसी हकीकत की तरफ इशारा है कि निकाह अल्लाह ताला की एक बहुत बड़ी नियामत है मियां बीवी के हक़ में और दोनों खानदानों के हक़ में भी, इससे मुसलमान की दुनिया भी संवरती है और आखिरत भी, इससे दोनों खानदानों में मुहब्बत बढ़ती है, मेल जोल पैदा होता है और एक दूसरे से तावुन का जज़्बा उभरता है, लेकिन कान खोल कर सुन लें कि ये नियामत जब ही नियामत रहेगी कि अल्लाह ताला की नाफरमानी छोड़ दें, उसकी बगावत से बाज़ आ जाएं, ये बात तो मुख्तसर सी तीनों आयतों से मुताल्लिक़ बता दी,*
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*⇰_अहादीस की तशरीह:-*
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*✪_ आयतों के बाद चार हदीसें भी पढ़ीं गईं, पहली हदीस के मा'नी ये है कि लोग जब शादी का इरादा करते हैं तो रिश्ते का इंतेखाब करते वक्त मुख्तलिफ चीज़ें मद्दे नज़र रखते हैं, बाज़ माल को बाज़ हसब व नसब को और बाज़ हुस्न व जमाल को देखते हैं, रसूलुल्लाह ﷺ ने सबसे पहले माल का जिक्र फरमाया कि बहुत से लोग लड़की के इंतेखाब में माल को सामने रखते हैं कि लड़की का खानदान मालदार होना चाहिए, उनके पास माल हो चाहे और कुछ भी ना हो, ना सूरत ना सीरत, बस माल पर मरे जा रहे हैं, रिश्ता करते वक्त अक्सर लोग माल देखते हैं,*
*✪"_ और बहुत से लोग हसब व नसब को देखते हैं कि ऊंचा खानदान हो, कोई बड़ा मनसब हो और कई लोग हुस्न व जमाल को देखते हैं कि लड़की का रंग रूप और उसकी शक्ल व सूरत अच्छी हो, सीरत चाहे कैसी ही बुरी हो, कुछ लोग दीन को देखते हैं कि लड़की दीनदार होनी चाहिए चाहे माल या दूसरी चीज़ें हो या ना हो लेकिन दीन हो,*
*"✪_ फरमाया कि दीनदार रिश्ते का इंतेखाब करो, इससे तुम्हारी शादियों में बरकत होगी और दुनिया और आखिरी में अमन व सुकून नसीब होगा, सुकून अल्लाह ताला ने सिर्फ दीन में रखा है, बाक़ी चीजों में कुछ नहीं, इसलिए तुम लोग जहां कहीं रिश्ते करो दीन की बुनियाद पर करो, यहीं एक चीज़ काफी है, बाक़ी तीनों चीज़ों में से कोई चीज़ हो या ना हो इसे मत देखो,*
*✪"_दूसरी हदीस में फरमाया कि ये पूरी दुनिया आरज़ी सामान है, गुज़र गई गुज़रान क्या झोपड़ी क्या मैदान, ये तो गुज़रने वाली चीज़ है बल्कि खुद गुज़रगाह और मुसाफिर खाना है, एक आरज़ी और वक्ती चीज़ है, लेकिन इन आरज़ी नियामतों में भी सबसे बड़ी नियामत नेक बीवी है, इसी पर ये भी क़यास कर लें कि बीवी के लिए दुनिया में सबसे बड़ी नियामत नेक शौहर है,*
*"✪_ फरमाया दुनिया सारी की सारी आरज़ी है, इसकी नियामतें भी सब आरज़ी जल्द फना होने वाली है, लेकिन फानी नियामतों में सबसे बड़ी नियामत नेक बीवी (और नेक शौहर) है, ये एक नियामत दुनिया की सब नियामतों से बढ़ कर है, इससे दुनिया और आखिरत दोनों का सुकून और चैन हासिल होता है,*
*"✪_तीसरी हदीस के मानी ये है कि दुनिया में जितने निकाह होते हैं तमाम निकाहो में सबसे बा-बरकत निकाह वो होता है जिसमें तकल्लुफ़ कम से कम हो, यहाँ एक बात सोचें कि किसी काम से अच्छे नतीजे पैदा करना या बुरे नतीजे पैदा करना किस के क़ब्ज़े में है? अल्लाह ताला के क़ब्ज़े में है ना? तो जिसके क़ब्ज़े में सब कुछ है वो बता रहा है कि ऐसे ऐसे करोगे तो नतीजे बेहतर रहेंगे और ऐसे ऐसे करोगे तो नतीजे बद से बदतर और ख़राब से ख़राब तर होंगे, ज़ाहिर है कि फ़ैसला तो उसका मोअतबर है जिसके क़ब्ज़े में सब कुछ है, रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि सबसे बढ़ कर बा-बरकत निकाह वो है जिसमें तकल्लुफ़ कम हो,*
*✪"_ चौथी हदीस में फरमाया कि औरतों में सबसे ज़्यादा बरकत वाली औरत वो है जिसका महर कम हो, जितना महर कम होगा उतनी ही वो औरत बरकत वाली होगी,*
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*⇰बारात का हुक्म :-*
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*✪_ बारात का मक़सद मजलिसे अक़्दे निकाह में लोगो को शिरकत की दावत देना है, फ़ी नफ्सा ये बात रसूलुल्लाह ﷺ के अमल से साबित है,*
*✪_इसलिये शरई हुदूद में रहकर ऐसा करना दुरुस्त है, अलबत्ता इसका ज़्यादा एहतमाम करना, रिया नमूद और फख़रो गुरुर में मुब्तिला होना, जरूरत से ज़्यादा बड़ा मजमा बुलाने की कोशिश करना, इसराफ से काम लेना, ....ये सारे उमूर खिलाफे शर'आ है, इनसे बचना लाज़िम है,*
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*⇰शादी मुबारक कहने की रस्म :-*
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*✪_ गालिबन शादी की तक़रीब पर बुलाने के लिए जो कार्ड छपाए जाते हैं उन पर शादी मुबारक लिखा होता है, फिर निकाह के बाद उसी मजलिस में हर तरफ से शादी मुबारक शादी मुबारक की बौछार शुरू हो जाती है, फिर वहां से उठने के बाद कई दिनों तक ये सिलसिला जारी रहता है,*
*"✪_बच्चे की विलादत पर भी यूं ही होता है, जो भी सुनता है मुबारक बाद देता है, हर तरफ मुबारक मुबारक की आवाज़ें गूंजने लगती है, इसी तरह ईद मुबारक, नया मकान मुबारक, नई दुकान मुबारक, नई तिजारत मुबारक वगैरा वगैरा, ग़र्ज़ हर ख़ुशी के मौक़े पर मुबारक देने लेने का आम दस्तूर है, मगर ये कोई भी नहीं सोचता कि इसका मतलब क्या है? ये जुमला रात दिन बोला और सुना जा रहा है लेकिन इसका मतलब समझने से इतनी गफलत है कि इस पर जितना ताज्जुब किया जाए कम है,*
*"✪_इसका मतलब गौर से सुनिए और इसके मुताबिक अमल करने की कोशिश कीजिए, मुबारक बाद दुआ है जिसका मतलब ये है कि जिस नियामत और खुशी पर ये दुआ दी जा रही है उस नियामत से जो मक़सद है उससे फायदा नाम हो और उसमें दवाम हो यानी फायदा ज़्यादा से ज़्यादा हो और ये फ़ायदा हमेशा रहे बल्कि इसमें रोज़ बा रोज़ तरक़्की होती रहे,*
*"✪_ मसलन शादी मुबारक का मतलब ये है कि मियां बीवी दोनों एक दूसरे के लिए दुनिया व आख़िरत में राहत व सुकून का ज़रिया बने और सालेह औलाद पैदा हो जो वाल्देन के लिए सदक़ा जारिया हो,,*
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*⇰ महर खालिस औरत का हक़ है,*
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*✪_महर शर'अन औरत का हक़ है, अगर निकाह के वक़्त महर का नाम न लिया जाए तब भी निकाह तो मुनअक़्द हो जाता है फिर भी महर देना लाज़िम है, अगर शादी के मौक़े पर महर की कोई मिक़दार मुतय्यन की तो वो अदा करना लाज़मी है, अगर निकाह के वक़्त अदा नहीं किया तो महर शोहर के ज़िम्मे क़र्ज़ हो गया जिसकी अदायगी लाज़िम है,*
*✪_और अगर निकाह के वक़्त महर मुक़र्रर नहीं हुआ और गवाहों की मोजूदगी में इजाब व कुबूल कर लिया तो महर मिशल यानी औरत के खानदान की दूसरी लड़कियों के लिए जो महर मुकर्रर हुआ वो उस लड़की को भी मिलेगा,*
*✪_मुक़र्रह महर नक़दी की शक्ल में हो या सोना चाँदी या जायदाद की शक्ल में, चाहे निकाह के वक़्त अदा कर दिया गया हो या शोहर के ज़िम्मे बाक़ी हो….ये खालिस औरत का हक़ है, इसमे औरत को हर तरह के तसर्रूफ़ का मुकम्मल अख़्तियार है . इसमें लड़के के वाल्देन, अजी़जो़ अका़रिब में से किसी का कोई हक़ नहीं, बल्कि शोहर को भी अख्तियार नहीं कि औरत की इजाज़त के बगैर महर फ़रोख़्त करे या उसमें किसी तरह का तसर्रुफ़ करे,*
*®_रद्दुल मुहतार-3/105,*
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*⇛महर की अदायगी कब लाज़िम है?*
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*✪_ निकाह के वक़्त तय शुदा महर या महरे मिशल वाजिब हो जाता है, जब रुखसती होकर मियां बीवी तन्हाई में एक दूसरे से मुलाक़ात कर लें, या इससे पहले ही किसी एक का इंतिक़ाल हो जाए, दोनों ही सूरतों में ये महर अदा करना लाज़िम और मोअक़दा हो जाता है,*
*✪_ औरत को मुतालबा करने का पूरा पूरा हक़ हो जाता है, अलबत्ता अगर खिलवते सहीहा से पहले तलाक़ वाक़े हो जाये तो मुकर्ररा महर का आधा हिस्सा साक़ित हो जाएगा, अगर ऐसी सूरत में महर तय शुदा ना हो तो अब महर लाज़िम नहीं होगा, अलबत्ता दरमियाना दर्जें का एक जोड़ा लाज़िम होगा,*
*®_ रद्दुल मुहतार - 3/102,*
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*⇰महर की मिक़दार:-*
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*✪⇛ महर की कम से कम मिक़दार:- शरीयत ए मुताहरा ने निकाह के लिए महर को जरूरी क़रार दिया है, इसकी कम से कम मिक़दार फुक़हा ए अहनाफ़ के नज़दीक 10 दिरहम चाँदी या इसकी क़ीमत है,10 दिरहम चाँदी का वज़न 34.020 ग्राम चाँदी,(तक़रीबन 3 तोला चाँदी)*
*✪⇛ महर की ज़्यादा मिक़दार कितनी ?_शरीयते मुताहरा ने महर की मिक़दार मुतय्यन कर के वाजिब क़रार नहीं दिया कि हर मर्द पर शादी के वक़्त इतना महर अदा करना हर सूरत मे लाजिम है और इसकी ज़्यादा से ज़्यादा मिक़दार की भी कोई हद मुक़र्रर नहीं की गई, बल्कि इसे शोहर की हैसियत और इस्तेतात पर मोकू़फ रखा है कि जो शख्स जिस क़दर महर देने की इस्तेतात रखता हो उसी क़दर मुक़र्रर करे,*
*✪_ अलबत्ता महर की कम से कम हद ज़रूर मुक़र्रर की गई है ताकि कोई शख़्स इससे कम महर ना बांधे, चुनांचे हनफिया के मसलक में कम से कम मिक़दार 10 दिरहम है,*
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*⇰ भारी महर की मुमा'अनत,*
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*✪_ अलबत्ता बहुत ज़्यादा महर मुक़र्रर करना शरअन पसंददीदा बात नहीं है, चुनांचे रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम की अज़वाजे मुताहरात और बनाते तैय्यबात के लिए जो महर मुक़र्रर हुआ वह वो निहायत मोअतदल और मुनासिब है, आम हालात में इसी पर अमल किया जाये तो बेहतर है,*
*✪_ हज़रत उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु के बारे में मनकूल है कि उन्होंने फरमाया, “ख़बरदार औरतों का भारी महर ना बांधो, अगर भारी महर बांधना दुनिया में बुज़ुर्गी और अज़मत का सबब और अल्लाह तआला के नज़दीक तक़वे का मोजिब होता तो यक़ीनन नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम इसके ज़्यादा मुस्तहिक़ थे, (आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम भारी से भारी महर बांधते), मगर मैं नहीं जानता कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने 12 औकिया से ज़्यादा महर पर अपनी अज़वाज मुताहरात से निकाह किया हो, या इससे ज़्यादा महर पर अपनी साहबजादियों का निकाह कराया हो:''*
*®_ अहमद, तिर्मिज़ी, अबु दाउद, इब्ने माजा, नसाई, मिश्कात-2,*
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*⇰कम महर वाली औरत बा -बरकत है,*
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*✪_हजरत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से मरवी है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि बा-बरकत औरत वो है कि जिसका खर्चा कम हो,*
*"_इसकी शरह में मुल्ला अली क़ारी रह. ने फरमाया, "उस औरत का महर कम हो और वो औरत क़नाअत पसंद हो, जिसकी वजह से ज़्यादा कमाई के लिए शोहर को परेशानी ना उठाना पड़ती हो, क़नाअत एक लाज़िम दौलत है,"*
*®_ मिर्कात शरह मिश्कात, 6/270,*
*✪_खुलासा कलाम ये है कि हदीस में औरत का महर कम होने को का़बिले तारीफ क़रार दिया है, इसी पर अमल होना चाहिए,*
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*⇰महर ए फातमी की तफ़सील,*
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*✪_ महर ए फातमी से मुराद महर की वो मिक़दार हे जो हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा के लिए तय हुई थी, इसलिए इसको महर ए फातमी कहा जाता है,*
*✪_ निकाह में महर ए फातमी मुक़र्रर करना शरअन ज़रूरी नहीं, इससे कम या ज़्यादा मुक़र्रर किया जा सकता है क्योंकि खुल्फा ए राशीदीन और सहाबा किराम से महर ए फातमी से ज़्यादा मुक़र्रर करना साबित है और कम मुक़र्रर करना भी साबित है,*
*✪⇨हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा के महर की मिक़दार क्या थी, इस बारे मे दो रिवायात हैं, सही रिवायत के मुताबिक़ इसकी मिक़दार 480 दिरहम या 1632 ग्राम भी कह सकते हैं, तोला के लिहाज़ से 1632 ग्राम तक़रीबन 140 तोला हुआ,*
*®_अहसनुल फतावा, 17/5,*
*✪_ हज़रत मुफ़्ती शफ़ी साहब रह. की तहकी़क़ के मुताबिक़ 131 तोला 3 माशा चाँदी है, (हाशिया बहिश्ती ज़ेवर महर का बयान)*
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*⇛महर माफ़ करवाना:-*
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*✪_ एक रिवाज ये चल पड़ा है कि शुरू में बड़ी मिक़दार में महर तय कर लिया जाता है, निकाह फार्म में भी लिखा जाता है और निकाह के वक़्त सबके सामने इजाब व कुबूल में इस भारी महर का ज़िक्र किया जाता है कि इतने महर की एवज़ में निकाह कुबूल किया, लेकिन बाद में मुख़्तलिफ़ हीले बहानों के ज़रिये महर माफ़ करवाने की कोशिश की जाती है,*
*✪_ पहले गुजर चूका है कि महर खालिस औरत का हक़ है, उसको हक़ महर में तसर्रुफ का मुकम्मल अख्तियार है, शोहर या किसी और को वापस लेने या औरत की रजामंदी के बगैर उसमें तसर्रुफ करने का बिल्कुल अख्तियार नहीं, और ज़बदस्ती माफ़ करवाने से माफ़ भी नहीं होगा, और ये भी याद रहे कि ज़बरदस्ती माफ़ करवाना ये दर हक़ीक़त माफ़ी नहीं बल्कि एक तरह का गसब है कि ज़बरदस्ती औरत के हक़ पर क़ब्ज़ा कर लिया,*
*✪_ शर'अन इसको माफ करना भी नहीं कहा जा सकता, इससे शोहर का ज़िम्मा फारिग ना होगा, ज़िंदगी में अदा करना लाज़िम रहेगा, अगर जिंदगी में अदा नहीं किया तो मरने के बाद उनके तर्के से महर का क़र्ज़ वसूल करके बीवी के हवाले किया जायेगा,*
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*⇰शोहर को महर हदिया करना,*
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*✪_ औरत बगैर किसी ज़बरो कराह के अपनी रज़ा व रगबत से महर का कुछ हिस्सा या कुल महर शोहर को हदिया कर दे, ये शोहर के लिए हलाल है, चुनाचे इरशादे बारी ताअला है (सूरह अन-निसा, आयत- 4):-*
*✪ _( तर्जुमा) तुम लोग बीवीयों को उनका महर ख़ुशदिली से दे दिया करो, अगर वो बीवियां ख़ुशदिली से छोड़ दें तुमको उस महर में कोई हिस्सा (और यही हुक्म कुल का भी है) तो (इस हालत है) तुम उसको खाओ (काम में लो) मजेदार ख़ुशगवार समझकर,*
*✪_इस आयत की तफ़सीर करते हुए हज़रत मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी साहब रह. तहरीर फरमाते हैं:- महर के मुताल्लिक़ अरब में कई क़िस्म के ज़ुल्म होते थे, एक ये कि महर जो लड़की का हक़ है उसको ना दिया जाता था, बल्कि लड़की के वली (वाल्देन) शोहर से वसूल कर लेते थे, जो सरासर जुल्म था, इसको दफा करने के लिए कुरान ए करीम ने फरमाया कि शोहर अपनी बीवी का महर खुद बीवी को दे और दूसरे को ना दे, और लडकियों के वली (वाल्देन) अगर लड़कियों के महर उनको वसूल हो जाएं तो ये लड़कियों ही को दे, उनकी इजाज़त के बगैर अपने तसर्रुफ़ में ना लाएं,*
*✪_दूसरा ज़ुल्म ये था कि अगर कभी किसी को महर देना भी पड़ गया तो बहुत तल्खी और नागवारी के साथ तावान समझ कर देते थे, इस ज़ुल्म का इज़ाला आयते मज़कूरा में करते हुए फरमाया कि खुश दिली के साथ दिया जाए,*
*✪_गर्ज़ इस आयत में ये तालीम फरमाई गई कि औरतों का महर एक हक़ ए वाजिब है, इसकी अदायगी ज़रूरी है और जिस तरह तमाम हुक़ूक़ ए वाजिबा को खुश दिली के साथ अदा करना ज़रूरी है उसी तरह महर को भी समझना चाहिए _, (म'आर्फुल कुरान -2/297)*
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*⇰महर ए मिस्ल:-*
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*✪_ महर ए मिस्ल का मतलब ये है कि औरत के बाप के घराने में से जो औरत उसके मिस्ल (बराबर की) हो, यानी अगर ये कम उम्र है तो वो भी निकाह के वक्त कम उम्र हो, अगर ये खूबसूरत है तो वो भी खूबसूरत हो, जिस इलाक़े की ये रहने वाली है उसी इलाक़े की वो भी हो, अगर ये दीनदार होशियार या सलीक़ामंद, पढ़ी लिखी है तो वो भी ऐसी ही हो,*
*✪_गर्ज़ वालिद के खानदान में जो औरतें इन बातों में उसकी तरह थी, उनका जो महर तय हुआ था वही उसका महर ए मिस्ल है,*
*®_रद्दुल मुहतार-3/137,*
*✪_ बाप के घराने की औरतों से मुराद उसकी फुफियां, चाचाजा़द बहनें वगेरा हैं, महर मिस्ल में मां का महर नहीं देखा जाता, अगर मां भी बाप ही के घराने से हो, जैसे बाप ने अपने चाचा जा़द से निकाह कर लिया था तो उनके महर को भी "महर मिस्ल" कहा जायेगा_,"*
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*⇰जहेज़ की शरई हैसियत,*
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*✪_बाप का अपनी बेटी को निकाह के वक़्त जहेज़ देना सुन्नते नबवी सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम है, चुनांचे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने अपनी साहबजा़दी हजरत फातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा को शादी के वक्त जहेज़ दिया था, अलबत्ता इसमे इसका इतना अहतमाम करना मुनासिब नहीं कि जिससे परेशानियाँ हों और क़र्ज़ का बड़ा बोझ हो जाए,*
*✪_ बाक़ी अपनी हैसियत के मुवाफिक़, रियाकारी, शोहरत पसंदी से बचते हुए कुछ ज़रूरी सामान दे दिया जाए तो इससे सुन्नत अदा हो जाएगी, लेकिन आज के दौर में सुन्नत से निकल कर ये अज़ाब बन गया है, इसमें ऐतदाल की राह अपनाना बहुत जरूरी है,*
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*⇰ सामाने जहेज़ लड़की की मिल्क है,*
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*✪_ निकाह व रुखसती के वक़्त जो सामान, बर्तन, फर्नीचर, लिबास व दीगर चीज़ें वाल्देन की तरफ से लड़की को दिया जाता है वह लड़की की मिल्क है, वाल्देन के लिए उसको वापस लेना जरूरी नहीं,*
*✪ _नीज़ तलाक वगैरा के ज़रिये जुदाई की सूरत में शोहर या उसके घर वालो का लड़की के माल पर क़ब्ज़ा कर लेना भी जायज़ नहीं बल्कि सारा सामान वापस करना ज़रूरी है, अलबत्ता खुला की सूरत में अगर किसी माल को खुला का ऐवज़ ठहराया गया तो वो शोहर रख सकता है,*
*✪_ इसके अलावा रुखसती के मौक़े पर लड़के वालों की तरफ से लड़की को ज़ेवरात पहनने का रिवाज़ है, आम तोर पर लड़की को उस ज़ेवर का मालिक नहीं बनाया जाता इसलिए लड़की मालिक ना होगी, हां सराहत के साथ उसको हदिया तोहफा के नाम पर दें तो वो लड़की की मिल्क है वापस लेना ज़रूरी ना होगा,*
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*⇰दामाद का ससुराल वालों से जहेज़ का मुतालबा बे- गैरती हे,*
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*✪ _ बाज़ लोग लड़की वालो से सामाने जहेज़ का मुतालबा (डिमांड) करते हैं, मसलन – गाड़ी, घड़ी, लिबास, पोशाक वगेरा फलां फलां चीज़ें होने वाले दामाद को देना होगा वर्ना हम लड़की कुबूल नहीं करेंगे”, इस तरह किसी चीज़ का मुतालबा करना शरअन जायज़ नहीं, ये नादानी, बे-गैरती, बे-शर्मी की बात है,*
*✪_ दामाद पर ससुराल वालों पर इस तरह कोई हक़ नहीं है कि उनसे मखसूस सामान का मुतालबा करे, इसी तरह इसको रिवाज़ क़रार देना कि लोग मुतालबे के बगैर देने पर मजबूर हो जाएं, ये भी ग़लत है, लिहाज़ा इसे इज्तनाब करना (बचना ) लाज़िम है, क्योंकी सहाबा किराम, ताबईन, आइम्मा ए दीन रह. के हालात में ऐसा कोई वाक़िया नहीं मिलता, जिसमें उन्होंने लड़की वालों से सामान का मुतालबा किया हो, इसलिए मर्द को चाहिए खुद्दार रहे, लालच और हिर्स से दूर रहे_,"*
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*⇰जहेज़ का शरई मसला, (जरूर पढ़ें),*
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*✪_ आम तोर पर जहेज़ इतना ज़्यादा देते हैं कि उसकी मालियत से हज किया जा सकता है, इसलिए अगर जहेज़ का पूरा सामान लड़की की मिल्क में दे दिया जाए और हज के फॉर्म भरे जाने के वक्त में भी लड़की की मिल्क में हो तो फोरन उसी साल उसके लिए हज पर जाना फ़र्ज़ हो जाएगा, अब ये वाल्देन की ज़िम्मेदारी है कि उसे हज करवाये,*
*✪ _अगर ये ख्याल करें कि दूसरे साल जायेंगे या बाद मैं कभी चले जायेंगे तो पहली बात तो ये है कि क्या मालूम दूसरे साल तक ज़िंदा भी रहे या नहीं, और अगर दूसरे साल तक ज़िंदा रह गए और हज भी कर लिया तो भी ताख़ीर (देर से) करने का गुनाह होगा, हज का फ़र्ज़ तो अदा हो जाएगा मगर ताख़ीर करने का गुनाह भी ज़िम्मे रहेगा कि क्यू देर की ?*
*✪_ जो वाल्देन औलाद पर हज फ़र्ज़ कर देते हैं लेकिन हज कारवाने का इंतज़ाम नहीं करते वो मुजरिम ठहरेंगे,*
*✪_अगर लड़की को मालिक नहीं बनाया जाए और बहुत बड़े सामान जहेज़ के लिए जमा कर लिया जाए और ऐसा होशियार वालिद अगर मर गया तो सारा माल वारिसों में तक़सीम होगा, लड़कियों को सिर्फ उतना ही मिलेगा जितना शरीयत की तरफ से विरासत में उसका हक़ है, पूरा माल तो हरगिज़ नहीं मिलेगा चाहे उनकी वालिद वसीयत कर जाए कि ये जहेज़ उन लड़कियों का हे, ऐसी तहरीर लिखकर रजिस्ट्रेशन करावा ले, हज़ारों गवाह बना ले, कुछ भी करले बहरहाल लड़कियों को उतना ही हिस्सा मिलेगा जितना शरीयत ने मुकर्रर किया है,*
*✪_वारिस के हक़ में वसीयत मोतबर नहीं, तो ज़रा सोचिए कि लड़की के लिए इतना कुछ जमा करने का क्या फायदा ? ऐसी हिमाकत क्यूं? इस सूरत में जहेज़ के लिए रखे सोने चांदी की ज़कात भी फर्ज है,*
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*⇰ _जहेज़ देने की वजह मुहब्बत या लोगों का खौफ़ ?*
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*✪_वाल्देन ये कहते हैं कि हम तो बेटी से मुहब्बत की वजह से देते हैं' इसमें हर्ज क्या है? इस बारे में ये समझ लें कि घर में बैठकर बात बना लेना आसान है, किसी साहिबे नज़र को नब्ज़ दिखायें वो बताएं कि तेरे अंदर कौनसी खराबी है?*
*✪_ये जो कहते हैं कि बेटी से मुहब्बत है, मुहब्बत की बिना पर जहेज़ देते हैं, ज़रा इसका तजुर्बा सुनिए, जब बेटी पैदा हुई उस वक्त में भी मुहब्बत थी, पैदा'इश से ले कर शादी के वक़्त तक मुहब्बत है, शादी हो जाने के बाद भी मरते दम तक मुहब्बत रहेगी, तो शादी के वक़्त ही मुहब्बत को जोश क्यों उठता है? इसकी वजह ये है कि अगर नहीं देंगे तो लोग ताने देंगे, नाक कट जाएगी, लोगों में इज़्ज़त नहीं रहेगी, लोग ताने देंगे कि बेटी को घर से ऐसे निकाल दिया जैसे मर गई हो, कफन दे कर निकाल दिया कुछ दिया ही नहीं_,"*
*✪_हाल ये है लोगों का कि कहते है कि अगर हमने बेटी को जहेज़ नहीं दिया तो ससुराल वाले तो उसे ताने दे दे कर मार देंगे और दूसरे लोग भी वाल्देन को ताने देंगे, आप सारी दुनिया की दौलत भी समेट कर बेटी को दे दें सास तो फिर भी ताने देगी, ये उज्र गलत है कि मुहब्बत की वजह से करते हैं, दर हक़ीक़त ये लोगों के डर से करते हैं,*
*✪_ सोचिए जब वाल्देन जहेज़ देते हैं लोगों के डर से, सास के डर से तो खुशी से कहां देते हैं ? क़र्ज़ ले ले कर, भीख मांग मांग कर जहेज़ जमा करते हैं, लोगों के दरवाज़े पर जा जा कर कहते हैं कि लड़की का जहेज़ बनाना है ज़कात दे दें और बेगैरत बेशरम है वो दूल्हा जो जहेज़ कुबूल कर लेता है, इससे ज़्यादा बेगैरत कौन होगा? इससे बेहतर ये नहीं था कि शादी ही ना करे, भीख में मिला हुआ जहेज़ कुबूल कर लेते हैं ऐसे बेगैरत लोग हैं,*
*✪_सोचिए कि लोगों के खौफ से देते हैं तो बेटी और दामाद के लिए भी हलाल नहीं हराम होने का यक़ीन नहीं तो कम से कम मुश्तबा तो हो ही गया, जिसमें हराम होने का शुबहा हो वो जहेज़ क्यूं इस्तेमाल किया जाए?*
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*⇰_जहेज़ देने से विरासत ख़त्म नहीं होती :-*
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*✪_ अगर मुहब्बत की वजह से जहेज़ दे रहे हैं तो ज़रा गोर करें बहुत क़ीमती बात है, अगर मुहब्बत की वजह से बेटी को दे रहे हैं तो बेटियों को जायदाद में क्यों शरीक नहीं करते? अपनी तिजारत में, कारख़ानो में, मकानों में, ज़रई ज़मीन में से कुछ हिस्सा दें अपने साथ शरीक कर लें तो इसमें बेटी का फ़ायदा है लेकिन लोग ऐसा नहीं करते बल्कि उनकी कोशिश होती है कि बेटी को जायदाद में शरीक ना करें जायदाद सिर्फ बेटों की रहे _,'*
*✪__दावे मुहब्बत के और कोशिश ये कि जायदाद में से बेटी को कुछ ना मिले, बस कुछ कपड़े दे दिए और सोफे कुर्सियां दे दिए और बस खुश कर दिया बेटी को, अरी मेरी बेटी! तुझसे इतनी मुहब्बत है कि तेरी मुहब्बत में तो हम मरे जा रहे हैं, उसे थपकियां दे दे कर खुश कर रहे हैं, सोचिए! ज़रा गौर से कि अगर मुहब्बत है तो बेटियों को जायदाद से मेहरूम क्यों करते हैं?*
*✪_ एक मसला और समझ लेना चाहिए कि बहुत से लोग ये कहते हैं कि हमने जो बेटी को जहेज़ दे दिया उसके बाद विरासत में उसका हक़ नहीं रहा क्योंकि हमने नियत की थी के ये जो कुछ उसे दे रहे हैं ये विरासत का हिस्सा है,*
*✪_ ये भी गलत है आप उसे जहेज़ में कितना ही दे दें मगर विरासत का हिस्सा जो कि शरीयत ने मुकर्रर कर दिया वो पूरे का पूरा मोजूद है, जहेज़ देने से बेटी मेहरूम नहीं होती, लोग समझते हैं कि अपनी जिंदगी में उसे इतना दे दिया तो अब विरासत में उसका हिस्सा नहीं रहा, ये बिल्कुल गलत है, जिंदगी में विरासत जारी नहीं होती किसी को कितना ही दे दें वो उसके लिए हिबा है, विरासत तो जारी होगी मरने के बाद, मगर मरने का ख्याल तो आज कल मुसलमान को आता ही नहीं, ये समझता है कि मरेगा ही नहीं, अल्लाह ताला इन्हें अक़ल अता फ़रमाये,*
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*⇰ जहेज़ के बजाय नक़दी दें,*
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*✪_ आखिरी दर्जे की एक बात ये है कि नक़दी की सूरत में जहेज़ दे दें, जो सामान ट्रक भरकर जहेज़ में देते हैं उसकी बजाय इतनी रकम बेटी को दे दें, बल्कि जहां एक लाख का सामान है तो एक लाख की बजाय दो लाख दे दें किसी को कोई इश्काल नहीं होगा,*
*✪_मगर इस तरह नक़दी की सूरत में कोई नहीं देगा, क्योंकि अगर नक़दी दिया तो लोगों को पता ही नहीं चलेगा, लोगों को तो दिखाना मक़सूद है, बल्कि लोगों को जमा करके पहले दिखाते हैं, चाहे नालायक ने क़र्ज़ ले कर भीख माँग कर ही क्यूं ना दिया हो,*
*⇛ नक़दी देने के फ़ायदे,*
*☆_ 1- नक़दी की सूरत में अपनी लड़की को हदिया दे दिया तो अगर उस पर हज फ़र्ज़ हो गया तो वो हज कर लेगी,*
*☆_2- अगर नक़द पैसा दे दिया तो फिर अल्लाह के बंदों और बंदियों के हालात मुख़्तलिफ़ होते हैं, बाज़ राहे खुदा में सारा माल भी लगा देते हैं, ये लोग तो खुद पर हज फ़र्ज़ होने ही नहीं देते, अगर बेटी को जहेज़ की जगह नक़दी दे दी तो वो बेटी अगर अल्लाह की बंदी है, उसके दिल में फ़िक्रे आख़िरत है, दिल माल की मुहब्बत से पाक है तो वो तो लगा देगी सारी रक़म अल्लाह के रास्ते में, हज फ़र्ज़ ही नहीं होने देगी,*
*☆_ 3- नक़दी में तीसरा फ़ायदा ये है कि मियां बीवी अपनी मसलिहत के मुताबिक़ जिस चीज़ की ज़रूरत होगी पूरी कर लेंगे, पैसा तो ऐसी चीज़ है कि उससे हर ज़रूरत पूरी हो सकती है_,*
*☆_4 अगर उन्हें कोई फोरी जरूरत नहीं और हज अदा करने के बाद भी रक़म बच गई लेकिन अल्लाह की राह में लगाने की हिम्मत नहीं हो रही तो उस रक़म को किसी तिजारत में लगा देंगे, बेटी और उसकी औलाद के लिए एक ज़रिया आमदनी हो जाएगा,*
*(हजरत मुफ्ती अब्दुल रशीद अहमद लुधियानवी रह.)*
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*⇰वलीमा की शरई हैसियत,*
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*✪_ दावते वलीमा करना सुन्नत है, वलीमा का मसनून वक्त दुल्हन को घर लाने और हम बिस्तारी के बाद का वक्त है, रसूलुल्लाह ﷺ ने शबे ज़िफाफ के बाद वलीमा फरमाया, इसलिए जम्हूर का मसलक यही है, ताहम बाज़ उलमा ने इसमें वुसअत का क़ौल अख्तियार किया है कि निकाह हो जाने के बाद उसी वक्त या उसके बाद या रुखसती के या हमबिस्तारी के बाद जिस वक्त भी वलीमा किया जाएगा वलीमा की सुन्नत अदा हो जाएगी,*
*✪_ अक़्द ए निकाह से पहले वलीमा की कोई असल नहीं, यानि निकाह से पहले किसी भी तरह वलीमा की सुन्नत अदा नहीं हो सकती, अगर किसी ने निकाह से पहले खाना खिलाया तो मुबाह तो है वलीमा का अजरो सवाब हासिल नहीं होगा,*
*®_फतावा उस्मानी, 3/303,*
*✪_ दावत वलीमा उस दावत को कहा जाता है जो शादी के बाद लोगों को खिलाया जाता है, इसके लिए दिनों की खास तादाद मुकर्रर नहीं, बल्कि इसको शादी करने वाले की इस्तेताअत पर भी छोड़ा गया है, अगर वो एक से ज़्यादा दिनों की दावत करना चाहता है तो इसमें कोई क़बाहत नहीं, लेकिन एक से ज़्यादा दिनों तक करने में फ़ख़रो गुरुर या रियाकारी, शोहरत पसंदी जैसे मक़ासिद शामिल हों तो फ़िर इस नियत से दावत करना जायज़ नहीं,*
*⇨हजरत मुफ्ती महमूद हसन रह. फ़रमाते हैं कि दावते वलीमा शादी व रुखसती से 3 रोज़ तक होती है, इसके बाद नहीं,*
*®_फ़तावा महमूदिया, 4/391,*
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*⇰वलीमे की दावत कुबूल करना चाहिए,*
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*✪_ बाज़ उलमा की राय ये है कि शादी बियाह की खाने की दावत कुबूल करना वाजिब है, अगर बिला किसी शरई उज्र के दावत कुबूल न करेगा तो गुनहगार होगा, कुबूल करने से मुराद शादी में शिरकत है, ये बाज़ उलमा के यहां वाजिब और बाज़ के यहां सुन्नत ए मुस्तहबा है,*
*✪_ बाकी शरीक होने के बाद खाना तो इस बारे में मसला यह है कि अगर रोजे़दार न हो तो खाने में शरीक होना मुस्तहब है, शादी के अलावा दूसरी दावतों का कुबूल करना मुस्तहब है,*
*✪_ बिन बुलाए दावत में शरीक करना बड़ा गुनाह है, बाज़ लोग बिन बुलाए किसी दावत में शरीक हो जाते हैं, बाज़ जहां कोई दावत हो रही हो एक शख़्स को उस दावत में बुलाया नहीं गया बस महज़ इल्म होने पर वहां पहुंच कर दावत में शरीक हो गया तो ये बड़ा गुनाह है, हदीस में इस पर सख़्त वईद वारिद हुई है, ऐसे शख़्स को डाकू क़रार दिया है, इसलिए इज्तिनाब करना लाज़िम है,*
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*⇰लड़की वालों की तरफ से दावत मसनून नहीं,*
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*✪ _नबी करीम ﷺ के ज़माने में रुखसती का कोई खास तरीक़ा नहीं था और न ही बारात और लोगों के इज्तेमा का कोई एहतमाम था, जेसा कि हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा को उनकी वाल्दा मोहतरमा ने रुखसत किया और हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा को रसूलुल्लाह ﷺ ने हज़रत उम्मे ऐमन रज़ियल्लाहु अन्हा के साथ हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के घर रवाना फरमाया,*
*✪_अलबत्ता अगर पर्दे का एहतमाम हो, मर्दों के साथ इख्तिलात वगेरा मुफासिद ना हों तो रुखसती के वक्त क़रीबी रिश्तेदार ख्वातीन के घर में जमा होने की गुंजाइश है और उनके लिए बा-क़द्रे जरूरत खाने का इंतेजाम करना भी दुरुस्त है, लेकिन खाने को सिर्फ मेहमान नवाजी़ की हैसियत दी जाए, इसको वलीमे की तरह दावत ए मसनूना न समझा जाए, क्योंकि रुखसती के वक़्त लड़की वालों की तरफ से खाने का इंतेज़ाम शरीयत में साबित नहीं,*
*✪_हजरत मुफ्ती मेहमूद हसन साहब रह. फरमाते हैं 'सही ये है कि वलीमा लड़का और उसके औलिया करेंगे, लेकिन जो लोग लडक़ी वालों के मकान में मेहमान आते हैं उनका मक़सद शादी में शामिल होना है और उनको बुलाया भी गया है तो आखिर वो खाना कहां जा कर खाएंगे और अपने मेहमानों को खाना खिलाना शरीयत का हुक्म है, और रसूलुल्लाह ﷺ ने ताकीद फरमाई, अलबत्ता लड़के वालों की तरफ से वलीमा की दावत है, लड़की वालों की तरफ से साबित नहीं,*
*®_फतावा महमूदिया, 17/392,*
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*⇰_निकाह के मौक़े पर मिठाई वगैरा तक़सीम करना:-*
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*"❥_ मजलिस निकाह में खाने पीने की चीज़ें तक़सीम करना ख्वाह वो चीज़ खजूर या मिठाई हो या दूसरी चीज, ना फ़र्ज़ है ना वाजिब और ना सुन्नत मोकदा है, क्योंकि सही रिवायत में निकाह के वक्त इन चीजों की तक़सीम का ज़िक्र नहीं आया है, ना आन हजरत ﷺ ने इसका हुक्म फरमाया है, ना आप ﷺ के विसाल के बाद आप ﷺ के सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ने इस पर अमल फरमाया है,*
*"❥_ लिहाज़ा अगर अमल को लाज़िम या सुन्नत समझ कर किया जाये तो ना-जाइज़ हुआ, लेकिन अगर निकाह के वक्त खाने पीने की चीज़ों की तक़सीम इस ग़र्ज़ से की जाए कि चुंकी ये एक मुबारक मजलिस और नेक तकरीब है जिसमें मुसलमान मर्द और औरत के दरमियान अक़्दे निकाह किया गया है जो एक इबादत भी है और खुदा की तरफ से एक नियामत भी, लिहाज़ा इस मोके़ पर शुक्राने के तोर पर या फ़रीक़ीन में से एक फ़रीक़ इस नियत से खाना खिलाने का इंतज़ाम कर दे कि आपस में मुहब्बत बढ़े और दोस्ती मज़बूत हो जाए तो ऐसा करने में शरअन कोई क़बाहत नहीं है और कुछ बईद नहीं कि तालीफ़े कुलूब की नियत से किया गया ये अमल अजरो सवाब का ज़रिया बन जाए,*
*"❥_क्योंकि शरीयत ने हर उस अमल की तरगीब दी है जिसकी वजह से आपस में बाहमी मुहब्बत बढ़ती हो और दीनी ताल्लुक़ात मजबूत होते हों,*
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*⇰_बारात को खाना खिलाने के लिए लड़की वालों से मुतालबा करना :-*
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*✪"_ कुछ इलाक़ो में लड़की वाले बारात वालों को खाना खिलाने के लिए रक़म का मुतालबा (डिमांड) करते हैं, लड़की वालों का बारातियों की ज़ियाफ़त करने के लिए लड़के वालों से रक़म का मुतालबा करना जायज़ नहीं है, ख़ुसूसन जब ये रक़म ना देने की सूरत में लड़की वाले रुखसती करने पर भी अमादा न हों तो ऐसी सूरत में मुतालबे की क़बाहत मजी़द बढ़ जाती है,*
*✪"_इसलिये जिन इलाक़ो और क़ौमो में ये रस्म आम हो चुकी है उन पर ये रस्म ख़त्म करना और इससे इज्तिनाब करना वाजिब है, फिर भी अगर लड़के वाले अपनी खुशी से ये रक़म देना चाहें तो इसमें कोई हर्ज भी नहीं, इस शर्त के साथ कि इसको रस्म ना बनाया जाए _,*
*✪"_ और ये मसला भी समझना ज़रूरी है कि रुखसती के मौक़े पर बारात में आने वालों के लिए लड़की वालो की तरफ से खाने का एहतमाम करना ना तो मसनून है और ना ही मुस्तहब, बल्की शरई हुदूद की रियायत के साथ ये सिर्फ एक मुबाह और जाइज़ अमल है,*
*✪"_ लेकिन अगर इसको सुन्नत या लाज़िम समझा जाए, इसमें रियाकारी और नाम व नमूद, इसराफ़ और दीगर ग़ैर शरई कामों का इरतिकाब किया जाए, इसको शादी का लाज़मी हिस्सा समझा जाए या इसको रस्म बना लिया जाए जेसा कि कई जगहों पर यही सूरते हाल देखने को मिलती है तो ऐसी सूरत में इससे मुकम्मल इज्तिनाब किया जाए_,*
*✪"_ और जब बारात वालों को खाना खिलाना लड़की वालों की इस्तेता'त में ना हो तो ऐसी सूरत में उन पर ये लाज़िम भी नहीं कि वो उन मेहमानों को खाना खिलाये या उसके लिए क़र्ज़ लें,*
*®किताबुन निकाह_,*
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*⇰ सुन्नत से ऐराज़ और नफ़सानी ख्वाहिशात की पेरवी गुमराही है,*
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*✪_तमाम मुसलमानों पर लाज़िम है कि जनाबे रसूलुल्लाह ﷺ की कामिल व मुकम्मल इत्तेबा करे, यही कामयाबी का राज़ है, इसी से अल्लाह तआला की रज़ा व खुशनुदी हासिल होती है और मोमिन जन्नत का मुस्तहिक़ बनता है,*
*✪_चुनांचे जनाब नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया कि - मेरी तमाम उम्मत जन्नत में दाख़िल होगी मगर वो शख़्स जिसने इन्कार किया और सरकशी की (जन्नत में दाख़िल न होगा) पुछा गया वो कौन शख़्स है जिसने इन्कार किया और सरकशी की? आप ﷺ ने इरशाद फरमाया कि जिसने मेरी इताअत व फरमाबरदारी की वो जन्नत में दाखिल होगा और जिसने मेरी नाफरमानी की उसने इंकार किया और सरकशी की _, (रवाह बुखारी, मिश्कात)*
*✪_सुन्नत से ऐराज़ करना बहुत बड़ा गुनाह है, इस पर सख्त वइदे हैं, चुनांचे नबी करीम ﷺ ने इरशाद फरमाया,''जो शख़्स मेरे तरीक़े से ऐराज़ करेगा वो मुझसे नहीं,'' (यानि मेरी जमात से खारिज है) (मिश्कात)*
*⇨यानी जो शख़्स मेरी सुन्नत से ऐराज़ करता है और मेरी बताई हुई हुदूद से तज़ावुज़ करता है तो इसका मतलब ये होगा कि वो मेरी सुन्नत और मेरे तरीक़े से बेज़ारी और बेरागबती कर रहा है, जिसका नतीज़ा ये है कि ऐसा शख़्स मेरी जमात से खारिज है, उसे मुझसे और मेरी जमात से कोई निस्बत नहीं,*
*✪ _जिसने हमारे दीन में कोई ऐसी बात निकाली जो इसमें नहीं वो मरदूद है, (बुखारी, मुस्लिम)*
*"_मतलब ये है कि इस हदीस में उन लोगों को मरदूद क़रार दिया जा रहा है, जो महज़ अपनी नफसानी ख्वाहिशात और ज़ाती अगराज़ की बिना पर दीन व शरीयत में नई बातें और नये नये तरीके़ पैदा करता है, ऐसी ग़लत बातों का इंतसाब शरीयत की तरफ करते हैं, जिसका इस्लाम में सिरे से वजूद ही नहीं, (मजा़हिरे हक जदीद,)*
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*⇰इत्तेबा ए ख्वाहिशात गुमराही है,*
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*✪_खुदाई हिदायत को छोड़ कर ख्वाहिशात की इत्तेबा करना, खिलाफे शरअ रस्म व रिवाज का इजाद करना और उसकी पेरवी करना बहुत खतरनाक काम है, इससे बसा अवक़ात आदमी ईमान की दौलत से हाथ धो बैठता है,*
*✪_चुनांचे इरशादे बारी ता'ला है (सूरह क़सस) यानि अगर ये लोग आपकी दलील और बात कुबूल ना करें तो समझ लें कि वो लोग महज़ ख्वाहिशात नफसानी के बंदे और मुत्तबा हैं (जिस चीज़ को उनका दिल माने कुबूल करते हैं और जिसको दिल कुबूल ना करे छोड़ देते हैं) और जो शख़्स अल्लाह की हिदायत तर्क कर के अपनी ख्वाहिश की पेरवी करने वाला है उससे ज़्यादा गुमराह कौन होगा? बेशक़ ऐसे ज़ालिम और बे इन्साफ़ लोगों को अल्लाह ताला हिदायत देने वाले नहीं हैं _, (बयानुल क़ुरान)*
*✪_रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि जिस शख्स ने किसी को हिदायत की तरफ बुलाया उसको उतना ही सवाब मिलेगा जितना उसको जो उसकी पेरवी करे और इस (पेरवी करने वाले) के सवाब में कुछ भी कम न होगा और जो किसी को गुमराही की तरफ बुलाए उसको उतना गुनाह होगा जितना उसको जो उसकी इताअत करें और उनके गुनाह में कुछ भी कम न होगा _, (मुस्लिम)*
*✪_ आज मुसलमानों में अका़इद की कमज़ोरी के साथ अमली कमज़ोरी भी तेज़ी से बढ़ रही है, बहुत से गलत अका़इद और जाहिलाना रस्मों रिवाज मुसलमानों के माशरे में दाख़िल हो गए हैं, हत्ताकि हमारे शादी ब्याह और दीगर तक़रीबात, इसी तरह ख़ुशी, गमी के दीगर मोके़, विलादत, मौत वगेरा में इस्लामी तालीमात को छोड़ कर महज़ गैरो की नकल और पेरवी की जा रही है,*
*⇨हत्ताकी इस बारे में इस्लाम का हुक्म क्या है? हुजूर सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम का तरीक़ा क्या है? वो भी नज़रों से ओझल होता जा रहा है, जो बहुत अफ़सोस की बात है,*
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*⇰ निकाह से पहले मंगेतर से बात और मुलाक़ात करने का हुक्म:-*
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*✪_ बंदा निकाह से पहले अपने मंगेतर से बात कर सकता है या नहीं? मिल सकता है या नहीं? वाज़े रहे कि मंगनी निकाह नहीं, बल्कि निकाह का वादा है, क्योंकि महज़ मंगनी हो जाने के बाद भी मंगेतर अजनबी ही के हुक्म में होती है, जिसका मतलब यही है कि जिस तरह अजनबी मर्द और औरत का आपस में गप शप लगाना और मुलाक़ात करना ना-जायज़ है, उसी तरह अपनी मंगेतर से गप शप लगाना और मुलाक़ात भी ना-जायज़ है,*
*✪ _ और इसकी वजह से बहुत से नुक़सानात और बुराईयां ज़ाहिर होने का भी अंदेशा होता है, इसलिए इससे इज्तिनाब करना ज़रूरी है_,*
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*⇰ महीनों को मनहूस समझना,*
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*✪_ बाज़ इलाक़ो वाले या बिरादरी वाले बाज़ महीनों को मनहूस समझ कर उसमें शादी बियाह की तक़रीब मुनअक़्द नहीं करते, ख़ुसूसन मुहर्रम और सफ़र के महीनों को मनहूस समझते हैं, इसलिए इन महीनों में शादी की तक़रीबात से डरते हैं, जबकि ये लोगों की बनाई हुई बातें हैं और सरासर शरीयत के ख़िलाफ़ अक़ीदा है,*
*✪ _आज से 14 सो साल पहले जनाबे रसूलल्लाह ﷺ इस क़िस्म के बातिल तोहमात की नफ़ी फ़रमा चुके हैं, लिहाज़ा इस बातिल अक़ीदे की बुनियाद पर शादी के बाज़ दिनों या तारीख़ों को मनहूस समझना शरअन जायज़ नहीं।*
*✪_ जनाबे रसूलल्लाह ﷺ ने इरशाद फरमाया जिसका मफ़हूम है कि मर्ज मुताअदी होने का अकी़दा, बदशगुनी (बद फाली) उल्लू (बोलने से नहुसत आने का अकी़दा) इसी तरह माहे सफर के मनहूस होने का अकी़दा शरीयत से साबित नहीं, अलबत्ता जुजा़मी शख़्स से इस तरह भागो जिस तरह शेर से भागते हो, (बुखारी, मिश्कात 2/391)*
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*⇰मेहंदी और हल्दी की रस्म,*
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*✪_शादी का मौका हो या आम हालात ख्वातीन के लिए अपने हाथों में मेहंदी लगाना शरअन एक पसंदीदा और मुस्तहब अमल है, शरअन औरत को हुक्म है कि मेहंदी लगाया करे ताकि उनके हाथ मर्दों के मुशाबे ना रहें,*
*"_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि एक औरत ने दीवार की ओट से आप ﷺ को एक पर्चा देने की कोशिश की, आप ﷺ ने वो पर्चा उनके हाथ से लेने से इन्कार फरमाया और इरशाद फरमाया कि मालूम नहीं मर्द का हाथ है या औरत का, तो अर्ज़ किया कि औरत का हाथ है, आपने इरशाद फरमाया कि अगर औरत का हाथ होता है तो मेहंदी लगा होता है, हाथ व नाख़ून मर्दों के मुशाबा न होता_, (अबू दाऊद, मिश्कात-2/382)*
*✪ _इस ज़माने में शादी से पहले रस्मे मेहंदी और रस्मे हल्दी के नाम से जो रस्म अदा की जाती है, उसमें शरअन कई क़बाहतें हैं, इस मक़सद के लिए बाज़ बिरादरी में मुस्तक़िल दावत होती है, मर्द औरतें इकट्ठे होते हैं और इसको ज़रूरी समझा जाता है, दावत ना करने पर लान तान होता है, रिश्तेदारों में जो इस दावत में शिरकत ना करे उसे भी लान तान का निशाना बनाया जाता है, इसलिए ये रस्म का़बिले तर्क है, इससे इज्तिनाब लाज़िम है,*
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*⇰_दुल्हा के लिए मेहंदी की रस्म:-*
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*✪_बाज़ इलाक़ो में शादी से पहले दूल्हा के घर में भी एक मुस्तक़िल रस्म मेहंदी के नाम से दावत होती है, इसमें भी दोनों तरफ़ के लोगो को दावत दी जाती है, ख़ुसूसन ख़्वातीन इसमें शिरकत करती हैं, दुल्हन की तरफ़ से आने वाली ख़्वातीन (दुल्हन की बहनें वगेरा) दूल्हे को मेहंदी लगाती हैं, जबकि शरअन मर्दों के लिए बतोर ज़ीनत हाथों में मेहंदी लगाना जायज़ नहीं _,*
*"✪_ एक रिवायत में रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि हाथों का भी ज़िना है कि किसी अज़नबी औरत को हाथ लगाना, और अज़नबी औरत को हाथ लगाने और मुसाफा करने पर अहादीस मुबारक में सख़्त वईद वारिद हुई हैं, चुनांचे खुद रसूलुल्लाह ﷺ ने जिंदगी भर किसी अज़नबी औरत को कभी हाथ नहीं लगाया, अपने सर में सूई घोंपना ज़्यादा बेहतर है इससे कि ऐसी औरत को छूए जो उसके लिए हलाल ना हो_,*
*"✪_लिहाजा़ उम्मत के लिए भी यही हुक्म है कि किसी अजनबी औरत से मुसाफा करना जायज़ नहीं, अगरचे वो रिश्तेदार ही क्यों न हों, मसलन चाची, मुमानी, चाचा जाद, मामू जाद, खाला जाद, फूफी जाद, बहनोई, देवर, ननद, जेठ, खालू, फूफा वगेरा यानि एसे रिश्तेदार जिनसे पर्दा करना फ़र्ज़ है, उनसे मुसाफा करना जायज़ नहीं,*
*"✪_जब अजनबी मर्द और औरत का मुसाफ़ा जायज़ नहीं तो हाथ पकड़ कर मेहंदी लगाना कैसे जायज़ हो सकता है? इसलिए इस क़बीह रस्म से बचना,बचाना, मुसलमानों के ज़िम्मे लाज़िम है और इसमें शिरकत करने वाली ख्वातीन और शरीक मर्द सब गुनहगार होंगे _,*
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*⇰_उबटन लगाना :-*
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*✪_शादी बियाह के मौक़े पर उबटन लगाने का रिवाज है, शरअन इसमें कोई मुजा़यका नहीं, यानि लड़की को उबटन लगाना फि नफ्सा जायज़ है लेकिन इस मोके पर जो मुफासिद व मुनकिरात होते हैं, मसलन फोटोग्राफी, बेपर्दगी, अजनबी मर्दो और औरतों का इख्तिलात व हंसी मज़ाक़, मूवी बनाना और इसराफ़ वगेरा ये सब उमूर ना-जायज़ और हराम हैं _,*
*"✪_ इसलिए ना-जायज़ उमूर से बचना ज़रूरी है, अलबत्ता इन मुफ़ासिद और मुनकीरात से बच कर उबटन लगाया जाए तो इसमें कोई मुज़ायक़ा नहीं, ख़ुशी के ऐसे मोक़ो पर अल्लाह तआला को याद रखना और नफ़रमानी से बचना निहायत ज़रूरी है, यही असल मौक़ा होता है जिसमें अल्लाह तआला अपने बंदो का इम्तिहान लेते हैं, ख़ुशी और गमी के मोक़ो में दीन पर साबित क़दम रहना ईमान की पुख्तगी की अलामत है,*
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*⇛शादी के मौक़े पर गाना बजाना,*
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*✪_ शादी के मौक़े पर बाज़ लोग गाने बजाने का बहुत ज़्यादा अहतमाम करते हैं, टैप रिकॉर्डर व आज कल डीजे के ज़रिए, बड़े-बड़े डेक लगाकर इस कदर शोर किया जाता है कि अडोस पड़ोस के लोगों का जीना हराम हो जाता है,बाज़ लोग इस मोके़ पर अदाकारों (एक्टर्स) को बुलाकर नाच गाने का एहतमाम करते हैं, शरई ऐतबार से ये अमल कई क़िस्म के गुनाहों पर मुश्तमिल है,*
*✪ _(1) पड़ोसियों को तक्लीफ़ पहुंचाना शर'अन हराम है, हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है रसूलल्लाह ﷺ ने तीन मर्तबा क़सम खा कर फरमाया कि वो शख़्स मुसलमान नहीं, सहाबा किराम ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह ﷺ वो कौन सा शख़्स है? तो इरशाद फरमाया जिसके शर से उसका पडोसी महफूज़ ना हो _, (बुखारी व मुस्लिम)*
*✪ _(2) नाच गाना बिज्जाते खुद बहुत बड़ा गुनाह का काम है, जनाबे रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया कि दो आवाज़ें दुनिया और आखिरत में मल'ऊन हैं, एक गाने के साथ राग बाजों की आवाज़, दूसरी मुसीबत के वक्त चीखने की आवाज़ _, (बह्यकी)*
*"_ रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फरमाया कि जो शख्स गाने वाली औरत के पास गाना सुनने के लिए बेठता है तो अल्लाह तआला क़यामत के रोज़ उसके कानों में सीसा पिघला कर डालेगा _,"*
*✪_ मोसिकी के बारे मे बाज़ लोगो का इश्काल है कि बाज़ अहादीस से इसका जायज़ होना मालूम होता है क्योंकि शादी के मौके पर दफ़ बजाना हदीस से साबित हे और मोसिकी़ भी दफ़ ही है लिहाज़ा ये भी होना जायज़ होना चाहिए,*
*⇰इस इश्काल का जवाब ये है कि अहादीस में जिस दफ् का ज़िक्र है वो सिर्फ निकाह के मौक़े पर कुछ देर के लिए बजाया जाता था, निकाह के अलावा बिला ज़रूरी दफ बजाने वालों को सैय्यदना उमर फारूक रज़ि. दुर्रो से सजा देते थे,फिर दफ पीटने वाली भी छोटी बच्चियां होती थी, मर्दो का दफ बजाना कहीं साबित नहीं, फिर ये दफ़ भी अहले अरब की आदत के मुताबिक बिलकुल सादगी से पीटा जाता था, ना इसमें झाँझ होती थी, न रक्स व सुर व रिया तुर्ब व मस्ती का कोई और निशान, आज ऐसे दफ़ का कहीं कोई वजूद नज़र नहीं आता,*
*⇨अहनाफ में अक्सर फुक़हा इसको भी ना-जायज़ क़रार देते हैं, और अक्सर मशाइख के क़ोल के मुताबिक हराम है, निकाह के मौके पर दफ़ से मुराद निकाह का एलान है,*
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*⇰ न्योता की रस्म (नज़राना),*
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*✪_शादी के मौके पर जो बुरी रस्मे है उनसे एक रस्म न्योता भी है, हक़ीक़ते मसला ये है कि हमारी शादियों में ये रस्म जो दावते वलीमा के बाद होती है कि जिसमें अहले शादी खाना को शरीक होने वाले लोग रक़म देते हैं, जो कि रजिस्टर में याददाश्त के तौर पर दर्ज की जाती है और फिर जब वो अहले खाना उनमें से किसी की शादी में शिरकत करते हैं तो जिन लोगों ने जितनी रक़म उन्हें दी थी ये उससे रक़म बड़ा कर वापस अदा करते हैं और इस मौके पर रक़म वापस ना करे तो आपस में नाराज़गी हो जाती है और इसके बाद एक दूसरे के वलीमा और शादी की दावत में शरीक़ नहीं होते,*
*✪_ शादी के मौक़े पर रस्मे न्योता के नाम से जो रक़म वसूल की जाती है इसमें शरअन काई क़बाहते हैं:-*
*"_ (1)- क़र्ज़ का लेन देन है, जबकि बिला ज़रूरत क़र्ज़ का लेन देन शरअन एक ना-पसन्दीदा अमल है, क़र्ज़ को क़र्ज़ इसलिए कहा जाता है कि ये मुहब्बत काटने वाली चीज़ है,*
*"_(2)- अगर दी हुई रक़म से बड़ा कर लोटाई जाये और ऐसा करना भी इस रस्म का हिस्सा हो तो ये ज़्यादा रक़म सूद के हुक्म में है,*
*✪_(3)- बसा अवक़ात ऐसा भी होता है कि ये क़र्ज़ अदा करने का मौक़ा ही नहीं मिल पाता, मसलन दोनों में से एक इलाक़ा छोड़ कर दूर कहीं चला जाए या एक का इंतेक़ाल हो जाए, इस सूरत में दूसरे के हक़ तलफ़ी और ना-जायज़ तोर पर माल इस्तेमाल करने का गुनाह हुआ,*
*"_(4)- किसी की दावत करके उससे पैसा वसूल करना गैरत और हमियत के खिलाफ होने के अलावा एक अहमकाना हरकत है, अगर किसी की दावत करने की इस्तेता'अत नहीं है तो वह दावत करता ही क्यों है ? बिल्कुल ना करे या जितने लोगो को खिलाने की इस्तेता'अत है उतने लोगों को दावत दे,*
*⇨इन क़बाहतों की बिना पर ये रस्म वाजिबुल तर्क हे,*
*®_ (रद्दुल मुहतार)*
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*⇛ शादी और फ़िज़ूल खर्ची,*
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*✪_शादी के मौक़े पर एक गुनाह का काम ये भी अंजाम दिया जाता है कि फ़िज़ूल खर्ची और इसराफ़ बहुत होता है, मसलन बिला ज़रूरत बहुत ज़्यादा रोशनी (डेकोरेशन) का एहतमाम करना, फिर इसके लिए बिजली चोरी की जाती है जिससे क़बाहत और बढ़ जाती है, इसी तरह ज़रूरत से ज़्यादा खाना पकाना फिर उसको ज़ाया करना, क़र्ज़ लेकर अपनी इस्तेताअत से बढ़कर ख़र्च करना दावत करना और इसके ज़रिये शोहरत हासिल करने की कोशिश करना वगेरह, जबकि फ़िज़ूल खर्ची करने से क़ुरान करीम ने सख्ती से मना फरमाया है, इसको शैतान की ताबेदारी क़रार दिया है,*
*"_ और (माल को) बे मोका़ मत उड़ाना, बेशक बे मोका़ माल उड़ानें वाले शैतान के भाई बंद हैं (यानि उसके मुशाबा होते हैं) और शैतान अपने परवरदिगार का बड़ा ना शुक्रा है,*
*✪_इंसान माल तो हक़ के मुताबिक हासिल करे, मगर खिलाफे शरीयत खर्च कर डाले और इसका नाम इसराफ भी है और ये हराम है, इरशाद ए बारी ताला है कि खाओ और पियो और बेजा खर्च मत करो, बेशक अल्लाह तआला बेजा खर्च करने वालों को पसंद नहीं फरमाते,*
*✪_अल्लाह तआला को ये मतलूब है कि बंदा शरई हुदूद के अंदर रह कर ज़िंदगी गुज़ारे, शरई हुदूद से आगे न बढ़े और खाने पीने में ना बुख्ल से काम ले ना ही इसराफ और फिजूल खर्ची में मुब्तिला हो, यानि अल्लाह ताला को वो लोग पसंद हैं जो खुद खर्च करने में मियाना रवि रखते हैं, ना ज़रूरत से ज़्यादा खर्च करें और ना उससे कम खर्च करें,*
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*⇛ दुल्हन की मूंह दिखाई की रस्म,*
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*✪_ बाज़ इलाक़ों में रिवाज है कि रुखसती के बाद दुल्हन को घर लाया जाता है तो मूंह दिखाई की रस्म अदा की जाती है, यानि दुल्हन को मसहरी पर बिठा दिया जाता है, फिर दूल्हे के रिश्तेदार दुल्हन का चेहरा देख कर कुछ हदिया (यानी नक़दी या कोई चीज़, ज़ेवर वगेरा) पेश करते हैं, दीदार करने वाले मर्दों में ज़्यादातर गैर मेहरम होते हैं, दूल्हे के बहनोई, मामू ज़ाद, चाचा ज़ाद, खाला ज़ाद वगेरा,*
*✪_ये भी एक क़बीह रस्म है, ख़ुसूसन ग़ैर महरम औरत को जान बुझकर देखना और दिखाना, और ये क़ुरान व हदीस की रु से हराम है और इस पर लानत वारिद हुई, इरशाद ए नबवी ﷺ है कि ग़ैर महरम की तरफ़ देखने वाला और जिसकी तरफ़ देखा जा रहा है, दोनों मलऊन हैं _,(मिश्कात)*
*"_इसलिये ये रस्म क़ाबिले तर्क है,*
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*⇛ शादी के मौक़े पर बेपर्दगी,*
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*✪ _शादी के मौके पर एक गुनाह जो बहुत आम हो गया है वो बेपर्दगी का गुनाह है, आम बेदीन तबके की तो बात ही अलग है उनका तो पूरा प्रोग्राम ही गुनाह के कामों पर मुश्तमिल होता है, खिलाफे शरीयत रस्मो रिवाज शादी की महफिल में मर्दों औरतों का इख्तिलात, खड़ा हो कर खाना पीना वगेरा,*
*✪_ लेकिन बात दीनदार तबके की है, जिन्हें अपनी दीनदारी पर नाज़ है, आम हालात में बा-ज़ाहिर घरों में शरई पर्दे का ख्याल भी रखा जाता है, लेकिन शादी के मौक़े पर वो इस हुक्म ए शरई से गफ़लत बरते हैं, जबकी शरई पर्दे का ऐसा ताकीदी हुक्म दिया गया है जिस तरह नमाज़ रोज़े का, अब नामालूम क्या वजह है कि मुसलमान ख़्वातीन पर्दे का एहतमाम नहीं करती और मर्द हज़रात भी पर्दे का माहोल फराहम नहीं करते,*
*✪_खुसूसन शादी के मौक़े पर इस गुनाह से बचने का ज्यादा अहतमाम होना चाहिए, क्योंकि ये अल्लाह ताला की तरफ से आज़माइश का वक्त होता है कि मेरे बंदे को इतनी बड़ी खुशी नसीब हो रही है, क्या इस मौक़े पर ये मुझे याद रखता है या मेरे अहकामात को पशे पुश्त डाल देता है,*
*⇛ शादी के मौक़े पर बेपर्दगी,*
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*✪ _शादी के मौके पर एक गुनाह जो बहुत आम हो गया है वो बेपर्दगी का गुनाह है, आम बेदीन तबके की तो बात ही अलग है उनका तो पूरा प्रोग्राम ही गुनाह के कामों पर मुश्तमिल होता है, खिलाफे शरीयत रस्मो रिवाज शादी की महफिल में मर्दों औरतों का इख्तिलात, खड़ा हो कर खाना पीना वगेरा,*
*✪_ लेकिन बात दीनदार तबके की है, जिन्हें अपनी दीनदारी पर नाज़ है, आम हालात में बा-ज़ाहिर घरों में शरई पर्दे का ख्याल भी रखा जाता है, लेकिन शादी के मौक़े पर वो इस हुक्म ए शरई से गफ़लत बरते हैं, जबकी शरई पर्दे का ऐसा ताकीदी हुक्म दिया गया है जिस तरह नमाज़ रोज़े का, अब नामालूम क्या वजह है कि मुसलमान ख़्वातीन पर्दे का एहतमाम नहीं करती और मर्द हज़रात भी पर्दे का माहोल फराहम नहीं करते,*
*✪_खुसूसन शादी के मौक़े पर इस गुनाह से बचने का ज्यादा अहतमाम होना चाहिए, क्योंकि ये अल्लाह ताला की तरफ से आज़माइश का वक्त होता है कि मेरे बंदे को इतनी बड़ी खुशी नसीब हो रही है, क्या इस मौक़े पर ये मुझे याद रखता है या मेरे अहकामात को पशे पुश्त डाल देता है,*
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*⇰शादी के मौक़े पर सेहरा बांधना, नोटों का हार पहनना, फायरिंग करना*
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*✪_शादी के मौक़े पर बाज़ इलाक़ो में दस्तूर है कि दूल्हे के माथे पर सेहरा बांधते हैं, ये एक खालिस गैर मुस्लिमों की रस्म है, उन्हीं से ली गई है, मुसलमानों पर लाज़िम है कि इस तरह के रस्मों रिवाज से इज्तनाब करे इसलिये कि ये रस्में का़बिले तर्क हैं,*
*✪_ शादी के मौक़े पर फूलों का एक आध हार पहनने की तो गुंजाइश है, खुशी का मौक़ा है, बाक़ी इसको बा-का़यदा रस्म बना लेना दुरुस्त नहीं और जहां तक नोटों के हार का ताल्लुक़ है इसमें कई ख़राबियां हैं, मसलन बिला वजह माल का ज़ाया करना और इसराफ़ और हार के लेने देने में एक दूसरे पर फ़ख़र, बल्कि बाज़ इलाक़ो में रस्में न्योता में दाख़िल है, इसलिए नोटों का हार इस्तेमाल ना किया जाए,*
*✪ _अगर हदिया भी देना मकसूद हो तो इसके लिए कोई सादा तरीक़ा अख़्तियार किया जाए जो नाम व नमूद और दीगर खराबियों से ख़ाली हो,*
*✪_ इसी तरह आज कल बहुत से लोग शादी के मौक़े पर फायरिंग (आतिशबाज़ी) करते हैं, इसको इज़हारे खुशी का ज़रिया समझ लिया गया है, इसको भी लोगों ने एक रस्म बना ली, खुद को नापसंद हो जब भी अज़ीज़ो अका़रिब जो शादी के मौक़े पर जमा होते हैं वो फायरिंग करते हैं, इसके दुनियावी नुक़सान तो सबके सामने ही हैं, बारहा ऐसा भी होता है कि दुल्हन ही को गोली लग गई, दूल्हा या उसके साथियों को गोली लग गई या ज़ख्मी हो गए, इस तरह ये खुशी का मौक़ा एक गमकदा बन जाता है, जो लोग खुशी मनाने आए थे वो जनाजा़ उठा कर ले जा रहे, फिर बसा अवक़ात इससे दोनों खानदानो में तवील दुश्मनी लड़ाई झगड़े शुरू होते हैं, अरसे तक परेशानी का ये सिलसिला जारी रहता है,*
*"✪_ जनाबे रसूलल्लाह ﷺ ने इरशाद फरमाया कि कोई शख़्स अपने किसी (दीनी) भाई की तरफ असलहा से इशारा ना करे क्योंकि हो सकता है कि शैतान अंजाने में उसके हाथ से छुड़वा दे (और उसके हाथ से नाहक़ क़त्ल हो जाए) और फिर इसकी वजह से जहन्नम के घड़े में गिर पड़े_," (बुखारी शरीफ)*
*⇲_खुलासा ये है कि एक बुरी रस्म है इसको तर्क करना लाज़िम है,*
*⇲ _अल्लाह तआला हमें सुन्नत और शरीयत की हुदूद में रहकर निकाह को अंजाम देने की तौफीक दे, आमीन या रब्बुल आलमीन, अल्हम्दुलिल्लाह पोस्ट मुकम्मल हुई,*
*↳® इज़्दवाजी ज़िंदगी के शरई मसाइल*
*✪_(वजाहत और तशरीह :- शेख हजरत मुफ्ती रशीद अहमद लुशियानवी रहमतुल्लाह ने 23 रज्जब 1416 नमाज़ असर् के बाद अपनी पोती का निकाह पढ़ाया, निकाह के बाद हजरते अक़दस ने जे़रे मुख्तसर मगर बहुत जामेअ वाज़ फरमाया)*
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