Aurto'n Ki islaah Ki Roshni -(Hindi)

🎍﷽ 🎍
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*●•औरत की इसलाही रोशनी •●*
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*⊙⇨औरत की इसलाह सबसे ज़्यादा उसके शोहर से होगी बशर्ते कि मर्द भी नेकी का रास्ता अख्तियार कर ले :-*
*★_ मर्द अगर पारसा आदत ना हो तो औरत कब सालेहा हो सकती है, हाँ अगर मर्द खुद सालेह बने तो औरत भी सालेहा बन सकती है, कौल से औरत को नसीहत ना देनी चाहिए बल्की फैल से अगर नसीहत दी जाए तो उसका असर होता है, औरत तो दर किनार और है भी कौन जो सिर्फ कौल से किसी की मानता है,*

*★_ अगर मर्द कोई कमी या खामी अपने अंदर रखेगा तो औरत हर वक्त की उस पर गवाह है, अगर वो रिश्वत लेकर घर आया है तो उसकी औरत कहेगी कि जब ख़ाविंद लाया है तो मैं क्यों हराम कहूँ, गर्ज कि मर्द का असर औरत पर ज़रूर पड़ता है और वो खुद ही उससे ख़बीस और तय्यब बनाता है, इसलिए फ़रमाया है:-*
*★_ (तर्जुमा सूरह नूर-26) ख़बीस औरतें ख़बीस मर्दों के लायक़ हैं और ख़बीस मर्द ख़बीस औरतों के लायक़ हैं और पाक औरतें पाक मर्दों के लायक़ हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लायक़ हैं _,"*

*★_ इसमें यही नसीहत है कि तय्यब (पाक) बनो वरना हज़ार कोशिश कर लो कुछ न बनेगा, जो शख्स खुदा से खुद नहीं डरता तो औरत उससे कैसे डरेगी ? ना ऐसे मौलवियों का वाज़ असर करता है ना ख़ाविंद का, हर हाल में अमली नमूना असर किया करता है,*

*★_ भला जब ख़ाविंद रात को उठकर दुआ करता है, रोता है तो औरत एक दो दिन तक देखेगी आख़िर एक दिन उसको भी ख़याल आएगा और ज़रूर मुतास्सिर होगी, औरत में मुतास्सिर होने का माद्दा बहुत होता है, उसकी दुरुस्ती के वास्ते कोई मदरसा भी किफ़ायत नहीं कर सकता ख़ाविंद का अमली नमूना किफ़ायत करता है, ख़ाविंद के मुक़ाबले में औरत के भाई बहन वगैरा का भी कुछ असर उस पर नहीं होता_,*
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*⊙⇨औरत अंदर अंदर मर्द के अखलाक़ की चोरी करती रहती है_,*
*★_ खुदा ने मर्द औरत दोनों का एक ही वजूद फरमाया है, ये मर्दों का जुल्म है कि वो अपनी औरतों को ऐसा मौक़ा देते हैं कि वो उनके नुक्स पकड़े, उनको चाहिए कि औरतों को हरफ़िज़ ऐसा मौक़ा ना दे कि वो ये कह सके कि तू फ़लां बुराई करता है बल्कि औरत कोशिश करके थक जाए और किसी बुराई का पता उसे मिल ही ना सके तो उस वक़्त उसको दीनदारी का ख़याल होता है और वो दीन को समझने लगती है,*

*★_ मर्द अपने किरदार का इमाम होता है और अगर वो बुरा असर क़ायम करता है तो किस क़दर बुरा असर पड़ने करने की उम्मीद है, मर्द को चाहिए कि अपनी क़ुव्वत को हर हाल में हलाल मौक़े पर इस्तेमाल करे, मर्द की तमाम बातें और औसाफ़ को औरत देखती है, वो देखती है कि मेरे ख़ाविंद में फ़लाँ फ़लाँ औसाफ़ तक़वा के हैं जैसे सखा़वत हिल्म सब्र और जैसे उसे परखने का मौक़ा मिलता है वो किसी दूसरे को नहीं मिल सकता,*

*★_ इसीलिए औरत को सारिक़ भी कहा है क्योंकि ये अंदर ही अंदर अख़लाक़ की चोरी करती रहती है, हत्ताकी आख़िरकार एक वक़्त पूरा अख़लाक़ हासिल कर लेती है,*
*®_( मलफुजा़त हकीमुल उम्मत- 3/157)*
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*⊙⇨ख़्वातीन का तालीम याफ़्ता होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि औरतें बच्चों की पहली दर्सगाह है _,*

*★_ कायनात औरतों के वजूद के बग़ैर ना मुकम्मल है इसलिए अल्लाह ताला ने इस कायनात में मर्द और औरत को आला मुक़ाम दिया है, लेकिन इस्लाम से पहले औरत को कोई मुक़ाम हासिल नहीं था, औरतों के साथ अच्छा सुलूक नहीं किया जाता था, इस्लाम ने औरत को एक तहफ़्फ़ुज़ दिया और एक ऐसी क़द्र अता की कि औरत को माँ के क़दमो तले जन्नत का दर्ज़ा दिया,*

*★_ इस्लाम ने औरत को एक बड़ा मर्तबा अता किया और उसकी तालीम को बढ़ावा दिया, आज औरत की तालीम की अहमियत को तस्लीम करना बहुत ज़रूरी है, एक मोअतबर समाज के लिए मर्दों के साथ औरतों का भी तालीम याफ़्ता होना बहुत ज़रूरी है, इस्लाम ने औरत और मर्द दोनो को इल्म हासिल करने की ताक़ीद की है, चाहे इसके लिए किसी भी तरह की मशक्क़त उठानी पड़े,*

*★_ मर्द और औरत गाड़ी के दो पहिए होते हैं, गाड़ी एक पहिए पर नहीं चल सकती, यही हाल हमारे मआशरे का है, इसमें मर्द और औरत दोनो की अहमियत मकसां है, जब तक दोनो इल्म हासिल नहीं करेंगे हम किसी सूरत तरक्की़ नहीं कर सकते,*

*★_ औरतों की तालीम जिसमें दीन व मज़हब, अखलाक़ व किरदार की इसलाह शामिल होती है, जिसमें औरत और हुकूक व फ़रा'इज़ को पहचान सके, बच्चों की तरबियत में सलीका मंदी से काम ले सके,*

*★_ पुराने ज़माने में औरतों की तालीम पर ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती थी, जों जों ज़माना बदलता गया औरतों की तालीम पर ज़ोर दिया गया क्योंकि औरत अपने बच्चों की पहली दर्सगाह होती है, वो आगे बढ़ कर क़ौम की तख़लीक़ को एक नई शिनाख़्त देती है, किसी भी बच्चे का मुस्तक़बिल उसकी वालिदा की तरफ़ से दिए गए प्यार और परवरिश पर मुन्हसिर होता है जो सिर्फ़ एक औरत ही कर सकती है,*

*★_ अगर माँ तालीम याफ्ता है तो औलाद भी साहिबे इल्म और महज़ब होगी क्योंकि बच्चे का ज़्यादातर वक़्त माँ के करीब गुज़रता है, इसलिए पढ़ी लिखी माँ बच्चे के ख्यालात को निखार सकती है, अपने हुकूक और फ़राइज़ से बा क़ायदा आगाह होती है और बच्चा तहज़ीब याफ्ता माहौल में ढल कर मदरसा जाता है, तालीम याफ्ता औरत अपने खानदान की माशी हालत को सुधारने के लिए काफ़ी मददगार साबित होती है और सिर्फ़ अपने बच्चों की ही नहीं आस पास के बहुत सारे लोगों की ज़िंदगी को भी तबदील कर सकती है और मुल्क की तरक्की में भी अहम किरदार अदा कर सकती है,*

*★_ एक औरत अपनी जिंदगी में बहुत से रिश्ते निभाती है, मसलन मां बेटी बहन बीवी, किसी भी रिश्ते में आने से पहले औरत मुल्क की आजाद शहरी है, उसे अपनी ख्वाहिश के मुताबित तालीम हासिल करने का हक है, तालीम ना सिर्फ मा'शरे में ख्वातीन का मैयार बुलंद करती है बल्कि मा'शरे की तंग सोच को भी खत्म करती है, औरत की तालीम के बगैर हम तरक्की़ याफ्ता समाज का ख्वाब नहीं देख सकते,*

*★_ ख्वातीन के ज़रिए हमारा मा'शरा महज़ब और बा अखलाक़ बा सलीका़ होता है, इसलिये इस्लाम ने मर्दों के साथ-साथ औरतों की तालीम पर ज़ोर दिया है,*
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*⊙⇨हर कामयाब मर्द के पीछे औरत का हाथ होता है:-*
*★_नेपोलियन बोनापार्ट ने एक मर्तबा कहा था कि तुम मुझे पढ़ी लिखी माँऐं दो मैं तुम्हें एक बेहतरीन क़ौम दूँगा_,*
*"_ माँ की गोद इंसान की पहली दर्सगाह होती है, हर कामयाब मर्द के पीछे औरत का हाथ होता है, औरत मर्द के शाना बा शाना चली है, मर्द का काम रोज़ी रोटी कमाना होता है लेकिन औरत घर के निज़ाम को और उमूरे ख़ानादारी (घर के कामकाज )और बच्चों की सही परवरिश करती है, मर्द की तालीम सिर्फ़ मर्द की तालीम है लेकिन औरत की तालीम सारे ख़ानदान की तालीम होती है, औरत की तालीम से एक अच्छे ख़ानदान की बुनियाद होती है,*

*★_ अगर लड़की तालीम याफ़्ता होगी तो मुलाज़मत करके अपने घर का ख़र्च उठा सकती है और घर और घर के बाहर की ज़िंदगी में अपने शोहर का सहारा बन कर भी ज़िंदगी गुज़ार सकती है, ख्वातीन व नो उमर लड़कियाँ क़ुरान पाक, दीनियात और अख़लाक़ और इसलाह की इतनी तालीम हासिल करे कि वो अपने हुकूक़ और फ़रा'इज़ से बा क़ायदा आगाह हो सके, जो लड़कियाँ तालीम याफ़्ता नहीं होतीं, चाहे वो खूबसूरत ही क्यों न हो उन्हें अक्सर शर्मिंदगी उठानी पड़ती है, इसलिए औरत को तालीम से आरास्ता होना बहुत ज़रूरी है,*

*★_ ख़्वातीन को चाहिए कि वो अपनी बेटियों को तालीम की अहमियत से आगाह करें, उनके फ़ायदे बताएं और उन्हें दीनी और दुनियावी तालीम के ज़ेवर से आरास्ता करें ताकि उनकी बेटियाँ भी माशरे में अपने बुनियादी हुकूक के लिए लड़ सकें और उनसे इस्तेफ़ादा कर सकें ताकि आइंदा आने वाली नस्लें भी तालीम ज़रिए अपने पैरों पर खड़े हो सकें और माशरे में अपना वका़र मर्तबा और अपनी अज़मत को बरक़रार रख सके,*

*★_ क्योंकि तालीम याफ़्ता ख़वातीन ही अपने ख़ानदान और माशरे में ख़ुश हाली और तबदीली ला सकती है और एक जदीद माशरा तश्कील दे सकती है, ख़वातीन की वज़ह ही से कायनात में रंग है _,*
*®_( मा'शरती अख़लाक़ -175)*
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*⊙⇨हुजूर ﷺ के दौर में ख्वातीन की तालीम व तरबियत इस तरह होती थी -*

*★_ इंसानी मा'शरा मर्द व औरत दोनो की कुव्वतों, सलाहियतो और सरगर्मियो से तश्कील पाता है, इसमें किसी एक को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता और किसी की अहमियत कम नहीं की जा सकती, एक महज़ब बा वका़र और तरक्की़ याफ़्ता मा'शरे के लिए लाज़िम है कि उसके अफ़राद महज़ब और तालीम याफ़्ता हों, जिस तरह कमज़ोर ईंटें इमारत की क़ुव्वते हयात को कमज़ोर बना देती है, इसी तरह जाहिल अफ़राद भी अपने मा'शरे को पस्ती और तनज़्ज़ुल से हम किनारा कर देते हैं क्योंकि कमज़ोर अफ़राद पर मज़बूत मा'शरे की तामीर मुमकिन ही नहीं,*

*★_ इस्लामी मा'शरे की बुनियादी ख़ुसूसियत उसके अफ़राद के ईमान इल्म और सीरत व किरदार की मसालियत है, इस मा'शरे में ईमान का रिश्ता इल्म से, क़दीम मा'शरे की तरह कटा हुआ नहीं बल्कि हद दर्जा मज़बूत और मुस्तहकम है, बल्कि इस्लामी मा'शरे की बुनियाद ही ईमान व ईमान के जुड़वा नज़रिए पर डाली गई है, नबी करीम ﷺ पर जो वही नाज़िल हुई वो इल्म व ईमान के इस मुकद्दस व मुस्तहकम रिश्ते का एलान है, जिस्में अरब के ना ख्वांदा (अनपढ़ ) मा'शरे में इल्म की शमा रोशन की गई है और पहली मर्तबा पढ़ने लिखने और इल्म हासिल करने की अहमियत का शऊर पैदा किया गया है,*

*★_ अगर इस बात पर गोर किया जाए कि इस्लाम के आने के वक्त गिनती के चंद लोग लिखना पढ़ना जानते थे, जिनकी तादाद 24 से ज़्यादा नहीं थी, सिर्फ 23 साल के अंदर वो कैसे दुनिया की इल्मी इमामत के मनसब पर फाईज़ हो गए, तो सुराग ये मिलेगा कि इल्म और तालीम की अहमियत का अहसास पैदा करना और बिला इम्तियाज़ व तखसीस मा'शरे की हर सनफ और मिंबर को ज़ेवरे इल्म से आरास्ता करना नबी करीम ﷺ के दावती मिशन का बुनियादी हिस्सा है, चुनांचे जब आप ﷺ ये फरमाते हैं कि मैं अल्लाह की तरफ से मुअल्लिम बना कर भेजा गया हूं, तो गोया आप ﷺ इल्म की विरासत को सनद ऐतबार और तहसीले इल्म को इंसानी माशरे की शाह कलीद बना देते हैं,*

*★_ दुनिया के सारे मज़ाहिब का ज़ोर इबादत, रियाज़त, मशक्क़त, विर्द वज़ाइफ़ पर है, मगर तालीमाते नबवी की ख़ुसूसियत ये है कि इन सबके मुक़ाबले में इल्म की फ़ज़ीलत और अहमियत को मेहसूस कराया गया है, आन हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया की इबादत गुज़ार आलिम की फ़ज़ीलत दूसरे सितारों पर चौधवी के चाँद जैसी है _, (अबू दाऊद व तिर्मिज़ी)*

*★_ दुनिया के दूसरे मज़हबो ने मर्दों की मीरास बनाकर पेश किया है क्योंकि उनकी नज़र में औरत कस्बे फजी़लत और कमाल की मुस्तहिक नहीं, मगर इस्लाम ने इल्म की रोशनी को मर्द औरत हर एक के दिलो दिमाग तक पहुंचाया है और इल्म हासिल करने में मर्द और औरत के फर्क को तसलीम नहीं किया है, बल्की मर्द और औरत दोनों ने इल्म हासिल करने को फ़र्ज़ क़रार दिया है, नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया - इल्म हासिल करना हर मुसलमान मर्द औरत पर फ़र्ज़ है _(इब्ने माजा किताबुल इल्म)*

*★_ अहदे (ज़माना ए )नबवी ﷺ के तालीमी निज़ाम पर नज़र डालिए, यहाँ तालीम के मुख़्तलिफ़ तरीक़े और वसीले अख़्तियार किए गए हैं और मर्द औरत दोनो को यक़सां इस्तेफ़ादा का मौक़ा दिया गया है, नबी करीम ﷺ ने जो तरीक़े अपनी उम्मत को तालीम देने के लिए अख़्तियार फ़रमाए उनमे तबलीग और तरसील के नुक़्ता नज़र से अहम ये हैं:-*
*★_ मस्जिदे नबवी में नमाज़ों के बाद तालीम और तलक़ीन, इसमें मर्द औरत सभी शरीक़ होते थे, जुमा ईदेन और हज के ख़िताब की ज़रिए उमूमी तालीम व तहज़ीब, इसमें भी सभी शरीक होते थे,*

*★_ मजलिस खुसूसी जो मस्जिदे नबवी या दूसरे मुक़ामात पर मर्दो के लिए होती थी, अज़वाज मुताहरात की इल्मी मजलिस जो खास औरतों के लिए होती थी,*
*"_ जंग और दूसरे ऐसे सफर जिनमें मर्दो के साथ औरतें भी शरीक़ रहती थीं, वहां भी इल्मी तालीम का मौक़ा मिलता था, रोज़ मर्रा के दरपेश मसाइल जो बिला तकल्लुफ़ नबी करीम ﷺ के सामने पेश किये जाते थे और नबी करीम ﷺ उनके तफ़सीली और तशफ़ी बख्श जवाब अता फ़रमाते थे,*

*★_ औरतों की तालीम के लिए नबी ﷺ की खुसूसी मजलिस, ये औरतों की दरख्वास्त पर खास उनके लिए मुक़र्रर की जाती, नबी करीम ﷺ का अपनी अज़वाज मुतहारात को खास तालीम व तरबियत से आरास्ता फरमाना ताकि उनसे दूसरी ख्वातीन तालीम व तरबियत हासिल कर सकें,*
*"_ बैत के मोके जिनमें आप औरतों से उसूले दीन पर बैत लेते और उनको बुनियादी अहकामात से नवाज़ते वगैरा,*

*★_नबी करीम ﷺ के खुतबात और वाज़ का जो असर सहाबा किराम पर होता था, सहाबियात उससे महरूम न रहतीं, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि नबी करीम ﷺ ईद के मौक़े पर हज़रत बिलाल के साथ निकले, आपको ख़याल गुज़रा कि आपका ख़िताब ख़्वातीन अच्छी तरह ना सुन सकीं, लिहाज़ा आपने अज़ सरे नो उनको ख़िताब किया और उनको सदक़ा का हुक्म दिया, चुनांचे औरतें अपनी पाज़ेब और अंगूठियाँ सदक़ा करने लगीं और बिलाल अपने कपड़ों में उन सदक़ात को समेटने लगे_, (बुखारी)*

*★_ रोज़ मर्रा के पेश आने वाले मसाईल में औरतें अपनी मुश्किलात लेकर नबी करीम ﷺ के पास जाती और अपने सवालों के जवाब हासिल करती, औरतों के बाज़ सवालात ऐसे भी होते जिनमें बराहे रास्त अल्लाह ताला अपनी आयतें नाज़िल करके रहनुमाई फरमाते, मिसाल के तौर पर ख़ौला बिन्ते साल्बा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अपने शौहर औस की शिकायत की और उनके जवाब में सूरह अल मुजादिला की इब्तेदाई आयतें नाज़िल हुई, जिनसे मुतालक़ा मसले में हमारे मुसलमानों की रहनुमाई हुई,*

*★_ औरतों के बाज़ सवालात तबई तौर पर उनकी नस्वानी ज़रूरीयात और मुश्किलात से मुताल्लिक़ होते, मगर इल्म की फ़र्ज़ियत का अहसास उनकी शर्म और हया पर हावी होता और वो नबी करीम ﷺ से सारे सवालात करतीं,*

*★_ चुनांचे हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हा की वाल्दा उम्मे सुलेम रज़ियल्लाहु अन्हा रसूलल्लाह ﷺ के पास आईं और कहने लगीं, ए अल्लाह के रसूल ﷺ अल्लाह हक़ बयान करने में हया नहीं करता, तो क्या औरत को अगर अहतलाम हो तो उस पर गुस्ल करना लाज़िम है? आप ﷺ ने फरमाया, हाँ अगर वो पानी देखे, तो उम्मे सलमा ने अपना चेहरा ढांक लिया और पूछा ए अल्लाह के रसूल क्या औरत को भी अहतलाम होता है? आपने फरमाया हां अगर ऐसा न हो तो उसके बच्चे की मुशाबहत किस तरह होती है? ( बुखारी)*

*★_अहदे नबवी की औरतें बिल खुसूस अंसारी ख्वातीन नबी ﷺ से हर क़िस्म की बातें पूछने में कोई शर्म नहीं करती थीं, ये कमाल था नबी अरबी ﷺ का कि आपने शर्म और ग़ैरत को इल्म से वाबस्ता कर दिया था, गोया इल्म हासिल करना ही औरतों का ज़ेवर क़रार पाता, इसी से शर्म और हया की दौलत वाबस्ता हुई, हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ियल्लाहु अन्हा अंसार की औरतों की तारीफ़ करती थीं कि बेहतरीन औरतें अंसार की औरतें हैं, उनके लिए दीन का इल्म हासिल करने में हया रुकवत नहीं बनती _, (इज़ा)*

*★_ खुद हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा जब रसूले करीम ﷺ से कोई बात सुनती तो जब तक उसकी जुमला तफ़सील न समझ लेती ख़ामोश न होती, सही हदीस में हज़रत आयशा के इस्तगफ़ार के बहुत से वाक़ियात मज़कूर हैं,*

*★_ तालीमाते नबवी की वो मजलिसे जहाँ औरतें पिछले हिस्से में मौजूद होतीं, फ़ितरी तौर पर मर्दों के गलबे की वजह से बहुत सी बातों की तफ़सील वज़ाहत और तशरीह की मोहताज रहतीं, उनकी ख़्वाहिश होती कि नबी ﷺ मर्दों से अलग होकर कोई ख़ास वक़्त हमारे लिए मुक़र्रर फ़रमाते जिसमें हम आपसे पूरे तौर पर इत्मीनान से दीन की तालीम हासिल करते,*

*★_ चुनांचे (बा रिवायत हज़रत अबू सईद खुदरी) औरतों ने नबी ﷺ से ये दरख़्वास्त की, आपके पास मर्द हम पर सबक़त ले जाते हैं, इसलिए आप अपनी तरफ़ से एक दिन हमारे लिए मुक़र्रर फ़रमा दें, चुनांचे आपने उनसे अलग दिन का वादा फ़रमाया, आप उस दिन औरतों से मुलाक़ात करते, उनको वाज़ और नसीहत करते और उनको अहकाम अता फ़रमाते_, (बुखारी)*

*★_ नबी करीम ﷺ अज़वाज मुतहारात की खुसूसी तालीम व तरबियत फरमाते थे, कुराने करीम ने अज़वाज मुतहारात की खुसूसी तालीम व तरबियत पर ज़ोर दिया, अल्लाह ताला ने उनको आम औरतों से मुमताज क़रार देते हुए फरमाया कि- "और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और अल्लाह और उसके रसूल की इता'त करो, अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम अहले बैत से गंदगी को दूर कर दे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे और याद करो अल्लाह की आयात और हिकमत की उन बातों को जो तुम्हारे घरों में सुनाई जाती है _,*

*★_ नबी करीम ﷺ अपने मामूलात और सीरत की इल्मी तालीम के अलावा भी अज़वाज मुतहारात के तज़किए और तरबियत के लिए बाज़ तरीक़े अख़्तियार फ़रमाते, मसलन कभी कभी आप रात को अज़वाज मुतहारात को ये कह कर जगाते और उनको रात की इबादत और फ़िक्रे आख़िरत की तालीम देते, एक मर्तबा आपने अज़वाज मुतहारात को ये कह कर जगाया, ए हुजरे वालियाँ उठो! बहुत सी ख़ुश लिबास औरतें क़यामत में बरहना होंगी_, (बुखारी)*

*★_ यानी जो दुनिया में बा ज़ाहिर लिबास में है मगर ईमान और आमाले सालेहा से ख़ाली है, वो आख़िरत में अल्लाह के ग़ज़ब में होंगी, ये तरबियत इसलिए भी ज़रूरी थी कि अज़वाज मुतहारात को दूसरी औरतों के लिए नमूना और मुअल्लिमा बनना था, मुअल्लिम को मिसाली और आइडियल होना चाहिए _,*

*★_ इस्लाम पर क़ायम और अल्लाह के फरमान के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने के लिए रसूलुल्लाह मर्द व औरत दोनो से बैत लिया करते थे, औरतों से जिन बातों पर बैत लिया करते थे वो कुरान में इस तरह मज़कूर है,*
*"_ ए नबी जब आपके पास मोमिन औरतें बैत करने के लिए आएं और इस बात का अहद करें कि वो अल्लाह के साथ किसी को शरीक़ न करेंगी, चोरी न करेंगी, ज़िना न करेंगी, अपनी औलाद को क़त्ल न करें करेंगी, अपने सामने कोई बोहतान ग़ढ़ कर न लायेंगी और मा'रूफ़ में आपकी नाफरमानी न करेंगी, तो उनसे बैत ले लो और उनके लिए दुआए मगफिरत करो, बेशक अल्लाह दरगुज़र करने वाला और रहम करने वाला है_,*

*★_ मज़कूरा तरीक़े वो थे जिनमे ख्वातीन को बराहे रास्त नबी ﷺ से इस्तेफ़ादा और इल्म हासिल करने का मौक़ा मिलता, इनके अलावा सहाबा किराम को ये हुक्म था कि वो अपनी बीवियों, बेटियों और बांदियों की तालीम और तरबियत का इंतेज़ाम करें, उनको दीनी अहकाम से ग़ाफ़िल और इस्लामी तालीम से जाहिल न रहने दें,*

*★_ आप ﷺ ने लड़कियों की तालीम पर खुसूसी तवज्जो फ़रमाई , अरब के मा'शरे में लड़कियों को हिक़ारत से देखना और उनसे बद सुलूकी करना आम था, आन हज़रत ﷺ ने इस सूरते हाल को तबदील करने पर बहुत ज़ोर दिया,*
*"_ बा रिवायत अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु रसूलल्लाह ﷺ ने फ़रमाया - जिसने तीन लड़कियों की परवरिश की उनको अदब सिखाया, उन पर रहम किया और उनसे हुस्ने सुलूक किया तो उनके लिए जन्नत है_, (मुसनद अहमद)*

*★_ क़ाबिले ज़िक्र बात ये है कि लड़कों की तालीम व तरबियत और उनके हुस्ने सुलूक पर भी यक़सां अजर है, मगर आपने लड़कियों की तालीम व तरबियत पर जन्नत की बशारत सुनाई, हिकमत इसमें ये है कि एक लड़के की तालीम महज़ एक फ़र्द की तालीम है और एक लड़की की तालीम एक फ़र्द की नहीं एक खानदान की तालीम है, क्योंकि बच्चों की तालीम और तरबियत माँ की गौद से जुडी हुई है, माँ अगर जाहिल हो तो बच्चे पर इसका बुरा असर पड़ता है,*

*★_ इस इंक़लाबी तालीम व तरबियत का यह असर ज़ाहिर हुआ है कि औरतें इस्लामी मा'शरे की तामीर और तश्कील और इस्लामी उलूम की इशाअत और तरवीज में बराबर का किरदार अदा करने लगीं, इस्लामी मा'शरा तेज़ी से तरक्की़ की राह पर ग़ामज़न हुआ और दुनिया की इल्मी इमामत जिससे इज़्ज़त और इक्तिदार और अहतराम सभी कुछ वाबस्ता है मुसलमानों के हाथ आ गई,*

*★_ औरतों का इल्म व फहम इस दर्जा क़ाबिले रश्क और मोतबर बन गया कि वो बसा अक़वात उलमा, उमरा और ख़ुलफ़ा को मशवरों से नवाज़तीं, उनकी ग़लतियों की इसलाह करतीं और उनको राहे अमल दिखातीं, मुश्किलात में उनकी मदद करतीं और उनको इज्तिमाई ज़िम्मेदारियों से ओहदा बरां होने में अपना ता'वुन पेश करतीं,*

*★_ मिसाल के तौर पर हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु अपने मामूल के मुताबिक़ एक रात गश्त लगा रहे थे कि एक घर से किसी ख़ातून की आवाज़ सुनाई दी, वो अपने शोहर की जुदाई में अश'आर पढ़ रही थीं, हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने सुना तो अपनी साहबज़ादी ज़ोजा ए रसूल हज़रत हफ़्सा रज़ियल्लाहु अन्हा के पास गए और पूछा एक औरत अपने शोहर की जुदाई कितने दिन बर्दाश्त कर सकती है, तो उन्होंने जवाब दिया 4 या 6 महीने, तब हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़ैसला किया कि मैं किसी भी लश्कर को इससे ज़्यादा नहीं रोकूंगा _, (तबक़ात अल शफ़िया)*

*★_ हज़रत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हु की साहबज़ादी ज़ोजा ए रसूल हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से न सिर्फ़ आम सहाबा दीन की तालीम हासिल करते बल्कि वो उनके समाजी और सियासी मामले में भी सहाबा किराम की रहनुमाई फरमातीं, बहुत से जलीलुल क़द्र सहाबा की इल्मी दीनी और समाजी इस्लाहात भी इन्होंने की, बहुत सी गलत फ़हमियाँ जो इल्मी लिहाज़ से नुकसानदेह थी उनको दूर करने का सेहरा हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के सर रहा है,*

*★_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की इल्मी दीनी इस्लाहात का तज़किरा मुख़्तलिफ़ हदीस की किताबों में लिखा और बिखरा हुआ है, इससे मालूम होता है कि तालीम ए नबवी ने ख़्वातीन को किस क़दर इल्म और फ़हम में मुस्तहकम बना दिया था कि जिन मसाइल की हक़ीक़त तक सहाबा किराम ना पहुँँच सके वहां हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की रहनुमाई काम आई,*


*★_हज़रत अबू मूसा अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हम असहाबे मुहम्मद ﷺ को जब कोई हदीस मुश्किल मालूम होती तो हम हज़रत आयशा से पूछते और उनको इसका इल्म होता _, (मौता इमाम मालिक तालीम- 954)*

*★_ इसी तरह दूसरी सहाबियात की अक़ल व फ़हम और इसाबत ए राय से सहाबा किराम के इस्तेफ़ादा का तज़किरा मिलता है, अज़वाज ए नबी के अलावा शिफ़ा बिन्ते अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हा जिनसे हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु मशवरा लेते और उमराह बिन्ते फ़ातिमा जिनके घर हज़रत उमर की शहादत के वक़्त खलीफ़ा के इंतेख़ाब के लिए मजलिस ए शूरा बेठी, खास तोर पर क़ाबिले ज़िक्र है,*

*★_ ग़र्ज़ कि अहदे नबवी ﷺ में ख़्वातीन की तालीम व तरबियत का निज़ाम मर्दों से कुछ कम न था, न मौक़े कम थे और न तालीम के मैयार व मिक़दार में कोई कमी आई, उस ज़माने में बा क़ायदा मदरसे का रिवाज़ न था, अगर मर्दों के लिए कोई मदरसा क़ायम किया जाता तो नबी ए रहमत लाज़मन औरतों के लिए अलग मदरसा क़ायम करते, इसका सबूत यह है कि अगर सुफ़्फ़ा मस्जिदे नबवी में मर्दों की दर्सगाह थी तो नबी ए अरबी का घर औरतों की दर्सगाह थी,*
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*⊙⇨औरत के सर के बालों को कोहान नुमा बनाना:-*

*★_ औरत के लिए बालों को जमा करके सर के ऊपर जूड़ा बांधना ज़ायज़ नहीं है, हदीस मुबारक में इस पर वईद वारिद हुई है कि ऐसी औरत को जन्नत की खुशबू भी नसीब नहीं होगी, फिर भी अगर किसी ने इस तरह जूड़ा बनाया और नमाज़ की हालत में वो बाल ढके हुए थे तो नमाज़ का फ़र्ज़ अदा हो जाएगा और अगर चोथाई हिस्से ज़्यादा बाल खुले हुए हों तो नमाज़ ही नहीं होगी,*

*★_ चुनांचे मिश्कात शरीफ़ में है कि हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूलल्लाह ﷺ ने फ़रमाया _ दोज़खियों के दो गिरोह ऐसे हैं जिन्हें मैंने नहीं देखा (और ना मैं देखूंगा) एक गिरोह तो उन लोगों का है जिनके हाथों में गाय की मानिंद कोडे होंगे जिनसे वो (लोगों को नाहक़) मारेंगे और दूसरा गिरोह उन औरतों का है जो बाजा़हिर कपड़े पहने हुए होंगी मगर हक़ीक़त में नंगी होंगी, वो मर्दों को अपनी तरफ माइल करेंगी और खुद मर्दों की तरफ माइल होंगी, उनकी सर बखती ऊंट की कोहान की तरह मिलते होंगे, ऐसी औरतें ना तो जन्नत में दाखिल होंगी और ना जन्नत की बू पाएंगी हालांकी जन्नत की बू इतनी इतनी (यानी मसलन 100 बरस) दूरी से आती है _, (मुस्लिम)*

*★_ इस हदीस की तशरीह में साहिबे मज़ाहिर हक़ लिखते हैं कि उनके सर बख़्ती ऊंट के कोहान की तरह मिलते होंगे से मुराद वो औरतें हैं जो अपनी चोटियों को जूडे की सूरत में सर पर बाँध लेती हैं,*

*★_ इस हदीस में औरतों के जिस ख़ास तबके की निशानदेही हुई है उसका वजूद आनहज़रत ﷺ के मुबारक ज़माने में नहीं था, बल्की ये आपका मौजज़ा है कि आप ﷺ ने आने वाले ज़माने में इस क़िस्म कि औरतों की पैदा होने की ख़बर दी_,*
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      *⊙⇨कौनसी औरत अच्छी है?*

*★_ हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूले अकरम ﷺ से पूछा गया कि कौनसी औरत बेहतर है? आप ﷺ ने फरमाया - वो औरत जब ख़ाविंद उसकी तरफ़ नज़र उठाए तो ख़ाविंद को खुश कर दे, जब वो कोई हुक्म दे तो उसका हुक्म बजा लाए, अपनी ज़ात और ख़ाविंद के माल में ख़ाविंद की मर्जी के ख़िलाफ़ ऐसा काम न करे जो उसके ख़ाविंद को नापसंद हो _, (बुखारी)*

*★_ हज़रत ज़ेनब रज़ियल्लाहु अन्हा बयान फ़रमाती है कि मैं नबी करीम ﷺ की अहलिया मोहतरमा हज़रत उम्मे हबीबा रज़ियल्लाहु अन्हा के पास उस वक़्त गई जब उनके वालिद हज़रत अबू सुफ़ियान बिन हर्ब का इंतेक़ाल हुआ था, हज़रत उम्मे हबीबा ने ख़ुशबू मंगवाई जिसमें खुलूक़ या किसी और चीज़ की मिलावट की वजह से ज़र्दी थी, उसमें से कुछ खुशबू बाँदी को लगाई फिर उसे अपने रुख़सारों पर मल लिया,*

*★_ इसके बाद फ़रमाया - अल्लाह की क़सम ! मुझे खुशबू के इस्तेमाल करने की कोई ज़रूरत नहीं थी, बात सिर्फ़ ये है कि मैंने रसूलल्लाह ﷺ से सुना है कि जो औरत अल्लाह तआला और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती है उसके लिए ज़ायज़ नहीं है कि वो तीन दिन से ज़्यादा किसी का सोग मनाए सिवाए शोहर के (कि उसका सोग) चार महीने दस दिन है _, (बुखारी)*

*★_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है फ़रमाती है कि मैंने अर्ज़ किया- या रसूलल्लाह! औरत पर सबसे ज्यादा हक किसका है ? आप ﷺ ने इरशाद फरमाया - उसके शोहर का है, मैंने दरयाफ़्त किया कि मर्द पर सबसे ज्यादा हक किसका है? आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया - उसकी माँ का है _, (मुस्तदरक हाकिम)*
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 *⊙⇨आप ﷺ ने औरतों की कोताहियों से दरगुजर का हुक्म दिया:-*

*★_ न सिर्फ़ ये कि नबी करीम ﷺ ने औरतों के साथ बेहतरीन सुलूक और बर्ताव का हुक्म दिया, बल्कि उसकी कमी कमज़ोरी और ख़ास मिज़ाजी कैफ़ियत की वजह से पैदा होने वाली तक़लीफ़ को दरगुजर की भी ताक़ीद फ़रमाई,*

*★_ इसको अल्लाह तआला ने यूँ फ़रमाया -( तर्जुमा सूरह निसा-19) और उन औरतों के साथ हुस्न व ख़ूबी से गुज़र बसर करो और अगर तुमको वो नापसंद हो तो मुमकिन है कि तुम एक चीज़ नापसंद करो और अल्लाह तआला उसके अंदर बड़ी मंफ़'अत (फ़ायदा) रख दे _,*

*★_ इसको एक रिवायत में नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया - कोई मुसलमान मर्द किसी मुसलमान औरत को इसलिए मबगूज़ (बुग्ज़) न रखे कि उसकी कोई आदत नागवार ख़ातिर है, इसलिए कि अगर एक आदत नापसन्द है तो मुमकिन है कोई दूसरी आदत पसंद आ जाए _, (मुस्लिम - 1469)*

*★_ इन रिवायात से पता चलता है कि अल्लाह के नबी ﷺ ने औरत के साथ ख़ुसूसियत से रहम व करम का मामला फ़रमाया, उसकी सनफ़ी नज़ाकत को मलहूज़ रख कर उसके साथ रहम व करम करने का हुक्म दिया, उस पर बोझ और मशक्कत डालने से मना फरमाया, उस पर बेजा सख़्ती से रोका, उसको ज़िल्लत से निकाल कर इज़्ज़त व वका़र का ताज़ पहनाया, माँ, बहू, सास, बीवी वगेरा की शक्ल में उसके हुकूक इनायत किए, उसकी ताजी़म व इकराम का हुक्म किया, उसकी परवरिश और उसकी निगरानी और देखभाल को जन्नत का वसीला और जरिया फरमाया, ये सनफे नाज़ुक के साथ नबी करीम ﷺ का तर्जे अमल था,*
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 *⊙⇨आप ﷺ ने लड़कियों की तालीम व तरबियत पर खास तवज्जो फरमाई और फजी़लत बयान फरमाई:-*

*★_ आप ﷺ का यह रहम व करम ना सिर्फ अजवाज के साथ मखसूस था बल्कि पूरी सनफे नाजुक के साथ आप ﷺ ने बेहतरीन बर्ताव का हुक्म किया, इस्लाम से पहले अरब में लड़कियों को जिंदा दरगोर करने का रिवाज था, लड़की की पैदाइश को बाइसे तंग व आर समझा जाता था, जैसा कि कुरान मजीद ने खुद इसकी मंजर कशी की है,*
*"_(सूरह नहल-58) जब उनमे से किसी को लड़की की खुश खबरी दी जाती है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वो गुस्से से भर जाता है, लोगों से छिपता फिरता है उस बुराई की खुश खबरी के सबब से जो उसे दी गई _,*
*★_ आप ﷺ ने ना सिर्फ औरत को जीने का हक़ दिया और उसको मा'शरे में बुलंद मुकाम दिया, बल्कि औरत के वजूद को खैर और बरकत का बा'इस और नुज़ूले रहमत का ज़रिया और उसकी निगाहदाश्त और परवरिश को जन्नत में दाखिले का ज़रिया बताया,*

*★_ हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है के नबी करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया - जिस मुसलमान की दो बेटियाँ हों, फिर जब तक वो उसके पास रहीं या उनके पास रहे और वो उनके साथ अच्छा बर्ताव करे तो वो दोनो बेटियाँ उसको जरूर जन्नत में दाखिल करा देंगी _, (इब्ने हिबान)*

*★_ हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया - जिस शख़्स ने दो लड़कियों की परवरिश की और देखभाल की वो शख़्स और मैं जन्नत में इस तरह दाखिल होंगे जैसे यह दो उंगलियाँ, ये इरशाद फ़रमा कर आप ﷺ ने अपनी दोनो उंगलियाँ से इशारा फ़रमाया _, (तिर्मिज़ी -1914)*

*★_ हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा रिवायत करती है कि रसूलल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया - जिस शख़्स ने उन बेटियों के किसी मामले की ज़िम्मेदारी ली और उनके साथ अच्छा सुलूक किया तो ये बेटियाँ उसके लिए दोज़ख की आग से बचने का सामान बन जाएँगी _, (बुखारी -5995)*
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 *⊙⇨कुरान पाक में औरतों की इसलाह पर भी ज़ोर दिया गया है:-*

*★_ जिस तरह नान नफ़्क़ा के ज़रिए से बीवी और औलाद और मुतल्लिक़ीन की जिस्मानी तरबियत ज़रूरी है उसी तरह उलूम और इसलाह के तरीक़ो से उनकी रूहानी तरबियत इससे ज़्यादा ज़रूरी है, इसमें भी क़िस्म क़िस्म की क़ौताहियां की जाती है, बहुत से लोग इसको ज़रूरी ही नहीं समझते यानी अपने घर वालों को कभी दीन की बात नहीं बताते और किसी बुरे काम पर उन्हें रोक टोक नहीं करते, बस उनका हक़ सिर्फ़ इतना समझते हैं कि उनकी ज़रुरियात के मुताबिक़ खर्च दे दिया और सुबुकदोश हो गए,*

*★_ हालांकि कुरान मजीद में इरशाद है - ए ईमान वालो अपने घर वालो को दोज़ख की आग से बचाओ_,*
*"_ इसकी तफ़सीर में हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि अपने घर वालो को भलाई यानी दीन की बातें सिखलाओ_, (हाकिम)*

*★_ इस हदीस से मालूम हुआ कि अपनी बीवी बच्चों को दीन की बातें सिखाना फ़र्ज़ है वरना अंजाम दोज़ख होगा, और हदीस सहीह में हुज़ूर अकदस ﷺ का इरशाद है - तुममें से हर एक निगाहबान है क़यामत के रोज़ हर एक से उसके मातहतों के बारे में सवाल किया जाएगा_,*
*®_(इस्लाही इंक़लाब, हयातुल मुस्लिमीन)*

*★_ एक हदीस का मफ़हूम है कि घर वालों को अल्लाह से डराते रहो और तंबीह के वास्ते उनसे डण्डे को ख़त्म न करदो_,*
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 *⊙⇨औरतें अपने अखलाक की इसलाह जरूर करें:-*

*★_ हमारी औरतों के अखलाक निहायत खराब हैं, उनको अपनी इसलाह कराना निहायत जरूरी है और याद रखो बगेर अखलाक़ के दुरुस्त हुए इबादत और वजीफा कुछ कार आमद नहीं,*

*★_ हदीस में है कि जनाबे रसूलल्लाह ﷺ से अर्ज़ किया गया कि या रसूलल्लाह ﷺ फलानी औरत बहुत इबादत करती है, रातों को जागती है लेकिन अपने पड़ोसियों को सताती है, फरमाया कि वो दोजख में जाएगी, और एक दूसरी औरत की निस्बत अर्ज़ किया गया कि वो ज़्यादा इबादत नहीं करती मगर पड़ोसियो से हुस्ने सुलूक करती है, फरमाया कि वो जन्नत में जाएगी_,*

*★_ मगर हमारी औरतों का सरमाया बुज़ुर्गी आज कल तस्बीह और वज़ीफ़ा पढना रह गया, अखलाक की तरफ़ से बिलकुल तवज्जो नहीं, हालांकि अगर दीन का एक जुज़ भी कम होगा तो दीन नाक़िस होगा,*
*®_( इस्लाही इंक़लाब 194)*
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*⊙⇨*औरतों की इसलाह और तरबियत क्यों ज़रूरी है?*
*★_औलाद की इसलाह के लिए औरतों की तालीम का अहतमाम निहायत ज़रूरी है क्योंकि औरतों की इसलाह न होने का असर मर्दों पर भी पड़ता है क्योंकि बच्चे अक्सर मांओं की गोद में पलते हैं और उन पर मांओं के अखलाक़ और आदतों का बड़ा असर होता है हत्ताकि हिकमा का क़ौल है कि जिस उम्र में बच्चा चाहे बात न कर सके मगर उसके दिमाग में हर बात हर फ़ैल मुंकश हो जाता है, इसलिए उसके सामने कोई बात बेजा और ना ज़ेबा ना करनी चाहिए,*

*★_ बल्कि बाज़ हिकमा ने ये लिखा है कि बच्चा जिस वक़्त माँ के पेट में होता है उस वक़्त भी माँ के अफ़'आल का असर उस पर पड़ता है, इसलिए लड़कियों की तालीम और इसलाह ज़्यादा ज़रूरी है,*

*★_ बाज़ लोग तालीम को तो सबके लिए ज़रूरी समझते हैं मगर तरबियत को सबके लिए ज़रूरी नहीं समझते, हालांकि तरबियत की ज़रूरत तालीम से भी अहम है, तालीम से मक़सूद ही तरबियत होती है, इसे नज़र अंदाज़ करने की और ज़रूरी ना समझने की तो किसी हाल में गुंजाइश नहीं,*

*★_ जोजैन (मियाँ बीवी) का ताल्लुक ऐसा होता है कि हर वक़्त का साबक़ा रहता है और मर्द अपनी मसलिहतों की वजह से उसको छोड़ना पसंद नहीं करता और न ही औरतों की जहालत को बर्दाश्त करता है तो यहाँ हमेशा के लिए लड़ाई झगड़े की बुनियाद क़ायम हो जाती है जिसके नतीजे दोनो के हक़ में बुरे होते हैं और दोनो की ज़िंदगी मौत से भी तल्ख (बे मज़ा) हो जाती है,*

*★_ और इन सबका सबब वही शुरू में इसलाह की तरफ़ तवज्जो न करना है, लेकिन अगर ऐसा इत्तेफ़ाक हो गया तो उनको छोड़ा नहीं जाए बल्कि जब भी मौक़ा हो तब ही इसकी कोशिश करना ज़रूरी है, ख़ुलासा ये है कि माँ बाप या परवरिश करने वालों के ज़िम्मे बच्चों की तालीम और तरबियत ज़रूरी है और शौहर के ज़िम्मे बीवी की_,*
*®_( इस्लाहे इंक़लाब -2/201)*
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*⊙⇨औरत क़ना'त नहीं रखती इसलिए परेशान रहती है:-*
*★_ अक्सर औरतों की ग़फलत से शिकायत है कि अफ़सोस उनको दुनिया की तकमील का ख़याल है दीन की तकमील का क़त'न ख़याल नहीं, मेरा मक़सद ये है कि औरतों को दीन की तकमील से भी ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिए क्योंकि उनको अपने ज़ेवर कपड़े और मकान की ज़रूरतों की तकमील से किसी वक़्त भी ग़फलत नहीं होती और वक़्तन फ़ा वक़्तन मर्दों से उसके मुताल्लिक फ़रमाइश करती रहती है और अगर मर्द किसी वक़्त किसी फ़रमाइश को ग़ैर ज़रूरी बताते हैं, बर्तनों और मकान की ज़रूरतों के मुताल्लिक इख़्तिलाफ़ होने लगता है,*

*★_ मर्द यूँ कहते हैं कि इन चीज़ों की ज़रूरत नहीं है और औरतों के नज़दीक उनकी ज़रूरत हो तो इस मौक़े पर औरतें कह देती हैं कि तुमको इन चीज़ों की क्या ख़बर है तुमको थोड़ी घर में हर वक़्त रहना है, इसको तो हम ही ज़्यादा जानते हैं, और बाज़ औरतों का तो ये कहना सही भी होता है क्योंकि वाक़ई मर्दों को उन जरूरतों का पूरी तरह इल्म नहीं होता,*

*★_ और बाज़ औक़ात इस इख़्तिलाफ़ का सबब ये होता है कि मर्दों में क़ना'त का माद्दा औरतों से ज़्यादा है, मर्द थोड़े से सामान में भी गुज़र कर लेता है और औरतों में क़ना'त का माद्दा ही नहीं है, उनकी तबियत में बखेड़ा बहुत है, उनसे थोड़े सामान में गुज़र होता ही नहीं जब तक सारा घर सामान से भरा भरा नज़र ना आए,*

*★_ मेरे अर्ज़ करने का मतलब ये है कि दुनिया की तकमील का तो इस कदर ख़याल है कि थोड़े पर क़ना'त नहीं होती, मर्दों से इख़्तिलाफ़ होने लगता है, दीन की तकमील का इस कदर ख़याल क्यों नहीं, इसमें क्यों थोड़े पर क़ना'त कर ली जाती है,*
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*⊙⇨औरतों की इसलाह की जिम्मेदारी मर्दों पर है:-*

*★_ मर्द अपनी बीवियों की तो शिकायत करते हैं कि ऐसी बद तमीज़ और ऐसी जाहिल है मगर वो अपने गिरेबान में मुंह डालकर तो देखें कि उन्होंने उनके साथ क्या बर्ताव किया, औरतों की तो खता है ही मगर उनकी बे तमीज़ी में मर्दों की भी खता है कि ये उनके दीन की दुरुस्ती का अहतमाम नहीं करते और उनके दीनी हुकूक को जा़या करते हैं,*

*★_ हम बीवियों की शिकायत तो करते हैं मगर ये नहीं देखते कि हमने बीवियों का कौनसा हक़ अदा किया है, चुनांचे उनका एक हक़ ये था कि उनके दीन का ख्याल करते, उनको अहकाम ए इलाही बताते, दूसरा हक ये था कि मा'शरत में उनके साथ दोस्ताना बर्ताव करते, बांदियों और नोकरों का सा बर्ताव न करते, मगर हमने सब हुकूक ज़ाया कर दिए,*

*★_ अफ़सोस हम दुनियावी हुकूक तो अदा किया करते हैं, दीनी हुकूक पर ही हमको तवज्जो नहीं, चुनांचे ना बीवी की नमाज़ पर तवज्जो है ना रोज़े पर, इन बातों को उनके कानों में डालते ही नहीं, याद रखो क़यामत में तुमसे बाज़ पुर्स होगी कि तुमने बीवी बच्चों को दीनदार बनाने की कितनी कोशिश की थी,*

*★_ औरतों को भी दीनदार बनाओ वरना मुत्तकी़ हो कर भी तुम उनके साथ जहन्नम में डाल दिए जाओगे, औरतों को दीनदार बनाना और उनकी इस्लाह करना मर्दों के ज़िम्मे है, अगर वो इसमें कोताही करेंगे तो उनका भी मुवाख़्ज़ा होगा, क्योंकि हक़ ताला का हुक्म है - ए मुसलमानो अपनी जानों को भी जहन्नम से बचाओ और अपने घर वालों को भी _,*

*★_ मुत्तकी बन जाना क़यामत में अज़ाब से निजात के लिए काफ़ी न होगा, अगर कोई मर्द खुद मुत्तकी बन जाए और अपने घर वालों के दीन की ख़बर न ले तो खुदा ताला उसकी औरतों के साथ उसको भी जहन्नम में भेज देंगे, तन्हा उसका मुत्तकी बन जाना क़यामत में अज़ाब से निजात के लिए काफ़ी न होगा,*

*★_ घर वालों को दोज़ख से बचाने का मतलब यही है कि उनको तम्बीह करो, बाज़ लोग बतलाते तो हैं मगर ढी़ल छोड़ देते हैं, कहते हैं कि दस दफ़ा तो कह दिया ना माने तो हम क्या करें, सच तो ये है कि मर्दों ने भी दीन की ज़रूरत को ज़रूरी नहीं समझा, खाना ज़रूरी, फ़ैशन ज़रूरी, मगर गैर ज़रूरी समझा है तो दीन को _,*
*®_ (इस्लाही इंक़लाब -2/202)*
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*⊙⇨ज़कात के मुताल्लिक औरतों की ग़लती और उस पर अल्लाह की नाराज़गी:-*

*★_ जिस औरत के पास माल हो और वो उसकी ज़कात न निकालती हो तो अल्लाह तआला के नज़दीक वो बड़ी गुनाहगार है, क़यामत के दिन उस पर बड़ा सख़्त अज़ाब होगा,*

*★_ हज़रत असमा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि मैं और मेरी ख़ाला नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में इस हालत में हाज़िर हुए कि हम सोने के कंगन पहने हुए थे, आपने हमसे पूछा क्या तुम इनकी ज़कात देती हो? हमने अर्ज़ किया नहीं, आपने फ़रमाया - क्या तुमको इससे डर नहीं लगता कि तुमको अल्लाह तआला आग के कंगन पहनाएं ? इसकी ज़कात अदा किया करो _, (बहिश्ती ज़ेवर-322, हैवतुल मुस्लिमीन)*

*★_ और नबी ﷺ ने फ़रमाया कि जिसको अल्लाह ने माल दिया और उसने ज़कात ना अदा की तो क़यामत के दिन उसका माल एक बड़े ज़हरीले गंजे साँप की शक़ल का बना दिया जाएगा और उसके गले में तोक़ की तरह डाल दिया जाएगा, वो उसकी गर्दन में लिपट जाएगा फिर उसके दोनों जबड़े नोचेगा और कहेगा मैं ही तेरा माल हूँ और मैं ही तेरा ख़ज़ाना हूँ _, (सहीह बुखारी)*

*★_ खुदा की पनाह भला इतने अज़ाब को कौन बर्दाश्त कर सकता है, थोड़े से लालच के बदले ये मुसीबत भुगतना बड़ी बेवकूफी की बात है, खुदा ही की दी हुई दौलत को खुदा की राह में ना देना कितनी बेजा बात है _,*
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*⊙⇨_ऐ औरतों! ज़ेवर की ज़कात तुम पर फ़र्ज़ है:-*

*★_ ज़कात में औरतें बहुत सुस्ती करती हैं कि अपने ज़ेवरों की ज़कात नहीं देती, याद रखो! जितना ज़ेवर औरत को जहेज में मिलता है वो उसकी मिल्कियत है उसकी ज़कात देना उस पर वाजिब है और जो ज़ेवर शोहर के घर से मिलता है अगर वो उसने उसकी मिल्कियत कर दिया है तो उसकी ज़कात भी उस पर वाजिब है और अगर मिल्कियत में नहीं किया (यानी उसको मालिक नहीं बनाया बल्कि महज़ पहनने के वास्ते दिया है) तो उसकी ज़कात मर्दों के ज़िम्मे वाजिब है, हर साल अपने ज़ेवर का हिसाब करके जितनी ज़कात अपने ज़िम्मे हो फ़ौरन अदा कर देना चाहिए, इसमें सुस्ती करने से गुनाह होता है,*

*★_ देखो अल्लाह तआला ने बहुत से ग़रीबों को माल नहीं दिया हालांकी अक्सर गुरबा कमालात में तुमसे बढ़े हुए हैं कि वो नमाज़ी भी हैं और दीनदार भी हैं, फिर भी जो उनको खुदा ने माल नहीं दिया और तुमको दिया है तो इसकी क्या वजह है? खुदा ने अमीरों (मालदारों) को इसी वास्ते माल दिया है कि वो ग़रीबों को दिया करें, क्योंकि हर शख़्स उतने ही माल का हक़दार है जितने की उसको ज़रूरत है,*

*★_ फिर जिसको खुदा ने हाजत से ज्यादा माल दिया है वो जमा करने के वास्ते नहीं है बल्कि उन लोगो को देने के वास्ते है जिनको बाक़द्रे हाजत भी नहीं मिला, और इसमे अल्लाह ताला की बहुत सी हिकमतें है कि वो ग़रीबो को अमीरो के हाथ से दिलवाना चाहते है, इस क़ायदे का तो ये मुक़्तज़ा यह था कि अमीरो को ये हुक्म दिया जाता कि जितना माल उनकी ज़रूरत से ज़्यादा हो सब ग़रीबो को दे दिया करें,*

*★_ क्योंकि अक़लान वो उनका हक़ ही है लेकिन ये खुदा की कितनी बड़ी रहमत है कि उसने सारा माल देने का हुक्म नहीं किया सिर्फ़ चालीसवां हिस्सा वाजिब किया, फिर इसमें भी कोताही करना बड़ा ज़ुल्म है _,*
*®_ (अल कमाल फ़िद दीन-107)*
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*⊙⇨ज़कात से तुम्हें दीनी और दुनियावी परेशानियों से निजात मिल सकती है :-*

*★_ मुसलमानों की ज़्यादातर ज़ाहिरी और बातिनी परेशानियों का सबब तंगदस्ती है और ज़कात इसका इलाज है, अगर मालदार फ़िज़ूल खर्ची न करे और हट्टे कट्टे लोग मेहनत मज़दूरी करते रहे और माज़ूर लोगों की ज़कात से इमदाद होती रहे तो मुसलमानों में एक भी नंगा भूखा न रहे, सबसे ज़्यादा ज़कात के हक़दार अपने ग़रीब रिश्तेदार हैं चाहे वो बस्ती में हो या दूसरी जगह, उनके बाद अपनी बस्ती के दूसरे ग़रीब, लेकिन अगर दूसरी बस्ती के लोग ज़्यादा गरीब हों तो फिर उनका हक़ ज़्यादा है,*

*★_ अफसोस की बात है कि अकसर औरतों की आदत ज़कात न देने की हो चुकी है, अकसर औरतें ज़कात नहीं देती क्योंकि रुपया खर्च होगा, बाज़ दफ़ा ज़ेवर की ज़कात ना मर्द देता है ना औरत, मर्द कहता है कि ज़ेवर औरत का है और औरत कहती है कि ज़ेवर मर्द का है मैं क्यों ज़कात दूं, जिसका माल है खुद दे, मगर इस बहाने से खुदा के यहाँ से नहीं छूट सकते आखिर दोनो में किसी का तो है ही, बस उसके ज़िम्मे ज़कात है,*

*★_ और अगर दोनों का है तो हर एक अपने अपने हिस्से की ज़कात अदा करे, और अगर वाक़ई ना उसका है ना इसका तो फिर ये माल खुदा का है, इसको वक़्फ़ के मसारिफ में किसी मस्जिद या मदरसे में लगा देना चाहिए या ग़रीबों को बांट देना चाहिए _,*
*®_( हैवतुल मुस्लिमीन -215)*
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*⊙⇨ऐ औरतों अपने इन ऐबो को ख़त्म कर लो ताकि दीनदार बन जाओ :-*
*★_ ज़्यादा अफ़सोस तो इस बात का है कि हमको ये भी मालूम नहीं कि हमारे अंदर कुछ अमराज़ भी है या नहीं, गोर करने से मालूम होता है कि अकसर लोगों में दो मर्ज़ बा कसरत पाए जाते हैं एक माल की मुहब्बत और इज़्ज़त और बड़ा बनने का शौक, दोनों का रंग मर्दों और औरतों में मुख़्तलिफ़ है, मर्दों में हुब्बे जाह इस रंग से है कि अपने को बड़ा समझते हैं और औरतें अपने को बड़ा तो नहीं समझती मगर अपने को बड़ा ज़ाहिर करना चाहती हैं, ऐसी बातें और ऐसे तरीक़े अख्तियार करती हैं कि जिनसे उनका बड़ा होना दूसरों पर ज़ाहिर हो,*

*★_ इसी तरह माल की मुहब्बत के रंग में भी दोनों मुख़्तलिफ़ हैं, मर्दों को रुपयों से ज़्यादा मुहब्बत है और किसी चीज़ से इतनी नहीं, इस वास्ते उसके जोड़ने और जमा करने के पीछे पड़े रहते हैं और औरतों को ज़ेवर और कपड़े और बर्तन वगेरा घरेलु सामान से मुहब्बत ज़्यादा होती है कि रंग बिरंग के कपड़े, क़िस्म क़िस्म के बर्तन, मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ज़ेवर हों,*

*★_ मर्द तो कपड़ों में पेवंद तक लगा लेते हैं मगर औरतें है कि उनको नये कपड़ो भरे संदूक भी काफी नहीं होते, चाहती है कि कपड़ो से घर भर लें, औरत गरीब की भी होगी तो अपने को ऐसा बनाएगी कि गोया बिलकुल अमीर की लड़की या किसी बड़े आदमी की बीवी है,और ये सब साज़ो सामान और सजावत शोहर के लिए नहीं बल्कि दूसरों को दिखाने की गर्ज से होता है,*

*★_ हालांकी आपस में खानदान वालो को एक दूसरे का हाल मालूम ही होता है कि इसकी इतनी हैसियत है और इसकी इतनी, फिर दिखाने से क्या फायदा, हालांकी ये महज़ नासमझी की बात है, ये माना कि औरतों के लिए ज़ीनत मुनासिब है मगर उसमें ऐतदाल (हद) से आगे तो ना हो,*
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*⊙⇨ हिर्स का मर्ज़ सारे गुनाहों की जड़ है :-* 

*★_ हिर्स तमाम बीमारियों की जड़ है और ये मर्ज़ औरतों में ज़्यादा होता है और ये ऐसा मर्ज़ है कि इसको उम्मुल अमराज़ ( तमाम गुनाहों की जड़ ) कहना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से झगड़े फसाद होते हैं, इसी वजह से मुकद्दमा बाजियां होती है, अगर लोगो में माल की हिर्स ना हो तो कोई किसी का हक़ ना दबाए, फिर इन फसादात की भी नोबत ना आएं, बदकारी और चोरी वगैरा का सबब भी हिर्स ही है,* 

*★_ आरिफ़ीन का क़ौल है कि तमाम अखलाक़ रज़ीला की जड़ तकब्बुर है और तकब्बुर का सबब भी एक दर्जा में हिर्स है, बल्की यूं कहना चाहिए कि वो भी हिर्स का एक फर्द है, ना इत्तेफाकी का सबब भी हिर्स है और फख्र करने का सबाब भी यही हिर्स है क्योंकि माल व दौलत का दिखाना माल जमा करने के बाद ही हो सकता है और माल जमा होता है हिर्स से, तो हिर्स का उम्मुल अमराज़ और तमाम गुनाहों की बुनियाद होना साबित हो गया,* 

*★_ हदीस पाक में आया है, दुनिया की मुहब्बत तमाम गुनाहों की बुनियाद है, दुनिया की मुहब्बत ही का नाम तो हिर्स है और औरतों में ये मर्ज़ मर्दों से ज्यादा है,*
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*⊙⇨जब चार औरतें जमा हो जाएं तो सुबह से शाम तक दुनिया का तज़किरा होगा लिहाज़ा गुनाह भी हो ही जाएगा:_,* 

*★_ औरतें खुद गौर कर सकती हैं कि उनकी मजलिसों में कितनी मजलिसें ऐसी है 'जिनमें दीन का ज़िक्र होता है और गो दुनिया का ज़्यादा तज़किरा करना भी मुबाह है जबकी गुनाह की कोई बात (गीबत चुगली वगैरा) ना की जाए, मगर इस मुबाह की सरहद गुनाह से मिली हुई है, जो शख़्स दुनिया के तज़किरे का मशगला ज़्यादा रखेगा वो ज़रूर गुनाहों में मुब्तिला होगा,* 

*★_ बुज़ुर्गो का भी यही इरशाद है और तजुर्बा भी यहीं बतलाता है, इसलिए मुसलमान को चाहिए कि ज्यादा इता'त में मशगूल रहे, मुबाहात में भी ज़्यादा इन्हिमाक ना करे, इसलिए दुनिया का ज़्यादा तज़किरा करना कि सारी मजलिस में अव्वल से आखिर तक यही जिक्र हो ये गुनाह का ज़रिया ज़रूर है, इसका सबब वही दुनिया की मुहब्बत है जो सब औरतों पर अमूमन ग़ालिब है,*

 *★_इसलिये औरतें बहुत कम दीनदार होती हैं और जिन बाज़ मक़ामात की औरतों में दीनदारी है वो सिर्फ इसी वजह से है कि उनमें दुनिया की मुहब्बत कम है _,* 
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*⊙⇨औरतों में शेखी का मर्ज़ और उसका इलाज:-* 

*★_ शेखी का मर्ज़ भी औरतों में बहुत है, शेखी मज़मूम और ममनू है और ये ज़मीमा यानी शेखी बघारने की बुरी आदत औरतों की गोया फ़ितरत में दाख़िल है, उठने में बैठने में बोलने में चलने में, ज़ेवर में तो ऐसा इसको अपनाया है कि इसकी बुनियाद ही इस पर है,* 

*★_ शेखी और तकब्बुर व रियाकारी से बचने की उम्दा तदबीर मैने मर्दों को सिखलायी है, गो औरतें इससे बहुत ख़फ़ा होती हैं मगर वो शेखी का इलाज है (बड़ी और समझदार औरतों को चाहिए कि इसका रिवाज डाले) वो तरकीब ये है कि औरतों से ये तो मत कहो कि आपस में जमा न हों ये तो होना मुश्किल है और इसमें वो माजूर भी है, इसमें तो सख़्ती न करो मगर ये करो कि कहीं जाते वक्त कपड़े ना बदलने दिया करो, इसके लिए मर्दाना हुकूमत से काम लो और जब कहीं जाएं तो सर पर खड़े हो कर मजबूर करो कि कपडे ना बदलने दिया करो,* 

*★_ ये अजीब बात है कि घर में तो नोकरानियों की तरह रहें और बाहर निकलना हो तो बन संवर कर बेगम साहिबा बन जाएं, हर चीज़ की कोई गर्ज और गायत होती है, कोई इनसे पूछे कि अच्छे कपड़े पहनने की ग़र्ज़ क्या सिर्फ गैरो (और दूसरों) को दिखाना है, ताज्जुब है कि जिसके वास्ते ये कपड़े बनें और जिसके दाम लगे उसके सामने तो कभी ना पहने जाएं और गैरो के सामने जाएं,* 

*★_ और औरतें भी सुन लें कि अगर कपड़े बिल्कुल ही मैले हैं तो खैर बदल लो वो भी सादे वर्ना हरगिज़ ना बदलो, सीधे सादे कपड़ों में मिल आया करो, मिलने से जो ग़र्ज़ है वो इस सूरत में भी हासिल होगी और अख़लाक़ की दुरुस्तगी के अलावा ज़रा कर के देखो तो इसके फ़ायदे मालूम होंगे, और अगर ये ख्याल हो कि इसमे हमारी हिका़रत होगी तो एक जवाब तो इसका ये है कि नफ्स की तो हिका़रत होनी ही चाहिए,* 

*★_ और दूसरा तसल्ली बख्श जवाब ये है कि जब एक बस्ती में ये रिवाज हो जाएगा कि सीधी सादी तरह से मिल लिया जाए तो उंगली उठाना और तहकी़र भी बंद हो जाएगी,*
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*⊙⇨औरतों के तकब्बुर और हुब्बे दुनिया का इलाज :-*
*★_ (1) औरतों को चाहिए कि उमड़ा कपड़ा पहन कर कहीं ना जाएं, जहां जाएं उन्हीं कपड़ों में चली जाएं जो पहले से पहने हुए हों, इस तरह करने से तकब्बुर टूट जाएगा, मगर उनकी हालत ये है कि जहां जाएंगी लद भदकर जाएंगी ताकि शान जाहिर हो,* 

*★_ (2 ) औरतों में हुब्बे दुनिया (ज़ेवर वगैरा) का गलबा ज़्यादा है, इसका इलाज ये है कि (ज़ेवर लिबास) शोहर के सामने तो (घर में) ख़ूब पहना करें, मगर उनकी हालत ये है कि बिरादरी में जाएंगी तो खूब बन ठन कर और जब आएंगी तो फौरन उतार देगी ताकि जिस हाल में खाविंद ने देखा था उसमें देखे, इसका इलाज ये है कि खाविंद के सामने पहनें और कहीं न जाएं तो ना पहनें,* 

*★_ (3) ऐसे ही इलाज गीबत का है इसमें इस्तग़फार काफी नहीं बल्कि जिसकी गीबत की है उससे कहो कि मैंने तुम्हारी गीबत की है माफ कर दो,*
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*⊙_ हिर्स और दुनिया की मुहब्बत का इलाज :-* 

*★_ रसूलुल्लाह ﷺ ने हिर्स का सही इलाज तवज्जो इलल्लाह को बताया है और ये हिर्स का इलाज इस वजह से है कि क़ायदा ये है कि नफ्स एक वक्त में दो चीजों की तरफ मुतवज्जह नहीं होता और जाहिर है कि हिर्स की हक़ीक़त दुनिया की तरफ तवज्जो और मिलान होना है, जब इस तवज्जो को किसी दूसरी चीज की तरफ फैर दिया जाएगा तो दुनिया की तरफ तवज्जो बाक़ी न रहेगी,* 

*★_ जब हिर्स का सही इलाज मालूम हो गया तो अब समझें कि तवज्जो इलल्लाह क्या चीज़ है, बाज़ लोगों ने तो ये समझा है कि तवज्जो इलल्लाह का ये मतलब है कि नमाज़ पढ़ो और रोज़े रखो और शरई अहकाम की पाबंदी करो, इन लोगों ने जा़हिरी आमाल पर इकतिफा किया और ये लोग दिल से खुदा की तरफ मुतवज्जह होने की ज़रुरत महसूस नहीं करते,* 

*★_ और बाज़ लोगों ने कहा कि तवज्जो इलल्लाह यानी अल्लाह की तरफ मुतवज्जह होने का मतलब ये है कि सिर्फ दिल से खुदा की तरफ मुतवज्जह हों, ये ज़िक्र शगल और मुराक़बा ही को ले बेठे, इन लोगों ने नमाज़ और रोज़ा, तिलावत कुरान पाक वगेरा सब छोड़ दिया, एसे लोगों को भी बरकत और नुरानियत हासिल नहीं होती,* 

*★_ तवज्जो इलल्लाह की हक़ीक़त यही है कि खुदा की तरफ दिल से मुतवज्जह हो, मगर हक़ीक़त की एक सूरत भी हुआ करती है और तवज्जो इलल्लाह की हक़ीक़त वही है जो शरीयत ने बताई है, बस दोनों को जमा करना चाहिए कि दिल से अल्लाह की तरफ मुतवज्जह रहो और ज़ाहिर से शरई आ'माल के पाबंद रहो, इताअत करो और गुनाहों से बचने का अहतमम करो, निगाहों की हिफाज़त करो कि नामेहरमों की बातें भी ना सुनो, आ'माल जा़हिरा बातिना दोनों को जमा करना चाहिए, फिर इंशा अल्लाह कामयाबी जरूर होगी,*
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*⊙__तवज्जो इलल्लाह पैदा करने की तरकीब :-* 

*★_ एक तरकीब ये है और ये ऐसी तरकीब है जिसमें तुमको इंशा अल्लाह तआला सोहबत की बरकत हासिल होगी और ये जो दायरे से बाहर कदम निकला जा रहा है ये रुक जाएगा और वो तरकीब ये है कि एक वक्त मुकर्रर कर के उस वक्त में मौत को याद करो और फिर क़ब्र को याद करो और फिर हश्र को याद करो और फिर यौमे हश्र (क़यामत) को याद करो और वहां के मसायब को याद करो और सोचो कि हमको खुदा के रूबरू खड़ा किया जाएगा और हमसे बाज़ पुर्स होगी, एक एक हक़ उगलना पड़ेगा और फिर सख्त अज़ाब का सामना होगा,*

*★_इस तरह रोज़ाना सोते वक्त सोचा करो, दो हफ्ते में इंशा अल्लाह काया पलट जाएगी और दुनिया के साथ जो दिलचस्पी है वो ना रहेगी, इलाज यही है कि सोचना शुरू कर दो, आखिरत के तमाम उमूर को सोचा करो कि मै मर कर कब्र में चली जाऊंगी, फिर ये कि खुदा के सामने हिसाब के लिए खड़ी की जाऊंगी, इसके बाद पुल सिरात पर चलना होगा, फिर जन्नत मिलेगी या दोज़ख में डाली जाउंगी, दोज़ख में कोई पुरसाने हाल न होगा,* 

*★_ ग़र्ज़ उन सारे उमूर को सोचा करो और खुदा की इता'त को अपने ऊपर लाज़िम कर लो, खुदा की इता'त में खास असर है कि इससे फिक्र पैदा होगी और फिक्र पैदा होने से तमाम काम दुरुस्त हो जाएंगे,* 

*★_ और एक बात और अपने ऊपर लाज़िम कर लो वो ये कि जो अपने जी में आए उसे फोरन मत कर लिया करो बल्कि उलमा से तहकी़क़ कर के किया करो, अगर ना-जा'इज बतलायें हरगिज़ उस काम को मत करो, इस तरह दस्तूरे अमल रखने से फिर दिल दुनिया पर हरगिज़ मुतमइन ना होगा_,*
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*⊙__औरतों को एक दूसरे से मिलने में एहतयात:-* 

*★_कुरान शरीफ में औरतों को हुक्म है कि (अहज़ाब-33) तुम अपने घर में जम कर बैठो, इससे साफ मालूम होता है कि औरतों के लिए असल हुक्म यहीं है कि वो अपने अपने घरों से बाहर ना निकले, ना औरतों से मिलने के लिए ना मर्दों से मिलने के लिए,* 

*★_ आख़िर कुछ तो बात है जो हक ता'ला ने औरतों को घर में रहने का हुक्म दिया, इससे मालूम होता है कि घर से बाहर निकलना नुक़सान दह है, अलबत्ता ज़रूरत के मोक़ो पर अपने खाविंद की इजाज़त से दूसरों के घर जा सकती है,*

 *★_अल्लाह की बन्दियो! आख़िर तुम जिसको खुजली का मर्ज़ हो उससे बचती हो और उनके पास बैठना और उससे मिलना जुलना तुमको गवारा नहीं होता कि कहीं हमको भी खुजली न हो जाए और ये हालत तो खुजली से भी बदतर है, खुजली का नुक़सान तो सिर्फ जिस्मानी है और इसका नुक़सान जिस्मानी भी है और रूहानी भी,* 

*★_ जिस्मानी नुक़सान तो ये है कि जब तुम दूसरी औरत को अपने से अच्छी हालत में देखोगी और उन जेसा बनना चाहोगी और तुम्हारी हैसियत उनके बराबर नहीं होगी तो तुमको ख़ामो ख़्वाह परेशानी होगी और रात दिन तुम इस फ़िक्र में घुलोगी कि हाय मेरे पास भी ये चीज़ होती वो चीज़ होती_,*

*★_फ़िर बाज़ दफा तुम मर्दों से भी इस क़िस्म की फरमाइश करोगी जो उनकी हैसियत से ज़्यादा है उनको ये फरमाइश नागवार होगी, जिससे ख्वाह मख्वाह दिलों में मैलापन और दूरी पेदा होगी जिससे बाज़ अवका़त दूर तक नोबत पहुंच जाती है,* 

*★_ और रूहानी नुक़सान ये है कि इससे नाशुक्री का मर्ज बढ़ता है, जब तुम दूसरों को अपने से बढ़ा हुआ देखोगी तो उन नियामतों की क़दर ना करोगी जो खुदा ने तुमको अता फरमायी हैं, हमेशा यही समझोगी कि मेरे पास क्या है कुछ भी नहीं,* 

*★_ इसलिये जिस पर मिलने जुलने का ऐसा असर पड़ता हो उसको यहीं हुक्म दिया जाएगा कि वो किसी से ना मिले और अगर मिले तो गरीब नादार औरतों से मिले, क्योंकि गरीबों से मिल कर तुम्हारा जी खुश होगा और खुदा का शुक्र करोगी कि अल्हम्दुलिल्लाह बहुत सी औरतों से अच्छी हालत मे हूं,* 

*★_ और यही नुक्ता है इस हदीस में (बल्कि वाज़े दलील से मज़कुरा बाला तफ़सील की) कि हुज़ूर ﷺ ने हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से फरमाया - ए आयशा मिस्कीनो के पास बैठा करो और उनको अपने नज़दीक किया करो, मिस्कीनों के पास बैठने से खुदा की नियामतों की क़दर होती है और दिल ख़ुश रहता है _, (अल कमाल फ़िद दीन 86)*
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*⊙__ ऐ औरतों! फ़िज़ूल उज़्र की वजह से नमाज़ में कोताही मत करो:-* 

*★_ अकसर औरतें तो नमाज़ ही नहीं पढ़ती और ये उज़्र करती हैं कि हमको घर के कामों से फुर्सत ही नहीं मिलती, मैं कहता हूं कि उज़्र करने वालो को अगर ऐन काम के वक्त पेशाब की ज़रूरत इस शिद्दत से हो कि उसको रोक ही ना सके या इत्तेफ़ाक से बैतुल खला में जाने का शदीद तकाज़ा हो तो इस सूरत में क्या करेंगी, क्या उस वक्त तक जब तक कि पेशाब से फरागत हो काम का हर्ज करेंगी या नहीं? ज़ाहिर है कि मजबूरन काम का हर्ज करना पड़ेगा, तो क्या ख़ुदाई हुक्म की इतनी भी ज़रूरत नहीं जितनी तबई तक़ाज़ो की होती है,*

 *★_आदमी जिस काम के लिए आमादा हो जाता है अल्लाह तआला उसमें ज़रूर मदद फरमाते हैं, ज़रा नमाज़ शुरू कर के तो देखो इंशा अल्लाह फूलो की तरह हल्की हो जाएंगी, मगर अब तो औरतें इरादा ही नहीं करती, इसलिए ना करने के सो बहाने हैं, वर्ना कुछ मुश्किल बात ना थी,*

*★_ लीजिए मैं एक तदबीर बतलाता हूं जिससे बहुत जल्दी नमाज की पाबंदी हासिल हो जाएगी वो ये है कि जब एक वक्त़ की नमाज़ क़जा़ हो तो एक वक्त़ का फाका़ करो, फिर देखो नमाज़ कैसे क़ज़ा होती है, अगर कोई कहे कि नमाज़ की पाबंदी तो फ़ाक़े से होगी मगर फ़ाके की पाबंदी कैसे होगी, इसकी भी तो कोई तरकीब बताओ क्योंकि ये तो नमाज़ से भी ज़्यादा मुश्किल है, फ़ाका किससे हो सकता है?* 

*★_ अगर किसी से ये ना हो सके तो वो अपने जिम्मे कुछ माली जुर्माना मुक़र्रर कर ले कि इतने पैसे फी नमाज़ खैरात करूंगी, या कुछ नमाजे़ मुकर्रर कर लें कि एक नमाज़ कज़ा हुई तो मसलन 10 रकअत निफ़्ल बतोर जुर्मना के पढ़ा करुंगी, इस तरह चंद रोज़ में नफ्स ठीक हो जाएगा इंशा अल्लाह तआला, ज़रा अमल करके तो देखो,*
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*⊙__ औरतों को नमाज़ का पाबंद और दीनदार बनाने की ये भी एक तदबीर है :-* 

*★_ एक आसान तदबीर बतलाता हूं और इस पर अमल करने से ज़रूर दीन की पाबंदी हो जाएगी वो ये है कि जिस रोज़ नमाज़ वगैरा में औरतों की ज़रा सुस्ती देखें उस रोज़ उनके हाथ का खाना ना खाओ, ये ऐसी सख़्त सज़ा है कि इसके बाद बहुत जल्दी इस्लाह हो जाएगी क्योंकि जिस रोज़ तुम उनके हाथ का खाना ना खाओगे उस रोज़ यक़ीनन उनका भी फाका़ होगा, बस जब दो चार रोज़ ऐसा होगा खुद संभल जाएंगी,* 

*★_ नमाज़ में औरतें बहुत कोताही करती हैं, बाज़ तो नमाज़ पढ़ती ही नहीं और बाज़ पढ़ती है‌ मगर उनका क़ुरान सही नहीं है और ना क़ुरान सही करने का अहतमम करती हैं और बाज़ का क़ुरान भी सही है तो वो वक्त को बहुत तंग कर देती हैं, ज़ुहर की असर् के वक़्त और असर् की मगरिब की वक़्त पढ़ती हैं,*

*★_ हालांकि मर्दों के लिए तो बाज़ अवका़त में तो ताख़ीर मसनून भी है मगर औरतों के लिए तो सब नमाज़े अव्वल वक़्त पढ़ना अफ़ज़ल है मगर ये अव्वल तो अव्वल आख़िर में भी नहीं पढ़ती अक़्सर क़ज़ा पढ़ती है और बाज़ औरतें ये कोताही करती हैं कि उन नमाजों की क़ज़ा नहीं करतीं जो हर महीने उनसे गुस्ल की ताख़ीर की वजह से छूट जाती हैं, अगर एहतयात करें और मसला अच्छी तरह से मालूम कर लें तो अव्वल तो ऐसी नोबत ही ना आए और जो गलती से ऐसा हो जाए तो जल्दी ही क़ज़ा करना चाहिए,*

*★_ ग़र्ज़ आमाले जा़हिरा में नमाज़ सबसे अहम है इसकी अच्छी तरह से पाबंदी करना चाहिए और दिल लगा कर नमाज़ पढ़ा करें जल्दी जल्दी सर से बोझ ना उतारें, बाज़ औरतें कुरान गलत पढ़ती हैं इसका अहतमाम भी ज़रूरी है कि कुरान पाक सही हो जाए, बाज़ दफा ऐसी गलती हो जाती है जिससे नमाज़ टूट जाती है, चंद सूरतें तो नमाज़ के लिए कम से कम ज़रूर सही कर लो_,*
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*⊙__ अगर गीबत की आदत रखोगे तो आपस में ताल्लुक़ात खराब हो जाएंगे :-* 

*★_ औरतें गीबत बहुत करती हैं और खुद भी हिकायत शिकायत करती हैं और दूसरों से सुनती हैं और इस तलाश में रहती हैं कि कोई औरत बाहर से आई और पूछना शुरू किया कि फलां मुझको क्या कहती थी गोया इंतजार ही कर रही थी_,* 

*★_ खूब समझ लो कि इस गीबत से ना इत्तेफाकी़ हो जाती है, आपस में अदावत (दुश्मनी) क़ायम हो जाती है, इसके अलावा गीबत करना और उसका सुनना खुद बड़ा गुनाह है, कलामुल्लाह में इसकी बड़ी मज़म्मत आई है, गीबत ज़िना से ज़्यादा सख़्त और बड़ा गुनाह है,*

*★_फ़रमाया हदीस शरीफ़ में है गीबत करना ज़िना से ज़्यादा सख़्त है, हज़रत हाजी साहब ने इसकी वजह बयान फ़रमाई है कि ज़िना का गुनाह शेहवत से मुताल्लिक़ है और गीबत का गुनाह तकब्बुर से मुताल्लिक़ है और तकब्बुर शेहवत से ज्यादा ख़तरनाक है_, (हुस्नुल अज़ीज़- 2/367)*
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*⊙__ गीबत के अहकाम:-* 

*★_ (1) गीबत ये है कि किसी की पीठ पीछे उसकी ऐसी बुराई करना कि अगर उसके सामने की जाए तो उसको रंज हो चाहे वो सच्ची ही बात हो वर्ना वो बोहतान है और पीठ पीछे की क़ैद से ये ना समझा जाए कि सामने बुराई करना जायज़ है क्योंकि वो तान में दाख़िल है जिसकी मुमानत आई है, और तहकीकी़ बात यहीं है कि गीबत गुनाहे कबीरा है,* 

*★_(2) गीबत में हक़ूक़ुल्लाह और हुकूकुल इबाद दोनों हैं और माफ़ कराना भी ज़रूरी है, अलबत्ता बाज़ उलमा ने कहा है कि जब तक उस शख्स को उस गीबत की खबर न मिले तो हुकूके अब्द नहीं होता, लेकिन इस सूरत में भी जिस शख्स के सामने गीबत की थी, उसके सामने अपनी तकजीब करना यानी अपने को गलती पर बताना ज़रूरी है और अगर मुमकिन न हो तो मजबूरी है ,* 
*★_(3) मरने के बाद वारिसों से माफ़ कराना काफ़ी नहीं बल्कि मय्यत के लिए इस्तग़फ़ार करता रहे, उनके लिए भी और अपने लिए भी,*

*★_(4) बच्चा, मजनून और गैर मुस्लिम ज़िम्मी की गीबत भी हराम है क्योंकि उनको तकलीफ देना हराम है और रही बात गैर मुस्लिम की गीबत वक्त़ ज़ाया करने की वजह से मकरूह है,* 

*★_ (5) गीबत कभी फैल से भी होती है मसलन किसी लंगड़े की नक़ल बना कर चलने लगे जिससे उसकी हिका़रत हो,* 

*★_(6) और जिससे गीबत को माफ कराया जाएगा उसके लिए मुस्तहब है कि माफ़ कर दे,* 

*★_(7) बैगर मज़बूरी गीबत सुनना गीबत करने के बराबर है,* 

*★_(8) अगर बुराई करने की कोई ज़रूरत या मसलिहत हो जो शर'अन मोअतबार हो वो गीबत हराम में दाख़िल नहीं, जैसे ज़ालिम की शिक़ायत ऐसे शख़्स से जो ज़ुल्म दफ़ा कर सके, या मुसलमानों को दीनी या दुनियावी शर से बचाने के लिए किसी का हाल बतला दिया या किसी के मशवरा लेने के वक्त उसका हाल ज़ाहिर कर दिया _,* 
*®-(बयानुल कुरान)*
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*⊙__ गीबत चुगली से माफ़ी तलाफ़ी का तरीक़ा:-* 

*★_ अगर किसी की गीबत हो गई हो तो अल्लाह ताला से इस्तग़फार के साथ उस शख़्स से भी माफ़ी मांगने की ज़रुरत है जिसकी गीबत की है, लेकिन गीबत की पूरी तफ़सील बतलाने से (कि मैंने तुम्हारी ये गीबत की है इससे) उसको तकलीफ होगी, इसलिए इज्माली तौर पर इतना कहना काफी है कि मेरा कहा सुना माफ करो _,* 

*★_ और इसके साथ ये भी ज़रूरी है कि जिन लोगों के सामने गीबत की थी साथ ही उनके सामने उसकी तारीफ भी करें और पहली बात का ग़लत होना ज़ाहिर कर दें, और अगर वो बात ग़लत ना हो सच्ची बात हो (यानी उसमें वाक़ई वो ऐब मोजूद हो) तब यूं कह दो कि भाई इस बात पर एतमाद कर के तुम फलां शख्स से बदगुमान ना होना क्योंकि मुझे खुद इस बात पर एतमाद नहीं,* 

*★_ अगर वो शख्स मर गया है जिसकी गीबत की थी तो अब माफ कराने का तरीक़ा ये है कि उसके लिए दुआ और इस्तगफार करते रहो यहां तक कि दिल गवाही दे दे कि अब वो तुमसे राज़ी हो गया होगा,*

*★_ अगर जिसकी गीबत की है या गाली दी है वो मर गया हो या लापता हो गया हो तो उसके हक़ में दुआ करो, नमाज़ और क़ुरान पढ़ कर उसको सवाब बख्शो और उम्र भर उसके लिए (जिसकी गीबत की है) दुआएं करते रहो,*
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*⊙__ अगर तुमने किसी का तीन पैसा लिया तो सात सो मक़बूल नमाजे़ हक़दार को देनी पड़ेगी:-* 

*★_ हदीस शरीफ में आया है कि क़यामत के दिन बंदे को हक़ तआला खड़ा कर के दरियाफ्त फरमाएंगे कि जवानी कहां खर्च की और माल कहां से कमाया और कहां खर्च किया और हदीस शरीफ में है कि हुकूक को दुनिया ही में अदा कर दो या माफ करा लो उस दिन से पहले जिसमें रुपिया पैसा कुछ न होगा _,*

*★_ ज़ुल्म हल्की चीज़ नहीं है, सारी इबादतें उस वक़्त तक नाकाफ़ी है, जब तक ज़ुल्म से बरा'अत ना होगी, दुर्रे मुख्तार में लिखा है कि एक दांग के बदले मे जो दिरहम का छठा हिस्सा है जिसको तीन पैसा समझ लीजिए (इसके बदले में) सात सो मक़बूल नमाजे़ हकदार को दिलाई जाएंगी, कितनी सख्त मुसीबत होगी, अव्वल तो हमारी नमाज़े मक़बूल ही कितनी हैं फिर तीन तीन पैसे के बदले में वो भी जाती रहीं तो बतलाइये क़यामत में कैसी हसरत होगी_,* 

*★_ मुस्लिम शरीफ की हदीस है (जिसका मफहूम है) रसूलुल्लाह ﷺ ने सहाबा से फरमाया तुम मुफलिस किसको समझते हो? सहाबा ने अर्ज़ किया कि हमारे नज़दीक मुफ़लिस वो है जिसके पास दिरहम दीनार न हो, हुज़ूर ﷺ ने फरमाया कि इससे बढ़ कर मुफ़लिस वो है जिसने नमाज़े भी बहुत पढ़ी थी, रोज़े भी बहुत रखे थे, ज़कात भी दी और सदकात भी किए, लेकिन इसके साथ उसने किसी को गाली दी थी, किसी को मारा पीटा था, किसी का माल ले लिया था, अब क़यामत में एक आया वो उसकी नमाज़े ले गया और दूसरा आया वो रोज़े ले गया, तीसरा आया वो हज ले गया, चौथा आया वो उसकी ज़कात और सदक़ात ले गया फिर भी कुछ हकदार बच गए और उनको देने को नेकियां ना बची तो उनके गुनाह उस पर डाल दिए गए और यह इताअत से ख़ाली हो कर गुनाहों में जकड़ कर जहन्नम में दाख़िल होगा, ये सबसे बड़ा मुफ़लिस है,*
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*⊙__खलासी और तलाफ़ी का तरीक़ा सही नियत भी है:-* 
*★_ तलाफी और हुकूक़ से खलासी का तरीक़ा ये है कि खुदा ता'ला के यहां पक्की सच्ची तौबा करना और अदायगी का पुख्ता इरादा कर लेना भी मक़बूल है, पहले तो तुम हक़ वाले से माफी की दरख़्वास्त करो, अगर वो खुशी से माफ कर दे तब तो मसला आसान है जल्दी खलासी हो गई और अगर माफ ना करे तो अब पूरा हक़ अदा करना जरूरी है,* 

*★_ अगर बहुत ज़्यादा हुआ एक दम से अदा करना मुश्किल हो तो थोड़ा-थोड़ा जितना हो सके उसका हक़ अदा करे और अगर वो (यानी हक वाले) मर गए हों तो उनके वारिसों को दो और अगर वारिस भी मालूम न हों तो उनकी नियत से खैरात करते रहो इंशा अल्लाह उम्मीद है कि दुनिया ही में सारा हक़ अदा हो जाएगा _,* 

*★_ और अगर कुछ अदा हुआ और कुछ रह गया तो उसको हक़ तआला अदा कर देंगे, हक त'आला के यहां नियत को ज़्यादा देखा जाता है, जिसकी नियत पुख्ता हो कि मै हक अदा करूंगा फिर उस पर अमल भी शुरू कर दे हक ता'अला उसको बिल्कुल बरी कर देते हैं _,* 
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*⊙__ शोहर को दीनदार और नमाज़ी बनाने की कोशिश करो:-* 

*★_ औरतों की बड़ी कोताही है कि अपने मर्दों को दीनदार और नमाज़ी बनाने की कोशिश नहीं करतीं, दीनी हुकूक में एक कोताही औरतें ये करती हैं कि मर्द को जहन्नम की आग से बचाने का एहतमाम नहीं करतीं यानि इसकी कुछ परवाह नहीं करती कि मर्द हमारे वास्ते हलाल व हराम में मुब्तिला है और कमाने में रिश्वत वगैरा से परहेज़ नहीं करता तो उसको समझाएं कि तुम हराम आमदनी मत लाया करो, हम हलाल ही में अपना गुजारा कर लेंगे,* 

*★_ इसी तरह अगर मर्द नमाज़ ना पढ़ता हो तो उसको बिल्कुल नसीहत नहीं करती, हालांकि अपनी ग़र्ज़ के लिए उससे सब कुछ कर लेती है, अगर औरत मर्द को दीनदार बनाना चाहे तो कुछ मुश्किल नहीं मगर इसके लिए जरूरी है कि पहले तुम खुद दीनदार बनो, नमाज़ और रोज़ा की पाबंदी करो, फिर मर्द को नसीहत करो तो इंशा अल्लाह असर होगा,* 

*★_ मगर बाज़ औरतें दीनदारी पर आती हैं तो ये तरीक़ा अख़्तियार कर लेती हैं कि तस्बीह और मुसल्ला ले कर बैठ गईं और घर के काम और शोहर की खिदमत से बे फ़िक्र हो गई, ये तरीक़ा अच्छा नहीं क्योंकि घर की निगरानी और शोहर के माल की हिफाज़त और खिदमत औरत के जिम्मे फ़र्ज़ है, और जब फ़र्ज़ में खलल आ गया तो ये निफ्लें और तस्बीह क्या काम देंगी, इसलिए दीनदारी में इतना गुलु भी ना करो कि घर की खबर ही ना लो, नमाज़ रोज़ा इस तरह करो कि उसके साथ घर और शोहर का भी पूरा हक़ अदा करो _,*
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*⊙__ ऐ औरतों! शोहर की ताज़ीम व खिदमत में कोताही बेहयाई है:-* 

*★_ औरतों का अपने शोहर की ताज़ीम और उनके अदब में कोताही करना सख्त बेहयाई है, बाज़ औरतें शोहर की इताअत व खिदमत में कमी करती हैं, बाज़ औरतें मर्द की खिदमत नोकरानियों पर डाल देती हैं और खुद उसके कामों का एहतमाम नहीं करतीं,*

*★_ और बाज़ औरतें मर्दों से ख़र्च बहुत मांगती हैं, बाज़ जगह तो मर्दों पर हुकूमत करती हैं हालांकि शरीयत में शोहर की ताज़ीम के मुताल्लिक़ सख्त ताकीद आई हैं, हदीस शरीफ़ में साफ आया है कि अगर मैं खुदा के सिवा किसी के लिए सजदे को जायज़ करता तो औरतों को हुक्म देता कि अपने शोहरों को सजदा किया करें, लेकिन सजदा तो खुदा के सिवा किसी को जायज़ नहीं,* 

*★_ इससे ये बात तो मालूम हो गई कि शोहर की किस दर्जे ताजी़म औरतों के ज़िम्मे वाजिब हैं, बाज़ जगह तो औरतें मर्द को ज़लील भी करती हैं और बाज़ जगह मर्द भी ज़ालिम होते हैं कि वो औरतों को बहुत ज़लील रखते हैं और बाज़ जगह दोनों तरफ से ये बरताव होता है, क़यामत में सबका हिसाब होगा और जिसने जिसकी हक़ तलफ़ी की होगी उससे इंतेक़ाम लिया जाएगा,* 

*★_ इसलिए मर्दों को चाहिए कि वो औरतों के हुकूक़ की रियायत रखें और औरतों को मर्दों की ताज़ीम करनी चाहिए और उनकी इता'त व फ़रमाबरदारी का ख्याल रखना चाहिए,* 

*★_ अजवाज़ मुताहरात (यानी हुजूर ﷺ की बीवियां) हुजूर ﷺ के अहकाम की मुखालफत कभी न करती थी, आपकी ताज़ीम और अदब इस दर्जा करती थी कि दुनिया में किसी की अज़मत भी उनके दिल में हुज़ूर ﷺ के बराबर ना थी_,* 
*®_( हुकूकुल बैत-23)*
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*⊙__ शोहर को हकी़र ना समझा जाए चाहे वो फासिक़ हो:-*

*★_ अगर शोहर बेनमाज़ी हो उसको भी हकी़र ना समझो, औरतों में एक मर्ज़ ये भी है कि अगर वो खुद नमाज़ रोज़ा की पाबंद होती है और शोहर उनको ऐसा मिल गया जो आज़ाद है तो उसको वो बहुत हक़ीर समझती हैं गोया कि अपने आपको राबिया बसरी से कम नहीं जानती,* 

*★_ हमने माना कि वो गुनहगार है लेकिन उलमा से मसला तो पूछो देखो वो क्या कहते है, याद रखो! अपनी ज़ात के ऐतबार से चाहे वो कैसा ही हो लेकिन तुम पर उनकी इताअत ही वाजिब है, इसलिए कि वो तुम्हारा मालिक और हाकिम है, इसलिए कि खाविंद का हाकिम होना क़ुरान और हदीस से साबित है,* 

*★_ ग़र्ज़ ज़ोजियत ( यानि बीवी होना ) इताअत का सबब है, अगर नमाज़ रोज़ा से मना करे तो इसमें उसकी इताअत न करें लेकिन नमाज़ रोज़ा से मुराद भी फर्ज नमाज़ रोज़ा है, निफ्ल नमाज़ रोज़ा से उसकी इताअत मुक़द्दम है बल्कि फ़राइज के मुताल्लिक़ भी अगर वो कहें कि ज़रा ठहर कर पढ़ लो और वक्त में गुंजाइश है तो मो'अखर कर देना चाहिए, हां अगर वक्त मकरूह होने लगे तो उस वक्त उसका कहना ना मानें,* 

*★_ अलबत्ता अगर वो सरीह कुफ्र वी शिर्क का इरतकाब करे, उस वक्त किसी मुहक्किक़ आलिम से फतवा ले कर उससे जुदा हो जाएं, बाक़ी फिस्क़ तक जबकि वो तुमको फिस्क़ का हुक्म ना करे उसकी इताअत करो, यहां तक कि अगर वो ये कहे कि वजी़फा छोड़ कर मेरी खिदमत करो तो वज़ीफ़ा (तस्बीहात) छोड़ दो, ये ना समझो कि इससे बुज़ुर्गी में फ़र्क आ जाएगा, बुज़ुर्गी तो शरियत की इत्तेबा का नाम है, जब तुमको ख़ाविन्द की इता'त का शरीयत ने हुक्म दिया है तो बस बुज़ुर्गी इसी में है कि उनकी इता'त करो _,*
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*⊙__ शोहर की शान में गुस्ताख़ी और ज़ुबान दराज़ी का मर्ज:-*

*★_बाज़ औरतों की ये आदत है कि वो ख़ाविंद से ज़ुबान दराज़ी से पेश आती हैं, उसके सामने खामोश ही नहीं होतीं, हत्ताकी बाज़ खाविंद मारते पीटते भी हैं मगर ये चुप नहीं होती,* 

*★_ बाज़ जगह औरतें मर्दों को ज़लील करती हैं और यहाँ तक कि जो बात शोहर कहता है उसका जवाब उनके पास तैयार रहता है, कोई बात है जवाब न छोड़ेंगी चाहे गवारा हो या नागवार, चाहे माक़ूल हो या नामाक़ूल, ग़र्ज़ औरतों में ज़ुबान दराज़ी का बड़ा मर्ज है और ये सारी ख़राबी तकब्बुर की है, ऐसी औरतें ये चाहती हैं कि हम हार नहीं मानेंगी,* 

*★_ हदीस में सय्यदना रसूलुल्लाह ﷺ का इरशाद है कि अगर मैं खुदा के सिवा किसी के लिए सजदा करने की इजाज़त देता तो औरत को हुक्म करता कि अपने ख़ाविंद को सजदा किया करे, क्या ठिकाना है मर्द की अज़मत का अगर खुदा के बाद किसी के लिए सजदा होता तो औरत को मर्द के सजदे का हुक्म होता,*
 
*★_. ऐ औरतों ! खुदा ने तुमको जैसा बनाया है वेसा ही अपने को मर्द से छोटा समझो और उसके गुस्से के वक्त जुबान दराजी़ भी ना करो उस वक्त खामोश रहो और जब उसका गुस्सा उतर जाए तो दूसरे वक्त कहो कि मैं उस वक्त ना बोली थी अब बतलाती हूं कि तुम्हारी फलां बात बेजा थी या ज़्यादती की थी, इस तरह करने से बात भी ना बढ़ेगी और मर्दों के दिल में तुम्हारी क़द्र भी होगी _,* 
*®_(हुक़्कुल बैत -51)*
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*⊙__ औरतों में नाशुक्री का मर्ज :-* 

*★_ नाशुक्री का माद्दा औरतों में बहुत ज़्यादा है, हदीस में भी औरतों की इस सिफत का ज़िक्र आया है, हुजूर ﷺ ने एक बार औरतों को ख़िताब करके फ़रमाया कि तुम लानत और फ़टकार बहुत करती हो और खाविंद की नाशुक्री करती हो _,* 

*★_ औरतों में नाशुक्री का माद्दा ज़्यादा है, अगर अल्लाह तआला इनको ज़रुरत के मुवाफ़िक सामान अता फरमा दे तो ये उसको ग़नीमत नहीं समझती ना उस पर अल्लाह तआला का शुक्र करती हैं, बल्कि नाशुक्री करती है कि हाय हमारे पास है क्या ? कुछ भी नहीं, हदीस में भी इनकी इस सिफत का तज़किरा आया है, जिससे मालूम होता है कि नाशुक्री का माद्दा औरतों में हमेशा से है,* 

*★_ हुजूर ﷺ का इरशाद है कि अगर तुम औरत के साथ उम्र भर अच्छा बरताव करते रहो फिर भी एक दफा कोई खिलाफे मिज़ाज बात देख ले तो वो यूं कहेंगी कि मैंने तुझसे कोई भलाई नहीं देखी_, (मिश्कात शरीफ)* 

*★_ बस जरा सी बात में सारी उम्र के अहसानात को फरामोश कर जाती है, जहां किसी दिन इनको शोहर के घर में खाने पीने की तंगी हुई और इन्होंने इसको मूंह पर लाना शुरू किया, जो मूंह में आता है कह डालती है और इसका ज़रा ख्याल नहीं करती कि आख़िर इसी घर में सारी उम्र रहना है, इसको ना भूलना चाहिए और खुदा का शुक्र करना चाहिए कि उसने तकलीफ़ आज ही दिखाई है और ज़्यादा ज़माना ऐश का गुज़रा है,* 
*®_ अल कमाल फ़िद दीन- 76)*
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*⊙__ औरतें चीज़ों के ख़रीदने में इसराफ़ (फ़िज़ूल खर्ची) करती हैं जो गुनाह है :-* 

*★_ एक मर्ज़ औरतों में ये भी है जो नाशुक्री का शोबा है कि कोई चीज़ चाहे काम की हो या ना हो पसंद आना चाहिए, बिना सोचे समझे उसको खरीद लेती है और ये आदत नाशुक्री का शोबा है क्योंकि इसमे शोहर के माल को बरबाद करना है, खुद अपने माल को बरबाद करना भी नाशुक्री है, जैसा कि इरशाद है कि बेशक बेमौका माल उड़ाने वाले शैतान के भाई हैं और शैतान अपने परवरदिगार का बड़ा नाशुक्रा है,* 

*★_ हदीस में हुजूर ﷺ ने माल को ज़ाया करने से मना किया है, औरतें खाविंद के माल को बड़ी बेदर्दी से उड़ाती हैं, खास कर शादी बियाह की खुराफ़ात रस्मो में, बाज़ जगह तो मर्द और औरत दोनों मिल कर खर्च करते हैं और बाज़ जगह सिर्फ़ औरतें ही ख़र्च की मालिक होती हैं,* 

*★_ फ़िर इसका नतीज़ा ये होता है कि मर्द मक़रूज़ होता है, तो ज़्यादातर मर्द हराम आमदनी में मशगूल होते हैं इसका बड़ा सबब औरतों की फ़िज़ूल खर्ची है, औरतों ने बस ये समझ लिया है कि हमको तो कमाना नहीं पड़ता जिस तरह चाहे खर्च करें मर्द अपने आप कमा कर लायेगा,* 

*★_ याद रखो ! शोहर के माल की निगेगबानी औरतों के ज़िम्मे वाजिब है, इसको इस तरह बर्बाद करना जायज़ नहीं, क़यामत में औरतों से इसका भी हिसाब होगा_,* 
*®_ (अल कमाल फ़िद दीन-113)*
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*⊙__ शादियों में फ़िज़ूल खर्ची* 

*★_ खुसूसन शादियों में औरतें बहुत फ़िज़ूल खर्ची करती हैं, इनमें तो औरतें ही मुफ़्ती ए आज़म होती हैं, सारे काम उन्हीं से पूछ कर किए जाते हैं, मर्द जानते ही नहीं कि शादियों में कहां खर्च की जरूरत है कहां नहीं, बस जिस जगह औरतें खर्च करने का हुक्म देती हैं वहां बिला चू चरा खर्च किया जाता है और औरतों ने एसे बेढंगे खर्च निकाल रखे हैं जिनमें फ़िज़ूल रुपिया बरबाद होता है,* 

*★_ इन शादियों की बदोलत बहुत से घर तबाह व बरबाद हो गए, लेकिन अब भी लोगों को अक़ल नहीं आई और रस्मों वगेरा में औरतों का इत्तेबा नहीं छोड़ते, अब भी लोगों की आंखे नहीं खुली, जब सारा घर बरबाद नीलाम हो जाएगा उस वक्त शरीयत के मुवाफिक़ शादी की सूझेगी,* 

*★_ साहिबो ! शादियों में बहुत इख्तिसार करना चाहिए कि बाद में अफसोस ना हो कि हाए हमने ये क्या किया, अगर किसी के पास बहुत ज़्यादा ही रक़म हो तो उसको इस तरह बर्बाद करना मुनासिब नहीं बल्कि दुनियादार को कुछ रक़म जमा भी रखना चाहिए, इससे दिल को इत्मिनान रहता है,* 
*®_(अल कमाल फ़िद दीन- 12)*
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*⊙___ शोहर के माल में तसर्रुफ:-* 

*★"_ औरतें बाज़ दफा खाविंद के माल में तसर्रुफ करते हुए ये समझती हैं कि वो इजाज़त दे देगा और बाज़ दफा वो खामोश भी हो जाता है मगर बाज़ मरतबा खूब खफा होता है और मियां बीवी में ख़ूब अच्छी तरह तू तू मैं होती है,* 

*★_ ग़र्ज़ जब तक इजाज़त सराहत ना हो या ग़ालिब गुमान ना हो उस वक़्त तक औरतों को किसी को कुछ ना देना चाहिए, मैंने देखा है कि औरतें चंदे के बारे में बहुत सखी होती हैं, जहां उन्होंने सदक़े के फजा़इल किसी वाज़ में सुने और सदका़ निकालना शुरू किया,* 

*★_ याद रखो ! जो रक़म खास तुम्हारी मिल्कियत हो उसमें से देने का तो मुजा़यका़ नहीं मगर जो शोहर ने महज़ रखने के लिए दिया हो उसको देना खाविंद की इजाज़त के बगैर जा'इज नहीं,* 

*★_ ये तफसील इस सूरत में है जबकि खाविंद का माल दिया जाए और अगर खास औरत ही का माल हो तो उसमें खाविंद की इजाज़त की ज़रूरत नहीं मगर फिर भी उससे मशवरा कर लेना चाहिए, अलबत्ता अगर कोई ऐसी मामूली चीज़ हो जिसमें गालिब अहतमाल इजाज़त का हो तो कोई हर्ज नहीं_,* 
*®_ (असबाबुल खित्ता, दीन व दुनिया)*
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*⊙__औरतों में माँगी हुई चीज़ वापस ना करना भी बुरी आदत है:-* 

*★_औरतों में एक बहुत बड़ी ख़राबी ये है कि माँगी हुई चीज़ में सुस्ती और लापरवाही करती है, हालात ये है कि कोई चीज मांगेगी और काम भी हो जाएगा मगर ये तौफीक़ नहीं होती कि वापस कर दें, जब देने वाला (मालिक) खुद ही मांगता है तब देती है,* 

*★_ और खुद भी देंगी तो एक अरसा के बाद, उसमें बहुत सी चीज़ गुम हो जाती हैं और ख़राब भी हो जाती है, बाज़ वक़्त महीनो गुज़र जाते है (लेकिन चीज़) वापस ही नहीं की जाती, अगर किसी ने तलब कर लिया तो दे दी वर्ना परवाह भी नहीं होती,* 

*★_ चाहे नियत ख़राब ना हो मगर सुस्ती इस क़दर है कि हद से ज़्यादा, हालांकि शरीयत ने इसमें इतनी अहतियात की है कि फुकहा किराम ने लिखा है कि अगर कोई खाना भेजे तो उस बरतन में हमारे लिए खाना हराम है, अपने बरतन में उलट लो फिर खाओ, हां अगर मालिक इस्तेमाल करने की इजाज़त दे तो जाइज़ है,* 

*★_ फुक़हा के क़ौल की दलील ये हदीस में है कि खबरदार हो जाओ किसी मुसलमान का माल उसकी दिली रज़ामंदी के बगेर हलाल नहीं, (बह्की)*

*"_ फुक़हा के कलाम का ख़ुलासा यही हुआ कि दूसरे की मिल्क में बिला इजाज़त के तसर्रूफ़ करने और इस्तेमाल करने से आदमी गुनहगार होता है, अगर वो चीज़ ज़ाया हो जाए तो ज़ामिन होता है, यानि उसका तावान देना लाज़िम होता है,* 
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*⊙___ क़र्ज़ ले कर न देना :-*
 
*★_ औरतों में एक ख़राबी ये है कि क़र्ज़ अदा करने की बिल्कुल आदत नहीं, चुनांचे हदीस में हुज़ूर ﷺ का फ़रमान है (जिसका मफ़हूम है) कि मैंने जन्नत के दरवाज़े पर लिखा देखा कि सदक़ा देने से दस (10) नेकियां मिलती है और क़र्ज़ देने से अठाराह (18), आपने हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम से वजह पूछी तो उन्होंने फ़रमाया कि क़र्ज़ वही मांगता है जिसे सख्त जरूरत होती है, क्योंकि उसे वापस करना पड़ता है, बा खिलाफ सदका के,* 

*★_ तो क़र्ज़ देने का या उधार कोई चीज़ देने का इतना बड़ा सवाब है, मगर जब कोई ले कर अदा ही न करे फिर कौन दे, हालात ये हो गई कि क़र्ज़ दे कर वसूल नहीं होता हत्ताकी क़र्ज़दार सामने आना तक छोड़ देते हैं, और बाज़ लोग कोई सामान ख़रीद कर एक दो रुपया उधार कर के फिर देने का नाम नहीं लेते और मामूली रक़म एक दो रुपया होने की वजह से देने की ज़रूरत ही नहीं समझते और वसूल करने वाले को माँगते हुए भी शर्म मालूम होती है,* 

*★_ लेकिन क़यामत का मामला बहुत नाज़ुक है, तीन पैसे भी जिसके ज़िम्मे रह गए उसकी सात सो मक़बूल नमाजे़ छीन कर हक़ वाले को दिलवा दी जाएंगी, ये किस क़दर खौफ की बात है, सारी उम्र नमाज़ पढ़ी और कयामत में छीन ली गई, ये नतीजा होगा कि आखिरत भी बरबाद, की कराई इबादत भी अपने पास ना रही,*
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*⊙__ रेल के सफर में कोताहियां:-*

*★_ रेल के सफर में अक़सर औरतें और मर्द इस क़दर सामान ले जाते हैं जो हद इजाज़त (यानि क़ानून से) ज़्यादा होता है और न उसका किराया देते हैं और न वज़न कराते हैं (न रसीद कटाते हैं) और बाज़ दफा ऐसा होता है कि खुद से तीसरे दर्जे (थर्ड क्लास) का टिकट लिया था लेकिन इत्तेफाक से मियाना दर्जे (सेकंड क्लास) में जा कर बैठ गए, या टिकट लिया 2-3 स्टेशन का और चले गए बहुत दूर तक, इन सब सूरतों में ये शख्स रेलवे महकमा का क़र्ज़दार रहता है और कयामत के दिन इससे वसूल किया जाएगा,* 

*★_ अगर ऐसी ग़लती हो गई हो तो इसके अदा करने का आसान तरीक़ा ये है कि हिसाब कर के जिस क़दर रेलवे की क़ीमत अपने ज़िम्मे निकले उस क़ीमत का एक टिकट ख़रीद कर उससे काम ना लें फ़ाड़ डालें, इससे महकमा का रुपया भी अदा हो जाएगा और उस शख्स पर कोई इल्ज़ाम भी ना आएगा,* 
*®_(तफसील अत-तौबा दावत अब्दियत-8/46)*
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*⊙__ ऐ औरतों रिश्तेदारों से पर्दे में कोताही मत करो :-* 
*★_ एक कोताही बाज़ औरतों में ये है कि उनमें पर्दे का एहतमाम कम है, अपने अज़ीज़ रिश्तेदारों में जो ना-मेहरम हैं (यानी जिनसे रिश्ता हमेशा के लिए हराम नहीं) उनके सामने बेतकल्लुफ़ आती है, मामू ज़ाद चाचा ज़ाद खाला ज़ाद भाइयों से बिल्कुल पर्दा नहीं करती हैं और ग़ज़ब ये है कि उनके सामने बनाव सिंघार कर के भी आती हैं, फिर बदन छुपाने का ज़रा भी एहतमाम नहीं करतीं,* 

*★_ और अगर किसी का बदन ढंका हुआ भी हो तो कपड़े ऐसे बारीक होते हैं जिनसे सारा बदन झलकता है, हालांकि बारीक कपड़े पहन कर मेहरम के सामने आना भी जायज़ नहीं, क्योंकि मेहरम (यानी जिनसे रिश्ता करना हराम है) उनसे पेट और कमर और पहलू और पसलियों का छिपाना भी फर्ज है, और ऐसा बारीक कपड़ा पहन कर मेहरम (मसलन भाई चाचा वगेरा) के सामने आना भी जायज़ नहीं, जिससे पेट या कमर या पहलू या पसलियां ज़ाहिर हों या उनका कोई हिस्सा नज़र आता हो,* 

*★_ शरियत ने तो मेहरम के सामने आने में भी इतनी क़ैद लगाई है और आज कल की औरतें ना-मेहरमों के सामने भी बेबाक़ी से आती हैं गोया शरीयत का पूरा मुक़ाबला है, बिबियों ! पर्दे का एहतमाम करो और ना-मेहरम रिश्तेदारों के सामने क़त'अन न आओ और मेहरम के सामने एहतयात से आओ,* 
*®_(अल कमाल फ़िद दीन- 108)*
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*⊙__ औरतों की वजह से मर्दों में लड़ाई :-* 

*★_ कभी-कभी लड़ाई का फसाद शदीद भी हो जाता है कि बाज़ दफा ये अपने आपस की तकरार और लड़ाइयों को मर्दों से बयान कर देती हैं कि फलां ने मुझे यूं कहा और तुझे यूं कहा, मर्दों में हरारत होती है उन पर ज़्यादा असर होता है, फिर ये बात यहीं तक नहीं रहती बल्कि हाथा पाई की नोबत आ जाती है जिसकी वज़ह से क़त्ल और ख़ून तक हो जाते हैं,* 

*★_ औरतों की आदत होती है कि एक ज़रा सा बहाना मिल जाए उनको मुद्दतो तक ना भूलेंगी और बाल की खाल निकालती चली जाएंगी, उनका कीना किसी तरह से निकलता ही नहीं, कोई घर ऐसा नहीं जिसकी औरतें इसमें मुब्तिला ना हों, मां बेटी आपस में लड़ती हैं, सास बहू आपस में लड़ती हैं और देवरानी जेठानी तो पैदा ही इसलिए हुई हैं ( कि लड़ाई करें)* 

*★_ और देखा जाए तो इन लड़ाइयों की बुनियाद सिर्फ वहम परस्ती है, किसी के बारे में ज़रा सा शुबहा हुआ और असीर हुक्म लगाना शुरू कर दिया, घरो में हमेशा लड़ाई छोटी छोटी बातों पर होती है, किसी खुदा की बन्दी को ये तौफ़ीक़ नहीं होती कि जब शिकायत सुने तो इस बीच के वास्ते को क़ता कर के खुद उस शिकायत करने वाली से पूछ लें कि तुमने मेरी शिकायत की है क्या?* 

*★_ मसनून तरीक़ा भी यही है कि अगर किसी से कुछ शिक़ायत दिल में हो तो उस शख़्स से ज़ाहिर कर दे कि तुम्हारी तरफ से मेरे दिल में ये शिक़ायत है, उस शख्स से उसका जवाब मिल जाएगा और अगर वो शिक़ायत ग़लत थी तो बिल्कुल दूर हो जाएगी, और सुनी-सुनाई बातों पर एतबार कर लेना और असीर कोई हुक्म लगा देना बिल्कुल शरीयत के ख़िलाफ़ और जहालत है,* 

*★_ इस मौके के लिए क़ुरान शरीफ़ में मौजूद है, "बदगुमानियों से बचो बेशक़ बहुत सी बदगुमानियाँ गुनाह होती हैं _, (सूरह हुजरात -26)*
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*⊙__ औरतें और रस्मों की पाबंदी:-* 

*★_ इस मामले में औरतों की हालत बहुत ज़्यादा खराब है, ये अपने ज़ेहन की ऐसी पक्की होती है कि दीन तो क्या दुनिया की भी बर्बादी का इनको ख्याल नहीं रहता, रस्मों के सामने चाहे कुछ भी नुक़सान हो जाए कुछ परवाह नहीं करती, मगर ताज्जुब ये है कि अब तक भी इन रस्मो की बुराई इनको महसूस नहीं हुई,* 

*★_ खास कर शादी बियाह की रस्मों में और शेखी के कामों में बाज़ जगह सिर्फ़ औरतें ख़र्च की मालिक होती हैं, जितने समान शादी बियाह के है सबकी बुनियाद तफाखुर और नामूद (शोहरत) पर है और ये तफाखुर गो मर्द भी करते हैं मगर असल जड़ इसमें औरतें ही है, ये इस फन की माहिर है और ऐसी तजुर्बेकार हैं कि निहायत आसानी से तालीम दे सकती हैं,* 

*★_ मुसलमान मर्द औरत पर लाज़िम है कि इन सब बेहुदा रस्मों को मिटाने पर हिम्मत बांधे और दिल व जान से कोशिश करें कि एक रस्म भी बाक़ी ना रहे और जिस तरह हुज़ूर अकदस ﷺ के मुबारक ज़माने में सादगी से सीधे साधे तोर पर काम हुआ करते थे उसके मुवाफिक अब फिर होने लगे, जो मर्द और जो औरतें ये कोशिश करेंगी उनको बड़ा सवाब मिलेगा,* 
*"_हदीस शरीफ में आया है कि सुन्नत का तरीक़ा मिट जाने के बाद जो कोई उस (सुन्नत के) तरीक़े को ज़िंदा कर देता है उसको सौ शहीदों का सवाब मिलता है,*  

*★_ हज़रत हकीमुल उम्मत ने फरमाया- मैं औरतों से दरख्वास्त करता हूं कि उनको चाहिए कि मर्दों को रस्मो से रोके, उनका रोकना बहुत मोअस्सिर है, एक तो इस वजह से कि इन रस्मों रिवाज की असल बानी वहीं है, जब ये खुद रुकेंगी और मर्दों को रोकेंगी तो कोई भी रस्मों रिवाज ना होगा, इसके अलावा उनका लब व लेहजा और उनका कलाम बेहद मोअस्सिर होता है, उनका कहना दिल में उतर जाता है, इसलिए अगर ये चाहें तो बहुत जल्द रोक सकती हैं,* 
*®_(अत्ताब्लीग दवाउल उयूब-99)*
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    *⊙__ औरतों को अहम् नसीहतें:-* 

*★_(1) सबसे पहले अपने अकीदे ठीक करो और ज़रूरी ज़रुरी मसले सीखो और बहुत अहतमाम से उन मसलों की पाबंदी करो,* 
*_(2) हर बात में रसूलल्लाह ﷺ के तरीक़े पर चलने का एहतमाम करो इससे दिल में बड़ा नूर पैदा होता है,* 
*"_(3) शिर्क की बातों के पास मत जाओ, फाल मत खुलवाओ,* 
*"_(4) औलाद के होने या जिंदा रहने के लिए टोने टोटके मत करो,* 
*"_(5) बुज़ुर्गो की मन्नत मत मानो सिर्फ अल्लाह से दुआओं के ज़रिये माँगो,* 

*★_ (6) शरीयत में जिससे पर्दा है चाहे वो पीर हो चाहे कैसा ही करीबी रिश्तेदार हो जैसे देवर, जेठ, खाला या मामू का या फूफी का बेटा या बहनोई या ननदोई या मूंह बोला भाई या मूंह बोला बाप, इनसे पर्दा करो,* 
*"_ (7) खिलाफे शरीयत लिबास मत पहनो जेसे ऐसा कुर्ता कि जिसमें पेट पीठ या कलाई या बाजु खुले हों, या ऐसा बारीक कपड़ा जिसमें से बदन या सर के बाल झलकते हों ये सब छोड़ दो,* 
*"_ ( 8) लम्बी आस्तीनों का और नीचा और मोटे कपड़े का (जिससे बदन ना झलके) लिबास बनाओ, और ऐसे कपडे का दुपट्टा हो और दुपट्टा ध्यान कर के सर से मत हटने दो, हां घर में अगर खाली औरतें हों या अपने मां बाप और हकीकी भाई वगेरा के सिवा घर में कोई और (यानी ना मेहरम) ना हो तो उस वक्त सर खोलने में डर नहीं,* 

*★_ (9) किसी की ताक झाँक मत करो,* 
*"_(10) कोई काम नाम के वास्ते मत करो,* 
*"_(11) कोसने और ताना देने और गीबत से ज़ुबान को बचाओ,*  
*"_(12) पांचो वक्त नमाज़ अव्वल वक्त पढ़ो और जी लगा कर ठहर ठहर कर पढ़ो, रुकू सजदा अच्छी तरह करो,*

*★_(13) अगर तुम्हारे पास ज़ेवर गोटा लचक वगेरा हो तो हिसाब कर के ज़कात निकालो,* 
*"_(14) खाविंद की ताबेदारी करो, उसका माल उससे छिपा कर खर्च मत करो, घर का काम खास कर अपने शोहर की खिदमत करना इबादत है,* 
*"_(15) गाने भी ना सुनो,*
 
*★_(16) अगर तुम कुरान पढ़ी हुई हो तो रोजाना कुरान पढ़ा करो,* 
*"_(17) जो किताब पढ़ने या देखने के लिए लेना हो पहले किसी मोतबर आलिम को दिखला लो, अगर वो सही बतायें तो खरीद लो वरना मत लो,* 
*"_(18) अगर कोई शख्श कोई बात तुम्हारी मर्जी के खिलाफ करे तो सब्र करो, जल्दी से कुछ कहने सुनने मत लगो, खास कर गुस्से की हालत में बहुत संभला करो,* 

*★_(19) अपने को साहिबे कमाल (यानी बुज़ुर्ग और बड़ा) मत समझो,* 
*"_(20) जो बात ज़ुबान से कहना चाहो पहले सोच लिया करो, जब खूब इत्मिनान हो जाए कि इसमें कोई ख़राबी नहीं और ये भी मालूम हो जाए कि इसमें कोई दीन या दुनिया की ज़रूरत है या फ़ायदा है, उस वक़्त ज़ुबान से निकालो,* 
*"_(21) किसी बुरे आदमी की भी बुराई मत करो, ना सुनो,* 

*★_(22) किसी मुसलमान को अगरचे वो गुनहगर या छोटे दर्जे का हो हकी़र मत समझो,* 
*"_(23) माल व इज़्ज़त की हिर्स लालच मत करो,* 
*"_(24) बिना जरूरत और बेफ़ायदा लोगो से ज्यादा मत मिलो, और जब मिलना हो तो खुश अखलाकी़ से मिलो, और जब काम हो जाए तो उनसे अलग हो जाओ,* 
*"_(25) बात को बनाया मत करो बल्कि जब तुमको अपनी ग़लती मालूम हो जाए फोरन इक़रार कर लो अल्लाह पर भरोसा रखो और उससे अपनी हाजत अर्ज़ किया करो और दीन पर क़ायम रहने की दुआएं करो,* 
*®_ ( क़स्दुल सबील- 15/37)*

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    *⊙__औरतों की इस्लाह के तरीके:-* 

*★_ (1) औरतों की तमाम खराबियों की असल जड़ और बुनियाद एक ही अमर् है अगर उसकी इस्लाह हो जाए तो सब बातों की इस्लाह हो जाए, वो ये है आज कल बेफिक्री हो गई है, अगर हर अमर् में दीन का ख्याल रखा जाए कि ये काम जो हम करते हैं दीन के मुवाफिक है या नहीं तो इंशा अल्लाह चंद रोज़ में इस्लाह हो जाएगी,* 
*"_(2) इस्लाह का तरीक़ा गौर से सुनना और समझना चाहिए और इस्लाह का तरीक़ा इल्म व अमल से मुरक्कब है और इल्म यहीं नहीं है कि कुरान मजीद का तर्जुमा पढ़ लिया या तफ़सीर पढ़ ली बल्कि किताब वो पढ़ो जिसमें तुम्हारे अमराज़ का बयान हो, ये तो इल्म का बयान हुआ,* 

*★_(3) और अमल दो हैं, एक तो ये कि ज़ुबान रोक लो, तुम्हारी ज़ुबान बहुत चलती है, तुमको कोई बुरा कहे या भला कहे तुम हरगिज़ मत बोलो, इस तरह करने से हसद वगेरा सब जाते रहेंगे और जब ज़ुबान रोक ली जाएगी तो अमराज़ के असबाब भी कमज़ोर या दूर हो जायेंगे,* 

*★_ (4) दूसरा काम ये है कि एक वक्त मुकर्रर कर के ये सोचा करो कि दुनिया क्या चीज़ है और ये दुनिया छूट जाने वाली है और मौत के बाद जो उमूर पेश आने वाले हैं जैसे क़ब्र, मुनकर नकीर का सवाल और उसके बाद क़ब्र से उठना और हिसाब व किताब और पुल सिरात का चलना, सबको तफ़सील के साथ रोज़ाना सोचा करो, इससे हुब्बे जाह, हुब्बे माल यानी बड़ा बनने की ख्वाहिश और माल की मुहब्बत और तकब्बुर, हिर्स, गीबत, हसद वगेरा सब मर्ज़ जाते रहेंगे,* 

*★_ ग़र्ज़ इलाज का हासिल दो जुज़ हैं, एक इल्मी दूसरा अमली, इल्मी का हासिल ये है कि कुरान के बाद ऐसी किताबें पढ़ो जिसमें मसाइल के साथ दिल की बीमारियाँ मसलन हसद, तकब्बुर वगेरा का भी बयान हो, कम से कम बहिश्ती ज़ेवर ही के दस हिस्से पढ़ लो,* 
*"_ और अमली जुज़ का हासिल दो चीज़ें हैं, ज़ुबान को रोकना और मौत का मुराक़बा,* 

*★_अगर मुमकिन हो तो किसी आलिम से सबक थोड़ा थोड़ा पढ़ा करो, अगर घर में आलिम मौजूद हो वर्ना घर के मर्दों से दरख्वास्त करो कि वो किसी आलिम से पढ़ कर तुमको पढ़ा दिया करे, मगर पढ़ कर बंद कर के मत रख देना बल्की एक वक्त मुकर्रर कर के हमेशा इसको खुद भी पढ़ती रहना और दूसरो को भी सुनाती रहना, मैं वादा करता हूं कि इस तरीके से इंशा अल्लाह बहुत जल्दी इस्लाह हो जाएगी,*
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    *⊙_औरतों को मर्द बनने की तमन्ना करना:-* 

*★_ हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने दुआ की थी और फरमाया था काश हम तो मर्द होते कि मर्दों के मुताल्लिक़ जो फ़ज़ाइल हैं वो हमको भी हासिल होते, अल्लाह तआला ने इससे मना फरमाया और ये आयत नाज़िल फरमाई (सूरह निसा-32):-* 
*: وَلَا تَتَمَنَّوْاْ مَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بِهِ ۦ بَعْضَكُمْ عَلَىٰ بَعْضٍۢ ۚ,* 
*"_ ख़ुलासा आयत का ये है कि जो फ़ज़ाइल फितरी और ग़ैर अख़्तयारी है जिनके हासिल करने में कोशिश का कोई दखल नहीं उनकी तमन्ना मत करो और जो चीज़ इक्त्साब से ताल्लुक़ रखती है यानि अपने अख्तियार से जो फ़ज़ाइल हासिल किए जा सकते हैं, वो हासिल करो,* 

*★_पस ये तमन्ना करना कि हम मर्द होते, खुदा पर एतराज़ करना है कि हमको औरत क्यों बनाया, जिसको जैसा बना दिया उसके लिए वही बेहतर है,* 

*★_तुम्हारे ज़िम्मे सिर्फ घर के काम हैं और मर्दों के ज़िम्मे बहुत काम हैं, सफ़र करो, तिजारत करो, रोज़ी रोटी हासिल करो, तमाम दुनिया के बखेड़े मर्दों के ज़िम्मे हैं, जुमा, जमात, दीन की इशाअत व तबलीग़ सब मर्दों के ज़िम्मे है, तमाम अहलो अयाल का खर्च उनके ज़िम्मे है, तुम्हारे ज़िम्मे ये चीज़ें नहीं हैं और इसलिए तुम्हारा हिस्सा भी आधा ही मुकर्रर हुआ है, बल्कि ये भी तुम्हारे लिए ज़्यादा ही है, इसीलिए कि तुम्हारे ज़िम्मे किसी का खर्चा नहीं हत्ताकी अपना भी नहीं वो भी मर्द के ज़िम्मे है, तुम्हारे लिए तो बहुत आसानी है,* 

*★_ पस औरत होना तुम्हारा मुबारक हो गया, क्या करोगी दर्जों को ले कर बस निजात हो जाए ग़नीमत है, अगर सज़ा न हो तो भी बेहतर है, बाक़ी अगर तुम दर्जो के काम करोगी तो दर्जे भी मिल जाएंगे, लेकिन ये जरूरी नहीं कि तुम अंबिया से बढ़ जाओ, बहर हाल तुमको काम बहुत कम बताया गया है इसलिए तुम खुश रहो और मर्दों पर रश्क ना करो, ना मर्द बनने की तमन्ना करो,*
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    *⊙_औरतों की एक बड़ी खूबी:-*
 
*★_औरतों में तारीफ की बात ये है कि उनको खुदा और रसूल के अहकाम में शुबहा नहीं होता, जब सुनेंगी कि ये खुदा और रसूल के अहकाम हैं गर्दन झुका देंगी चाहे अमल की तौफीक न हो लेकिन उसमें शक व शुबहा और उसकी वजह इल्लत का सवाल उनकी जानिब से नहीं होता, बा खिलाफ़ मर्दों के कि उनमें इस तरह इता'त का माद्दा कम है,* 

*★_ खास कर आज कल तो इतनी अक़ल परस्ती बल्कि पेट पालने की फिक्र गालिब हुई है कि हर बात की वजह पूछते हैं, अपनी अक़ल से हर मसले को जांचते हैं और उसमें राय ज़नी करते हैं कि अक़ल के मुवाफिक है या नहीं और औरतों की चाहे समझ में आए या ना आए लेकिन वो तस्लीम कर लेंगी,*
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*⊙__औरतों को इल्मे दीन पढाने का फ़ायदा :-* 

*★_ मैं क़सम खा कर कहता हूँ कि औरतों को दीन की तालीम दे कर तो देखो, इससे उनमें अक़्ल व फ़हम व सलीका़ और दुनिया का इंतज़ाम भी किसी क़दर पैदा होता है, जिन औरतों को दीन की तालीम हासिल है अक़ल व फ़हम में वो औरतें कभी उनका मुक़ाबला नहीं कर सकती जो एम.ए.बी.ए हो रही हैं, हां बेहयाई में वो ज़रूर उनसे बढ़ जाएंगी और बातें बनाने में भी अंग्रेजी पढ़ने वालियां शायद बढ़ जाएंगी मगर अक़्ल की बात दीनदार औरत ही की ज़ुबान से ज्यादा निकलेगी,* 

*★_ जिसका दिल चाहे तजुर्बा कर के देख लें कि इल्मे दीन के बराबर दुनिया भर में कोई दस्तूरे अमल और कोई तालीम शाइस्तगी और तहज़ीब सलीका़ नहीं सिखाता, चुनांचे एक वो शख़्स लीजिये जिस पर इल्मे दीन ने पूरा असर किया हो और एक शख़्स वो लीजिए जिस पर जदीद तहज़ीब ने पूरा असर किया हो, फिर दोनों के अख़लाक़ और मआशरत और मामलात का मुआवज़ना कीजिए तो आसमान व ज़मीन का फर्क पाएंगे,* 

*★_ मर्द औरत की तालीम अपने ज़िम्मे ही नहीं समझते, हालांकि मर्दों पर वाजिब है कि उनको अहकाम बतलायें, हदीस में है कि तुम सब ज़िम्मेदार हो तुमसे क़यामत में तुम्हारी ज़िम्मेदारी की चीज़ों से सवाल किया जाएगा,*
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*⊙__औरतों को दीनी तालीम ना देना जुल्म है:-* 

*★_ मर्द अपने खानदान में अपने मुतल्लिकीन में हाकिम है, क़यामत में पूछा जाएगा कि क्या हक़ अदा किया, महज़ नान नफका़ ही से हक़ अदा नहीं होता क्योंकि ये खाना पीना दुनिया की जिंदगी तक है, आगे कुछ भी नहीं, इसलिए सिर्फ इसी पर इकतिफा करने से हक़ अदा नहीं होता, चुनांचे हक़ ताला ने साफ लफ़्ज़ों में इरशाद फरमाया कि ए ईमान वालो! अपनी जानों को और अपने अहलो अयाल को दोज़ख से बचाओ यानी उनकी तालीम की फ़िक्र करो, हुकूक़ ए इलाही सिखाओ, उनसे तामील भी कराओ, तो घर वालों को दोज़ख़ से बचाने के मा'नी यही है कि उनको तम्बीह करो,* 

*★_ सच तो ये है कि मर्दों ने भी दीन की ज़रूरत को ज़रूरी नहीं समझा, खाना ज़रूरी, फैशन ज़रूरी, नामवरी ज़रूरी, मगर गैर ज़रूरी है तो दीन, दुनिया का ज़रा सा नुक़सान और खराबी का ख्याल होता है और ये नहीं समझते कि अगर दीन का नुक़सान और ख़राबी पहुंच गई तो कैसा बड़ा नुक़सान होगा, फिर अगर वो मगफिरते ईमान की हद में है तब तो छुटकारा भी हो जाएगा, मगर नुक़सान (अज़ाब) फिर भी होगा चाहे दायमी ना हो और अगर ईमान की हद में है तब तो हमेशा का मरना हो जाएगा और ताज्जुब है कि दुनिया की बातों से बेफिक्री नहीं होती मगर दीन की बातों से किस तरह बेफिक्री हो जाती है,* 

*★_अब तो हालात ये है कि घर जा कर सबसे पहले सवाल करते हैं कि खाना पका या नहीं? अगर खाना तैयार हुआ और नमक तेज़ हो गया तो अब घर वालों पर नज़ला उतर रहा है, ग़र्ज़ आज कल मर्दों को ना औरतों के दीन की फ़िक्र है ना दुनिया की फ़िक्र है, उनको जाहिल बना कर रखा है, याद रखो ! ये बड़ा ज़ुल्म है जो तुमने औरतों पर कर रखा है, हमें चाहिए कि खुद भी कामिल बनें और औरतों को भी कामिल बनाएं, जिसका तरीक़ा अल्लाह ताला ने इस आयत में बयान फरमाया है कि पहले इल्म ए दीन हासिल करो फिर अमल का अहतमाम करो,* 

*★_खुलासा ये है कि बड़ा छोटे का निगरां होता है और उससे बाज़ पुर्स होगी तो जिस तरह मुमकिन हो औरतों को दीन मर्द खुद सिखा दे या कोई औरत दूसरी औरत को सिखा दे और सिखाने के साथ उनको पाबंद भी बना दे, इसके बिना बरा'अत (निजात) नहीं हो सकती,*
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*⊙__लड़कियों और औरतों को आलिम कोर्स कराना :-* 
*★_ हजरत हकीमुल उम्मत ने फरमाया - मै औरतों की तालीम का मुखालिफ नहीं, मगर ये कहता हूं कि तुम उनको मज़हबी तालीम दो और ज़्यादा हिम्मत हो तो अरबी उलूम की तालीम दो और इसके लिए ज़्यादा हिम्मत की क़ैद इसलिए है कि अरबी के लिए ज़्यादा फ़हम और ज़्यादा मेहनत की ज़रूरत है,*

*★_ मगर आज आज़ादी का ज़माना है, हर एक खुद मुख्तार है, चुनांचे औरतें भी किसी बात में मर्दों से पीछे रहना नहीं चाहती, हर इल्म व फन को हासिल करना चाहती हैं,* 

*★_ जरूरी निसाब के बाद अगर तबियत में काबिलियत देखें तो अरबी की तरफ मुतवज्जह कर दें ताकी कुरान व हदीस व फिक़हा असली जुबान में समझने के काबिल हो जाएं और क़ुरान का ख़ाली तर्जुमा जो बाज़ लड़कियां पढ़ती है मेरे ख़्याल में समझने में ज़्यादा ग़लती करती है इसलिए अकसर के लिए मुनासिब नहीं,* 
*®_ (इस्लाही इंतेखाब -1/273)*
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*⊙__लड़कियों को हिफ़्ज़ ए कुरान की तालीम:-*

*★_लड़का हो या लड़की जब सयाने हो जाएं उनको दीन पढ़ाएं, कुरान शरीफ बड़ी चीज़ है, किसी हालत में तर्क ना करना चाहिए, ये ख़याल न करें कि वक़्त ज़ाया होगा, अगर क़ुरान शरीफ़ पूरा ना हुआ आधा ही हो ये भी ना हुआ ख़ैर की तरफ़ से एक ही मंज़िल पढ़ा दी जाए, इसमें छोटी छोटी सूरतें नमाज़ में काम आएंगी,* 

*★_एक मंजिल पढ़ाने में कितना वक्त़ खर्च होता है ? कुरान पाक की ये भी बरकत है के हाफिजे़ कुरान का दिमाग दूसरे उलूम के लिए ऐसा मुनासिब हो जाता है कि दूसरे का नहीं होता, ये रात दिन का तजुर्बा है,* 

*★_ औरतों को कोनसे उलूम और किताबे पढ़ाई जाएं ? मै कहता हूं उनको मज़हबी तालीम दीजिए फ़िक़्हा पढ़ाएं तसव्वुफ पढ़ाएं जिससे उनकी ज़ाहिरी बातिनी इस्लाह हो, औरतों के लिए तो बस ऐसी किताबे मुनासिब है जिनसे खुदा का ख़ौफ़, जन्नत का शोक़, दोज़ख से डर और खौफ़ पैदा हो, इसका असर औरतों पर बहुत अच्छा होता है,* 

*★_इसलिए मैं फिर कहता हूं कि औरतों को वो तालीम जिसको पुरानी तालीम कहा जाता है, बा क़द्रे किफायत ज़रूर देना चाहिए, वही तालीम अख़लाक़ की इस्लाह करने वाली है, जिससे उनकी आख़िरत और दुनिया सब दुरुस्त हो जाए, अका़इद सही हों, आदात दुरुस्त हों मामलात साफ हों, अखलाक़ पाकीज़ा हों!* 
*®_ (अत-तबलीग-27263 )*
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*⊙__औरतों का कोर्स और निसाब ए तालीम:-* 

*★_ जरूरी है कि औरतों की तालीम का कोर्स किसी मुहक्किक़ आलिम से तजवीज़ कराओ अपनी राय से तजवीज़ ना करो, लड़कियों के लिए निसाब ए तालीम ये होना चाहिए कि पहले क़ुरान मजीद हत्तल इमकान सही पढ़ाया जाए, फिर दीनी किताबे आसान ज़ुबान में जिनमें दीन के तमाम अज्ज़ा की मुकम्मल तालीम हो, मेरे नज़दीक बहिश्ती ज़ेवर के दसों हिस्से ज़रूरत के लिए काफी हैं,* 

*★_ बहिश्ती ज़ेवर के आख़िर में मुफ़ीद रिसालों का नाम भी लिख दिया गया है जिनका पढ़ना और मुता'ला करना औरतों के लिए मुफ़ीद है, अगर सब ना पढ़े तो ज़रूरी मिक़दार पढ़ कर बाक़ी का मुता'ला हमेंशा रखें, मुफ़ीद किताबों के मुता'ले से भी ग़ाफ़िल ना रहें,* 

*★_ औरतों के पास ऐसी किताबे पहुंचाओ जिनमें दीन के पूरे अज़्ज़ा से काफ़ी बहस हो, अका़इद का भी मुख़्तसर बयान हो, वज़ू और पाकी नापाकी के भी मसाइल हों, नमाज़ रोज़ा हज ज़कात निकाह, ख़रीद फ़रोख़्त के भी मसा'इल हों, इस्लाहे अख़लाक़ का तरीक़ा भी मज़कूर हो, आदाब और सलीका़ व तहज़ीब की बातें भी बयान की गई हों, ये बात मर्दों के ज़िम्मे है, अगर वो इसमे कोताही करेंगे तो उनसे भी मुवाख़्ज़ा होगा_,* 
*®_ हुकूक़ुल ज़ोजैन-102,*
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*⊙__औरतों को दुनियावी फुनून और दस्तकारी की तालीम की इजाज़त है:-* 

*★_औरतों के लिए दुनियावी फुनून में से बाक़दरे जरूरत लिखना और हिसाब और किसी क़िस्म की दस्तकारी ये मुनासिब है बल्कि आज कल ज़रूरी है कि अगर किसी वक्त कोई सरपरस्त न रहे तो इज़्ज़त के साथ चार पैसे कमा सके,* 

*★_ मस्तुरात शहर में जो ये रिवाज है कि लड़कियों को मर्द टीचर घर पर आ कर पढ़ाते हैं, इसको सख़्ती से बंद कर देना चाहिए, सुनने में बार-बार आता है आज कल कि फलां औरत भाग गई और कल फलां की बेटी भाग गई, ये सिर्फ इसका नतीजा था कि औरतों को पढ़ाने के लिए मर्द टीचर घर पर आते थे, तो ये हरगिज़ नहीं होना चाहिए,* 

*★_ अपनी औरतों को और लड़कियों को आज़ाद बेबाक मॉडर्न औरतों से भी हरगिज़ तालीम नहीं दिलाना चाहिए और ये तजुर्बा है कि हम सोहबत के अखलाक़ व जज़्बात का आदमी पर जरूर असर होता है, इस सूरत में वो आज़ादी और बेबाकी उन लड़कियों में भी आएगी,* 

*★_ इसी तरह अगर मैम टीचर ऐसी ना हो लेकिन हम सबक़ और मकतब की लड़कियां ऐसी हों तब भी उनकी सोहबत का असर होगा,* 

*★_ और मेरी राय में सबसे बड़ कर जो सिफ़ात औरत की है वो हया और इन्क़िबाज़ तबई है, इसी में तमाम ख़ैर है अगर ये ना रहा तो फ़िर उसमें कोई ख़ैर ना रही,* 
*"_. अल्हम्दुलिल्लाह पोस्ट मुकम्मल हुई _,*
 
*📗 औरत की इसलाह की रोशनी _,*
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💕 *ʀєαd,ғσʟʟσɯ αɳd ғσʀɯαʀd*💕 
                    ✍
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