Khawateen Ke Deeni Fara'iz -( Hindi)

🎍﷽ 🎍*
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       *●• ख़्वातीन के दीनी फ़राइज़ •●*
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*⊙__दीनी फ़राइज़ के जामा तसव्वुर की अहमियत -:-*

*★_ दीनी फ़राइज़ के जामा तसव्वुर की अहमियत ये है कि अगर इंसान को ये मालूम ना हो कि मेरा रब मुझसे क्या चाहता है और मेरे दीन का मुझसे क्या मुतालबा है तो वो उन दीनी फ़राइज़ की अदायगी के क़ाबिल न हो सकेगा जो उस पर आईद होते हैं, इसी तरह अगर दीनी फ़राइज़ के बारे में हमारा तसव्वुर नाक़िस या ना मुकम्मल हो, यानी कुछ फ़राइज़ तो मालूम हों और उनको हम अदा भी कर रहे हों लेकिन कुछ फराइज़ का हमें इल्म ही ना हो तो ज़ाहिर है कि वो हम अदा नहीं कर सकेंगे,* 

*★_इस तरह इस बात का शदीद अंदेशा है कि अगरचे अपनी जगह हम समझ रहे हों कि हमने तो अपने तमाम फराइज़ अदा किये हैं लेकिन अल्लाह तआला की तरफ से वहां हमें बतलाया जाए कि तुम्हारी ज़िम्मेदारियां सिर्फ वोही नहीं थी जो तुमने पूरी की हैं बल्की मजी़द भी थीं और उनके मुताल्लिक चूंकी हमें इल्म ही हासिल नहीं था, लिहाज़ा उनसे मुताल्लिक़ हमारी कारगुज़ारी सिफ़र साबित हो और हम अपने तमामतर खुलूस और मेहनत के बावजूद नाकाम क़रार पायें,* 

*★_ इस मसले का एक दूसरा रुख भी का़बिले तवज्जो है, जो ख़्वातीन की ज़िम्मेदारियों के ज़िमन में खास अहमियत का हामिल है, और वो ये है कि हम अपने ज़िम्मे ख्वामखाह ऐसी ज़िम्मेदारियां ले लें जो हमारे दीन ने हम पर आईद ना की हो, ये बात भी इतनी ही ख़तरनाक मुज़्तिर और नुकसानदायक है जितनी की पहली बात,* 

*★_ क्योंकि इंसान के अमल का जज़्बा बसा अवक़ात हद से आगे बढ़ जाता है तो वो ग़लत रुख अख्तियार कर लेता है, इसकी बहुत अहम मिसालें मोजूद है, मसलन नेकी का जज़्बा ही दुनिया में रहबनियात जेसे खिलाफे फितरत निज़ाम को वजूद में लाने का सबब बना, जिसने बिल आख़िर एक बुराई की शक्ल अख़्तियार कर ली और बहुत सी बुराइयों को जन्म दिया और इसके नतीजे बहुत ही खौफनाक हुए,*

*★_रसूलुल्लाह ﷺ की हयाते तैय्यबा का ये वाक़िया बड़ी अहमियत रखता है कि तीन सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम जिन पर इबादत गुज़ारी, ज़ुहद और तक़वे का बहुत ज़्यादा गलबा हो गया था, उन्होंने अज़वाज मुतहारात रज़ियल्लाहु अन्हुमा से आन हज़रत ﷺ की निफ़ली इबादात के मुताल्लिक़ पुछा कि आप ﷺ रात को कितनी देर तक नमाज़ पढ़ते हैं और महीने में कितने निफ़्ली रोज़े रखते हैं?* 

*★_ अज़वाज़ मुतहारात रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने उन्हें आन हज़रत ﷺ के निफ़्ली आमाल की जो कैफियत बताई वो उनको अपने तसव्वुर और गुमान के मुताबिक बहुत कम नज़र आई, ताहम उन्होंने ये कह कर अपने दिल को तसल्ली दी कि कहां हम और कहां रसूलुल्लाह ﷺ, आप तो मासूम हैं, आपसे तो किसी गुनाह का सुदूर हो ही नहीं सकता और अल्लाह ता'ला की तरफ से आपकी मगफिरत का वादा हो चुका, लिहाज़ा आपके लिए तो इतनी इबादात किफायत करेगी लेकिन हमारे लिए ये काफी नहीं है,* 

*★_ चुनांचे उनमें से एक सहाबी ने कहा कि मै तो सारी रात नमाज़ पढ़ा करुंगा और अपनी पीठ बिस्तर से नहीं लगाऊंगा, दूसरे ने तय किया कि मैं हमेशा रोज़ा रखूंगा और कोई दिन भी नागा नहीं करूंगा, तीसरे ने कहा कि मै घर गृहस्थी का बखेड़ा मोल नहीं लूंगा और कभी शादी नहीं करूंगा,* 

*★_ उनकी ये बाते रसूलुल्लाह ﷺ तक पहुंची तो आपने उन्हें तलब फरमाया- क्या तुम वो लोग हो जिन्होनें ऐसी बाते कही हैं? अल्लाह की क़सम मैं तुममें अल्लाह से सबसे ज़्यादा डरने वाला हूं और सबसे ज़्यादा उसका तक़वा अख्तियार करने वाला हूं, लेकिन मैं कभी (निफ्ली) रोज़ा रखता हूं और कभी नहीं रखता और मैं रात को नमाज़ भी पढ़ता हूं और आराम भी करता हूं और मैं औरतों से शादियां भी करता हूं और (जान लो कि) जिसे मेरी सुन्नत पसंद नहीं उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं,* 
*"_ये हदीस मुत्तफिक अलैहा है और इसे हजरत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु ने रिवायत किया है,*
 
*★_ हदीस के आखिरी अल्फाज़- "जिसे मेरी सुन्नत पसंद नहीं उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं," बहुत जामे अल्फाज़ हैं और उनकी रोशनी में हमें जिंदगी के हर मोड़ और हर गोशे में ये देखना चाहिए कि नबी करीम ﷺ का तर्जे अमल क्या था, ख्वातीन की दीनी ज़िम्मेदारियो के ज़िमन में हमें सहाबियात, ख़ुसुसन अज़वाज मुताहरात रज़ियल्लाहु अन्हुमा की ज़िंदगी और उनके तर्जे अमल को पेशे नज़र रखना होगा,* 

*★_ इसलिए कि ख्वातीन के लिए आन हज़रत ﷺ का जो उसवाह ए मुबारक है वो हम तक अज़वाज़ मुतहरात रज़ियल्लाहु अन्हुमा ही के ज़रिये से पहुंचा है और आपने आम तोर पर सहाबियात रज़ियल्लाहु अन्हुमा को जो भी हिदायत दीं वो उम्मत की ख्वातीन के लिए मिसले राह हैं* 

*★_ इंसान जब अपने ज़िम्मे ख्वाह मख़्वाह अपनी ज़िम्मेदारी से बढ़ कर ज़िम्मेदारी ले लेता है तो उसके जो मनाफी (नकारात्मक) असरात पैदा होते हैं उसके लिए मैं मोजूदा दौर से एक मिसाल पेश कर रहा हूं, आज पूरी दुनिया में मुख्तलिफ जमातो और तहरीको के ज़रीए इस्लामी इंक़लाब और अका़माते दीन के लिए एक जद्दो जहद और कोशिश हो रही है, ऐसी तहरीको के फिक्र में बाज़ अवकात एक बुनियादी ग़लती ये पैदा हो जाती है कि वो अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने को अपनी ज़िम्मेदारी समझ लेते हैं,* 

*★_ हालांकी वाकिया ये है कि दीन को ग़ालिब कर देना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि हमारी ज़िम्मेदारी ये है कि हम अल्लाह के दीन को गालिब करने के लिए अपनी भरपूर कोशिश करें और उस रास्ते में अपने तमाम वसाइल और सलाहियतों और इस्तेदाद को सर्फ कर दें, लेकिन अगर हम ये समझ लें कि हमें ये काम हर हाल में कर के रहना है तो इससे हमारे तर्जे अमल में ये भी पैदा हो सकता है कि अगर सही रास्ते से काम नहीं हो पा रहा हो तो हम किसी गलत रास्ते को अख्तियार कर लें, चुनांचे जिम्मेदारी का ये गलत तसव्वुर बहुत सी तहरीको के गलत रुख पर पड़ जाने का सबब बन गया है,* 

*★_ लिहाज़ा जहां हमें ये जानने की ज़रूरत है कि एक मुसलमान की दीनी ज़िम्मेदारियां क्या है और हमें कोशिश करनी है कि उनमें से कोई ज़िम्मेदारी हमारे इल्म और तसव्वुर से ख़ारिज न रह जाए, वहीं हमारी ये कोशिश भी होनी चाहिए कि हम ख्वाह मख्वाह ऐसी ही ज़िम्मेदारियां मोल न ले लें जो अल्लाह तआला ने हम पर आईद न की हों,*
 
*★_ अपने फ़राइज़ और ज़िम्मेदारियों के ज़िमन में एक मुसलमान के पेशे नज़र हमेशा ये उसूल रहना चाहिए कि अल्लाह ने हम पर कोनसी ज़िम्मेदारियां आइद की हैं, जब इंसान अपनी असल ज़िम्मेदारी से बढ़ कर कोई ज़िम्मेदारी अपने सर ले ले तो एक खतरा ये भी पैदा होता है कि कहीं वो उस अंजाम से दो चार ना हो जाए जिसका ज़िक्र सूरह निसा में आया है, यानि उसने जो रास्ता खुद ही अख्तियार कर लिया, फिर अल्लाह ताला उसे उसके हवाला कर देता है और फिर अल्लाह की ताईद और नुसरत शमिले हाल नहीं रहती,* 

*★_चुनांचे हमें ये देखना है कि अल्लाह की तरफ़ से हम पर क्या फ़राइज़ और ज़िम्मेदारियां आइद की गई हैं, हक़ूक़ुल्लाह के ज़िमन में किन हक़ूक़ की अदायगी हमारे ज़िम्मे हैं और हमारे नफ़्स के वो हक़ूक़ कोनसे हैं जो अल्लाह ने मुईन कर दिए हैं और वो हमें अदा करना है, अल्लाह ने उसके लिए जो चीजें हलाल फरमायी है, उन्हीं पर हमें इकतिफा करना है, अगर हम अपने नफ्स और तबियत के तक़ाज़ो की पैरवी करेंगे तो हो सकता है कि हम हलाल से आगे बढ़ कर हराम में मूंह मार लें,* 

*★_ इसी तरह इंसानों में से भी जिसका जो हक़ अल्लाह ने मुईन कर दिया है, वो हमें अदा करना है, अगर ये उसूल पेशे नज़र रहे तो रास्ता सीधा साफ और महफूज़ रहेगा, लेकिन अगर हमने इसमे अपनी पसंद, ज़ोक, जज्बे, ख्यालात और तसव्वुरात को अपना इमाम बना लिया तो फिर हम खुदा ना ख्वास्ता (फिर अल्लाह तआला उसे उसके हवाले कर देता है ) का मिसदाक़ बन सकते है और फिर इसमे शदीद अंदेशा है कि हौलनाक अंजाम से दो चार हो जाएं, अल्लाह तआला हमें अंजामे बद से बचाए!*
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*⊙__दीनी फ़राइज़ की सतहें - बुनियाद ईमान है :-* 

*★_ फ़राइज़ ए दीन के जामा तसव्वुर की वज़ाहत के लिए एक तीन मंज़िला इमारत की मिसाल ज़हन में रखें, जिससे वाक़ई इस जामा तसव्वुर को समझना आसान हो जाता है, पहले उमूमी अल्फ़ाज़ में समझना है कि कहां कहां वो फराइज मर्दों की मानिंद औरतों पर भी जों के तों आ'इद होते हैं और कहां कहां उनमें फ़र्क है,* 

*★_ अब आप एक ऐसी तीन मंज़िला इमारत का नक्शा ज़हन में लायें जो चार सुतूनो (खंभे) पर क़ाइम हो, उसकी पहली मंजिल (ग्राउंड फ्लोर) पर सिर्फ यहीं चार सुतून नज़र आते हैं और कोई दिवारे वगेरा नहीं है, लेकिन जाहिर है कि उन सुतूनों के नीचे एक बुनियाद (फाउंडेशन) है जिसके ऊपर ये चारो सुतून खड़े हैं, एक मुनासिब बुलंदी पर इमारत की पहली छत मौजूद है, जिससे पहली मंजिल मुकम्मल होती है, उसके ऊपर दूसरी मंजिल है, जहां पर इमारत तो उन चारो सुतूनो पर ही कायम है, मगर दिवारे तामीर हो जाने की वजह से सुतून नजर नहीं आते, बल्की दिवारो के ऊपर दूसरी छत नजर आ रही है, इसी तरह उसके ऊपर तीसरी मंजिल है, इस इमारत में अहम तरीन चीज़ इसकी बुनियाद है, जिस पर सारी इमारत की मजबूती का दारोमदार है,* 

*★_ बुनियाद के बाद सबसे ज़्यादा अहमियत चारो सुतूनों को हासिल है जो उस सारी इमारत का बोझ उठाए हुए हैं, अगर ये सुतून मज़बूत होंगे तो ऊपर की पूरी इमारत मज़बूत होगी और अगर ये कमजो़र होंगे तो ऊपर की सारी इमारत कमज़ोर रह जाएगी, यह तीन मंज़िला इमारत हमारे दीनी फ़राइज़ के जामा तसव्वुर की नक्शा कशी कर रही है,* 

*★_ इस इमारत की बुनियाद ईमान व यकीन है, जिसकी पुख्तगी पर इमारत की मज़बूती का दारोमदार है, ये बुनियाद जितनी मज़बूत और गहरी होगी ऊपर की इमारत उस क़दर मज़बूत होगी और अगर ये बुनियाद ही कमज़ोर है तो ऊपर की इमारत के लिए अगरचे बहुत अच्छा मटेरियल तैयार किया गया हो और उसकी ज़ाहिरी शेप पर भी बहुत तवज्जो दी गई हो, ये पूरी इमारत कमज़ोर रहेगी,*
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*⊙__इबादत अहसान और दावत :-* 

*★_ इस बुनियाद पर जो चार सुतून क़ायम हैं वो चार अहम इबादात है जो अल्लाह तआला ने हम मुसलमानों को अता फरमायें यानि (1) नमाज़ (2) रोज़ा (3) ज़कात और (4) हज_,* 
*"_पहली दो इबादात यानि नमाज़ और रोज़ा तो हर मुसलमान पर फ़र्ज़ हैं, जबकि दूसरी दो इबादात यानि ज़कात और हज साहिबे इस्तेतात लोगो पर फ़र्ज़ हैं,* 

*★_ बहरहाल ये चारों इबादात उन चार सुतूनो की मानिंद हैं जिन पर इस इमारत की छत खड़ी है, पहली छत को आप इस्लाम, इता'अत, तक़वा या इबादते रब का नाम दे सकते हैं, यानि इस सतह पर इंसान अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के अहकाम के आगे सर झुका दे, सही मा'नों में अल्लाह का बंदा बने और अपने पैदा होने के मक़सद को पूरा करे,* 
*"_ इरशाद ए बारी ताला है (अज़ ज़ारियत-56) यानि मैने जिन्नो और इंसानों को पेदा ही इसलिए किया है कि वो मेरी बंदगी करें_,* 

*★_ ये इताअत, तक़वा और इबादत अपनी बुलंदी को पहुंच जाए तो ये दर्जा अहसान है, यानि यकी़न की ये कैफियत पैदा हो जाए कि जेसे बंदा अल्लाह तआला को अपनी आंखों से देख रहा हो, तो ये है हमारी इमारत की पहली छत,* 

*★_ इसके बाद दूसरी मंजिल ये है कि इंसान अब इसी चीज़ की दूसरों को दावत दे, अल्लाह के पैगाम को आम करे, अल्लाह के कलाम को लोगों तक पहुंचाने की सई व कोशिश करे, अम्र बिल म'अरूफ और नहीं अनिल मुनकर का फ़रीज़ा ( यानि भलाई का हुक्म करना और बुराई से रोकना) अंजाम दे, लोगों पर ये हुज्जत क़ायम कर दी जाए ताकि लोग क़यामत के दिन ये ना कह सकें कि परवरदिगार हम तक तो तेरा हुक्म पहुंचा ही नहीं, तेरी हिदायत हम तक किसी ने पहुंचाई ही नहीं, ये दूसरी मंजिल है,* 

*★_इस इमारत की तीसरी मंज़िल जो बुलंदतर है, वो अका़माते दीन की मंजिल है, इसके लिए इस्लामी इंक़लाब और तकबीरे रब की इस्तेलाहात इस्तेमाल की जाती हैं, यानि अल्लाह के दीन को एक मुकम्मल निज़ामे ज़िंदगी की हैसियत से क़ायम और राइज़ कर दिया जाए और अल्लाह की किब्रियाई का निज़ाम बिल फ़ेल क़ायम हो जाए, इस मक़सद के लिए मेहनत कोशिश, ईसार, माल ख़र्च करना, जान ख़पाना, तीसरी और बुलंद तरीन मंज़िल है ,*
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*⊙__ (1) पहली मंजिल - मर्द और औरत के लिए क़रीबन यकसां जिम्मेदारियां:-* 

*★_ जिमेदारियों के ऐतबार से मर्द और औरत में जो फर्क व तफावुत है हर मर्द और औरत को इनसे वाकिफ होना चाहिए, दीनी फ़राइज़ के जामा तसव्वुर की जो इमारत हमारे पेशे नज़र है उसकी पहली मंजिल बुनियाद के अलावा चार सुतूनो और पहली छत पर मुश्तमिल है, बुनियाद अगरचे इमारत शुमार नहीं होती लेकिन अहमियत के ऐतबार से वो सबसे बढ़ कर है, इस पहली मंजिल के बारे में ये कहा जा सकता है कि इस सतह पर औरतों और मर्दों के फ़रा'इज़ यकसां है, अगर कोई फ़र्क है तो वो बहुत ही मामूली है, ईमान हर मर्द और औरत की निजात के लिए लाज़िम है,* 

*★_ सूरह निसा की आयत 124 में सराहत के साथ फरमा दिया गया कि जो कोई भी नेक आ'माल अख़्तियार करे मर्द हो या औरत और वो मोमिन भी हो तो ये ही लोग जन्नत में दाख़िल होंगे_,''* 
*गोया ईमान हर मुसलमान मर्द व औरत का फ़र्ज़ अव्वल है, इसके बाद नमाज़ हर मर्द व औरत पर फ़र्ज़ है, इसी तरह रोज़ा भी हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है,* 

*★_ ज़़कात की अदायगी जिस तरह साहिबे निसाब मर्दों पर फ़र्ज़ है उसकी तरह साहिबे निसाब औरतों पर भी फ़र्ज़ है, हज के लिए ज़ादे राह मयस्सर हो तो ये भी मुसलमान मर्द और औरत दोनों पर फ़र्ज़ है, अलबत्ता इसके लिए औरत के साथ मेहरम का होना ज़रूरी है,* 

*★_ फिर ये कि अल्लाह के तमाम अहकामत और उसकी तरफ से आ'इद करदा हलाल व हराम की पाबंदियां मर्दों और औरतों दोनों के लिए हैं', अलगरज़ अल्लाह और उसके रसूल की इता'अत और बुनियादी फ़राइज़ की अदायगी दोनों के ज़िम्मे है, ये तमाम चीज़े दोनों में मुश्तरक है',*

*★_इस ज़िमन में मर्द व औरत के फ़राइज़ में जो मामूली सा फ़र्क़ है, इसके लिए मैं आपके सामने नमाज़ की मिसाल रख रहा हूँ, मर्दों के लिए हुक्म है कि वो मस्जिद में जा कर बा-जमात नमाज अदा करें, इला ये कि कोई उज्र ना हो, जबकी ख्वातीन का मामला इसके बर अक्स है, उनके लिए फरमाया गया है कि औरत की नमाज़ मस्जिद के मुकाबले में अपने घर में अफजल है, घर में भी सहन के मुकाबले में दालान में और दालान के मुकाबले में किसी कमरे के अंदर अफजल है, और कमरे के अंदर भी अगर कोई कोठरी है तो उसमें नमाज़ अदा करना अफ़ज़ल तरीन है,* 

*★_ अलबत्ता जुमा और ईदेन की नमाज़ों में इस्तस्ना रहा है, इसलिए कि उस ज़माने में तालीम व तलक़ीन के और ज़राये नहीं थे, ना किताबें और रिसाले थे, लिहाज़ा ईदेन और जुमा की नमाज़ों के साथ जो खुतबा है वही तालीम का वाहिद ज़रिया था, चुनाचे हुज़ूर ﷺ ने खवातीन को उन खुतबात में शिरकत की तरगीब दी कि वो जरूर शिरकत करें, ताकि वो तालीम व तलक़ीन से महरूम ना रह जाएं, दौरे नबवी में ख्वातीन को नमाज के लिए अगरचे मस्जिद में आने की भी इजाज़त थी, फिर भी उन्हें तरगीब यहीं दी गई कि अपने घरो में नमाज़ की अदायगी उनके लिए अफ़ज़ल है और घर के मख़फ़ी तरीन हिस्से में नमाज़ का अजर और सवाब मज़ीद बढ़ जाता है,* 

*★_ बहरहाल इस पहली मंजिल तक मुसलमान मर्द और औरत के फ़राइज़ में कोई बड़ा फ़र्क क़त'अन नहीं है और इन ज़िम्मेदारियों में मुसलमान मर्द और औरत दोनों यक्सां हैं, इस ज़िमन में सूरह अहजाब की तीन आयतों में अज़वाज मुतहारात से खिताब फरमाया गया है, पहली आयत का ताल्लुक़ ईमान की तहसील से है जो मर्द और औरत दोनों का अव्वल फ़र्ज़ है,* 

*★_हकीकी या शऊरी ईमान का मुनब्बा व सर चश्मा सिर्फ और सिर्फ कुरान ए हकीम है, चुनांचे इसके पढ़ने-पढ़ाने, सीखने सिखाने, इस पर गौर व तदब्बुर और इसकी तिलावत से इंसान के अंदर ईमान पैदा होता है,* 
*"_ चुनांचे पहली आयत में फरमाया गया- "और ज़िक्र करती रहा करो उन चीज़ों का जो तुम्हारे घरो में अल्लाह की आयात और हिकमत में से तिलावत की जा रही हों यक़ीनन अल्लाह तआला बहुत ही बारीक बीन और बा खबर है _,*
 
*★_ये आन हज़रत ﷺ की अज़वाज़ मुतहरात रज़ियल्लाहु अन्हुमा से ख़िताब है, जिनके घरों में वही नाज़िल होती थी और हुज़ूर ﷺ वहां कुरान ए हकीम की आयात पढ़ कर सुनाते थे और हिकमत की तालीम देते थे, हिकमत का सबसे बड़ा ख़ज़ाना भी खुद क़ुरान ए हकीम है,* 
*"_ और आप ﷺ अहादीस की सूरत में क़ुरान ए हकीम की वज़ाहत फरमाते थे तो अहादीस नबविया भी दर असल हिकमत के अज़ीम मोती हैं _,* 

*★_ गोया इन आयात में सबसे पहला जो हुक्म दिया जा रहा है वो कुरान व हदीस का तज़किरा, मुज़ाकरा, उनका दर्स व तदरीस, उनका पढ़ना पढ़ाना और सीखना सिखाना है, इसलिए कि ईमान का दारोमदार इसी पर है, इससे यक़ीन की दौलत मिलेगी, इससे हमारे ईमान में गहराई पैदा होगी और इससे ईमान में इस्तहकाम और पुख्तगी पैदा होगी,* 

*★_ लिहाज़ा ये पहला काम है जो हर मर्द और औरत को करना है और हर एक को इसे अपनी अव्वलीन जिम्मेदारी समझना है, तरतीब के ऐतबार से हर मुसलमान मर्द और औरत को अपना पहला फ़र्ज़ ये समझना है कि अपने ईमान को मुस्तहकम करना है, इसमें ज़्यादा से ज़्यादा गहराई पैदा करना है और ज़्यादा से ज़्यादा शऊर का असर शामिल करना है, मर्द या औरत होने के ऐतबार से इसमे कोई फ़र्क़ व तफावुत नहीं है,* 

*★_ अब अगली आयत की तरफ आयें, इस मुका़म पर एक लफ़्ज़ खास तौर पर दोहरा दोहरा कर मर्दों और औरतों के लिए अलहैदा अलहैदा लाया गया, ताकी वाज़ेह हो जाए कि औसाफ और ख़ुसुसियात के ऐतबार से मर्दो और औरतों के दरमियान में कोई फर्क नहीं है,* 
*"_ इरशाद होता है (तर्जुमा सूरह अहजाब -35) बेशक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, मोमिन मर्द और मोमिन औरतें, फ़रमाबरदारी करने वाले मर्द और फ़रमाबरदारी करने वाली औरतें, रास्त बाज़ मर्द और रास्त बाज़ औरतें, सब्र करने वाले मर्द और सब्र करने वाली औरतें, आजीज़ी करने वाले मर्द और आजीज़ी करने वाली औरतें, खैरात करने वाले मर्द और खैरात करने वाली औरतें, रोज़ा रखने वाले मर्द और रोज़ा रखने वाली औरतें, अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त करने वाले मर्द और हिफ़ाज़त करने वालियां, बा-कसरत अल्लाह का ज़िक्र करने वाले और ज़िक्र करने वालियां (इन सबके लिए) अल्लाह ताला ने (वसी) मगफिरत और बड़ा सवाब तैयार कर रखा है,*

*★_ इस आयत ए मुबारका में दस सिफात मर्दो और औरतें के लिए अलग-अलग दोहरा कर बयान की गई हैं, जो दर्जे ज़ैल हैं:-* 
*"_(1) मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, यानि अल्लाह के अहकाम के आगे सर झुका देने वाले मर्द और औरतें,* 
*(2)_ अहले ईमान मर्द और औरतें, यानि अल्लाह, उसके फरिश्तो, उसकी नाज़िल करदा किताबों, उसके भेजे हुए रसूलों और आख़िरत पर ईमान रखने वाले मर्द और औरतें _,* 

*★_(3) _ फ़रमाबरदार मर्द और फ़रमाबरदार औरतें, जब कोई गुलाम अपने आक़ा के सामने हाथ झुका कर खड़ा होता था कि जैसे ही कोई हुक्म मिले उसे बजा लाए, तो उसकी ये हालात कुनूत कहलाती थी, नमाज़ में दुआए कुनूत वो दुआ है जो खड़े हो कर मांगी जाती है, वर्ना आम तौर पर दुआएं क़ायदा में तशहुद और दरूद शरीफ के बाद बैठ कर ही मांगी जाती है,* 

*★_ (4) रास्त बाज़ व रास्त गो मर्द और रास्त बाज़ व रास्त गो औरतें, जो बात के भी सच्चे हों और अमल के लिहाज़ से भी सच्चे हों,* *"(5)_ सब्र करने वाले मर्द और सब्र करने वाली औरतें, सब्र मा'सियत पर भी है कि गुनाह से खुद को रोका जाए, सब्र इता'त पर भी है कि जो हुक्म भी मिले उसे बजा लाया जाए, मसलन चाहे शदीद सर्दी हो और गरम पानी मयस्सर ना हो तो ठंडे पानी से वज़ू कर के नमाज़ पढ़ी जाए, इसलिए कि नमाज़ फ़र्ज़ है और इसके लिए वजू शर्त है, फिर ये कि इस्लाम पर चलने में जो तकालीफ और मुश्किलात पेश आएं उन्हें बर्दाश्त करना भी सब्र है _,* 

*★_ (6) आजिज़ी करने वाले मर्द और आजिज़ी करने वाली औरतें, यानी अल्लाह के सामने झुक जाने वाले मर्द और औरतें, ख़ुशू झुकाव या फ़रमाबरदारी की कैफियत को कहते हैं है,* 
*"_(7) सदका व खैरात करने वाले मर्द और सदका व खैरात करने वाली औरतें, यानी जो अल्लाह की रज़ा के लिए अपना पेट काट कर दूसरे पर खर्च करते हैं, सदका़ व खैरात में ज़कात भी शामिल है जो हर साहिबे निसाब पर फ़र्ज़ है और दीगर निफ़ली सदक़ात भी,* 
*"_(8) रोज़ा रखने वाले मर्द और रोज़ा रखने वाली औरतें, नोट कीजिए कि इन सिफ़ात में ईमान के अलावा नमाज़, रोज़ा और ज़कात जेसे अरकाने इस्लाम भी आ गए हैं _,* 

*★_ (9) अपनी शर्मगाहों (और अस्मत व इफ्फत) की हिफाज़त करने वाले मर्द और हिफाज़त करने वाली औरतें, इफ़्फ़त व अस्मत की हिफ़ाज़त मर्द और औरत दोनों के लिए ज़रूरी है और इस ज़िमन में इस्लाम दोनों पर यक्सां पाबंदियां आइद करता है,* 
*"_(10) अल्लाह का ज़िक्र कसरत से करने वाले मर्द और (अल्लाह का कसरत से) ज़िक्र करने वाली औरतें _,*
 
*★_अगली आयत में आखिरी बात दो टूक अंदाज में बयान फरमा दी गई जो इस पहली मंजिल का खुलासा और लबो लुबाब है:-(सूरह अहजाब -36) :-* 
*"_ और किसी मोमिन मर्द और किसी मोमिन औरत के लिए ये जा'इज़ नहीं है कि जब अल्लाह और उसके रसूल ﷺ (उनके बारे में) किसी मामले का फैसला कर दें तो फिर भी उनके पास इस बात में कोई अख्तियार बाक़ी रह जाए, और जिसने अल्लाह और उसके रसूल की नाफरमानी की तो वह सरीह गुमराही में पड़ गया,* 

*★_ यानि मुसलमान और मोमिन मर्दो और औरतों का तर्ज़े अमल ये होना चाहिए कि जब किसी मामले में अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म या फैसला आ गया तो अब उनके अपने इंतखाब या अख्तियार की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती, और अगर कोई इसके बर अक्स रवैय्या अख्तियार करता है तो यही मा'सियत और नाफरमानी है और हक़ीक़त के एतबार से कुफ्र है, और जो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की नाफरमानी की राह अख्तियार करेंगे, चाहे वो मर्द हो या औरत तो वो भी बड़ी सरीह गुमराही के अंदर मुब्तिला हो गए, ये गोया कि इस्लाम, इता'त और इबादत का लबो लुबाब है,* 

*★ _इस्लाम क्या है? अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के अहकाम के आगे सर झुका देना!* 
*"_इता'त क्या है? अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की फरमाबरदारी!* 
*"_ इबादत क्या है? हमातन और हर वक़्त अल्लाह ही का बंदा बन जाना!* 
*"_ तमाम चीज़ों में काँटे की बात ये है कि जहां अल्लाह और उसके रसूल ﷺ का हुक्म आ गया वहाँ हमारा अख़्तियार ख़त्म!* 

*★_ हां अगर किसी मामले में अल्लाह और उसके रसूल ﷺ का वाज़ेह हुक्म मोजूद नहीं हो तो गोया कि अल्लाह ने हमें ये अख्तियार दे दिया है कि यहां हम अपनी मर्जी फहम ज़ोक और मिज़ाज के मुताबिक मामला तय कर लें, लेकिन जहां दो टूक हुक्म आ चूका फिर भी इंसान ये समझे कि मेरे पास कोई अख्तियार या ऑप्शन है तो ये गोया कि इस्लाम और ईमान के मनाफी बात होगी,* 

*★_ ये पहली मंजिल है जहां पर दीनी ज़िम्मेदारियों के ऐतबार से मर्द और औरत में बहुत मामूली फर्क है, लेकिन जैसे जैसे हम ऊपर चलते जाएंगे ये फर्क बढ़ता चला जाएगा, पहली मंजिल पर ये फर्क बहुत थोड़ा है, दूसरी मंजिल पर बहुत नुमाया है, जबकी तीसरी मंजिल पर जा कर ये फर्क बहुत बढ़ जाएगा, हमें इस फर्क की बुनियाद को समझना चाहिए,*
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      *⊙___इस्लाम और शर्म व हया:-* 

*★_ इस्लाम शर्म व हया और अस्मत व इफ्फत की इन्तेहाई अहमियत बयान करता है, इस्लाम चाहता है कि माशरे में इन चीज़ों की ख़ूब हिफ़ाज़त हो, यही वो असल और मक़सद है जिसके तहत सतर व हिजाब और लिबास के अहकाम दिए गए हैं और इस मामले में मर्द और औरत में फर्क रखा है, हिजाब और पर्दे के अहकामात खालिस औरतों के लिए हैं और उनमें भी मेहरम और ना-मेहरम का फ़र्क रखा गया है, सूरह नूर में इस ताल्लुक़ से एक तवील आयत वारिद हुई है,* 

*★_ इस वक्त सतर व हिजाब की बुनियाद पर इस फ़र्क़ व तफावुत को वाज़ेह करने का मक़सद ये है कि दीनी फ़राइज़ के ऊपर की जो दो मंज़िलें हैं उनमें मर्द व औरत में जो फ़र्क़ व तफावुत है वो असलन इसी बुनियाद पर है कि माशरे में शर्म व हया का माहोल बरक़रार रहे और अस्मत व इफ़्फ़त और पाक दामनी की पूरी पूरी हिफ़ाज़त का बंदोबस्त किया जाए,* 

*★_ पहली मंज़िल पर भी जो फ़र्क है वो इस बुनियाद पर है कि इस्लाम ये नहीं चाहता कि मर्दो और औरतें में बिला जरूरत कोई इख्तिलात या आपस में मिलना जुलना हो, चुनांचे इस्लाम दोनों के लिए अलहैदा अलहैदा दायरा क़ायम करता है और दोनों की ज़िम्मेदारियां और फ़राइज़ का अलहैदा अलहैदा ताईन करता है,* 

*★_ नमाज़ के ज़िमन में आख़िर ये फ़र्क़ क्यों किया गया कि मर्दों की नमाज़ घर की निस्बत मस्जिद में अफ़ज़ल है, जबकि औरत की नमाज़ घर के अंदर और घर की भी अंदरुनी कोठरी में ज़्यादा अफ़ज़ल है और मस्जिद में उनकी आमद पसंदीदा नहीं है, इसका सबब यही है कि इसमे इख्तिलात मेल जोल का एक इमकान पैदा होता है, रास्ते चलते, मस्जिद को आते जाते मर्दों से मुलाक़ात होना, मस्जिद के अंदर भी चाहे कितना ही अहतमाम कर लिया जाए मगर इसका अंदेशा रहता कि कहीं कोई बेहिजाबी की कैफ़ियत पैदा न हो जाए या किसी मेहरम की नज़र न पड़ जाए,*
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*⊙__(2) दूसरी मंजिल - दावत व तबलीग के तीन दायरे-,

*★_ दूसरी मंजिल पर दावत व तबलीग की जिम्मेदारी है, इसके ज़िमन में हमारे दीन ने जो आम तरतीब सिखाई है वो ये उसूल है कि इस्लाह का काम पहले अपने आपसे शुरू किया जाए, फिर घर वालो की इस्लाह की फ़िक्र की जाए और उसके बाद दूसरे लोगों पर दावत व तबलीग का काम किया जाए, लेकिन अगर कोई शख़्स सात समंदर पार जा कर तबलीग़ कर रहा हो जबकि उसके अपने घर मे दीन का मामला तसल्ली बख्श ना हो तो दर हक़ीक़त ये ग़लत तरतीब है, जिसकी वजह से वो बरकात ज़ाहिर नहीं होती जो नबी करीम ﷺ और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम की तबलीग से ज़ाहिर हुई,* 

*★_ अब इस तरतीब को सामने रखें तो एक नतीजा ये निकलता है कि ख़्वातीन के लिए दावत तबलीग, नसीहत और इस्लाह का अव्वलीन दायरा उनका अपना घर है, उनके अपने बच्चों की तालीम, तरबियत और इस्लाह करना उनकी जिम्मेदारी है, इसके आगे बढ़ कर ख़्वातीन का हलका और इसके मजीद आगे मेहरम मर्दों का हलका आएगा, बस इन तीन हल्कों में ख्वातीन को दावत तबलीग के फराइज सर अंजाम देने हैं,* 

*★_ सबसे पहले हल्के के बारे में सूरह तहरीम में फरमाया गया- अपने आपको और अपने घर वालों को जहन्नम की आग से बचाओ! इस ज़िमन में रसूलुल्लाह ﷺ की ये हदीस भी पेशे नज़र रहनी चाहिए, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि मैंने रसूलुल्लाह ﷺ को ये फ़रमाते सुना - तुममें से हर शख़्स गल्लाबान है और तुममे से हर शख़्स अपने गल्ले के बारे में जवाबदेह है, यानि जिस तरह हर चरवाहे की ज़िम्मेदारी में कुछ भेड़ बकरियों पर मुश्तमिल एक गल्ला होता है और वो चरवाहा घर से उस गल्ले को ले जाने और बा हिफ़ाज़त वापस लाने का ज़िम्मेदार होता है, उसी तरह हर शख़्स की हैसियत एक गल्लाबान की सी है और जो कुछ उसके चार्ज में है, उसके बारे में सवाल का ज़िम्मेदार है,* 

*★_ चुनांचे आन हज़रत ﷺ ने इरशाद फरमाया- और आदमी अपने घर वालों पर निगरां है, और वो अपनी उसी रैयत के बारे में जवाबदेह है, यानि उससे अल्लाह के यहां ये पूछा जाएगा कि उस पर उसके घर वालो की इस्लाह व तरबियत और दूसरे हुकूक की अदायगी की जो ज़िम्मेदारी डाली गई थी वो उसने किस हद तक अदा की थी, इसके बाद हुजूर ﷺ ने फरमाया - और औरत अपने शोहर के घर पर निगरां है और उससे उसकी रैयत के मुताल्लिक़ पूछा जायेगा_,*

*"★_ और ज़ाहिर बात है कि उसकी रैयत में उसकी औलाद उसका मिस्दाक ए अव्वल है और एक रिवायत में तो अल्फाज ही ये आए हैं- और औरत अपने शोहर के अहले खाना और उसकी औलाद पर निगरां है और वो उनके बारे में जवाबदेह है _ ,* 
*"_ यानि उसके घर के दीगर अफ़राद और बांदियां और गुलाम वगेरा भी उसकी निगरानी और ज़िम्मेदारी में होंगे, मगर असल ज़िम्मेदारी औलाद की है, (ये हदीस सही बुखारी की है और ज़रा से लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ के साथ इसे मुस्लिम, तिर्मिज़ी और अबू दाऊद ने भी रिवायत किया है),* 

*★_ ये मामला वक़ियतन निहायत अहम है, क्योंकि अगर हम गोर करें तो किसी भी कौम का मुस्तक़बिल उसकी आइंदा नस्ल से वाबस्ता है और उसका सारा बोझ अल्लाह ताला ने औरत पर डाला है, उसकी पैदाइश के अलावा उसकी परवरिश का भी असल बोझ औरत ही पर है, वही तो है कि जो बच्चों की परवरिश की खातिर सबसे बड़ कर अपनी नींदें हराम करती है और अपने आराम की कुर्बानी देती है, फिर उनकी तालीम की अव्वल ज़िम्मेदारी भी उसी पर आइद होती है, बच्चे की सबसे पहली तालीमगाह दर हकीकत माँ की गोद है,* 

*★_बच्चे को गोद में ले कर माँ जब कुरान पढ़ती है तो बच्चा उसे सुनता है, ये चीजें गैर महसूस तरीक़े से मुंतकिल होती है, आखिर हमें ये तालीम दी गई है कि बच्चा जब पैदा हो तो उसके दांये कान में अज़ान और बांये कान में अका़मत कहीं जाए तो उसका कोई न कोई असर तो लाज़मन होता है, ये तो हो ही नहीं सकता कि हमें कोई हुक्म दिया गया हो और उसकी कोई अफादियत या इल्लत ना हो,* 
*"_ इसी तरह अगर एक मां अपने बच्चे को गोद में लिए बेठी कुरान की तिलावत कर रही हो तो मुमकिन नहीं है कि उस कुरान के असरात बच्चे की शख़्सियत पर न पड़े,* 

*★_ तो ख्वातीन की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी अपनी औलाद की तरबियत है, और उनसे सबसे कड़ा सवाल औलाद ही के बारे में होगा, लिहाज़ा इस अहम ज़िम्मेदारी की कीमत पर यानी इसको नज़र अंदाज करते हुए या उसमें कोताही करते हुए कोई और काम करना क़त'अन जा'इज़ नहीं है, अलबत्ता अगर अल्लाह ता' ला ऐसे हालात पैदा कर दे कि औलाद की ज़िम्मेदारियां पूरी करने के बाद भी वक्त बच रहा हो तो फिर उन्हें मजी़द मेहनत करनी चाहिए, खास तोर पर जवान खवातीन, जिनके बच्चे अभी छोटे हों और औलाद की पैदाइश का सिलसिला अभी जारी हो, आज के दौर में उनकी ज़िम्मेदरियां इतनी कठिन हैं कि उन्हें पूरा करने के बाद बहुत कम वक्त बचता है, लेकिन जो भी वक्त बचे वो आराम की कुर्बानी दें और दूसरे क़रीबी हल्के़ में दावत का काम करें, लेकिन इसकी खातिर औलाद को नज़र अंदाज करना क़त'अन जाइज़ नहीं,*
 
*★_ अपनी औलाद की तरफ से बे तवज्जोही और लापरवाही का नतीजा ये निकलता है कि उनकी तरबियत सही तोर पर नहीं हो पाती और ला मुहाला माहोल के असरात उन पर मुरत्तब हो कर रहते हैं और उनकी ज़ेहनियत व ख्यालात मा'शरे के रंग से लाज़मन मुतास्सिर होते हैं, और आज का बच्चा तो इल्हाद, कुफ़्र, बेहयाई और इरयानी इन सब ख़राबियों की ज़द में है, मोबाइल इंटरनेट सोशल मीडिया टीवी उसके सामने है और वो उनकी यलगार की ज़द में है,* 

*★_जहाँ तक दूसरे दायरे यानि घर से बाहर निकल कर दूसरी ख़्वातीन में दावत व तबलीग और दर्स व तदरीस का ताल्लुक़ है तो मेरे ख्याल में इसके लिए मुनज़्ज़म कोशिश वक्त की अहम ज़रूरत है, अलबत्ता इसके लिए ऐसी ख़्वातीन को ज़्यादा फाल होना चाहिए जो अधेड़ उम्र की है, और उनके लिए हिजाब के अहकामात में भी वो शिद्दत नहीं है, बड़ी उमर की ख्वातीन के लिए सूरह नूर (आयत-40) में फरमाया गया कि उन पर कोई हर्ज नहीं अगर वो अपनी चादरें उतार कर रख भी दिया करे! यानि सतर की शिद्दत तो बरक़रार रहेगी मगर पर्दे और हिजाब के जिमन में उन पर अब वो शिद्दत पाबंदियां नहीं है जो एक नोजवान औरत पर है,* 

*★_ ऐसी ख़्वातीन के पास अगर वक़्त फ़ारिग़ हों तो उन्हें दीन के कामो में ज्यादा हिचकिचाना नहीं चाहिए, तवील सफर के लिए तो जाहिर है कि मेहरम का साथ होना ज़रूरी है, मगर शहर के अंदर अगर ख्वातीन के अपने हल्के़ में दावत व तबलीग के लिए नक़ल व हरकत हो रही हो तो उन्हें अपने तमाम अहतयात के साथ उन दीनी उमूर में जरूर हिस्सा लेना चाहिए,* 

*★_ जहां तक जवान लड़कियों का ताल्लुक़ है, उनके लिए इसमें भी बड़े खतरात हैं, इस मा'शरे में उनका अकेला बाहर निकलना सिरे से जाइज नहीं, वो ख़्वातीन जिन पर औलाद वगेरा की ज़िम्मेदारियां ना हों या इस ज़िमन में अपनी ज़िम्मेदारियां अदा करने के बाद भी उनके पास वक़्त फ़ारिग हो तो सतर व हिजाब की पूरी पाबंदी करते हुए इन सरगर्मियों में हिस्सा ले सकती हैं, बशर्ते कि जब बाहर निकलें तो मेहरम साथ हो,* 

*★_ मै समझता हूं कि इस हम जिस माशरती तूफान से दो चार हैं, उसमें जब तक कोई मुनज्जम कोशिश नहीं होगी, माहोल के असरात से बचना मुश्किल है, चुनांचे मज़कूरा बाला शराइत के साथ खवातीन अगर अपना हलका़ मुनज्जम करें, उनके अपने इज्तिमात और तालीम का निज़ाम क़ायम हो, जिसमें तालीम व ताल्लुम कुरान व अरबी ज़ुबान की दर्स व तदरीस के अलावा दावत व तबलीग और तज़कीर व तलक़ीन का एहतमाम हो तो ये यक़ीनन मतलूब है,*

*★_ख़्वातीन की तालीमी व तरबियती और दावती व तबलीगी सरगर्मियों का तीसरा हलका़ उनके मेहरम मर्दों पर मुश्तमिल है, यानि उनके भाई, वालिद, चाचा, मामू, भतीजे, और भांजे वगैरा, यहां ये वज़ाहत जरूरी है कि शोहर के भतीजे, भांजे मेहरम नहीं, ना-मेहरम है, तो मेहरम मर्दों में दावत व इस्लाह का काम भी होना चाहिए,* 

*★_ इसके लिए ऐसा अक्सर देखने में आ रहा है कि हमारी जो पिछली नस्ल है, उस पर मगरिब के असरात ज़्यादा हैं, अब जबकि दीनी जमाअतो और तहरीकों के ज़रिये दीन का चर्चा हर तबके में बढ़ गया है तो हमें नज़र आता है कि नोजवान लड़को के चेहरे पर डाढ़ियां है लेकिन उनके वालिद और दादा क्लीन शेव नज़र आते हैं, ये उल्टी गंगा इसलिए बह रही है कि इस नोजवान नस्ल पर तबलीगी जमात और दीगर दीनी तरीकों के असरात पड़े हैं, जबकि पिछली नस्ल असरात से खाली है,* 

*★_ इसी तरह अब नोजवान नस्ल के अंदर ऐसी लड़कियों की तादाद ज़्यादा नज़र आती है जो सतर व हिजाब की पाबंदी करना चाहती है, लेकिन उनके वाल्देन के यहां ये तसव्वुर नहीं है, तो उनके लिए अपने वालिद, भाईयों और दीगर मेहरमों को तबलीग़ करना और उनको सही रास्ते की तरफ बुलाना मुकद्दम है, औरत के लिए ये दावत तबलीग का तीसरा मैदान है,* 

*★_ जो नोजवान लड़कियां और ख्वातीन घर घर जा कर दावत व तबलीग के लिए राब्ते करती हैं, अगरचे वो ये काम पर्दे के साथ करती हैं, जो अपनी जगह काबिले तारीफ बात है लेकिन नोजवान बच्चियों का इस तरह अजनबी घरों में जाना बड़ी नामुनासिब बात है, क्योंकि हमारा दीन ख्वातीन को अजनबी औरतों के साथ मेल जोल से भी मना करता है, मुसलमान ख्वातीन के लिए अजनबी औरतें भी मेहरम नहीं हैं _,* 

*★_ क्योंकि सूरह नूर में मेहरमों की जो फेहरिस्त आई है उसमें फरमाया गया अपनी औरतें, जानी पहचानी औरतें, मारूफ औरतें जिनके किरदार के बारे में मालूम है कि शरीफ ख्वातीन हैं, वर्ना हो सकता है कि कोई अजनबी औरत जो घर में चली आ रही हो किसी बुरी नियत से आ रही हो, तो इस्लाम की रु से अजनबी औरतों को अपने घर में भी इस तरह बेमुहाला दाख़िल होने की इजाज़त नहीं दी जा सकती, इसमे यक़ीनन बहुत से फ़ितने और ख़तरात मोजूद हैं, बहरहाल दावत व तबलीग की ज़मीन में एक मुसलमान खातून के लिए यही तीन दायरे है,*
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*⊙_(3)_तीसरी मंजिल - अकामाते दीन की जद्दो जहद और ख़्वातीन :- 

*★_ अब आईए तीसरी मंजिल की तरफ, ये अका़माते दीन की मंजिल है, लेकिन ये वो ज़िम्मेदारी है जिसमें इन्तेहाई नागुजे़र हालात और हंगामी सूरते हाल के सिवा अल्लाह ने ख़्वातीन को बरी किया है, इस ज़िमन में जो मुगालता है उसे समझाना जरूरी है,* 

*★_ हज़रत अस्मा बिन्ते यज़ीद (रज़ियल्लाहु अन्हा) का वाक़िया इस ज़िमन में बहुत अहम है, हमारे यहां बहुत सी ख़्वातीन में जब दीनी जज़्बा पैदा होता है तो वो अपनी हुदूद से तजावुज़ कर जाती है, और ये ख़्वातीन खुद दीन की तरफ से आइद करदा पाबंदियों की रियायत ना रखते हुए अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों में कोताही करते हुए और बच्चों की परवरिश के फरीजे़ को पामाल करते हुए दीन का काम करना चाहती है, ऐसी ख्वातीन के लिए सीरत का ये वाक़िया निहायत फैसला कुन और सबक आमूज़ है,* 

*★_ हज़रत असमा बिन्ते यज़ीद एक अंसारिया ख़ातून हैं और मशहुर सहाबी हज़रत मा'ज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु की फ़ूफ़ीज़ाद बहन हैं, इनके मुताल्लिक रिवायत हैं कि वो एक मर्तबा नबी करीम ﷺ की खिदमत में हाज़िर हुईं और अर्ज़ किया कि मुझे औरतों की एक जमात ने अपना नुमाइंदा बना कर भेजा है, वो सबकी सब वहीं कहती हैं जो मैं अर्ज़ करती हूं और सब वही राय रखती हैं जो मैं आपके सामने पेश कर रही हूं, अर्ज़ ये है कि:-* 

*★_ आपको अल्लाह तआला ने मर्दों और औरतों दोनों के लिए रसूल बना कर भेजा है, चुनांचे हम आप पर ईमान लाएं हैं और हमने आपकी पेरवी की, लेकिन हम औरतों का हाल ये है कि हम पर्दों के अंदर रहने वालियां और घरों के अंदर बैठने वालियां हैं, हमारा काम ये है कि मर्द हमसे अपनी ख्वाहिश पूरी कर लें और हम उनके बच्चे लादे फिरें, मर्द जुमा व जमात, जनाज़ा, अल्लाह के रास्ते में हर चीज़ की हाजिरी में हमसे सबक़त ले गए, वो जब अल्लाह के रास्ते मे जाते हैं तो हम उनके घर बार की हिफाज़त करती हैं और उनके बच्चों को संभालती हैं, तो क्या अजर मे भी हमको उनके साथ हिस्सा मिलेगा?* 
*★_ आन हज़रत ﷺ ने उनकी ये फसीह व बलीग तक़रीर सुनने के बाद सहाबा की तरफ मुतवज्जह हो कर फरमाया - क्या आप लोगों ने इससे ज़्यादा भी किसी औरत की उम्दा तक़रीर सुनी है, जिसने अपने दीन की बाबत सवाल किया हो ?* 
*"_ तमाम सहाबा ने क़सम खा कर इक़रार किया कि नहीं या रसूलुल्लाह ﷺ, इसके बाद आन हज़रत ﷺ हज़रत असमा की तरफ मुतवज्जह हुए और फरमाया :
_ ऐ असमा! मेरी मदद करो और जिन औरतों ने तुम्हें अपना नुमाइंदा बना कर भेजा है उन तक मेरा ये जवाब पहुंचा दो कि तुम्हारा अच्छी तरह खानादारी करना, अपने शोहरों को खुश रखना और उनके साथ साज़गारी करना मर्दों के उन सारे कामों के बराबर है जो तुमने बयान किये हैं _,* 
*"_ हज़रत असमा रज़ियल्लाहु अन्हा रसूलल्लाह ﷺ की ये बात सुन कर ख़ुश ख़ुश अल्लाह का शुक्र अदा करती हुई वापस लौट गई और उन्होंने इस पर किसी इन्क़िबाज़ का इज़हार नहीं किया,* 

*★_ इस वाक़िए में हमारी ख़्वातीन के लिए ये सबक़ है कि हमारी मेहनत व कोशिश का असल मक़सद तो ये है कि हम अल्लाह के यहां अपनी ज़िम्मेदारी से बरी ज़िम्मे हो जाएं, अल्लाह ताला ने अगर कोई ज़िम्मेदारी हम पर डाली ही नहीं तो ख्वाह मख़्वाह अपने ऊपर उस ज़िम्मेदारी का बोझ लाद लेना अपनी जान पर ज़ुल्म करना है, और ये ऐसा तर्ज़े अमल है कि कोई शख़्स अगर किसी ऐसी ज़िम्मेदारी को अख्तियार कर ले जिसका उसको हुक्म नहीं किया गया तो फिर अल्लाह ताला भी उसे उस ज़िम्मेदारी के हवाले कर देता है और फिर उसमें अल्लाह की मदद, नुसरत और ताईद शमिले हाल नहीं होती, और आदमी अगर हद से तजावुज़ कर जाए तो अंदेशा है कि जन्नत की तरफ जाने के बजाए जहन्नम की तरफ़ पेश क़दमी हो जाए,* 

*★_ अलबत्ता ख्वातीन से मुतालबा ये है कि वो इस मेहनत में मर्दों की मुईन व मददगार हों, बच्चों की परवरिश और तालीम व तरबियत को अपनी ज़िम्मेदारी समझें और मर्दों पर इसका ज़्यादा बोझ ना पड़ने दें और मर्दों के लिए इस रास्ते में ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त फ़ारिग़ करना मुमकिन बनाएं, उन पर अपनी फरमाइशों का बोझ इस तरह न लादें कि वो इन्ही मसाइल में उलझ कर रह जाएं और दीन की सर बुलंदी के लिए कोशिश ना कर सके,* 

*★_ ख़्वातीन अगर इन उमूर को मद्दे नज़र रखते हुए शोहरों से तावून करें तो ये उनकी तरफ से अक़ामाते दीन की कोशिश का बदल बन जाएगा और उनके लिए अजरे कसीर और सवाबे अज़ीम का बा'इस होगा और ख़्वातीन के लिए इससे बढ़ कर ख़ुश आइंदा बात और क्या हो सकती है कि उन्हें घर बैठे बिठाए मर्दों के बराबर अजरो सवाब मिल जाए,*
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*⊙__मर्दो और ख़्वातीन की बैत का फ़र्क़:-* 

*★_ मर्दों और औरतों के दीनी फ़राइज़ के ज़िमन में एक अहम फ़र्क़ बैत का है, आपके इल्म में होगा कि आन हज़रत ﷺ ने अका़माते दीन के लिए जो बैत ली वो सिर्फ मर्दों से ली, जो बहुत सख्त बैत है, ये बैत उक़बा सानिया कहलाती है, जिसमें हर हाल में अमीर के हुक्म की पाबंदी का अहद है, ख्वाह तंगी हो ख्वाह आसानी और ख्वाह तबियत इसके लिए अमादा हो, ख्वाह तबियत पर जबर करना पड़े, फिर इसमे दर्जा बा दर्जा तमाम अमीरों के हुक्म की पाबन्दी करना भी शामिल है,* 

*★_ लेकिन जहां तक ख्वातीन की बैत का ताल्लुक़ है तो अगरचे बैते उक़बा सानिया के ज़िमन में तो ना सराहतन मज़कूर है कि वो इस बैत में शरीक नहीं थी, ना ही ये कि उनसे कोई बैत ली गई हो (हालांकी उस मोके पर दो खवातीन की मोजूदगी कत'ई तोर पर साबित है) अलबत्ता कुरान व सुन्नत में खवातीन की जो बैत मजकूर है वो दर असल नेकी और तक़वा की बैत है, जो कुफ्र व शिर्क, बुराइयों, हराम कामो, झूठ, चोरी, ज़िना और तोहमत व बोहतान तराशी के साथ-साथ आन हज़रत ﷺ की नाफरमानी से बचने का अहद भी शामिल है,* 

*★_ और इसके अल्फ़ाज़ तकरीबन वही हैं जो बैते उकबा सानिया से एक साल पहले होने वाली बैते उकबा अवला के ज़िमन में वारिद हुए हैं, जो यसरिब के 12 मुसलमान मर्दों से ली गई थी, इससे साबित होता है कि जमाअती निज़ाम की पाबंदियों के मामले में मर्दों और औरतों की ज़िम्मेदारी यक़सां और बराबर नहीं है और इसका बराहे रास्त ताल्लुक़ है इस हक़ीक़त से कि फ़राइज़ ए दीनी की तीसरी और बुलंद तरीन मंजिल यानि अका़माते दीन की मेहनत में खवातीन की ज़िम्मेदारी बराहे रास्त नहीं, बिल वास्ता है,*
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*⊙_ जमाती जिंदगी... दोनों के लिए जरूरी है!*

*★_ जहां तक जमाती ज़िंदगी का ताल्लुक़ है इसके बारे में मेरा अहसास यह है कि जिस तरह यह मर्दों के लिए ज़रूरी है उसी तरह ख्वातीन के लिए भी जरूरी है, इसलिए कि जमाती जिंदगी में एक बरकत है, इससे नेकी व भलाई का माहोल पेदा होता है और दूसरे साथियों को अच्छे काम और नेकियों में आगे बढ़ते देख कर अपना हौसला भी बढ़ता है,*  

*★_जब आप देखते हैं कि आपके किसी रफीक या रफीका ने अपने घर में होने वाले किसी गलत काम को तर्क कर दिया है या तर्क करवा दिया है, तो आपमें भी ऐसा करने का जज़्बा और हौसला पैदा होता है, चुनांचे जमाती जिंदगी की बरकातो और फ़ायदो से औरतों को भी महरूम नहीं रखा गया, इसके लिए सूरह तौबा की आयत का मुताला कीजिए, फ़रमाया- मोमिन मर्द और मोमिन औरतें आपस में एक दूसरे के मददगार हैं, वो नेकी का हुक्म देते हैं और बदी से रोकते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात अदा करते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करते हैं, ये वो हैं कि जिन पर अल्लाह तआला रहम फरमायेगा, यक़ीनन अल्लाह तआला ज़बरदस्त और हिकमत वाला है_,* 

*★_ और ये जमाती माहोल की बरकतों ही का मज़हर है कि हुज़ूर ﷺ ने ख्वातीन से भी बैत ली, नतीजतन ख्वातीन में भी ये अहसास पैदा हो गया कि हम एक इज्तिमाइयत में शरीक हैं, हमारा किसी के साथ कोई रब्त व ताल्लुक है, हमें इनके अहकामात सुन कर उन पर अमल करना है, नेकी के काम करना है, क्योंकि हमने क़ौल व क़रार किया है, इससे खुद अहतसाबी का जज़्बा भी पैदा होता है कि अब अगर हम ये काम नहीं कर रहे तो गोया अपने अहद की ख़िलाफ़ वर्ज़ी कर रहे हैं',* 

*★_ चुनाचे हुज़ूर ﷺ ने हज़रत मा'ज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु से एक मरतबा फरमाया था, मेरे क़रीब आ जाओ, फिर फरमाया, मेरे और करीब आ जाओ! तो इस तरह हमें कोशिश करनी चाहिए कि हुजूर ﷺ का जो तरीक़ा व उस्वाह था उससे करीब से करीबतर रहने की इम्कानी कोशिश जारी रखे, अल्लाह ताला हमें इन ज़िम्मेदारियों को कमा हक़्का़ अदा करने की हिम्मत और तौफीक अता फरमाये जो उसने हम पर आइद की है!*

 *$___ अल्हम्दुलिल्लाह पोस्ट मुकम्मल हुई _,*
 
*📗 मुस्लिम ख़्वातीन के दीनी फ़राइज़ ( डाॅ इसरार अहमद साहब) _,*
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